"सांख्य दर्शन और गीता": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
छो (1 अवतरण)
छो (Text replacement - "शृंखला" to "श्रृंखला")
 
(4 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 7 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
'''भगवद्गीता में [[सांख्य दर्शन]]'''
'''भगवद्गीता में [[सांख्य दर्शन]]'''


[[गीता|भगवद्गीता]] में विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों ने अपने अनुकूल दर्शन का अन्वेषण किया और तदनुरूप उसकी व्याख्या की। लेकिन जिन सिद्वान्तों पर सांख्य परम्परा के रूप में एकाधिकार माना जाता है। उनका गीता में होना-ऐसा तथ्य है जिसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। हां, यह अवश्य कहा जा सकता है कि जो विद्वान [[सांख्य दर्शन]] को निरीश्वरवादी या अवैदिक मानकर विचार करते हैं वे अवश्य ही गीता में सांख्य दर्शन के दर्शन नहीं कर पाते हैं। इस पर भी प्राचीन सांख्य जिसका [[महाभारत]] में चित्रण है, अवश्य ही गीता में स्वीकार किया जाता है। भगवद्गीता में कहा गया है-
[[गीता|भगवद्गीता]] में विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों ने अपने अनुकूल दर्शन का [[अन्वेषण]] किया और तदनुरूप उसकी व्याख्या की। लेकिन जिन सिद्वान्तों पर सांख्य परम्परा के रूप में एकाधिकार माना जाता है। उनका गीता में होना-ऐसा तथ्य है जिसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। हां, यह अवश्य कहा जा सकता है कि जो विद्वान [[सांख्य दर्शन]] को निरीश्वरवादी या अवैदिक मानकर विचार करते हैं वे अवश्य ही गीता में सांख्य दर्शन के दर्शन नहीं कर पाते हैं। इस पर भी प्राचीन सांख्य जिसका [[महाभारत]] में चित्रण है, अवश्य ही गीता में स्वीकार किया जाता है। भगवद्गीता में कहा गया है-
<poem>
<poem>
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावति।  
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावति।  
पंक्ति 17: पंक्ति 15:
#प्रकृति,  
#प्रकृति,  
#पुरुष एवं  
#पुरुष एवं  
#परमात्मा। वैदिक साहित्य में 'पुरुष' पर चेतन तत्व के लिए प्रयुक्त होता है। इस प्रकार जड़-चेतन-भेद से दो तत्त्व निरूपित होते हैं। गीता में सृष्टि का मूलकारण प्रकृति को ही माना गया है। परमात्मा उसका अधिष्ठान है- इस अधिष्ठातृत्व को निमित्त कारण कहा जा सकता है। परमात्मा की परा-अपरा प्रकृति के रूप में जीव-प्रकृति को स्वीकार करके इन तीन तत्वों के सम्बन्धों की व्याख्या की गई है। परमात्मा स्वयं इस जगत से परे रहता हुआ भी इसके उत्पत्ति और प्रलय का नियंत्रण करता है।<balloon title="गीता 7/5,6" style=color:blue>*</balloon>  
#परमात्मा। वैदिक साहित्य में 'पुरुष' पर चेतन तत्त्व के लिए प्रयुक्त होता है। इस प्रकार जड़-चेतन-भेद से दो तत्त्व निरूपित होते हैं। गीता में सृष्टि का मूलकारण प्रकृति को ही माना गया है। परमात्मा उसका अधिष्ठान है- इस अधिष्ठातृत्व को निमित्त कारण कहा जा सकता है। परमात्मा की परा-अपरा प्रकृति के रूप में जीव-प्रकृति को स्वीकार करके इन तीन तत्वों के सम्बन्धों की व्याख्या की गई है। परमात्मा स्वयं इस जगत से परे रहता हुआ भी इसके उत्पत्ति और प्रलय का नियंत्रण करता है।<ref>गीता 7/5,6</ref>  
*गीता में श्री[[कृष्ण]] कहते हैं- 'जो कुछ भी सत्त्व, रजस, तमस भाव हैं वे सब मुझसे (परमात्मा से) ही प्रवृत्त होते हैं। मैं उनमें नहीं बल्कि वे मुझमें हैं। इन त्रिगुणों से मोहित हुआ यह जगत मुझे अविनाशी को नहीं जानता। इस दैवी गुणमयी मेरी माया के जाल से निकलना कठिन है। जो मुझ को जान लेते हैं वे इस जाल से निकल जाते हैं<balloon title="गीता 7/12-14" style=color:blue>*</balloon>।' परमात्मा की माया कहने में जहां माया या प्रकृति से सम्बन्ध की सूचना मिलती है वहीं संबंध के लिए अनिवार्य भिन्नता का भी संकेत मिलता है। परमात्मा प्रकृति में अन्तर्व्याप्त और बहिर्व्याप्त है। इसीलिए परमात्मा के व्यक्त होने या अव्यक्त रहने का कोई अर्थ नहीं होता। व्यक्त अव्यक्त सापेक्षार्थक शब्द है। परमात्मा के व्यक्त होने की कल्पना को गीताकार अबुद्धिपूर्व कथन मानते हैं<balloon title="अव्यक्तं व्यक्तमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:" style=color:blue>*</balloon>। अत: जब परमात्मा की माया से सृष्टयुत्पत्ति कही जाती है तब उसका आशय यह नहीं होता कि परमात्मा अपनी चमत्कारी शक्ति से व्यक्त होता है, बल्कि यह कि उसकी अव्यक्त नाम्नी माया या त्रिगुणात्मिका प्रकृति ही व्यक्त होती है। इससे भी उपादान कारणभूत प्रकृति की पृथक् सत्ता की स्वीकृति झलकती है। परमात्मा स्वयं जगदरूप में नहीं आता बल्कि जगत के समस्त भूतों में व्याप्त रहता है<balloon title="समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् 13/31" style=color:blue>*</balloon>। समस्त कार्य (क्रिया) प्रकृति द्वारा ही किए जाते हैं। परमात्मा अनादि, निर्गुण, अव्यय होने से शरीर में रहते हुए भी अकर्ता-अलिप्त रहता है<balloon title="गीता 13/31" style=color:blue>*</balloon>। (यह) शरीर क्षेत्र है और इसका ज्ञाता क्षेत्रज्ञ है। परमात्मा तो समस्त क्षेत्रों का क्षेत्रज्ञ है<balloon title="गीता 13/1,2" style=color:blue>*</balloon>। इससे भी जीव तथा देह दोनों में परमात्मा का वास सुस्पष्ट होता है।  
*गीता में श्री[[कृष्ण]] कहते हैं- 'जो कुछ भी सत्त्व, रजस, तमस भाव हैं वे सब मुझसे (परमात्मा से) ही प्रवृत्त होते हैं। मैं उनमें नहीं बल्कि वे मुझमें हैं। इन त्रिगुणों से मोहित हुआ यह जगत मुझे अविनाशी को नहीं जानता। इस दैवी गुणमयी मेरी माया के जाल से निकलना कठिन है। जो मुझ को जान लेते हैं वे इस जाल से निकल जाते हैं<ref>गीता 7/12-14</ref>।' परमात्मा की माया कहने में जहां माया या प्रकृति से सम्बन्ध की सूचना मिलती है वहीं संबंध के लिए अनिवार्य भिन्नता का भी संकेत मिलता है। परमात्मा प्रकृति में अन्तर्व्याप्त और बहिर्व्याप्त है। इसीलिए परमात्मा के व्यक्त होने या अव्यक्त रहने का कोई अर्थ नहीं होता। व्यक्त अव्यक्त सापेक्षार्थक शब्द है। परमात्मा के व्यक्त होने की कल्पना को गीताकार अबुद्धिपूर्व कथन मानते हैं<ref>अव्यक्तं व्यक्तमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:</ref>। अत: जब परमात्मा की माया से सृष्टयुत्पत्ति कही जाती है तब उसका आशय यह नहीं होता कि परमात्मा अपनी चमत्कारी शक्ति से व्यक्त होता है, बल्कि यह कि उसकी अव्यक्त नाम्नी माया या त्रिगुणात्मिका प्रकृति ही व्यक्त होती है। इससे भी उपादान कारणभूत प्रकृति की पृथक् सत्ता की स्वीकृति झलकती है। परमात्मा स्वयं जगदरूप में नहीं आता बल्कि जगत के समस्त भूतों में व्याप्त रहता है<ref>समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् 13/31</ref>। समस्त कार्य (क्रिया) प्रकृति द्वारा ही किए जाते हैं। परमात्मा अनादि, निर्गुण, अव्यय होने से शरीर में रहते हुए भी अकर्ता-अलिप्त रहता है<ref>गीता 13/31</ref>। (यह) शरीर क्षेत्र है और इसका ज्ञाता क्षेत्रज्ञ है। परमात्मा तो समस्त क्षेत्रों का क्षेत्रज्ञ है<ref>गीता 13/1,2</ref>। इससे भी जीव तथा देह दोनों में परमात्मा का वास सुस्पष्ट होता है।  
*सांख्य शास्त्र में मान्य त्रिगुणात्मक प्रकृति गीता को भी मान्य है। सृष्टि का कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं हैं जो प्रकृति के तीन गुणों से रहित हो<balloon title="गीता 18/40" style=color:blue>*</balloon>। शांति पर्व में प्रस्तुत सांख्य तथा तत्त्वसमासोक्त अष्टप्रकृति को भी गीता स्वीकार करती है। यहाँ पांच सूक्ष्म भूत (तन्मात्र), बुद्धि, अहंकार तथा मन इन आठ को अष्टप्रकृति के रूप में कहा गया है<balloon title="गीता 7/4" style=color:blue>*</balloon>। सांख्यशास्त्र में मान्य अष्टप्रकृति के अन्तर्गत मन का उल्लेख नहीं है। गीता में मन को सम्मिलित कर, मूलप्रकृति का लोप कर दिया गया। मन स्वयं कुछ उत्पन्न नहीं करता। अत: उसे प्रकृति कहना संगत प्रतीत नहीं होता। अत: तो यहाँ मन का अर्थ प्रकृति लिया जाय अथवा सांख्य में जो अनेक रूप प्रचलित थे उनमें से एक भेद यहाँ स्वीकार कर लिया जाये।  
*सांख्य शास्त्र में मान्य त्रिगुणात्मक प्रकृति गीता को भी मान्य है। सृष्टि का कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं हैं जो प्रकृति के तीन गुणों से रहित हो<ref>गीता 18/40</ref>। शांति पर्व में प्रस्तुत सांख्य तथा तत्त्वसमासोक्त अष्टप्रकृति को भी गीता स्वीकार करती है। यहाँ पांच सूक्ष्म भूत (तन्मात्र), बुद्धि, अहंकार तथा मन इन आठ को अष्टप्रकृति के रूप में कहा गया है<ref>गीता 7/4</ref>। सांख्यशास्त्र में मान्य अष्टप्रकृति के अन्तर्गत मन का उल्लेख नहीं है। गीता में मन को सम्मिलित कर, मूलप्रकृति का लोप कर दिया गया। मन स्वयं कुछ उत्पन्न नहीं करता। अत: उसे प्रकृति कहना संगत प्रतीत नहीं होता। अत: तो यहाँ मन का अर्थ प्रकृति लिया जाय अथवा सांख्य में जो अनेक रूप प्रचलित थे उनमें से एक भेद यहाँ स्वीकार कर लिया जाये।  
*प्रकृतिरूप क्षेत्र के विकार, उनके गुणधर्म आदि की चर्चा करते हुए कहा गया है- महाभूत, अहंकार, बुद्धि, एकादश इन्द्रिय तथा पांच इन्द्रिय विषय इनका कारणभूत- सब क्षेत्र के स्वरूप में निहित है। इसे अव्यक्त कहा गया है।  
*प्रकृतिरूप क्षेत्र के विकार, उनके गुणधर्म आदि की चर्चा करते हुए कहा गया है- महाभूत, अहंकार, बुद्धि, एकादश इन्द्रिय तथा पांच इन्द्रिय विषय इनका कारणभूत- सब क्षेत्र के स्वरूप में निहित है। इसे अव्यक्त कहा गया है।  
*क्षर तथा अक्षर तत्त्व का निरूपण करते हुए कहा गया है क्षररूप प्रकृति अधिभूत है तथा पुरुष अधिदैवत है और समस्त देह में परमात्मा अधियज्ञ है<balloon title="गीता 8/4" style=color:blue>*</balloon>। सृष्टि रूपी यज्ञ में देवता रूपी पुरुष (जीवात्मा) के लिए भोग अपवर्ग रूप पुरुषार्थ के लिए है और इसका उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति है। इसीलिए परमात्मा की भी पृथक् सत्ता की मान्यता प्रस्तुत की गई है। एक स्थल पर कहा गया है कि इस संसार में क्षर तथा अक्षर या नाशवान परिवर्तनशील तथा जीवात्मा अक्षर है उत्तम पुरुष अन्य है जिसे परमात्मा कहते हैं। वह तीनों लोकों में प्रवेश कर सबका पालन करता है, वह अविनाशी ईश्वर है। वह क्षर और अक्षर से उत्तम है उसे पुरुषोत्तम कहा जाता है<balloon title="गीता 15/16,18" style=color:blue>*</balloon>। इस तरह पुन: जीवात्मा-परमात्मा में भेद दर्शाया गया।  
*क्षर तथा अक्षर तत्त्व का निरूपण करते हुए कहा गया है क्षररूप प्रकृति अधिभूत है तथा पुरुष अधिदैवत है और समस्त देह में परमात्मा अधियज्ञ है<ref>गीता 8/4</ref>। सृष्टि रूपी यज्ञ में देवता रूपी पुरुष (जीवात्मा) के लिए भोग अपवर्ग रूप पुरुषार्थ के लिए है और इसका उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति है। इसीलिए परमात्मा की भी पृथक् सत्ता की मान्यता प्रस्तुत की गई है। एक स्थल पर कहा गया है कि इस संसार में क्षर तथा अक्षर या नाशवान परिवर्तनशील तथा जीवात्मा अक्षर है उत्तम पुरुष अन्य है जिसे परमात्मा कहते हैं। वह तीनों लोकों में प्रवेश कर सबका पालन करता है, वह अविनाशी ईश्वर है। वह क्षर और अक्षर से उत्तम है उसे पुरुषोत्तम कहा जाता है<ref>गीता 15/16,18</ref>। इस तरह पुन: जीवात्मा-परमात्मा में भेद दर्शाया गया।  
*कार्यकारण-श्रृंखला में व्यक्त समस्त जगत का मूल हेतु प्रकृति है और जीवात्मा सुख दु:खादि के भोग में हेतु है। परमात्मा इस सबसे परे इनका भर्ता भोक्ता है। इस तरह जो जान लेता है वह मुक्त हो जाता है। प्रकृतिस्थ हुआ पुरुष गुण संग होकर प्रकृति के गुणों का भोग करता हुआ शुभाशुभ योनियों में जन्म लेता रहता है<balloon title="गीता 12/21" style=color:blue>*</balloon>। सत्त्व रजस प्रकृति से व्यक्त गुण ही अव्यय पुरुष को देह में बांधते हैं<balloon title="गीता 14/5" style=color:blue>*</balloon>। इन गुणों के अतिरिक्त कर्ता अन्य कुछ भी नहीं है- ऐसा जब साधक जान लेता है तो गुणों से परे मुझे जान कर परमात्मा को प्राप्त होता है<balloon title="गीता 14/19" style=color:blue>*</balloon>। इस तरह गीता व्यक्ताव्यक्तज्ञ ज्ञान से मुक्ति का निरूपण करती है।  
*कार्यकारण-श्रृंखला में व्यक्त समस्त जगत का मूल हेतु प्रकृति है और जीवात्मा सुख दु:खादि के भोग में हेतु है। परमात्मा इस सबसे परे इनका भर्ता भोक्ता है। इस तरह जो जान लेता है वह मुक्त हो जाता है। प्रकृतिस्थ हुआ पुरुष गुण संग होकर प्रकृति के गुणों का भोग करता हुआ शुभाशुभ योनियों में जन्म लेता रहता है<ref>गीता 12/21</ref>। सत्त्व रजस प्रकृति से व्यक्त गुण ही अव्यय पुरुष को देह में बांधते हैं<ref>गीता 14/5</ref>। इन गुणों के अतिरिक्त कर्ता अन्य कुछ भी नहीं है- ऐसा जब साधक जान लेता है तो गुणों से परे मुझे जान कर परमात्मा को प्राप्त होता है<ref>गीता 14/19</ref>। इस तरह गीता व्यक्ताव्यक्तज्ञ ज्ञान से मुक्ति का निरूपण करती है।  
*गीता दर्शन का सांख्य रूप विवेचन उदयवीर शास्त्री ने अत्यन्त विस्तार से किया है<balloon title="सां.द.इ.पृष्ठ 449-84" style=color:blue>*</balloon>। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि महाभारत के अंगभूत होने से शांतिपर्वान्तर्गत सांख्य दर्शन का ही गीता भी अवलम्बन करती हें। हां, प्रचलित विद्वान मान्यतानुसार निरीश्वर सांख्य गीता को इष्ट नहीं है।
*गीता दर्शन का सांख्य रूप विवेचन उदयवीर शास्त्री ने अत्यन्त विस्तार से किया है<ref>सां.द.इ.पृष्ठ 449-84</ref>। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि महाभारत के अंगभूत होने से शांतिपर्वान्तर्गत सांख्य दर्शन का ही गीता भी अवलम्बन करती हें। हां, प्रचलित विद्वान मान्यतानुसार निरीश्वर सांख्य गीता को इष्ट नहीं है।
 
{{प्रचार}}
==सम्बंधित लिंक==
{{संदर्भ ग्रंथ}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==                                                     
<references/>
==संबंधित लेख==
{{सांख्य दर्शन2}}
{{सांख्य दर्शन2}}
{{सांख्य दर्शन}}
{{सांख्य दर्शन}}

11:15, 9 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

भगवद्गीता में सांख्य दर्शन

भगवद्गीता में विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों ने अपने अनुकूल दर्शन का अन्वेषण किया और तदनुरूप उसकी व्याख्या की। लेकिन जिन सिद्वान्तों पर सांख्य परम्परा के रूप में एकाधिकार माना जाता है। उनका गीता में होना-ऐसा तथ्य है जिसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। हां, यह अवश्य कहा जा सकता है कि जो विद्वान सांख्य दर्शन को निरीश्वरवादी या अवैदिक मानकर विचार करते हैं वे अवश्य ही गीता में सांख्य दर्शन के दर्शन नहीं कर पाते हैं। इस पर भी प्राचीन सांख्य जिसका महाभारत में चित्रण है, अवश्य ही गीता में स्वीकार किया जाता है। भगवद्गीता में कहा गया है-

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावति।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्॥13/19

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते।
पुरुष: सुखदु:खानां भौक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥20॥ प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि हैं, समस्त विकास और गुण प्रकृति से उत्पन्न हैं। कार्यकारणकर्तृव्य (परिणाम) का हेतु प्रकृति तथा सुख-दु:ख भोक्तृत्व का हेतु पुरुष है।

मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥

  • मेरी (परमात्मा की) अध्यक्षता (अधिष्ठातृत्व) में ही प्रकृति चराचर जगत की सृष्टि करती है। इस प्रकार भगवद्गीता तीन तत्त्वों को मानती है-
  1. प्रकृति,
  2. पुरुष एवं
  3. परमात्मा। वैदिक साहित्य में 'पुरुष' पर चेतन तत्त्व के लिए प्रयुक्त होता है। इस प्रकार जड़-चेतन-भेद से दो तत्त्व निरूपित होते हैं। गीता में सृष्टि का मूलकारण प्रकृति को ही माना गया है। परमात्मा उसका अधिष्ठान है- इस अधिष्ठातृत्व को निमित्त कारण कहा जा सकता है। परमात्मा की परा-अपरा प्रकृति के रूप में जीव-प्रकृति को स्वीकार करके इन तीन तत्वों के सम्बन्धों की व्याख्या की गई है। परमात्मा स्वयं इस जगत से परे रहता हुआ भी इसके उत्पत्ति और प्रलय का नियंत्रण करता है।[1]
  • गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- 'जो कुछ भी सत्त्व, रजस, तमस भाव हैं वे सब मुझसे (परमात्मा से) ही प्रवृत्त होते हैं। मैं उनमें नहीं बल्कि वे मुझमें हैं। इन त्रिगुणों से मोहित हुआ यह जगत मुझे अविनाशी को नहीं जानता। इस दैवी गुणमयी मेरी माया के जाल से निकलना कठिन है। जो मुझ को जान लेते हैं वे इस जाल से निकल जाते हैं[2]।' परमात्मा की माया कहने में जहां माया या प्रकृति से सम्बन्ध की सूचना मिलती है वहीं संबंध के लिए अनिवार्य भिन्नता का भी संकेत मिलता है। परमात्मा प्रकृति में अन्तर्व्याप्त और बहिर्व्याप्त है। इसीलिए परमात्मा के व्यक्त होने या अव्यक्त रहने का कोई अर्थ नहीं होता। व्यक्त अव्यक्त सापेक्षार्थक शब्द है। परमात्मा के व्यक्त होने की कल्पना को गीताकार अबुद्धिपूर्व कथन मानते हैं[3]। अत: जब परमात्मा की माया से सृष्टयुत्पत्ति कही जाती है तब उसका आशय यह नहीं होता कि परमात्मा अपनी चमत्कारी शक्ति से व्यक्त होता है, बल्कि यह कि उसकी अव्यक्त नाम्नी माया या त्रिगुणात्मिका प्रकृति ही व्यक्त होती है। इससे भी उपादान कारणभूत प्रकृति की पृथक् सत्ता की स्वीकृति झलकती है। परमात्मा स्वयं जगदरूप में नहीं आता बल्कि जगत के समस्त भूतों में व्याप्त रहता है[4]। समस्त कार्य (क्रिया) प्रकृति द्वारा ही किए जाते हैं। परमात्मा अनादि, निर्गुण, अव्यय होने से शरीर में रहते हुए भी अकर्ता-अलिप्त रहता है[5]। (यह) शरीर क्षेत्र है और इसका ज्ञाता क्षेत्रज्ञ है। परमात्मा तो समस्त क्षेत्रों का क्षेत्रज्ञ है[6]। इससे भी जीव तथा देह दोनों में परमात्मा का वास सुस्पष्ट होता है।
  • सांख्य शास्त्र में मान्य त्रिगुणात्मक प्रकृति गीता को भी मान्य है। सृष्टि का कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं हैं जो प्रकृति के तीन गुणों से रहित हो[7]। शांति पर्व में प्रस्तुत सांख्य तथा तत्त्वसमासोक्त अष्टप्रकृति को भी गीता स्वीकार करती है। यहाँ पांच सूक्ष्म भूत (तन्मात्र), बुद्धि, अहंकार तथा मन इन आठ को अष्टप्रकृति के रूप में कहा गया है[8]। सांख्यशास्त्र में मान्य अष्टप्रकृति के अन्तर्गत मन का उल्लेख नहीं है। गीता में मन को सम्मिलित कर, मूलप्रकृति का लोप कर दिया गया। मन स्वयं कुछ उत्पन्न नहीं करता। अत: उसे प्रकृति कहना संगत प्रतीत नहीं होता। अत: तो यहाँ मन का अर्थ प्रकृति लिया जाय अथवा सांख्य में जो अनेक रूप प्रचलित थे उनमें से एक भेद यहाँ स्वीकार कर लिया जाये।
  • प्रकृतिरूप क्षेत्र के विकार, उनके गुणधर्म आदि की चर्चा करते हुए कहा गया है- महाभूत, अहंकार, बुद्धि, एकादश इन्द्रिय तथा पांच इन्द्रिय विषय इनका कारणभूत- सब क्षेत्र के स्वरूप में निहित है। इसे अव्यक्त कहा गया है।
  • क्षर तथा अक्षर तत्त्व का निरूपण करते हुए कहा गया है क्षररूप प्रकृति अधिभूत है तथा पुरुष अधिदैवत है और समस्त देह में परमात्मा अधियज्ञ है[9]। सृष्टि रूपी यज्ञ में देवता रूपी पुरुष (जीवात्मा) के लिए भोग अपवर्ग रूप पुरुषार्थ के लिए है और इसका उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति है। इसीलिए परमात्मा की भी पृथक् सत्ता की मान्यता प्रस्तुत की गई है। एक स्थल पर कहा गया है कि इस संसार में क्षर तथा अक्षर या नाशवान परिवर्तनशील तथा जीवात्मा अक्षर है उत्तम पुरुष अन्य है जिसे परमात्मा कहते हैं। वह तीनों लोकों में प्रवेश कर सबका पालन करता है, वह अविनाशी ईश्वर है। वह क्षर और अक्षर से उत्तम है उसे पुरुषोत्तम कहा जाता है[10]। इस तरह पुन: जीवात्मा-परमात्मा में भेद दर्शाया गया।
  • कार्यकारण-श्रृंखला में व्यक्त समस्त जगत का मूल हेतु प्रकृति है और जीवात्मा सुख दु:खादि के भोग में हेतु है। परमात्मा इस सबसे परे इनका भर्ता भोक्ता है। इस तरह जो जान लेता है वह मुक्त हो जाता है। प्रकृतिस्थ हुआ पुरुष गुण संग होकर प्रकृति के गुणों का भोग करता हुआ शुभाशुभ योनियों में जन्म लेता रहता है[11]। सत्त्व रजस प्रकृति से व्यक्त गुण ही अव्यय पुरुष को देह में बांधते हैं[12]। इन गुणों के अतिरिक्त कर्ता अन्य कुछ भी नहीं है- ऐसा जब साधक जान लेता है तो गुणों से परे मुझे जान कर परमात्मा को प्राप्त होता है[13]। इस तरह गीता व्यक्ताव्यक्तज्ञ ज्ञान से मुक्ति का निरूपण करती है।
  • गीता दर्शन का सांख्य रूप विवेचन उदयवीर शास्त्री ने अत्यन्त विस्तार से किया है[14]। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि महाभारत के अंगभूत होने से शांतिपर्वान्तर्गत सांख्य दर्शन का ही गीता भी अवलम्बन करती हें। हां, प्रचलित विद्वान मान्यतानुसार निरीश्वर सांख्य गीता को इष्ट नहीं है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 7/5,6
  2. गीता 7/12-14
  3. अव्यक्तं व्यक्तमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:
  4. समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् 13/31
  5. गीता 13/31
  6. गीता 13/1,2
  7. गीता 18/40
  8. गीता 7/4
  9. गीता 8/4
  10. गीता 15/16,18
  11. गीता 12/21
  12. गीता 14/5
  13. गीता 14/19
  14. सां.द.इ.पृष्ठ 449-84

संबंधित लेख