"चौधरी चरण सिंह": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
 
(7 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 29 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
[[चित्र:Chaudhary-Charan-Singh.jpg|thumb|चौधरी चरण सिंह]]
{{सूचना बक्सा राजनीतिज्ञ
चौधरी चरण सिंह स्वतंत्र [[भारत]] के पाँचवें (नाम के अनुसार पाँचवें किंतु भारतीय संविधान के अनुसार सातवें प्रधानमंत्री थे, क्योंकि [[जवाहरलाल नेहरू|श्री जवाहरलाल नेहरू]] और [[इंदिरा गाँधी|श्रीमती इंदिरा गाँधी]] दो दो बार प्रधान मंत्री रहे थे।) [[प्रधानमंत्री]] के रूप में [[28 जुलाई]], [[1979]] को पद पर आसीन हुए। (जन्म- [[23 दिसम्बर]], [[1902]] [[उत्तर प्रदेश]], मृत्यु- [[29 मई]], [[1987]]) [[मोरारजी देसाई]] की सरकार के पतन में इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। यह समाजवादी पार्टियों तथा कांग्रेस (ओ) के सहयोग से देश के प्रधानमंत्री बने। इन्हें [[काँग्रेस इं]] और सी. पी. आई. ने बाहर से समर्थन दिया, लेकिन वे इनकी सरकार में सम्मिलित नहीं हुए। चरण सिंह किसानों की आवाज़ बुलन्द करने वाले प्रखर नेता माने जाते थे।
|चित्र=Chaudhary-Charan-Singh.jpg
==जन्म एवं परिवार==
|पूरा नाम=चौधरी चरण सिंह
चौधरी चरण सिंह का जन्म [[23 दिसम्बर]], [[1902]] को [[उत्तर प्रदेश]] के [[मेरठ ज़िला|मेरठ ज़िले]] के [[नूरपुर ग्राम]] में एक मध्यम वर्गीय कृषक परिवार में हुआ था। इनका परिवार जाट पृष्ठभूमि वाला था। इनके पुरखे महाराजा नाहर सिंह ने 1887 की प्रथम क्रान्ति में विशेष योगदान दिया था। महाराजा नाहर सिंह वल्लभगढ़ के निवासी थे, जो कि वर्तमान में [[हरियाणा]] में आता है। महाराजा नाहर सिंह को [[दिल्ली]] के चाँदनी चौक में ब्रिटिश हुकूमत ने फ़ाँसी पर चढ़ा दिया था। तब अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ क्रान्ति की ज्वाला को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए महाराजा नाहर सिंह के समर्थक और चौधरी चरण सिंह के दादाजी उत्तर प्रदेश के [[बुलंदशहर ज़िला|बुलंदशहर ज़िले]] के पूर्ववर्ती क्षेत्र में निष्क्रमण कर गए।
|अन्य नाम=
{{tocright}}
|जन्म=[[23 दिसम्बर]], [[1902]]
==विद्यार्थी जीवन==
|जन्म भूमि=नूरपुर ग्राम, [[मेरठ]], [[उत्तर प्रदेश]],
|मृत्यु=[[29 मई]], [[1987]]
|मृत्यु स्थान=
|मृत्यु कारण=
|अभिभावक=चौधरी मीर सिंह
|पति/पत्नी=गायत्री देवी
|संतान=
|स्मारक=
|क़ब्र=
|नागरिकता=भारतीय
|प्रसिद्धि=किसान नेता
|पार्टी=[[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस|काँग्रेस]] और लोक दल
|पद=
|भाषा=[[हिन्दी भाषा|हिन्दी]], [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]] और [[उर्दू भाषा|उर्दू]]
|जेल यात्रा=
|कार्य काल=[[28 जुलाई]], [[1979]]-[[14 जनवरी]], [[1980]]
|विद्यालय=सरकारी उच्च विद्यालय, [[मेरठ]]
|शिक्षा=विज्ञान स्नातक, कला स्नातकोत्तर और विधि
|पुरस्कार-उपाधि=[[भारत रत्न]], [[2024]]
|विशेष योगदान=लेखन, स्वाधीनता संग्राम, [[भारत]] के पाँचवें [[प्रधानमंत्री]]
|संबंधित लेख=
|शीर्षक 1=रचनाएँ
|पाठ 1='अबॉलिशन ऑफ़ ज़मीदारी', 'भारत की भयावह आर्थिक स्थिति, इसके कारण और निदान', 'लिजेण्ड प्रोपराइटरशिप' और  'इंडियास पॉवर्टी एण्ड इट्स सोल्यूशंस'
|शीर्षक 2=
|पाठ 2=
|अन्य जानकारी=सम्पूर्ण [[भारत]] में 'किसानों के मसीहा' माने जाते हैं।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}'''चौधरी चरण सिंह''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Chaudhary Charan Singh'', जन्म: [[23 दिसम्बर]], [[1902]] [[मेरठ]]; मृत्यु- [[29 मई]], [[1987]]) [[भारत]] के पाँचवें<ref>नाम के अनुसार पाँचवें किंतु [[भारतीय संविधान]] के अनुसार सातवें प्रधानमंत्री थे, क्योंकि [[जवाहरलाल नेहरू|पंडित जवाहरलाल नेहरू]] और [[इंदिरा गाँधी|श्रीमती इंदिरा गाँधी]] दो दो बार प्रधान मंत्री रहे थे।</ref> [[प्रधानमंत्री]] थे। चरण सिंह किसानों की आवाज़ बुलन्द करने वाले प्रखर नेता माने जाते थे। चौधरी चरण सिंह का प्रधानमंत्री के रूप में कार्यकाल [[28 जुलाई]], [[1979]] से [[14 जनवरी]], [[1980]] तक रहा। यह [[समाजवादी पार्टी]] तथा कांग्रेस (ओ) के सहयोग से देश के प्रधानमंत्री बने। इन्हें 'काँग्रेस इं' और सी. पी. आई. ने बाहर से समर्थन दिया, लेकिन वे इनकी सरकार में सम्मिलित नहीं हुए। इसके अतिरिक्त चौधरी चरण सिंह भारत के गृहमंत्री (कार्यकाल- [[24 मार्च]] [[1977]] – [[1 जुलाई]] [[1978]]), [[उपप्रधानमंत्री]] (कार्यकाल- [[24 मार्च]] [[1977]] – [[28 जुलाई]] [[1979]]) और दो बार [[उत्तर प्रदेश]] के [[मुख्यमंत्री]] भी रहे। वर्ष [[2024]] में [[भारत सरकार]] ने चौधरी चरण सिंह को (मरणोपरांत) '[[भारत रत्न]]' से सम्मानित किया।
==आरम्भिक जीवन==
चौधरी चरण सिंह का जन्म [[23 दिसम्बर]], [[1902]] को [[उत्तर प्रदेश]] के [[मेरठ ज़िला|मेरठ ज़िले]] के नूरपुर ग्राम में एक मध्यम वर्गीय कृषक परिवार में हुआ था। इनका परिवार [[जाट]] पृष्ठभूमि वाला था। इनके पुरखे महाराजा नाहर सिंह ने [[1887]] की [[1857 का स्वतंत्रता संग्राम|प्रथम क्रान्ति]] में विशेष योगदान दिया था। महाराजा नाहर सिंह वल्लभगढ़ के निवासी थे, जो कि वर्तमान में [[हरियाणा]] में आता है। महाराजा नाहर सिंह को [[दिल्ली]] के [[चाँदनी चौक]] में [[ब्रिटिश शासन|ब्रिटिश हुकूमत]] ने फ़ाँसी पर चढ़ा दिया था। तब [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के ख़िलाफ़ क्रान्ति की ज्वाला को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए महाराजा नाहर सिंह के समर्थक और चौधरी चरण सिंह के दादा जी उत्तर प्रदेश के [[बुलंदशहर ज़िला|बुलंदशहर ज़िले]] के पूर्ववर्ती क्षेत्र में निष्क्रमण कर गए।
====विद्यार्थी जीवन====
चौधरी चरण सिंह को परिवार में शैक्षणिक वातावरण प्राप्त हुआ था। स्वयं इनका भी शिक्षा के प्रति अतिरिक्त रुझान रहा। चौधरी चरण सिंह के पिता चौधरी मीर सिंह चाहते थे कि उनका पुत्र शिक्षित होकर देश सेवा का कार्य करे। चौधरी चरण सिंह की प्राथमिक शिक्षा नूरपुर ग्राम में ही पूर्ण हुई, जबकि मैट्रिकुलेशन के लिए इन्हें [[मेरठ]] के सरकारी उच्च विद्यालय में भेज दिया गया। [[1923]] में 21 वर्ष की आयु में इन्होंने विज्ञान विषय में स्नातक की उपाधि प्राप्त कर ली। दो वर्ष के पश्चात् [[1925]] में चौधरी चरण सिंह ने कला स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर विधि की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने [[गाज़ियाबाद]] में वक़ालत करना आरम्भ कर दिया।
चौधरी चरण सिंह को परिवार में शैक्षणिक वातावरण प्राप्त हुआ था। स्वयं इनका भी शिक्षा के प्रति अतिरिक्त रुझान रहा। चौधरी चरण सिंह के पिता चौधरी मीर सिंह चाहते थे कि उनका पुत्र शिक्षित होकर देश सेवा का कार्य करे। चौधरी चरण सिंह की प्राथमिक शिक्षा नूरपुर ग्राम में ही पूर्ण हुई, जबकि मैट्रिकुलेशन के लिए इन्हें [[मेरठ]] के सरकारी उच्च विद्यालय में भेज दिया गया। [[1923]] में 21 वर्ष की आयु में इन्होंने विज्ञान विषय में स्नातक की उपाधि प्राप्त कर ली। दो वर्ष के पश्चात् [[1925]] में चौधरी चरण सिंह ने कला स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर विधि की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने [[गाज़ियाबाद]] में वक़ालत करना आरम्भ कर दिया।
==दाम्पत्य जीवन==
====विवाह====
[[1929]] में चौधरी चरण सिंह मेरठ आ गए। मेरठ आने के बाद इनकी शादी जाट परिवार की बेटी गायत्री के साथ सम्पन्न हुई। गायत्री देवी का परिवार [[रोहतक ज़िला|रोहतक ज़िले]] के [[गढ़ी ग्राम]] में रहता था। यह वह समय था जब देश में स्वाधीनता संग्राम तीव्र गति पकड़ चुका था। चरण सिंह स्वयं को देश की पुकार से अलग नहीं रख पाए। इन्होंने वक़ालत को त्यागकर आन्दोलन में भाग लेने का मन बना लिया। उस समय कांग्रेस एक बहुत बड़ी पार्टी थी। चरण सिंह भी [[कांग्रेस]] के सदस्य बन गए। कांग्रेस में उनकी छवि एक कुशल कार्यकर्ता के रूप में स्थापित हुई। [[1937]] के [[विधानसभा]] चुनाव में इन्हें सफलता प्राप्त हुई और यह छत्रवाली विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुए।
[[1929]] में चौधरी चरण सिंह [[मेरठ]] आ गए। मेरठ आने के बाद इनकी शादी [[जाट]] [[परिवार]] की बेटी गायत्री के साथ सम्पन्न हुई। गायत्री देवी का परिवार [[रोहतक ज़िला|रोहतक ज़िले]] के 'गढ़ी ग्राममें रहता था। यह वह समय था जब देश में स्वाधीनता संग्राम तीव्र गति पकड़ चुका था। चरण सिंह स्वयं को देश की पुकार से अलग नहीं रख पाए। इन्होंने वक़ालत को त्यागकर आन्दोलन में भाग लेने का मन बना लिया। उस समय [[कांग्रेस]] एक बहुत बड़ी पार्टी थी। चरण सिंह भी कांग्रेस के सदस्य बन गए। कांग्रेस में उनकी छवि एक कुशल कार्यकर्ता के रूप में स्थापित हुई। [[1937]] के विधानसभा चुनाव में इन्हें सफलता प्राप्त हुई और यह छत्रवाली विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुए।
 
==राजनीतिक जीवन==
==राजनीतिक जीवन==
एक बार राजनीति से जुड़ने के बाद चौधरी चरण सिंह का इससे कभी मोहभंग नहीं हुआ। उन दिनों सुशिक्षित लोगों की कमी नहीं थी, जो देश सेवा के लिए कांग्रेस से जुड़ रहे थे। उन्होंने छत्रवाली विधानसभा सीट से 9 वर्ष (अर्थात् [[1946]]) तक क्षेत्रीय जनता का कुशलतापूर्वक प्रतिनिधित्व किया। देश की आज़ादी के बाद वह राष्ट्रीय स्तर के नेता तो नहीं बन सके, लेकिन राज्य विधानसभा में उनका प्रभाव स्पष्ट महसूस किया जाता था। आज़ादी के बाद [[1952]], [[1962]] और [[1967]] में हुए चुनावों में चौधरी चरण सिंह राज्य विधानसभा के लिए पुन: चुने गए। इनकी योग्यता से पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भी प्रभावित रहा। इसके फलस्वरूप पंडित गोविन्द वल्लभ पंत की सरकार में इन्हें 'पार्लियामेंटरी सेक्रेटरीशिप' भी प्राप्त हुई। संसदीय सचिव की भूमिका में इन्होंने राजस्व, न्याय, सूचना, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य आदि विभागों के दायित्वों का निर्वहन पूरी निष्ठा के साथ किया। चौधरी चरण सिंह का राजनीतिक भविष्य [[1951]] में बनना आरम्भ हो गया था, जब इन्हें उत्तर प्रदेश में कैबिनेट मंत्री का पद प्राप्त हुआ। उन्होंने न्याय एवं सूचना विभाग सम्भाला। 1952 में डॉक्टर सम्पूर्णानंद के मुख्यमंत्रित्व काल में उन्हें राजस्व तथा कृषि विभाग का दायित्व मिला। वह ज़मीन से जुड़े नेता थे और कृषि विभाग उन्हें विशिष्ट रूप से पसंद था। चरण सिंह स्वभाव से भी कृषक थे। वह कृषक हितों के लिए अनवरत प्रयास करते रहे। [[1960]] में चंद्रभानु गुप्ता की सरकार में उन्हें गृह तथा कृषि मंत्रालय दिया गया। वह उत्तर प्रदेश की जनता के मध्य अत्यन्त लोकप्रिय थे। इसीलिए प्रदेश सरकार में योग्यता एवं अनुभव के कारण उन्हें ऊँचा मुक़ाम हासिल हुआ।
एक बार राजनीति से जुड़ने के बाद चौधरी चरण सिंह का इससे कभी मोहभंग नहीं हुआ। उन दिनों सुशिक्षित लोगों की कमी नहीं थी, जो देश सेवा के लिए कांग्रेस से जुड़ रहे थे। उन्होंने छत्रवाली विधानसभा सीट से 9 वर्ष (अर्थात् [[1946]]) तक क्षेत्रीय जनता का कुशलतापूर्वक प्रतिनिधित्व किया। देश की आज़ादी के बाद वह राष्ट्रीय स्तर के नेता तो नहीं बन सके, लेकिन राज्य विधानसभा में उनका प्रभाव स्पष्ट महसूस किया जाता था। आज़ादी के बाद [[1952]], [[1962]] और [[1967]] में हुए चुनावों में चौधरी चरण सिंह राज्य [[विधानसभा]] के लिए पुन: चुने गए। इनकी योग्यता से पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भी प्रभावित रहा। इसके फलस्वरूप [[गोविन्द वल्लभ पंत|पंडित गोविन्द वल्लभ पंत]] की सरकार में इन्हें 'पार्लियामेंटरी सेक्रेटरीशिप' भी प्राप्त हुई। संसदीय सचिव की भूमिका में इन्होंने राजस्व, न्याय, सूचना, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य आदि विभागों के दायित्वों का निर्वहन पूरी निष्ठा के साथ किया। चौधरी चरण सिंह का राजनीतिक भविष्य [[1951]] में बनना आरम्भ हो गया था, जब इन्हें [[उत्तर प्रदेश]] में कैबिनेट मंत्री का पद प्राप्त हुआ। उन्होंने न्याय एवं सूचना विभाग सम्भाला। [[1952]] में [[सम्पूर्णानंद|डॉक्टर सम्पूर्णानंद]] के मुख्यमंत्रित्व काल में उन्हें राजस्व तथा कृषि विभाग का दायित्व मिला। वह ज़मीन से जुड़े नेता थे और कृषि विभाग उन्हें विशिष्ट रूप से पसंद था। चरण सिंह स्वभाव से भी कृषक थे। वह कृषक हितों के लिए अनवरत प्रयास करते रहे। [[1960]] में [[चंद्रभानु गुप्ता]] की सरकार में उन्हें गृह तथा कृषि मंत्रालय दिया गया। वह उत्तर प्रदेश की जनता के मध्य अत्यन्त लोकप्रिय थे। इसीलिए प्रदेश सरकार में योग्यता एवं अनुभव के कारण उन्हें ऊँचा मुक़ाम हासिल हुआ।
====सामाजिक कार्यकर्ता====
====सामाजिक कार्यकर्ता====
उत्तर प्रदेश के किसान चरण सिंह को अपना मसीहा मानने लगे थे। उन्होंने कृषकों के कल्याण के लिए काफ़ी कार्य किए। समस्त उत्तर प्रदेश में भ्रमण करते हुए कृषकों की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाक़ों में कृषि मुख्य व्यवसाय था। कृषकों में सम्मान होने के कारण इन्हें किसी भी चुनाव में हार का मुख नहीं देखना पड़ा। उस समय तक उत्तर प्रदेश की सिंचाई व्यवस्था में सुधार की बहुत काफ़ी आवश्यकता थी, इस कारण चरण सिंह कृषि के स्तर को बहुत ज़्यादा उन्नत नहीं कर पाए। फिर भी उनका समर्पण असंदिग्ध था। उनकी ईमानदाराना कोशिशों की सदैव सराहना हुई। वह लोगों के लिए एक राजनीतिज्ञ से ज़्यादा सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्हें वक्तृत्व कला में भी महारत हासिल थी। यही कारण है कि उनकी जनसभाओं में भारी भीड़ जुटा करती थी। लोग उन्हें सुनने को लालयित रहते थे। फिर [[1966]] में सुचेता कृपलानी की सरकार में उन्हें मंत्री पद तो प्राप्त हो गया लेकिन कम महत्त्वपूर्ण विभाग मिले। [[1969]] में कांग्रेस का विघटन हो गया। चौधरी चरण सिंह कांग्रेस (ओ) के साथ जुड़ गए। इनकी निष्ठा कांग्रेस सिंडीकेट के प्रति रही। फिर वह कांग्रेस (ओ) के समर्थन से उत्तर प्रदेश के [[मुख्यमंत्री]] निर्वाचित हो गए, लेकिन बहुत समय तक मुख्यमंत्री पद पर नहीं रहे।
उत्तर प्रदेश के किसान चरण सिंह को अपना मसीहा मानने लगे थे। उन्होंने कृषकों के कल्याण के लिए काफ़ी कार्य किए। समस्त उत्तर प्रदेश में भ्रमण करते हुए कृषकों की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाक़ों में [[कृषि]] मुख्य व्यवसाय था। कृषकों में सम्मान होने के कारण इन्हें किसी भी चुनाव में हार का मुख नहीं देखना पड़ा। उस समय तक उत्तर प्रदेश की सिंचाई व्यवस्था में सुधार की बहुत काफ़ी आवश्यकता थी, इस कारण चरण सिंह कृषि के स्तर को बहुत ज़्यादा उन्नत नहीं कर पाए। फिर भी उनका समर्पण असंदिग्ध था। उनकी ईमानदाराना कोशिशों की सदैव सराहना हुई। वह लोगों के लिए एक राजनीतिज्ञ से ज़्यादा सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्हें वक्तृत्व कला में भी महारत हासिल थी। यही कारण है कि उनकी जनसभाओं में भारी भीड़ जुटा करती थी। लोग उन्हें सुनने को लालयित रहते थे। फिर [[1966]] में [[सुचेता कृपलानी]] की सरकार में उन्हें मंत्री पद तो प्राप्त हो गया लेकिन कम महत्त्वपूर्ण विभाग मिले। [[1969]] में [[कांग्रेस]] का विघटन हो गया। चौधरी चरण सिंह कांग्रेस (ओ) के साथ जुड़ गए। इनकी निष्ठा कांग्रेस सिंडीकेट के प्रति रही। फिर वह कांग्रेस (ओ) के समर्थन से उत्तर प्रदेश के [[मुख्यमंत्री]] निर्वाचित हो गए, लेकिन बहुत समय तक मुख्यमंत्री पद पर नहीं रहे।
[[चित्र:Charan-Singh-2.jpg|thumb|200px|चौधरी चरण सिंह स्टाम्प]]
[[चित्र:Charan-Singh-2.jpg|thumb|200px|चौधरी चरण सिंह स्टाम्प]]
====हदबंदी क़ानून====
====हदबंदी क़ानून====
कांग्रेस के विभाजन का प्रभाव उत्तर प्रदेश राज्य की कांग्रेस पर भी पड़ा। केन्द्रीय स्तर का विभाजन राज्य स्तर पर भी लागू हुआ। कांग्रसी नेता अपनी-अपनी निष्ठा के अनुसार इंदिरा कांग्रेस और सिंडीकेट कांग्रेस के साथ जुड़ गए। चूंकि चौधरी चरण सिंह इंदिरा गांधी के सहज विरोधी थे, इस कारण वह कांग्रेस (ओ) के कृपापात्र बन गए। जिस समय [[इंदिरा गांधी]] देश की प्रधानमंत्री थीं, उस समय भी उत्तर प्रदेश संसदीय सीटों के मामले में बड़ा और महत्त्वपूर्ण राज्य था। फिर यह इंदिरा गांधी का गृह प्रदेश भी था। इस कारण उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि कांग्रेस (ओ) का कोई व्यक्ति उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहे। अत: श्रीमती इंदिरा गांधी ने [[2 अक्टूबर]], [[1970]] को उत्तर प्रदेश में [[राष्ट्रपति]] शासन लागू कर दिया। चौधरी चरण सिंह का मुख्यमंत्रित्व जाता रहा। इससे इंदिरा गांधी के प्रति चौधरी चरण सिंह का रोष और दुर्भावना द्विगुणित हो गई। लेकिन उत्तर प्रदेश की ज़मीनी राजनीति से चरण सिंह को बेदख़ल करना सम्भव नहीं था। वह उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार के लिए अग्रणी पुरुष माने जाते थे। [[1939]] में कृषकों के क़र्ज मुक्ति विधेयक को पारित कराने में चरण सिंह की निर्णायक भूमिका थी। [[1960]] में उन्होंने भूमि हदबंदी क़ानून को लागू कराने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।  
कांग्रेस के विभाजन का प्रभाव उत्तर प्रदेश राज्य की कांग्रेस पर भी पड़ा। केन्द्रीय स्तर का विभाजन राज्य स्तर पर भी लागू हुआ। कांग्रेसी नेता अपनी-अपनी निष्ठा के अनुसार इंदिरा कांग्रेस और सिंडीकेट कांग्रेस के साथ जुड़ गए। चूंकि चौधरी चरण सिंह [[इंदिरा गांधी]] के सहज विरोधी थे, इस कारण वह कांग्रेस (ओ) के कृपापात्र बन गए। जिस समय इंदिरा गांधी देश की [[प्रधानमंत्री]] थीं, उस समय भी [[उत्तर प्रदेश]] संसदीय सीटों के मामले में बड़ा और महत्त्वपूर्ण राज्य था। फिर यह इंदिरा गांधी का गृह प्रदेश भी था। इस कारण उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि कांग्रेस (ओ) का कोई व्यक्ति उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहे। अत: श्रीमती इंदिरा गांधी ने [[2 अक्टूबर]], [[1970]] को उत्तर प्रदेश में [[राष्ट्रपति]] शासन लागू कर दिया। चौधरी चरण सिंह का मुख्यमंत्रित्व जाता रहा। इससे इंदिरा गांधी के प्रति चौधरी चरण सिंह का रोष और दुर्भावना द्विगुणित हो गई। लेकिन उत्तर प्रदेश की ज़मीनी राजनीति से चरण सिंह को बेदख़ल करना सम्भव नहीं था। वह उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार के लिए अग्रणी पुरुष माने जाते थे। [[1939]] में कृषकों के क़र्ज मुक्ति विधेयक को पारित कराने में चरण सिंह की निर्णायक भूमिका थी। [[1960]] में उन्होंने भूमि हदबंदी क़ानून को लागू कराने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
 
चौधरी चरण सिंह की व्यक्तिगत छवि एक ऐसे देहाती पुरुष की थी जो सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास रखता था। इस कारण इनका पहनावा एक किसान की सादगी को प्रतिबिम्बित करता था। एक प्रशासक के तौर पर उन्हें बेहद सिद्धान्तवादी और अनुशासनप्रिय माना जाता था। वह सरकारी अधिकारियों की लाल फ़ीताशाही और भ्रष्टाचार का प्रबल विरोधी थे। चरण सिंह सामाजिक न्याय के पोषक और लोक सेवा भावना से ओत-प्रोत रहे। चरण सिंह एक राजनीतिज्ञ थे और प्रत्येक राजनीतिज्ञ की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह राजनीति के शीर्ष पर पहुँचे। इसमें कुछ भी अनैतिक नहीं था। चरण सिंह अच्छे वक्ता थे और बेहतरीन सांसद भी। वह जिस कार्य को करने का मन बना लेते थे, फिर उसे पूरा करके ही रहते थे।
==प्रधानमंत्री पद पर==
==प्रधानमंत्री पद पर==
[[1977]] में चुनाव के बाद जब केन्द्र में जनता पार्टी सत्ता में आई तो किंग मेकर जयप्रकाश नारायण के सहयोग से मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने और चरण सिंह को देश का गृह मंत्री बनाया गया। इसी के बाद मोरारजी देसाई और चरण सिंह के मतभेद खुलकर सामने आए। मोरारजी देसाई ने जब चौधरी चरण सिंह को भाव देना बंद कर दिया तो उन्होंने बग़ावत कर दी। इस प्रकार [[28 जुलाई]], [[1979]] को चौधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों तथा कांग्रेस (यू) के सहयोग से प्रधानमंत्री बनने में सफल हुए। [[काँग्रेस इं]] और सी. पी. आई. ने इन्हें बाहर से समर्थन प्रदान किया। यह तो स्पष्ट है कि यदि इंदिरा गांधी का समर्थन चौधरी चरण सिंह को न प्राप्त होता तो वह किसी भी स्थिति में प्रधानमंत्री नहीं बन सकते थे। राजनीति की विशेषता है कि इसमें स्थायी मित्रता एवं स्थायी शत्रुता का स्थान नहीं होता। विरोधी लोग भी मित्र बन जाते हैं और मित्र लोग विरोधी। राजनीति की यह विशेषता इस काल में ख़ास तौर पर देखी जा सकती थी। कभी मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह जनता दल के स्तम्भ थे तथा परम मित्र भी।  
[[1977]] में चुनाव के बाद जब केन्द्र में जनता पार्टी सत्ता में आई तो किंग मेकर [[जयप्रकाश नारायण]] के सहयोग से [[मोरारजी देसाई]] [[प्रधानमंत्री]] बने और चरण सिंह को देश का गृह मंत्री बनाया गया। इसी के बाद मोरारजी देसाई और चरण सिंह के मतभेद खुलकर सामने आए। इस प्रकार [[28 जुलाई]], [[1979]] को चौधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों तथा कांग्रेस (यू) के सहयोग से प्रधानमंत्री बनने में सफल हुए। काँग्रेस इं और सी. पी. आई. ने इन्हें बाहर से समर्थन प्रदान किया। यह तो स्पष्ट है कि यदि इंदिरा गांधी का समर्थन चौधरी चरण सिंह को न प्राप्त होता तो वह किसी भी स्थिति में प्रधानमंत्री नहीं बन सकते थे। राजनीति की विशेषता है कि इसमें स्थायी मित्रता एवं स्थायी शत्रुता का स्थान नहीं होता। विरोधी लोग भी मित्र बन जाते हैं और मित्र लोग विरोधी। राजनीति की यह विशेषता इस काल में ख़ास तौर पर देखी जा सकती थी। कभी मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह जनता दल के स्तम्भ थे तथा परम मित्र भी।  
==राजनीतिक भूल==
====प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र====
यह चरण सिंह की राजनीतिक भूल थी कि जिसके कारण उन्होंने इंदिरा गांधी पर विश्वास किया। फिर राजनीतिक विश्वासघात की जिस ज़मीन पर उन्होंने मोरारजी देसाई को चित किया था, वह ज़मीन उन्हें भी नहीं बख़्शने वाली थी। इस प्रकार एक सीधा किसान नेता अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा के कारण इंदिरा गांधी की समर्थन नीति के जाल में फँस गया। इंदिरा गांधी जानती थीं कि मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह के रिश्ते ख़राब हो चुके हैं। यदि चरण सिंह को समर्थन देने की बात कहकर बग़ावत के लिए मना लिया जाए तो जनता पार्टी में बिख़राव आरम्भ हो जाएगा। अत: इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह की प्रधानमंत्री बनने की भावना को हवा दी। चरण सिंह ने इंदिरा गांधी की बात मान ली। वह 28 जुलाई 1979 को प्रधानमंत्री बने। लेकिन राष्ट्रपति [[नीलम संजीव रेड्डी]] ने यह स्पष्ट कह दिया कि वह लोकसभा में अपना बहुमत [[20 अगस्त]], [[1979]] तक सिद्ध करें। इस प्रकार विश्वास मत प्राप्त करने के लिए उन्हें मात्र 13 दिन ही मिले थे। लेकिन इंदिरा गांधी ने [[19 अगस्त]], 1979 को बिना बताए समर्थन वापस लिए जाने की घोषणा कर दी। अब यह प्रश्न नहीं था कि चौधरी साहब किसी भी प्रकार से विश्वास मत प्राप्त कर लेंगे। वह जानते थे कि विश्वास मत प्राप्त करना असम्भव था। यहाँ पर यह बताना प्रासंगिक होगा कि इंदिरा गांधी ने समर्थन के लिए शर्त लगाई थी। उसके अनुसार जनता पार्टी सरकार ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध जो मुक़दमें क़ायम किए हैं, उन्हें वापस ले लिया जाए। लेकिन चौधरी साहब इसके लिए तैयार नहीं हुए थे।  
[[इंदिरा गांधी]] जानती थीं कि मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह के रिश्ते ख़राब हो चुके हैं। यदि चरण सिंह को समर्थन देने की बात कहकर बग़ावत के लिए मना लिया जाए तो जनता पार्टी में बिख़राव आरम्भ हो जाएगा। अत: इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह की प्रधानमंत्री बनने की भावना को हवा दी। चरण सिंह ने इंदिरा गांधी की बात मान ली। वह [[28 जुलाई]] [[1979]] को प्रधानमंत्री बने। लेकिन [[राष्ट्रपति]] [[नीलम संजीव रेड्डी]] ने यह स्पष्ट कह दिया कि वह [[लोकसभा]] में अपना बहुमत [[20 अगस्त]], [[1979]] तक सिद्ध करें। इस प्रकार विश्वास मत प्राप्त करने के लिए उन्हें मात्र 13 दिन ही मिले थे। लेकिन इंदिरा गांधी ने [[19 अगस्त]], 1979 को बिना बताए समर्थन वापस लिए जाने की घोषणा कर दी। अब यह प्रश्न नहीं था कि चौधरी साहब किसी भी प्रकार से विश्वास मत प्राप्त कर लेंगे। वह जानते थे कि विश्वास मत प्राप्त करना असम्भव था। यहाँ पर यह बताना प्रासंगिक होगा कि इंदिरा गांधी ने समर्थन के लिए शर्त लगाई थी। उसके अनुसार जनता पार्टी सरकार ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध जो मुक़दमें क़ायम किए हैं, उन्हें वापस ले लिया जाए। लेकिन चौधरी साहब इसके लिए तैयार नहीं हुए थे। इस प्रकार की ग़लत सौदेबाज़ी करना चरण सिंह को क़बूल नहीं था। इसीलिए उन्होंने प्रधानमंत्री की कुर्सी गंवाना बर्दाश्त कर लिया। वह जानते थे कि उन्होंने ईमानदार नेता और सिद्धान्तवादी व्यक्ति की छवि बना रखी है, वह सदैव के लिए खण्डित हो जाएगी। अत: [[संसद]] का एक बार भी सामना किए बिना चौधरी चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद का त्याग कर दिया।
====मध्यावधि चुनाव====
प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने के साथ-साथ चौधरी चरण सिंह ने राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी से मध्यावधि चुनाव की सिफ़ारिश भी की ताकि किसी अन्य द्वारा प्रधानमंत्री का दावा न किया जा सके। राष्ट्रपति ने इनकी अनुशंसा पर [[लोकसभा]] भंग कर दी। चौधरी चरण सिंह को लगता था कि इंदिरा गांधी की भाँति जनता पार्टी भी अलोकप्रिय हो चुकी है। अत: वह अपनी लोकदल पार्टी और समाजवादियों से यह उम्मीद लगा बैठे कि मध्यावधि चुनाव में उन्हें बहुमत प्राप्त हो जाएगा। इसके अलावा चरण सिंह को यह आशा भी थी कि उनके द्वारा त्यागपत्र दिए जाने के कारण जनता को उनसे निश्चय ही सहानुभूति होगी। उन्हें [[उत्तर प्रदेश]] की जनता से काफ़ी उम्मीद थी। किसानों में उनकी जो लोकप्रियता थी, वह असंदिग्ध थी। वह मध्यावधि चुनाव में 'किसान राजा' के चुनावी नारे के साथ में उतरे। तब [[कार्यवाहक प्रधानमंत्री]] चौधरी चरण सिंह ही थे, जब मध्यावधि चुनाव सम्पन्न हुए। वह [[14 जनवरी]], [[1980]] तक ही [[भारत के प्रधानमंत्री]] रहे। इस प्रकार उनका कार्यकाल लगभग नौ माह का रहा।
==व्यक्तित्व==
चौधरी चरण सिंह की व्यक्तिगत छवि एक ऐसे देहाती पुरुष की थी जो सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास रखता था। इस कारण इनका पहनावा एक किसान की सादगी को प्रतिबिम्बित करता था। एक प्रशासक के तौर पर उन्हें बेहद सिद्धान्तवादी और अनुशासनप्रिय माना जाता था। वह सरकारी अधिकारियों की लाल फ़ीताशाही और भ्रष्टाचार के प्रबल विरोधी थे। चरण सिंह सामाजिक न्याय के पोषक और लोक सेवा भावना से ओत-प्रोत रहे। चरण सिंह एक राजनीतिज्ञ थे और प्रत्येक राजनीतिज्ञ की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह राजनीति के शीर्ष पर पहुँचे। इसमें कुछ भी अनैतिक नहीं था। चरण सिंह अच्छे वक्ता थे और बेहतरीन सांसद भी। वह जिस कार्य को करने का मन बना लेते थे, फिर उसे पूरा करके ही रहते थे।  चौधरी चरण सिंह राजनीति में स्वच्छ छवि रखने वाले इंसान थे। वह अपने समकालीन लोगों के समान गांधीवादी विचारधारा में यक़ीन रखते थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गांधी टोपी को कई बड़े नेताओं ने त्याग दिया था लेकिन चौधरी चरण सिंह ने इसे जीवन पर्यन्त धारण किए रखा।
====कुशल लेखक====
बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि चरण सिंह एक कुशल लेखक की आत्मा भी रखते थे। उनका [[अंग्रेज़ी भाषा]] पर अच्छा अधिकार था। उन्होंने 'अबॉलिशन ऑफ़ ज़मींदारी', 'लिजेण्ड प्रोपराइटरशिप' और 'इंडियास पॉवर्टी एण्ड इट्स सोल्यूशंस' नामक पुस्तकों का लेखन भी किया। [[जनवरी]] [[1980]] में इंदिरा गांधी का पुरागमन चरण सिंह की राजनीतिक विदाई का महत्त्वपूर्ण कारण बना, यद्यपि वह ग्रामीणों के परामर्शदाता बनकर लोक कल्याण करते रहे।
==मृत्यु==
लोक कल्याण के दौरान उम्र भी अपना असर दिखाने लगी थी। अन्तत: उनकी जीवन यात्रा का रथ [[29 मई]], [[1987]] को थम गया। 84 वर्ष से अधिक उम्र पाने वाला वह किसान नेता मृत्यु के आग़ोश में चला गया। वह गांधीवादी विचारधारा के साथ ही अन्त तक अपना जीवन निर्वाह करते रहे। उनमें देश के प्रति वफ़ादारी का भाव था। वह कृषकों के सच्चे शुभचिन्तक थे। '''इतिहास में इनका नाम प्रधानमंत्री से ज़्यादा एक किसान नेता के रूप में जाना जाएगा।'''


इस प्रकार की ग़लत सौदेबाज़ी करना चरण सिंह को क़बूल नहीं था। इसीलिए उन्होंने प्रधानमंत्री की कुर्सी गंवाना बर्दाश्त कर लिया। वह जानते थे कि उन्होंने ईमानदार नेता और सिद्धान्तवादी व्यक्ति की छवि बना रखी है, वह सदैव के लिए खण्डित हो जाएगी। अत: [[संसद]] का एक बार भी सामना किए बिना चौधरी चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद का त्याग कर दिया। प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने के साथ-साथ चौधरी चरण सिंह ने राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी से मध्यावधि चुनाव की सिफ़ारिश भी की ताकि किसी अन्य द्वारा प्रधानमंत्री का दावा न किया जा सके। राष्ट्रपति ने इनकी अनुशंसा पर [[लोकसभा]] भंग कर दी। चौधरी चरण सिंह को लगता था कि इंदिरा गांधी की भाँति जनता पार्टी भी अलोकप्रिय हो चुकी है। अत: वह अपनी लोकदल पार्टी और समाजवादियों से यह उम्मीद लगा बैठे कि मध्यावधि चुनाव में उन्हें बहुमत प्राप्त हो जाएगा। इसके अलावा चरण सिंह को यह आशा भी थी कि उनके द्वारा त्यागपत्र दिए जाने के कारण जनता को उनसे निश्चय ही सहानुभूति होगी। उन्हें उत्तर प्रदेश की जनता से काफ़ी उम्मीद थी। किसानों में उनकी जो लोकप्रियता थी, वह असंदिग्ध थी। वह मध्यावधि चुनाव में 'किसान राजा' के चुनावी नारे के साथ में उतरे। तब कार्यवाहक प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ही थे, जब मध्यावधि चुनाव सम्पन्न हुए। वह [[14 जनवरी]], [[1980]] तक ही भारत के प्रधानमंत्री रहे। इस प्रकार उनका कार्यकाल लगभग नौ माह का रहा।
'किसान घाट' [[भारत]] के भूतपूर्व [[प्रधानमंत्री]] चौधरी चरण सिंह जी का समाधि स्थल है, जो [[दिल्ली]] में राजघाट के निकट ही स्थित है।
==समग्र विश्लेषण==
चौधरी चरण सिंह राजनीति में स्वच्छ छवि रखने वाले इंसान थे। वह अपने समकालीन लोगों के समान गांधीवादी विचारधारा में यक़ीन रखते थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गांधी टोपी को कई बड़े नेताओं ने त्याग दिया था लेकिन चौधरी चरण सिंह ने इसे जीवन पर्यन्त धारण किए रखा। बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि चरण सिंह एक कुशल लेखक की आत्मा भी रखते थे। उनका [[अंग्रेज़ी भाषा]] पर अच्छा अधिकार था। उन्होंने 'अबॉलिशन ऑफ़ ज़मीदारी', 'लिजेण्ड प्रोपराइटरशिप' और 'इंडियास पॉवर्टी एण्ड इट्स सोल्यूशंस' नामक पुस्तकों का लेखन भी किया। जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी का पुरागमन चरण सिंह की राजनीतिक विदाई का महत्त्वपूर्ण कारण बना, यद्यवि वह ग्रामीणों के परामर्शदाता बनकर लोक कल्याण करते रहे।
==मृत्यु==
लोक कल्याण के दौरान उम्र भी अपना असर दिखाने लगी थी। अन्तत: उनकी जीवन यात्रा का रथ [[29 मई]], [[1987]] को थम गया। 84 वर्ष से अधिक उम्र पाने वाला वह किसान नेता मृत्यु के आग़ोश में चला गया। चरण सिंह से राजनीतिक ग़लतियाँ हो सकती हैं लेकिन चारित्रिक रूप से उन्होंने कभी कोई ग़लती नहीं की। वह गांधीवादी विचारधारा के साथ ही अन्त तक अपना जीवन निर्वाह करते रहे। उनमें देश के प्रति वफ़ादारी का भाव था। वह कृषकों के सच्चे शुभचिन्तक थे। '''इतिहास में इनका नाम प्रधानमंत्री से ज़्यादा एक किसान नेता के रूप में जाना जाएगा।'''


{{शासन क्रम |शीर्षक=[[भारत के प्रधानमंत्री]] |पूर्वाधिकारी=[[मोरारजी देसाई]] |उत्तराधिकारी=[[राजीव गाँधी]]}}
{{शासन क्रम |शीर्षक=[[भारत के प्रधानमंत्री]] |पूर्वाधिकारी=[[मोरारजी देसाई]] |उत्तराधिकारी=[[राजीव गाँधी]]}}


{{प्रचार}}
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=|माध्यमिक=माध्यमिक1 |पूर्णता= |शोध= }}
{{लेख प्रगति
|आधार=
|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2
|माध्यमिक=
|पूर्णता=
|शोध=
}}
 
{{संदर्भ ग्रंथ}}
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
{{भारत के प्रधानमंत्री}}
{{भारत के प्रधानमंत्री}}{{भारत गणराज्य}}{{भारत के प्रधानमंत्री2}}{{भारत रत्न}}
{{भारत गणराज्य}}
[[Category:भारत के प्रधानमंत्री]][[Category:राजनेता]] [[Category:राजनीति कोश]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:चरित कोश]][[Category:जीवनी साहित्य]]
{{भारत के प्रधानमंत्री2}}
[[Category:उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री]][[Category:भारत के वित्त मंत्री]][[Category:मुख्यमंत्री]][[Category:राजनीतिज्ञ]][[Category:भारत रत्न सम्मान]]
[[Category:भारत के प्रधानमंत्री]][[Category:राजनेता]] [[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]] [[Category:राजनीति कोश]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:चरित कोश]]
[[Category:उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__

08:40, 17 अप्रैल 2024 के समय का अवतरण

चौधरी चरण सिंह
पूरा नाम चौधरी चरण सिंह
जन्म 23 दिसम्बर, 1902
जन्म भूमि नूरपुर ग्राम, मेरठ, उत्तर प्रदेश,
मृत्यु 29 मई, 1987
अभिभावक चौधरी मीर सिंह
पति/पत्नी गायत्री देवी
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि किसान नेता
पार्टी काँग्रेस और लोक दल
कार्य काल 28 जुलाई, 1979-14 जनवरी, 1980
शिक्षा विज्ञान स्नातक, कला स्नातकोत्तर और विधि
विद्यालय सरकारी उच्च विद्यालय, मेरठ
भाषा हिन्दी, अंग्रेज़ी और उर्दू
पुरस्कार-उपाधि भारत रत्न, 2024
विशेष योगदान लेखन, स्वाधीनता संग्राम, भारत के पाँचवें प्रधानमंत्री
रचनाएँ 'अबॉलिशन ऑफ़ ज़मीदारी', 'भारत की भयावह आर्थिक स्थिति, इसके कारण और निदान', 'लिजेण्ड प्रोपराइटरशिप' और 'इंडियास पॉवर्टी एण्ड इट्स सोल्यूशंस'
अन्य जानकारी सम्पूर्ण भारत में 'किसानों के मसीहा' माने जाते हैं।

चौधरी चरण सिंह (अंग्रेज़ी: Chaudhary Charan Singh, जन्म: 23 दिसम्बर, 1902 मेरठ; मृत्यु- 29 मई, 1987) भारत के पाँचवें[1] प्रधानमंत्री थे। चरण सिंह किसानों की आवाज़ बुलन्द करने वाले प्रखर नेता माने जाते थे। चौधरी चरण सिंह का प्रधानमंत्री के रूप में कार्यकाल 28 जुलाई, 1979 से 14 जनवरी, 1980 तक रहा। यह समाजवादी पार्टी तथा कांग्रेस (ओ) के सहयोग से देश के प्रधानमंत्री बने। इन्हें 'काँग्रेस इं' और सी. पी. आई. ने बाहर से समर्थन दिया, लेकिन वे इनकी सरकार में सम्मिलित नहीं हुए। इसके अतिरिक्त चौधरी चरण सिंह भारत के गृहमंत्री (कार्यकाल- 24 मार्च 19771 जुलाई 1978), उपप्रधानमंत्री (कार्यकाल- 24 मार्च 197728 जुलाई 1979) और दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे। वर्ष 2024 में भारत सरकार ने चौधरी चरण सिंह को (मरणोपरांत) 'भारत रत्न' से सम्मानित किया।

आरम्भिक जीवन

चौधरी चरण सिंह का जन्म 23 दिसम्बर, 1902 को उत्तर प्रदेश के मेरठ ज़िले के नूरपुर ग्राम में एक मध्यम वर्गीय कृषक परिवार में हुआ था। इनका परिवार जाट पृष्ठभूमि वाला था। इनके पुरखे महाराजा नाहर सिंह ने 1887 की प्रथम क्रान्ति में विशेष योगदान दिया था। महाराजा नाहर सिंह वल्लभगढ़ के निवासी थे, जो कि वर्तमान में हरियाणा में आता है। महाराजा नाहर सिंह को दिल्ली के चाँदनी चौक में ब्रिटिश हुकूमत ने फ़ाँसी पर चढ़ा दिया था। तब अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ क्रान्ति की ज्वाला को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए महाराजा नाहर सिंह के समर्थक और चौधरी चरण सिंह के दादा जी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर ज़िले के पूर्ववर्ती क्षेत्र में निष्क्रमण कर गए।

विद्यार्थी जीवन

चौधरी चरण सिंह को परिवार में शैक्षणिक वातावरण प्राप्त हुआ था। स्वयं इनका भी शिक्षा के प्रति अतिरिक्त रुझान रहा। चौधरी चरण सिंह के पिता चौधरी मीर सिंह चाहते थे कि उनका पुत्र शिक्षित होकर देश सेवा का कार्य करे। चौधरी चरण सिंह की प्राथमिक शिक्षा नूरपुर ग्राम में ही पूर्ण हुई, जबकि मैट्रिकुलेशन के लिए इन्हें मेरठ के सरकारी उच्च विद्यालय में भेज दिया गया। 1923 में 21 वर्ष की आयु में इन्होंने विज्ञान विषय में स्नातक की उपाधि प्राप्त कर ली। दो वर्ष के पश्चात् 1925 में चौधरी चरण सिंह ने कला स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर विधि की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने गाज़ियाबाद में वक़ालत करना आरम्भ कर दिया।

विवाह

1929 में चौधरी चरण सिंह मेरठ आ गए। मेरठ आने के बाद इनकी शादी जाट परिवार की बेटी गायत्री के साथ सम्पन्न हुई। गायत्री देवी का परिवार रोहतक ज़िले के 'गढ़ी ग्राम' में रहता था। यह वह समय था जब देश में स्वाधीनता संग्राम तीव्र गति पकड़ चुका था। चरण सिंह स्वयं को देश की पुकार से अलग नहीं रख पाए। इन्होंने वक़ालत को त्यागकर आन्दोलन में भाग लेने का मन बना लिया। उस समय कांग्रेस एक बहुत बड़ी पार्टी थी। चरण सिंह भी कांग्रेस के सदस्य बन गए। कांग्रेस में उनकी छवि एक कुशल कार्यकर्ता के रूप में स्थापित हुई। 1937 के विधानसभा चुनाव में इन्हें सफलता प्राप्त हुई और यह छत्रवाली विधानसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुए।

राजनीतिक जीवन

एक बार राजनीति से जुड़ने के बाद चौधरी चरण सिंह का इससे कभी मोहभंग नहीं हुआ। उन दिनों सुशिक्षित लोगों की कमी नहीं थी, जो देश सेवा के लिए कांग्रेस से जुड़ रहे थे। उन्होंने छत्रवाली विधानसभा सीट से 9 वर्ष (अर्थात् 1946) तक क्षेत्रीय जनता का कुशलतापूर्वक प्रतिनिधित्व किया। देश की आज़ादी के बाद वह राष्ट्रीय स्तर के नेता तो नहीं बन सके, लेकिन राज्य विधानसभा में उनका प्रभाव स्पष्ट महसूस किया जाता था। आज़ादी के बाद 1952, 1962 और 1967 में हुए चुनावों में चौधरी चरण सिंह राज्य विधानसभा के लिए पुन: चुने गए। इनकी योग्यता से पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भी प्रभावित रहा। इसके फलस्वरूप पंडित गोविन्द वल्लभ पंत की सरकार में इन्हें 'पार्लियामेंटरी सेक्रेटरीशिप' भी प्राप्त हुई। संसदीय सचिव की भूमिका में इन्होंने राजस्व, न्याय, सूचना, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य आदि विभागों के दायित्वों का निर्वहन पूरी निष्ठा के साथ किया। चौधरी चरण सिंह का राजनीतिक भविष्य 1951 में बनना आरम्भ हो गया था, जब इन्हें उत्तर प्रदेश में कैबिनेट मंत्री का पद प्राप्त हुआ। उन्होंने न्याय एवं सूचना विभाग सम्भाला। 1952 में डॉक्टर सम्पूर्णानंद के मुख्यमंत्रित्व काल में उन्हें राजस्व तथा कृषि विभाग का दायित्व मिला। वह ज़मीन से जुड़े नेता थे और कृषि विभाग उन्हें विशिष्ट रूप से पसंद था। चरण सिंह स्वभाव से भी कृषक थे। वह कृषक हितों के लिए अनवरत प्रयास करते रहे। 1960 में चंद्रभानु गुप्ता की सरकार में उन्हें गृह तथा कृषि मंत्रालय दिया गया। वह उत्तर प्रदेश की जनता के मध्य अत्यन्त लोकप्रिय थे। इसीलिए प्रदेश सरकार में योग्यता एवं अनुभव के कारण उन्हें ऊँचा मुक़ाम हासिल हुआ।

सामाजिक कार्यकर्ता

उत्तर प्रदेश के किसान चरण सिंह को अपना मसीहा मानने लगे थे। उन्होंने कृषकों के कल्याण के लिए काफ़ी कार्य किए। समस्त उत्तर प्रदेश में भ्रमण करते हुए कृषकों की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाक़ों में कृषि मुख्य व्यवसाय था। कृषकों में सम्मान होने के कारण इन्हें किसी भी चुनाव में हार का मुख नहीं देखना पड़ा। उस समय तक उत्तर प्रदेश की सिंचाई व्यवस्था में सुधार की बहुत काफ़ी आवश्यकता थी, इस कारण चरण सिंह कृषि के स्तर को बहुत ज़्यादा उन्नत नहीं कर पाए। फिर भी उनका समर्पण असंदिग्ध था। उनकी ईमानदाराना कोशिशों की सदैव सराहना हुई। वह लोगों के लिए एक राजनीतिज्ञ से ज़्यादा सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्हें वक्तृत्व कला में भी महारत हासिल थी। यही कारण है कि उनकी जनसभाओं में भारी भीड़ जुटा करती थी। लोग उन्हें सुनने को लालयित रहते थे। फिर 1966 में सुचेता कृपलानी की सरकार में उन्हें मंत्री पद तो प्राप्त हो गया लेकिन कम महत्त्वपूर्ण विभाग मिले। 1969 में कांग्रेस का विघटन हो गया। चौधरी चरण सिंह कांग्रेस (ओ) के साथ जुड़ गए। इनकी निष्ठा कांग्रेस सिंडीकेट के प्रति रही। फिर वह कांग्रेस (ओ) के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री निर्वाचित हो गए, लेकिन बहुत समय तक मुख्यमंत्री पद पर नहीं रहे।

चौधरी चरण सिंह स्टाम्प

हदबंदी क़ानून

कांग्रेस के विभाजन का प्रभाव उत्तर प्रदेश राज्य की कांग्रेस पर भी पड़ा। केन्द्रीय स्तर का विभाजन राज्य स्तर पर भी लागू हुआ। कांग्रेसी नेता अपनी-अपनी निष्ठा के अनुसार इंदिरा कांग्रेस और सिंडीकेट कांग्रेस के साथ जुड़ गए। चूंकि चौधरी चरण सिंह इंदिरा गांधी के सहज विरोधी थे, इस कारण वह कांग्रेस (ओ) के कृपापात्र बन गए। जिस समय इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं, उस समय भी उत्तर प्रदेश संसदीय सीटों के मामले में बड़ा और महत्त्वपूर्ण राज्य था। फिर यह इंदिरा गांधी का गृह प्रदेश भी था। इस कारण उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि कांग्रेस (ओ) का कोई व्यक्ति उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहे। अत: श्रीमती इंदिरा गांधी ने 2 अक्टूबर, 1970 को उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। चौधरी चरण सिंह का मुख्यमंत्रित्व जाता रहा। इससे इंदिरा गांधी के प्रति चौधरी चरण सिंह का रोष और दुर्भावना द्विगुणित हो गई। लेकिन उत्तर प्रदेश की ज़मीनी राजनीति से चरण सिंह को बेदख़ल करना सम्भव नहीं था। वह उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार के लिए अग्रणी पुरुष माने जाते थे। 1939 में कृषकों के क़र्ज मुक्ति विधेयक को पारित कराने में चरण सिंह की निर्णायक भूमिका थी। 1960 में उन्होंने भूमि हदबंदी क़ानून को लागू कराने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

प्रधानमंत्री पद पर

1977 में चुनाव के बाद जब केन्द्र में जनता पार्टी सत्ता में आई तो किंग मेकर जयप्रकाश नारायण के सहयोग से मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने और चरण सिंह को देश का गृह मंत्री बनाया गया। इसी के बाद मोरारजी देसाई और चरण सिंह के मतभेद खुलकर सामने आए। इस प्रकार 28 जुलाई, 1979 को चौधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों तथा कांग्रेस (यू) के सहयोग से प्रधानमंत्री बनने में सफल हुए। काँग्रेस इं और सी. पी. आई. ने इन्हें बाहर से समर्थन प्रदान किया। यह तो स्पष्ट है कि यदि इंदिरा गांधी का समर्थन चौधरी चरण सिंह को न प्राप्त होता तो वह किसी भी स्थिति में प्रधानमंत्री नहीं बन सकते थे। राजनीति की विशेषता है कि इसमें स्थायी मित्रता एवं स्थायी शत्रुता का स्थान नहीं होता। विरोधी लोग भी मित्र बन जाते हैं और मित्र लोग विरोधी। राजनीति की यह विशेषता इस काल में ख़ास तौर पर देखी जा सकती थी। कभी मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह जनता दल के स्तम्भ थे तथा परम मित्र भी।

प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र

इंदिरा गांधी जानती थीं कि मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह के रिश्ते ख़राब हो चुके हैं। यदि चरण सिंह को समर्थन देने की बात कहकर बग़ावत के लिए मना लिया जाए तो जनता पार्टी में बिख़राव आरम्भ हो जाएगा। अत: इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह की प्रधानमंत्री बनने की भावना को हवा दी। चरण सिंह ने इंदिरा गांधी की बात मान ली। वह 28 जुलाई 1979 को प्रधानमंत्री बने। लेकिन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने यह स्पष्ट कह दिया कि वह लोकसभा में अपना बहुमत 20 अगस्त, 1979 तक सिद्ध करें। इस प्रकार विश्वास मत प्राप्त करने के लिए उन्हें मात्र 13 दिन ही मिले थे। लेकिन इंदिरा गांधी ने 19 अगस्त, 1979 को बिना बताए समर्थन वापस लिए जाने की घोषणा कर दी। अब यह प्रश्न नहीं था कि चौधरी साहब किसी भी प्रकार से विश्वास मत प्राप्त कर लेंगे। वह जानते थे कि विश्वास मत प्राप्त करना असम्भव था। यहाँ पर यह बताना प्रासंगिक होगा कि इंदिरा गांधी ने समर्थन के लिए शर्त लगाई थी। उसके अनुसार जनता पार्टी सरकार ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध जो मुक़दमें क़ायम किए हैं, उन्हें वापस ले लिया जाए। लेकिन चौधरी साहब इसके लिए तैयार नहीं हुए थे। इस प्रकार की ग़लत सौदेबाज़ी करना चरण सिंह को क़बूल नहीं था। इसीलिए उन्होंने प्रधानमंत्री की कुर्सी गंवाना बर्दाश्त कर लिया। वह जानते थे कि उन्होंने ईमानदार नेता और सिद्धान्तवादी व्यक्ति की छवि बना रखी है, वह सदैव के लिए खण्डित हो जाएगी। अत: संसद का एक बार भी सामना किए बिना चौधरी चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद का त्याग कर दिया।

मध्यावधि चुनाव

प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने के साथ-साथ चौधरी चरण सिंह ने राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी से मध्यावधि चुनाव की सिफ़ारिश भी की ताकि किसी अन्य द्वारा प्रधानमंत्री का दावा न किया जा सके। राष्ट्रपति ने इनकी अनुशंसा पर लोकसभा भंग कर दी। चौधरी चरण सिंह को लगता था कि इंदिरा गांधी की भाँति जनता पार्टी भी अलोकप्रिय हो चुकी है। अत: वह अपनी लोकदल पार्टी और समाजवादियों से यह उम्मीद लगा बैठे कि मध्यावधि चुनाव में उन्हें बहुमत प्राप्त हो जाएगा। इसके अलावा चरण सिंह को यह आशा भी थी कि उनके द्वारा त्यागपत्र दिए जाने के कारण जनता को उनसे निश्चय ही सहानुभूति होगी। उन्हें उत्तर प्रदेश की जनता से काफ़ी उम्मीद थी। किसानों में उनकी जो लोकप्रियता थी, वह असंदिग्ध थी। वह मध्यावधि चुनाव में 'किसान राजा' के चुनावी नारे के साथ में उतरे। तब कार्यवाहक प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ही थे, जब मध्यावधि चुनाव सम्पन्न हुए। वह 14 जनवरी, 1980 तक ही भारत के प्रधानमंत्री रहे। इस प्रकार उनका कार्यकाल लगभग नौ माह का रहा।

व्यक्तित्व

चौधरी चरण सिंह की व्यक्तिगत छवि एक ऐसे देहाती पुरुष की थी जो सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास रखता था। इस कारण इनका पहनावा एक किसान की सादगी को प्रतिबिम्बित करता था। एक प्रशासक के तौर पर उन्हें बेहद सिद्धान्तवादी और अनुशासनप्रिय माना जाता था। वह सरकारी अधिकारियों की लाल फ़ीताशाही और भ्रष्टाचार के प्रबल विरोधी थे। चरण सिंह सामाजिक न्याय के पोषक और लोक सेवा भावना से ओत-प्रोत रहे। चरण सिंह एक राजनीतिज्ञ थे और प्रत्येक राजनीतिज्ञ की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह राजनीति के शीर्ष पर पहुँचे। इसमें कुछ भी अनैतिक नहीं था। चरण सिंह अच्छे वक्ता थे और बेहतरीन सांसद भी। वह जिस कार्य को करने का मन बना लेते थे, फिर उसे पूरा करके ही रहते थे। चौधरी चरण सिंह राजनीति में स्वच्छ छवि रखने वाले इंसान थे। वह अपने समकालीन लोगों के समान गांधीवादी विचारधारा में यक़ीन रखते थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद गांधी टोपी को कई बड़े नेताओं ने त्याग दिया था लेकिन चौधरी चरण सिंह ने इसे जीवन पर्यन्त धारण किए रखा।

कुशल लेखक

बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि चरण सिंह एक कुशल लेखक की आत्मा भी रखते थे। उनका अंग्रेज़ी भाषा पर अच्छा अधिकार था। उन्होंने 'अबॉलिशन ऑफ़ ज़मींदारी', 'लिजेण्ड प्रोपराइटरशिप' और 'इंडियास पॉवर्टी एण्ड इट्स सोल्यूशंस' नामक पुस्तकों का लेखन भी किया। जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी का पुरागमन चरण सिंह की राजनीतिक विदाई का महत्त्वपूर्ण कारण बना, यद्यपि वह ग्रामीणों के परामर्शदाता बनकर लोक कल्याण करते रहे।

मृत्यु

लोक कल्याण के दौरान उम्र भी अपना असर दिखाने लगी थी। अन्तत: उनकी जीवन यात्रा का रथ 29 मई, 1987 को थम गया। 84 वर्ष से अधिक उम्र पाने वाला वह किसान नेता मृत्यु के आग़ोश में चला गया। वह गांधीवादी विचारधारा के साथ ही अन्त तक अपना जीवन निर्वाह करते रहे। उनमें देश के प्रति वफ़ादारी का भाव था। वह कृषकों के सच्चे शुभचिन्तक थे। इतिहास में इनका नाम प्रधानमंत्री से ज़्यादा एक किसान नेता के रूप में जाना जाएगा।

'किसान घाट' भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह जी का समाधि स्थल है, जो दिल्ली में राजघाट के निकट ही स्थित है।



भारत के प्रधानमंत्री
पूर्वाधिकारी
मोरारजी देसाई
चौधरी चरण सिंह उत्तराधिकारी
राजीव गाँधी


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नाम के अनुसार पाँचवें किंतु भारतीय संविधान के अनुसार सातवें प्रधानमंत्री थे, क्योंकि पंडित जवाहरलाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गाँधी दो दो बार प्रधान मंत्री रहे थे।

संबंधित लेख