"चन्द्रबली पाण्डेय": अवतरणों में अंतर
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|चित्र का नाम=चन्द्रबली पाण्डेय | |||
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'''चन्द्रबली पाण्डेय''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Chandrabali Pandey'', जन्म-[[25 अप्रॅल]], [[1904]]; मृत्यु- [[24 जनवरी]], [[1958]]) [[हिन्दी भाषा]] और [[साहित्य]] के उन्नयन, संवर्धन और संरक्षण के लिए समर्पित थे। हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति रहने के अतिरिक्त नागरी प्रचारिणी सभा के भी सभापति रहे। इन्होंने अपना पूरा जीवन अध्ययन और हिंदी प्रचार में लगा दिया। हिंदी उर्दू समस्या तथा सूफ़ी साहित्य और दर्शन से सम्बद्ध इनके विचार ऐतिहासिक महत्त्व के हैं। | |||
==जीवन परिचय== | |||
चन्द्रबली पाण्डेय का जन्म 25 अप्रैल, सन 1904 ([[संवत]] 1961) में [[आजमगढ़ ज़िला]], [[उत्तर प्रदेश]] के नसीरुद्दीनपुर नामक [[गाँव]] में हुआ था। वे एक साधारण [[परिवार]] के सरयूपारीण ब्राह्मण थे। चन्द्रबली पाण्डेय के [[पिता]] गाँव में किसान थे और खेतीबाड़ी किया करते थे। पाण्डेय जी ने प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही प्राप्त की थी। '[[काशी हिन्दू विश्वविद्यालय]]' से उन्होंने हिन्दी विषय से एम.ए. उत्तीर्ण किया था। वे उर्दू, फ़ारसी और अरबी के विद्वान् थे। [[हिन्दी]] के साथ [[अंग्रेज़ी]], [[उर्दू]], [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]], [[अरबी भाषा|अरबी]] तथा [[प्राकृत]] भाषाओं के ज्ञाता चन्द्रबली पाण्डेय के सम्बन्ध में भाषा शास्त्री [[डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी]] की यह उक्ति सटीक है कि- "पाण्डेय जी के एक-एक पैंफलेट भी डॉक्टरेट के लिए पर्याप्त हैं।" आजीवन अविवाहित रहकर चन्द्रबली ने हिन्दी की सेवा की थी। अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधा के लिए चन्द्रबली ने कभी चेष्टा नहीं की थी। चन्द्रबली पाण्डेय द्वारा रचित छोटे-बड़े कुल ग्रन्थों की संख्या लगभग 34 है।<ref>{{cite book | last =लीलाधर | first =शर्मा | title =भारतीय चरित कोश | edition = | publisher =शिक्षा भारती | location =भारतडिस्कवरी पुस्तकालय | language =[[हिन्दी]] | pages =265 | chapter = }}</ref> विश्वविद्यालय की परिधि से बाहर रहकर हिन्दी में शोध कार्य करने वालों में इनका प्रमुख स्थान है। | |||
==व्यक्तित्व== | |||
चन्द्रबली पाण्डेय आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे। उनके स्वभाव में सरलता और अक्खड़पन का अद्भुत मेल था। निर्भीकता और सत्यप्रेम इनके निसर्गसिद्ध गुण थे। चन्द्रबली पाण्डेय ने जीवन में कभी पराजय स्वीकार नहीं की थी। अपनी व्यक्तिगत सुख, सुविधा और किसी प्रकार की स्वकीय आवश्यकता के लिए वे कभी यत्नवान नहीं हुए। अभाव, कष्ट और कठिनाइयों को वे नगण्य मानते रहे थे। जीवन का एकमात्र लक्ष्य साहित्य साधना थी। चन्द्रबली पाण्डेय का आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शिष्यों में मूर्धन्य स्थान था। गुरुवर्य का प्रगाढ़ स्नेह इन्हें प्राप्त था। अपने पिता का यही नाम होने के कारण आचार्य शुक्ल इन्हें 'शाह साहब' कहा करते थे। ऐसे योग्य शिष्य की प्राप्ति का शुक्ल जी को गर्व था। | |||
====आज़मगढ़ के विद्या-रत्न==== | |||
[[काशी]] की प्रसिद्ध विद्या-विभूति पं. चंद्रबली पाण्डेय यद्यपि विश्वविद्यालय सेवा से नहीं जुड़े थे, पर विश्वविद्यालय परिसर में ही अपने मित्र मौलवी महेश प्रसाद के साथ रहते थे। बाद में वे डॉ. ज्ञानवती त्रिवेदी के बँगले पर आ गये थे। पं. शान्तिप्रियजी और पं. चंद्रबली पाण्डेय आज़मगढ़ के विद्या रत्न थे और आजमगढ़ के [[राहुल सांकृत्यायन]] को अपने जनपद के पं. चंद्रबली पाण्डेय, पं. लक्ष्मीनारायण मिश्र और पं. शांतिप्रिय द्विवेदी की विद्या-साधना का सहज गर्व था। अपनी जीवन यात्रा में राहुल सांकृत्यायन जी ने अपनी भावना प्रकट की है। हैदराबाद हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पं. चंद्रबली पाण्डेय थे।<ref name="NKNA">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=नेह के नाते अनेक |लेखक=कृष्ण बिहारी मिश्र |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= |संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=17 |url=http://books.google.co.in/books?id=0iytgF7fQAQC&pg=PA18&lpg=PA17&dq=%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A5%80+%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%AF#v=onepage&q=%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A5%80%20%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%AF&f=false नेह के नाते अनेक|ISBN=}} </ref> | |||
====रहने का कबीरी अंदाज़==== | |||
पं. चंद्रबली पाण्डेय [[रामचंद्र शुक्ल|आचार्य रामचंद्र शुक्ल]] के पट्ट शिष्य थे। ब्रह्मचारी शिष्य को शुक्लजी अपने साथ ही रखते थे। पुत्रवत वात्सल्य पोषण देते हुए अंतरंग नैकट्य से शुक्लजी ने पाण्डेय जी के विद्या-व्यक्त्तित्व का आधार रचा था। पाण्डेय जी की हिंदी निष्ठा, लोगों की नज़र, दुराग्रह की सीमा को स्पर्श करती थी। [[हिंदी]] के पक्ष में वे कभी भी किसी से भी लोहा लेने को तैयार रहते थे। उनमें न तो लोकप्रियता की भूख थी और न पद प्रभुता की स्पृहा। इसलिये कबीरी अंदाज़ में किसी अनौचित्य और स्खलन पर तीखी टिप्पणी करते उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता था। विद्या व्यापार को किसी प्रकार की छूट देना उन्हें क़तई मंजूर नहीं था। शुक्लजी उनके ज्ञान के प्रतिमान थे। शुक्लजी के पाठ पर पढ़कर और उसके अंतरंग नैकट्य में रहकर कठोर परिश्रम से उन्होंने विद्या-संस्कार अर्जित किया था। उनका निकष बड़ा कठोर था। इसलिये [[केशव प्रसाद मिश्र]] और [[हजारीप्रसाद द्विवेदी|आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी]] जैसे पण्डितों की निष्पत्तियों पर, विवेक के आग्रह से, प्राय: प्रश्नचिह्न खड़ा करते रहते थे।<ref name="NKNA"/> | |||
==प्रमुख रचनाएँ== | ==प्रमुख रचनाएँ== | ||
पाण्डेय जी की प्रमुख रचनाएँ हैं, जो इस प्रकार है:- | आचार्य चंद्रबली पाण्डेय ने 'तसव्वुफ़ अथवा सूफ़ीमत' नामक पुस्तक लिखी, जो [[हिंदी]] में सूफ़ीमत का पहला क्रमबद्ध अध्ययन है। इस ग्रंथ में सूफ़ीमत का उद्भव, विकास, आस्था, प्रतीक, अध्यात्म साहित्य आदि विषयों पर विस्तार से विचार किया गया है। परिशिष्ट में तसव्वुफ़ का प्रभाव तथा तसव्वुफ़ पर [[भारत]] का प्रभाव, विषयों पर भी अध्ययन किया गया है। किंतु इसमें ईरान और अरब के सूफ़ीमत पर जितना विस्तार से विचार किया गया है उतना भारतीय सूफ़ीमतवाद पर नहीं। [[मलिक मुहम्मद जायसी]] तथा अन्य कवियों पर पाण्डेय जी के अन्य लेख भी नागरी प्रचारिणी पत्रिका में तथा अन्यत्र प्रकाशित हो चुके हैं। नूरमुहम्मद कृत 'अनुराग बांसुरी' में उन्होंने एक भूमिका दी है, जिसमें सूफ़ी कवियों की कुछ विशेषताएँ स्पष्ट की गई हैं।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=मध्ययुगीन प्रेमाख्यान |लेखक=श्याम मनोहर पाण्डेय |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=लोकभारती प्रकाशन |संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या= |url=http://books.google.co.in/books?id=Oe3WzKQiVTQC&pg=PT7&lpg=PT7&dq=%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A5%80+%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%AF&source=bl&ots=-_n1QYMCgl&sig=YRZzkPt2r76DXahiUB2MNaNDviM&hl=en&sa=X&ei=dlD-UOzTEoPwrQfppIDADQ&ved=0CGwQ6AEwDA#v=onepage&q&f=false मध्ययुगीन प्रेमाख्यान|ISBN=}} </ref> पाण्डेय जी की प्रमुख रचनाएँ हैं, जो इस प्रकार है:- | ||
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*शूद्रक | *शूद्रक | ||
*हिन्दी गद्य का निर्माण | *हिन्दी गद्य का निर्माण | ||
==हिंदी के अप्रीतम योद्धा== | |||
[[हिंदी]] के अप्रीतम योद्धा ने हिंदी-विरोधियों से उस समय लोहा लिया, जब हिंदी का सघर्ष [[उर्दू]] और हिंदुस्तानी से था। भाषा का प्रश्न राष्ट्रभाषा का प्रश्न था। भाषा विवाद ने इस प्रश्न को जटिल बनाकर उलझा दिया था। उर्दू भक्त हिंदी को 'हिंदुई' बताकर 'उर्दू' को हिंदुस्तानी बताकर देश में उर्दू का जाल फैला रहे थे। उर्दू समर्थकों की हिंदी-विरोधी नीतियों ने ऐसा वातावरण बुन दिया था, जिसमें अन्य भाषा-भाषी हिंदी को सशंकित दृष्टि से देखने लगे। स्वयं चंद्रबली पाण्डेय के शब्दों में उर्दू के बोलबाले का स्वरूप यों था- 'उर्दू का इतिहास मुँह खोलकर कहता है, हिंदी को उर्दू आती ही नहीं और उर्दू के लोग, उनकी कुछ न पूछिये। उर्दू के विषय में उन्होंने ऐसा जाल फैला रखा है कि बेचारी उर्दू को भी उसका पता नहीं। घर की बोली से लेकर राष्ट्र बोली तक जहाँ देखिये वहाँ उर्दू का नाम लिया जाता है।... उर्दू का कुछ भेद खुला तो हिंदुस्तानी सामने आयी।' | |||
भाषा विवाद के चलते [[हिंदी]] पर बराबर प्रहार हो रहे थे। हिंदी के विकास में उर्दू के हिमायतियों द्वारा तरह-तरह के अवरोध खड़े किये जा रहे थे, तब हिंदी की राह में पड़ने वाले अवरोधों को काटकर हिंदी की उन्नति और हिंदी के विकास का मार्ग प्रशस्त किया चंद्रबली पाण्डेय ने। उनके प्रखर विचारों ने भाषा संबंधी उलझनों को दूर कर हिंदी क्षेत्र को नई स्फूर्ति दी। उनके गम्भीर चिंतन, प्रखर आलोचकीय दृष्टि और आचार्यत्व ने हिंदी और [[हिंदी साहित्य]] को अपने ही ढंग से समृद्ध किया।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिंदी के निर्माता |लेखक=कुमुद शर्मा |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= |संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=281 |url=http://books.google.co.in/books?id=SboWOqY0PL0C&pg=PA281&lpg=PA281&dq=%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%B2%E0%A5%80+%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A5%87%E0%A4%AF&source=bl&ots=2MoCOcXtWr&sig=cNJ3ZGhtU3z8pRj1Vjw8OFaeKy8&hl=en&sa=X&ei=dlD-UOzTEoPwrQfppIDADQ&ved=0CG8Q6AEwDQ#v=onepage&q&f=false हिंदी के निर्माता|ISBN=}} </ref> | |||
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चन्द्रबली पाण्डेय
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पूरा नाम | चन्द्रबली पाण्डेय |
जन्म | 25 अप्रॅल, 1904 |
जन्म भूमि | आज़मगढ़ ज़िला, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 24 जनवरी, 1958 |
पति/पत्नी | आजीवन अविवाहित |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | साहित्यकार |
मुख्य रचनाएँ | 'तसव्वुफ़' अथवा 'सूफ़ीमत', 'उर्दू का रहस्य', 'भाषा का प्रश्न', 'राष्ट्रभाषा पर विचार', 'हिन्दी गद्य का निर्माण' आदि। |
भाषा | हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू, फ़ारसी और अरबी |
विद्यालय | काशी हिन्दू विश्वविद्यालय |
शिक्षा | एम.ए. (हिंदी) |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | चन्द्रबली पाण्डेय द्वारा रचित छोटे-बड़े कुल ग्रन्थों की संख्या लगभग 34 है। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
चन्द्रबली पाण्डेय (अंग्रेज़ी: Chandrabali Pandey, जन्म-25 अप्रॅल, 1904; मृत्यु- 24 जनवरी, 1958) हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नयन, संवर्धन और संरक्षण के लिए समर्पित थे। हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति रहने के अतिरिक्त नागरी प्रचारिणी सभा के भी सभापति रहे। इन्होंने अपना पूरा जीवन अध्ययन और हिंदी प्रचार में लगा दिया। हिंदी उर्दू समस्या तथा सूफ़ी साहित्य और दर्शन से सम्बद्ध इनके विचार ऐतिहासिक महत्त्व के हैं।
जीवन परिचय
चन्द्रबली पाण्डेय का जन्म 25 अप्रैल, सन 1904 (संवत 1961) में आजमगढ़ ज़िला, उत्तर प्रदेश के नसीरुद्दीनपुर नामक गाँव में हुआ था। वे एक साधारण परिवार के सरयूपारीण ब्राह्मण थे। चन्द्रबली पाण्डेय के पिता गाँव में किसान थे और खेतीबाड़ी किया करते थे। पाण्डेय जी ने प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही प्राप्त की थी। 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' से उन्होंने हिन्दी विषय से एम.ए. उत्तीर्ण किया था। वे उर्दू, फ़ारसी और अरबी के विद्वान् थे। हिन्दी के साथ अंग्रेज़ी, उर्दू, फ़ारसी, अरबी तथा प्राकृत भाषाओं के ज्ञाता चन्द्रबली पाण्डेय के सम्बन्ध में भाषा शास्त्री डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी की यह उक्ति सटीक है कि- "पाण्डेय जी के एक-एक पैंफलेट भी डॉक्टरेट के लिए पर्याप्त हैं।" आजीवन अविवाहित रहकर चन्द्रबली ने हिन्दी की सेवा की थी। अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधा के लिए चन्द्रबली ने कभी चेष्टा नहीं की थी। चन्द्रबली पाण्डेय द्वारा रचित छोटे-बड़े कुल ग्रन्थों की संख्या लगभग 34 है।[1] विश्वविद्यालय की परिधि से बाहर रहकर हिन्दी में शोध कार्य करने वालों में इनका प्रमुख स्थान है।
व्यक्तित्व
चन्द्रबली पाण्डेय आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे। उनके स्वभाव में सरलता और अक्खड़पन का अद्भुत मेल था। निर्भीकता और सत्यप्रेम इनके निसर्गसिद्ध गुण थे। चन्द्रबली पाण्डेय ने जीवन में कभी पराजय स्वीकार नहीं की थी। अपनी व्यक्तिगत सुख, सुविधा और किसी प्रकार की स्वकीय आवश्यकता के लिए वे कभी यत्नवान नहीं हुए। अभाव, कष्ट और कठिनाइयों को वे नगण्य मानते रहे थे। जीवन का एकमात्र लक्ष्य साहित्य साधना थी। चन्द्रबली पाण्डेय का आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शिष्यों में मूर्धन्य स्थान था। गुरुवर्य का प्रगाढ़ स्नेह इन्हें प्राप्त था। अपने पिता का यही नाम होने के कारण आचार्य शुक्ल इन्हें 'शाह साहब' कहा करते थे। ऐसे योग्य शिष्य की प्राप्ति का शुक्ल जी को गर्व था।
आज़मगढ़ के विद्या-रत्न
काशी की प्रसिद्ध विद्या-विभूति पं. चंद्रबली पाण्डेय यद्यपि विश्वविद्यालय सेवा से नहीं जुड़े थे, पर विश्वविद्यालय परिसर में ही अपने मित्र मौलवी महेश प्रसाद के साथ रहते थे। बाद में वे डॉ. ज्ञानवती त्रिवेदी के बँगले पर आ गये थे। पं. शान्तिप्रियजी और पं. चंद्रबली पाण्डेय आज़मगढ़ के विद्या रत्न थे और आजमगढ़ के राहुल सांकृत्यायन को अपने जनपद के पं. चंद्रबली पाण्डेय, पं. लक्ष्मीनारायण मिश्र और पं. शांतिप्रिय द्विवेदी की विद्या-साधना का सहज गर्व था। अपनी जीवन यात्रा में राहुल सांकृत्यायन जी ने अपनी भावना प्रकट की है। हैदराबाद हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पं. चंद्रबली पाण्डेय थे।[2]
रहने का कबीरी अंदाज़
पं. चंद्रबली पाण्डेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पट्ट शिष्य थे। ब्रह्मचारी शिष्य को शुक्लजी अपने साथ ही रखते थे। पुत्रवत वात्सल्य पोषण देते हुए अंतरंग नैकट्य से शुक्लजी ने पाण्डेय जी के विद्या-व्यक्त्तित्व का आधार रचा था। पाण्डेय जी की हिंदी निष्ठा, लोगों की नज़र, दुराग्रह की सीमा को स्पर्श करती थी। हिंदी के पक्ष में वे कभी भी किसी से भी लोहा लेने को तैयार रहते थे। उनमें न तो लोकप्रियता की भूख थी और न पद प्रभुता की स्पृहा। इसलिये कबीरी अंदाज़ में किसी अनौचित्य और स्खलन पर तीखी टिप्पणी करते उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता था। विद्या व्यापार को किसी प्रकार की छूट देना उन्हें क़तई मंजूर नहीं था। शुक्लजी उनके ज्ञान के प्रतिमान थे। शुक्लजी के पाठ पर पढ़कर और उसके अंतरंग नैकट्य में रहकर कठोर परिश्रम से उन्होंने विद्या-संस्कार अर्जित किया था। उनका निकष बड़ा कठोर था। इसलिये केशव प्रसाद मिश्र और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे पण्डितों की निष्पत्तियों पर, विवेक के आग्रह से, प्राय: प्रश्नचिह्न खड़ा करते रहते थे।[2]
प्रमुख रचनाएँ
आचार्य चंद्रबली पाण्डेय ने 'तसव्वुफ़ अथवा सूफ़ीमत' नामक पुस्तक लिखी, जो हिंदी में सूफ़ीमत का पहला क्रमबद्ध अध्ययन है। इस ग्रंथ में सूफ़ीमत का उद्भव, विकास, आस्था, प्रतीक, अध्यात्म साहित्य आदि विषयों पर विस्तार से विचार किया गया है। परिशिष्ट में तसव्वुफ़ का प्रभाव तथा तसव्वुफ़ पर भारत का प्रभाव, विषयों पर भी अध्ययन किया गया है। किंतु इसमें ईरान और अरब के सूफ़ीमत पर जितना विस्तार से विचार किया गया है उतना भारतीय सूफ़ीमतवाद पर नहीं। मलिक मुहम्मद जायसी तथा अन्य कवियों पर पाण्डेय जी के अन्य लेख भी नागरी प्रचारिणी पत्रिका में तथा अन्यत्र प्रकाशित हो चुके हैं। नूरमुहम्मद कृत 'अनुराग बांसुरी' में उन्होंने एक भूमिका दी है, जिसमें सूफ़ी कवियों की कुछ विशेषताएँ स्पष्ट की गई हैं।[3] पाण्डेय जी की प्रमुख रचनाएँ हैं, जो इस प्रकार है:-
- उर्दू का रहस्य
- तसव्वुफ़ अथवा सूफ़ीमत
- भाषा का प्रश्न
- राष्ट्रभाषा पर विचार
- कालिदास
- केशवदास
- तुलसीदास
- हिन्दी कवि चर्चा
- शूद्रक
- हिन्दी गद्य का निर्माण
हिंदी के अप्रीतम योद्धा
हिंदी के अप्रीतम योद्धा ने हिंदी-विरोधियों से उस समय लोहा लिया, जब हिंदी का सघर्ष उर्दू और हिंदुस्तानी से था। भाषा का प्रश्न राष्ट्रभाषा का प्रश्न था। भाषा विवाद ने इस प्रश्न को जटिल बनाकर उलझा दिया था। उर्दू भक्त हिंदी को 'हिंदुई' बताकर 'उर्दू' को हिंदुस्तानी बताकर देश में उर्दू का जाल फैला रहे थे। उर्दू समर्थकों की हिंदी-विरोधी नीतियों ने ऐसा वातावरण बुन दिया था, जिसमें अन्य भाषा-भाषी हिंदी को सशंकित दृष्टि से देखने लगे। स्वयं चंद्रबली पाण्डेय के शब्दों में उर्दू के बोलबाले का स्वरूप यों था- 'उर्दू का इतिहास मुँह खोलकर कहता है, हिंदी को उर्दू आती ही नहीं और उर्दू के लोग, उनकी कुछ न पूछिये। उर्दू के विषय में उन्होंने ऐसा जाल फैला रखा है कि बेचारी उर्दू को भी उसका पता नहीं। घर की बोली से लेकर राष्ट्र बोली तक जहाँ देखिये वहाँ उर्दू का नाम लिया जाता है।... उर्दू का कुछ भेद खुला तो हिंदुस्तानी सामने आयी।'
भाषा विवाद के चलते हिंदी पर बराबर प्रहार हो रहे थे। हिंदी के विकास में उर्दू के हिमायतियों द्वारा तरह-तरह के अवरोध खड़े किये जा रहे थे, तब हिंदी की राह में पड़ने वाले अवरोधों को काटकर हिंदी की उन्नति और हिंदी के विकास का मार्ग प्रशस्त किया चंद्रबली पाण्डेय ने। उनके प्रखर विचारों ने भाषा संबंधी उलझनों को दूर कर हिंदी क्षेत्र को नई स्फूर्ति दी। उनके गम्भीर चिंतन, प्रखर आलोचकीय दृष्टि और आचार्यत्व ने हिंदी और हिंदी साहित्य को अपने ही ढंग से समृद्ध किया।[4]
निधन
चन्द्रबली पाण्डेय का निधन 24 जनवरी, 1958 ई. में हो गया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ लीलाधर, शर्मा भारतीय चरित कोश (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: शिक्षा भारती, 265।
- ↑ 2.0 2.1 नेह के नाते अनेक |लेखक: कृष्ण बिहारी मिश्र |पृष्ठ संख्या: 17 |लिंक:- नेह के नाते अनेक
- ↑ मध्ययुगीन प्रेमाख्यान |लेखक: श्याम मनोहर पाण्डेय |प्रकाशक: लोकभारती प्रकाशन |लिंक:- मध्ययुगीन प्रेमाख्यान
- ↑ हिंदी के निर्माता |लेखक: कुमुद शर्मा |पृष्ठ संख्या: 281 |लिंक:- हिंदी के निर्माता
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