"आर्य पुद्गल": अवतरणों में अंतर
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
(''''आर्य पुद्गल''' प्रधानत: चार होते हैं: (1) श्रोतापन्न, अ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
No edit summary |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
'' | [[जैन दर्शन]] के अनुसार 'पुद्गल' एक अजीव तत्व है। वह चेतना रहित है। जब तक [[आत्मा]] पुद्गल से लिप्त है, तब तक वह संसार के जन्म-मरण के द्वंद्व में बंधी हुई है। पुद्गल से अलिप्त होने पर ही आत्मा की मुक्ति संभव है।<br /> | ||
<br /> | |||
आर्य पुद्गल प्रधानत: चार होते हैं- | |||
#श्रोतापन्न, अर्थात् वह मुमुक्षु योगी जो इस अवस्था को प्राप्त हो चुका है, जिसका मुक्त होना निश्चित है और जिसका च्युत होना असंभव है। अधिक से अधिक वह सात जन्म ग्रहण करता है। इसी के भीतर वह निर्वाण प्राप्त कर लेता है। | |||
#सकृदागामी, जो मरणोपरांत इस लोक में एक बार और जन्म ग्रहण कर मुक्ति का लाभ करता है। | |||
#अनागामी, वह जो मरणोपरांत किसी ऊँचे लोक में पैदा होता है और बिना इस लोक में जन्म ग्रहण किए वही अर्हत् हो जाता है। | |||
#अर्हत् जिसने अविद्या अंत कर परममुक्ति का लाभ कर लिया है।<br /> | |||
<br /> | |||
इन चार आर्य पुद्गलों के दो-दो भेद होते हैं- एक उस अवस्था के जब उन्हें उन पदों की प्राप्ति हो जाती है। पहले उस अवस्था के जब उन्हें उस पद की प्राप्ति का ज्ञान हो जाता है। पहले को 'मार्गस्थ' और दूसरे को 'फलस्थ' कहते हैं। इस प्रकार आर्य पुद्गल के आठ भेद हुए।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=440 |url=}}</ref> | |||
{{लेख प्रगति|आधार= |प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | {{लेख प्रगति|आधार= |प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
[[Category:जैन धर्म]][[Category:धर्म कोश]] | {{जैन धर्म2}} | ||
[[Category:हिन्दी विश्वकोश]] | [[Category:जैन धर्म]][[Category:जैन धर्म कोश]][[Category:हिन्दी विश्वकोश]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ |
12:12, 18 अगस्त 2020 के समय का अवतरण
जैन दर्शन के अनुसार 'पुद्गल' एक अजीव तत्व है। वह चेतना रहित है। जब तक आत्मा पुद्गल से लिप्त है, तब तक वह संसार के जन्म-मरण के द्वंद्व में बंधी हुई है। पुद्गल से अलिप्त होने पर ही आत्मा की मुक्ति संभव है।
आर्य पुद्गल प्रधानत: चार होते हैं-
- श्रोतापन्न, अर्थात् वह मुमुक्षु योगी जो इस अवस्था को प्राप्त हो चुका है, जिसका मुक्त होना निश्चित है और जिसका च्युत होना असंभव है। अधिक से अधिक वह सात जन्म ग्रहण करता है। इसी के भीतर वह निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
- सकृदागामी, जो मरणोपरांत इस लोक में एक बार और जन्म ग्रहण कर मुक्ति का लाभ करता है।
- अनागामी, वह जो मरणोपरांत किसी ऊँचे लोक में पैदा होता है और बिना इस लोक में जन्म ग्रहण किए वही अर्हत् हो जाता है।
- अर्हत् जिसने अविद्या अंत कर परममुक्ति का लाभ कर लिया है।
इन चार आर्य पुद्गलों के दो-दो भेद होते हैं- एक उस अवस्था के जब उन्हें उन पदों की प्राप्ति हो जाती है। पहले उस अवस्था के जब उन्हें उस पद की प्राप्ति का ज्ञान हो जाता है। पहले को 'मार्गस्थ' और दूसरे को 'फलस्थ' कहते हैं। इस प्रकार आर्य पुद्गल के आठ भेद हुए।[1]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 440 |