"महात्मा गाँधी": अवतरणों में अंतर

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महात्मा गाँधी को ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के नेता, राष्ट्रपिता माना जाता है। इनका पूरा मोहन दास करमचंद गाँधी था। राजनीतिक और सामाजिक प्रगति की प्राप्ति हेतु अपने अहिंसक विरोध के सिद्धांत के लिए उन्हें अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है।  मोहनदास करमचंद गांधी [[भारत]] एवं [[भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन]] के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे।
}}'''महात्मा गाँधी''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Mahatma Gandhi'', जन्म: [[2 अक्तूबर]], [[1869]]; मृत्यु: [[30 जनवरी]], [[1948]]) को ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ [[भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन]] का नेता और 'राष्ट्रपिता' माना जाता है। इनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गाँधी था। राजनीतिक और सामाजिक प्रगति की प्राप्ति हेतु अपने अहिंसक विरोध के सिद्धांत के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। मोहनदास करमचंद गाँधी [[भारत]] एवं [[भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन]] के एक प्रमुख राजनीतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। '[[साबरमती आश्रम]]' से उनका अटूट रिश्ता था। इस आश्रम से महात्मा गाँधी आजीवन जुड़े रहे, इसीलिए उन्हें 'साबरमती का संत' की उपाधि भी मिली।
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्तूबर 1869 ई. को [[गुजरात]] के [[पोरबंदर]] नामक स्थान में हुआ था। उनके माता-पिता कट्टर हिन्दू थे। इनके पिता का नाम करमचंद गाँधी था। मोहनदास की माता का नाम पुतलीबाई था जो करमचंद गांधी जी की चौथी पत्नी थी। मोहनदास अपने पिता की चौथी पत्नी की अन्तिम संतान थे। उनके पिता करमचंद (कबा गांधी) पहले ब्रिटिश शासन के तहत पश्चिमी भारत के गुजरात में एक छोटी-सी रियासत की राजधानी पोरबंदर के दीवान थे और बाद में क्रमशः राजकोट (कठियावाड़) और वांकानेर में दीवान रहे। करमचंद गांधी ने बहुत अधिक औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं की थी, लेकिन वह एक कुशल प्रशासक थे और उन्हें सनकी राजकुमारों, उनकी दुःखी प्रजा तथा सत्तासीन कट्टर ब्रिटिश राजनीतिक अधिकारियों के बीच अपना रास्ता निकालना आता था।  
{{main|महात्मा गाँधी का परिचय}}
गांधी की माँ पुतलीबाई अत्यधिक धार्मिक थीं और भोग-विलास में उनकी ज़्यादा रुचि नहीं थी। उनकी दिनचर्या घर और मन्दिर में बंटी हुई थी। वह नियमित रूप से उपवास रखती थीं और परिवार में किसी के बीमार पड़ने पर उसकी सेवा सुश्रुषा में दिन-रात एक कर देती थीं। मोहनदास का लालन-पालन वैष्णव मत में रमे परिवार में हुआ और उन पर कठिन नीतियों वाले भारतीय धर्म जैन धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा। जिसके मुख्य सिद्धांत, अहिंसा एवं विश्व की सभी वस्तुओं को शाश्वत मानना है। इस प्रकार, उन्होंने स्वाभाविक रूप से अहिंसा, शाकाहार, आत्मशुद्धि के लिए उपवास और विभिन्न पंथों तथा समुदायों का मानने वालों के बीच परस्पर सहिष्णुता को अपनाया।
महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्तूबर 1869 ई. को [[गुजरात]] के [[पोरबंदर]] नामक स्थान पर हुआ था। उनके माता-पिता कट्टर [[हिन्दू]] थे। इनके [[पिता]] का नाम करमचंद गाँधी था। मोहनदास की [[माता]] का नाम पुतलीबाई था जो करमचंद गाँधी जी की चौथी पत्नी थीं। मोहनदास अपने पिता की चौथी पत्नी की अन्तिम संतान थे। उनके पिता करमचंद (कबा गाँधी) पहले ब्रिटिश शासन के तहत पश्चिमी भारत के गुजरात राज्य में एक छोटी-सी रियासत की राजधानी पोरबंदर के दीवान थे और बाद में क्रमशः [[राजकोट]] ([[काठियावाड़]]) और वांकानेर में दीवान रहे। करमचंद गाँधी ने बहुत अधिक औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं की थी, लेकिन वह एक कुशल प्रशासक थे और उन्हें सनकी राजकुमारों, उनकी दुःखी प्रजा तथा सत्तासीन कट्टर ब्रिटिश राजनीतिक अधिकारियों के बीच अपना रास्ता निकालना आता था।  
==युवावस्था==
मोहनदास एक औसत विद्यार्थी थे, हालाँकि उन्होंने यदा-कदा पुरस्कार और छात्रवृत्तियाँ भी जीतीं। एक सत्रांत-परीक्षा में उनके परिणाम में अंग्रेजी में अच्छा, अंकगणित में ठीक-ठाक भूगोल में ख़राब, चाल-चलन बहुत अच्छा, लिखावट ख़राब की टिप्पणी की गई थी। वह पढ़ाई व खेल, दोनों में ही प्रखन नहीं थे। बीमार पिता की सेवा करने और घरेलू कामों में माँ का हाथ बंटाने और समय मिलने पर उन्हें दूर तक अकेले सैर पर निकलना पसंद था। उन्हीं के शब्दों में उन्होंने 'बड़ों की आज्ञा का पालन करना सीखा, उनमें मीनमेख निकालना नहीं।' वह किशोरावस्था के विद्रोही दौर से भी गुज़रे, जिसमें गुप्त नास्तिकवाद, छोटी-मोटी चोरियाँ, छिपकर धूम्रपान और वैष्णव परिवार में जन्में किसी लड़के के लिए सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली बात—माँस खाना शामिल था। उनकी किशोरावस्था उनकी आयु और वर्ग के अधिकांश बच्चों से अधिक हलचल भरी नहीं थी। उनकी युवावस्था की नादानियों का अन्तिम बिन्दु असाधारण था। हर ऐसी नादानी के बाद वह स्वयं वादा करते 'फिर कभी ऐसा नहीं' और अपने वादे पर अटल रहते। उनमें आत्मसुधार की लौ जलती रहती थी। जिसके कारण उन्होंने सच्चाई और बलिदान के प्रतीक [[प्रह्लाद]] और [[हरिश्चंद्र]] जैसे पौराणिक हिन्दू नायकों को सजीव आदर्श के रूप में ग्रहण किया।


पुस्तक 'माई एक्सपेरिमेंट विथ ट्रुथ' के लेखक महात्मा गाँधी थे। उन्होंने इस पुस्तक को "सत्य के प्रयोग" के नाम से मूल रूप से अपनी मातृभाषा गुजराती में लिखा था। यह गांधीजी की [[आत्मकथा]] के रूप में प्रसिद्ध है। इस पुस्तक का अनुवाद [[महादेव देसाई]] ने [[अंग्रेज़ी]] में किया था। गांधीजी ने इस किताब में अपने जन्म से लेकर [[1921]] तक की घटनाओं का जिक्र किया है। बाद में इन सारी घटनाओं को गांधीजी के अखबार 'नवजीवन' में [[1925]] से [[1929]] के बीच प्रकाशित किया गया।<ref name="pp">{{cite web |url=https://hi.quora.com/%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%95-%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%88-%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A4%AA%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82%E0%A4%9F |title=पुस्तक 'माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रुथ'के लेखक कौन थे?|accessmonthday=27 जून|accessyear=2021 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=hi.quora.com |language=हिंदी}}</ref>
==शिक्षा==
==शिक्षा==
1887 में मोहनदास ने जैसे-तैसे बंबई यूनिवर्सिटी की मैट्रिक की परीक्षा पास की और भावनगर स्थित सामलदास कालेज में दाख़िला लिया। अचानक गुजराती से अंग्रेजी भाषा में जाने से उन्हें व्याख्यानों को समझने में कुछ दिक्कत होने लगी। इस बीच उनके परिवार में उनके भविष्य को लेकर चर्चा चल रही थी। अगर निर्णय उन पर छोड़ा जाता, तो वह डाक्टर बनना चाहते थे। लेकिन वैष्णव परिवार में चीरफ़ाड़ के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह के अलावा यह भी स्पष्ट था कि यदि उन्हें गुजरात के किसी राजघराने में उच्च पद प्राप्त करने की पारिवारिक परम्परा निभानी है, तो उन्हें बैरिस्टर बनना पड़ेगा। इसका अर्थ था इंग्लैंड यात्रा और गांधी ने, जिनका सामलदास कालेज में ख़ास मन नहीं लग रहा था, इस प्रस्ताव को सहर्ष ही स्वीकार कर लिया। उनके युवा मन में इंग्लैंड की छवि 'दार्शनिकों और कवियों की भूमि, सम्पूर्ण सभ्यता के केन्द्र' के रूप में थी। सितम्बर 1888 में वह पानी के जहाज़ पर सवार हुए। वहाँ पहुँचने के 10 दिन बाद वह लंदन के चार क़ानून महाविद्यालय में से एक 'इनर टेंपल' में दाख़िल हो गए।
{{main|महात्मा गाँधी की शिक्षा}}
==परिवार==
1887 में मोहनदास ने जैसे-तैसे 'बंबई यूनिवर्सिटी' की मैट्रिक की परीक्षा पास की और [[भावनगर]] स्थित 'सामलदास कॉलेज' में दाख़िला लिया। अचानक गुजराती से अंग्रेज़ी भाषा में जाने से उन्हें व्याख्यानों को समझने में कुछ दिक्कत होने लगी। इस बीच उनके परिवार में उनके भविष्य को लेकर चर्चा चल रही थी। अगर निर्णय उन पर छोड़ा जाता, तो वह डॉक्टर बनना चाहते थे। लेकिन वैष्णव परिवार में चीरफ़ाड़ के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह के अलावा यह भी स्पष्ट था कि यदि उन्हें गुजरात के किसी राजघराने में उच्च पद प्राप्त करने की पारिवारिक परम्परा निभानी है, तो उन्हें बैरिस्टर बनना पड़ेगा। इसका अर्थ था इंग्लैंड यात्रा और गाँधी ने, जिनका 'सामलदास कॉलेज' में ख़ास मन नहीं लग रहा था, इस प्रस्ताव को सहर्ष ही स्वीकार कर लिया। उनके युवा मन में इंग्लैंड की छवि 'दार्शनिकों और कवियों की भूमि, सम्पूर्ण सभ्यता के केन्द्र' के रूप में थी। सितंबर 1888 में वह पानी के जहाज़ पर सवार हुए। वहाँ पहुँचने के 10 दिन बाद वह लंदन के चार क़ानून महाविद्यालय में से एक 'इनर टेंपल' में दाख़िल हो गए।
मोहनदास करमचंद जब केवल तेरह वर्ष के थे और स्कूल में पढ़ते थे, पोरबंदर के एक व्यापारी की पुत्री कस्तूरबाई ([[कस्तूरबा गाँधी|कस्तूरबा]]) से उनका विवाह कर दिया गया। वर-वधु की अवस्था लगभग समान थी। दोनों ने 62 वर्ष तक वैवाहिक जीवन बिताया।  1944 ई. में पूना की ब्रिटिश जेल में कस्तूरबा का स्वर्गवास हुआ। गांधीजी अठारह वर्ष की आयु में एक पुत्र के पिता हो गये थे। गाँधी जी के चार पुत्र हुए जिनके नाम थे:-हरिलाल, मनिलाल, रामदास, देवदास।
==अफ़्रीका में गाँधी==
 
{{main|अफ़्रीका में गाँधी}}
==इंग्लैंड==
डरबन न्यायालय में यूरोपीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें पगड़ी उतारने के लिए कहा, उन्होंने इन्कार कर दिया और न्यायालय से बाहर चले गए। कुछ दिनों के बाद प्रिटोरिया जाते समय उन्हें रेलवे के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर फेंक दिया गया और उन्होंने स्टेशन पर ठिठुरते हुए रात बिताई। यात्रा के अगले चरण में उन्हें एक घोड़ागाड़ी के चालक से पिटना पड़ा, क्योंकि यूरोपीय यात्री को जगह देकर पायदान पर यात्रा करने से उन्होंने इन्कार कर दिया था, और अन्ततः 'सिर्फ़ यूरोपीय लोगों के लिए' सुरक्षित होटलों में उनके जाने पर रोक लगा दी गई। नटाल में भारतीय व्यापारियों और श्रमिकों के लिए ये अपमान दैनिक जीवन का हिस्सा था। जो नया था, वह गाँधी का अनुभव न होकर उनकी प्रतिक्रिया थी। अब तक वह हठधर्मिता और उग्रता के पक्ष में नहीं थे, लेकिन जब उन्हें अनपेक्षित अपमानों से गुज़रना पड़ा, तो उनमें कुछ बदलाव आया।
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==सत्याग्रह==
गांधी ने अपनी पढ़ाई को गम्भीरता से लिया और लंदन यूनिवर्सिटी मैट्रिकुलेशन परीक्षा में बैठकर अंग्रेज़ी तथा लैटिन को सुधारने का प्रयास किया। राजकोट के अर्द्ध ग्रामीण माहौल से लंदन के महानगरीय जीवन में परिवर्तन उनके लिए आसान नहीं था। जब वह पश्चिमी खान-पान, तहज़ीब और पहनावे को अपनाने के लिए जूझते, उन्हें अटपटा लगता। उनका शाकाहारी होना उनके लिए लगातार शर्मिंदगी का कारण बन जाता। उनके मित्रों ने उन्हें चेतावनी दी कि इसका दुष्प्रभाव उनके अध्ययन और स्वास्थ्य, दोनों पर पड़ेगा। सौभाग्यवश उन्हें एक शाकाहारी रेस्तरां के साथ-साथ एक पुस्तक मिल गई, जिसमें शाकाहार के पक्ष में तर्क दिए गए थे। वह लंदन वेजीटेरियन सोसाइटी के कार्यकारी सदस्य भी बन गए और उसके सम्मेलनों में भाग लेने लगे तथा उसकी पत्रिका भी लिखने लगे। यहाँ तीन वर्षों (1888-91) तक रहकर उन्होंने बैरिस्टरी पास की। <br /><blockquote><span style="color: #8080e3">जैसे छोटा-सा तिनका हवा का रुख बताता है वैसे ही मामूली घटनाएँ मनुष्य के हृदय की वृत्ति को बताती हैं। '''महात्मा गांधी'''</span></blockquote>
{{main|महात्मा गाँधी तथा सत्याग्रह}}
 
1906 में टांसवाल सरकार ने दक्षिण अफ़्रीका की भारतीय जनता के पंजीकरण के लिए विशेष रूप से अपमानजनक अध्यादेश जारी किया। भारतीयों ने सितंबर 1906 में जोहेन्सबर्ग में गाँधी के नेतृत्व में एक विरोध जनसभा का आयोजन किया और इस अध्यादेश के उल्लंघन तथा इसके परिणामस्वरूप दंड भुगतने की शपथ ली। इस प्रकार सत्याग्रह का जन्म हुआ, जो वेदना पहुँचाने के बजाय उन्हें झेलने, विद्वेषहीन प्रतिरोध करने और बिना हिंसा के उससे लड़ने की नई तकनीक थी।
[[इंग्लैंड]] के शाकाहारी रेस्तरां और आवास—गृहों में गांधी की मुलाक़ात न सिर्फ़ भोजन के मामले में कट्टर लोगों से हुई, बल्कि उन्हें कुछ गम्भीर स्त्री-पुरुष भी मिले। जिन्हें [[बाइबिल]] और [[भगवत गीता]] से परिचय कराने का श्रेय दिया। भगवदगीता को उन्होंने सबसे पहले [[सर एडविन आर्नोल्ड]] के अंग्रेज़ी अनुवाद में पढ़ा। परिचित शाकाहारी अंग्रेज़ों में एडवर्ड कारपेंटर जैसे समाजवादी और मानवतावादी थे, जो कि ब्रिटिश थोरो कहलाते थे। जार्ज बर्नाड शा जैसे फ़ेबियन, और एनी बेसेंट सरीखे धर्मशास्त्री शामिल थे। उनमें से अधिकांश आदर्शवादी थे। कुछ विद्रोही तेवर के भी थे। जो उत्तरवर्ती विक्टोरियाई व्यवस्था के तत्कालीन मूल्यों को नहीं जानते थे। वे सादा जीवन के मुक़ाबले सहयोग को अधिक महत्व देते थे। इन विचारों ने गांधी के व्यक्तित्व और बाद में उनकी राजनीति को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।<br /><blockquote><span style="color: #8080e3">आपका कोई भी काम महत्वहीन हो सकता है पर महत्वपूर्ण यह है कि आप कुछ करें। '''महात्मा गांधी'''</span></blockquote>
 
जुलाई 1891 में जब गांधी भारत लौटे, तो अनुपस्थिति में उनकी माता का देहान्त हो चुका था और उन्हें यह जानकर बहुत निराशा हुई कि बैरिस्टर की डिग्री से अच्छे पेशेवर जीवन की गारंटी नहीं मिल सकती। वकालत के पेशे में पहले ही काफ़ी भीड़ हो चुकी थी और गांधी उनमें अपनी जगह बनाने के मामले में बहुत संकोची थे। बंबई (वर्तमान मुंबई) न्यायालय में पहली ही बहस में वह नाकाम रहे। यहाँ तक की बंबई उच्च न्यायालय में अल्पकालिक शिक्षक के पद के लिए भी उन्हें अस्वीकार कर दिया गया। इसलिए वह राजकोट लौटकर मुक़दमा करने वालों के लिए अर्ज़ी लिखने जैसे छोटे कामों के ज़रिये रोज़ी-रोटी कमाने लगे। एक स्थानीय ब्रिटिश अधिकारी को नाराज़ कर देने के कारण उनका यह काम भी बन्द हो गया। इसलिए उन्होंने [[दक्षिण अफ़्रीका]] में नटाल स्थित एक भारतीय कम्पनी से एक साल के अनुबंध को स्वीकार करके राहत की साँस ली।
==दक्षिण अफ़्रीका==
डरबन न्यायालय में यूरोपीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें पगड़ी उतारने के लिए कहा, उन्होंने इनकार कर दिया और न्यायालय से बाहर चले गए। कुछ दिनों के बाद प्रिटोरिया जाते समय उन्हें रेलवे के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर फेंक दिया गया और उन्होंने स्टेशन पर ठिठुरते हुए रात बिताई। यात्रा के अगले चरण में उन्हें एक घोड़ागाड़ी के चालक से पिटना पड़ा, क्योंकि यूरोपीय यात्री को जगह देकर पायदान पर यात्रा करने से उन्होंने इनकार कर दिया था, और अन्ततः 'सिर्फ़ यूरोपीय लोगों के लिए' सुरक्षित होटलों में उनके जाने पर रोक लगा दी गई। नटाल में भारतीय व्यापारियों और श्रमिकों के लिए ये अपमान दैनिक जीवन के हिस्सा थे। जो नया था, वह गांधी का अनुभव न होकर उनकी प्रतिक्रिया थी। अब तक वह हठधर्मिता और उग्रता के पक्ष में नहीं थे, लेकिन जब उन्हें अनपेक्षित अपमानों से गुज़रना पड़ा, तो उनमें कुछ बदलाव आया। बाद में देखने पर उन्हें लगा कि डरबन से प्रिटोरिया तक की यात्रा उनके जीवन के महानतम रचनात्मक अनुभवों में से थी। यह उनके सत्य का क्षण था।
====<u>मेरित्सबर्ग काण्ड</u>====
[[चित्र:Mahatma-Gandhi-And-Jawahar-Lal-Nehru-Stamp.jpg|thumb|[[जवाहर लाल नेहरू]] और महात्मा गाँधी की भारतीय डाक टिकट <br />
Indian Postage Stamp of Nehruji And Gandhiji]]
मेरित्सबर्ग काण्ड ने गांधी जी की जीवन यात्रा को एक नयी दिशा दी। उन्होंने स्वयं उस घटना का विवरण इस प्रकार लिखा है---'मेरित्सबर्ग में एक पुलिस कांस्टेबल ने मुझे धक्का देकर ट्रेन से बाहर निकाल दिया। ट्रेन चली गयी। मैं विश्राम कक्ष में बैठ गया। मैं ठंड से काँप रहा था। मुझे नहीं मालूम था कि मेरा असबाब कहाँ पर है, और न तो मैं किसी से कुछ पूछने की हिम्मत कर सकता था कि कहीं फिर से बेइज्जती न हो। नींद का सवाल ही नहीं था। मेरे मन में ऊहापोह होने लगी। काफ़ी रात गये मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि भारत वापस भाग जाना क़ायरता होगी। मैंने जो दायित्व अपने ऊपर लिया है, उसे पूरा करना चाहिए।' मेरित्सबर्ग कांड के बाद उन्होंने अपने मन में दक्षिणी अफ़्रीका के प्रवासी भारतीयों को उस अपमान की ज़िन्दगी से उबारने का संकल्प लिया। जिसे वे लम्बे अरसे से झेलते आ रहे थे। इस संकल्प के बाद गांधीजी अगले बीस वर्षों (1893-1914) तक दक्षिणी अफ़्रीका में रहे और शीघ्र ही वहाँ पर इनके नेतृत्व में उत्पीड़ित भारतीयों पर लगे सारे प्रतिबंधों को हटाने के लिए एक आंदोलन छिड़ गया। इस आंदोलन को सफल बनाने के उद्देश्य से उन्होंने अपनी चलती हुई वकालत छोड़ दी और ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर अपने परिवार और मित्रों के साथ टालस्टाय आश्रम की स्थापना करके वहीं पर रहने लगे।  फिर कभी उन्होंने अन्याय स्वीकार नहीं किया। एक भारतीय और एक व्यक्ति के रूप में अपने सम्मान की रक्षा की।
 
====<u>विदाई समारोह</u>====
प्रिटोरिया प्रवास के दौरान गांधी ने अपने देशवासियों की उन परिस्थितियों का अध्ययन किया, जिसमें वे जी रहे थे और उन्हें उनके अधिकारों तथा कर्तव्यों के बारे में शिक्षित करने का प्रयास किया। उनका दक्षिण अफ़्रीका में लम्बे समय तक रहने का कोई इरादा नहीं था। जून 1894 में जब एक साल का अनुबंध समाप्त होने को आया, तो वह वापस डरबन आकर भारत लौटने को तैयार थे। उनके सम्मान में आयोजित विदाई समारोह में नटाल मर्क्युरि के पन्ने पलटते हुए उन्हें पता चला कि नटाल लेजिस्लेटिव असेंबली भारतीयों को मतदान के अधिकार से वंचित करने सम्बन्धी एक विधेयक पर विचार कर रही है। गांधी ने अपने मेजबानों से कहा, 'यह हमारे ताबूत की पहली कील है', लोगों ने इस विधेयक का विरोध करने में अक्षमता दिखाई और औपनिवेशिक राजनीति पर अपनी अज्ञानता स्वीकारते हुए गांधी से अपने लिए संघर्ष की प्रार्थना की।
====<u>नटाल इंडियन कांग्रेस</u>====
[[चित्र:Mahatma-Gandhi-And-Kasturba-Gandhi.jpg|thumb|महात्मा गाँधी और [[कस्तूरबा गाँधी]] की प्रतिमा, बिरला हाउस, [[दिल्ली]]<br /> Mahatma Gandhi And Kasturba Gandhi Statue, Birla House, Delhi|left]]
18 वर्ष की आयु तक गांधी ने शायद ही कभी समाचार पत्र पढ़ा था। न तो इंग्लैंड के विद्यार्थी काल में और न ही भारत में बैरिस्टरी की शुरूआत में राजनीति में उनकी कभी रुचि रही। वस्तुतः किसी सभा में भाषण देते समय या अदालत में मुवक्किल का बचाव करते हुए वे जैसे ही बोलने खड़े होते, मंचीय भय उन्हें जकड़ लेता था। फिर भी, 1894 में मात्र 25 वर्ष की आयु में वह लगभग रातों रात एक सफल राजनीतिक आंदोलनकारी बन गए। उन्होंने नटाल की विधायिका और ब्रिटिश सरकार के नाम याचिकाएँ लिखीं और उन पर सैकड़ों भारतीयों के हस्ताक्षर कराए। वह विधेयक को तो नहीं रोक सके, लेकिन नटाल में रहने वाले भारतीयों के कष्टों की ओर नटाल, भारत और इंग्लैंड के अख़बारों का ध्यान आकर्षित करने में सफल रहे। उन्हें डरबन में रहकर वकालत करने और भारतीय समुदाय का एकजुट करने के लिए राज़ी कर लिया गया। 1894 में उन्होंने नटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की और उसके सक्रिय सचिव बन गए। इस सामान्य राजनीतिक संगठन के माध्यम से उन्होंने बहुजातीय भारतीय समुदाय में एकता की भावना भर दी। उन्होंने सरकार विधायिका और प्रेस में भारतीयों के कष्टों से सम्बन्धित तर्कपूर्ण वक्तव्यों की झड़ी लगा दी। अन्ततः उन्होंने महारानी विक्टोरिया की भारतीय प्रजा के साथ उनके ही अफ़्रीका स्थित अपनिवेश में किए जा रहे भेदभाव को दुनिया के सामने उजागर करके साम्राज्य की पोल खोल दी। एक प्रचारक के रूप में उनकी सफलता का प्रमाण यह था कि लंदन के 'द टाइम्स' और कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के 'स्टेट्समैन' तथा 'इंग्लिशमैन' जैसे अख़बारों के संपादकीय में भी नटाल के भारतीयों के कष्टों पर टिप्पणियाँ लिखी गईं। 1896 में अपनी पत्नी कस्तूरबा तथा बच्चों को लाने एवं विदेश में रहने वाले भारतीयों के लिए समर्थन जुटाने हेतु गांधी भारत पहुँचे, उन्होंने प्रमुख नेताओं से मिलकर उन्हें बड़े-बड़े शहरों में जनसभाएँ: संबोधित करने के लिए राज़ी किया।<br /><blockquote><span style="color: #8080e3">पराजय से सत्याग्रही को निराशा नहीं होती बल्कि कार्यक्षमता और लगन बढ़ती है। '''महात्मा गांधी'''</span></blockquote> 
 
यह गांधी का दुर्भाग्य था कि उनकी गतिविधियों और वक्तव्यों की ऊटपटांग ख़बरें नटाल पहुँची और वहाँ की यूरोपीय जनता बिगड़ उठी। जनवरी 1897 में डरबन पहुँचने पर उग्र गोरों की भीड़ ने उन पर प्राण घातक हमला कर दिया। ब्रिटिश मंत्रीमंडल में औपनिवेशिक सचिव जोज़फ़ चेंबरलेन ने नटाल सरकार को तार भेजकर दोषी व्यक्तियों को गिरफ़्तार करने को कहा, लेकिन गांधी ने हमलावरों पर मुक़दमा करने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह उनका सिद्धांत है कि व्यक्तिगत क्षति को क़ानूनी अदालत में न ले जाया जाए।
 
==प्रतिरोध और परिणाम==
[[चित्र:Gandhi-Ji-Statue.jpg|thumb|फ़ेरी इमारत पर गाँधी जी की प्रतिमा, सेन फ़्रांसिस्को<br /> Gandhi Ji Statue At Ferry Building, San Francisco]]
गांधी मनमुटाव पालने वाले व्यक्ति नहीं थे। 1899 में दक्षिण अफ़्रीका (बोअर) युद्ध छिड़ने पर उन्होंने नटाल के ब्रिटिश उपनिवेश में नागरिकता के सम्पूर्ण अधिकारों का दावा करने वाले भारतीयों से कहा कि उपनिवेश की रक्षा करना उनका कर्तव्य है। उन्होंने 1100 स्वयं सेवकों की एंबुलेन्स कोर की स्थापना की, जिसमें 300 स्वतंत्र भारतीय और बाक़ी बंधुआ मज़दूर थे। यह एक पंचमेल समूह था-- बैरिस्टर और लेखाकार, कारीगर और मज़दूर। युद्ध की समाप्ति से दक्षिण अफ़्रीका के भारतीयों को शायद ही कोई राहत मिली। गांधी ने देखा कि कुछ ईसाई मिशनरियों और युवा आदर्शवादियों के अलावा दक्षिण अफ़्रीका में रहने वाले यूरोपियों पर आशानुरूप छाप छोड़ने में वह असफल रहे हैं। 1906 में टांसवाल सरकार ने वहाँ की भारतीय जनता के पंजीकरण के लिए विशेष रूप से अपमानजनक अध्यादेश जारी किया। भारतीयों ने सितम्बर 1906 में जोहेन्सबर्ग में गांधी के नेतृत्व में एक विरोध जनसभा का आयोजन किया और इस अध्यादेश के उल्लंघन तथा इसके परिणामस्वरूप दंड भुगतने की शपथ ली। इस प्रकार सत्याग्रह का जन्म हुआ, जो वेदना पहुँचाने के बजाय उन्हें झेलने, विद्वेषहीन प्रतिरोध करने और बिना हिंसा के उससे लड़ने की नई तकनीक थी।<br /><blockquote><span style="color: #8080e3">हिन्दी लिपी और भाषा जानना हर भारतीय का कर्तव्य है। उस भाषा का स्वरूप जानने के लिए 'रामायण' जैसी दूसरी पुस्तक शायद ही मिलेगी। '''महात्मा गांधी'''</span></blockquote>
दक्षिण अफ़्रीका में सात वर्ष से अधिक समय तक संघर्ष चला। इसमें उतार-चढ़ाव आते रहे, लेकिन गांधी के नेतृत्व में भारतीय अल्पसंख्यकों के छोटे से समुदाय ने अपने शक्तिशाली प्रतिपक्षियों के ख़िलाफ़ संघर्ष जारी रखा। सैकड़ों भारतीयों ने अपने अंतःकरण और स्वाभिमान को चोट पहुँचाने वाले क़ानून के सामने झुकने के बजाय अपनी आजीविका तथा स्वतंत्रता की बलि चढ़ाना ज्यादा पसंद किया। 1913 में आंदोलन के अन्तिम चरण में महिलाओं समेत सैकड़ों भारतीयों ने कारावास की सज़ा भुगती तथा खदानों में काम बन्द करके हड़ताल कर रहे हज़ारों भारतीय मज़दूरों ने कोड़ों की मार, जेल की सज़ा और यहाँ तक की गोली मारने के आदेश का भी साहसपूर्ण सामना किया। भारतीयों के लिए यह घोर यंत्रणा थी। लेकिन दक्षिण अफ़्रीकी सरकार के लिय यह सबसे ख़राब प्रचार सिद्ध हुआ और उसने भारत व ब्रिटिश सरकार के दबाव के तहत एक समझौते को स्वीकार किया। जिस पर एक ओर से गांधी तथा दूसरी ओर से दक्षिण अफ़्रीकी सरकार के प्रतिनिधि जनरल जान क्रिश्चियन स्मट्स ने बातचीत की थी। <br /><blockquote><span style="color: #8080e3">भारत की सभ्यता की रक्षा करने में तुलसीदास ने बहुत अधिक भाग लिया है। तुलसीदास के चेतनमय रामचरितमानस के अभाव में किसानों का जीवन जड़वत् और शुष्क बन जाता है—पता नहीं कैसे क्या हुआ, परन्तु यह निर्विवाद है कि तुलसीदास जी भाषा में जो प्राणप्रद शक्ति है वह दूसरों की भाषा में नहीं पाई जाती। रामचरितमानस विचार-रत्नों का भण्डार है। '''महात्मा गांधी'''</span></blockquote>
जुलाई 1914 में दक्षिण अफ़्रीका से गांधी के भारत प्रस्थान के बाद स्मट्स ने एक मित्र को लिखा था, 'संत ने हमारी भूमि से विदा ले ली है, आशा है सदा के लिए'; 25 वर्ष के बाद उन्होंने लिखा, 'ऐसे व्यक्ति का विरोधी होना मेरी नियति थी, जिनके लिए तब भी मेरे मन में बहुत सम्मान था', अपनी अनेक जेल यात्राओं के दौरान एक बार गांधी ने स्मट्स के लिए एक जोड़ी चप्पल बनाई थी। स्मट्स का संस्मरण है कि उनके बीच कोई घृणा या व्यक्तिगत दुर्भाव नहीं था और जब लड़ाई खत्म हो गई तो 'माहोल ऐसा था, जिसमें एक सम्मानजनक समझौते को अंजाम दिया जा सकता था।
 
==धार्मिक खोज==
==धार्मिक खोज==
[[चित्र:Agha-Khan-Palace-Pune.jpg|thumb|महात्मा गाँधी जी का कमरा, अगा खान पैलेस, [[पुणे]]<br />Mahatma Gandhi's Room in Aga Khan Palace, Pune|left]]
{{main|महात्मा गाँधी की धार्मिक खोज}}
गांधी की धार्मिक खोज उनकी माता, पोरबंदर तथा राजकोट स्थित घर के प्रभाव से बचपन में ही शुरू हो गई थी। लेकिन दक्षिण अफ़्रीका पहुँचने पर इसे काफ़ी बल मिला। वह ईसाई धर्म पर टाल्सटाय के लेखन पर मुग्ध थे। उन्होंने क़ुरान के अनुवाद का अध्ययन किया और हिन्दू अभिलेखों तथा दर्शन में डुबकियाँ लगाईं। सापेक्षिक कर्म के अध्ययन, विद्वानों के साथ बातचीत और धर्मशास्त्रीय कृतियों के निजी अध्ययन से वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सभी धर्म सत्य हैं और फिर भी हर एक धर्म अपूर्ण है। क्योंकि उनकी व्याख्या स्तरहीन बृद्धि, कभी-कभी संकीर्ण ह्रदय से की गई है और अक्सर दुर्व्याख्या हुई है। भगवदगीता, जिसका गांधी ने पहली बार इंग्लैंड में अध्ययन किया था, उनका 'आध्यात्मिक शब्दकोश' बन गया और सम्भवतः उनके जीवन पर इसी का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा। गीता में उल्लिखित संस्कृत के दो शब्दों ने उन्हें सबसे ज्यादा आकर्षित किया। एक था अपरिग्रह (त्याग), जिसका अर्थ है, मनुष्य को अपने आध्यात्मिक जीवन को बाधित करने वाली भौतिक वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए और उसे धन-सम्पत्ति के बंधनों से मुक्त हो जाना चाहिए। दूसरा शब्द है समभाव (समान भाव), जिसने उन्हें दुःख या सुख, जीत या हार, सबमें अडिग रहना तथा सफलता की आशा या असफलता के भय के बिना काम करना सिखाया। ये सिर्फ़ पूर्णता के समोपदेश नहीं थे। जिस दीवानी मुक़दमें के कारण वह 1893 में दक्षिण अफ़्रीका आए थे, उसमें उन्होंने दोनों विरोधियों को न्यायालय से बाहर ही समझौता करने पर राज़ी कर लिया था। उनके अनुसार, एक सच्चे वकील का काम 'विरोधी पक्षों को एकजुट करना था। जल्दी ही वह मुवक्किलों को अपनी सेवा के ख़रीदार के बजाय मित्र समझने लगे, जो न सिर्फ़ क़ानूनी मामलों में उनकी सलाह लेते थे, बल्कि बच्चे से माँ का दूध छुड़ाने और परिवार के बजट में संतुलन जैसे मामलों पर भी राय लेते थे। जब एक सहयोगी ने रविवार को भी मुवक्किलों के आने पर विरोध किया, तो गांधी का जवाब था 'विपत्ति में फँसे आदमी के पास रविवार का आराम नहीं होता'।
[[गाँधी जी]] की धार्मिक खोज उनकी माता, [[पोरबंदर]] तथा [[राजकोट]] स्थित घर के प्रभाव से बचपन में ही शुरू हो गई थी। लेकिन [[दक्षिण अफ़्रीका]] पहुँचने पर इसे काफ़ी बल मिला। वह [[ईसाई धर्म]] पर टॉल्सटाय के लेखन पर मुग्ध थे। उन्होंने [[क़ुरान]] के अनुवाद का अध्ययन किया और [[हिन्दू]] अभिलेखों तथा [[दर्शन शास्त्र|दर्शन]] में डुबकियाँ लगाईं। सापेक्षिक कर्म के अध्ययन, विद्वानों के साथ बातचीत और धर्मशास्त्रीय कृतियों के निजी अध्ययन से वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सभी धर्म सत्य हैं और फिर भी हर एक धर्म अपूर्ण है। क्योंकि कभी-कभी उनकी व्याख्या स्तरहीन बुद्धि संकीर्ण हृदय से की गई है और अक्सर दुर्व्याख्या हुई है। [[गीता|भगवदगीता]], जिसका गाँधी ने पहली बार इंग्लैंड में अध्ययन किया था, उनका 'आध्यात्मिक शब्दकोश' बन गया और सम्भवतः उनके जीवन पर इसी का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा। गीता में उल्लिखित [[संस्कृत]] के दो शब्दों ने उन्हें सबसे ज़्यादा आकर्षित किया। एक था 'अपरिग्रह' (त्याग), जिसका अर्थ है, मनुष्य को अपने आध्यात्मिक जीवन को बाधित करने वाली भौतिक वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए और उसे धन-सम्पत्ति के बंधनों से मुक्त हो जाना चाहिए। दूसरा शब्द है 'समभाव' (समान भाव), जिसने उन्हें दुःख या सुख, जीत या हार, सबमें अडिग रहना तथा सफलता की आशा या असफलता के भय के बिना काम करना सिखाया।
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====हिन्द स्वराज====
प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्र को महात्मा जी की हत्या की सूचना इन शब्दों में दी, 'हमारे जीवन से प्रकाश चला गया और आज चारों तरफ़ अंधकार छा गया है। मैं नहीं जानता कि मैं आपको क्या बताऊँ और कैस बताऊँ। हमारे प्यारे नेता, राष्ट्रपिता बापू अब नहीं रहे।' महात्मा गांधी वास्तव में भारत के राष्ट्रपिता थे। 27 वर्षों के अल्पकाल में उन्होंने भारत को सदियों की दासता के अंधेरे से निकालकर आजादी के उज़ाले में पहुँचा दिया। किन्तु गांधीजी का योगदान सिर्फ़ भारत की सीमाओं तक सीमित नहीं था। उनका प्रभाव सम्पूर्ण मानव जाति पर पड़ा
'हिन्द स्वराज' महात्मा गाँधी द्वारा रचित पुस्तक है। मूल रचना सन [[1909]] में गुजराती में थी। यह लगभग तीस हजार शब्दों की लघु पुस्तिका है, जिसे गाँधीजी ने अपनी इंग्लैण्ड से दक्षिण अफ्रीका की यात्रा के समय पानी के जहाज़ में लिखा। यह इण्डियन ओपिनिअन में सबसे पहले प्रकाशित हुई थी, जिसे [[भारत]] में अंग्रेज़ों ने यह कहते हुए प्रतिबन्धित कर दिया था कि इसमें राजद्रोह-घोषित सामग्री है। इस पर गांधीजी ने इसका अंग्रेज़ी अनुवाद भी निकाला ताकि बताया जा सके कि इसकी सामग्री राजद्रोहात्मक नहीं है। अन्ततः [[21 दिसम्बर]] सन [[1938]] को इससे प्रतिबन्ध हटा लिया गया। 'हिन्द स्वराज' का [[हिंदी]] और [[संस्कृत]] सहित कई भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध है।
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क़ानून के पेशे में गांधी की अधिकतम आय 5,000 रुपये प्रतिवर्ष पहुँच गई थी। लेकिन पैसा कमाने में उनकी अधिक रुचि नहीं थी और उनकी बचत अक्सर सार्वजनिक गतिविधियों पर खर्च हो जाती थी। डरबन में और फिर जोहेन्सबर्ग में, उन्होंने सदाव्रत खोल रखा था। उनका घर युवा सहकर्मियों तथा राजनीतिक सहयोगियों का ठिकाना बन गया था। यह सब उनकी पत्नी को परेशान करता था। जिनके असाधारण धैर्य, सहनशीलता और आत्मबलिदान के बिना गांधी सार्वजनिक सरोकार के प्रति शायद ही स्वयं को समर्पित कर पाते। जैसे-जैसे वे दोनों परिवार और सम्पत्ति के पारम्परिक बंधनों से मुक्त होते गए, उनके निजी व सामुदायिक जीवन का अंतर सिमटता गया। गांधी सादा जीवन, शारीरिक श्रम और संयम के प्रति अत्यधिक आकर्षण महसूस करते थे। 1904 में पूँजीवाद के आलोचक जान रस्किन के 'अनटू दिस लास्ट' पढ़ने के बाद उन्होंने डरबन के पास फ़ीनिक्स के एक फ़ार्म की स्थापना की, जहाँ वह अपने मित्रों के साथ केवल अपने श्रम के बूते पर जी सकते थे। छः वर्ष के बाद गांधी की देखरेख में जोहेन्सबर्ग के पास एक नई बस्ती विकसित हुई। रूसी लेखक और नीतिज्ञ के नाम पर इसे टाल्सटाय फ़ार्म का नाम दिया गया। गांधी टाल्सटाय के प्रशंसक थे और उनसे पत्र व्यवहार करते थे। ये दो बस्तियाँ, भारत में [[अहमदाबाद]] के पास साबरमती और बर्धा के पास सेवाग्राम में बनीं, जो अधिक प्रसिद्ध आश्रमों की पूर्ववर्ती थीं। <br /><blockquote><span style="color: #8080e3">राम-शब्द के उच्चार से लाखों—करोड़ों हिन्दुओं पर फ़ौरन असर होगा। और 'गाड' शब्द का अर्थ समझने पर भी उसका उन पर कोई असर न होगा। चिरकाल के प्रयोग से और उनके उपयोग के साथ संयोजित पवित्रता से शब्दों को शक्ति प्राप्त होती है। '''महात्मा गांधी'''</span></blockquote>


==राष्ट्रवादी भारत के नेता के रूप में उदय==
सन् 1914 में गांधीजी भारत लौट आये। देशवासियों ने उनका भव्य स्वागत किया और उन्हें महात्मा पुकारना शुरू कर दिया। उन्होंने अगले चार वर्ष भारतीय स्थिति का अध्ययन करने तथा स्वयं को उन लोगों को तैयार करने में बिताये जो सत्याग्रह के द्वारा भारत में प्रचलित साजाजिक व राजनीतिक बुराइयों को हटाने में उनका अनुगमन करना चाहते थे। इस दौरान गांधीजी मूक पर्यवेक्षक नहीं रहे। 1915 से 1918 तक के काल में गांधी भारतीय राजनीति की परिधि पर अनिश्चितता से मंडराते रहे। इस काल में उन्होंने किसी भी राजनीतिक आंदोलन में शामिल होने से इनकार कर दिया तथा प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन के प्रयासों, यहाँ तक की भारत की ब्रिटिश फ़ौज में सिपाहियों की भर्ती का भी समर्थन किया। साथ ही वह ब्रिटिश अधिकारियों की उद्दंडता भरी हरकतों की आलोचना भी करते थे तथा उन्होंने बिहार व [[गुजरात]] के किसानों के उत्पीड़न का मामला भी उठाया। फ़रवरी 1919 में रालेट एक्ट पर, जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को बिना मुक़दमा चलाए जेल भेजने का प्रावधान था, उन्होंने अंग्रेज़ों का विरोध किया। गांधी ने सत्याग्रह आंदोलन की घोषणा की। इसके परिणामस्वरूप एक ऐसा राजनीतिक भूचाल आया, जिसने 1919 के बसंत में समूचे उपमहाद्वीप को झकझोर दिया। हिंसा भड़क उठी, जिसके बाद ब्रिटिश नेतृत्व में सैनिकों ने अमृतसर में [[जलियांवाला बाग़]] की एक सभा में शामिल लोगों पर गोलियाँ बरसाकर लगभग 400 भारतीयों का मार डाला और मार्शल ला लगा दिया गया। इसने गांधी को अपना रुख बदलने के लिए प्रेरित किया, लेकिन एक साल के भीतर ही वह एक बार फिर उग्र तेवर में आ गए। ब्रिटिश अदालतों तथा स्कूल और कालेजों का बहिष्कार करें तथा सरकार के साथ असहयोग करके उसे पूरी तरह अपंग बना दें।
====<u>भारत में सत्याग्रह</u>====
[[चित्र:30-January-Marg-Delhi.jpg|thumb|30 जनवरी मार्ग, [[दिल्ली]], जहाँ गाँधी जी को गोली मारी गई<br />
30 January Marg, Delhi, The place where Mahatma Gandhi was shot]]
गांधी जी ने वर्ष 1917-18 के दौरान बिहार के चम्‍पारण नामक स्‍थान के खेतों में पहली बार भारत में सत्‍याग्रह का प्रयोग किया। यहाँ अकाल के समय गरीब किसानों को अपने जीवित रहने के लिए जरुरी खाद्य फसलें उगाने के स्‍थान पर नील की खेती करने के लिए ज़ोर डाला जा रहा था। उन्‍हें अपनी पैदावार का कम मूल्‍य दिया जा रहा था और उन पर भारी करों का दबाव था। गांधी जी ने उस गांव का विस्‍तृत अध्‍ययन किया और जमींदारों के विरुद्ध विरोध का आयोजन किया, जिसके परिणाम स्‍वरूप उन्‍हें गिरफ्तार कर लिया गया। उनके कारावास में डाले जाने के बाद और अधिक प्रदर्शन किए गए। जल्‍दी ही गांधी जी को छोड़ दिया गया और जमींदारों ने किसानों के पक्ष में एक करारनामे पर हस्‍ताक्षर किए, जिससे उनकी स्थिति में सुधार आया।<br /><blockquote><span style="color: #8080e3">मैं तो एक ऐसे राष्ट्रपति की कल्पना करता हूँ जो नाई या मोची का धन्धा करके अपना निर्वाह करता हो और साथ ही राष्ट्र की बागडोर भी अपने हाथों में थामे हुए हो। '''महात्मा गांधी'''</span></blockquote>


इस सफलता से प्रेरणा लेकर महात्‍मा गांधी ने भारतीय स्‍वतंत्रता के लिए किए जाने वाले अन्‍य अभियानों में सत्‍याग्रह और अहिंसा के विरोध जारी रखे, जैसे कि 'असहयोग आंदोलन', 'नागरिक अवज्ञा आंदोलन', 'दांडी यात्रा' तथा 'भारत छोड़ो आंदोलन', गांधी जी के प्रयासों से अंत में भारत को 15 अगस्‍त 1947 को स्‍वतंत्रता मिली।
{{seealso|महात्मा गाँधी के अनमोल वचन|डाक टिकटों में महात्मा गाँधी|महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय|महात्मा गाँधी के प्रेरक प्रसंग}}


====<u>रौलट एक्ट क़ानून</u>====
[[चित्र:Raj-Ghat-Delhi.jpg|thumb|राज घाट, [[दिल्ली]]<br /> Raj Ghat, Delhi|left]]
गांधीजी के इस आह्वान पर रौलट एक्ट क़ानून के विरोध में बम्बई तथा देश के सभी प्रमुख नगरों में 30 मार्च 1919 को और 6 अप्रैल 1919 को हड़ताल हुई। हड़ताल के दिन सभी शहरों का जीवन ठप्प हो गया। व्यापार बंद रहा और अंग्रेज़ अफ़सर असहाय से देखते रहे। इस हड़ताल ने असहयोग के हथियार की शक्ति पूरी तरह प्रकट कर दी। सन् 1920 में गांधीजी कांग्रेस के नेता बन गये और उनके निर्दश और उनकी प्रेरणा से हज़ारों भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार के साथ पूर्ण सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। हज़ारों असहयोगियों को ब्रिटिश जेलों में ठूँस दिया गया और लाखों लोगों पर सरकारी अधिकारियों ने बर्बर अत्याचार किये। ब्रिटिश सरकार के इस दमनचक्र के कारण लोग अहिंसक न रह सके और कई स्थानों पर हिंसा भड़क उठी। हिंसा का इस तरह भड़क उठना गांधीजी को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने स्वीकार किया कि अहिंसा के अनुशासन में बाँधे बिना लोगों को असहयोग आंदोलन के लिए प्रेरित कर उन्होंने 'हिलामय जैसी भूल की है' और यह सोचकर उन्होंने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। अहिंसक असहयोग आंदोलन के फलस्वरूप जिस स्वराज्य को गांधीजी ने एक वर्ष के अंदर लाने का वादा किया था वह नहीं आ सका। फिर भी लोग आंदोलन की विफलता की ओर ध्यान नहीं देना चाहते थे, क्योंकि असलियत में देखा जाए तो इस अहिंसक असहयोग आंदोलन को जबरदस्त सफलता हासिल हुई। उसने भारतीयों के मन से ब्रिटिश तोपों, संगीनों और जेलों का ख़ौफ़ निकालकर उन्हें निडर बना दिया। जिससे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिल गयी। भारत में ब्रिटिश शासन के दिन अब इने-गिने रह गये। फिर भी अभी संघर्ष कठिन और लम्बा था। सन् 1922 में गांधीजी को राजद्रोह के अभियोग में गिरफ़्तार कर लिया गया। उन पर मुक़दमा चलाया गया और एक मधुरभाषी ब्रिटिश जज ने उन्हें छः वर्ष की क़ैद की सज़ा दी। सन् 1924 में एपेण्डेसाइटिस की बीमारी की वजह से उन्हें रिहा कर दिया गया।


==असहयोग आंदोलन==
<div align="center">'''[[महात्मा गाँधी का परिचय|आगे जाएँ »]]'''</div>
1920 के पतझड़ तक गांधी राजनीतिक मंच पर छा गए थे और भारत या शायद किसी भी देश में, किसी राजनीतिज्ञ का इतना प्रभाव कभी भी नहीं रहा था। उन्होंने 35 वर्ष पुरानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भारतीय राष्ट्रवाद के प्रभावशाली राजनीतिक हथियार में बदल दिया। गांधी का संदेश बहुत सरल था। अंग्रेज़ों की बंदूकों ने नहीं, बल्कि भारतवासियों की अपनी कमियों ने भारत को गुलाम बनाया हुआ है। ब्रिटिश सरकार के साथ उनके अहिंसक असहयोग में न सिर्फ़ वस्तुओं, बल्कि भारत में अंग्रेज़ों द्वारा संचालित या उनकी मदद से चल रहे संस्थानों—जैसे विधायिका, न्यायालय, कार्यालय या स्कूल—का बहिष्कार भी शामिल था। इस कार्यक्रम ने देश में जोश फूँक दिया, विदेशी शासन के भय का फंदा काट दिया और इसके फलस्वरूप क़ानून तोड़कर ख़ुशी-ख़ुशी जेल जाने को तैयार हज़ारों सत्याग्रहियों को गिरफ़्तार कर लिया गया। <br /><blockquote><span style="color: #8080e3">मानस का प्रत्येक पृष्ठ भक्ति से भरपूर है। मानस अनुभवजन्य ज्ञान का भण्डार है। '''महात्मा गांधी'''</span></blockquote>  


फ़रवरी 1922 में यह आंदोलन ज़ोर पकड़ता प्रतीत हुआ, लेकिन पूर्वी भारत के दूरदराज़ के एक गाँव चौरी चौरा में हिंसा भड़कने से चिन्तित गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लिया। 10 मार्च 1922 को गांधी को गिरफ़्तार कर लिया गया और उन्हें छः वर्षों के कारावास की सज़ा हुई। अपेंडिसाइटिस के आपरेशन के बाद फ़रवरी 1924 में उन्हें रिहा कर दिया गया। उनकी अनुपस्थिति में राजनीतिक परिदृश्य बदल चुका था। कांग्रेस पार्टी दो भागों में विभक्त हो चुकी थी। एक चित्तरंजन दास और [[मोतीलाल नेहरू]] (भारत के पहले प्रधानमंत्री [[जवाहर लाल नेहरू]] के पिता) के नेतृत्व में था। जो विधायिकाओं में पार्टी के प्रवेश के समर्थक थे और दूसरा सी. राजगोपालाचारी और वल्लभभाई झवेरभाई पटेल का था, जो इसके विरोधी थे। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह हुई कि 1920-22 के दौरान असहयोग आंदोलन में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच मौजूद एकता ख़त्म हो चुकी थी। गांधी ने दोनों समुदायों का समझा-बुझाकर उन्हें शंकाओं तथा कट्टरवाद के घेरे से बाहर निकालने का प्रयास किया। अंततः एक गम्भीर साम्प्रदायिक हिंसा के बाद 1924 के पतझड़ में उन्होंन तीन सप्ताह का उपवास किया, ताकि लोगों को अहिंसा के मार्ग पर चलने को प्रेरित किया जा सके।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
करेंगे या मरेंगे. नोट इस प्रकार है- 'हर व्यक्ति को इस बात की खुली छूट है कि वह अहिंसा पर आचरण करते हुए अपना पूरा जोर लगाए. हड़तालों और दूसरे अहिंसक तरीकों से पूरा गतिरोध (पैदा कर दीजिए). सत्याग्रहियों को मरने के लिए न कि जीवित रहने के लिए, घरों से निकलना होगा. उन्हें मौत की तलाश में फिरना चाहिए और मौत का सामना करना चाहिए. जब लोग मरने के लिए घर से निकलेंगे तभी कौम बचेगी. करेंगे या मरेंगे।' 9 अगस्त 1942 को अपनी गिरफ्तारी से पूर्व सुबह पांच बजे:- '''महात्मा गाँधी'''
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==रचनात्मक कार्यक्रम==
सन् 1925 में जब अधिकांश कांग्रेस जनों ने 1919 के भारतीय शासन विधान द्वारा स्थापित कौंसिल में प्रवेश करने की इच्दा प्रकट की तो गांधीजी ने कुछ समय के लिए सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया और उन्होंने अपने आगामी तीन वर्ष ग्रामोंत्थान कार्यों में लगाय। उन्होंने गाँवों की भयंकर निर्धनता को दूर करने के लिए चरखे पर सूत कातने का प्रचार किया और हिन्दुओं में व्याप्त छुआछूत को मिटाने की कोशिश की। अपने इस कार्यक्रम को गांधीजी 'रचनात्मक कार्यक्रम' कहते थे। इस कार्यक्रम के जरिये वे अन्य भारतीय नेताओं के मुकाबले, गाँवों में निवास करने वाली देश की 90 प्रतिशत जनता के बहुत अधिक निकट आ गये। उन्होंने सारे देश में गाँव-गाँव की यात्रा की, गाँव वालों की पोशाक अपना ली और उनकी भाषा में उनसे बातचीत की। इस प्रकार उन्होंने गाँवों में रहने वाली करोड़ों की आबादी में राजनीतिक जागृति पैदा कर दी और स्वराज्य की माँग को मध्यमवर्गीय आंदोलन के स्तर से उठाकर देशव्यापी अदम्य जन-आंदोलन का रूप दे दिया।
==गोलमेज सम्मेलन==
1920 के दशक के मध्य में सक्रिय राजनीति में गांधी ने अधिक रुचि नहीं दिखाई। लेकिन 1927 में ब्रिटिश सरकार ने सर जान साइमन के नेतृत्व में एक संविधान सुधार आयोग का गठन किया, जिसमें किसी भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया था। कांग्रेस और अन्य पार्टियों के द्वारा आयोग का बहिष्कार किए जाने से राजनीतिक घटनाक्रम तेज़ हुआ। दिसम्बर 1928 में [[कलकत्ता]] कांग्रेस की बैठक के बाद, जिसमें गांधी ने पूर्ण स्वराज्य के लिए देशव्यापी अहिंसक आंदोलन की धमकी देकर ब्रिटिश सरकार से एक साल के भीतर भारत को अधिराज्य का दर्जा दिए जाने की महत्वपूर्ण प्रस्ताव रखा। कांग्रेस पार्टी पर फिर से गांधी का नियंत्रण हो गया। समाज के निर्धन वर्ग को प्रभावित करने वाले नमक-कर के ख़िलाफ़ उन्होंने मार्च 1930 में सत्याग्रह शुरू किया। ब्रिटिश राज्य के ख़िलाफ़ गांधी के अहिंसक युद्ध में यह सबसे विशाल और सफल आंदोलन था और इसके फलस्वरूप 60 हज़ार से अधिक लोग गिरफ़्तार किए गए। एक साल बाद भारत के ब्रिटिश वाइसराय लार्ड इरविन के साथ बातचीत के बाद गांधी ने एक समझौता स्वीकार कर लिया। सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लिया और लंदन में गोलमेज सम्मेलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में शामिल होने के लिए सहमत हो गए। गांधीजी वहाँ पर एक सामान्य ग्रामीण भारतीय की तरह धोती पहने और चादर ओढ़े उपस्थित हुए, जिसका विस्टन चर्चिल ने खूब मज़ाक़ उड़ाया और उन्हें 'भारतीय फ़क़ीर' की संज्ञा दी। अंग्रेज़ों से सत्ता के हस्तांतरण के बजाय भारतीय अल्पसंख्यकों की समस्या पर केन्द्रित यह सम्मेलन भारतीय राष्ट्रवादियों के लिए घोर निराशाजनक था। इसके अलावा, जब दिसम्बर 1931 में गांधी स्वदेश लौटे तो उन्होंने पाया कि उनकी पार्टी को लार्ड विलिंगडन का चौतरफ़ा आक्रमण झेलना पड़ रहा है। गांधी को एक बार फिर जेल भेज दिया गया और सरकार ने उन्हें बाहरी दुनिया से अलग-थलग करने तथा उनके प्रभाव को समाप्त करने का प्रयास किया। यह आसान कार्य नहीं था। सितम्बर 1932 में बंदी अवस्था में ही गांधी ने ब्रिटिश सरकार के द्वारा नए संविधान में अछूतों (दलित हिन्दू) को अलग मतदाता सूची में शामिल करके उन्हें अलग करने के निर्णय के ख़िलाफ़ अनशन शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप देश भर में भावनात्मक आवेग उमर पड़ा। हिन्दू समुदाय और दलित नेताओं ने मिल-जुलकर तेज़ी से एक वैकल्पिक मतदाता सूची की व्यवस्था की रूपरेखा बनाई और ब्रिटिश सरकार ने इसे मंजूरी दे दी। यह अनशन अछूतों के ख़िलाफ़ भेदभाव दूर करने के ज़ोरदार आंदोलन का आरम्भ था। गांधी ने इन्हें हरिजन नाम दिया था। जिसका अर्थ होता है, 'ईश्वर की संतान'।<br /><blockquote><span style="color: #8080e3">विकारी विचार से बचने का एक अमोघ उपाय राम-नाम है। नाम कंठ से नहीं, किन्तु ह्रदय से निकलना चाहिए। '''महात्मा गांधी'''</span></blockquote> 
 
1934 में गांधी ने न सिर्फ़ कांग्रेस के नेता के पद से, बल्कि पार्टी की सदस्यता से भी इस्तीफ़ा दे दिया। उनका मानना था कि पार्टी के अग्रणी सदस्यों ने सिर्फ़ राजनीतिक कारणों से अहिंसा को अपनाया है। राजनीतिक गतिविधियों के स्थान पर अब उन्होंने 'रचनात्मक कार्यक्रमों' के ज़रिये 'सबसे निचले स्तर से' राष्ट्र के निर्माण पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। उन्होंने ग्रामीण भारत को, जो देश की आबादी का 85 प्रतिशत था, शिक्षित करने, छुआछूत के ख़िलाफ़ लड़ाई जारी रखने, हाथ से कातने, बुनने और अन्य कुटीर उद्योगों के अर्द्ध बेरोज़गार किसानों की आय में इज़ाफ़ा करने के लिए बढ़ावा देने और लोगों की आवश्यकताओं के अनुकूल शिक्षा प्रणाली बनाने का काम शुरू किया। स्वयं गांधी मध्य भारत के एक गाँव सेवाग्राम में रहने चले गए, जो सामाजिक और आर्थिक विकास के उनके कार्यक्रमों का केन्द्र बना।
==अन्तिम चरण==
[[चित्र:Mahatma-Gandhi-Image-On-Indian-Currency.jpg|thumb|महात्मा गाँधी का चित्र भारतीय मुद्रा पर <br />
Mahatma Gandhi Image on Indian Currency]]
दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने के साथ ही भारत का राष्ट्रवादी संघर्ष अपने अन्तिम महत्वपूर्ण चरण में प्रवेश कर गया। भारतीय स्वशासन का आश्वासन दिए जाने की शर्त पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस युद्ध में अंग्रेज़ों का साथ देने को तैयार थी। एक बार फिर गांधी राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गए। 1942 के ग्रीष्म में गांधी ने अंग्रेज़ों से तत्काल भारत छोड़ने की माँग की। फ़ाँसीवादी शक्तियों (एक्सिस), विशेषकर [[जापान]] के ख़िलाफ़ युद्ध महत्वपूर्ण चरण में था। अंग्रेज़ों ने तुरन्त ही प्रतिक्रिया दिखाई और कांग्रेस के समूचे नेतृत्व को गिरफ़्तार कर लिया और पार्टी को हमेशा के लिए कुचल देने का प्रयास किया। इसके फलस्वरूप हिंसा भड़क उठी, जिसे सख़्ती से दबा दिया गया। भारत और ब्रिटेन के बीच की दूरी पहले से भी कहीं अधिक बढ़ गई।
1945 में लेबर पार्टी की जीत के साथ ही भारत-ब्रिटेन के सम्बन्धों में एक नए अध्याय की शुरूआत हुई। अगले दो वर्ष के दौरान ब्रिटिश सरकार मुस्लिम लीग के नेता [[एम. ए. जिन्ना]] और कांग्रेस पार्टी के नेताओं के बीच लम्बी त्रिपक्षीय वार्ताएँ हुईं, जिसके फलस्वरूप 3 जून, 1947 को माउंटबेटन योजना तैयार हुई और 15 अगस्त 1947 को दो नए राष्टों, [[भारत]] व [[पाकिस्तान]] का निर्माण हुआ।<br /><blockquote><span style="color: #8080e3">राष्ट्रों की प्रगति क्रमिक विकास और क्रान्ति दोनों तरीक़ों से हुई है। क्रमिक विकास और क्रान्ति दोनों ही समान रूप से जरूरी हैं। '''महात्मा गांधी'''</span></blockquote> 
 
भारत की अखण्डता के बिना देश का स्वतंत्र होना गांधी के जीवन की सबसे बड़ी निराशाओं में से एक था। जब गांधी तथा उनके सहयोगी जेल में थे, तो मुस्लिम अलगाववाद को काफ़ी बढ़ावा मिला और 1946-47 में, जब संवैधानिक व्यवस्थाओं पर अन्तिम दौर की बातचीत चल रही थी, हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच भड़की साम्प्रदायिक हिंसा ने ऐसा अप्रिय माहौल बना दिया कि जिसमें गांधी की तर्क और न्याय, सहिष्णुता और विश्वास सम्बन्धी अपीलों के लिए कोई स्थान नहीं था। जब उनकी राय के ख़िलाफ़ उप महाद्वीप के विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया, तो वह साम्प्रदायिक संघर्ष से समाज पर लगे ज़ख़्मों को भरने में तन मन से जुट गए। उन्होंने [[बंगाल]] व [[बिहार]] के दंगाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया। इसके शिकार हुए लोगों को दिलासा दिया और शरणार्थियों के पुनर्वास का प्रयास किया। शंका और घृणा से भरे माहौल में यह एक मुश्किल और ह्रदय विदारक कार्य था। गांधी पर दोनों समुदायों ने आरोप लगाए। जब उनकी बातों का कोई असर नहीं हुआ तो वह अनशन पर बैठ गए। उन्हें कम से कम दो महत्वपूर्ण सफलताएँ मिलीं।
*सितम्बर 1947 में उनके उपवास ने कलकत्ता में दंगे बंद करवा दिए और
*जनवरी 1948 में उन्होंने [[दिल्ली]] में साम्प्रदायिक शान्ति क़ायम कर दी।
 
==निधन==
30 जनवरी 1948 की शाम को जब वह एक प्रार्थना सभा में भाग लेने जा रहे थे, तब एक युवा हिन्दू कट्टरपंथी नाथूराम गोड्से ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।
==शोकाकुल सूचना==
अपने महान नेता की मृत्यु का समाचार सुनकर सारा देश शोकाकुल हो उठा। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्र को महात्मा जी की हत्या की सूचना इन शब्दों में दी, 'हमारे जीवन से प्रकाश चला गया और आज चारों तरफ़ अंधकार छा गया है। मैं नहीं जानता कि मैं आपको क्या बताऊँ और कैस बताऊँ। हमारे प्यारे नेता, राष्ट्रपिता बापू अब नहीं रहे।' महात्मा गांधी वास्तव में भारत के राष्ट्रपिता थे। 27 वर्षों के अल्पकाल में उन्होंने भारत को सदियों की दासता के अंधेरे से निकालकर आजादी के उज़ाले में पहुँचा दिया। किन्तु गांधीजी का योगदान सिर्फ़ भारत की सीमाओं तक सीमित नहीं था। उनका प्रभाव सम्पूर्ण मानव जाति पर पड़ा, जैसा की अर्नाल्ड टायनबीन ने लिखा है--'हमने जिस पीढ़ी में जन्म लिया है, वह न केवल पश्चिम में हिटलर और रूस में स्टालिन की पीढ़ी है, वरन् वह भारत में गांधीजी की पीढ़ी भी है और यह भविष्यवाणी बड़े विश्वास के साथ की जा सकती है कि मानव इतिहास पर गांधीजी का प्रभाव स्टालिन या हिटलर से कहीं ज्यादा और स्थायी होगा। <ref>मोहनदास करमचंद गांधी—आत्मकथा, डा0 जी0 तेन्दुलकर कृत 'महात्मा', लुई फिशर कृत 'लाइफ आफ गांधी', एच0 मुखर्जी कृत गांधीजी, अर्नाल्ड टायनबी कृत 'स्टडी आफ हिस्ट्री' खण्ड 12)</ref>
==इतिहास में स्थान==
गांधी के प्रति अंग्रेज़ो का रुख प्रशंसा, कौतुक, हैरानी, शंका और आक्रोश का मिला-जुला रूप था। गांधी के अपने ही देश में, उनकी अपनी ही पार्टी में, उनके आलोचक थे। नरमपंथी नेता यह कहते हुए विरोध करते थे कि वह बहुत तेज़ी से बढ़ रहे हैं। युवा गरमपंथियों की शिकायत यह थी कि वे तेज़ी से नहीं हैं। वामपंथी नेता आरोप लगाते थे कि वह अंग्रेज़ों को बाहर निकालने या रजवाड़ों और सामंतों का समाप्त करने के प्रति गम्भीर नहीं हैं। दलितों के नेता समाज सुधारक के रूप में उनके सदभाव पर शंका करते थे और मुसलमान नेता उन पर अपने समुदाय के साथ भेदभाव का आरोप लगाते थे।<br /><blockquote><span style="color: #8080e3">मेरी मान्यता है कि कोई भी राष्ट्र धर्म के बिना वास्तविक प्रगति नहीं कर सकता। '''महात्मा गांधी'''</span></blockquote>
 
हाल में हुए शोध ने गांधी की भूमिका महान मध्यस्थ और संधि कराने वाले के रूप में स्थापित की है। यह तो होना ही था कि जनमानस में उनकी राजनेता-छवि अधिक विशाल हो, किन्तु उनके जीवन का मूल राजनीति नहीं, धर्म में निहित था और उनके लिए धर्म का अर्थ औपचारिकता, रूढ़ि, रस्म-रिवाज़ और साम्प्रदायिकता नहीं था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है--'मैं इन तीस वर्षों में ईश्वर को आमने-सामने देखने का प्रयत्न और प्रार्थना करता हूँ', उनके महानतम प्रयास आध्यात्मिक थे। लेकिन अपने अनेक ऐसे ही इच्छुक देशवासियों के समान उन्होंने ध्यान लगाने के लिए हिमालय की गुफ़ाओं में शरण नहीं ली। उनकी राय में वह अपनी गुफ़ा अपने भीतर ही साथ लिए चलते थे। उनके लिए सच्चाई ऐसी वस्तु नहीं थी, जिसे निजी जीवन के एकांत में ढूँढा जा सके। वह सामजिक और राजनीतिक जीवन के चुनौतीपूर्ण क्षणों में क़ायम रखने की चीज़ थी। अपने लाखों देशवासियों की नज़रों में वह महात्मा थे। उनके आने-जाने के मार्ग पर उन्हें देखने के लिए एकत्र भीड़ द्वारा अंधश्रद्धा से उनकी यात्राएँ कठिन हो जाती थीं। वह मुश्किल से दिन में काम कर पाते थे या रात को विश्राम। उन्होंने लिखा है कि महात्माओं के कष्ट सिर्फ़ महात्मा ही जानते हैं।
 
गांधी के सबसे बड़े प्रशसकों में [[अल्बर्ट आइंस्टीन]] भी थे, जिन्होंने गांधी के अहिंसा के सिद्धांत को अणु के विखण्डन से पैदा होने वाली दानवाकार हिंसा की प्रतिकारी औषधि के रूप में देखा। स्वीडन के अर्थशास्त्री गुन्नार मिर्डल ने अविकसित विश्व खंड की समस्याओं के सामाजिक, आर्थिक सर्वेक्षण के बाद गांधी को लगभग सभी क्षेत्रों में एक ज्ञानवार उदार व्यक्ति की संज्ञा दी।
 
==विडियो==
[http://hi.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE_%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%81%E0%A4%A7%E0%A5%80_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B महात्मा गाँधी विडियो]
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==टीका-टिप्पणी==
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==चित्र वीथिका==
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चित्र:Gandhi-Ji-Statue.jpg|फ़ेरी इमारत पर गाँधी जी की प्रतिमा, सेन फ़्रांसिस्को
चित्र:Gandhi-Spinning-The-Wheel.jpg|[[चरखा|चरखे]] पर सूत कातते गाँधी जी, गाँधी स्मृति संग्रहालय, [[दिल्ली]]
चित्र:Porbandar-Gujarat-15.jpg|बाल्यावस्था, महात्मा गाँधी
चित्र:Mahatma-Gandhi-Monkeys-Sandsation.jpg|महात्मा गाँधी के तीन बंदरों का सेंडसेशन
चित्र:Mahatma-Gandhi-Sandsation-1.jpg|महात्मा गाँधी सेंडसेशन
चित्र:Mahatma Gandhi.jpg|जैमिनि राय द्वारा चित्रित महात्मा गाँधी
चित्र:Mahatma-Gandhiji.jpg|गोपाल घोष द्वारा चित्रित महात्मा गाँधी
चित्र:Statue-of-Gandhiji-2.jpg|गाँधी जी की कांस्य मूर्ति <br />चित्रकार- फ्रेडा ब्रिलियंट
चित्र:Dandi-March-Gandhiji.jpg|नन्दलाल बोस द्वारा चित्रित महात्मा गाँधी
चित्र:Mahatma-Gandhi-3.jpg|रमेन्द्र नाथ चक्रवर्ती द्वारा चित्रित  महात्मा गाँधी
चित्र:Statue of Mahatma Gandhi-2.jpg|महात्मा गाँधी <br />चित्रकार- राम किंकर बेज़
चित्र:Mahatma-Gandhi-2.jpg|महात्मा गाँधी
चित्र:Mahadev-Desai-And-Gandhi.jpg|[[महादेव देसाई]] और गाँधी जी
चित्र:Bapu-ke-padchinho-par.jpg|महात्मा गाँधी के पद चिह्नों पर चलते उनके अनुयायी
चित्र:Porbandar-Gujarat-6.jpg|गाँधी जी के दादाजी हरजीवन गाँधी द्वारा सन [[1888]] में ख़रीदे गये मकान के दस्तावेज
चित्र:Porbandar-Gujarat-19.jpg|महात्मा गाँधी का आसन, [[कीर्ति मंदिर पोरबंदर|कीर्ति मंदिर]], [[पोरबंदर]]
चित्र:Porbandar-Gujarat-23.jpg|महात्मा गाँधी का जन्मस्थान, [[कीर्ति मंदिर पोरबंदर|कीर्ति मंदिर]], [[पोरबंदर]]
चित्र:Porbandar-Gujarat-20.jpg|रेल में महात्मा गाँधी- [[1945]]
चित्र:Porbandar-Gujarat-18.jpg|[[सरदार वल्लभ भाई पटेल]], राणा नटवरसिंहजी, [[मोरारजी देसाई|श्री मोरारजी देसाई]], एन. के. मेहता [[कीर्ति मंदिर पोरबंदर|कीर्ति मंदिर]] के उद्घाटन पर
चित्र:Porbandar-Gujarat-4.jpg|महात्मा गाँधी के सिद्धांत
चित्र:Mirabehn-1.jpg|[[मीरा बेन]] और गाँधी जी
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==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://www.youtube.com/watch?v=3gpRJp82GXc&feature=player_embedded महात्मा गाँधी साक्षात्कार विडियो]
*[http://www.youtube.com/watch?v=Dcn6OmGF5Rk&feature=player_embedded महात्मा गाँधी भाषण विडियो]
*[http://www.abhivyakti-hindi.org/gharparivar/tikat_sangrah/gandhi/gandhi_01.htm डाक टिकटों में गाँधी]
*[http://dakbabu.blogspot.com/2010/10/blog-post.html डाक-टिकटों पर भी छाये गाँधी जी]
*[http://hindi.webdunia.com/miscellaneous/special08/gandhi/0810/01/1081001085_1.htm डाक टिकटों में मोहन से महात्मा तक का सफर]
*[http://www.rachanakar.org/2012/10/blog-post_1635.html गाँधी दर्शन की प्रासंगिकता - प्रोफ्सर महावीर सरन जैन]
==संबंधित लेख==
{{महात्मा गाँधी}}{{भारत का विभाजन}}{{स्वतन्त्रता सेनानी}}
[[Category:स्वतन्त्रता सेनानी]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:चरित कोश]][[Category:जीवनी साहित्य]][[Category:महात्मा गाँधी]][[Category:राजनेता]] [[Category:राजनीति कोश]][[Category:इतिहास कोश]]  
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06:18, 27 जून 2021 के समय का अवतरण

महात्मा गाँधी विषय सूची
महात्मा गाँधी
पूरा नाम मोहनदास करमचंद गाँधी
अन्य नाम बापू, महात्मा जी
जन्म 2 अक्तूबर, 1869
जन्म भूमि पोरबंदर, गुजरात
मृत्यु 30 जनवरी, 1948
मृत्यु स्थान नई दिल्ली
मृत्यु कारण हत्या
अभिभावक करमचंद गाँधी, पुतलीबाई
पति/पत्नी कस्तूरबा गाँधी
संतान हरिलाल, मनिलाल, रामदास, देवदास
स्मारक राजघाट (दिल्ली), बिरला हाउस (दिल्ली) आदि।
नागरिकता भारतीय
पार्टी काँग्रेस
शिक्षा बैरिस्टर
विद्यालय बंबई यूनिवर्सिटी, सामलदास कॉलेज
भाषा हिन्दी, अंग्रेज़ी
पुरस्कार-उपाधि राष्ट्रपिता
विशेष योगदान भारत की स्वतन्त्रता, अहिंसक आन्दोलन, सत्याग्रह
संबंधित लेख असहयोग आंदोलन, नमक सत्याग्रह आदि

महात्मा गाँधी (अंग्रेज़ी: Mahatma Gandhi, जन्म: 2 अक्तूबर, 1869; मृत्यु: 30 जनवरी, 1948) को ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नेता और 'राष्ट्रपिता' माना जाता है। इनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गाँधी था। राजनीतिक और सामाजिक प्रगति की प्राप्ति हेतु अपने अहिंसक विरोध के सिद्धांत के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। मोहनदास करमचंद गाँधी भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनीतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। 'साबरमती आश्रम' से उनका अटूट रिश्ता था। इस आश्रम से महात्मा गाँधी आजीवन जुड़े रहे, इसीलिए उन्हें 'साबरमती का संत' की उपाधि भी मिली।

जीवन परिचय

महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्तूबर 1869 ई. को गुजरात के पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ था। उनके माता-पिता कट्टर हिन्दू थे। इनके पिता का नाम करमचंद गाँधी था। मोहनदास की माता का नाम पुतलीबाई था जो करमचंद गाँधी जी की चौथी पत्नी थीं। मोहनदास अपने पिता की चौथी पत्नी की अन्तिम संतान थे। उनके पिता करमचंद (कबा गाँधी) पहले ब्रिटिश शासन के तहत पश्चिमी भारत के गुजरात राज्य में एक छोटी-सी रियासत की राजधानी पोरबंदर के दीवान थे और बाद में क्रमशः राजकोट (काठियावाड़) और वांकानेर में दीवान रहे। करमचंद गाँधी ने बहुत अधिक औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं की थी, लेकिन वह एक कुशल प्रशासक थे और उन्हें सनकी राजकुमारों, उनकी दुःखी प्रजा तथा सत्तासीन कट्टर ब्रिटिश राजनीतिक अधिकारियों के बीच अपना रास्ता निकालना आता था।

पुस्तक 'माई एक्सपेरिमेंट विथ ट्रुथ' के लेखक महात्मा गाँधी थे। उन्होंने इस पुस्तक को "सत्य के प्रयोग" के नाम से मूल रूप से अपनी मातृभाषा गुजराती में लिखा था। यह गांधीजी की आत्मकथा के रूप में प्रसिद्ध है। इस पुस्तक का अनुवाद महादेव देसाई ने अंग्रेज़ी में किया था। गांधीजी ने इस किताब में अपने जन्म से लेकर 1921 तक की घटनाओं का जिक्र किया है। बाद में इन सारी घटनाओं को गांधीजी के अखबार 'नवजीवन' में 1925 से 1929 के बीच प्रकाशित किया गया।[1]

शिक्षा

1887 में मोहनदास ने जैसे-तैसे 'बंबई यूनिवर्सिटी' की मैट्रिक की परीक्षा पास की और भावनगर स्थित 'सामलदास कॉलेज' में दाख़िला लिया। अचानक गुजराती से अंग्रेज़ी भाषा में जाने से उन्हें व्याख्यानों को समझने में कुछ दिक्कत होने लगी। इस बीच उनके परिवार में उनके भविष्य को लेकर चर्चा चल रही थी। अगर निर्णय उन पर छोड़ा जाता, तो वह डॉक्टर बनना चाहते थे। लेकिन वैष्णव परिवार में चीरफ़ाड़ के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह के अलावा यह भी स्पष्ट था कि यदि उन्हें गुजरात के किसी राजघराने में उच्च पद प्राप्त करने की पारिवारिक परम्परा निभानी है, तो उन्हें बैरिस्टर बनना पड़ेगा। इसका अर्थ था इंग्लैंड यात्रा और गाँधी ने, जिनका 'सामलदास कॉलेज' में ख़ास मन नहीं लग रहा था, इस प्रस्ताव को सहर्ष ही स्वीकार कर लिया। उनके युवा मन में इंग्लैंड की छवि 'दार्शनिकों और कवियों की भूमि, सम्पूर्ण सभ्यता के केन्द्र' के रूप में थी। सितंबर 1888 में वह पानी के जहाज़ पर सवार हुए। वहाँ पहुँचने के 10 दिन बाद वह लंदन के चार क़ानून महाविद्यालय में से एक 'इनर टेंपल' में दाख़िल हो गए।

अफ़्रीका में गाँधी

डरबन न्यायालय में यूरोपीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें पगड़ी उतारने के लिए कहा, उन्होंने इन्कार कर दिया और न्यायालय से बाहर चले गए। कुछ दिनों के बाद प्रिटोरिया जाते समय उन्हें रेलवे के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर फेंक दिया गया और उन्होंने स्टेशन पर ठिठुरते हुए रात बिताई। यात्रा के अगले चरण में उन्हें एक घोड़ागाड़ी के चालक से पिटना पड़ा, क्योंकि यूरोपीय यात्री को जगह देकर पायदान पर यात्रा करने से उन्होंने इन्कार कर दिया था, और अन्ततः 'सिर्फ़ यूरोपीय लोगों के लिए' सुरक्षित होटलों में उनके जाने पर रोक लगा दी गई। नटाल में भारतीय व्यापारियों और श्रमिकों के लिए ये अपमान दैनिक जीवन का हिस्सा था। जो नया था, वह गाँधी का अनुभव न होकर उनकी प्रतिक्रिया थी। अब तक वह हठधर्मिता और उग्रता के पक्ष में नहीं थे, लेकिन जब उन्हें अनपेक्षित अपमानों से गुज़रना पड़ा, तो उनमें कुछ बदलाव आया।

सत्याग्रह

1906 में टांसवाल सरकार ने दक्षिण अफ़्रीका की भारतीय जनता के पंजीकरण के लिए विशेष रूप से अपमानजनक अध्यादेश जारी किया। भारतीयों ने सितंबर 1906 में जोहेन्सबर्ग में गाँधी के नेतृत्व में एक विरोध जनसभा का आयोजन किया और इस अध्यादेश के उल्लंघन तथा इसके परिणामस्वरूप दंड भुगतने की शपथ ली। इस प्रकार सत्याग्रह का जन्म हुआ, जो वेदना पहुँचाने के बजाय उन्हें झेलने, विद्वेषहीन प्रतिरोध करने और बिना हिंसा के उससे लड़ने की नई तकनीक थी।

धार्मिक खोज

गाँधी जी की धार्मिक खोज उनकी माता, पोरबंदर तथा राजकोट स्थित घर के प्रभाव से बचपन में ही शुरू हो गई थी। लेकिन दक्षिण अफ़्रीका पहुँचने पर इसे काफ़ी बल मिला। वह ईसाई धर्म पर टॉल्सटाय के लेखन पर मुग्ध थे। उन्होंने क़ुरान के अनुवाद का अध्ययन किया और हिन्दू अभिलेखों तथा दर्शन में डुबकियाँ लगाईं। सापेक्षिक कर्म के अध्ययन, विद्वानों के साथ बातचीत और धर्मशास्त्रीय कृतियों के निजी अध्ययन से वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सभी धर्म सत्य हैं और फिर भी हर एक धर्म अपूर्ण है। क्योंकि कभी-कभी उनकी व्याख्या स्तरहीन बुद्धि संकीर्ण हृदय से की गई है और अक्सर दुर्व्याख्या हुई है। भगवदगीता, जिसका गाँधी ने पहली बार इंग्लैंड में अध्ययन किया था, उनका 'आध्यात्मिक शब्दकोश' बन गया और सम्भवतः उनके जीवन पर इसी का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा। गीता में उल्लिखित संस्कृत के दो शब्दों ने उन्हें सबसे ज़्यादा आकर्षित किया। एक था 'अपरिग्रह' (त्याग), जिसका अर्थ है, मनुष्य को अपने आध्यात्मिक जीवन को बाधित करने वाली भौतिक वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए और उसे धन-सम्पत्ति के बंधनों से मुक्त हो जाना चाहिए। दूसरा शब्द है 'समभाव' (समान भाव), जिसने उन्हें दुःख या सुख, जीत या हार, सबमें अडिग रहना तथा सफलता की आशा या असफलता के भय के बिना काम करना सिखाया।

हिन्द स्वराज

'हिन्द स्वराज' महात्मा गाँधी द्वारा रचित पुस्तक है। मूल रचना सन 1909 में गुजराती में थी। यह लगभग तीस हजार शब्दों की लघु पुस्तिका है, जिसे गाँधीजी ने अपनी इंग्लैण्ड से दक्षिण अफ्रीका की यात्रा के समय पानी के जहाज़ में लिखा। यह इण्डियन ओपिनिअन में सबसे पहले प्रकाशित हुई थी, जिसे भारत में अंग्रेज़ों ने यह कहते हुए प्रतिबन्धित कर दिया था कि इसमें राजद्रोह-घोषित सामग्री है। इस पर गांधीजी ने इसका अंग्रेज़ी अनुवाद भी निकाला ताकि बताया जा सके कि इसकी सामग्री राजद्रोहात्मक नहीं है। अन्ततः 21 दिसम्बर सन 1938 को इससे प्रतिबन्ध हटा लिया गया। 'हिन्द स्वराज' का हिंदी और संस्कृत सहित कई भाषाओं में अनुवाद उपलब्ध है।


इन्हें भी देखें: महात्मा गाँधी के अनमोल वचन, डाक टिकटों में महात्मा गाँधी, महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय एवं महात्मा गाँधी के प्रेरक प्रसंग



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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  1. पुस्तक 'माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रुथ'के लेखक कौन थे? (हिंदी) hi.quora.com। अभिगमन तिथि: 27 जून, 2021।

चित्र वीथिका

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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सुव्यवस्थित लेख