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*राजपूत शैली से ही प्रभावित पहाड़ी चित्रकला [[हिमालय]] के तराई में स्थित विभिन्न क्षेत्रों में विकसित हुई। परंतु इस पर [[मुग़लकालीन चित्रकला]] का भी प्रभाव दृष्टिगत होता है।  
'''पहाड़ी चित्रकला''' [[भारत]] में [[हिमालय]] की तराई के स्वतंत्र [[राज्य|राज्यों]] में विकसित पुस्तकीय चित्रण शैली है। पहाड़ी चित्रकला शैली दो सुस्पष्ट भिन्न शैलियों, साहसिक और गहन [[बशोली चित्रकला|बशोली]] और नाज़ुक भावपूर्ण [[कांगड़ा चित्रकला|कांगड़ा]] से निर्मित है। पहाड़ी चित्रकला, अवधारणा तथा भावनाओं की दृष्टि से [[राजस्थानी चित्रकला]] से नज़दीकी संबंध रखती है तथा गोपाल कृष्ण की किंवदंतियों के चित्रण की अभिरुचि में यह उत्तर भारतीय मैदानों की [[राजपूत चित्रकला]] से मेल खाती है। इसके प्राचीनतम ज्ञात चित्र (1690) बशोली उपशैली में हैं। जो 18वीं शताब्दी के मध्य तक कई केंद्रों पर जारी थी। इसका स्थान कभी-कभी पूर्व कांगड़ा कहलाने वाली एक संक्रमणकारी शैली ने लिया, जो लगभग 1740 से 1775 तक रही। 18वीं शताब्दी के मध्य काल के दौरान परवर्ती [[मुग़ल चित्रकला|मुग़ल शैली]] में प्रशिक्षत कई कलाकार परिवार नए संरक्षकों तथा सुरक्षित जीवन की खोज में दिल्ली से पहाड़ियों की और पलायन कर गये थे। नई कांगड़ा शैली में, जो बेशोली शैली को पूर्णतया अस्वीकार करती प्रतीत होती है, परवर्ती मुग़ल कला का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। इस शैली में [[रंग]] हल्के होते हैं, भू-परिदृश्य तथा वातावरण सामान्यत: अधिक नैसर्गिक होते हैं और रेखाएं ज़्यादा सूक्ष्म तथा महीन होती हैं।
*पाँच नदियों-[[सतलुज नदी|सतलुज]], [[रावी नदी|रावी]], [[व्यास नदी|व्यास]], [[झेलम नदी|झेलम]] तथा [[चिनाव नदी|चिनाव]] का क्षेत्र [[पंजाब]], तथा अन्य पर्वतीय केन्द्रों जैसे [[जम्मू]], [[कांगड़ा]], गढ़वाल आदि में विकसित इस चित्रकला शैली पर पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों की भावानाओं तथा संगीत व धर्म सम्बन्धी परम्पराओं की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है।  
==पहाड़ी चित्रकला का विकास==
*पहाड़ी शैली के चित्रों में प्रेम का विशिष्ट चित्रण दृष्टिगत होता हैं। [[कृष्ण]]-[[राधा]] के प्रेम के चित्रों के माध्यम से इनमें स्त्री-पुरूष प्रेम सम्बंधों को बड़ी बारीकी एवं सहजता से दर्शाने का प्रयास किया गया है।  
*[[राजपूत चित्रकला|राजपूत शैली]] से ही प्रभावित पहाड़ी चित्रकला [[हिमालय]] के तराई में स्थित विभिन्न क्षेत्रों में विकसित हुई। परंतु इस पर [[मुग़लकालीन चित्रकला]] का भी प्रभाव दृष्टिगत होता है।  
*पाँच नदियों-[[सतलुज नदी|सतलुज]], [[रावी नदी|रावी]], [[व्यास नदी|व्यास]], [[झेलम नदी|झेलम]] तथा [[चिनाव नदी|चिनाव]] का क्षेत्र [[पंजाब]], तथा अन्य पर्वतीय केन्द्रों जैसे [[जम्मू]], [[कांगड़ा]], गढ़वाल आदि में विकसित इस चित्रकला शैली पर पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों की भावानाओं तथा [[संगीत]] [[धर्म]] सम्बन्धी परम्पराओं की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है।  
*पहाड़ी शैली के चित्रों में प्रेम का विशिष्ट चित्रण दृष्टिगत होता हैं। [[कृष्ण]]-[[राधा]] के प्रेम के चित्रों के माध्यम से इनमें स्त्री-पुरुष प्रेम सम्बंधों को बड़ी बारीकी एवं सहजता से दर्शाने का प्रयास किया गया है।  
*पहाड़ी शैली के विभिन्न केन्द्रों में विकसित होने के कारण इसके अनेक भाग किये जा सकते हैं। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
*पहाड़ी शैली के विभिन्न केन्द्रों में विकसित होने के कारण इसके अनेक भाग किये जा सकते हैं। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
#[[बसोहली चित्रकला]]
#[[गुलेरी चित्रकला]]
#[[गढ़वाल चित्रकला]]
#[[जम्मू चित्रकला]]
#[[कांगड़ा चित्रकला]]
==कांगड़ा चित्रकला शैली==
1770 तक कांगड़ा शैली का भावपूर्ण आकर्षण पूरी तरह विकसित हो चुका था। अपने एक महत्त्वपूर्ण संरक्षक राजा संसार चंद (1775-1823 ) के शासनकाल के आरंभिक [[वर्ष|वर्षों]] के दौरान यह अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई थी।


====<u>बसोहली शैली</u>====
यह शैली कांगड़ा राज्य तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि संपूर्ण हिमालय की तराई में कई विशिष्ट उपशैलियों के साथ फैल गई थी। चूंकि तराई के स्वतंत्र राज्य बहुत छोटे थे तथा प्राय: एक–दूसरे के नज़दीक बसे हुए थे, इसलिए अधिकांश चित्रकला के उद्गम स्थानों को नियत करना मुश्किल है।
चित्रकला की इस शैली का जन्म [[हिन्दू]], [[मुग़ल]] तथा पहाड़ी शैलियों के समन्वय से हुआ है जिसमें मुग़ल शैली की भाँति झीने परदों तथा पुरूषों के कपड़ों का प्रयोग किया गया है जब कि चेहरे स्थानीय लोक कला पर आधारित हैं। यह शैली [[हिन्दू धर्म]] एवं परम्परा से अधिक प्रभावित रही और [[विष्णु]] एवं उनके [[विष्णु के दशावतार|दशावतारों]] का अधिक चित्रण किया गया। इस शैली के अंतर्गत [[रामायण]], [[महाभारत]] तथा [[गीत गोविन्द]] पर आधारित चित्रों की भी रचना की गयी है।


====<u>गुलेरी शैली</u>====
[[भागवत पुराण]] तथा गीतागोविंद के गीतात्मक पद्यों में अभिव्यक्त कृष्णलीलाओं के साथ अन्य [[हिंदु]] पौराणिक कथाएँ, नायक-नायिकाएँ, रागमाला श्रृंखलाएँ तथा पहाड़ी मुखिया और उनके परिवार [[चित्रकला]] के आम विषय थे। 1800 के पश्चात् इस शैली का पतन आरंभ हुआ, यद्यपि 19वीं सदी के शेष काल में न्यून गुणवत्ता वाली चित्रकला जारी रही।
चित्रकला की पहाड़ी शैली के अंतर्गत विकसित गुलेरी शैली के चित्रों का मुख्य विषय रामायण तथा महाभारत की घटनाएँ रही हैं। गुलेरी शैली में इतना सशक्त एवं सजीव रेखांकन किया गया है कि मानव आकृतियों के अंग-प्रत्यंग अपनी स्वाभाविकता से दृष्टिगोचर होते हैं। गुलेरी शैली में निर्मित चित्रों में संतुलन तथा गतिमयता का भाव परिलक्षित होता है।


====<u>गढ़वाल शैली</u>====
गढ़वाल शैली का विस्तार मध्यकाल के गढ़वाल राज्य ([[जम्मू]] एवं [[कश्मीर]]) में हुआ। गढ़वाल राज्य के नरेश [[पृथपाल शाह]] (1625-1660)  के दरबार में रहने वाले दो चित्रकारों - शामनाथ तथा हरदास ने इस शैली को जन्म दिया। गढ़वाल शैली में पर्वतीय एवं प्राकृतिक दृश्यों, पशु-पक्षियों आदि का कुशलतापूर्वक मनोहरी चित्रांकन किया गया है। उत्तर [[भारत]] में इस शैली का एक सम्मानित स्थान है।
====<u>जम्मू शैली</u>====
[[चित्रकला मुग़ल शैली|मुग़ल शैली]] से प्रभावित इस शैली का विकास जम्मू क्षेत्र में हुआ क्योंकि [[नादिरशाह]] के द्वारा [[दिल्ली]] को पदाक्रांत करने के पश्चात दिल्ली दरबार के चित्रकारों ने भागकर पहाड़ी राजाओं के यहाँ शरण ली एवं नवीन शैली के चित्रों का निर्माण किया। इस शैली के संरक्षकों में जम्मू के राजा रणजीत देव का नाम सर्वोपरि है। इस शैली में बने हुए अधिकाशं चित्र दैनिक क्रिया-कलापों से सम्बन्धित हैं। इनमें प्राकृतिक दृश्यों का भी सुन्दरता पूर्वक समावेश किया गया है।
====<u>कांगड़ा शैली</u>====
*भारतीय चित्रकला के इतिहास के मध्ययुग में विकसित पहाड़ी शैली के अंतर्गत कांगड़ा शैली का विशेष स्थान है। इसका विकास कचोट राजवंश के राजा [[संसार चन्द्र]] के कार्यकाल में हुआ।
*यह शैली दर्शनीय तथा रोमाण्टिक है। इसमें पौराणिक कथाओं और रीतिकालीन नायक- नायिकाओं के चित्रों की प्रधानता है तथा गौण रूप में व्यक्ति चित्रों को भी स्थान दिया गया है।
*कांगड़ा शैली में सर्वाधिक प्रभावशाली आकृतियाँ स्त्रियों की हैं जिसमें चित्रकारों ने भारतीय परम्परा के अनुसार नारी के आदर्श रूप को ही ग्रहण किया है। कांगड़ा शैली के स्त्री चित्रों में सत्कुल को अभिव्यक्त करने वाले वस्त्र, चाँद सी गोल मुखाकृति, बड़ी- बड़ी भावप्रवण आँखे, भरे हुए वक्ष, लयमान उंगलियाँ, [[मुख]] में छिपा हुआ रहस्यमय भाव सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं।
*यह नितांत निजी शैली है जिसकी विशेषता नारी- सौन्दर्य के प्रति अत्यधिक झुकाव है। इस शैली में प्राकृतिक, विशेषकर पर्वतीय दृश्यों का भी चित्रण किया गया है।
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10:59, 9 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

पहाड़ी चित्रकला भारत में हिमालय की तराई के स्वतंत्र राज्यों में विकसित पुस्तकीय चित्रण शैली है। पहाड़ी चित्रकला शैली दो सुस्पष्ट भिन्न शैलियों, साहसिक और गहन बशोली और नाज़ुक भावपूर्ण कांगड़ा से निर्मित है। पहाड़ी चित्रकला, अवधारणा तथा भावनाओं की दृष्टि से राजस्थानी चित्रकला से नज़दीकी संबंध रखती है तथा गोपाल कृष्ण की किंवदंतियों के चित्रण की अभिरुचि में यह उत्तर भारतीय मैदानों की राजपूत चित्रकला से मेल खाती है। इसके प्राचीनतम ज्ञात चित्र (1690) बशोली उपशैली में हैं। जो 18वीं शताब्दी के मध्य तक कई केंद्रों पर जारी थी। इसका स्थान कभी-कभी पूर्व कांगड़ा कहलाने वाली एक संक्रमणकारी शैली ने लिया, जो लगभग 1740 से 1775 तक रही। 18वीं शताब्दी के मध्य काल के दौरान परवर्ती मुग़ल शैली में प्रशिक्षत कई कलाकार परिवार नए संरक्षकों तथा सुरक्षित जीवन की खोज में दिल्ली से पहाड़ियों की और पलायन कर गये थे। नई कांगड़ा शैली में, जो बेशोली शैली को पूर्णतया अस्वीकार करती प्रतीत होती है, परवर्ती मुग़ल कला का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। इस शैली में रंग हल्के होते हैं, भू-परिदृश्य तथा वातावरण सामान्यत: अधिक नैसर्गिक होते हैं और रेखाएं ज़्यादा सूक्ष्म तथा महीन होती हैं।

पहाड़ी चित्रकला का विकास

  • राजपूत शैली से ही प्रभावित पहाड़ी चित्रकला हिमालय के तराई में स्थित विभिन्न क्षेत्रों में विकसित हुई। परंतु इस पर मुग़लकालीन चित्रकला का भी प्रभाव दृष्टिगत होता है।
  • पाँच नदियों-सतलुज, रावी, व्यास, झेलम तथा चिनाव का क्षेत्र पंजाब, तथा अन्य पर्वतीय केन्द्रों जैसे जम्मू, कांगड़ा, गढ़वाल आदि में विकसित इस चित्रकला शैली पर पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों की भावानाओं तथा संगीतधर्म सम्बन्धी परम्पराओं की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है।
  • पहाड़ी शैली के चित्रों में प्रेम का विशिष्ट चित्रण दृष्टिगत होता हैं। कृष्ण-राधा के प्रेम के चित्रों के माध्यम से इनमें स्त्री-पुरुष प्रेम सम्बंधों को बड़ी बारीकी एवं सहजता से दर्शाने का प्रयास किया गया है।
  • पहाड़ी शैली के विभिन्न केन्द्रों में विकसित होने के कारण इसके अनेक भाग किये जा सकते हैं। इनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
  1. बसोहली चित्रकला
  2. गुलेरी चित्रकला
  3. गढ़वाल चित्रकला
  4. जम्मू चित्रकला
  5. कांगड़ा चित्रकला

कांगड़ा चित्रकला शैली

1770 तक कांगड़ा शैली का भावपूर्ण आकर्षण पूरी तरह विकसित हो चुका था। अपने एक महत्त्वपूर्ण संरक्षक राजा संसार चंद (1775-1823 ) के शासनकाल के आरंभिक वर्षों के दौरान यह अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई थी।

यह शैली कांगड़ा राज्य तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि संपूर्ण हिमालय की तराई में कई विशिष्ट उपशैलियों के साथ फैल गई थी। चूंकि तराई के स्वतंत्र राज्य बहुत छोटे थे तथा प्राय: एक–दूसरे के नज़दीक बसे हुए थे, इसलिए अधिकांश चित्रकला के उद्गम स्थानों को नियत करना मुश्किल है।

भागवत पुराण तथा गीतागोविंद के गीतात्मक पद्यों में अभिव्यक्त कृष्णलीलाओं के साथ अन्य हिंदु पौराणिक कथाएँ, नायक-नायिकाएँ, रागमाला श्रृंखलाएँ तथा पहाड़ी मुखिया और उनके परिवार चित्रकला के आम विषय थे। 1800 के पश्चात् इस शैली का पतन आरंभ हुआ, यद्यपि 19वीं सदी के शेष काल में न्यून गुणवत्ता वाली चित्रकला जारी रही।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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