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'''मोतीलाल''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Motilal'', जन्म: [[4 दिसम्बर]], [[1910]] - मृत्यु: [[1965]]) [[हिंदी सिनेमा]] के प्रसिद्ध [[अभिनेता]] थे। मोतीलाल ने अपने जादू से नायक और चरित्र अभिनेता के रूप में दो दशक तक दर्शकों के दिलों पर राज किया। उन्होंने हिंदी फ़िल्मों को मेलोड्रामाई संवाद अदायगी और अदाकारी की तंग गलियों से निकालकर खुले मैदान की ताजी हवा में खड़ा किया। | '''मोतीलाल''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Motilal'', जन्म: [[4 दिसम्बर]], [[1910]] - मृत्यु: [[1965]]) [[हिंदी सिनेमा]] के प्रसिद्ध [[अभिनेता]] थे। मोतीलाल ने अपने जादू से नायक और चरित्र अभिनेता के रूप में दो दशक तक दर्शकों के दिलों पर राज किया। उन्होंने हिंदी फ़िल्मों को मेलोड्रामाई संवाद अदायगी और अदाकारी की तंग गलियों से निकालकर खुले मैदान की ताजी हवा में खड़ा किया। | ||
==जीवन परिचय== | ==जीवन परिचय== | ||
[[शिमला]] में [[4 दिसंबर]] [[1910]] को जन्मे मोतीलाल राजवंश जब एक साल के थे, तभी पिता का साया सिर से उठ गया। चाचा ने परवरिश की, जो [[उत्तर प्रदेश]] में सिविल सर्जन थे। चाचा ने मोती को बचपन से जीवन को बिंदास | [[शिमला]] में [[4 दिसंबर]] [[1910]] को जन्मे मोतीलाल राजवंश जब एक साल के थे, तभी पिता का साया सिर से उठ गया। चाचा ने परवरिश की, जो [[उत्तर प्रदेश]] में सिविल सर्जन थे। चाचा ने मोती को बचपन से जीवन को बिंदास अंदाज़में जीने और उदारवादी सोच का नजरिया दिया। शिमला के [[अंग्रेज़ी]] स्कूल में शुरूआती पढ़ाई के बाद उत्तर प्रदेश और फिर [[दिल्ली]] में उच्च शिक्षा हासिल की। अपने कॉलेज के दिनों में वे हरफनमौला विद्यार्थी थे। [[नौसेना]] में शामिल होने के इरादे से [[मुंबई]] आए थे। अचानक बीमार हो गए, तो प्रवेश परीक्षा नहीं दे पाए। शानदार ड्रेस पहनकर सागर स्टूडियो में शूटिंग देखने जा पहुंचे। वहां निर्देशक कालीप्रसाद घोष एक सामाजिक फ़िल्म की शूटिंग कर रहे थे। अपने सामने स्मार्ट यंगमैन मोतीलाल को देखा, तो उनकी आँखें खुली रह गई। उन्हें अपनी फ़िल्म के लिए ऐसे ही हीरो की तलाश थी, जो बगैर बुलाए मेहमान की तरह सामने खड़ा था। उन्होंने अगली फ़िल्म 'शहर का जादू' (1934) में सविता देवी के साथ मोतीलाल को नायक बना दिया। तब तक [[पार्श्वगायन]] प्रचलन में नहीं आया था। लिहाजा मोतीलाल ने के. सी. डे के संगीत निर्देशन में अपने गीत खुद गाए थे। इनमें 'हमसे सुंदर कोई नहीं है, कोई नहीं हो सकता' गीत लोकप्रिय भी हुआ। सागर मूवीटोन उस जमाने में कलाकारों की नर्सरी थी। सुरेंद्र, बिब्बो, याकूब, माया बनर्जी, कुमार और रोज जैसे कलाकार वहां कार्यरत थे। निर्देशकों में [[महबूब ख़ान]], सर्वोत्तम बदामी, चिमनलाल लोहार अपनी सेवाएं दे रहे थे। मोतीलाल ने अपनी शालीन कॉमेडी, मैनरिज्म और स्वाभाविक संवाद अदायगी के जरिए तमाम नायकों को पीछे छोड़ते हुए नया इतिहास रचा। परदे पर वे अभिनय करते कभी नजर नहीं आए। मानो उसी किरदार को साकार रहे हो।<ref name="फ़िल्मजगत">{{cite web |url=http://filmcrossword.blogspot.in/2010/07/blog-post_6051.html |title=मोतीलाल |accessmonthday=16 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=फ़िल्मजगत |language=हिंदी }} </ref> | ||
==प्रसिद्धि== | ==प्रसिद्धि== | ||
वर्ष 1937 में मोतीलाल ने सागर मूवीटोन छोडकर रणजीत स्टूडियो में शामिल हुए। इस बैनर की फ़िल्मों में उन्होंने 'दीवाली' से 'होली' के रंगों तक, ब्राह्मण से अछूत तक, देहाती से शहरी छैला बाबू तक के बहुरंगी रोल से अपने प्रशंसकों का भरपूर मनोरंजन किया। उस दौर की लोकप्रिय गायिका-नायिका खुर्शीद के साथ उनकी फ़िल्म 'शादी' सुपर हिट रही थी। रणजीत स्टूडियो में काम करते हुए मोतीलाल की कई जगमगाती फ़िल्में आई- 'परदेसी', 'अरमान', 'ससुराल' और 'मूर्ति'। बॉम्बे टॉकीज ने [[गांधीजी]] से प्रेरित होकर फ़िल्म 'अछूत कन्या' बनाई थी। रणजीत ने मोतीलाल- गौहर मामाजीवाला की जोडी को लेकर 'अछूत' फ़िल्म बनाई। फ़िल्म का नायक बचपन की सखी का हाथ थामता है, जो अछूत है। नायक ही मंदिर के द्वार सबके लिए खुलवाता है। इस फ़िल्म को गांधीजी और [[सरदार पटेल]] का आशीर्वाद मिला था। 1939 में इन इंडियन फ़िल्म्स नाम से ऑल इंडिया रेडियो ने फ़िल्म कलाकारों से साक्षातकार की एक | वर्ष 1937 में मोतीलाल ने सागर मूवीटोन छोडकर रणजीत स्टूडियो में शामिल हुए। इस बैनर की फ़िल्मों में उन्होंने 'दीवाली' से 'होली' के रंगों तक, ब्राह्मण से अछूत तक, देहाती से शहरी छैला बाबू तक के बहुरंगी रोल से अपने प्रशंसकों का भरपूर मनोरंजन किया। उस दौर की लोकप्रिय गायिका-नायिका खुर्शीद के साथ उनकी फ़िल्म 'शादी' सुपर हिट रही थी। रणजीत स्टूडियो में काम करते हुए मोतीलाल की कई जगमगाती फ़िल्में आई- 'परदेसी', 'अरमान', 'ससुराल' और 'मूर्ति'। बॉम्बे टॉकीज ने [[गांधीजी]] से प्रेरित होकर फ़िल्म 'अछूत कन्या' बनाई थी। रणजीत ने मोतीलाल- गौहर मामाजीवाला की जोडी को लेकर 'अछूत' फ़िल्म बनाई। फ़िल्म का नायक बचपन की सखी का हाथ थामता है, जो अछूत है। नायक ही मंदिर के द्वार सबके लिए खुलवाता है। इस फ़िल्म को गांधीजी और [[सरदार पटेल]] का आशीर्वाद मिला था। 1939 में इन इंडियन फ़िल्म्स नाम से ऑल इंडिया रेडियो ने फ़िल्म कलाकारों से साक्षातकार की एक श्रृंखला प्रसारित की थी। इसमें 'अछूत' का विशेष उल्लेख इसलिए किया गया था कि फ़िल्म में गांधीजी के अछूत उद्घार के संदेश को सही तरीके से उठाया गया था।<ref name="फ़िल्मजगत"/> नायकों में सर्वाधिक वेतन पाने वाले थे उस जमाने के लोकप्रिय अभिनेता मोतीलाल, उन्हें ढाई हजार रुपये मासिक वेतन के रूप में मिलते थे। फ़िल्मी कलाकारों से मिलने के लियए उस जमाने में भी लोग लालायित रहते थे। | ||
==अद्भुत अभिनय प्रतिभा== | ==अद्भुत अभिनय प्रतिभा== | ||
मोतीलाल की अदाकारी के अनेक पहलू हैं। कॉमेडी रोल से वे दर्शकों को गुदगुदाते थे, तो 'दोस्त' और 'गजरे' जैसी फ़िल्मों में अपनी संजीदा अदाकारी से लोगों की आंखों में आंसू भी भर देते थे। वर्ष 1950 के बाद मोतीलाल ने चरित्र नायक का चोला धारणकर अपने अद्भुत अभिनय की मिसाल पेश की। [[विमल राय]] की फ़िल्म 'देवदास' (1955) में देवदास के शराबी दोस्त चुन्नीबाबू के रोल को उन्होंने लार्जर देन लाइफ का दर्जा दिलाया। दर्शकों के दिमाग में वह सीन याद होगा, जब नशे में चूर चुन्नीबाबू घर लौटते हैं, तो दीवार पर पड़ रही खूंटी की छाया में अपनी छड़ी को बार-बार लटकाने की नाकाम कोशिश करते हैं। 'देवदास' का यह क्लासिक सीन है। [[राज कपूर]] निर्मित और शंभू मित्रा-अमित मोइत्रा निर्देशित फ़िल्म 'जागते रहो' (1956) के उस शराबी को याद कीजिए, जो रात को सुनसान सडक पर नशे में झूमता-लडखडाता गाता है- 'ज़िंदगी ख्वाब है'। <ref name="फ़िल्मजगत"/> | मोतीलाल की अदाकारी के अनेक पहलू हैं। कॉमेडी रोल से वे दर्शकों को गुदगुदाते थे, तो 'दोस्त' और 'गजरे' जैसी फ़िल्मों में अपनी संजीदा अदाकारी से लोगों की आंखों में आंसू भी भर देते थे। वर्ष 1950 के बाद मोतीलाल ने चरित्र नायक का चोला धारणकर अपने अद्भुत अभिनय की मिसाल पेश की। [[विमल राय]] की फ़िल्म 'देवदास' (1955) में देवदास के शराबी दोस्त चुन्नीबाबू के रोल को उन्होंने लार्जर देन लाइफ का दर्जा दिलाया। दर्शकों के दिमाग में वह सीन याद होगा, जब नशे में चूर चुन्नीबाबू घर लौटते हैं, तो दीवार पर पड़ रही खूंटी की छाया में अपनी छड़ी को बार-बार लटकाने की नाकाम कोशिश करते हैं। 'देवदास' का यह क्लासिक सीन है। [[राज कपूर]] निर्मित और शंभू मित्रा-अमित मोइत्रा निर्देशित फ़िल्म 'जागते रहो' (1956) के उस शराबी को याद कीजिए, जो रात को सुनसान सडक पर नशे में झूमता-लडखडाता गाता है- 'ज़िंदगी ख्वाब है'। <ref name="फ़िल्मजगत"/> | ||
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* [[1957]] - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार - देवदास | * [[1957]] - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार - देवदास | ||
==अंतिम समय== | ==अंतिम समय== | ||
उन्होंने अपने जीवन के उत्तरार्द्घ में राजवंश प्रोडक्शन क़ायम करके फ़िल्म 'छोटी-छोटी बातें' बनाई थी। फ़िल्म को राष्ट्रपति का सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट | उन्होंने अपने जीवन के उत्तरार्द्घ में राजवंश प्रोडक्शन क़ायम करके फ़िल्म 'छोटी-छोटी बातें' बनाई थी। फ़िल्म को राष्ट्रपति का सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट ज़रूर मिला, पर मोतीलाल दिवालिया हो गए। फ़िल्म 'तीसरी कसम' [[शैलेंद्र]] के जीवन के लिए भारी साबित हुई थी। मोतीलाल का यही हाल 'छोटी छोटी बातें' कर गई। <ref name="फ़िल्मजगत"/> | ||
06:36, 10 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
मोतीलाल (अभिनेता)
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पूरा नाम | मोतीलाल |
जन्म | 4 दिसम्बर, 1910 |
जन्म भूमि | शिमला |
मृत्यु | 1965 |
कर्म भूमि | मुम्बई |
कर्म-क्षेत्र | अभिनेता |
मुख्य फ़िल्में | परख, वक्त, लीडर, देवदास (1955), जागते रहो आदि |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | नायकों में सर्वाधिक वेतन पाने वाले थे उस जमाने के लोकप्रिय अभिनेता मोतीलाल, उन्हें ढाई हजार रुपये मासिक वेतन के रूप में मिलते थे। |
मोतीलाल (अंग्रेज़ी: Motilal, जन्म: 4 दिसम्बर, 1910 - मृत्यु: 1965) हिंदी सिनेमा के प्रसिद्ध अभिनेता थे। मोतीलाल ने अपने जादू से नायक और चरित्र अभिनेता के रूप में दो दशक तक दर्शकों के दिलों पर राज किया। उन्होंने हिंदी फ़िल्मों को मेलोड्रामाई संवाद अदायगी और अदाकारी की तंग गलियों से निकालकर खुले मैदान की ताजी हवा में खड़ा किया।
जीवन परिचय
शिमला में 4 दिसंबर 1910 को जन्मे मोतीलाल राजवंश जब एक साल के थे, तभी पिता का साया सिर से उठ गया। चाचा ने परवरिश की, जो उत्तर प्रदेश में सिविल सर्जन थे। चाचा ने मोती को बचपन से जीवन को बिंदास अंदाज़में जीने और उदारवादी सोच का नजरिया दिया। शिमला के अंग्रेज़ी स्कूल में शुरूआती पढ़ाई के बाद उत्तर प्रदेश और फिर दिल्ली में उच्च शिक्षा हासिल की। अपने कॉलेज के दिनों में वे हरफनमौला विद्यार्थी थे। नौसेना में शामिल होने के इरादे से मुंबई आए थे। अचानक बीमार हो गए, तो प्रवेश परीक्षा नहीं दे पाए। शानदार ड्रेस पहनकर सागर स्टूडियो में शूटिंग देखने जा पहुंचे। वहां निर्देशक कालीप्रसाद घोष एक सामाजिक फ़िल्म की शूटिंग कर रहे थे। अपने सामने स्मार्ट यंगमैन मोतीलाल को देखा, तो उनकी आँखें खुली रह गई। उन्हें अपनी फ़िल्म के लिए ऐसे ही हीरो की तलाश थी, जो बगैर बुलाए मेहमान की तरह सामने खड़ा था। उन्होंने अगली फ़िल्म 'शहर का जादू' (1934) में सविता देवी के साथ मोतीलाल को नायक बना दिया। तब तक पार्श्वगायन प्रचलन में नहीं आया था। लिहाजा मोतीलाल ने के. सी. डे के संगीत निर्देशन में अपने गीत खुद गाए थे। इनमें 'हमसे सुंदर कोई नहीं है, कोई नहीं हो सकता' गीत लोकप्रिय भी हुआ। सागर मूवीटोन उस जमाने में कलाकारों की नर्सरी थी। सुरेंद्र, बिब्बो, याकूब, माया बनर्जी, कुमार और रोज जैसे कलाकार वहां कार्यरत थे। निर्देशकों में महबूब ख़ान, सर्वोत्तम बदामी, चिमनलाल लोहार अपनी सेवाएं दे रहे थे। मोतीलाल ने अपनी शालीन कॉमेडी, मैनरिज्म और स्वाभाविक संवाद अदायगी के जरिए तमाम नायकों को पीछे छोड़ते हुए नया इतिहास रचा। परदे पर वे अभिनय करते कभी नजर नहीं आए। मानो उसी किरदार को साकार रहे हो।[1]
प्रसिद्धि
वर्ष 1937 में मोतीलाल ने सागर मूवीटोन छोडकर रणजीत स्टूडियो में शामिल हुए। इस बैनर की फ़िल्मों में उन्होंने 'दीवाली' से 'होली' के रंगों तक, ब्राह्मण से अछूत तक, देहाती से शहरी छैला बाबू तक के बहुरंगी रोल से अपने प्रशंसकों का भरपूर मनोरंजन किया। उस दौर की लोकप्रिय गायिका-नायिका खुर्शीद के साथ उनकी फ़िल्म 'शादी' सुपर हिट रही थी। रणजीत स्टूडियो में काम करते हुए मोतीलाल की कई जगमगाती फ़िल्में आई- 'परदेसी', 'अरमान', 'ससुराल' और 'मूर्ति'। बॉम्बे टॉकीज ने गांधीजी से प्रेरित होकर फ़िल्म 'अछूत कन्या' बनाई थी। रणजीत ने मोतीलाल- गौहर मामाजीवाला की जोडी को लेकर 'अछूत' फ़िल्म बनाई। फ़िल्म का नायक बचपन की सखी का हाथ थामता है, जो अछूत है। नायक ही मंदिर के द्वार सबके लिए खुलवाता है। इस फ़िल्म को गांधीजी और सरदार पटेल का आशीर्वाद मिला था। 1939 में इन इंडियन फ़िल्म्स नाम से ऑल इंडिया रेडियो ने फ़िल्म कलाकारों से साक्षातकार की एक श्रृंखला प्रसारित की थी। इसमें 'अछूत' का विशेष उल्लेख इसलिए किया गया था कि फ़िल्म में गांधीजी के अछूत उद्घार के संदेश को सही तरीके से उठाया गया था।[1] नायकों में सर्वाधिक वेतन पाने वाले थे उस जमाने के लोकप्रिय अभिनेता मोतीलाल, उन्हें ढाई हजार रुपये मासिक वेतन के रूप में मिलते थे। फ़िल्मी कलाकारों से मिलने के लियए उस जमाने में भी लोग लालायित रहते थे।
अद्भुत अभिनय प्रतिभा
मोतीलाल की अदाकारी के अनेक पहलू हैं। कॉमेडी रोल से वे दर्शकों को गुदगुदाते थे, तो 'दोस्त' और 'गजरे' जैसी फ़िल्मों में अपनी संजीदा अदाकारी से लोगों की आंखों में आंसू भी भर देते थे। वर्ष 1950 के बाद मोतीलाल ने चरित्र नायक का चोला धारणकर अपने अद्भुत अभिनय की मिसाल पेश की। विमल राय की फ़िल्म 'देवदास' (1955) में देवदास के शराबी दोस्त चुन्नीबाबू के रोल को उन्होंने लार्जर देन लाइफ का दर्जा दिलाया। दर्शकों के दिमाग में वह सीन याद होगा, जब नशे में चूर चुन्नीबाबू घर लौटते हैं, तो दीवार पर पड़ रही खूंटी की छाया में अपनी छड़ी को बार-बार लटकाने की नाकाम कोशिश करते हैं। 'देवदास' का यह क्लासिक सीन है। राज कपूर निर्मित और शंभू मित्रा-अमित मोइत्रा निर्देशित फ़िल्म 'जागते रहो' (1956) के उस शराबी को याद कीजिए, जो रात को सुनसान सडक पर नशे में झूमता-लडखडाता गाता है- 'ज़िंदगी ख्वाब है'। [1]
मोतीलाल की जूता पॉलिश
कहा जाता है कि मोती अभिनय नहीं करते थे, अभिनय की भूमिका को अपने में आत्मसात कर जाते थे वह। इसी से आप उनकी किसी भी फ़िल्म को याद कीजिए, आपको ऐसा लगेगा जैसे उस कहानी का जीवित पात्र आपकी आंखों के सम्मुख आकर उपस्थित हो गया हो। मोती स्वयं इसका कारण नहीं समझ पाते थे - या शायद यह फिर उनकी विनम्रता रही हो। अपने अभिनय जीवन के प्रारंभ की उस घटना को आजीवन विस्मृत नहीं कर पाये थे। फ़िल्म का नाम भी नहीं याद रह पाया था उनको, न उसके निर्माता-निर्देशक का अता-पता, लेकिन उस फ़िल्म के निर्माण के मध्य जिस छोटी सी घटना के माध्यम से उन्हें जीवन के सबसे बड़े सन्तोष की प्राप्ति हुर्इ थी वह जीवन के अंत तक उनकी आंखों में तैरती रही। कोशिश करने पर भी उसे भूल सकना शायद उनके लिये संभव ही नहीं हो पाया।
बम्बर्इ के बोरीबन्दर के सम्मुख वह उस दृश्य की शूटिंग कर रहे थे। भूमिका थी जूतों पर पालिश करने वाले एक आदमी की। फटे-पुराने कपड़े, बढ़ी हुर्इ डाढ़ी-मूंछें, धूलधूसरित हाथ-पैर और आंखों में एक दारूण दैन्य। पालिश करने वाले उस पात्र का जैसे पूरा रूप उजागर हो गया हो उनके माध्यम से। तभी उनको एक परिचित वृद्ध दिखायी दे गये और यह जानते हुए भी कि वह मात्र अभिनय है, मोती के लिये उनकी आंखों से आंख मिला पाना मुमकिन नहीं हो पाया उस वक्त। लेकिन वह सज्जन मोती के पास पहुंच चुके थे और तब मोती को उनकी ओर मुखातिब ही होना पड़ा। देखा, उन बुज़ुर्ग की आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे और अपने उन्हीं आंसुओं के मध्य वह मोती से कहते जा रहे थे, अभी तो मैं ज़िंदा हूँ बेटा, मेरे पास तुम क्यों नहीं आये आखिर – जैसे भी होता हम लोग मिलजुल कर अपना पेट पाल लेते, यह नौबत आने ही क्यों दी तुमने? …… और मोती कुछ भी नहीं बोल पाये थे उस वक्त। अपनी सफ़ार्इ दे पाना भी संभव नहीं लग रहा था उनको। लेकिन उस घटना को मोती आजीवन अपनी अभिनय-प्रतिभा का सबसे बड़ा प्रमाणपत्र मानते रहे, और जब कभी उसकी याद उनको आती थी उनकी आंखों से झरझर आंसू बहने लगते थे।[2]
प्रसिद्ध फ़िल्में
वर्ष | फ़िल्म | विशेष टिप्पणी |
---|---|---|
1966 | ये ज़िन्दगी कितनी हसीन है | |
1965 | वक्त | |
1964 | लीडर | |
1963 | ये रास्ते हैं प्यार के | |
1960 | परख | फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार |
1959 | अनाड़ी | |
1959 | पैग़ाम | |
1956 | जागते रहो | |
1955 | देवदास | फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार |
1953 | धुन | |
1950 | हँसते आँसू | |
1946 | फूलवरी |
एक सिगरेट के कारण छोड़ी फ़िल्म
पहले के दिग्गज फ़िल्म निर्देशकों को अपने पर पूरा विश्वास और भरोसा होता था। उनके नाम और प्रोडक्शन की बनी फ़िल्म का लोग इंतज़ार करते थे। उसमें कौन काम कर रहा है यह बात उतने मायने नहीं रखती थी। कसी हुई पटकथा और सधे निर्देशन से उनकी फ़िल्में सदा धूम मचाती रहती थीं। अपनी कला पर पूर्ण विश्वास होने के कारण ऐसे निर्देशक कभी किसी प्रकार का समझौता नहीं करते थे। ऐसे ही फ़िल्म निर्देशक थे वही। शांताराम। उन्हीं से जुड़ी एक घटना का ज़िक्र है :-
उन दिनों शांताराम जी डॉ. कोटनीस पर एक फ़िल्म बना रहे थे "डॉ. कोटनीस की अमर कहानी" जिसमें उन दिनों के दिग्गज तथा प्रथम श्रेणी के नायक मोतीलाल को लेना तय किया गया था। मोतीलाल ने उनका प्रस्ताव स्वीकार भी कर लिया था। शांतारामजी ने उन्हें मुंहमांगी रकम भी दे दी थी। पहले दिन जब सारी बातें तय हो गयीं तो मोतीलाल ने अपने सिगरेट केस से सिगरेट निकाली और वहीं पीने लगे। शांतारामजी बहुत अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे। उनका नियम था कि स्टुडियो में कोई धूम्रपान नहीं करेगा। उन्होंने यह बात मोतीलाल को बताई और उनसे ऐसा ना करने को कहा। मोतीलाल को यह बात खल गयी, उन्होंने कहा कि सिगरेट तो मैं यहीं पिऊंगा। शांतारामजी ने उसी समय सारे अनुबंध खत्म कर डाले और मोतीलाल को फ़िल्म से अलग कर दिया। फिर खुद ही कोटनीस की भूमिका निभायी।[3]
सम्मान और पुरस्कार
- 1961 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार - परख
- 1957 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार - देवदास
अंतिम समय
उन्होंने अपने जीवन के उत्तरार्द्घ में राजवंश प्रोडक्शन क़ायम करके फ़िल्म 'छोटी-छोटी बातें' बनाई थी। फ़िल्म को राष्ट्रपति का सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट ज़रूर मिला, पर मोतीलाल दिवालिया हो गए। फ़िल्म 'तीसरी कसम' शैलेंद्र के जीवन के लिए भारी साबित हुई थी। मोतीलाल का यही हाल 'छोटी छोटी बातें' कर गई। [1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 मोतीलाल (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) फ़िल्मजगत। अभिगमन तिथि: 16 दिसम्बर, 2012।
- ↑ मोतीलाल की जूता पॉलिश (हिंदी) प्रवक्ता डॉट कॉम। अभिगमन तिथि: 16 दिसम्बर, 2012।
- ↑ प्रख्यात फ़िल्म अभिनेता मोतीलाल को सिर्फ एक सिगरेट के कारण फ़िल्म छोड़नी पड़ी थी. (हिंदी) कुछ अलग सा। अभिगमन तिथि: 16 दिसम्बर, 2012।
बाहरी कड़ियाँ
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