राष्ट्रकूट साम्राज्य

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एलोरा की गुफ़ाएं, औरंगाबाद

जब उत्तरी भारत में पाल और प्रतिहार वंशों का शासन था, दक्कन में राष्टूकूट राज्य करते थे। इस वंश ने भारत को कई योद्धा और कुशल प्रशासक दिए हैं। इस साम्राज्य की नींव 'दन्तिदुर्ग' ने डाली। दन्तिदुर्ग ने 750 ई. में चालुक्यों के शासन को समाप्त कर आज के शोलापुर के निकट अपनी राजधानी 'मान्यखेट' अथवा 'मानखेड़' की नींव रखी। शीघ्र ही महाराष्ट्र के उत्तर के सभी क्षेत्रों पर राष्ट्रकूटों का आधिपत्य हो गया। गुजरात और मालवा के प्रभुत्व के लिए इन्होंने प्रतिहारों से भी लोहा लिया। यद्यपि इन हमलों के कारण राष्ट्रकूट अपने साम्राज्य का विस्तार गंगा घाटी तक नहीं कर सके तथापि इनमें उन्हें बहुत बड़ी मात्रा में धन राशि मिली और उनकी ख्याति बढ़ी। वंगी (वर्तमान आंध्र प्रदेश) के पूर्वी चालुक्यों और दक्षिण में कांची के पल्लवों तथा मदुरई के पांड्यों के साथ भी राष्ट्रकूटों का बराबर संघर्ष चलता रहा। राष्ट्रकूटों के सबसे शक्तिशाली शासक सम्भवतः इन्द्र तृतीय (915-927) तथा कृष्ण तृतीय (929-965) थे। महीपाल की पराजय और कन्नौज के पतन के बाद 915 में इन्द्र तृतीय अपने समय का सबसे शक्तिशाली राजा था। इसी समय भारत आने वाले यात्री अल मसूदी के अनुसार 'बल्लभराज या बल्हर भारत का सबसे महान् राजा था और अधिकतर भारतीय शासक उसके प्रभुत्व को स्वीकार करते थे और उसके राजदूतों को आदर देते थे। उसके पास बहुत बड़ी सेना और असंख्य हाथी थे।'

कृष्ण तृतीय

कृष्ण तृतीय ने मालवा के परमारों तथा वेंगी के चालुक्यों से लोहा लिया। उसने तंजावुर के चोल राजाओं, जिन्होंने कांची के पल्लवों को पराजित किया था, के विरुद्ध भी अभियान छेड़ा। कृष्ण तृतीय ने चोल नरेश परंतक प्रथम को पराजित कर चोल साम्राज्य के उत्तरी भाग पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके पश्चात् वह रामेश्वरम तक गया जहाँ उसने एक 'विजय स्तम्भ' तथा एक मन्दिर का निर्माण किया। अपनी विजय और अभियानों की सफलता के प्रतीक के रूप में कृष्ण तृतीय ने सकल दक्षिण दिशाधिपति की उपाधि ग्रहण की। कृष्ण तृतीय अपनी विजयों के बावजूद एक बुद्धिमान प्रशासक नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसने अपने सभी पड़ोसियों के विरुद्ध लड़ाई छेड़कर उन्हें अपना शत्रु बना लिया जिसका परिणाम उसके उत्तराधिकारियों को भुगतना पड़ा। कृष्ण तृतीय की मृत्यु के पश्चात् उत्तराधिकार के लिए उसके पुत्रों में संघर्ष छिड़ गया तथा आंतरिक मतभेद और गहरे हो गए। मालवा के परमारों ने इस स्थिति का पूरी तरह से लाभ उठाया और राष्ट्रकूटों पर चढ़ाई कर दी। परमार नरेश सीयक ने 972 में राष्ट्रकूटों की राजधानी मालखेड़ पर धावा बोला और उसे तहस-नहस कर डाला। इसी अवधि में अन्य राष्ट्रकूट के सामंतों ने भी बग़ावत कर दी और अपनी-अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। इसके साथ ही राष्ट्रकूट साम्राज्य का अन्त हो गया।

धार्मिक उदारता

दक्कन में राष्ट्रकूट साम्राज्य दो सौ वर्षों, अर्थात दसवीं शताब्दी तक क़ायम रहा। राष्ट्रकूट सम्राट धार्मिक मामलों में उदार और सहिष्णु थे और उन्होंने न केवल शैव और वैष्णव वरन् जैन मतावलंबियों को भी संरक्षण प्रदान किया। एलोरा के प्रसिद्ध शिव गुहा मन्दिर का निर्माण एक राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण प्रथम ने ही नौवीं शताब्दी में किया था। कहा जाता है कि उसके उत्तराधिकारी अमोघवर्ष ने जैन धर्म को स्वीकार कर लिया था। पर वह अन्य वर्गों को भी संरक्षण प्रदान करता था। राष्ट्रकूटों ने न केवल मुस्लिम व्यापारियों को अपने राज्य में बसने की छूट दी वरन् इस्लाम के प्रचार की अनुमति भी दी। कहा जाता है कि राष्ट्रकूट साम्राज्य के कई तटवर्ती नगरों में मुसलमानों के अपने नेता तथा कई बड़ी-बड़ी मस्जिदें भी थी। राष्ट्रकूटों की सहिष्णुता की इस नीति से उसके विदेश व्यापार में वृद्धि हुई और उनकी समृद्धि भी बढ़ी।

राष्ट्रकूट नरेश कला तथा साहित्य के भी संरक्षक थे। उनके दरबार में न केवल राजशेखर जैसे संस्कृत के विद्वान् थे वरन् ऐसे भी साहित्यकार थे जो प्राकृत और अपभ्रंश में लिखते थे। जिनसे आधुनिक भारतीय भाषाओं की उत्पत्ति हुई है। अपभ्रंश के महान् कवि स्वयंभू तथा उनका पुत्र सम्भवतः राष्ट्रकूट दरबार के ही सदस्य थे। कहा जाता है कि नौवीं शताब्दी के राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष ने कन्नड़ में काव्य शास्त्र पर प्रथम पुस्तक लिखी।

राजनीतिक संगठन

इन साम्राज्यों का प्रशासन उत्तर में गुप्त और हर्ष तथा दक्कन में चालुक्यों के प्रशासन के आधार पर व्यवस्थित था। पहले की तरह सत्ता तथा सभी गतिविधियों का केन्द्र सम्राट था। वह प्रमुख प्रशासक के साथ-साथ प्रमुख सेनाध्यक्ष भी था। वह बड़े ही शानदार दरबार में बैठता था। दरबार से लगे प्रांगण में उसके पैदल और घुड़सवार सिपाही रहते थे। युद्ध के दौरान क़ब्ज़े में किए गए घोड़ों और हाथियों का उसके सामने से जुलूस निकाला जाता था। सामंती सरदार, उनका प्रमुख, राजपूत तथा कई उच्चाधिकारी उसके दरबार की शोभा बढ़ाते थे और उसके आज्ञापालन के लिए तत्पर रहते थे। न्याय का काम भी राजा के हाथ में ही था। राजदरबार न केवल राजनीतिक कार्यवाइयों का वरन् न्याय और सांस्कृतिक जीवन का भी केन्द्र था। राजदरबार में कुशल संगीतज्ञ तथा नर्तकियाँ भी रहती थीं। विशेष अवसरों पर रनिवास की महिलाएँ भी राजदरबार में आती थीं। अरब लेखकों के अनुसार राष्ट्रकूट साम्राज्य में ऐसी महिलाएँ पर्दा नहीं करती थीं।

वंशगत पद

राजा का पद सामान्यतः वंशगत था। लेकिन कम से कम एक अवसर पर, बंगाल में पाल वंश के गोपाल के मामले में, राजा उन सरदारों द्वारा निर्वाचित किया गया था जो बंगाल के विभिन्न भागों में राज करते थे। ऐसा माना जाता है कि राजा व्यक्तिगत रूप से और उसका पद, दोनों ही दैवी हैं। कुछ धर्मशास्त्रों के अनुसार राजा ईश्वर के अवतार के रूप में माना जाता था और यह भी माना जाता था कि उसमें विभिन्न देवताओं की विशेषताएँ हैं। इसी युग में रचित पुराण की एक कहानी में बताया गया है कि ब्रह्मा ने राजा के शरीर की रचना इन्द्र के प्रमुख, अग्नि की वीरता, यम की निष्ठुरता और चन्द्रमा के सौभाग्य को लेकर की।

राजा के प्रति पूर्ण निष्ठा और आज्ञाकारिता पर समसामयिक वैचारिकों द्वारा ज़ोर डालने का शायद एक कारण उस युग की अस्थिरता और असुरक्षा रही हो। उन दिनों राजाओं तथा उनके सरदारों के बीच युद्ध आम बात सी थी। राजा अपने राज्यों में शान्ति और व्यवस्था स्थापित करने का प्रयत्न तो करते थे, पर उनकी शक्ति का क्षेत्र सीमित था। एक समसामयिक लेखक मेधतिथि का कहना है कि उन दिनों किसी भी व्यक्ति को चोरों और डाकुओं से अपने बचाव के लिए हथियारों को लेकर चलने का अधिकार था। उसका यह भी विचार था कि अन्यायी राजा का विरोध करना अनुचित नहीं है। इससे पता चलता है कि पुराणों में कही गई राजा की सर्वशक्ति और पूर्ण अधिकार की बात सभी को मान्य नहीं थी।

उत्तराधिकार नियम

उत्तराधिकार के नियम भी कड़े और निश्चित नहीं थे। अधिकतर तो राजा का सबसे बड़ा लड़का ही उसके बाद सिंहासन पर बैठता था। पर ऐसे भी कई उदाहरण हैं जब उसे अपने छोटे भाइयों से संघर्ष करना पड़ा और वह इसमें हार भी गया। इसी प्रकार ध्रुव और गोविन्द चतुर्थ ने अपने बड़े भाइयों को सिंहासन से उतार दिया था। कभी-कभी कर्मी राजा अपने सबसे बड़े लड़के अथवा अपने प्रिय किसी और पुत्र को युवराज अथवा अपने उत्तराधिकारी के रूप में मनोनीत कर देता था। ऐसी स्थिति में युवराज राजधानी में रहकर ही राजा को प्रशासन के काम में सहायता करता था। कभी-कभी राजकुमारों को प्रान्तीय शासकों के रूप में नियुक्त किया जाता था। सरकारी पदों पर राजकुमारियों की नियुक्ति शायद ही कभी होती थी, पर ऐसा एक उदाहरण हमें राष्ट्रकूटों की राजकुमारी चन्द्रभल्लवी में मिलता है जो अमोघवर्ष प्रथम की पुत्री थी और जिसे कुछ समय के लिए रायचूर दोआब का प्रशासक बनाया गया था।

एलोरा की गुफ़ाएं, औरंगाबाद

सामान्यतः राजाओं को सलाह देने के लिए कुछ मंत्री होते थे। इनका निर्वाचन आमतौर पर उच्चवर्गीय परिवारों में से राजा स्वयं करता था। इनका भी पद कई बार वंशगत होता था। इसी प्रकार कहा जाता है कि ब्राह्मणों के एक परिवार से चार मुख्यमंत्री हुए जिन्होंने एक के बाद एक पाल वंश के धर्मपाल और उसके उत्तराधिकारियों की सेवा की। ऐसा होने पर मंत्री बहुत शक्तिशाली भी बन जाते थे। यद्यपि ऐसा लगता है कि केन्द्रीय सरकार के कई विभाग रहे होंगे फिर भी यह पता नहीं चल सका है कि कितने विभाग होते थे अथवा उनका कार्य किस प्रकार होता था। अभिलेखों और साहित्यिक कृतियों से लगता है कि लगभग हर राज्य में विदेश मंत्री, कर मंत्री, कोषाध्यक्ष, सेनाध्यक्ष, मुख्य न्यायधीश और पुरोहित होते थे। एक व्यक्ति एक से अधिक पद सम्भाल सकता था और सम्भवतः मंत्रियों में से किसी एक को प्रमुखता दी जाती थी। जिस पर राज्य औरों से अधिक निर्भर करता था। पुरोहित को छोड़कर बाकी सभी मंत्रियों से आशा की जाती थी कि आवश्यकता पड़ने पर वे युद्ध में सेना का नेतृत्व करें। सम्भवतः अन्त:पुर के लिए भी कुछ अधिकारी नियुक्त थे। क्योंकि राजा सभी कार्यविधियों और शक्तियों का केन्द्र था, उसके अन्त:पुर के कुछ अधिकारी भी बहुत महत्त्व रखते थे।

साम्राज्य की स्थिरता

साम्राज्य की स्थिरता और उसके विस्तार में सेना का बहुत महत्त्व था। बहुत से अरब यात्रियों ने पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट नरेशों के बारे में लिखा है कि उनके पास बड़ी-बड़ी पैदल और अश्व सेनाएँ थी और बड़ी संख्या में युद्ध में काम आने वाले हाथी थे। हाथियों को शक्ति का प्रतीक माना जाता था और उनका बहुत महत्त्व था। सबसे अधिक हाथी पाल राजाओं के पास थे। राष्ट्रकूट तथा प्रतिहार राजा अरब तथा पश्चिम एशिया से समुद्र के रास्ते तथा मध्य एशिया से भूमि मार्ग से बड़ी संख्या में घोड़ों का आयात करते थे। कहा जाता है कि देश भर में सबसे अच्छी अश्व सेना प्रतिहारों के पास थी। रथों का प्रचलन इस समय तक समाप्त हो गया था। इसलिए हमें इसकी कोई चर्चा नहीं मिलती। कुछ राजाओं, विशेषकर राष्ट्रकूटों के पास बड़ी संख्या में क़िले थे। इनमें विशेष सेनाएँ और उनके अपने सेनाध्यक्ष थे। पैदल सेना में स्थायी सैनिकों के अलावा सामंती सरदारों द्वारा दिए गए सैनिक भी होते थे। स्थायी सैनिक प्रायः वंशागत होते थे और सेना में भारत के हर क्षेत्र के सिपाही होते थे। उदाहरणार्थ पालों की पैदल सेना में मालवा, ख़ासा (असम), लाट (दक्षिण गुजरात) तथा कर्नाटक के सिपाही थे। पाल और सम्भवतः राष्ट्रकूट राजाओं के पास अपनी नौ सेनाएँ थीं पर हमें उनकी शक्ति अथवा संगठन के बारे में पता नहीं चलता।

साम्राज्य के अंतर्गत वे क्षेत्र आते थे जिन पर राजा का सीधा अधिकार था। इसके अलावा ऐसे भी क्षेत्र थे जिन पर सामंती सरदारों का प्रशासन था। ऐसे क्षेत्र आंतरिक मामलों में स्वतंत्र थे। पर इन सरदारों को राजा को निश्चित कर और सिपाहियों को दान देना पड़ता था। ये राजा के प्रति निष्ठा के लिए वचनबद्ध भी थे। राजा के प्रति विद्रोह न भड़क उठे, इसकी रक्षा के लिए कभी-कभी राजा सामंती सरदारों के पुत्रों को अपने दरबार में रखता था। इन सरदारों को विशेष अवसरों पर राजा के दरबार में हाज़िर होना पड़ता था और कभी-कभी अपनी पुत्रियों का विवाह राजा अथवा उसके पुत्रों से करना पड़ता था। पर ये सामंती परिवार हमेशा स्वतंत्र होने की आकांक्षा रखते थे और इस कारण उनमें और राजा के बीच युद्ध होना एक आम सी बात थी। इसी प्रकार राष्ट्रकूट राजाओं को वेंगी(आन्ध्र) और कर्नाटक के अपने सामंती सरदारों के साथ कई बार लड़ना पड़ा और प्रतिहारों को मालवा के परमारों और बुदेलखण्ड के चंदेलों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ा।

राज्य के अंग

पाल और प्रतिहार नरेशों का जिन क्षेत्रों पर सीधा अधिकार था वे 'भुक्ति' (प्रान्तों) तथा 'विशय या मंडल' (ज़िलों) में विभक्त थे। प्रान्त के शासकों को 'उपरिक' तथा ज़िला मुख्याधीश को 'विशयपति' कहते थे। उपरिक का कार्य भूमि कर को उगाहना और सेना की मदद से शान्ति और व्यवस्था बनाए रखना था। विशयपति का भी अपने क्षेत्र में यही काम था। हमें यह पता नहीं चल सका है कि विशयपति की नियुक्ति केन्द्रीय सरकार द्वारा होती थी या प्रान्तीय शासकों के द्वारा तथा इसके काम की देखभाल की ज़िम्मेदारी किस पर थी। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ विशयपतियों ने अपने पद को वंशागत बना लिया था। इनके अलावा कई छोटे सरदार भी थे जिन्हें 'सामंत' अथवा 'भोगपति' कहते थे और जो कुछ ग्रामों की देखभाल करते थे। ऐसे ग्रामों की संख्या 84 थी। यद्यपि इससे कम या अधिक भी हो सकती थी। इन सरदारों के पास अपने दरबार थे और ये अपने से बड़े सरदारों और राजाओं की नकल करने की चेष्टा करते थे। विशयपति और उससे छोटे सरदार कई बार आपसी गठबंधन का प्रयत्न करते थे और बाद में दोनों के लिए ही 'सामंत' शब्द का इस्तेमाल किया जाने लगा।

राष्ट्रकूटों के साम्राज्य में उनके द्वारा सीधी प्रशासित भूमि 'राष्ट्र' (प्रान्त), 'विशय' और 'भुक्ति' में विभक्त थी। राष्ट्र के प्रमुख को 'राष्ट्रपति' कहते थे और उसके कार्य वही थे जो पाल और प्रतिहार साम्राज्यों में उपरिक के लिए निर्धारित थे। विशप किसी आधुनिक ज़िले के समान था और भुक्ति उससे छोटा एकांश था। पाल और प्रतिहार साम्राज्यों में विशय से छोटे एकांश को 'पट्टाला' कहा जाता था। इन छोटे एकांशों की कार्य विधि के बारे में पूरा पता नहीं है पर ऐसा लगता है कि इनका मुख्य उद्देश्य लगान वसूल करना तथा शान्ति और व्यवस्था को बनाए रखना रहा होगा। ऐसा लगता है कि सभी अधिकारियों को वेतन के रूप में कर मुक्त भूमि का अनुदान दिया जाता था। इससे उनके तथा वंशागत सरदारों और छोटे सामंतों के बीच अंतर कम हो गया था।

ग्राम प्रशासन

इन क्षेत्रीय इकाइयों के नीचे ग्राम था जो प्रशासन की दृष्टि से मूल इकाई था। गाँव का प्रशासन वहाँ के मुखिया और खजांची के हाथों में था। जिनके पद वंशागत होते थे। मुखिया पर गाँव की शान्ति और व्यवस्था बनाए रखने की ज़िम्मेदारी थी। उसकी सहायता के लिए उसके पास एक स्थानीय सेना भी थी। उसका कार्य आसान नहीं था क्योंकि चोरों और डाकुओं के ख़तरों के अलावा ये मुखिया आपस में लड़ते रहते थे और अपने विरोधी मुखिया के ग्रामों में लूटपाट करते रहते थे। इसी कारण कई ग्रामों में क़िले थे। मुखिया पर यह भी ज़िम्मेदारी थी कि वह पैसों अथवा पदार्थों के रूप में लगान वसूल करे और राजकोष अथवा राज भण्डारे में जमा करे। गाँव की खजांची भूमि के अधिकार और लगान का हिसाब रख कर मुखिया की सहायता करता था। उसे भी वेतन के रूप में कर मुक्त ज़मीन मिलती थी।

कई बार मुखिया की सहायता गाँव के बड़े बुजुर्ग भी करते थे जिन्हें 'ग्राम महाजन' या 'ग्राम महत्तर' कहा जाता था। कहा जाता है कि राष्ट्रकूट साम्राज्य में, विशेषकर कर्नाटक के गाँवों के स्कूलों, तालाबों, मन्दिरों और सड़कों की देखभाल और उनके प्रबन्ध के लिए ग्राम समितियाँ होती थी। उपसमितियाँ मुखियों के साथ सहयोग करती थीं और उन्हें लगान का एक हिस्सा मिलता था। ये समितियाँ वाद-विवाद और झगड़ों के साधारण मामलों का निपटारा भी करती थी। ऐसी ही समितियाँ नगरों में भी थीं और इनमें व्यापार संघों के प्रमुख भी शामिल होते थे। नगर और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में क़ानून और व्यवस्था क़ायम रखने की ज़िम्मेदारी कोष्टपाल अथवा कोतवाल पर थी जिसका हवाला हमें कई कहानियों में मिलता है।

वंशागत कर-अधिकारी

इस युग की एक महत्त्वपूर्ण बात दक्कन में वंशागत कर-अधिकारियों का उदय था। जिन्हें 'नाद-गवुण्ड' अथवा 'देश-ग्रामकूट' कहते हैं। ऐसा लगता है कि उनका कार्य वही था जो बाद में महाराष्ट्र में 'देशमुखों' और 'देशपांडों' के सुपुर्द था। दक्षिण में इन अधिकारियों तथा उत्तर भारत में छोटे सरदारों के विकास से समाज अथवा राजनीति पर बहुत प्रभाव पड़ा। जैसे-जैसे इन वंशागत अधिकारियों के अधिकार बढ़ते गए, ग्राम समितियाँ कमज़ोर पड़ती गईं। केन्द्रीय शासक के लिए उन पर नियंत्रण रखना कठिन हो गया। जब हम सरकार के सामंतवादी होने की चर्चा करते हैं तो हमारा अर्थ इसी प्रक्रिया को इंगित करना होता है।

धार्मिक स्वतंत्रता

इस युग की एक और महत्त्वपूर्ण बात राज्य और धर्म के बीच सम्बन्ध है। इस युग के कई शासक शैव और वैष्णव और कई बौद्ध और जैन धर्म को मानने वाले थे। वे ब्राह्मणों, बौद्ध बिहारों और जैन मन्दिरों को उदारतापूर्वक दान देते थे, लेकिन वे किसी भी व्यक्ति के प्रति उसके धार्मिक विचारों के लिए भेदभाव नहीं रखते थे और सभी मतावलंबियों को संरक्षण प्रदान करते थे। राष्ट्रकूट नरेशों ने भी मुसलमानों तक का स्वागत किया और उन्हें अपने धर्म प्रचार की स्वीकृति दी। साधारणतः कोई भी राजा धर्मशास्त्रों के नियमों तथा अन्य परम्पराओं में हस्तक्षेप नहीं करता था और इन मामलों में वह पुरोहित की सलाह पर चलता था। लेकिन इससे यह नहीं समझा जाना चाहिए कि पुरोहित राज्य के कार्यों में हस्तक्षेप करता था अथवा राजा पर उसका किसी प्रकार का दबाव था। इस युग के धर्मशास्त्रों के महान् व्याख्याकार मेधतिथि का कहना है कि राजा के अधिकार व्यंजित करने वाले स्रोत वेद सहित धर्मशास्त्रों के अलावा 'अर्थशास्त्र' भी है। उसका 'राजधर्म' अर्थशास्त्र में निहित सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए। इसका वास्तविक अर्थ यह था कि राजा को राजनीति और धर्म को बिल्कुल अलग-अलग रखना चाहिए और धर्म को राजा का व्यक्तिगत कर्तव्य समझा जाना चाहिए। इस प्रकार उस युग के शासकों पर न तो पुरोहितों और न ही उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म-क़ानून का कोई प्रभाव था। इस अर्थ में हम कह सकते हैं कि उस युग में राज्य मूलतः धर्म निरपेक्ष थे।

राष्ट्रकूट साम्राज्य का पतन

राष्ट्रकूटों का यह उत्कर्ष देर तक क़ायम नहीं रहा। कृष्ण तृतीय की विजयों का स्वरूप प्रायः वही था, जो यशोधर्मा और हर्षवर्धन की विजयों का था। वह किसी स्थायी साम्राज्य की स्थापना नहीं कर सका। जब तक कृष्ण तृतीय जैसा सुयोग्य और प्रतापी राजा मान्यखेट के राजसिंहासन पर रहा, राष्ट्रकूटों की शक्ति अक्षुण्ण बनी रही। पर उसके मरते ही राष्ट्रकूट साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। कृष्ण तृतीय का उत्तराधिकारी खोट्टिग नित्यवर्ष था। उसके शासन काल में मालवा के परमार राजा सीयक हर्ष (शासन काल 974 ई. पू. तक) ने राष्ट्रकूट राज्य पर आक्रमण किया, और मान्यखेट को बुरी तरह से लूटा। खोट्टिग नित्यवर्ष का उत्तराधिकारी कर्क था। कल्याणी के चालुक्य राजा तैलप द्वितीय ने राष्ट्रकूटों की निर्बलता से लाभ उठाकर कर्क को पराजित किया, और उसके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया। कर्क राष्ट्रकूट वंश का अन्तिम राजा था, और उसके साथ ही इस वंश का भी अन्त हो गया। इसके बाद दक्षिणापथ पर एक बार फिर चालुक्य वंश का आधिपत्य स्थापित हुआ।

इसमें कोई सन्देह नहीं, कि राष्ट्रकूट राजा बड़े प्रतापी थे। उनकी कीर्ति भारत से बाहर भी दूर-दूर तक फैली हुई थी। इसीलिए अनेक अरब यात्रियों ने भी उनका वृत्तान्त लिखा है। 851 में सुलेमान नामक लेखक ने अमोघवर्ष का बग़दाद के ख़लीफ़ा, कोन्स्टेन्टिनोपल के रोमन सम्राट और चीन के सम्राट के समकक्ष बताया था। यह ठीक है, कि गोविन्द तृतीय जैसे राष्ट्रकूट राजाओं की गणना उस युग के सबसे शक्तिशाली सम्राटों में की जाती है। राष्ट्रकूट राजा सिन्ध के अरब शासकों के साथ मैत्री रखते थे, क्योंकि भिन्नमाल और कन्नौज के शक्तिशाली गुर्जर प्रतिहार राजाओं से दोनों को समान रूप से भय था।



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