"नंदकुमार": अवतरणों में अंतर

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*नंदकुमार एक बंगाली फ़ौजदार, जो 1757 ई. में क्लाइव तथा वाटसन द्वारा चन्द्रनगर के फ़्राँसीसियों पर आक्रमण करने के समय हुगली में नियुक्त था।  
'''नंदकुमार''' [[बंगाल]] का एक प्रमुख फ़ौजदार था, जो 1757 ई. में [[रॉबर्ट क्लाइव]] तथा वाटसन द्वारा [[चन्द्रनगर]] के [[फ़्राँसीसी|फ़्राँसीसियों]] पर आक्रमण करने के समय [[हुगली ज़िला|हुगली]] में नियुक्त था। नंदकुमार के अधीन बंगाल के नवाब की एक बड़ी सैन्य टुकड़ी थी, जिसका प्रयोग वह [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के आक्रमण के समय फ़्राँसीसियों की रक्षा के लिए कर सकता था। किन्तु उक्त आक्रमण के पूर्व नंदकुमार अपने अधीनस्थ सैनिकों को लेकर हुगली से दूर चला गया और अंग्रेज़ों ने सरलता से चन्द्रनगर पर अधिकार कर लिया।
*नंदकुमार के अधीन [[बंगाल]] के नवाब की एक बड़ी सैन्य टुकड़ी थी, जिसका प्रयोग वह [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के आक्रमण के समय फ़्राँसीसियों की रक्षा के लिए कर सकता था। किन्तु उक्त आक्रमण के पूर्व नंदकुमार अपने अधीनस्थ सैनिकों को लेकर हुगली से दूर चला गया और अंग्रेज़ों ने सरलता से चन्द्रनगर पर अधिकार कर लिया। "यह स्पष्ट है कि इस प्रकार के आचरण के लिए नंदकुमार को उत्कोच (घूस) दिया गया था।"
==हेस्टिंग्स से मतभेद==
*[[प्लासी युद्ध]] के उपरान्त नंदकुमार नवाब मीर जाफ़र का कृपापात्र बन गया और 1764 ई. में शाहआलम ने नंदकुमार को 'महाराज' की उपाधि प्रदान की। उसी साल [[वारेल हेस्टिंग्स]] को हटाकर नंदकुमार को वर्दमान का कलक्टर नियुक्त कर दिया गया और इस कारण हेस्टिंग्स ने उसे कभी क्षमा नहीं किया।  
यह स्पष्ट है कि इस प्रकार के आचरण के लिए नंदकुमार को 'उत्कोच' (घूस) दिया गया था। [[प्लासी का युद्ध|प्लासी के युद्ध]] के उपरान्त वह नवाब [[मीर ज़ाफ़र]] का कृपापात्र बन गया और 1764 ई. में [[शाहआलम द्वितीय]] ने उसको 'महाराज' की उपाधि प्रदान की। उसी साल [[वारेन हेस्टिंग्स]] को हटाकर नंदकुमार को [[वर्धमान]] का कलक्टर नियुक्त कर दिया गया और इस कारण हेस्टिंग्स ने उसे कभी क्षमा नहीं किया। अगले ही वर्ष नंदकुमार को बंगाल का नायब सूबेदार नियुक्त किया गया, किन्तु शीघ्र ही उसे पदमुक्त करके वहाँ पर मुहम्मद रज़ा ख़ाँ की नियुक्ति कर दी गई। 1772 ई. में तत्कालीन [[गवर्नर-जनरल]] वारेन हेस्टिंग्स ने रज़ा ख़ाँ को हटा दिया तथा नंदकुमार की सहायता से उस पर मुक़दमा भी चलाया। किन्तु आरोप सिद्ध न हो सके और तभी से नंदकुमार और वारेन हेस्टिंग्स में मतभेद हो गया।
*अगले ही वर्ष नंदकुमार को बंगाल का नायब सूबेदार नियुक्त किया गया, किन्तु शीघ्र ही उसे पदमुक्त करके वहाँ पर मुहम्मद रज़ा ख़ाँ की नियुक्ति कर दी गई। 1772 ई. में तत्कालीन गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने रज़ा ख़ाँ को हटा दिया तथा नंदकुमार की सहायता से उस पर मुक़दमा भी चलाया। किन्तु आरोप सिद्ध न हो सके और तभी से नंदकुमार और वारेन हेस्टिंग्स में मतभेद हो गया।  
==भ्रष्टाचार के आरोप==
*[[मार्च]] 1775 ई. में नंदकुमार ने वारेन हेस्टिंग्स के विरुद्ध [[कलकत्ता]] कौंसिल के सम्मुख भ्रष्टाचार एवं घूस के गम्भीर आरोप लगाए, किन्तु दूसरे ही महीने बारबेल नामक कौंसिल के सदस्य ने नंदकुमार के विरुद्ध षड़यंत्र का एक वाद प्रस्तुत कर दिया। ये दोनों वाद विचाराधीन ही थे कि मोहनप्रसाद नाम के एक व्यक्ति ने नंदकुमार के विरुद्ध जालसाज़ी का एक और वाद प्रस्तुत कर दिया। इस अभियोग की सुनवाई [[मई]], 1775 में प्रारम्भ हुई और समस्त कार्यवाही बड़ी ही शीघ्रता से पूर्ण की गई।  
मार्च 1775 ई. में नंदकुमार ने वारेन हेस्टिंग्स के विरुद्ध कलकत्ता कौंसिल के सम्मुख भ्रष्टाचार एवं घूस के गम्भीर आरोप लगाए, किन्तु दूसरे ही महीने बारबेल नामक कौंसिल के सदस्य ने नंदकुमार के विरुद्ध षड़यंत्र का एक वाद प्रस्तुत कर दिया। ये दोनों वाद विचाराधीन ही थे, कि मोहनप्रसाद नाम के एक व्यक्ति ने नंदकुमार के विरुद्ध जालसाज़ी का एक और वाद प्रस्तुत कर दिया। इस अभियोग की सुनवाई मई, 1775 में प्रारम्भ हुई और समस्त कार्रवाई बड़ी ही शीघ्रता से पूर्ण की गई।
*नंदकुमार दोषी सिद्ध किया गया और गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स के मित्र तथा सुप्रीम कोर्ट के जज [[एलिजा इम्पी]] ने उसको फ़ाँसी की सज़ा दी। [[5 अगस्त]], 1775 ई. को नंदकुमार को फ़ाँसी दे दी गई। यद्यपि नंदकुमार सच्चा और तथा निर्दोष देशभक्त न था, तथा जालसाज़ी के आरोप में उसे प्राणदण्ड देना एक प्रकार से न्याय की हत्या करना था।<ref>(पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-216</ref>
==सज़ा एवं मृत्यु==
इन सभी आरोपों में नंदकुमार को दोषी सिद्ध किया गया और गवर्नर-जनरल [[वारेन हेस्टिंग्स]] के मित्र तथा सुप्रीम कोर्ट के जज एलिजा इम्पी ने उसको फ़ाँसी की सज़ा दी। 5 अगस्त, 1775 ई. को नंदकुमार को फ़ाँसी दे दी गई। यद्यपि नंदकुमार सच्चा और तथा निर्दोष देशभक्त न था, तथापि जालसाज़ी के आरोप में उसे प्राणदण्ड दे दिया जाना, एक प्रकार से न्याय की हत्या करना ही था।


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09:02, 10 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

नंदकुमार बंगाल का एक प्रमुख फ़ौजदार था, जो 1757 ई. में रॉबर्ट क्लाइव तथा वाटसन द्वारा चन्द्रनगर के फ़्राँसीसियों पर आक्रमण करने के समय हुगली में नियुक्त था। नंदकुमार के अधीन बंगाल के नवाब की एक बड़ी सैन्य टुकड़ी थी, जिसका प्रयोग वह अंग्रेज़ों के आक्रमण के समय फ़्राँसीसियों की रक्षा के लिए कर सकता था। किन्तु उक्त आक्रमण के पूर्व नंदकुमार अपने अधीनस्थ सैनिकों को लेकर हुगली से दूर चला गया और अंग्रेज़ों ने सरलता से चन्द्रनगर पर अधिकार कर लिया।

हेस्टिंग्स से मतभेद

यह स्पष्ट है कि इस प्रकार के आचरण के लिए नंदकुमार को 'उत्कोच' (घूस) दिया गया था। प्लासी के युद्ध के उपरान्त वह नवाब मीर ज़ाफ़र का कृपापात्र बन गया और 1764 ई. में शाहआलम द्वितीय ने उसको 'महाराज' की उपाधि प्रदान की। उसी साल वारेन हेस्टिंग्स को हटाकर नंदकुमार को वर्धमान का कलक्टर नियुक्त कर दिया गया और इस कारण हेस्टिंग्स ने उसे कभी क्षमा नहीं किया। अगले ही वर्ष नंदकुमार को बंगाल का नायब सूबेदार नियुक्त किया गया, किन्तु शीघ्र ही उसे पदमुक्त करके वहाँ पर मुहम्मद रज़ा ख़ाँ की नियुक्ति कर दी गई। 1772 ई. में तत्कालीन गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने रज़ा ख़ाँ को हटा दिया तथा नंदकुमार की सहायता से उस पर मुक़दमा भी चलाया। किन्तु आरोप सिद्ध न हो सके और तभी से नंदकुमार और वारेन हेस्टिंग्स में मतभेद हो गया।

भ्रष्टाचार के आरोप

मार्च 1775 ई. में नंदकुमार ने वारेन हेस्टिंग्स के विरुद्ध कलकत्ता कौंसिल के सम्मुख भ्रष्टाचार एवं घूस के गम्भीर आरोप लगाए, किन्तु दूसरे ही महीने बारबेल नामक कौंसिल के सदस्य ने नंदकुमार के विरुद्ध षड़यंत्र का एक वाद प्रस्तुत कर दिया। ये दोनों वाद विचाराधीन ही थे, कि मोहनप्रसाद नाम के एक व्यक्ति ने नंदकुमार के विरुद्ध जालसाज़ी का एक और वाद प्रस्तुत कर दिया। इस अभियोग की सुनवाई मई, 1775 में प्रारम्भ हुई और समस्त कार्रवाई बड़ी ही शीघ्रता से पूर्ण की गई।

सज़ा एवं मृत्यु

इन सभी आरोपों में नंदकुमार को दोषी सिद्ध किया गया और गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स के मित्र तथा सुप्रीम कोर्ट के जज एलिजा इम्पी ने उसको फ़ाँसी की सज़ा दी। 5 अगस्त, 1775 ई. को नंदकुमार को फ़ाँसी दे दी गई। यद्यपि नंदकुमार सच्चा और तथा निर्दोष देशभक्त न था, तथापि जालसाज़ी के आरोप में उसे प्राणदण्ड दे दिया जाना, एक प्रकार से न्याय की हत्या करना ही था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय इतिहास कोश |लेखक: सच्चिदानन्द भट्टाचार्य |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 216 |


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