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'''सरोजिनी नायडू''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Sarojini Naidu'', जन्म- [[13 फ़रवरी]], [[1879]], [[हैदराबाद]]; मृत्यु- [[2 मार्च]], [[1949]], [[इलाहाबाद]]) सुप्रसिद्ध कवयित्री और [[भारत]] देश के सर्वोत्तम राष्ट्रीय नेताओं में से एक थीं। वह भारत के [[भारतीय स्वतंत्रता संग्राम|स्वाधीनता संग्राम]] में सदैव आगे रहीं। उनके संगी साथी उनसे शक्ति, साहस और ऊर्जा पाते थे। युवा शक्ति को उनसे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती थी। बचपन से ही कुशाग्र-बुद्धि होने के कारण उन्होंने 13 वर्ष की आयु में लेडी ऑफ़ दी लेक नामक कविता रची। वे 1895 में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड गईं और पढ़ाई के साथ-साथ कविताएँ भी लिखती रहीं। गोल्डन थ्रैशोल्ड उनका पहला कविता संग्रह था। उनके दूसरे तथा तीसरे कविता संग्रह बर्ड ऑफ टाइम तथा ब्रोकन विंग ने उन्हें एक सुप्रसिद्ध कवयित्री बना दिया।
<poem>
'श्रम करते हैं हम
कि समुद्र हो तुम्हारी जागृति का क्षण
हो चुका जागरण
अब देखो, निकला दिन कितना उज्ज्वल।'
</poem>
ये पंक्तियाँ सरोजिनी नायडू की एक कविता से हैं, जो उन्होंने अपनी मातृभूमि को सम्बोधित करते हुए लिखी थी।
==जीवन परिचय==
{{Main|सरोजिनी नायडू का जीवन परिचय}}
सरोजिनी नायडू का जन्म [[13 फ़रवरी]], सन् [[1879]] को [[हैदराबाद]] में हुआ था। '''अघोरनाथ चट्टोपाध्याय''' और '''वरदा सुन्दरी''' की आठ संतानों में वह सबसे बड़ी थीं। अघोरनाथ एक वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री थे। वह [[कविता]] भी लिखते थे। माता वरदा सुन्दरी भी कविता लिखती थीं। अपने कवि भाई हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की तरह सरोजिनी को भी अपने माता-पिता से कविता–सृजन की प्रतिभा प्राप्त हुई थी। अघोरनाथ चट्टोपाध्याय 'निज़ाम कॉलेज' के संस्थापक और रसायन वैज्ञानिक थे। वे चाहते थे कि उनकी पुत्री सरोजिनी [[अंग्रेज़ी]] और गणित में निपुण हों।
==साहित्यिक परिचय==
{{Main|सरोजिनी नायडू का साहित्यिक परिचय}}
सरोजिनी नायडू अपनी शिक्षा के दौरान इंग्लैंड में दो साल तक ही रहीं किंतु वहाँ के प्रतिष्ठित साहित्यकारों और मित्रों ने उनकी बहुत प्रशंसा की। उनके मित्र और प्रशंसकों में 'एडमंड गॉस' और 'आर्थर सिमन्स' भी थे। उन्होंने किशोर सरोजिनी को अपनी कविताओं में गम्भीरता लाने की राय दी। वह लगभग बीस वर्ष तक कविताएँ और लेखन कार्य करती रहीं और इस समय में, उनके तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हुए। उनके कविता संग्रह 'बर्ड ऑफ़ टाइम' और 'ब्रोकन विंग' ने उन्हें एक प्रसिद्ध कवयित्री बनवा दिया। सरोजिनी नायडू को भारतीय और [[अंग्रेज़ी साहित्य]] जगत की स्थापित कवयित्री माना जाने लगा था किंतु वह स्वयं को कवि नहीं मानती थीं।
==राजनीतिक जीवन==
{{Main|सरोजिनी नायडू का राजनीतिक जीवन}}
देश की राजनीति में क़दम रखने से पहले सरोजिनी नायडू [[दक्षिण अफ़्रीका]] में गांधी जी के साथ काम कर चुकी थी। [[गांधी जी]] वहाँ की जातीय सरकार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे और सरोजिनी नायडू ने स्वयंसेवक के रूप में उन्हें सहयोग दिया था। [[भारत]] लौटने के बाद तुरन्त ही वह राष्ट्रीय आंदोलन में सम्मिलित हो गई। शुरू से ही वह गांधी जी और [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] के प्रति वफ़ादार रहीं। उन्होंने विद्यार्थी और युवाओं की सभाओं में भाषण दिए। अनेक शहरों और गाँवों में महिलाओं और आम सभाओं को सम्बोधित किया। सरोजिनी नायडू का स्वास्थ्य कभी अच्छा नहीं रहा। लेकिन उनका मनोबल दृढ़ था। युवावस्था में नहीं, बल्कि बड़ी उम्र होने पर भी वह जोश और उत्साह के साथ काम करती रहीं। यह देखकर सब विस्मित रह जाते थे। उनके साथियों और प्रशंसकों को हैरानी होती थी कि इतनी अजेय शक्ति उन्होंने कहाँ से पाई है।
==स्वतंत्रता संग्राम में योगदान==
{{Main|सरोजिनी नायडू का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान}}
[[चित्र:Sarojini-Naidu-Gandhi.jpg|thumb|220px|सरोजिनी नायडू और [[महात्मा गांधी]]]]
वास्तव में सन् [[1930]] के प्रसिद्ध [[नमक सत्याग्रह]] में सरोजिनी नायडू गांधी जी के साथ चलने वाले स्वयंसेवकों में से एक थीं। गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद [[गुजरात]] में धरासणा में लवण-पटल की पिकेटिंग करते हुए जब तक स्वयं गिरफ्तार न हो गईं तब तक वह आंदोलन का संचालन करती रहीं। धरासणा वह स्थान था जहाँ पुलिस ने शान्तिमय और अहिंसक सत्याग्रहियों पर घोर अत्याचार किए थे। सरोजिनी नायडू ने उस परिस्थिति का बड़े साहस के साथ सामना किया और अपने बेजोड़ विनोदी स्वभाव से वातावरण को सजीव बनाये रखा। नमक सत्याग्रह खत्म कर दिया गया। [[गांधी इरविन समझौता|गांधी-इरविन समझौते]] पर गांधी जी और भारत के वाइसराय [[लॉर्ड इरविन]] ने हस्ताक्षर किये। यह एक राजनीतिक समझौता था। बाद में गांधी जी को सन् 1931 में लंदन में होने वाले दूसरे [[गोलमेज सम्मेलन]] में आने के लिए आमंत्रित किया गया। उसमें भारत की स्व-शासन की माँग को ध्यान में रखते हुए संवैधानिक सुधारों पर चर्चा होने वाली थी। उस समय गांधी जी के साथ, सम्मेलन में शामिल होने वाले अनेक लोगों में से सरोजिनी नायडू भी एक थीं। सन् [[1935]] के भारत सरकार के एक्ट ने भारत को कुछ संवैधानिक अधिकार प्रदान किए। लम्बी बहस के बाद, [[कांग्रेस]], देश की प्रांतीय [[विधानसभा|विधानसभाओं]] में प्रवेश करने के लिए तैयार हो गयी। उसने चुनाच लड़े और देश के अधिकतर प्रांतों में अपनी सरकारें बनाई जिन्हें अंतरिम सरकारों का नाम दिया गया।
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==निर्भीक व्यक्तित्व==
{{Main|सरोजिनी नायडू का व्यक्तित्व}}
सरोजिनी नायडू ने भय कभी नहीं जाना था और न ही निराशा कभी उनके समीप आई थी। वह साहस और निर्भीकता का प्रतीक थीं। [[पंजाब]] में सन् [[1919]] में [[जलियाँवाला बाग़|जलियांवाला बाग]] में हुए हत्याकांड के बारे में कौन नहीं जानता होगा। आम सभाओं पर [[जनरल डायर]] के द्वारा लगाय गए प्रतिबंध के विरोध में जमा हुए सैकड़ों नर-नारियों की निर्दयता से हत्या कर दी गई थी। वैसे भी [[रॉलेट एक्ट]] के पारित होने से देश में पहले से ही काफ़ी तनाव था। इस एक्ट ने न्यायाधीश को राजनीतिक मुक़दमों को बिना किसी पैरवी के फैसला करने और बिना किसी क़ानूनी कार्रवाई के संदिग्ध राजनीतिज्ञों को जेल में डालने की छूट दे दी थी। जलियांवाला हत्याकांड को लेकर समस्त देश में क्रोध भड़क उठा। उस पाशविक अत्याचार की [[रबीन्द्रनाथ ठाकुर|गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर]] के मन में उग्र प्रतिक्रिया हुई और उन्होंने अपनी 'नाइट हुड' की पदवी लौटा दी। सरोजिनी नायडू ने भी अपना 'कैसर-ए-हिन्द' का ख़िताब वापस कर दिया जो उन्हें सामाजिक सेवाओं के लिय कुछ समय पहले ही दिया गया था। [[अहमदाबाद]] में गांधी जी के [[साबरमती आश्रम]] में स्वाधीनता की प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करने वाले आरम्भिक स्वयं सेवकों में वह एक थीं।
गांधीजी शुरू में यह नहीं चाहते थे कि महिलाएँ सत्याग्रह में सक्रिय रूप से भाग लें। उनकी प्रवृत्तियों को गांधी जी कताई, स्वदेशी, शराब की दुकानों पर धरना आदि तक सीमित रखना चाहते थे। लेकिन सरोजिनी नायडू, [[कमला देवी चट्टोपाध्याय]] और उस समय की देश की प्रमुख महिलाओं के आग्रह को देखते हुए उन्हें अपनी राय बदल देनी पड़ी।
==स्मृति में डाक टिकट==
[[चित्र:Sarojini-Naidu-Stamp.jpg|thumb|200px|सरोजिनी नायडू के सम्मान में जारी [[डाक टिकट]]]]
[[13 फ़रवरी]], [[1964]] को भारत सरकार ने उनकी जयंती के अवसर पर उनके सम्मान में 15 नए पैसे का [[डाक टिकट]] भी चलाया। इस महान् देशभक्त को देश ने बहुत सम्मान दिया। सरोजिनी नायडू को विशेषत: 'भारत कोकिला', 'राष्ट्रीय नेता' और 'नारी मुक्ति आन्दोलन की समर्थक' के रूप में सदैव याद किया जाता रहेगा।
==मृत्यु==
सरोजिनी नायडू की जब [[2 मार्च]] सन् [[1949]] को मृत्यु हुई तो उस समय वह [[राज्यपाल]] के पद पर ही थीं। लेकिन उस दिन मृत्यु तो केवल देह की हुई थी। अपनी एक कविता में उन्होंने मृत्यु को कुछ देर के लिए ठहर जाने को कहा था.....
<blockquote><poem>
मेरे जीवन की क्षुधा, नहीं मिटेगी जब तक
मत आना हे मृत्यु, कभी तुम मुझ तक।
</poem></blockquote>
उनका जीवन लाभदायक और परिपूर्ण था। उस जीवन से उन्हें आत्मसंतुष्टि प्राप्त हुई थी या नहीं यह तो कोई नहीं बता सकता लेकिन जितना उनके जीवन के बारे में जानते हैं उससे इतना तो ज़रूर कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने जीवन को एक उद्देश्य दिया था और उसी के अनुरूप वह जीती रही थीं। ऐसा जीवन बहुत लोगों को नसीब नहीं होता। 'गीत के विषाद से जीवन का विषाद' मिटा देने के लिए वह प्रयास करती रहीं। उसी तरह उन्होंने जीवन बिताया। आने वाली पीढ़ियाँ इसी रूप में उन्हें याद करती रहेंगी। उन्हें याद रखने का यही एक ढंग है- 'सरोजिनी नायडू जो प्रेम और गीत के लिए जीती रहीं।' जैसा [[गांधी जी]] ने कहा था, सच्चे अर्थों में वह 'भारत कोकिला' थीं। 
 
 
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक= |माध्यमिक=माध्यमिक2 |पूर्णता= |शोध= }}
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://www.poetseers.org/the_great_poets/in/sarojini_naidu/ सरोजिनी नायडू की जीवनी और कविताएं]
*[http://www.rediff.com/freedom/19let1.htm सरोजिनी नायडू द्वारा लिखे पत्र]
*[http://www.britannica.com/EBchecked/topic/401841/Sarojini-Naidu Sarojini Naidu]
*[http://books.google.co.in/books?id=h6v8HsRUBucC&lpg=PP1&dq=sarojini%20naidu&pg=PP1#v=onepage&q&f=false Sarojini Naidu books]
 
==संबंधित लेख==
{{भारत के कवि}}{{स्वतन्त्रता सेनानी}}
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सरोजिनी नायडू विषय सूची
सरोजिनी नायडू
सरोजिनी नायडू
सरोजिनी नायडू
पूरा नाम सरोजिनी नायडू
अन्य नाम भारत कोकिला
जन्म 13 फ़रवरी, 1879
जन्म भूमि हैदराबाद, आंध्र प्रदेश
मृत्यु 2 मार्च, 1949
मृत्यु स्थान इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
अभिभावक अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एवं वरदा सुन्दरी
पति/पत्नी डॉ. एम. गोविंदराजलु नायडू
संतान जयसूर्य, पद्मजा नायडू, रणधीर और लीलामणि
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि राष्ट्रीय नेता, कांग्रेस अध्यक्ष
पार्टी कांग्रेस
पद प्रथम राज्यपाल (उत्तर प्रदेश)
विद्यालय मद्रास विश्वविद्यालय, किंग्ज़ कॉलेज लंदन, गर्टन कॉलेज, कैम्ब्रिज
भाषा अंग्रेज़ी, हिन्दी, बंगला और गुजराती
पुरस्कार-उपाधि केसर-ए-हिन्द
विशेष योगदान नारी-मुक्ति की समर्थक
रचनाएँ द गोल्डन थ्रेशहोल्ड, बर्ड आफ टाइम, ब्रोकन विंग
अन्य जानकारी लगभग 13 वर्ष की आयु में सरोजिनी ने 1300 पदों की 'झील की रानी' नामक लंबी कविता और लगभग 2000 पंक्तियों का एक विस्तृत नाटक लिखकर अंग्रेज़ी भाषा पर अपना अधिकार सिद्ध कर दिया।
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सरोजिनी नायडू (अंग्रेज़ी: Sarojini Naidu, जन्म- 13 फ़रवरी, 1879, हैदराबाद; मृत्यु- 2 मार्च, 1949, इलाहाबाद) सुप्रसिद्ध कवयित्री और भारत देश के सर्वोत्तम राष्ट्रीय नेताओं में से एक थीं। वह भारत के स्वाधीनता संग्राम में सदैव आगे रहीं। उनके संगी साथी उनसे शक्ति, साहस और ऊर्जा पाते थे। युवा शक्ति को उनसे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती थी। बचपन से ही कुशाग्र-बुद्धि होने के कारण उन्होंने 13 वर्ष की आयु में लेडी ऑफ़ दी लेक नामक कविता रची। वे 1895 में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड गईं और पढ़ाई के साथ-साथ कविताएँ भी लिखती रहीं। गोल्डन थ्रैशोल्ड उनका पहला कविता संग्रह था। उनके दूसरे तथा तीसरे कविता संग्रह बर्ड ऑफ टाइम तथा ब्रोकन विंग ने उन्हें एक सुप्रसिद्ध कवयित्री बना दिया।

'श्रम करते हैं हम
कि समुद्र हो तुम्हारी जागृति का क्षण
हो चुका जागरण
अब देखो, निकला दिन कितना उज्ज्वल।'

ये पंक्तियाँ सरोजिनी नायडू की एक कविता से हैं, जो उन्होंने अपनी मातृभूमि को सम्बोधित करते हुए लिखी थी।

जीवन परिचय

सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फ़रवरी, सन् 1879 को हैदराबाद में हुआ था। अघोरनाथ चट्टोपाध्याय और वरदा सुन्दरी की आठ संतानों में वह सबसे बड़ी थीं। अघोरनाथ एक वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री थे। वह कविता भी लिखते थे। माता वरदा सुन्दरी भी कविता लिखती थीं। अपने कवि भाई हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की तरह सरोजिनी को भी अपने माता-पिता से कविता–सृजन की प्रतिभा प्राप्त हुई थी। अघोरनाथ चट्टोपाध्याय 'निज़ाम कॉलेज' के संस्थापक और रसायन वैज्ञानिक थे। वे चाहते थे कि उनकी पुत्री सरोजिनी अंग्रेज़ी और गणित में निपुण हों।

साहित्यिक परिचय

सरोजिनी नायडू अपनी शिक्षा के दौरान इंग्लैंड में दो साल तक ही रहीं किंतु वहाँ के प्रतिष्ठित साहित्यकारों और मित्रों ने उनकी बहुत प्रशंसा की। उनके मित्र और प्रशंसकों में 'एडमंड गॉस' और 'आर्थर सिमन्स' भी थे। उन्होंने किशोर सरोजिनी को अपनी कविताओं में गम्भीरता लाने की राय दी। वह लगभग बीस वर्ष तक कविताएँ और लेखन कार्य करती रहीं और इस समय में, उनके तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हुए। उनके कविता संग्रह 'बर्ड ऑफ़ टाइम' और 'ब्रोकन विंग' ने उन्हें एक प्रसिद्ध कवयित्री बनवा दिया। सरोजिनी नायडू को भारतीय और अंग्रेज़ी साहित्य जगत की स्थापित कवयित्री माना जाने लगा था किंतु वह स्वयं को कवि नहीं मानती थीं।

राजनीतिक जीवन

देश की राजनीति में क़दम रखने से पहले सरोजिनी नायडू दक्षिण अफ़्रीका में गांधी जी के साथ काम कर चुकी थी। गांधी जी वहाँ की जातीय सरकार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे और सरोजिनी नायडू ने स्वयंसेवक के रूप में उन्हें सहयोग दिया था। भारत लौटने के बाद तुरन्त ही वह राष्ट्रीय आंदोलन में सम्मिलित हो गई। शुरू से ही वह गांधी जी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति वफ़ादार रहीं। उन्होंने विद्यार्थी और युवाओं की सभाओं में भाषण दिए। अनेक शहरों और गाँवों में महिलाओं और आम सभाओं को सम्बोधित किया। सरोजिनी नायडू का स्वास्थ्य कभी अच्छा नहीं रहा। लेकिन उनका मनोबल दृढ़ था। युवावस्था में नहीं, बल्कि बड़ी उम्र होने पर भी वह जोश और उत्साह के साथ काम करती रहीं। यह देखकर सब विस्मित रह जाते थे। उनके साथियों और प्रशंसकों को हैरानी होती थी कि इतनी अजेय शक्ति उन्होंने कहाँ से पाई है।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

सरोजिनी नायडू और महात्मा गांधी

वास्तव में सन् 1930 के प्रसिद्ध नमक सत्याग्रह में सरोजिनी नायडू गांधी जी के साथ चलने वाले स्वयंसेवकों में से एक थीं। गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद गुजरात में धरासणा में लवण-पटल की पिकेटिंग करते हुए जब तक स्वयं गिरफ्तार न हो गईं तब तक वह आंदोलन का संचालन करती रहीं। धरासणा वह स्थान था जहाँ पुलिस ने शान्तिमय और अहिंसक सत्याग्रहियों पर घोर अत्याचार किए थे। सरोजिनी नायडू ने उस परिस्थिति का बड़े साहस के साथ सामना किया और अपने बेजोड़ विनोदी स्वभाव से वातावरण को सजीव बनाये रखा। नमक सत्याग्रह खत्म कर दिया गया। गांधी-इरविन समझौते पर गांधी जी और भारत के वाइसराय लॉर्ड इरविन ने हस्ताक्षर किये। यह एक राजनीतिक समझौता था। बाद में गांधी जी को सन् 1931 में लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में आने के लिए आमंत्रित किया गया। उसमें भारत की स्व-शासन की माँग को ध्यान में रखते हुए संवैधानिक सुधारों पर चर्चा होने वाली थी। उस समय गांधी जी के साथ, सम्मेलन में शामिल होने वाले अनेक लोगों में से सरोजिनी नायडू भी एक थीं। सन् 1935 के भारत सरकार के एक्ट ने भारत को कुछ संवैधानिक अधिकार प्रदान किए। लम्बी बहस के बाद, कांग्रेस, देश की प्रांतीय विधानसभाओं में प्रवेश करने के लिए तैयार हो गयी। उसने चुनाच लड़े और देश के अधिकतर प्रांतों में अपनी सरकारें बनाई जिन्हें अंतरिम सरकारों का नाम दिया गया।

सरोजिनी नायडू का यह मानना था कि भारतीय नारी कभी भी कृपा की पात्र नहीं थी, वह सदैव से समानता की अधिकारी रही हैं। उन्होंने अपने इन विचारों के साथ महिलाओं में आत्मविश्वास जाग्रत करने का काम किया।

निर्भीक व्यक्तित्व

सरोजिनी नायडू ने भय कभी नहीं जाना था और न ही निराशा कभी उनके समीप आई थी। वह साहस और निर्भीकता का प्रतीक थीं। पंजाब में सन् 1919 में जलियांवाला बाग में हुए हत्याकांड के बारे में कौन नहीं जानता होगा। आम सभाओं पर जनरल डायर के द्वारा लगाय गए प्रतिबंध के विरोध में जमा हुए सैकड़ों नर-नारियों की निर्दयता से हत्या कर दी गई थी। वैसे भी रॉलेट एक्ट के पारित होने से देश में पहले से ही काफ़ी तनाव था। इस एक्ट ने न्यायाधीश को राजनीतिक मुक़दमों को बिना किसी पैरवी के फैसला करने और बिना किसी क़ानूनी कार्रवाई के संदिग्ध राजनीतिज्ञों को जेल में डालने की छूट दे दी थी। जलियांवाला हत्याकांड को लेकर समस्त देश में क्रोध भड़क उठा। उस पाशविक अत्याचार की गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के मन में उग्र प्रतिक्रिया हुई और उन्होंने अपनी 'नाइट हुड' की पदवी लौटा दी। सरोजिनी नायडू ने भी अपना 'कैसर-ए-हिन्द' का ख़िताब वापस कर दिया जो उन्हें सामाजिक सेवाओं के लिय कुछ समय पहले ही दिया गया था। अहमदाबाद में गांधी जी के साबरमती आश्रम में स्वाधीनता की प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करने वाले आरम्भिक स्वयं सेवकों में वह एक थीं। गांधीजी शुरू में यह नहीं चाहते थे कि महिलाएँ सत्याग्रह में सक्रिय रूप से भाग लें। उनकी प्रवृत्तियों को गांधी जी कताई, स्वदेशी, शराब की दुकानों पर धरना आदि तक सीमित रखना चाहते थे। लेकिन सरोजिनी नायडू, कमला देवी चट्टोपाध्याय और उस समय की देश की प्रमुख महिलाओं के आग्रह को देखते हुए उन्हें अपनी राय बदल देनी पड़ी।

स्मृति में डाक टिकट

सरोजिनी नायडू के सम्मान में जारी डाक टिकट

13 फ़रवरी, 1964 को भारत सरकार ने उनकी जयंती के अवसर पर उनके सम्मान में 15 नए पैसे का डाक टिकट भी चलाया। इस महान् देशभक्त को देश ने बहुत सम्मान दिया। सरोजिनी नायडू को विशेषत: 'भारत कोकिला', 'राष्ट्रीय नेता' और 'नारी मुक्ति आन्दोलन की समर्थक' के रूप में सदैव याद किया जाता रहेगा।

मृत्यु

सरोजिनी नायडू की जब 2 मार्च सन् 1949 को मृत्यु हुई तो उस समय वह राज्यपाल के पद पर ही थीं। लेकिन उस दिन मृत्यु तो केवल देह की हुई थी। अपनी एक कविता में उन्होंने मृत्यु को कुछ देर के लिए ठहर जाने को कहा था.....

मेरे जीवन की क्षुधा, नहीं मिटेगी जब तक
मत आना हे मृत्यु, कभी तुम मुझ तक।

उनका जीवन लाभदायक और परिपूर्ण था। उस जीवन से उन्हें आत्मसंतुष्टि प्राप्त हुई थी या नहीं यह तो कोई नहीं बता सकता लेकिन जितना उनके जीवन के बारे में जानते हैं उससे इतना तो ज़रूर कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने जीवन को एक उद्देश्य दिया था और उसी के अनुरूप वह जीती रही थीं। ऐसा जीवन बहुत लोगों को नसीब नहीं होता। 'गीत के विषाद से जीवन का विषाद' मिटा देने के लिए वह प्रयास करती रहीं। उसी तरह उन्होंने जीवन बिताया। आने वाली पीढ़ियाँ इसी रूप में उन्हें याद करती रहेंगी। उन्हें याद रखने का यही एक ढंग है- 'सरोजिनी नायडू जो प्रेम और गीत के लिए जीती रहीं।' जैसा गांधी जी ने कहा था, सच्चे अर्थों में वह 'भारत कोकिला' थीं।


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संबंधित लेख

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