"इंडियन होमरूल लीग": अवतरणों में अंतर
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[[बाल गंगाधर तिलक]] ने 1914-15 को संसदीय कार्यों की व्यावहारिक शिक्षा हेतु [[मद्रास]] में 'पार्लियामेंट' की स्थापना की और [[बम्बई]] में [[कांग्रेस]] के नेताओं की बैठक आयोजित कर 'इंडियन होमरूल' के लिए आंदोलन करने को कहा। कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं हुई तो तिलक ने स्वयं यह कार्य को अपने हाथ में लिया और 1916 में 'होमरूल लीग' की स्थापना की। | |चित्र=Indian-Homerule-Leage.jpg | ||
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|विवरण=[[जून]] [[1914]] में जेल से रिहा हुए बाल गंगाधर तिलक सहित 'भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं' ने सरकार के युद्ध प्रयासों का समर्थन करने का निर्णय किया। ऐसा ब्रिटिश उद्देश्यों के प्रति निष्ठा या सहानुभूति की भावना के कारण किया गया। | |||
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[[बाल गंगाधर तिलक]] ने [[1914]]-[[1915|15]] को संसदीय कार्यों की व्यावहारिक शिक्षा हेतु [[मद्रास]] में 'पार्लियामेंट' की स्थापना की और [[बम्बई]] में [[कांग्रेस]] के नेताओं की बैठक आयोजित कर 'इंडियन होमरूल' के लिए आंदोलन करने को कहा। [[कांग्रेस]] इसके लिए तैयार नहीं हुई तो तिलक ने स्वयं यह कार्य को अपने हाथ में लिया और [[1916]] में 'होमरूल लीग' की स्थापना की। | |||
<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा- '''बाल गंगाधर तिलक'''</span></blockquote>नारे के साथ [[इंडियन होमरूल लीग]] की स्थापना की। सन् 1916 ई. में वह फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए तथा [[हिंदु|हिंदुओं]] और [[मुसलमान|मुसलमानों]] के बीच हुए ऐतिहासिक [[लखनऊ समझौता|लखनऊ समझौते]] पर हस्ताक्षर किए। | |||
;नेहरु जी की ऑटोबॉयोग्राफी से | |||
[[जून]] [[1914]] में जेल से रिहा हुए तिलक सहित 'भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं' ने सरकार के युद्ध प्रयासों का समर्थन करने का निर्णय किया। ऐसा ब्रिटिश उद्देश्यों के प्रति निष्ठा या सहानुभूति की भावना के कारण किया गया। जैसा कि [[जवाहरलाल नेहरू]] ने अपनी 'ऑटोबॉयोग्राफी' में बतलाया है- | |||
<blockquote>"निष्ठा की ज़ोरदार घोषणा के बावजूद अंग्रेज़ों के प्रति कोई ख़ास सहानुभूति नहीं थी। जर्मन जीतों को सुनकर नरमपंथी और गरमपंथी समान रूप से खुश हुए। बेशक, जर्मनी के लिए कोई प्रेम भावना नहीं थी बल्कि उनके मन में अपने शासकों को धूल चाटते हुए देखने की इच्छा थी।"</blockquote> | |||
[[चित्र:Gandhi-Home-Rule-First-Edition-1909.jpg|thumb|left|[[महात्मा गाँधी]] द्वारा रचित 'हिंद स्वराज' का अंग्रेज़ी रुपांतरण 'इंडियन होम रुल']] | |||
;राष्ट्र्वादियों का दृष्टिकोण | |||
राष्ट्र्वादियों ने मुख्य रूप से इस ग़लत धारणा के कारण सक्रिय रूप से ब्रिटिश समर्थक रुख़ अपनाया कि कृतज्ञ [[ब्रिटेन]] [[भारत]] की निष्ठा का बदला एहसानमंदी से चुकाएगा और भारत को स्वराज्य के रास्ते पर डग भरने में सहायता देगा। उनको इस बात का पूरा अहसास नहीं था कि विभिन्न शक्तियाँ इस लिए लड़ रही हैं कि वे अपने तत्कालीन उपनिवेशों की रक्षा कर सकें। साथ ही, अनेक भारतीय नेताओं ने साफ़ तौर पर देखा कि तब तक सरकार द्वारा कोई वास्तविक रियाअतें देने की सम्भावना नहीं है, जब तक इस पर जनता का दबाब नहीं बढ़ाया जाए। इसलिए, एक वास्तविक 'राजनीतिक जन-आन्दोलन' ज़रूरी था। कुछ अन्य कारक भी 'राष्ट्रवादी आन्दोलन' को इसी दिशा में जाने के लिए प्रेरित कर रहे थे। विश्व युद्ध के दौरान [[यूरोप]] की साम्राज्यवादी शक्तियों में परस्पर संघर्ष हुए और उसने एशियाई जनगण की तुलना में पश्चिमी देशों के जातीय युद्ध के फलस्वरूप [[भारत]] के अधिक ग़रीब वर्गों की विपन्नता बढ़ गयी। उनके लिए युद्ध का मतलब था- करों का भारी बोझ तथा जीवन की दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं की बेलगाम बढ़ती हुई कीमतें। वे किसी भी जुझारू विरोध आंदोलन में शामिल होने के लिए तत्पर हो रहे थे। फलस्वरूप, युद्ध के [[वर्ष]] तीव्र राष्ट्रवादी राजनीतिक आंदोलन के भी वर्ष थे। | |||
;दो होमरूल लीग की स्थापना | |||
परंतु यह जन-आंदोलन [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] के नेतृत्व में नहीं चलाया जा सका, जो नरमपंथियों के नेतृत्व में एक निष्किय और गतिहीन राजनीतिक संगठन बन गयी थी और उसने जनता के बीच कोई सराहनीय राजनीतिक कार्य नहीं किया था। इसलिए, 1915-16 में 'दो होम रूल लीगों की स्थापना हुई। एक के नेता '''लोकमान्य तिलक''' थे और दूसरी का नेतृत्व [[एनी बेसेंट]], और '[[एस. सुब्रह्मण्य अय्यर]]' ने किया। दोनों होम रूल लीगों ने युद्ध के बाद भारत को होमरूल या स्वराज्य देने देने की मांग के पक्ष में सारे भारत में जोरदार प्रचार किया। इसी आन्दोलन के दौरान तिलक ने यह लोकप्रिय नारा दिया: '''स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूँगा।''' दोनों लीगों ने तेज़ी से प्रगति की और स्वराज्य का नारा सारे भारत में गूँज उठा। | |||
;क्रांतिकारी आंदोलन का विकास | |||
युद्ध काल के दौरान क्रांतिकारी आंदोलन का भी विकास हुआ। [[बंगाल]] और आतंकवादी दल सारे [[उत्तर भारत]] में फैल गए। अनेक भारतीयों ने [[ब्रिटिश साम्राज्य|अंग्रेज़ी राज]] का तख्ता उलटने के लिए हिंसात्मक विद्रोह की योजना बनानी आरम्भ कर दी। [[संयुक्त राज्य अमेरीका]] तथा कनाडा में रहने वाले भारतीय क्रांतिकारियों ने 1913 में '''ग़दर पार्टी''' की स्थापना की थी। पार्टी के अधिकांश सदस्य [[सिक्ख]] किसान और सैनिक थे मगर उनके नेता अधिकतर शिक्षित [[हिन्दू]] या [[मुसलमान]] थे। मेक्सिको, [[जापान]], फ़िलिपाइंस, मलाया, [[सिंगापुर]] [[थाईलैंड]], इंडोचीन और [[अफ्रीका|पूर्व तथा दक्षिण अफ्रीका]] जैसे अन्य देशों में भी पार्टी के सक्रिय थे। | |||
====ग़दर पार्टी==== | |||
[[चित्र:Ghadar-party-Flag.png|thumb|[[ग़दर पार्टी]] का ध्वज]] | |||
{{Main|ग़दर पार्टी}} | |||
ग़दर पार्टी ने [[भारत]] में [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी युद्ध करने की शपथ ली थी। [[1914]] में युद्ध के आरम्भ होते ही ग़दर पार्टी वालों ने तय किया कि हथियार और आदमी भारत भेजे जाएँ जिससे सैनिकों तथा स्थानीय क्रांतिकारियों की सहायता से विद्रोह शुरू किया जाए। कई हज़ार लोग भारत वापस जाने के लिए आगे आए। उनके खर्च को पूरा करने के लिए लाखों डॉलर की रकम चन्दे में मिली। अनेक लोगों ने अपनी ज़मीन-ज्यादाद बेचकर धन लगा दिया। ग़दर पार्टी वालों ने सुदूर-पूर्व, [[एशिया|दक्षिण-पूर्व एशिया]] तथा सारे भारत में भारतीय सैनिकों से सम्पर्क स्थापित किया तथा कई रेजिमेंटो को विद्रोह करने के लिए तैयार कर लिया। अंतत: [[21 फ़रवरी]] 1915 को [[पंजाब]] में हथियारबंद बगावत का दिन तय किया गया। दुर्भाग्यवश, अधिकारियों को इन योजनाओं का पता चल गया और उन्होंने तुरंत कार्यवाई की। विद्रोह के लिए तत्पर रेजिमेंटों को विघटित कर दिया गया तथा नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया या फाँसी पर लटका दिया गया। 23वें रिसाले के बारह आदमियों को मौत की सज़ा दी गयी। पंजाब में ग़दर पार्टी के नेताओं और सदस्यों की बड़े पैमाने पर गिरफ़्तार हुई तथा उन पर मुकदमा चलाया गया। उन में से 42 को फाँसी पर लटका दिया गया 114 को आजन्म काले पानी तथा 93 को कैद की लम्बी सज़ा दी गयी। उनमें से अनेक ने रिहा होने के बाद पंजाब में कीर्ति और कम्युनिस्ट आन्दोलनों की नींव रखी। ग़दर पार्टी के कुछ प्रमुख नेता थे - बाबा गुरुमुख सिंह, [[करतार सिंह सराभा]], [[सोहन सिंह भकना]], रहमत अली शाह, [[भाई परमानन्द]] और मोहम्मद बरकतुल्ला। | |||
{{दाँयाबक्सा|पाठ="निष्ठा की ज़ोरदार घोषणा के बावजूद अंग्रेज़ों के प्रति कोई ख़ास सहानुभूति नहीं थी। जर्मन जीतों को सुनकर नरमपंथी और गरमपंथी समान रूप से खुश हुए। बेशक, जर्मनी के लिए कोई प्रेम भावना नहीं थी बल्कि उनके मन में अपने शासकों को धूल चाटते हुए देखने की इच्छा थी।"|विचारक=[[जवाहरलाल नेहरू]]}} | |||
====सिंगापुर में विद्रोह==== | |||
ग़दर पार्टी से प्रेरित होकर [[सिंगापुर]] स्थित पांचवीं लाइट इंफ़ेंट्री के 700 सैनिकों ने जमादार चिस्ती खाँ और सूबेदार डंडे ख़ाँ के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। उन्हें एक कटु लड़ाई के बाद कुचल दिया गया, जिसमें कई लोग मरे। सैंतीस अन्य सैनिकों को सार्वजनिक रूप से फ़ाँसी पर लटका दिया गया जबकि 41 को आजन्म कारावास की सज़ा दे दी गयी। | |||
====एक असफ़ल क्रांतिकारी प्रयास==== | |||
अन्य क्रांतिकारी भारत तथा विदेशों में सक्रिय थे। एक असफ़ल क्रांतिकारी प्रयास के दौरान 1915 में [[जतीन्द्रनाथ मुखर्जी]] ने, जो '''बाधा जतिन''' के नाम से लोकप्रिय थे, बालासोर में पुलिस से लड़ते हुए अपनी जान दे दी। [[रासबिहारी बोस]], [[राजा महेंद्र प्रताप]], [[लाला हरदयाल]], अब्दुल रहमान, मौलाना औबैदउल्ला सिंधी, चम्पक रमण पिल्ले, सरदार सिंह राणा, और मैडम कामा के नाम उन कुछ भारतीयों में थे जिन्होंने भारत के बाहर क्रांतिकारी गतिविधियाँ चलायीं और प्रचार कार्य किए। | |||
===='इंडियन होमरूल लीग' के अध्यक्ष तिलक==== | |||
सन 1916 ई. में वह फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए तथा [[हिंदु|हिंदुओं]] और [[मुसलमान|मुसलमानों]] के बीच हुए ऐतिहासिक [[लखनऊ समझौता|लखनऊ समझौते]] पर हस्ताक्षर किए। जो उनके एवं [[पाकिस्तान]] के भावी संस्थापक [[मुहम्मद अली जिन्ना]] के बीच हुआ था, 'इंडियन होमरूल लीग' के अध्यक्ष के रूप में तिलक सन [[1918]] में [[इंग्लैंड]] गए। उन्होंने महसूस किया कि [[ब्रिटेन]] की राजनीति में 'लेबर पार्टी' एक उदीयमान शक्ति है, इसलिए उन्होंने उसके नेताओं के साथ घनिष्ठ संबंध क़ायम किए। उनकी दूरदृष्टि सही साबित हुई। सन 1947 ई. में 'लेबर सरकार' ने ही [[भारत]] की स्वतंत्रता को मंज़ूरी दी। तिलक पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा था कि '''भारतीयों को विदेशी शासन के साथ सहयोग नहीं करना चाहिए''', इस बात से वह बराबर इंकार करते रहे कि उन्होंने हिंसा के प्रयोग को उकसाया। | |||
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08:18, 14 जनवरी 2020 के समय का अवतरण
इंडियन होमरूल लीग
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विवरण | जून 1914 में जेल से रिहा हुए बाल गंगाधर तिलक सहित 'भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं' ने सरकार के युद्ध प्रयासों का समर्थन करने का निर्णय किया। ऐसा ब्रिटिश उद्देश्यों के प्रति निष्ठा या सहानुभूति की भावना के कारण किया गया। |
स्थापना | 1916 |
अध्यक्ष | बाल गंगाधर तिलक |
ग़दर पार्टी | ग़दर पार्टी ने भारत में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी युद्ध करने की शपथ ली थी। 1914 में युद्ध के आरम्भ होते ही ग़दर पार्टी वालों ने तय किया कि हथियार और आदमी भारत भेजे जाएँ जिससे सैनिकों तथा स्थानीय क्रांतिकारियों की सहायता से विद्रोह शुरू किया जाए। |
संबंधित लेख | महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू |
अन्य जानकारी | तिलक पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा था कि भारतीयों को विदेशी शासन के साथ सहयोग नहीं करना चाहिए और इस बात से वह बराबर इंकार करते रहे कि उन्होंने हिंसा के प्रयोग को उकसाया। |
बाल गंगाधर तिलक ने 1914-15 को संसदीय कार्यों की व्यावहारिक शिक्षा हेतु मद्रास में 'पार्लियामेंट' की स्थापना की और बम्बई में कांग्रेस के नेताओं की बैठक आयोजित कर 'इंडियन होमरूल' के लिए आंदोलन करने को कहा। कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं हुई तो तिलक ने स्वयं यह कार्य को अपने हाथ में लिया और 1916 में 'होमरूल लीग' की स्थापना की।
स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा- बाल गंगाधर तिलक
नारे के साथ इंडियन होमरूल लीग की स्थापना की। सन् 1916 ई. में वह फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए तथा हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हुए ऐतिहासिक लखनऊ समझौते पर हस्ताक्षर किए।
- नेहरु जी की ऑटोबॉयोग्राफी से
जून 1914 में जेल से रिहा हुए तिलक सहित 'भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं' ने सरकार के युद्ध प्रयासों का समर्थन करने का निर्णय किया। ऐसा ब्रिटिश उद्देश्यों के प्रति निष्ठा या सहानुभूति की भावना के कारण किया गया। जैसा कि जवाहरलाल नेहरू ने अपनी 'ऑटोबॉयोग्राफी' में बतलाया है-
"निष्ठा की ज़ोरदार घोषणा के बावजूद अंग्रेज़ों के प्रति कोई ख़ास सहानुभूति नहीं थी। जर्मन जीतों को सुनकर नरमपंथी और गरमपंथी समान रूप से खुश हुए। बेशक, जर्मनी के लिए कोई प्रेम भावना नहीं थी बल्कि उनके मन में अपने शासकों को धूल चाटते हुए देखने की इच्छा थी।"
- राष्ट्र्वादियों का दृष्टिकोण
राष्ट्र्वादियों ने मुख्य रूप से इस ग़लत धारणा के कारण सक्रिय रूप से ब्रिटिश समर्थक रुख़ अपनाया कि कृतज्ञ ब्रिटेन भारत की निष्ठा का बदला एहसानमंदी से चुकाएगा और भारत को स्वराज्य के रास्ते पर डग भरने में सहायता देगा। उनको इस बात का पूरा अहसास नहीं था कि विभिन्न शक्तियाँ इस लिए लड़ रही हैं कि वे अपने तत्कालीन उपनिवेशों की रक्षा कर सकें। साथ ही, अनेक भारतीय नेताओं ने साफ़ तौर पर देखा कि तब तक सरकार द्वारा कोई वास्तविक रियाअतें देने की सम्भावना नहीं है, जब तक इस पर जनता का दबाब नहीं बढ़ाया जाए। इसलिए, एक वास्तविक 'राजनीतिक जन-आन्दोलन' ज़रूरी था। कुछ अन्य कारक भी 'राष्ट्रवादी आन्दोलन' को इसी दिशा में जाने के लिए प्रेरित कर रहे थे। विश्व युद्ध के दौरान यूरोप की साम्राज्यवादी शक्तियों में परस्पर संघर्ष हुए और उसने एशियाई जनगण की तुलना में पश्चिमी देशों के जातीय युद्ध के फलस्वरूप भारत के अधिक ग़रीब वर्गों की विपन्नता बढ़ गयी। उनके लिए युद्ध का मतलब था- करों का भारी बोझ तथा जीवन की दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं की बेलगाम बढ़ती हुई कीमतें। वे किसी भी जुझारू विरोध आंदोलन में शामिल होने के लिए तत्पर हो रहे थे। फलस्वरूप, युद्ध के वर्ष तीव्र राष्ट्रवादी राजनीतिक आंदोलन के भी वर्ष थे।
- दो होमरूल लीग की स्थापना
परंतु यह जन-आंदोलन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में नहीं चलाया जा सका, जो नरमपंथियों के नेतृत्व में एक निष्किय और गतिहीन राजनीतिक संगठन बन गयी थी और उसने जनता के बीच कोई सराहनीय राजनीतिक कार्य नहीं किया था। इसलिए, 1915-16 में 'दो होम रूल लीगों की स्थापना हुई। एक के नेता लोकमान्य तिलक थे और दूसरी का नेतृत्व एनी बेसेंट, और 'एस. सुब्रह्मण्य अय्यर' ने किया। दोनों होम रूल लीगों ने युद्ध के बाद भारत को होमरूल या स्वराज्य देने देने की मांग के पक्ष में सारे भारत में जोरदार प्रचार किया। इसी आन्दोलन के दौरान तिलक ने यह लोकप्रिय नारा दिया: स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूँगा। दोनों लीगों ने तेज़ी से प्रगति की और स्वराज्य का नारा सारे भारत में गूँज उठा।
- क्रांतिकारी आंदोलन का विकास
युद्ध काल के दौरान क्रांतिकारी आंदोलन का भी विकास हुआ। बंगाल और आतंकवादी दल सारे उत्तर भारत में फैल गए। अनेक भारतीयों ने अंग्रेज़ी राज का तख्ता उलटने के लिए हिंसात्मक विद्रोह की योजना बनानी आरम्भ कर दी। संयुक्त राज्य अमेरीका तथा कनाडा में रहने वाले भारतीय क्रांतिकारियों ने 1913 में ग़दर पार्टी की स्थापना की थी। पार्टी के अधिकांश सदस्य सिक्ख किसान और सैनिक थे मगर उनके नेता अधिकतर शिक्षित हिन्दू या मुसलमान थे। मेक्सिको, जापान, फ़िलिपाइंस, मलाया, सिंगापुर थाईलैंड, इंडोचीन और पूर्व तथा दक्षिण अफ्रीका जैसे अन्य देशों में भी पार्टी के सक्रिय थे।
ग़दर पार्टी
ग़दर पार्टी ने भारत में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी युद्ध करने की शपथ ली थी। 1914 में युद्ध के आरम्भ होते ही ग़दर पार्टी वालों ने तय किया कि हथियार और आदमी भारत भेजे जाएँ जिससे सैनिकों तथा स्थानीय क्रांतिकारियों की सहायता से विद्रोह शुरू किया जाए। कई हज़ार लोग भारत वापस जाने के लिए आगे आए। उनके खर्च को पूरा करने के लिए लाखों डॉलर की रकम चन्दे में मिली। अनेक लोगों ने अपनी ज़मीन-ज्यादाद बेचकर धन लगा दिया। ग़दर पार्टी वालों ने सुदूर-पूर्व, दक्षिण-पूर्व एशिया तथा सारे भारत में भारतीय सैनिकों से सम्पर्क स्थापित किया तथा कई रेजिमेंटो को विद्रोह करने के लिए तैयार कर लिया। अंतत: 21 फ़रवरी 1915 को पंजाब में हथियारबंद बगावत का दिन तय किया गया। दुर्भाग्यवश, अधिकारियों को इन योजनाओं का पता चल गया और उन्होंने तुरंत कार्यवाई की। विद्रोह के लिए तत्पर रेजिमेंटों को विघटित कर दिया गया तथा नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया या फाँसी पर लटका दिया गया। 23वें रिसाले के बारह आदमियों को मौत की सज़ा दी गयी। पंजाब में ग़दर पार्टी के नेताओं और सदस्यों की बड़े पैमाने पर गिरफ़्तार हुई तथा उन पर मुकदमा चलाया गया। उन में से 42 को फाँसी पर लटका दिया गया 114 को आजन्म काले पानी तथा 93 को कैद की लम्बी सज़ा दी गयी। उनमें से अनेक ने रिहा होने के बाद पंजाब में कीर्ति और कम्युनिस्ट आन्दोलनों की नींव रखी। ग़दर पार्टी के कुछ प्रमुख नेता थे - बाबा गुरुमुख सिंह, करतार सिंह सराभा, सोहन सिंह भकना, रहमत अली शाह, भाई परमानन्द और मोहम्मद बरकतुल्ला।
सिंगापुर में विद्रोह
ग़दर पार्टी से प्रेरित होकर सिंगापुर स्थित पांचवीं लाइट इंफ़ेंट्री के 700 सैनिकों ने जमादार चिस्ती खाँ और सूबेदार डंडे ख़ाँ के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। उन्हें एक कटु लड़ाई के बाद कुचल दिया गया, जिसमें कई लोग मरे। सैंतीस अन्य सैनिकों को सार्वजनिक रूप से फ़ाँसी पर लटका दिया गया जबकि 41 को आजन्म कारावास की सज़ा दे दी गयी।
एक असफ़ल क्रांतिकारी प्रयास
अन्य क्रांतिकारी भारत तथा विदेशों में सक्रिय थे। एक असफ़ल क्रांतिकारी प्रयास के दौरान 1915 में जतीन्द्रनाथ मुखर्जी ने, जो बाधा जतिन के नाम से लोकप्रिय थे, बालासोर में पुलिस से लड़ते हुए अपनी जान दे दी। रासबिहारी बोस, राजा महेंद्र प्रताप, लाला हरदयाल, अब्दुल रहमान, मौलाना औबैदउल्ला सिंधी, चम्पक रमण पिल्ले, सरदार सिंह राणा, और मैडम कामा के नाम उन कुछ भारतीयों में थे जिन्होंने भारत के बाहर क्रांतिकारी गतिविधियाँ चलायीं और प्रचार कार्य किए।
'इंडियन होमरूल लीग' के अध्यक्ष तिलक
सन 1916 ई. में वह फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए तथा हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हुए ऐतिहासिक लखनऊ समझौते पर हस्ताक्षर किए। जो उनके एवं पाकिस्तान के भावी संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना के बीच हुआ था, 'इंडियन होमरूल लीग' के अध्यक्ष के रूप में तिलक सन 1918 में इंग्लैंड गए। उन्होंने महसूस किया कि ब्रिटेन की राजनीति में 'लेबर पार्टी' एक उदीयमान शक्ति है, इसलिए उन्होंने उसके नेताओं के साथ घनिष्ठ संबंध क़ायम किए। उनकी दूरदृष्टि सही साबित हुई। सन 1947 ई. में 'लेबर सरकार' ने ही भारत की स्वतंत्रता को मंज़ूरी दी। तिलक पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा था कि भारतीयों को विदेशी शासन के साथ सहयोग नहीं करना चाहिए, इस बात से वह बराबर इंकार करते रहे कि उन्होंने हिंसा के प्रयोग को उकसाया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख