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सुदूर दक्षिण के [[पल्लव वंश|पल्लव]], [[चोल राजवंश|चोल]], [[पांड्य साम्राज्य|पांड्य]] और [[केरल]] राज्य भारतीय इतिहास की मुख्य धारा से प्रायः | सुदूर दक्षिण के [[पल्लव वंश|पल्लव]], [[चोल राजवंश|चोल]], [[पांड्य साम्राज्य|पांड्य]] और [[केरल]] राज्य भारतीय इतिहास की मुख्य धारा से प्रायः पृथक् रहे हैं। प्राचीन काल में उत्तरी भारत में जो अनेक सुविस्तृत साम्राज्य स्थापित हुए सुदूर दक्षिण के राज्य उनके अंतर्गत नहीं थे। मौर्य साम्राज्य के उत्कर्ष काल में दक्षिण में भी मौर्यों का शासन था, पर [[अशोक]] ने चोल, पांड्य और केरल की गणना अपने 'विजित' में न कर 'प्रत्यन्त' राज्यों में की है। [[गुप्त वंश]] के प्रतापी राजा [[समुद्रगुप्त]] ने पल्लव राज्य को परास्त कर अपने अधीन किया था, पर कुमारी अन्तरीप तक उसका आधिपत्य नहीं हो सका था। राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से सुदूर दक्षिण के ये राज्य उत्तरी भारत से प्रायः पृथक् रहे, यद्यपि दक्षिणापथ के [[राष्ट्रकूट साम्राज्य|राष्ट्रकूट]] और [[चालुक्य राजवंश|चालुक्यों]] राजाओं ने अनेक बार इस क्षेत्र में दूर-दूर तक विजय यात्राएँ कीं। अनेक प्रतापी चोल सम्राट भी दक्षिणापथ को आक्रान्त कर उत्तरी भारत की दक्षिणी सीमा का उल्लघंन करने में समर्थ हुए। पर इन अपवादों के कारण यह बात खण्डित नहीं होती, कि सुदूर दक्षिण के ये राज्य प्रायः शेष भारत से पृथक् ही रहे। इन राज्यों के निवासी भाषा, नस्ल आदि की दृष्टि से भी उत्तरी भारत के आर्यों से भिन्न थे। पर बहुत प्राचीन समय से उत्तरी भारत के आर्यों ने सुदूर दक्षिण में अपना प्रसार प्रारम्भ कर दिया था, और वहाँ बसे हुए द्रविड़ लोग उनकी सम्यता, धर्म और संस्कृति से प्रभावित होने लग गए थे। यही कारण है, कि दक्षिणी भारत के इन राज्यों की जनता धर्म और संस्कृति की दृष्टि से उत्तरी भारत के आर्य निवासियों से बहुत भिन्न नहीं थी। | ||
==पल्लव शक्ति का अन्त== | ==पल्लव शक्ति का अन्त== | ||
इसमें सन्देह नहीं, कि नन्दिवर्मा पल्लव राज्य की शक्ति को पुनः स्थापित करने में समर्थ हुआ था, पर उसका कार्य देर तक स्थिर नहीं रह सका। उधर दक्षिणापथ में इस समय चालुक्यों का अन्त होकर राष्ट्रकूटों की सत्ता स्थापित हो गई थी। ये राष्ट्रकूट राजा बड़े प्रतापी और महत्त्वाकांक्षी थे, और उत्तर व दक्षिण दोनों दिशाओं में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए प्रयत्नशील थे। राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय ने दक्षिण की विजय करते हुए काञ्जी पर भी आक्रमण किया, और नवीं सदी के प्रथम चरण में पल्लवों को बुरी तरह से परास्त किया। | इसमें सन्देह नहीं, कि नन्दिवर्मा पल्लव राज्य की शक्ति को पुनः स्थापित करने में समर्थ हुआ था, पर उसका कार्य देर तक स्थिर नहीं रह सका। उधर दक्षिणापथ में इस समय चालुक्यों का अन्त होकर राष्ट्रकूटों की सत्ता स्थापित हो गई थी। ये राष्ट्रकूट राजा बड़े प्रतापी और महत्त्वाकांक्षी थे, और उत्तर व दक्षिण दोनों दिशाओं में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए प्रयत्नशील थे। राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय ने दक्षिण की विजय करते हुए काञ्जी पर भी आक्रमण किया, और नवीं [[सदी]] के प्रथम चरण में पल्लवों को बुरी तरह से परास्त किया। | ||
पल्लवों को न केवल उत्तर की ओर से किए जाने वाले राष्ट्रकूट आक्रमणों का ही सामना करना था, अपितु चोल राज्य के राजा भी अपनी शक्ति का विस्तार करने के प्रयत्न में इस समय उत्तर की ओर आक्रमण करने में तत्पर थे। चक्की के इन दो पाटों के बीच में आकर पल्लव राज्य के लिए अपनी स्वतंत्र सत्ता को क़ायम रख सकना सम्भव नहीं रहा। नवीं सदी के अन्त में (985 ई. पू. के लगभग) चोल राजा [[आदित्य (चोल वंश)|आदित्य]] ने पल्लव राजा [[अपराजित|अपराजितवर्मा]] को पराजित कर [[काँची|काञ्जी]] पर क़ब्ज़ा कर लिया, और इस प्रकार पल्लव राजवंश की स्वतंत्र सत्ता का सदा के लिए अन्त कर दिया। | पल्लवों को न केवल उत्तर की ओर से किए जाने वाले राष्ट्रकूट आक्रमणों का ही सामना करना था, अपितु चोल राज्य के राजा भी अपनी शक्ति का विस्तार करने के प्रयत्न में इस समय उत्तर की ओर आक्रमण करने में तत्पर थे। चक्की के इन दो पाटों के बीच में आकर पल्लव राज्य के लिए अपनी स्वतंत्र सत्ता को क़ायम रख सकना सम्भव नहीं रहा। नवीं [[सदी]] के अन्त में (985 ई. पू. के लगभग) चोल राजा [[आदित्य (चोल वंश)|आदित्य]] ने पल्लव राजा [[अपराजित|अपराजितवर्मा]] को पराजित कर [[काँची|काञ्जी]] पर क़ब्ज़ा कर लिया, और इस प्रकार पल्लव राजवंश की स्वतंत्र सत्ता का सदा के लिए अन्त कर दिया। | ||
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13:29, 1 अगस्त 2017 के समय का अवतरण
सुदूर दक्षिण के पल्लव, चोल, पांड्य और केरल राज्य भारतीय इतिहास की मुख्य धारा से प्रायः पृथक् रहे हैं। प्राचीन काल में उत्तरी भारत में जो अनेक सुविस्तृत साम्राज्य स्थापित हुए सुदूर दक्षिण के राज्य उनके अंतर्गत नहीं थे। मौर्य साम्राज्य के उत्कर्ष काल में दक्षिण में भी मौर्यों का शासन था, पर अशोक ने चोल, पांड्य और केरल की गणना अपने 'विजित' में न कर 'प्रत्यन्त' राज्यों में की है। गुप्त वंश के प्रतापी राजा समुद्रगुप्त ने पल्लव राज्य को परास्त कर अपने अधीन किया था, पर कुमारी अन्तरीप तक उसका आधिपत्य नहीं हो सका था। राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से सुदूर दक्षिण के ये राज्य उत्तरी भारत से प्रायः पृथक् रहे, यद्यपि दक्षिणापथ के राष्ट्रकूट और चालुक्यों राजाओं ने अनेक बार इस क्षेत्र में दूर-दूर तक विजय यात्राएँ कीं। अनेक प्रतापी चोल सम्राट भी दक्षिणापथ को आक्रान्त कर उत्तरी भारत की दक्षिणी सीमा का उल्लघंन करने में समर्थ हुए। पर इन अपवादों के कारण यह बात खण्डित नहीं होती, कि सुदूर दक्षिण के ये राज्य प्रायः शेष भारत से पृथक् ही रहे। इन राज्यों के निवासी भाषा, नस्ल आदि की दृष्टि से भी उत्तरी भारत के आर्यों से भिन्न थे। पर बहुत प्राचीन समय से उत्तरी भारत के आर्यों ने सुदूर दक्षिण में अपना प्रसार प्रारम्भ कर दिया था, और वहाँ बसे हुए द्रविड़ लोग उनकी सम्यता, धर्म और संस्कृति से प्रभावित होने लग गए थे। यही कारण है, कि दक्षिणी भारत के इन राज्यों की जनता धर्म और संस्कृति की दृष्टि से उत्तरी भारत के आर्य निवासियों से बहुत भिन्न नहीं थी।
पल्लव शक्ति का अन्त
इसमें सन्देह नहीं, कि नन्दिवर्मा पल्लव राज्य की शक्ति को पुनः स्थापित करने में समर्थ हुआ था, पर उसका कार्य देर तक स्थिर नहीं रह सका। उधर दक्षिणापथ में इस समय चालुक्यों का अन्त होकर राष्ट्रकूटों की सत्ता स्थापित हो गई थी। ये राष्ट्रकूट राजा बड़े प्रतापी और महत्त्वाकांक्षी थे, और उत्तर व दक्षिण दोनों दिशाओं में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए प्रयत्नशील थे। राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय ने दक्षिण की विजय करते हुए काञ्जी पर भी आक्रमण किया, और नवीं सदी के प्रथम चरण में पल्लवों को बुरी तरह से परास्त किया। पल्लवों को न केवल उत्तर की ओर से किए जाने वाले राष्ट्रकूट आक्रमणों का ही सामना करना था, अपितु चोल राज्य के राजा भी अपनी शक्ति का विस्तार करने के प्रयत्न में इस समय उत्तर की ओर आक्रमण करने में तत्पर थे। चक्की के इन दो पाटों के बीच में आकर पल्लव राज्य के लिए अपनी स्वतंत्र सत्ता को क़ायम रख सकना सम्भव नहीं रहा। नवीं सदी के अन्त में (985 ई. पू. के लगभग) चोल राजा आदित्य ने पल्लव राजा अपराजितवर्मा को पराजित कर काञ्जी पर क़ब्ज़ा कर लिया, और इस प्रकार पल्लव राजवंश की स्वतंत्र सत्ता का सदा के लिए अन्त कर दिया।
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