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==मुग़ल और अफ़ग़ान==  
=अकबर का युग=
1525-1556
[[हुमायूँ]] जब [[बीकानेर]] से लौट रहा था तो [[अमरकोट]] के [[राणा सांगा|राणा]] ने साहस करके उसे सहारा और सहायता दी। अमरकोट में ही 1542 में मुग़लों में महानतम शासक [[अकबर]] का जन्म हुआ। जब हुमायूँ [[ईरान]] की ओर भागा तो उसके बच्चे अकबर को उसके चाचा [[कामरान शाहज़ादा|कामरान]] ने पकड़ लिया। उसने बच्चे का भली-भाँति पालन-पोषण किया। कन्धार पर फिर से हुमायूँ का अधिकार हो जाने पर अकबर फिर अपने माता-पिता से मिला। हुमायूँ की मृत्यु के समय अकबर [[पंजाब]] में [[कलानौर]] में था, और अफ़ग़ान विद्रोहियों से निपटने में व्यस्त था। 1556 में कलानौर में ही अकबर की ताजपोशी हुई। उस समय वह तेरह वर्ष और चार महीने का था।
==हेमू==  
अकबर को कठिन परिस्थितियाँ विरासत में मिली। [[आगरा]] के पार [[अफ़ग़ान]] अभी भी सबल थे और [[हेमू]] के नेतृत्व में अन्तिम लड़ाई की तैयारी कर रहे थे। [[क़ाबुल]] पर आक्रमण करके घेरा डाला जा चुका था। पराजित अफ़ग़ान सरदार सिकन्दर सूर [[शिवालिक पहाड़ियाँ|शिवालिक की पहाड़ियों]] में घूम रहा था। लेकिन अकबर के उस्ताद और हुमायूँ के स्वामिभक्त और योग्य अधिकारी [[बैरमख़ाँ]] ने परिस्थिति का कुशलता से सामना किया। वह [[ख़ान-ए-ख़ाना]] की उपाधि धारण करके राज्य का वकील बन गया और उसने मुग़ल सेनाओं का पुनर्गठन किया। हेमू की ओर से ख़तरे को सबसे गंभीर समझा गया। उस समय [[चुनार]] से लेकर [[अखण्डित बंगाल|बंगाल]] की सीमा तक प्रदेश [[शेरशाह]] के एक भतीजे आदिलशाह के शासन में था। हेमू ने अपना जीवन इस्लामशाह के राज्यकाल में बाज़ारों के अधीक्षक के रूप में शुरू किया था और आदिलशाह के काल में उसने यकायक उन्नति की थी। उसने बाईस लड़ाईयों में से एक भी नहीं हारी थी। आदिलशाह ने उसे विक्रमजीत की उपाधि प्रदान करके वज़ीर नियुक्त कर लिया था। उसने उसे मुग़लों को खदेड़ने का उत्तरदायित्व सौंप दिया। हेमू ने आगरा पर अधिकार कर लिया और 50,000 घुड़सवार, 500 हाथी और विशाल तोपख़ाना लेकर [[दिल्ली]] की ओर बढ़ दौड़ा।
एक संघर्षपूर्ण लड़ाई में हेमू ने मुग़लों को पराजित कर दिया और दिल्ली पर अधिकार कर लिया। लेकिन परिस्थिति का सामना करने के लिए बैरमख़ाँ ने साहस पूर्ण क़दम उठाये। उसके इस साहसिक क़दम से मुग़ल सेना में एक नयी शक्ति का संचार हुआ और उसने हेमू की अपनी स्थिति मज़बूत करने का अवसर दिए बिना दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। हेमू के नेतृत्व में अफ़ग़ान फ़ौज और मुग़लों के बीच [[पानीपत]] के मैदान में एक बार फिर लड़ाई हुई (5 नवम्बर 1556)। मुग़लों की एक टुकड़ी ने हेमू के तोपख़ाने पर पहले अधिकार कर लिया लेकिन पलड़ा हेमू का ही भारी था। लेकिन तभी एक तीर हेमू की आंख में लगा और वह बेहोश हो गया। नेतृत्वहीन अफ़ग़ान सेना पराजित हो गई। हेमू को पकड़कर मार डाला गया। इस प्रकार अकबर को साम्राज्य पुनः लड़कर लेना पड़ा।


पन्द्रहवीं शताब्दी में मध्य और पश्चिम एशिया में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। चौदहवीं शताब्दी में मंगोल साम्राज्य के विघटन के पश्चात [[तैमूर]] ने ईरान और तूरान को फिर से एक शासन के अंतर्गत संगठित किया। तैमूर का साम्राज्य वोलगा नदी के निचले हिस्से से [[सिन्धु नदी]] तक फैला हुआ था और उसमें एशिया का माइनर (आधुनिक तुर्की), [[ईरान]], ट्रांस-आक्सियाना, [[अफ़ग़ानिस्तान]] और [[अखंडित पंजाब|पंजाब]] का एक भाग था। 1404 में तैमूर की मृत्यु हो गई। लेकिन उसके पोते शाहरूख मिर्ज़ा ने साम्राज्य का अधिकांश भाग संगठित रखा। उसके समय में [[समरकन्द]] और [[हिरात]] पश्चिम एशिया के सांस्कृतिक केन्द्र बन गए। प्रत्येक समरकन्द के शासक का इस्लामी दुनिया में काफ़ी सम्मान था।
==सरदारों से संघर्ष ==
==तैमूर==
(1556-67)
पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में देशों का सम्मान तेज़ी से कम हुआ। इसका कारण तैमूर के साम्राज्य को विभाजित करने की परम्परा थी। अनेक तैमूर रियासतें, जो इस प्रक्रिया में बनी, आपस में लड़ती-झगड़ती रहीं। इससे नये तत्वों को आगे बढ़ने का मौक़ा मिला। उत्तर से एक मंगोल जाति उज़बेक ने ट्रांस-आक्सीयाना में अपने कदम बढ़ाये। उज़बेकों ने इस्लाम अपना लिया था। लेकिन तैमूरी उन्हें असंस्कृत बर्बर ही समझते थे। और पश्चिम की ओर ईरान में सफ़वीं वंश का उदय हुआ। सफ़वी सन्तों की परम्परा में पनपे थे। जो स्वयं को पैग़म्बर के वंशज मानते थे। वे मुसलमानों के शिया मत का समर्थन करते थे और उन्हें परेशान करते थे जो [[शिया]] सिद्धांतों को अस्वीकार करते थे। दूसरी ओर [[उज़बेक]] [[सुन्नी]] थे। इसलिए उन दोनों तत्वों के बीच संघर्ष साम्प्रदायिक मतभेद के कारण और भी बढ़ गया। ईरान के भी पश्चिम में आटोमन तुर्कों की शक्ति उभर रही थी। जो पूर्वी यूरोप तथा इराक और ईरान पर अधिपत्य जमाना चाहते थे।
===बैरमख़ाँ===
बैरमख़ाँ लगभग चार वर्षों तक साम्राज्य का सरगना रहा। इस दौरान उसने सरदारों को क़ाबू में रखा। क़ाबुल पर ख़तरा टल गया था और साम्राज्य की सीमा का विस्तार क़ाबुल से पूर्व में स्थित [[जौनपुर]] तक और पश्चिम में [[अजमेर]] तक हो गया था। ग्वालियर पर भी अधिकार कर लिया गया था और [[रणथम्भौर]] और [[मालवा]] को जीतने का भी भरसक प्रयास किया गया।
इधर अकबर भी परिपक्व हो रहा था। बैरमख़ाँ ने बहुत से प्रभावशाली व्यक्तियों को नाराज़ कर लिया था। उन्होंने शिकायत की कि बैरमख़ाँ शिया है और वह अपने समर्थकों और शियाओं को उच्च पदों पर नियुक्त कर रहा है। ये दोषारोपण अपने आप में बहुत गंभीर नहीं थे लेकिन बैरमख़ाँ बहुत उद्धत हो गया था और इस बात को भूल रहा था अकबर बड़ा हो रहा है। छोटी-छोटी बातों पर दोनों में मतभेद हो गया और '''अकबर को यह अनुभव हुआ कि लम्बे समय तक राज्य कार्य किसी दूसरे के हाथ में नहीं सौंपा जा सकता।'''
अकबर ने बहुत ही होशियारी से काम लिया। वह शिकार के बहाने आगरा से निकला और दिल्ली पहुँच गया। दिल्ली से उसने बैरमख़ाँ को अपदस्थ करते हुए एक फ़रमान जारी किया और सब सरदारों को व्यक्तिगत रूप से अपने सामने हाज़िर होने का आदेश दिया। बैरमख़ाँ ने जब यह महसूस किया कि अकबर सारे अधिकार अपने हाथ में लेना चाहता है, वह इसके लिए तैयार था लेकिन उसके विराधी उसे नष्ट करने पर तुले हुए थे। उन्होंने उसे इतना ज़लील किया कि वह विद्रोह पर उतारू हो गया। इस विद्रोह के कारण साम्राज्य में छह महीने तक अव्यवस्था रही। अन्ततः बैरमख़ाँ समर्पण करने पर विवश हो गया। अकबर ने विनम्रता से उसका स्वागत किया और उसके सामने दो विकल्प रखे कि या तो वह उसके दरबार में कार्य करता रहे या [[मक्का (अरब)|मक्का]] चला जाये। बैरमख़ाँ ने मक्का चला जाना बेहतर समझा लेकिन रास्ते में [[अहमदाबाद]] के निकट पाटन में अफ़ग़ानों ने व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण उसकी हत्या कर दी। बैरमख़ाँ की पत्नी और उसके छोटे बच्चे को अकबर के पास लाया गया। अकबर ने बैरम की विधवा के साथ जो उसकी रिश्ते में बहन लगती थी, विवाह कर लिया और बच्चे को बेटे की तरह पाला। यह बच्चा बाद में अब्दुर रहीम ख़ान-ए-ख़ाना के नाम से प्रसिद्ध हुआ और साम्राज्य के महत्त्वपूर्ण पद और सैनिक पद भी उसके पास रहे। बैरमख़ाँ के साथ '''अकबर के चरित्र की कुछ विलक्षणताएं स्पष्ट होती हैं। एक बार रास्ता निर्धारित कर लेने पर वह झुकता नहीं था लेकिन किसी प्रतिद्वन्दी के समर्पण कर देने पर वह उसके प्रति बहुत दयालु भी हो उठता था।'''


इस प्रकार सोलहवीं शताब्दी में एशिया में तीन बड़ी साम्राज्य शक्तियों के बीच संघर्ष की भूमिका तैयार हो गई।
===उज़बेक===  
==बाबर==
[[चित्र:Akbar.jpg|thumb|200px|अकबर<br />Akabar]]
1494 में ट्रांस-आक्सीयाना की एक छोटी सी रियासत फ़रगाना का बाबर उत्तराधिकारी बना। उज़बेक ख़तरे से बेख़बर होकर तैमूर राजकुमार आपस में लड़ रहे थे। [[बाबर]] ने भी अपने चाचा से [[समरकन्द]] छीनना चाहा। उसने दो बार उस शहर को फ़तह किया, लेकिन दोनों ही बार उसे जल्दी ही छोड़ना पड़ा। दूसरी बार उज़बेक शासक शैबानी ख़ान को समरकन्द से बाबर को खदेड़ने के लिए आमंत्रित किया गया था। उसने बाबर को हराकर समरकन्दर पर अपना झंडा फहरा दिया। उसके बाद जल्दी ही उसने उस क्षेत्र में तैमूर साम्राज्य के भागों को भी जीत लिया। इससे बाबर को [[क़ाबुल]] की ओर बढ़ना पड़ा और उसने 1504 में उस पर अधिकार कर लिया। उसके बाद चौदह वर्ष तक वह इस अवसर की तलाश में रहा कि फिर उज़बेकों को हराकर अपनी मातृभूमि पर पुनः अधिकार कर सके। उसने अपने चाचा, हिरात के शासक को अपनी ओर मिलाना चाहा, लेकिन इस कार्य में वह सफल नहीं हुआ। शैबानी ख़ान ने अंततः हिरात पर भी अधिकार कर लिया। इससे सफ़वीयों से उसका सीधा संघर्ष उत्पन्न हो गया। क्योंकि वे भी हिरात और उसके आस-पास के क्षेत्र को अपना कहते थे। इस प्रदेश को तत्कालीन लेखकों ने ख़ुरासान कहा है। 1510 की प्रसिद्ध लड़ाई में ईरान के शाह इस्माइल ने शैबानी को हराकर मार डाला। इसी समय बाबर ने समरकन्द जीतने का एक प्रयत्न और किया। इस बार उसने ईरानी सेना की सहायता ली। वह समरकन्द पहुंच गया। लेकिन जल्दी ही ईरानी सेनापतियों के व्यवहार के कारण रोष से भर गया। वे उसे ईरानी साम्राज्य का एक गवर्नर ही मानते थे। स्वतंत्र शासक नहीं। इसी बीच उज़बेक भी अपनी हार से उभर गये। बाबर को एक बार फिर समरकन्द से खदेड़ दिया गया और उसे क़ाबुल लौटना पड़ा। स्वयं शाह ईरान इस्माइल को भी आटोहान-साम्राज्य के साथ हुई प्रसिद्ध लड़ाई में हार का सामना करना पड़ा। इस प्रकार उज़बेक ट्रांस-आक्सीयाना के निर्विरोध स्वामी हो गए।
बैरमख़ाँ के विद्रोह के दौरान सरदारों में बहुत से व्यक्ति और दल राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गये थे। इनमें अकबर की धाय माँ [[माहम अनगा]] और उसके संबंधी भी थे। यद्यपि महम अनगा ने शीघ्र ही सन्न्यास ले लिया परन्तु उसका पुत्र आदमख़ाँ एक महत्त्वाकांक्षी नौजवान था। उसे मालवा के विरुद्ध एक अभियान का सेनापति बनाकर भेजा गया। लेकिन जब उसे अपदस्थ कर दिया गया तो उसने वज़ीर के पद की मांग की और जब उसकी मांग स्वीकार नहीं की गई तो उसने कार्यवाहक वज़ीर को छुरा घोंप दिया। इससे अकबर बहुत क्रोधित हुआ और आदमख़ाँ को क़िले की दीवार से फिंकवा देने का आदेश दिया। इस प्रकार आदमख़ाँ 1561 में मर गया। परन्तु अकबर को सम्पूर्ण अधिकार स्थापित करने में बहुत वर्ष लगे। [[उज़बेक|उज़बेकों]] ने सरदारों में एक अपना शक्तिशाली दल बना लिया था। उनके पास पूर्वी उत्तर-प्रदेश, बिहार और मालवा में महत्त्वपूर्ण पद थे। यद्यपि उन्होंने उन क्षेत्रों में शक्तिशाली अफ़ग़ान दलों को दबाये रखकर साम्राज्य की बहुत सेवा की परन्तु वे बहुत उद्धत हो गये थे और तरुण शासक की हुक़्मउदूली करने लगे थे। 1561 और 1567 के बीच उन्होंने कई बार विद्रोह किय जिससे विवश होकर अकबर को उनके विरुद्ध सैनिक कार्रवाई करनी पड़ी। प्रत्येक बार अकबर ने उन्हें क्षमा कर दिया लेकिन जब 1565 में उन्होंने फिर विद्रोह किया तो अकबर इतना उत्तेजित हुआ कि उसने निर्णय किया कि जब तक वह उन्हें मिटा नहीं देगा तब तक जौनपुर को राजधानी बनाये रखेगा। इसी बीच मिर्ज़ाओं के विद्रोह ने अकबर को उलझा लिया। मिर्ज़ा अकबर के संबंधी थे और [[तैमूर वंश|तैमूर वंशी]] थे। इन्होंने आधुनिक [[उत्तर प्रदेश]] के पश्चिम में पड़ने वाले क्षेत्रों में गड़बड़ मचाई। अकबर के सौतेले भाई मिर्जा हक़ीम ने क़ाबुल पर अधिकार करके [[अखंडित पंजाब|पंजाब]] की ओर कूच किया और [[लाहौर]] पर घेरा डाल दिया। लेकिन उज़बेक विद्रोहियों ने अकबर को औपचारिक रूप से अपना शासक स्वीकार कर लिया।
इन घटनाऔं के कारण ही अन्ततः बाबर ने भारत की ओर रूख किया।
==दिल्ली विजय==
हेमू के दिल्ली पर अधिकार करने के बाद अकबर के सामने यह गंभीर संकट था। परन्तु अकबर की कुशलता और भाग्य ने उसे विजय दिलाई। वह जौनपुर से लाहौर की ओर बढ़ा जिससे मिर्ज़ा हक़ीम पीछे हटने को मजबूर हो गया। इस बीच मिर्ज़ाओं के विद्रोह को कुचल दिया गया और वे [[मालवा]] और [[गुजरात]] की ओर भाग गये। अकबर लाहौर से जौनपुर लौटा। वर्षा ऋतु में [[इलाहाबाद]] के निकट [[यमुना नदी|यमुना]] पार करके उज़बेक सरदारों के नेतृत्व ने विद्रोह करने वालों को आश्चर्यचकित कर दिया और उन्हें पूरी तरह से पराजित किया। उज़बेक नेता लड़ाई में मारे गये और इस प्रकार यह लम्बा विद्रोह समाप्त हो गया। उन सरदारों सहित जो स्वतंत्रता का सपना देख रहे थे, सभी विद्रोही सरदार पस्त पड़ गये। अब अकबर अपने साम्राज्य के विस्तार की ओर ध्यान देने के लिये मुक्त था।
बाबर ने लिखा है कि क़ाबुल जीतने (1504) से लेकर पानीपत की लड़ाई तक उसने हिन्दुस्तान जीतने का विचार कभी नहीं त्यागा। लेकिन उसे भारत विजय के लिए कभी सही अवसर नहीं मिला था।
"कभी अपने बेगों के भय के कारण, कभी मेरे और भाइयों के बीच मतभेद के कारण।" <br />
मध्य एशिया के कई अन्य आक्रमणकारियों की भांति बाबर भी भारत की अपार धन-राशि के कारण इसकी ओर आकर्षित हुआ था। भारत सोने की क़ान था। बाबर का पूर्वज तैमूर यहां से अपार धन-दौलत और बड़ी संख्या में कुशल शिल्पी ही नहीं ले गया था, जिन्होंने बाद में उसके एशिया साम्राज्य को सुदृढ़ करने और उसकी राजधानी को सुन्दर बनाने में योगदान दिया, बल्कि पंजाब के एक भाग को अपने कब्जे में कर लिया था। ये भाग अनेक पीढ़ियों तक तैमूर के वंशजों के अधीन रहे थे। जब बाबर ने अफ़ग़ानिस्तान पर विजय प्राप्त की तो उसे लगा कि इन दोनों पर भी उसका कानूनी अधिकार है।


क़ाबुल की सीमित आय भी पंजाब परगना को विजित करने का एक कारण थी। <br />
==साम्राज्य का प्रारम्भिक विस्तार ==
"उसका (बाबर) राज्य बदखशां, [[कंधार]] और काबुल पर था। जिनसे सेना की अनिवार्यताएं पूरी करने के लिए भी आय नहीं होती थी। वास्तव में कुछ सीमा प्रान्तों पर सेना बनाए रखने में और प्रशासन के काम में व्यय आमदनी से ज्यादा था।"<br />
(1567-76)
सीमित आय साधनों के कारण बाबर अपने बेगों और परिवार वालों के लिए अधिक चीज़ें उपलब्ध नहीं कर सकता था। उसे क़ाबुल पर उज़बेक आक्रमण का भी भय था। वह भारत को बढ़िया शरण-स्थल समझता था। उसकी दृष्टि में उज़बेकों के विरूद्ध अभियानों के लिए भी यह अच्छा स्थल था।
===<u>बाज़बहादुर</u>===
==लोदी==
{{मुख्य|बाज़बहादुर}}
उत्तर-पश्चिम भारत की राजनीतिक स्थिति ने बाबर को भारत आने का अवसर प्रदान किया। 1517 में [[सिकन्दर लोदी]] की मृत्यु हो गई थी और [[इब्राहिम लोदी]] गद्दी पर बैठा था। एक केन्द्राभिमुखी बड़ा साम्राज्य स्थापित करने के इब्राहिम के प्रयत्नों ने अफ़ग़ानों और राजपूतों दोनों को सावधान कर दिया था। अफ़ग़ान सरदारों में सर्वाधिक शक्तिशाली सरदार दौलत ख़ाँ लोदी था। जो पंजाब का गवर्नर था। पर वास्तव में लगभग स्वतंत्र था। दौलत ख़ाँ ने अपने बेटे को इब्राहिम लोदी के दरबार में उपहार देखकर उसे मनाने का प्रयत्न किया। साथ ही साथ वह भीरा का सीमान्त प्रदेश जीतकर अपनी स्थिति को भी मज़बूत बनाना चाहता था।
बैरमख़ाँ के संरक्षण में साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार हुआ था। अजमेर के अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण विजय थीः मालवा और [[गढ़-कटंगा]]। उस समय मालवा पर एक युवा राजकुमार [[बाज़बहादुर]] का शासन था। वह संगीत और काव्य में प्रवीण था। बाज़बहादुर और सुंदरी [[रूपमती]] की प्रेम गाथाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। सुंदर होने के साथ-साथ रूपमती संगीत और काव्य में भी सिद्धहस्त थी। बाज़बहादुर के समय में [[माँडू]] संगीत का केन्द्र था। लेकिन बाज़बहादुर ने सेना की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। मालवा के विरुद्ध अभियान का सेनापति अकबर की धाय माँ [[माहम अनगा]] का पुत्र [[अदहम ख़ाँ]] था। बाज़बहादुर बुरी तरह पराजित हुआ (1561) और मुग़लों के हाथ रूपमती सहित बहुत क़ीमती सामान हाथ लगा। लेकिन '''रूपमती ने आदमख़ाँ के हरम में जाने की बजाय आत्महत्या करना उचित समझा।''' आदमख़ाँ और उसके उत्तराधिकारियों के अविवेकपूर्ण ज़ुल्मों के कारण मुग़लों के विरुद्ध वहाँ प्रतिक्रिया हुई। जिससे बाजबहादुर को पुनः राज्य प्राप्त करने का अवसर मिला।


1518-19 में बाबर ने भीरा के शक्तिशाली क़िले को जीत लिया। फिर उसने दौलत ख़ाँ और इब्राहिम लोदी को पत्र और मौखिक संदेश भेजकर यह मांग की कि जो प्रदेश तुर्कों के हैं, वे उसे लौटा दिए जाएं। लेकिन दौलत ख़ाँ ने बाबर के दूत को [[लाहौर]] में अटका लिया। वह न स्वयं उससे मिला और न उसे इब्राहिम लोदी के पास जाने दिया। जब बाबर क़ाबुल लौट गया, तो दौलत ख़ाँ ने भीरा से उसके प्रतिनिधियों को निकाल बाहर किया।
बैरमख़ाँ के विद्रोह से निपटने के पश्चात् अकबर ने मालवा के विरुद्ध एक और अभियान छेड़ा। बाज़बहादुर को वहाँ से भागना पड़ा। उसने कुछ समय के लिए [[मेवाड़]] के राणा के पास शरण ली। एक के बाद एक दूसरे इलाके में भटकने के बाद बाज़बहादुर अकबर के दरबार में पहुँचा  और उस [[मनसबदार]] बना दिया गया। कालांतर में वह दो हज़ारी के मनसब (पद) तक बढ़ा। परम्परा के अनुसार रूपमती की समाधि के निकट उज्जैन में उसकी भी समाधि बनाई गई थी। इस प्रकार मालवा का विस्तृत क्षेत्र मुग़लों के शासन में आ गया। इसी समय के लगभग मुग़ल सेनाओं ने गढ़-कटंगा पर विजय प्राप्त की। गढ़-कटंगा के राज्य में [[नर्मदा नदी|नर्मदा]] घाटी और आधुनिक [[मध्य प्रदेश]] के उत्तरी इलाक़े सम्मिलित थे। इस राज्य की स्थापना पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में [[अमन दास]] ने की थी। अमनदास ने [[रायसेन]] को जीतने में [[गुजरात]] के बहादुरशाह की सहायता की थी और उसे इससे "संग्रामशाह" की उपाधि प्राप्त हुई।
==कंन्धार में विद्रोह==
1520-21 में बाबर ने एक बार फिर सिंधु नदी पार की और आसानी से भीरा और [[सियालकोट]] पर क़ब्ज़ा कर लिया। ये भारत के लिए मुग़ल द्वार थे। लाहौर भी पदाक्रांत हो गया। वह सम्भवतः और आगे बढ़ता, लेकिन तभी उसे कंन्धार में विद्रोह का समाचार मिला। वह उल्टे पांव लौट गया और डेढ़ साल के घेरे के बाद कन्धार को जीत लिया। उधर से निश्चिंत होकर बाबर की निगाहें फिर भारत की ओर उठीं। इसी समय के लगभग बाबर के पास दौलत ख़ाँ लोदी के पुत्र दिलावर ख़ाँ के नेतृत्व में दूत पहुंचे। उन्होंने बाबर को भारत आने का निमंत्रण दिया और कहा कि चूंकि इब्राहिम लोदी अत्याचारी है और उसके सरदारों का समर्थन अब उसे प्राप्त नहीं है, इसलिए उसे अपदस्थ करके बाबर राजा बने। इस बात की सम्भावना है कि राणा सांगा का दूत भी इसी समय उसके पास पहुंचा। इन दूतों के पहुंचने पर बाबर को लगा कि यदि हिन्दुस्तान को नहीं, तो सारे पंजाब को जीतने का समय आ गया है।


1525 में जब बाबर [[पेशावर]] में था, उसे ख़बर मिली कि दौलतखां लोदी ने फिर से अपना पाला बदल लिया है। उसने 30,000-40,000 सिपाहियों को इकट्ठा कर लिया था और बाबर की सेनाओं को स्यालकोट से खदेड़ने के बाद लाहौर की ओर बढ़ रहा था। बाबर से सामना होने पर दौलत ख़ाँ लोदी की सेना बिखर गई। दौलत ख़ाँ ने आत्मसमर्पण कर दिया और बाबर ने उसे माफ़ी दे दी। इस प्रकार सिंधु नदी पार करने के तीन सप्ताह के भीतर ही पंजाब पर बाबर का क़ब्ज़ा हो गया।
===रानी दुर्गावती===
गढ़-कटंगा में कुछ गोंडे और [[राजपूत रियासतें]] भी थीं। यह गौंडों द्वारा स्थापित एक शक्तिशाली राज्य था। कहा जाता है कि राजा के सेनापतित्व में 20,000 पैदल सिपाही, एक बड़ी संख्या घुड़सवारों की और 1,000 हाथी थे। लेकिन इन संख्याओं की विश्वसनीयता का कोई प्रमाण नहीं है। संग्रामशाह ने अपने एक पुत्र की शादी [[महोबा उत्तर प्रदेश|महोबा]] के चंदेल शासक की राजकुमारी से करके अपनी स्थिति और मज़बूत कर ली थी। यह राजकुमारी, शीघ्र ही विधवा हो गई, लेकिन उसने अपने वयस्क पुत्र को गद्दी पर बिठलाया और बड़े साहस और कुशलता के साथ राज्य किया। वह एक कुशल बंदूक़ची और तीर-अंदाज़थी। वह शिकार की शौक़ीन थी। एक तत्कालीन लेखक के अनुसार उसे जब भी आस-पास किसी [[बाघ]] के दिखाई देने की सूचना मिलती थी, वह उसका शिकार किए बिना जल भी ग्रहण नहीं करती थी। उसने आसपास के राज्यों से कई लड़ाइयाँ सफलतापूर्वक लड़ीं। बाज़बहादुर से भी उसका युद्ध हुआ। सीमा प्रान्तों के ये संघर्ष मालवा पर मुग़लों का अधिकार हो जाने के बाद भी होते रहे। इसी बीच [[दुर्गावती रानी|दुर्गावती]] के सौन्दर्य तथा अतुल धनराशि होने की कथाएँ इलाहाबाद के मुग़ल गवर्नर [[आसफ़ख़ाँ]] तक पहुँचीं।
==पानीपत की लड़ाई ==
21 अप्रैल, 1526


दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी के साथ संघर्ष अवश्यम्भावी था। बाबर इसके लिए तैयार था और उसने दिल्ली की ओर बढ़ना शृरू किया। इब्राहिम लोदी ने [[पानीपत]] में एक लाख सैनिकों को और एक हज़ार हाथियों को लेकर बाबर का सामना किया। क्योंकि हिन्दुस्तानी सेनाओं में एक बड़ी संख्या सेवकों की होती थी, इब्राहिम की सेना में लड़ने वाले सिपाही कहीं कम रहे होंगे। बाबर ने सिंधु को जब पार किया था तो उसके साथ 12000 सैनिक थे, परन्तु उसके साथ वे सरदार और सैनिक भी थे जो पंजाब में उसके साथ मिल गये थे। इस प्रकार उसके सिपाहियों की संख्या बहुत अधिक हो गई थी। फिर भी बाबर की सेना संख्या की दृष्टि से कम थी। बाबर ने अपनी सेना के एक अंश को शहर में टिका दिया जहां काफ़ी मकान थे, फिर दूसरे अंश की सुरक्षा उसने खाई खोद कर उस पर पेड़ों की डालियां डाल दी। सामने उसने गाड़ियों की कतार खड़ी करके सुरक्षात्मक दीवार बना ली। इस प्रकार उसने अपनी स्थिति काफ़ी मजबूत कर ली। दो गाड़ियों के बीच उसने ऎसी संरचना बनवायी, जिस पर सिपाही अपनी तोपें रखकर गोले चला सकत थे। बाबर इस विधि को आटोमन (रूमी) विधि कहता था। क्योंकि इसका प्रयोग आटोमनों ने ईरान के शाह इस्माईल के विरुद्ध हुई प्रसिद्ध लड़ाई में किया था। बाबर ने दो अच्छे निशानेबाज़ तोपचियों उस्ताद अली और मुस्तफ़ा की सेवाएं भी प्राप्त कर ली थीं। भारत मे बारूद का प्रयोग धीरे-धीरे होना शुरू हुआ। बाबर कहता है कि इसका प्रयोग सबसे पहले उसने भीरा के क़िले पर आक्रमण के समय किया था। ऎसा अनुमान है कि बारूद से भारतीयों का परिचय तो था, लेकिन प्रयोग बाबर के आक्रमण के साथ ही आरम्भ हुआ।
आसफ़ख़ाँ 10,000 सिपाहियों को लेकर [[बुन्देलखण्ड]] की ओर से बढ़ा। गढ़ के कुछ अर्द्ध-स्वतंत्र शासकों ने [[गोंड]] का जुआ कंधों से उतार फेंकने का अच्छा अवसर देखा। अतः रानी के पास बहुत कम फ़ौज रह गई। ज़ख़्मी होने पर भी वह, वीरतापूर्वक लड़ती रही। फिर यह देखकर की पराजय अवश्यंभावी है और उसे बंदी बनाया जा सकता है, उसने छुरा मारकर आत्महत्या कर ली। आसफ़ख़ाँ ने तब आधुनिक [[जबलपुर]] के पास स्थित उसकी राजधानी चौरागढ़ पर हल्ला बोल दिया। [[अबुलफ़ज़ल]] कहता है कि '''"इतने हीरे, जवाहरात, सोना, चाँदी और अन्य वस्तुएं हाथ लगीं की उनक अंश का भी हिसाब लगा पाना मुश्किल है। उस भारी लूट में आसफ़ख़ाँ ने केवल 200 हाथी दरबार में भेज दिए और शेष अपने पास रख लिया।" रानी की एक छोटी बहन कमलदेवी भी दरबार में भेज दी गई।'''
==इब्राहिम लोदी की कमज़ोरी==
बाबर की सुदृढ़ रक्षा-पंक्ति का इब्राहिम लोदी को कोई आभास नहीं था। उसने सोचा कि अन्य मध्य एशियायी लड़ाकों की तरह बाबर भी दौड़-भाग कर युद्ध लड़ेगा और आवश्यकतानुसार तेज़ी से आगे बढ़ेगा या पीछे हटेगा। सात या आठ दिन तक छुट-पुट झड़पों के बाद इब्राहिम लोदी की सेना अन्तिम युद्ध के लिए मैदान में आ गई। बाबर की शक्ति देखकर लोदी के सैनिक हिचके इब्राहिम लोदी अभी अपनी सेना को फिर से संगठित कर ही रहा था कि बाबर की सेना के आगे वाले दोनों अंगों ने चक्कर लगा कर उसकी सेना पर पीछे और आगे से आक्रमण कर दिया। सामने की ओर बाबर के तोपचियों ने अच्छी निशानेबाज़ी की लेकिन बाबर अपनी विजय का अधिकांश श्रेय अपने तीर अन्दाज़ों को देता है। यह आश्चर्य की बात है कि वह इब्राहिम के हाथियों का उल्लेख नहीं के बराबर करता है। यह स्पष्ट है कि इब्राहिम को उनके इस्तेमाल का समय ही नहीं मिला।
==लोदियों की हार==
प्रारम्भिक धक्कों के बावजूद इब्राहिम की सेना वीरता से लड़ी। दो या तीन घंटों तक युद्ध होता रहा। इब्राहिम 5000-6000 हजार सैनिकों के साथ अन्त तक लड़ता रहा। अनुमान है कि इब्राहिम के अतिरिक्त उसके 15000 से अधिक सैनिक इस लड़ाई में मारे गये। पानीपत की लड़ाई भारतीय इतिहास में एक निर्णायक लड़ाई मानी जाती है। इसमें लोदियों की कमर टूट गई और दिल्ली और आगरा का सारा प्रदेश बाबर के अधीन हो गया। इब्राहिम लोदी द्वारा आगरा में एकत्र ख़ज़ाने से बाबर की आर्थिक कठिनाइयां दूर हो गई। जौनपुर तक का समृद्ध क्षेत्र भी बाबर के सामने खुला था। लेकिन इससे पहले की बाबर इस पर अपना अधिकार सुदृढ़ कर सके उसे दो कड़ी लड़ाइयां लड़नी पड़ी, एक मेवाड़ के विरुद्ध दूसरी पूर्वी अफ़ग़ानों के विरुद्ध। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो पानीपत की लड़ाई राजनीतिक क्षेत्र में इतनी निर्णायक नहीं थी जितनी की समझी जाती है। इसका वास्तविक महत्व इस बात में है कि इसने उत्तर भारत पर आधिपत्य के लिए संघर्ष का एक नया युग प्रारम्भ किया।


पानीपत की लड़ाई में विजय के बाद बाबर के सामने बहुत सी कठिनाइयाँ  आईं। उसके बहुत से बेग भारत में लम्बे अभियान के लिये तैयार नहीं थे। गर्मी का मौसम आते ही उनके संदेह बढ़ गये। वे अपने घरों से दूर तक अनजाने और शत्रु देश में थे। बाबर कहता है कि भारत के लोगों ने 'अच्छी शत्रुता' निभाई, उन्होंने मुग़ल सेनाओं के आने पर गांव खाली कर दिए। निःसन्देह तैमूर द्वारा नगरों और गांवों की लूटपाट और क़त्लेआम उनकी याद में ताज़ा थे।
जब अकबर ने उज़बेक सरदारों के विद्रोह का सामना किया तो उसने आसफ़ख़ाँ को अनधिकृत रूप से अपने पास रखे लूट के माल को लौटाने को विवश किया। अकबर ने गढ़-कटंगा  विक्रमशाह के छोटे पुत्र चन्द्रगाह को लौटा दिया, लेकिन [[मालवा]] में पड़ने वाले दस क़िलों को अपने पास रख लिया।


बाबर यह बात जानता था कि भारतीय साधन ही उसे एक दृढ़ साम्राज्य बनाने में मदद दे सकते हैं और उसके बेगों को भी संतुष्ट कर सकते हैं। "क़ाबुल की ग़रीबी हमारे लिए फिर नहीं" वह अपनी डायरी में लिखता है। इसलिए उसने दृढ़ता से काम लिया, और भारत में रहने की अपनी इच्छा जाहिर कर दी और उन बेगों को छुट्टी दे दी जो क़ाबुल लौटना चाहते थे। इससे उसका रास्ता साफ़ हो गया। लेकिन इससे राणा साँगा से भी उसकी शत्रुता हो गयी, जिसने उससे दो-दो हाथ करने के लिए तैयारियाँ शुरू कर दीं।
===चित्तौड़===
==खानवा की लड़ाई==
अगले दस वर्षों में अकबर ने राजस्थान का अधिकांश भाग अपने साम्राज्य में शामिल किया तथा गुजरात और बंगाल को भी जीत लिया। [[राजपूत]] रियासतों के विरुद्ध अभियान में एक महत्त्वपूर्ण क़दम [[चित्त्तौड़]] का घेरा था। यह दृढ़ क़िला, जिसके इतिहास में अनेक घेरे उस पर पड़ चुके थे, मध्य [[राजस्थान]] का प्रवेश द्वार समझा जाता था। यह [[आगरा]] से गुजरात जाने का सबसे छोटा मार्ग था। इससे भी अधिक उसे राजपूती संघर्ष का प्रतीक माना जाता था। अकबर ने यह अनुभव किया कि बिना चित्तौड़ जीते, अन्य राजपूत रियासतें उसका प्रभुत्व स्वीकार नहीं करेंगी। छह महीने के घेरे के बाद चित्तौड़ की पराजय हुई। सामन्तों की सलाह से प्रसिद्ध योद्धाओं [[जयमल]] और [[पट्टा]] को क़िले का भार सौंपा गया था। [[राणा उदयसिंह|राजा उदयसिंह]] जंगलों में छिप गया। आस-पास के इलाक़ों के बहुत से किसानों ने क़िले में शरण ले ली थी। उन्होंने भी क़िले की सुरक्षा में काफ़ी योगदान दिया। जब मुग़लों ने क़िले में प्रवेश किया, तो इन किसानों और योद्धाओं का क़त्ल कर दिया गया। यह पहला और अंतिम अवसर था जब कि अकबर ने ऐसा क़त्लेआम करवाया। राजपूत योद्धाओं ने मरने से पूर्व यथा-सम्भव मुक़ाबला किया। जयमल और पट्टा की वीरता को देखते हुए अकबर ने आगरा के क़िले के मुख्य द्वार के बाहर हाथी पर सवार इन वीरों की प्रतिमाएं स्थापित करवाने का आदेश दिया।
पूर्वी राजस्थान और मालवा पर आधिपत्य के लिए [[राणा साँगा]] और इब्राहिम लोदी के बीच बढ़ते संघर्ष का संकेत पहले ही किया जा चुका है। मालवा के महमूद ख़िल्जी को हराने के बाद राणा साँगा प्रभाव [[आगरा]] के निकट एक छोटी-सी नदी पीलिया ख़ार तक धीरे-धीरे बढ़ गया था। सिंधु-गंगा घाटी में बाबर द्वारा साम्राज्य की स्थापना से राणा साँगा को खतरा बढ़ गया। साँगा ने बाबर को भारत से खदेड़ने, कम-से-कम उसे पंजाब तक सीमित रखने के लिए तैयारियाँ शुरू कर दीं।
==राणा साँगा और बाबर==
बाबर ने राणा साँगा पर संधि तोड़ने का दोष लगाया। वह कहता है कि राणा साँगा ने मुझे हिन्दुस्तान आने का न्योता दिया और इब्राहिम लोदी के ख़िलाफ़ मेरा साथ देने का वायदा किया, लेकिन जब में दिल्ली और आगरा फ़तह कर रहा था, तो उसने पांव भी नहीं हिलाये। इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि राणा साँगा ने बाबर के साथ क्या समझौता किया था। हो सकता है कि उसने एक लम्बी लड़ाई और कल्पना की हो और सोचा हो कि तब तक वह स्वयं उन प्रदेशों पर अधिकार कर सकेगा जिन पर उसकी निगाह थी या, शायद उसने यह सोचा हो कि दिल्ली को रौंद कर लोदियों की शक्ति को क्षीण करके बाबर भी तैमूर की भाँति लौट जायेगा। बाबर के भारत में ही रुकने के निर्णय ने परिस्थिति को पूरी तरह से बदल दिया।<br />
इब्राहिम लोदी के छोटे भाई महमूद लोदी सहित अनेक अफ़ग़ानों ने यह सोच कर राणा साँगा का साथ दिया कि अगर वह जीत गया, तो शायद उन्हें दिल्ली की गद्दी वापस मिल जायेगी। मेवात के शासक हसन ख़ाँ मेवाती ने भी राणा साँगा का पक्ष लिया। लगभग सभी बड़ी राजपूत रियासतों ने राणा की सेवा में अपनी-अपनी सेनाएँ भेजीं।
==जिहाद का नारा==
राणा साँगा की प्रसिद्धि और बयाना जैसी बाहरी मुग़ल छावनियों पर उसकी प्रारम्भिक सफलताओं से बाबर के सिपाहियों का मनोबल गिर गया। उनमें फिर से साहस भरने के लिए बाबर ने राणा साँगा के ख़िलाफ़ 'जिहाद' का नारा दिया। लड़ाई से पहले की शाम उसने अपने आप को सच्चा मुसलमान सिद्ध करने के लिए शराब के घड़े उलट दिए और सुराहियाँ फोड़ दी। उसने अपने राज्य में शराब की ख़रीदफ़रोख़्त पर रोक लगा दी और मुसलमानों पर से सीमा कर हटा दिया।<br />
बाबर ने बहुत ध्यान से रणस्थली का चुनाव किया और वह आगरा से चालीस किलोमीटर दूर [[खानवा]] पहुँच गया। पानीपत की तरह ही उसने बाहरी पंक्ति में गाड़ियाँ लगवा कर और उसके साथ खाई खोद कर दुहरी सुरक्षा की पद्धति अपनाई। इन तीन पहियों वाली गाड़ियों की पंक्ति में बीच-बीच में बन्दूक़चियों के आगे बढ़ने और गोलियाँ चलाने के लिए स्थान छोड़ दिया गया।
==राजस्थान के सबसे बड़े योद्धा साँगा की पराजय==
खानवा की लड़ाई (1527) में ज़बर्दस्त संघर्ष हुआ। बाबर के अनुसार साँगा की सेना में 200,000 से भी अधिक सैनिक थे। इनमें 10,000 अफ़ग़ान घुड़सवार और इतनी संख्या में हसन ख़ान मेवाती के सिपाही थे। यह संख्या भी, और स्थानों की भाँति बढ़ा-बढ़ा कर कही गई हो सकती है, लेकिन बाबर की सेना निःसन्देह छोटी थी। साँगा ने बाबर की दाहिनी सेना पर ज़बर्दस्त आक्रमण किया और उसे लगभग भेद दिया। लेकिन बाबर के तोपख़ाने ने काफ़ी सैनिक मार गिराये और साँगा को खदेड़ दिया गया। इसी अवसर पर बाबर ने केन्द्र-स्थित सैनिकों से, जो गाड़ियों के पीछे छिपे हुए थे, आक्रमण करने के लिए कहा। ज़जीरों से गाड़ियों से बंधे तोपख़ाने को भी आगे बढ़ाया गया। इस प्रकार साँगा की सेना बीच में घिर गई और बहुत से सैनिक मारे गये। साँगा की पराजय हुई। राणा साँगा बच कर भाग निकला ताकि बाबर के साथ फिर संघर्ष कर सके परन्तु उसके सामन्तों ने ही उसे ज़हर दे दिया जो इस मार्ग को ख़तरनाक और आत्महत्या के समान समझते थे।
   
   
इस प्रकार राजस्थान का सबसे बड़ा योद्धा अन्त को प्राप्त हुआ। साँगा की मृत्यु के साथ ही आगरा तक विस्तृत संयुक्त राजस्थान के स्वप्न को बहुत धक्का पहुँचा।<br />
चित्तौड़ के बाद राजस्थान के सबसे शक्तिशाली क़िले [[रणथम्भौर]] का पतन हुआ। [[जोधपुर]] पहले ही जीता जा चुका था। इन विषयों के परिणामस्वरूप [[बीकानेर]] और [[जैसलमेर]] सहित अनेक राजपूत रियासतों ने अकबर के आगे समर्पण कर दिया। केवल [[मेवाड़]] ही संघर्ष करता रहा।
खानवा की लड़ाई से दिल्ली-आगरा में बाबर की स्थिति सुदृढ़ हो गई। आगरा के पूर्व में [[ग्वालियर]] और [[धौलपुर]] जैसे क़िलों की श्रंखला जीत कर बाबर ने अपनी स्थिति और भी मज़बूत कर ली। उसने हसन ख़ाँ मेवाती से [[अलवर]] का बहुत बड़ा भाग भी छीन लिया। फिर उसने मालवा-स्थित चन्देरी के मेदिनी राय के विरुद्ध अभियान छेड़ा। राजपूत सैनिकों द्वारा रक्त की अंतिम बूँद तक लड़कर जौहर करने के बाद चन्देरी पर बाबर का राज्य हो गया। बाबर को इस क्षेत्र में अपने अभियान को सीमित करना पड़ा क्योंकि उसे पूर्वी उत्तर प्रदेश में अफ़ग़ानों की हलचल की ख़बर मिली।
==अफ़ग़ान==
अफ़ग़ान यद्यपि हार गये थे, लेकिन उन्होंने मुग़ल शासन को स्वीकार नहीं किया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश अब भी अफ़ग़ान सरदारों के हाथ में था। जिन्होंने बाबर की अधीनता को स्वीकार तो कर लिया था, लेकिन उसे कभी भी उखाड़ फैंकने को तैयार थे। अफ़ग़ान सरदारों की पीठ पर [[बंगाल]] का सुल्तान नुसरत शाह था, जो इब्राहिम लोदी का दामाद था। अफ़ग़ान सरदारों ने कई बार पूर्वी उत्तर प्रदेश से मुग़ल कर्मचारियों को निकाल बाहर किया था और स्वयं [[कन्नौज]] पहुँच गये थे। परन्तु उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी सर्वमान्य नेता का अभाव था। कुछ समय पश्चात इब्राहिम लोदी का भाई महमूद लोदी, जो खानवा में बाबर से लड़ चुका था, अफ़ग़ानों के निमन्त्रण पर [[बिहार]] पहुँचा। अफ़ग़ानों ने उसे अपना सुल्तान मान लिया और उसके नेतृत्व में इकट्ठे हो गये।


यह ऐसा ख़तरा था जिसको बाबर नज़रअन्दाज़ नहीं कर सकता था। अतः 1529 के शुरू में उसने आगरा से पूर्व की ओर प्रस्थान किया। [[बनारस]] के निकट गंगा पार करके [[घाघरा नदी]] के निकट उसने अफ़ग़ानों और बंगाल के नुसरत शाह की सम्मिलित सेना का सामना किया। हालांकि बाबर ने नदी को पार कर लिया और अफ़ग़ान तथा बंगाली सेनाओं को लौटन पर मजबूर कर दिया, पर वह निर्णायक युद्ध नहीं जीत सका। मध्य एशिया की स्थिति से परेशान और बीमार बाबर ने अफ़ग़ानों के साथ समझौता करने का निर्णय कर लिया। उसने बिहार पर अपने आधिपत्य का एक अस्पष्ट सा दावा किया, लेकिन अधिकांश अफ़ग़ान सरदारों के हाथ में छोड़ दिया। उसके बाद बाबर आगरा लौट गया। कुछ ही समय बाद, जब वह क़ाबुल जा रहा था, वह लाहौर के निकट मर गया।
===गुजरात===
==बाबर के भारत आगमन का महत्व==
बहादुरशाह की मृत्यु के पश्चात् से गुजरात की स्थिति बहुत ख़राब थी। अपनी उपजाऊ भूमि, उन्नत शिल्प और बाहरी दुनिया के साथ आयात-निर्यात व्यापार का केन्द्र होने के कारण गुजरात महत्त्वपूर्ण बन चुका था। अकबर ने यह कहकर उस पर अपना अधिकार जताया कि [[हुमायूँ]] उस पर कुछ समय तक राज्य कर चुका था। एक और कारण [[दिल्ली]] के निकट मिर्ज़ाओं का विद्रोह में असफल होकर गुजरात में शरण  लेना था। अकबर इस बात के लिए तैयार नहीं था कि गुजरात जैसा समृद्ध प्रदेश मुक़ाबले की शक्ति बन जाये। 1572 में अकबर [[अजमेर]] के रास्ते से [[अहमदाबाद]] की ओर बढ़ा। अहमदाबाद ने बिना लड़े समर्पण कर दिया। अकबर ने फिर मिर्ज़ाओं की ओर ध्यान दिया। जिन्होंने [[भड़ौंच]], [[बड़ौदा]] और [[सूरत]] पर अधिकार किया हुआ था। [[खम्बात]] में अकबर ने पहली बार समुद्र के दर्शन किए और नाव में [[सैर]] की। पुर्तग़ालियों के एक दल ने पहली बार अकबर से आकर भेंट की। इस समय पुर्तग़ालियों का भारतीय समुद्रों पर पूर्ण अधिकार था और उनकी आकांक्षा [[भारत]] में साम्राज्य स्थापित करने की थी। अकबर की गुजरात विजय से उनकी आशाओं पर तुषारापात हो गया।
बाबर का भारत-आगमन अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण था। [[कुषाण साम्राज्य]] के पतन के बाद पहली बार उत्तर-भारत के साम्राज्य में क़ाबुल और कन्धार सम्मिलित हुए थे। क्योंकि इन्हीं स्थानों से भारत पर आक्रमण होते रहे थे। उन पर अधिकार करके बाबर और उसके उत्तराधिकारियों ने भारत को 200 वर्षों के लिए विदेशी आक्रमणों से मुक्त कर दिया। आर्थिक दृष्टि से भी क़ाबुल और कन्धार पर अधिकार से भारत का विदेश-व्यापार और मज़बूत हुआ क्योंकि ये दोनों स्थान चीन और [[भूमध्य सागर]] के बन्दरगाहों के मार्गों के प्रारम्भिक बिन्दु थे। इस प्रकार एशिया के आर-पार के विशाल व्यापार में भारत बड़ा हिस्सा ले सकता था। <br />
उत्तर भारत में बाबर ने लोदियों और साँगा के नेतृत्व में संयुक्त [[राजपूत]] शक्ति को समाप्त किया। इस प्रकार उसने इस क्षेत्र में तत्कालीन शक्ति संतुलन को भंग कर दिया। यह पूरे भारत में साम्राज्य स्थापित करने की दिशा में एक लम्बा कदम था। लेकिन इस स्वप्न को साकार करने से पूर्व बहुत सी शर्तें पूरी करनी शेष थीं।
==नयी युद्ध-पद्धति==
बाबर ने भारत को एक नयी युद्ध-पद्धति दी। यद्यपि बाबर से पहले भी भारतीय गोला-बारूद से परिचित थे, लेकिन बाबर ने ही यह प्रदर्शित किया कि तोपख़ाने और घुड़सेना का कुशल संयुक्त-संचालन कितनी सफलता प्राप्त करा सकता है। उसकी विजयों ने भारत में बारूद और तोपख़ाने को शीघ्र ही लोकप्रिय बना दिया और इस प्रकार क़िलों का महत्व कम हो गया।<br />
अपनी नयी सैनिक पद्धति और व्यक्तिगत व्यवहार से बाबर ने राजा के उस महत्व को पुनःस्थापित किया जो फ़िरोज़ तुग़लक की मृत्यु के बाद कम हो गया था। हालाँकि सिकन्दर लोदी और इब्राहिम लोदी ने राजा के सम्मान को फिर से स्थापित करने का प्रयत्न किया था, लेकिन अफ़ग़ानों की जातीय स्वतंत्रता और बराबरी की भावनाओं के कारण उन्हें आंशिक सफलता ही प्राप्त हुई थी। फिर बाबर एशिया के दो महान योद्धाओं तैमूर और [[चंगेज़ ख़ाँ|चंगेज़]] का वंशज था। इसलिए उसके सरदार उससे बराबरी की मांग नहीं कर सकते थे और न ही उसकी गद्दी पर नजर डाल सकते थे। उसकी स्थिति को चुनौती कोई तैमूरी राजकुमार ही दे सकता था।


बाबर ने अपने बेगों के बीच अपने व्यक्तिगत जीवन से मान बनाया। वह हमेशा अपने सिपाहियों के साथ कठिनाईयाँ झेलने को तैयार रहता था। एक बार कड़कती सर्दी में बाबर क़ाबुल लौट रहा था। बर्फ़ इतनी ज़्यादा थी कि घोड़े उसमें धंस रहे थे। घोड़ों के लिए रास्ता बनाने के लिए सिपाहियों को बर्फ़ हटानी पड़ रही थी। बिना किसी हिचकिचाहट के बाबर ने उनके साथ बर्फ तोड़ने का काम शुरू कर दिया। वह कहता है, "हर कदम पर बर्फ कमर या छाती तक ऊँची थी। कुछ ही कदम चलकर आगे के आदमी थक जाते थे और उनका स्थान दूसरे ले लेते थे। जब 10-15 या 20 आदमी बर्फ को अच्छी तरह दबा देते थे, तभी घोड़ा उस पर से गुजर सकता था।" बाबर को काम करता देखकर उसके बेग भी बर्फ़ हटाने के लिए आ जुटे।
जब अकबर की सेनाओं ने सूरत पर घेरा डाला हुआ था, तभी अकबर ने [[राजा मानसिंह]] और आमेर के [[भगवानदास]] सहित 200 सैनिकों की छोटी सी टुकड़ी लेकर [[माही नदी]] को पार किया और मिर्ज़ाओं पर आक्रमण कर दिया। कुछ समय के लिए अकबर का जीवन ख़तरे में पड़ गया। लेकिन उसके आक्रमण की प्रचण्डता से मिर्ज़ाओं के पैर उखड़ गये। परन्तु, जैसे ही अकबर गुजरात से लौटा, यहाँ विद्रोह फूट पड़ा। यह सुनकर अकबर लौट पड़ा। उसने ऊँटों, घेड़ों और गाड़ियों में यात्रा करते हुए नौ दिन में सारा [[राजस्थान]] पार किया और ग्याहरवें दिन अहमदाबाद पहुँच गया। यह यात्रा सामान्यतः छह सप्ताहों में पूर्ण हो सकती थी। '''केवल, 3,000 सिपाही ही अकबर के साथ पहुँच पाये। इसी छोटी सी सेना की सहायता से उसने 30,000 सैनिकों की सेना को परास्त किया।'''
==कला प्रेमी और विद्वान बाबर==
बाबर शराब और अच्छे संगीत को बहुत पसन्द करता था, और स्वयं भी अच्छा साथी सिद्ध होता था। साथ ही वह बहुत अनुशासन प्रिय और कार्य लेने में कड़ा था। वह अपने बेगों का बहुत ध्यान रखता था और अगर वे विद्रोही ने हों तो उनकी कई ग़लतियाँ माफ़ कर देता था। अफ़ग़ान और भारतीय सरदारों के प्रति भी उसका यही दृष्टिकोण था। लेकिन उसमें क्रूरता की प्रवृत्ति मौजूद थी, जो सम्भवतः उसे अपने पूर्वजों से मिली थी। उसने कई अवसरों पर अपने विरोधियों के सिरों के अम्बार लगवा दिये थे। ये और व्यक्तिगत क्रूरता के अन्य अवसर बाबर के समक्ष कठिन समय के संदर्भ में ही देखे जाने चाहिए।
हालाँकि बाबर पुरातनपंथी सुन्नी था, लेकिन वह धर्मान्ध नहीं था और न ही धार्मिक भावना से काम लेता था। जब ईरान और [[तूरान]] में शियाओं और सुन्नियों के बीच तीव्र संघर्ष की स्थिति थी, उसका दरबार इस प्रकार के धार्मिक विवादों और साम्प्रदायिक झगड़ों से मुक्त था। इसमें सन्देह नहीं कि उसने साँगा के विरुद्ध "जिहाद" का एलान किया था और जीत के बाद "ग़ाज़ी" की उपाधि भी धारण की थी, लेकिन उसके कारण स्पष्टतः राजनीतिक थे। युद्धों का समय होते हुए भी, मंदिरों को तोड़ने के उदाहरण उसके संदर्भ में बहुत कम हैं।
बाबर अरबी और फ़ारसी का अच्छा ज्ञाता था। उसे तुर्की साहित्य के दो सर्वाधिक प्रसिद्ध लेखकों में से एक माना जाता है। तुर्की उसकी मातृभाषा थी। गद्य लेखक के रूप में उसका कोई सानी नहीं था। उसकी आत्मकथा तुज़्क-ए-बाबरी विश्व साहित्य का एक क्लासिक समझी जाती है। उसकी और रचनाओं में एक मसनवी और एक प्रसिद्ध सू्फ़ी रचना का तुर्की-अनुवाद है। वह प्रसिद्ध तत्कालीन कवियों और कलाकारों के सम्पर्क में रहता था और उनकी रचनाओं के विषय में उसने अपनी जीवनी में लिखा है। वह गहन प्रकृति-प्रेमी था। उसने भारतीय पशु-पक्षियों और प्रकृति का काफी विस्तार से वर्णन किया है। वह शायर भी था और उसने रुबाईयों का अपना दीवान भी तैयार किया था।<br />
इस प्रकार बाबर ने राज्य का एक नया स्वरूप हमारे सामने रखा, जो शासक के सम्मान और शक्ति पर आधारित था, जिसमें धार्मिक और साम्प्रदायिक मदान्धता नहीं थी। जिसमें संस्कृति और ललित कलाओं का बड़े ध्यान पूर्वक पोषण किया जाता था। इस प्रकार उसने अपने उत्तराधिकारियों के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करके उनका मार्गदर्शन किया।


==हुमायूँ की गुजरात-विजय और शेरशाह के साथ संघर्ष ==
===बंगाल===
[[हुमायूँ]] दिसम्बर 1530 में 23 वर्ष की अल्पायु में बाबर की गद्दी पर बैठा। बाबर के पीछे छूटी अनेक समस्याओं का सामना उसे करना पड़ा। प्रशासन अभी सुगठित नहीं हुआ था। आर्थिक स्थिति भी डांवाडोल थी। अफ़ग़ानों को पूरी तरह दबाया नहीं जा सका था, और वे अब भी मुग़लों को भारत से खदेड़ने के सपने देखते थे, वह सबसे बड़ी बात थी, पिता की मृत्यु के बाद पुत्रों में राज्य बाँटने की तैमूरी परम्परा। बाबर ने हुमायूँ को भाइयों से नर्मी से पेश आने की सलाह दी थी, लेकिन उसने इस बात का समर्थन नहीं किया था कि नये-नये स्थापित मुग़ल साम्राज्य को विभाजित कर दिया जाए। इसके भयंकर परिणाम हो सकते थे।
इसके पश्चात् अकबर ने अपना ध्यान [[अखण्डित बंगाल|बंगाल]] की ओर लगाया। बंगाल के अफ़ग़ानों ने [[उड़ीसा]] को रौंद डाला था और उसके शासक को भी मार डाला था। लेकिन मुग़लों को नाराज़ होने का मौक़ा न देने के लिए [[अफ़ग़ान]] शासक ने औपचारिक रूप से स्वयं को सुल्तान घोषित नहीं किया था, और अकबर के नाम का ख़ुत्वा पढ़ता रहा था। अफ़ग़ानों की आंतरिक लड़ाई और नये शासक दाऊदख़ाँ द्वारा स्वतंत्रता की घोषणा से अकबर को वह अवसर मिल गया, जिसकी उसे तलाश थी। अकबर अपने साथ एक मज़बूत नौका बेड़ा लेकर आगे बढ़ा। ऐसा विश्वास किया जाता था अफ़ग़ान सुल्तान के पास बहुत बड़ी सेना है, जिसमें 40,000 सुसज्जित घुड़सवार, 1,50,000 पैदल सैनिक, कई हज़ार बन्दूक़ें और हाथी तथा युद्धक नावों का विशाल बेड़ा था। यदि अकबर सावधानी से काम न लेता और अफ़ग़ानों के पास बेहतर नेता होता, तो हो सकता है कि हुमायूँ और [[शेरशाह]] की ही पुनरावृत्ति होती। अकबर ने पहले [[पटना]] पर अधिकार किया और इस प्रकार बिहार में मुग़लों के लिए संचार के साधनों को सुरक्षित कर लिया। उसके बाद उसने एक अनुभवी अधिकारी ख़ान-ए-ख़ाना मुनीसख़ाँ को अभियान का नेता बनाया और स्वयं आगरा लौट गया। मुग़ल सेनाओं ने बंगाल पर आक्रमण किया  और काफ़ी संघर्ष के बाद दाऊदख़ाँ को शान्ति की संधि के लिए विवश कर दिया। उसने शीघ्र ही दुबारा विद्रोह किया। यद्यपि [[बिहार]] और बंगाल में में मुग़लों की स्थिति अभी कमज़ोर थी, यद्यपि उनकी सेनाएँ अधिक संगठित और बेहतर नेतृत्व वाली थीं। 1576 में बिहार में एक तगड़ी लड़ाई में दाऊदख़ाँ पराजित हुआ और उसे उसी समय मार डाला गया।
==हुमायूँ की ताजपोशी==
जब हुमायूँ आगरा में गद्दी पर बैठा, साम्राज्य में क़ाबुल और कन्धार सम्मिलित थे और [[हिन्दुकुश पर्वत]] के पार बदखशां पर भी मुग़लों का ढीला सा आधिपत्य था। काबुल और कन्धार हुमायूँ के छोटे भाई [[कामरान]] के शासन में थे। यह स्वाभाविक था कि वे उसी के अधिकार में रहते। लेकिन कामरान इन ग़रीबी से ग्रस्त इलाकों से संतुष्ट नहीं था। उसने लाहौर और [[मुल्तान]] की ओर बढ़कर उन पर अधिकार कर लिया। हुमायूँ कहीं और विद्रोह दबाने में व्यस्त था, फिर वह गृह-युद्ध प्रारम्भ करना भी नहीं चाहता था। इसलिए उसके पास इस स्थिति को मंज़ूर करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था। कामरान ने हुमायूँ की प्रभुत्ता मान ली और आवश्यकता पड़ने पर उसकी मदद करने का वायदा किया। कामरान के इस कृत्य से यह भय उत्पन्न हो गया कि हुमायूँ के और भाई भी अवसर मिलने पर वही कुछ कर सकते थे। किन्तु पंजाब और मुल्तान कामरान को देने का एक लाभ हुमायूँ को हुआ। वह पश्चिम की ओर से निश्चिंत हो गया और पूर्व की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करने का उसे अवसर मिला।
==अफ़ग़ान खतरा==
हुमायूँ को पूर्व के अफ़ग़ानों की बढ़ती शक्ति और गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह की विजयों दोनों से निपटना था। पहले हुमायूँ ने यह सोचा कि दोनों में से अफ़ग़ान खतरा ज्यादा गंभीर है। 1532 में दोराह पर उसने अफ़ग़ान सेनाओं को पराजित किया और जौनपुर को अपने अधिकार में ले लिया। अफ़ग़ान सेनाओं ने पहले बिहार जीत लिया था। इस सफलता के बाद हुमायूँ ने [[चुनार]] पर घेरा डाल दिया। आगरा से पूर्व की ओर जाने वाले भागों पर इस शक्तिशाली क़िले का अधिकार था और यह पूर्वी भारत के द्वार के रूप में प्रसिद्ध था। कुछ समय पूर्व ही इस पर [[शेरशाह सूरी|शेरख़ाँ]] नाम के अफ़ग़ान सरदार का अधिकार हुआ था। शेरख़ाँ अफ़ग़ान सरदारों में सबसे ज्यादा शक्तिशाली बन चुका था।
चुनार पर चार महीने के घेरे के बाद शेरख़ाँ ने हुमायूँ को क़िले का अधिकार अपने पास रखने के लिए मना लिया। बदले में उसने मुग़लों का वफ़ादार रहने का वचन दिया और अपने एक पुत्र को बन्धक के रूप में हुमायूँ के साथ भेज दिया। हुमायूँ ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया क्योंकि वह जल्दी ही आगरा लौट जाना चाहता था। [[गुजरात]] के बहादुरशाह की बढ़ती शक्ति और आगरा के साथ लगी सीमा पर उसकी गतिविधियों के कारण वह चिन्तित हो उठा था। वह किसी सरदार के नेतृत्व में चुनार पर घेरा नहीं डाले रहना चाहता था। क्योंकि इसका अर्थ सेना को दो भागों में विभक्त करना होता।
==बहादुरशाह==
बहादुरशाह, जो हुमायूँ की ही आयु का था, एक योग्य और महत्वाकांक्षी शासक था। वह 1526 में गद्दी पर बैठा था और उसने मालवा पर आक्रमण करके जीत लिया था। उसके बाद वह राजस्थान की ओर घूमा और [[चित्तौड़]] पर घेरा डाल दिया। जल्दी ही उसने राजपूत सैनिकों की मिट्टी पलीत कर दी। बाद की किवदंतियों के अनुसार साँगा की विधवा रानी करणावती ने हुमायूँ के पास राखी भेजी और उसकी मदद माँगी और हुमायूँ ने वीरता से उसका जबाब दिया। हालाँकि इस कहानी को सच नहीं माना जा सकता। लेकिन हुमायूँ परिस्थिति पर नज़र रखने के लिए आगरा से ग्वालियर आ गया। मुग़ल-हस्तक्षेप के भय से बहादुरशाह ने राणा से संधि कर ली और काफ़ी धन-दौलत लेकर क़िला उसके हाथों में छोड़ दिया।  
===दीनपनाह का आयोजन===
अगले डेढ़ साल हुमायूँ दिल्ली के निकट दीनपनाह नाम का नया शहर बनवाने में व्यस्त रहा। इस दौरान उसने भव्य भोजों और मेलों का आयोजन किया। इन कार्यों में मूल्यवान समय व्यर्थ करने का दोष हुमायूँ पर लगाया जाता है। इस बीच पूर्व में [[शेरशाह]] अपनी शक्ति बढ़ाने में व्यस्त था। यह भी कहा जाता है कि हुमायूँ अफ़ीम का आदी होने के कारण आलसी था। लेकिन इनमें से किसी भी दोषारोपण का कोई विशेष आधार नहीं है। बाबर शराब छोड़ने के बाद अफ़ीम लेता रहा था। हुमायूँ शराब के बदले में या उसके साथ कभी-कभी अफ़ीम खाता था। अनेक सरदार भी ऐसा करते थे। लेकिन बाबर या हुमायूँ इन दोनों में कोई भी अफ़ीम का आदी नहीं था। दीनपनाह के निर्माण का उद्देश्य मित्र और शत्रु दोनों को प्रभावित करना था। बहादुरशाह की ओर से आगरे पर ख़तरा पैदा होने की स्थिति में यह नया शहर दूसरी राजधानी के रूप में भी काम आ सकता था। बहादुरशाह ने इस बीच [[अजमेर]] को जीत लिया था और पूर्वी [[राजस्थान]] को रौंद डाला था।
   
   
बहादुरशाह ने हुमायूँ को और भी बड़ी चुनौती दी। वह इब्राहिम लोदी के सम्बन्धियों को अपने यहां शरण देकर ही संतुष्ट नहीं हुआ। उसने हुमायूँ के उन सम्बन्धियों का भी स्वागत किया जो असफल विद्रोह के बाद जेलों में डाल दिए गए थे और बाद में वहां से भाग निकले थे। और फिर बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर फिर आक्रमण कर दिया था। साथ ही साथ उसने इब्राहिम लोदी के चचेरे भाई [[तातार ख़ाँ]] को सिपाही और हथियार दिए ताकि वह 40,000 की फ़ौज लेकर आगरा पर आक्रमण कर सके। उत्तर और पूर्व में भी हुमायूँ का ध्यान बंटाने की योजना थी।
इस प्रकार उत्तर [[भारत]] से अफ़ग़ान शासन का पतन हुआ। इसी बीच अकबर के साम्राज्य विस्तार का पहला दौर भी समाप्त हुआ।
==तातरखाँ==
{{प्रचार}}
तातरखाँ की चुनौती को हुमायूँ ने जल्दी ही समाप्त कर दिया। मुग़ल सेना के आगमन पर अफ़ग़ान सेना तितर-बितर हो गई। तातार खाँ की छोटी-सी सेना हार गई और तातार खाँ स्वयं मारा गया। बहादुरशाह की ओर से आने वाले ख़तरे को हमेशा के लिए खत्म करने के लिए दृढ़ निश्चय हुमायूँ ने [[मालवा]] पर आक्रमण कर दिया। वह धीमी गति और सावधानी से आगे बढ़ा और चित्तौड़ तथा [[माँडू]] के मध्य के एक स्थान पर मोर्चा बाँध लिया। इस प्रकार उसने बहादुरशाह को मालवा से खदेड़ दिया। बहादुरशाह ने जल्दी ही चित्तौड़ को समर्पण के लिए विवश कर दिया क्योंकि उसके पास बढ़िया तोपख़ाना था। जिसका संचालन आटोमन निशांची रूमीखाँ कर रहा था। कहा जाता है कि हुमायूँ ने धार्मिक आधार पर चित्तौड़ की मदद करने से इनकार कर दिया था। लेकिन उस समय मेवाड़ आन्तरिक समस्याओं में व्यस्त था और हुमायूँ के विचार से मेवाड़ की मित्रता सैनिक दृष्टि से सीमित महत्व की थी।
{{लेख प्रगति
==हुमायूँ के संघर्ष ==
|आधार=
इसके बाद जो संघर्ष हुआ, उसमें  हुमायूँ ने काफी सैन्य कौशल और व्यक्तिगत वीरता का परिचय दिया। बहादुरशाह को मुग़ल सेना का सामना करने का साहस नहीं हुआ। वह अपनी क़िलेबन्दी छोड़कर माडूँ भाग गया। उसने अपनी तोपों को तो छोड़ दिया, लेकिन बेशक़ीमती साज़ो-समान पीछे छोड़ गया। हुमायूँ ने तेज़ी से उसका पीछा किया। उसने थोड़े से साथियों के साथ माँडू के क़िले की दीवार फाँदी। इस प्रकार क़िले में प्रवेश करने वालों में वह स्वयं पांचवां आदमी था। बहादुरशाह माँडू से [[चम्पानेर]] भागा और वहाँ से [[अहमदाबाद]] और अन्ततः [[काठियावाड़]] भाग गया। इस प्रकार मालवा और गुजरात के समृद्ध प्रदेश और माँडू तथा चम्पानेर के क़िलों में एकत्र विशाल ख़ज़ाने हुमायूँ के हाथ लग गए। मालवा और गुजरात जितनी जल्दी जीते गये थे, उतनी ही जल्दी हाथ से निकल भी गये थे। जीत के बाद हुमायूँ ने इन राज्यों को अपने छोटे भाई असकरी के सेना-पतित्व में छोड़ दिया और स्वयं माँडू चला गया।
|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2
==गुजरात और मालवा की हार==
|माध्यमिक=
माँडू केन्द्र में भी था और उसकी जलवायु भी अच्छी थी। मुग़ल साम्राज्य के सामने सबसे बड़ी समस्या जनता का गुजराती शासन के प्रति लगाव था। असकरी अनुभवहीन था और उसके मुग़ल सरदारों में परस्पर मतभेद था। जन-विद्रोहों, बहादुरशाही सरदारों की सैनिक कार्यवाही और बहादुरशाह द्वारा शीघ्रता से शक्ति के पुनर्गठन से असकरी घबरा गया। वह चम्पानेर की ओर लौटा लेकिन उसे क़िले में कोई सहायता नहीं मिली। क्योंकि क़िले के सेनापति को उसके इरादों पर सन्देह था। वह माँडू जाकर हुमायूँ के सामने नहीं पड़ना चाहता था। अतः उसने आगरा लौटने का निर्णय किया। इससे यह सन्देह पैदा हुआ कि वह आगरा पहुँच कर हुमायूँ को अपदस्थ करने का प्रयत्न कर सकता है। हुमायूँ कोई ऐसा मौक़ा देना नहीं चाहता था, इसलिए उसने मालवा छोड़ दिया। उसने राजस्थान में असकरी को जा पकड़ा। दोनों भाइयों में बातचीत हुई और वे आगरा लौट गये। इस बीच गुजरात और मालवा दोनों हाथ से निकल गये।
|पूर्णता=
 
|शोध=
गुजरात अभियान पूरी तरह असफल नहीं रहा। हालाँकि इससे मुग़ल साम्राज्य की सीमाओं में विस्तार तो नहीं हुआ, लेकिन गुजरात की ओर से मुग़लों को खतरा हमेशा के लिए ख़त्म हो गया। हुमायूँ अब इस स्थिति में था कि अपनी सारी शक्ति शेरख़ाँ और अफ़ग़ानों के विरुद्ध संघर्ष में लगा सके। गुजरात की ओर से बचा-खुचा ख़तरा भी पुर्तग़ाली जहाज़ पर हुए झगड़े में बहादुरशाह की मृत्यु से समाप्त हो गया।
}}
==शेरख़ाँ <small>(बाद में शेरशाह)</small>==
आगरा से हुमायूँ की अनुपस्थिति के दौरान (फ़रवरी, 1535 से फ़रवरी, 1537 तक) शेरख़ाँ ने अपनी स्थिति और मजबूत कर ली थी। वह बिहार का निर्विरोध स्वामी बन चुका था। नज़्दीक और पास के अफ़ग़ान उसके नेतृत्व में इकट्ठे हो गये थे। हालाँकि वह अब भी मुग़लों के प्रति वफ़ादारी की बात करता था, लेकिन मुग़लों को भारत से निकालने के लिए उसने ख़ूबसूरती से योजना बनायी। बहादुरशाह से उसका गहरा सम्पर्क था। बहादुरशाह ने हथियार और धन आदि से उसकी बहुत सहायता भी की थी। इन स्रोतों के उपलब्ध हो जाने से उसने एक कुशल और बृहद सेना एकत्र कर ली थी। उसके पास 1200 हाथी भी थे। हुमायूँ के आगरा लौटने के कुछ ही दिन बाद शेरख़ाँ ने अपनी सेना का उपयोग बंगाल के सुल्तान को हराने में किया था और उसे तुरन्त 1,300,000 [[दीनार]] ([[स्वर्ण मुद्रा]]) देने के लिए विवश किया था।
एक नयी सेना को लैस करके हुमायूँ ने वर्ष के अन्त में चुनार को घेर लिया। हुमायूँ ने सोचा था कि ऐसे शक्तिशाली क़िले को पीछे छोड़ना उचित नहीं होगा क्योंकि इससे उसकी रसद के मार्ग को ख़तरा हो सकता था। लेकिन अफ़ग़ानों ने दृढ़ता से क़िले की रक्षा की। कुशल तोपची रूमी ख़ाँ के प्रयत्नों के बावजूद हुमायूँ को चुनार का क़िला जीतने में छः महीने लग गये। इसी दौरान शेरख़ाँ ने धोखे से [[रोहतास]] के शक्तिशाली क़िले पर अधिकार कर लिया। वहाँ वह अपने परिवार को सुरक्षित छोड़ सकता था। फिर उसने बंगाल पर दुबारा आक्रमण किया और उसकी राजधानी [[गौड़]] पर अधिकार कर लिया।
 
==बंगाल का सौदा==
इस प्रकार शेरख़ाँ ने हूमायूँ को लुका-छिपी पूरी तरह से मात दे दी। हुमायूँ को यह अनुभव कर लेना चाहिए था कि अधिक सावधानी से तैयारी के बिना वह इस स्थिति में नहीं हो सकता कि शेरख़ाँ को सैनिक-चुनौती दे सके। लेकिन वह अपने सामने सैनिक और राजनीतिक स्थिति को नहीं समझ सका। गौड़ पर अपनी विजय के बाद शेरख़ाँ ने हुमायूँ के पास प्रस्ताव भेजा कि यदि उसके पास बंगाल रहने दिया जाए तो वह बिहार उसे दे देगा, और दस लाख सलाना कर देगा। यह स्पष्ट नहीं है कि इस प्रस्ताव में शेरख़ाँ कितना ईमानदार था। लेकिन हुमायूँ बंगाल को शेरख़ाँ के पास रहने देने के लिए तैयार नहीं था। बंगाल सोने का देश था, उद्योगों में उन्नत था और विदेशी व्यापार का केन्द्र था। साथ ही बंगाल का सुल्तान, जो घायल अवस्था में हुमायूँ की छावनी में पहुँच गया था, का कहना था कि शेरख़ाँ का विरोध अब भी जारी है। इन सब कारणों से हुमायूँ ने शेरख़ाँ का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और बंगाल पर चढ़ाई करने का निर्णय लिया। बंगाल का सुल्तान अपने घावों के कारण जल्दी ही मर गया। अतः हुमायूँ को अकेले ही बंगाल पर चढ़ाई करनी पड़ी।
बंगाल की ओर हुमायूँ का कूच उद्देश्यहीन था और यह उस विनाश की पूर्वपीठिका थी, जो उसकी सेना में लगभग एक वर्ष बाद [[चौसा]] में हुआ। शेरख़ाँ ने बंगाल छोड़ दिया था और दक्षिण बिहार पहुँच गया था। उसने बिना किसी प्रतिरोध के हुमायूँ को बंगाल की ओर बढ़ने दिया ताकि वह हुमायूँ की रसद-पंक्ति को तोड़ सके और उसे बंगाल में फँसा सके। गौड़ में पहुँच कर हुमायूँ ने तुरन्त कानून और व्यवस्था स्थापित करने का प्रयत्न किया। लेकिन इससे उसकी कोई समस्या हल नहीं हुई। उसके भाई हिंदाल द्वारा आगरा में स्वयं ताजपोशी के प्रयत्नों से उसकी स्थिति और बिगड़ गई। इस कारण से रसद और समाचारों से पूरी तरह कट गया।
==हिन्दाल और कामरान==
गौड़ में तीन या चार महीने रुकने के बाद हुमायूँ ने आगरा की ओर प्रस्थान किया। उसने पीछे सेना की एक टुकड़ी छोड़ दी। सरदारों में असंन्तोष, वर्षा ऋतु और लूटपाट के लिए किए गए अफ़ग़ानों के आक्रमणों के बावजूद हुमायूँ अपनी सेना को [[बक्सर]] के निकट चौसा तक बिना किसी नुक़सान के लाने में सफल हुआ। यह बहुत बड़ी उपलब्धी थी, जिसका श्रेय हुमायूँ को मिलना चाहिए। इसी बीच कामरान [[हिन्दाल]] का विद्रोह कुचलने के लिए लाहौर से आगरा की ओर बढ़ आया था। कामरान हालाँकि बाग़ी नहीं हुआ था, लेकिन फिर भी उसने हुमायूँ को कुमुक नहीं भेजी। इससे शक्ति-संतुलन का पलड़ा मुग़लों की ओर झुक सकता था।
इन हताशाओं के बावजूद हुमायूँ को शेरख़ाँ के विरुद्ध अपनी सफलता पर विश्वास था। वह इस बात को भूल गया कि उसका सामना उस अफ़ग़ान सेना से है, जो एक साल पहले की सेना से एकदम अलग थी। उसने सर्वश्रेष्ठ अफ़ग़ान सेनापति के नेतृत्व में लड़ाईयों का अनुभव और आत्म-विश्वास प्राप्त किया था। शेरख़ाँ की ओर से शांति के एक प्रस्ताव से धोखा खाकर हुमायूँ [[कर्मनाशा नदी]] के पूर्वी किनारे पर आ गया और इस प्रकार उसने वहाँ उपस्थित अफ़ग़ान घुड़सवारों को पूरा मौक़ा दे दिया। हुमायूँ ने ने केवल निम्न कोटि की राजनीतिक समझ का परिचय दिया वरन् निम्न कोटि के सेनापतित्व का भी परिचय दिया। उसने ग़लत मैदान चुना और शेरख़ाँ को अपनी असावधानी से मौक़ा दिया।
हुमायूँ एक भिश्ती की मदद से नदी तैर कर बड़ी मुश्किल से लड़ाई के मैदान से भागकर अपनी जान बचा सका। शेरख़ाँ के हाथ में बहुत सी सम्पत्ति आई। लगभग 7000 मुग़ल सैनिक और सरदार मारे गये।
चौसा की पराजय (मार्च 1539) के बाद केवल  तैमूरी राजकुमारों और सरदारों में पूर्ण एकता ही मुग़लों को बचा सकती थी। कामरान की 10000 सैनिकों की लड़ाका फ़ौज आगरा में उपस्थित थी। लेकिन वह इसकी सेवाएँ हुमायूँ को अर्पित करने को तैयार नहीं था। क्योंकि हुमायूँ के नेतृत्व में उसका विश्वास नहीं रहा था। दूसरी ओर हुमायूँ भी सेनाओं को कामरान के सेनापतित्व में छोड़ने को तैयार नहीं था। क्योंकि उसे भय था कि कहीं वह स्वयं सत्ता हथियाने में उनका प्रयोग न कर ले। दोनों भाइयों में शक बढ़ता रहा। अन्ततः कामरान ने अपनी सेना सहित लाहौर लौटने का निर्णय कर लिया।
जल्दबाज़ी में आगरा में इकट्ठी की गई हुमायूँ की सेना शेरख़ाँ के मुकाबले कमज़ोर थी। लेकिन कन्नौज की लड़ाई (मई 1540) भयंकर थी। हुमायूँ के दोनों छोटे भाई असकारी और हिन्दाल वीरता पूर्वक लड़े, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली।
 
कन्नौज की लड़ाई ने शेरख़ाँ और मुग़लों के बीच निर्णय कर दिया। हुमायूँ अब राज्यविहीन राजकुमार था। क्योंकि क़ाबुल और कन्धार कामरान के पास ही रहे। वह अगले ढाई वर्ष तक सिन्ध और उसके पड़ोसी राज्यों में घूमता रहा और साम्राज्य को फिर से प्राप्त करने के लिए योजनाएं बनाता रहा लेकिन न तो सिन्ध का शासक ही इस कार्य में उसकी मदद करने को तैयार था और न ही मारवाड़ का शक्तिशाली शासक मालदेव। उसकी स्थिति और भी बुरी हो गई। उसके अपने भाई ही उसके विरुद्ध हो गए और उन्होंने उसे मरवा डालने या कैद करने के प्रयत्न भी किए। हुमायूँ ने इन सब परिक्षाओं और कठिनाइयों का सामना धैर्य और साहस से किया। इसी काल में हुमायूँ के चरित्र की दृढ़ता का पूरा प्रदर्शन हुआ। अन्ततः हुमायूँ ने ईरानी शासक के दरबार में शरण ली और 1545 में उसी की सहायता से क़ाबुल और कन्धार को फिर से जीत लिया।
==हुमायूँ की असफलता==
यह स्पष्ट है कि शेरख़ाँ के विरुद्ध हुमायूँ की असफलता का सबसे बड़ा कारण उसके द्वारा अफ़ग़ान शक्ति को समझ पाने की असमर्थता थी। उत्तर-भारत में अनेकानेक अफ़ग़ान जातियों के फैले रहने के कारण वे कभी भी किसी योग्य नेता के नेतृत्व में एकत्र होकर चुनौती दे सकती थी। स्थानीय शासकों और जमींदारों को अपनी ओर मिलाये बिना मुग़ल संख्या में अफ़ग़ानों से कम ही रहते। प्रारम्भ में हुमायूँ के प्रति उसके भाई पूरी तरह वफ़ादार रहे। उनके बीच वास्तविक मतभेद शेरख़ाँ की विजयों के बाद ही पैदा हुआ। कुछ इतिहासकारों ने हुमायूँ के अपने भाइयों के साथ मतभेदों और उसके चरित्र पर लगाये गये आक्षेपों को अनुचित रूप से बढ़ा-चढ़ा कर कहा है। बाबर की भाँति ओजपूर्ण न होते हुए भी हुमायूँ ने अविवेक से आयोजित बंगाल अभियान से पूर्व स्वयं को एक अच्छा सेनापति और राजनीतिक सिद्ध किया था। शेरख़ाँ के साथ हुई दोनों लड़ाइयों में भी उसने अपने आप को बेहतर सेनापति सिद्ध किया।
 
हुमायूँ का जीवन रोमांचक था। वह समृद्धि से कंगाल हुआ और फिर कंगाली से समृद्ध हुआ। 1555 में सूर साम्राज्य के विघटन के बाद वह दिल्ली पर फिर से अधिकार करने में सफल हुआ। लेकिन वह विजय का फल का आनन्द उठाने के लिए अधिक समय तक जीवित नहीं रहा। वह दिल्ली में अपने किले के पुस्तकालय की इमारत की पहली मंज़िल से गिर जाने के कारण मर गया। उसकी प्रिय बेगम ने क़िले के निकट ही उसकी याद में बहुत सुंदर मक़्बरा बनवाया। यह इमारत उत्तर-भारत के स्थापत्य में नयी शैली का सूत्रपात है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता संगमरमर का बना गुम्बद है।


==संबंधित लेख==
{{मुग़ल साम्राज्य}}
[[Category:मुग़ल_साम्राज्य]]
[[Category:इतिहास_कोश]]
[[Category:इतिहास_कोश]]
 
[[Category:मध्य काल]]
[[Category:मुग़ल_साम्राज्य]]
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08:04, 10 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण


अकबर का युग

हुमायूँ जब बीकानेर से लौट रहा था तो अमरकोट के राणा ने साहस करके उसे सहारा और सहायता दी। अमरकोट में ही 1542 में मुग़लों में महानतम शासक अकबर का जन्म हुआ। जब हुमायूँ ईरान की ओर भागा तो उसके बच्चे अकबर को उसके चाचा कामरान ने पकड़ लिया। उसने बच्चे का भली-भाँति पालन-पोषण किया। कन्धार पर फिर से हुमायूँ का अधिकार हो जाने पर अकबर फिर अपने माता-पिता से मिला। हुमायूँ की मृत्यु के समय अकबर पंजाब में कलानौर में था, और अफ़ग़ान विद्रोहियों से निपटने में व्यस्त था। 1556 में कलानौर में ही अकबर की ताजपोशी हुई। उस समय वह तेरह वर्ष और चार महीने का था।

हेमू

अकबर को कठिन परिस्थितियाँ विरासत में मिली। आगरा के पार अफ़ग़ान अभी भी सबल थे और हेमू के नेतृत्व में अन्तिम लड़ाई की तैयारी कर रहे थे। क़ाबुल पर आक्रमण करके घेरा डाला जा चुका था। पराजित अफ़ग़ान सरदार सिकन्दर सूर शिवालिक की पहाड़ियों में घूम रहा था। लेकिन अकबर के उस्ताद और हुमायूँ के स्वामिभक्त और योग्य अधिकारी बैरमख़ाँ ने परिस्थिति का कुशलता से सामना किया। वह ख़ान-ए-ख़ाना की उपाधि धारण करके राज्य का वकील बन गया और उसने मुग़ल सेनाओं का पुनर्गठन किया। हेमू की ओर से ख़तरे को सबसे गंभीर समझा गया। उस समय चुनार से लेकर बंगाल की सीमा तक प्रदेश शेरशाह के एक भतीजे आदिलशाह के शासन में था। हेमू ने अपना जीवन इस्लामशाह के राज्यकाल में बाज़ारों के अधीक्षक के रूप में शुरू किया था और आदिलशाह के काल में उसने यकायक उन्नति की थी। उसने बाईस लड़ाईयों में से एक भी नहीं हारी थी। आदिलशाह ने उसे विक्रमजीत की उपाधि प्रदान करके वज़ीर नियुक्त कर लिया था। उसने उसे मुग़लों को खदेड़ने का उत्तरदायित्व सौंप दिया। हेमू ने आगरा पर अधिकार कर लिया और 50,000 घुड़सवार, 500 हाथी और विशाल तोपख़ाना लेकर दिल्ली की ओर बढ़ दौड़ा।

एक संघर्षपूर्ण लड़ाई में हेमू ने मुग़लों को पराजित कर दिया और दिल्ली पर अधिकार कर लिया। लेकिन परिस्थिति का सामना करने के लिए बैरमख़ाँ ने साहस पूर्ण क़दम उठाये। उसके इस साहसिक क़दम से मुग़ल सेना में एक नयी शक्ति का संचार हुआ और उसने हेमू की अपनी स्थिति मज़बूत करने का अवसर दिए बिना दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। हेमू के नेतृत्व में अफ़ग़ान फ़ौज और मुग़लों के बीच पानीपत के मैदान में एक बार फिर लड़ाई हुई (5 नवम्बर 1556)। मुग़लों की एक टुकड़ी ने हेमू के तोपख़ाने पर पहले अधिकार कर लिया लेकिन पलड़ा हेमू का ही भारी था। लेकिन तभी एक तीर हेमू की आंख में लगा और वह बेहोश हो गया। नेतृत्वहीन अफ़ग़ान सेना पराजित हो गई। हेमू को पकड़कर मार डाला गया। इस प्रकार अकबर को साम्राज्य पुनः लड़कर लेना पड़ा।

सरदारों से संघर्ष

(1556-67)

बैरमख़ाँ

बैरमख़ाँ लगभग चार वर्षों तक साम्राज्य का सरगना रहा। इस दौरान उसने सरदारों को क़ाबू में रखा। क़ाबुल पर ख़तरा टल गया था और साम्राज्य की सीमा का विस्तार क़ाबुल से पूर्व में स्थित जौनपुर तक और पश्चिम में अजमेर तक हो गया था। ग्वालियर पर भी अधिकार कर लिया गया था और रणथम्भौर और मालवा को जीतने का भी भरसक प्रयास किया गया। इधर अकबर भी परिपक्व हो रहा था। बैरमख़ाँ ने बहुत से प्रभावशाली व्यक्तियों को नाराज़ कर लिया था। उन्होंने शिकायत की कि बैरमख़ाँ शिया है और वह अपने समर्थकों और शियाओं को उच्च पदों पर नियुक्त कर रहा है। ये दोषारोपण अपने आप में बहुत गंभीर नहीं थे लेकिन बैरमख़ाँ बहुत उद्धत हो गया था और इस बात को भूल रहा था अकबर बड़ा हो रहा है। छोटी-छोटी बातों पर दोनों में मतभेद हो गया और अकबर को यह अनुभव हुआ कि लम्बे समय तक राज्य कार्य किसी दूसरे के हाथ में नहीं सौंपा जा सकता।

अकबर ने बहुत ही होशियारी से काम लिया। वह शिकार के बहाने आगरा से निकला और दिल्ली पहुँच गया। दिल्ली से उसने बैरमख़ाँ को अपदस्थ करते हुए एक फ़रमान जारी किया और सब सरदारों को व्यक्तिगत रूप से अपने सामने हाज़िर होने का आदेश दिया। बैरमख़ाँ ने जब यह महसूस किया कि अकबर सारे अधिकार अपने हाथ में लेना चाहता है, वह इसके लिए तैयार था लेकिन उसके विराधी उसे नष्ट करने पर तुले हुए थे। उन्होंने उसे इतना ज़लील किया कि वह विद्रोह पर उतारू हो गया। इस विद्रोह के कारण साम्राज्य में छह महीने तक अव्यवस्था रही। अन्ततः बैरमख़ाँ समर्पण करने पर विवश हो गया। अकबर ने विनम्रता से उसका स्वागत किया और उसके सामने दो विकल्प रखे कि या तो वह उसके दरबार में कार्य करता रहे या मक्का चला जाये। बैरमख़ाँ ने मक्का चला जाना बेहतर समझा लेकिन रास्ते में अहमदाबाद के निकट पाटन में अफ़ग़ानों ने व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण उसकी हत्या कर दी। बैरमख़ाँ की पत्नी और उसके छोटे बच्चे को अकबर के पास लाया गया। अकबर ने बैरम की विधवा के साथ जो उसकी रिश्ते में बहन लगती थी, विवाह कर लिया और बच्चे को बेटे की तरह पाला। यह बच्चा बाद में अब्दुर रहीम ख़ान-ए-ख़ाना के नाम से प्रसिद्ध हुआ और साम्राज्य के महत्त्वपूर्ण पद और सैनिक पद भी उसके पास रहे। बैरमख़ाँ के साथ अकबर के चरित्र की कुछ विलक्षणताएं स्पष्ट होती हैं। एक बार रास्ता निर्धारित कर लेने पर वह झुकता नहीं था लेकिन किसी प्रतिद्वन्दी के समर्पण कर देने पर वह उसके प्रति बहुत दयालु भी हो उठता था।

उज़बेक

अकबर
Akabar

बैरमख़ाँ के विद्रोह के दौरान सरदारों में बहुत से व्यक्ति और दल राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गये थे। इनमें अकबर की धाय माँ माहम अनगा और उसके संबंधी भी थे। यद्यपि महम अनगा ने शीघ्र ही सन्न्यास ले लिया परन्तु उसका पुत्र आदमख़ाँ एक महत्त्वाकांक्षी नौजवान था। उसे मालवा के विरुद्ध एक अभियान का सेनापति बनाकर भेजा गया। लेकिन जब उसे अपदस्थ कर दिया गया तो उसने वज़ीर के पद की मांग की और जब उसकी मांग स्वीकार नहीं की गई तो उसने कार्यवाहक वज़ीर को छुरा घोंप दिया। इससे अकबर बहुत क्रोधित हुआ और आदमख़ाँ को क़िले की दीवार से फिंकवा देने का आदेश दिया। इस प्रकार आदमख़ाँ 1561 में मर गया। परन्तु अकबर को सम्पूर्ण अधिकार स्थापित करने में बहुत वर्ष लगे। उज़बेकों ने सरदारों में एक अपना शक्तिशाली दल बना लिया था। उनके पास पूर्वी उत्तर-प्रदेश, बिहार और मालवा में महत्त्वपूर्ण पद थे। यद्यपि उन्होंने उन क्षेत्रों में शक्तिशाली अफ़ग़ान दलों को दबाये रखकर साम्राज्य की बहुत सेवा की परन्तु वे बहुत उद्धत हो गये थे और तरुण शासक की हुक़्मउदूली करने लगे थे। 1561 और 1567 के बीच उन्होंने कई बार विद्रोह किय जिससे विवश होकर अकबर को उनके विरुद्ध सैनिक कार्रवाई करनी पड़ी। प्रत्येक बार अकबर ने उन्हें क्षमा कर दिया लेकिन जब 1565 में उन्होंने फिर विद्रोह किया तो अकबर इतना उत्तेजित हुआ कि उसने निर्णय किया कि जब तक वह उन्हें मिटा नहीं देगा तब तक जौनपुर को राजधानी बनाये रखेगा। इसी बीच मिर्ज़ाओं के विद्रोह ने अकबर को उलझा लिया। मिर्ज़ा अकबर के संबंधी थे और तैमूर वंशी थे। इन्होंने आधुनिक उत्तर प्रदेश के पश्चिम में पड़ने वाले क्षेत्रों में गड़बड़ मचाई। अकबर के सौतेले भाई मिर्जा हक़ीम ने क़ाबुल पर अधिकार करके पंजाब की ओर कूच किया और लाहौर पर घेरा डाल दिया। लेकिन उज़बेक विद्रोहियों ने अकबर को औपचारिक रूप से अपना शासक स्वीकार कर लिया।

हेमू के दिल्ली पर अधिकार करने के बाद अकबर के सामने यह गंभीर संकट था। परन्तु अकबर की कुशलता और भाग्य ने उसे विजय दिलाई। वह जौनपुर से लाहौर की ओर बढ़ा जिससे मिर्ज़ा हक़ीम पीछे हटने को मजबूर हो गया। इस बीच मिर्ज़ाओं के विद्रोह को कुचल दिया गया और वे मालवा और गुजरात की ओर भाग गये। अकबर लाहौर से जौनपुर लौटा। वर्षा ऋतु में इलाहाबाद के निकट यमुना पार करके उज़बेक सरदारों के नेतृत्व ने विद्रोह करने वालों को आश्चर्यचकित कर दिया और उन्हें पूरी तरह से पराजित किया। उज़बेक नेता लड़ाई में मारे गये और इस प्रकार यह लम्बा विद्रोह समाप्त हो गया। उन सरदारों सहित जो स्वतंत्रता का सपना देख रहे थे, सभी विद्रोही सरदार पस्त पड़ गये। अब अकबर अपने साम्राज्य के विस्तार की ओर ध्यान देने के लिये मुक्त था।

साम्राज्य का प्रारम्भिक विस्तार

(1567-76)

बाज़बहादुर

बैरमख़ाँ के संरक्षण में साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार हुआ था। अजमेर के अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण विजय थीः मालवा और गढ़-कटंगा। उस समय मालवा पर एक युवा राजकुमार बाज़बहादुर का शासन था। वह संगीत और काव्य में प्रवीण था। बाज़बहादुर और सुंदरी रूपमती की प्रेम गाथाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। सुंदर होने के साथ-साथ रूपमती संगीत और काव्य में भी सिद्धहस्त थी। बाज़बहादुर के समय में माँडू संगीत का केन्द्र था। लेकिन बाज़बहादुर ने सेना की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। मालवा के विरुद्ध अभियान का सेनापति अकबर की धाय माँ माहम अनगा का पुत्र अदहम ख़ाँ था। बाज़बहादुर बुरी तरह पराजित हुआ (1561) और मुग़लों के हाथ रूपमती सहित बहुत क़ीमती सामान हाथ लगा। लेकिन रूपमती ने आदमख़ाँ के हरम में जाने की बजाय आत्महत्या करना उचित समझा। आदमख़ाँ और उसके उत्तराधिकारियों के अविवेकपूर्ण ज़ुल्मों के कारण मुग़लों के विरुद्ध वहाँ प्रतिक्रिया हुई। जिससे बाजबहादुर को पुनः राज्य प्राप्त करने का अवसर मिला।

बैरमख़ाँ के विद्रोह से निपटने के पश्चात् अकबर ने मालवा के विरुद्ध एक और अभियान छेड़ा। बाज़बहादुर को वहाँ से भागना पड़ा। उसने कुछ समय के लिए मेवाड़ के राणा के पास शरण ली। एक के बाद एक दूसरे इलाके में भटकने के बाद बाज़बहादुर अकबर के दरबार में पहुँचा और उस मनसबदार बना दिया गया। कालांतर में वह दो हज़ारी के मनसब (पद) तक बढ़ा। परम्परा के अनुसार रूपमती की समाधि के निकट उज्जैन में उसकी भी समाधि बनाई गई थी। इस प्रकार मालवा का विस्तृत क्षेत्र मुग़लों के शासन में आ गया। इसी समय के लगभग मुग़ल सेनाओं ने गढ़-कटंगा पर विजय प्राप्त की। गढ़-कटंगा के राज्य में नर्मदा घाटी और आधुनिक मध्य प्रदेश के उत्तरी इलाक़े सम्मिलित थे। इस राज्य की स्थापना पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अमन दास ने की थी। अमनदास ने रायसेन को जीतने में गुजरात के बहादुरशाह की सहायता की थी और उसे इससे "संग्रामशाह" की उपाधि प्राप्त हुई।

रानी दुर्गावती

गढ़-कटंगा में कुछ गोंडे और राजपूत रियासतें भी थीं। यह गौंडों द्वारा स्थापित एक शक्तिशाली राज्य था। कहा जाता है कि राजा के सेनापतित्व में 20,000 पैदल सिपाही, एक बड़ी संख्या घुड़सवारों की और 1,000 हाथी थे। लेकिन इन संख्याओं की विश्वसनीयता का कोई प्रमाण नहीं है। संग्रामशाह ने अपने एक पुत्र की शादी महोबा के चंदेल शासक की राजकुमारी से करके अपनी स्थिति और मज़बूत कर ली थी। यह राजकुमारी, शीघ्र ही विधवा हो गई, लेकिन उसने अपने वयस्क पुत्र को गद्दी पर बिठलाया और बड़े साहस और कुशलता के साथ राज्य किया। वह एक कुशल बंदूक़ची और तीर-अंदाज़थी। वह शिकार की शौक़ीन थी। एक तत्कालीन लेखक के अनुसार उसे जब भी आस-पास किसी बाघ के दिखाई देने की सूचना मिलती थी, वह उसका शिकार किए बिना जल भी ग्रहण नहीं करती थी। उसने आसपास के राज्यों से कई लड़ाइयाँ सफलतापूर्वक लड़ीं। बाज़बहादुर से भी उसका युद्ध हुआ। सीमा प्रान्तों के ये संघर्ष मालवा पर मुग़लों का अधिकार हो जाने के बाद भी होते रहे। इसी बीच दुर्गावती के सौन्दर्य तथा अतुल धनराशि होने की कथाएँ इलाहाबाद के मुग़ल गवर्नर आसफ़ख़ाँ तक पहुँचीं।

आसफ़ख़ाँ 10,000 सिपाहियों को लेकर बुन्देलखण्ड की ओर से बढ़ा। गढ़ के कुछ अर्द्ध-स्वतंत्र शासकों ने गोंड का जुआ कंधों से उतार फेंकने का अच्छा अवसर देखा। अतः रानी के पास बहुत कम फ़ौज रह गई। ज़ख़्मी होने पर भी वह, वीरतापूर्वक लड़ती रही। फिर यह देखकर की पराजय अवश्यंभावी है और उसे बंदी बनाया जा सकता है, उसने छुरा मारकर आत्महत्या कर ली। आसफ़ख़ाँ ने तब आधुनिक जबलपुर के पास स्थित उसकी राजधानी चौरागढ़ पर हल्ला बोल दिया। अबुलफ़ज़ल कहता है कि "इतने हीरे, जवाहरात, सोना, चाँदी और अन्य वस्तुएं हाथ लगीं की उनक अंश का भी हिसाब लगा पाना मुश्किल है। उस भारी लूट में आसफ़ख़ाँ ने केवल 200 हाथी दरबार में भेज दिए और शेष अपने पास रख लिया।" रानी की एक छोटी बहन कमलदेवी भी दरबार में भेज दी गई।

जब अकबर ने उज़बेक सरदारों के विद्रोह का सामना किया तो उसने आसफ़ख़ाँ को अनधिकृत रूप से अपने पास रखे लूट के माल को लौटाने को विवश किया। अकबर ने गढ़-कटंगा विक्रमशाह के छोटे पुत्र चन्द्रगाह को लौटा दिया, लेकिन मालवा में पड़ने वाले दस क़िलों को अपने पास रख लिया।

चित्तौड़

अगले दस वर्षों में अकबर ने राजस्थान का अधिकांश भाग अपने साम्राज्य में शामिल किया तथा गुजरात और बंगाल को भी जीत लिया। राजपूत रियासतों के विरुद्ध अभियान में एक महत्त्वपूर्ण क़दम चित्त्तौड़ का घेरा था। यह दृढ़ क़िला, जिसके इतिहास में अनेक घेरे उस पर पड़ चुके थे, मध्य राजस्थान का प्रवेश द्वार समझा जाता था। यह आगरा से गुजरात जाने का सबसे छोटा मार्ग था। इससे भी अधिक उसे राजपूती संघर्ष का प्रतीक माना जाता था। अकबर ने यह अनुभव किया कि बिना चित्तौड़ जीते, अन्य राजपूत रियासतें उसका प्रभुत्व स्वीकार नहीं करेंगी। छह महीने के घेरे के बाद चित्तौड़ की पराजय हुई। सामन्तों की सलाह से प्रसिद्ध योद्धाओं जयमल और पट्टा को क़िले का भार सौंपा गया था। राजा उदयसिंह जंगलों में छिप गया। आस-पास के इलाक़ों के बहुत से किसानों ने क़िले में शरण ले ली थी। उन्होंने भी क़िले की सुरक्षा में काफ़ी योगदान दिया। जब मुग़लों ने क़िले में प्रवेश किया, तो इन किसानों और योद्धाओं का क़त्ल कर दिया गया। यह पहला और अंतिम अवसर था जब कि अकबर ने ऐसा क़त्लेआम करवाया। राजपूत योद्धाओं ने मरने से पूर्व यथा-सम्भव मुक़ाबला किया। जयमल और पट्टा की वीरता को देखते हुए अकबर ने आगरा के क़िले के मुख्य द्वार के बाहर हाथी पर सवार इन वीरों की प्रतिमाएं स्थापित करवाने का आदेश दिया।

चित्तौड़ के बाद राजस्थान के सबसे शक्तिशाली क़िले रणथम्भौर का पतन हुआ। जोधपुर पहले ही जीता जा चुका था। इन विषयों के परिणामस्वरूप बीकानेर और जैसलमेर सहित अनेक राजपूत रियासतों ने अकबर के आगे समर्पण कर दिया। केवल मेवाड़ ही संघर्ष करता रहा।

गुजरात

बहादुरशाह की मृत्यु के पश्चात् से गुजरात की स्थिति बहुत ख़राब थी। अपनी उपजाऊ भूमि, उन्नत शिल्प और बाहरी दुनिया के साथ आयात-निर्यात व्यापार का केन्द्र होने के कारण गुजरात महत्त्वपूर्ण बन चुका था। अकबर ने यह कहकर उस पर अपना अधिकार जताया कि हुमायूँ उस पर कुछ समय तक राज्य कर चुका था। एक और कारण दिल्ली के निकट मिर्ज़ाओं का विद्रोह में असफल होकर गुजरात में शरण लेना था। अकबर इस बात के लिए तैयार नहीं था कि गुजरात जैसा समृद्ध प्रदेश मुक़ाबले की शक्ति बन जाये। 1572 में अकबर अजमेर के रास्ते से अहमदाबाद की ओर बढ़ा। अहमदाबाद ने बिना लड़े समर्पण कर दिया। अकबर ने फिर मिर्ज़ाओं की ओर ध्यान दिया। जिन्होंने भड़ौंच, बड़ौदा और सूरत पर अधिकार किया हुआ था। खम्बात में अकबर ने पहली बार समुद्र के दर्शन किए और नाव में सैर की। पुर्तग़ालियों के एक दल ने पहली बार अकबर से आकर भेंट की। इस समय पुर्तग़ालियों का भारतीय समुद्रों पर पूर्ण अधिकार था और उनकी आकांक्षा भारत में साम्राज्य स्थापित करने की थी। अकबर की गुजरात विजय से उनकी आशाओं पर तुषारापात हो गया।

जब अकबर की सेनाओं ने सूरत पर घेरा डाला हुआ था, तभी अकबर ने राजा मानसिंह और आमेर के भगवानदास सहित 200 सैनिकों की छोटी सी टुकड़ी लेकर माही नदी को पार किया और मिर्ज़ाओं पर आक्रमण कर दिया। कुछ समय के लिए अकबर का जीवन ख़तरे में पड़ गया। लेकिन उसके आक्रमण की प्रचण्डता से मिर्ज़ाओं के पैर उखड़ गये। परन्तु, जैसे ही अकबर गुजरात से लौटा, यहाँ विद्रोह फूट पड़ा। यह सुनकर अकबर लौट पड़ा। उसने ऊँटों, घेड़ों और गाड़ियों में यात्रा करते हुए नौ दिन में सारा राजस्थान पार किया और ग्याहरवें दिन अहमदाबाद पहुँच गया। यह यात्रा सामान्यतः छह सप्ताहों में पूर्ण हो सकती थी। केवल, 3,000 सिपाही ही अकबर के साथ पहुँच पाये। इसी छोटी सी सेना की सहायता से उसने 30,000 सैनिकों की सेना को परास्त किया।

बंगाल

इसके पश्चात् अकबर ने अपना ध्यान बंगाल की ओर लगाया। बंगाल के अफ़ग़ानों ने उड़ीसा को रौंद डाला था और उसके शासक को भी मार डाला था। लेकिन मुग़लों को नाराज़ होने का मौक़ा न देने के लिए अफ़ग़ान शासक ने औपचारिक रूप से स्वयं को सुल्तान घोषित नहीं किया था, और अकबर के नाम का ख़ुत्वा पढ़ता रहा था। अफ़ग़ानों की आंतरिक लड़ाई और नये शासक दाऊदख़ाँ द्वारा स्वतंत्रता की घोषणा से अकबर को वह अवसर मिल गया, जिसकी उसे तलाश थी। अकबर अपने साथ एक मज़बूत नौका बेड़ा लेकर आगे बढ़ा। ऐसा विश्वास किया जाता था अफ़ग़ान सुल्तान के पास बहुत बड़ी सेना है, जिसमें 40,000 सुसज्जित घुड़सवार, 1,50,000 पैदल सैनिक, कई हज़ार बन्दूक़ें और हाथी तथा युद्धक नावों का विशाल बेड़ा था। यदि अकबर सावधानी से काम न लेता और अफ़ग़ानों के पास बेहतर नेता होता, तो हो सकता है कि हुमायूँ और शेरशाह की ही पुनरावृत्ति होती। अकबर ने पहले पटना पर अधिकार किया और इस प्रकार बिहार में मुग़लों के लिए संचार के साधनों को सुरक्षित कर लिया। उसके बाद उसने एक अनुभवी अधिकारी ख़ान-ए-ख़ाना मुनीसख़ाँ को अभियान का नेता बनाया और स्वयं आगरा लौट गया। मुग़ल सेनाओं ने बंगाल पर आक्रमण किया और काफ़ी संघर्ष के बाद दाऊदख़ाँ को शान्ति की संधि के लिए विवश कर दिया। उसने शीघ्र ही दुबारा विद्रोह किया। यद्यपि बिहार और बंगाल में में मुग़लों की स्थिति अभी कमज़ोर थी, यद्यपि उनकी सेनाएँ अधिक संगठित और बेहतर नेतृत्व वाली थीं। 1576 में बिहार में एक तगड़ी लड़ाई में दाऊदख़ाँ पराजित हुआ और उसे उसी समय मार डाला गया।

इस प्रकार उत्तर भारत से अफ़ग़ान शासन का पतन हुआ। इसी बीच अकबर के साम्राज्य विस्तार का पहला दौर भी समाप्त हुआ।


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