"जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ": अवतरणों में अंतर
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*ये दोनों ही आचार्य उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंश पत्र्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रसिद्ध हुआ है। | *ये दोनों ही आचार्य उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंश पत्र्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रसिद्ध हुआ है। | ||
जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण [[जयधवल टीका]] लिखी है। आचार्य वीरसेन स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। | जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण [[जयधवल टीका]] लिखी है। आचार्य वीरसेन स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। | ||
*संस्कृत महाकाव्य जगत् में इनका यह 'पार्श्वाभ्युदयमहाकाव्य' एक | *संस्कृत महाकाव्य जगत् में इनका यह 'पार्श्वाभ्युदयमहाकाव्य' एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसमें समस्यापूर्ति के रूप में महाकवि [[कालिदास]] के समग्र मेघदूत को बड़ी कुशलता से समाहित करके 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चरित्र चित्रण किया गया है और अपनी विलक्षण प्रतिभा का दिग्दर्शन किया गया है। | ||
*पुराणजगत में आचार्य जिनसेन का आदिपुराण और उनके साक्षात् शिष्य आचार्य गुणभद्र का उत्तरपुराण-ये दोनों अत्यन्त प्रसिद्ध पुराण-ग्रन्थ हैं। गुणभद्र की अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों में आत्मानुशासन और जिनदत्तचरित्र विशेष उल्लेखनीय एवं विश्रुत हैं। | *पुराणजगत में आचार्य जिनसेन का आदिपुराण और उनके साक्षात् शिष्य आचार्य गुणभद्र का उत्तरपुराण-ये दोनों अत्यन्त प्रसिद्ध पुराण-ग्रन्थ हैं। गुणभद्र की अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों में आत्मानुशासन और जिनदत्तचरित्र विशेष उल्लेखनीय एवं विश्रुत हैं। | ||
'''हरिवंशपुराण''' | '''हरिवंशपुराण''' | ||
आदिपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन से भिन्न पुन्नाटसंघीय आचार्य जिनसेन का | आदिपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन से भिन्न पुन्नाटसंघीय आचार्य जिनसेन का '[[हरिवंशपुराण]]' [[दिगम्बर सम्प्रदाय]] के कथा साहित्य में अपना प्रमुख स्थान रखता है। यह विषय-विवेचना की अपेक्षा तो विशेषता रखता ही है, प्राचीनता की अपेक्षा भी संस्कृत कथाग्रन्थों में इसका तीसरा स्थान ठहरता है। पहला रविषेणाचार्य का पद्मपुराण, दूसरा जटासिंहनन्दि का वरांगचरित और तीसरा जिनसेन का यह हरिवंशपुराण है। हरिवंशपुराण और महापुराण दोनों को देखने के बाद ऐसा लगता है कि महापुराणकार ने हरिवंशपुराण को देखने के बाद उसकी रचना की है। हरिवंशपुराण में तीन लोकों का, संगीत का तथा व्रत विधान आदि का जो बीच-बीच में विराट वर्णन किया गया है उससे कथा के सौन्दर्य की हानि हुई है। इसलिये महापुराण में उन सबके विस्तृत वर्णन को छोड़कर प्रसंगोपात्त संक्षिप्त ही वर्णन किया गया है। काव्योचित भाषा तथा अलंकार की विच्छित्ति भी हरिवंश की अपेक्षा महापुराण में अत्यन्त परिष्कृत है। | ||
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हरिवंशपुराण की रचना का प्रारम्भ वर्धमानपुर में हुआ और समाप्ति दोस्तटिका के शान्तिनाथ ज़िलालय में हुआ। यह वर्द्धमानपुर सौराष्ट्र का प्रसिद्ध शहर वडवाण जान पड़ता है। वडवाण से गिरिनगर को जानेवाले मार्ग में 'दोत्ताडि' स्थान है। वही 'दोस्ताडिका' है। हरिवंशपुराण के 66वें सर्ग के 52 और 53 श्लोक में कहा गया है कि शक-संवत् 705 में, जब कि उत्तर दिशा की इन्द्रायुध, दक्षिण दिशा की कृष्ण का पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्व की अवन्तिराज वत्सराज और पश्चिम की वीर जयवराह रक्षा करता था तब अनेक कल्याणों अथवा पुर के पार्श्वजिनालय में जो कि नन्नराज वसति के नाम से प्रसिद्ध था, यह ग्रन्थ पहले प्रारम्भ किया गया और पीछे चलकर दोस्तटिका की प्रजा के द्वारा उत्पादित प्रकृष्ट पूजा से युक्त शान्तिजिनेन्द्र के शान्तिपूर्ण गृह मन्दिर में रचा गया। | हरिवंशपुराण की रचना का प्रारम्भ [[वर्धमानपुर]] में हुआ और समाप्ति दोस्तटिका के शान्तिनाथ ज़िलालय में हुआ। यह वर्द्धमानपुर सौराष्ट्र का प्रसिद्ध शहर वडवाण जान पड़ता है। वडवाण से गिरिनगर को जानेवाले मार्ग में 'दोत्ताडि' स्थान है। वही 'दोस्ताडिका' है। हरिवंशपुराण के 66वें सर्ग के 52 और 53 श्लोक में कहा गया है कि शक-संवत् 705 में, जब कि उत्तर दिशा की इन्द्रायुध, दक्षिण दिशा की कृष्ण का पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्व की अवन्तिराज वत्सराज और पश्चिम की वीर जयवराह रक्षा करता था तब अनेक कल्याणों अथवा पुर के पार्श्वजिनालय में जो कि नन्नराज वसति के नाम से प्रसिद्ध था, यह ग्रन्थ पहले प्रारम्भ किया गया और पीछे चलकर दोस्तटिका की प्रजा के द्वारा उत्पादित प्रकृष्ट पूजा से युक्त शान्तिजिनेन्द्र के शान्तिपूर्ण गृह मन्दिर में रचा गया। | ||
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संस्कृत-साहित्य, सागर के समान विशाल है। जिस प्रकार सागर के भीतर अगणित रत्न विद्यमान हैं उसी प्रकार संस्कृत साहित्य सागर में पुराण, काव्य, न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त, दर्शन, नाटक, ज्योतिष और आयुर्वेद आदि रत्न विद्यमान हैं। प्राचीन संस्कृत-साहित्य में ऐसा कोई विषय नहीं हैं, जिस पर किसी ने कुछ न लिखा हो। वैदिक संस्कृत साहित्य तो विशालतम है ही, परन्तु जैन संस्कृत-साहित्य भी उसके अनुपात में अल्प प्रमाण होने पर भी उच्च कोटि का है। [[जैन साहित्य]] की प्रमुख विशेषता यह है कि उसमें वस्तु स्वरूप का वर्णन काल्पनिक नहीं है और इसीलिये वह प्राणी मात्र का कल्याणकारी है। | संस्कृत-साहित्य, सागर के समान विशाल है। जिस प्रकार सागर के भीतर अगणित रत्न विद्यमान हैं उसी प्रकार संस्कृत साहित्य सागर में पुराण, काव्य, न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त, दर्शन, नाटक, ज्योतिष और आयुर्वेद आदि रत्न विद्यमान हैं। प्राचीन संस्कृत-साहित्य में ऐसा कोई विषय नहीं हैं, जिस पर किसी ने कुछ न लिखा हो। वैदिक संस्कृत साहित्य तो विशालतम है ही, परन्तु जैन संस्कृत-साहित्य भी उसके अनुपात में अल्प प्रमाण होने पर भी उच्च कोटि का है। [[जैन साहित्य]] की प्रमुख विशेषता यह है कि उसमें वस्तु स्वरूप का वर्णन काल्पनिक नहीं है और इसीलिये वह प्राणी मात्र का कल्याणकारी है। | ||
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इस प्रकार उपलब्ध शौरसेनी प्राकृत एवं संस्कृतभाषा निबद्ध कर्मसाहित्य के ग्रन्थों का परिचयात्मक इतिहास लिखा गया, इनमें दिगम्बर जैन परम्परा के ग्रंथों का ही परिचय दिया जा सका। श्वेताम्बर परम्परा में भी कर्म ग्रन्थ आदि के रूप में कर्मसिद्धान्त विषयक विपुल साहित्य उपलब्ध है। | इस प्रकार उपलब्ध शौरसेनी प्राकृत एवं संस्कृतभाषा निबद्ध कर्मसाहित्य के ग्रन्थों का परिचयात्मक इतिहास लिखा गया, इनमें [[दिगम्बर|दिगम्बर जैन]] परम्परा के ग्रंथों का ही परिचय दिया जा सका। [[श्वेताम्बर]] परम्परा में भी कर्म ग्रन्थ आदि के रूप में कर्मसिद्धान्त विषयक विपुल साहित्य उपलब्ध है। | ||
इस तरह हम मूल्यांकन करें तो पाते हैं कि जैन मनीषियों ने कर्मसाहिथ्य को ही संस्कृत भाषा में नहीं लिखा अपितु सिद्धान्त, दर्शन, न्याय, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, काव्य आदि विषयों का विवेचन भी लोकप्रिय संस्कृत भाषा में निरूपण किया है या यों कहना चाहिए कि इन विषयों का निरूपण संस्कृत में ही किया गया है। उदाहरण के लिए तत्त्वार्थसूत्र (गृद्धपिच्छाचार्य), तत्त्वार्थसार (अमृतचन्द्र), तत्त्वार्थवार्तिक ([[अकलंकदेव]]), तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरसूरि), तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-भाष्य ([[विद्यानन्द]]), अष्टसहस्री (विद्यानन्द), पत्रपरीक्षा (विद्यानंद), सत्यशासनपरीक्षा (आ0 विद्यानन्द), तत्त्वार्थभाष्य (उमास्वामि), तत्त्वार्थवृत्ति (सिद्धर्षिगणी) आदि सहस्रों ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखें गये हैं। जैन परम्परा का संस्कृत वाङमय विशाल और अटूट है। और यह सच है कि कोई भी भाषा, जब वह लोकप्रिय हो जाती है, तब वह सभी के लिए आदरणीय एवं ग्राह्य हो जाती है। | इस तरह हम मूल्यांकन करें तो पाते हैं कि जैन मनीषियों ने कर्मसाहिथ्य को ही संस्कृत भाषा में नहीं लिखा अपितु सिद्धान्त, दर्शन, न्याय, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, काव्य आदि विषयों का विवेचन भी लोकप्रिय संस्कृत भाषा में निरूपण किया है या यों कहना चाहिए कि इन विषयों का निरूपण संस्कृत में ही किया गया है। उदाहरण के लिए तत्त्वार्थसूत्र (गृद्धपिच्छाचार्य), तत्त्वार्थसार (अमृतचन्द्र), तत्त्वार्थवार्तिक ([[अकलंकदेव]]), तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरसूरि), तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-भाष्य ([[विद्यानन्द]]), अष्टसहस्री (विद्यानन्द), पत्रपरीक्षा (विद्यानंद), सत्यशासनपरीक्षा (आ0 विद्यानन्द), तत्त्वार्थभाष्य (उमास्वामि), तत्त्वार्थवृत्ति (सिद्धर्षिगणी) आदि सहस्रों ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखें गये हैं। जैन परम्परा का संस्कृत वाङमय विशाल और अटूट है। और यह सच है कि कोई भी भाषा, जब वह लोकप्रिय हो जाती है, तब वह सभी के लिए आदरणीय एवं ग्राह्य हो जाती है। | ||
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आचार्य जिनसेन और गुणभद्र : एक परिचय
- ये दोनों ही आचार्य उस पंचस्तूप नामक अन्वय में हुए हैं जो आगे चलकर सेनान्वय का सेनसंघ के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जिनसेन स्वामी के गुरु वीरसेन ने भी अपना वंश पत्र्चस्तूपान्वय ही लिखा है। परन्तु गुणभद्राचार्य ने सेनान्वय लिखा है। इन्द्रानन्दी ने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि जो मुनि पंचस्तूप निवास से आये उनमें से किन्हीं को सेन और किन्हीं को भद्र नाम दिया गया। तथा कोई आचार्य ऐसा भी कहते हैं कि जो गुहाओं से आये उन्हें नन्दी, जो अशोक वन से आये उन्हें देव और जो पंचस्तूप से आये उन्हें सेन नाम दिया गया। श्रुतावतार के उक्त उल्लेख से प्रतीत होता है कि सेनान्त और भद्रान्त नाम वाले मुनियों का समूह ही आगे चलकर सेनान्वय या सेना संघ से प्रसिद्ध हुआ है।
जिनसेनाचार्य सिद्धान्तशास्त्रों के महान् ज्ञाता थे। इन्होंने कषायप्राभृत पर 40 हज़ार श्लोक प्रमाण जयधवल टीका लिखी है। आचार्य वीरसेन स्वामी उस पर 20 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिख पाये थे और वे दिवंगत हो गये थे। तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने 40 हज़ार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया।
- संस्कृत महाकाव्य जगत् में इनका यह 'पार्श्वाभ्युदयमहाकाव्य' एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसमें समस्यापूर्ति के रूप में महाकवि कालिदास के समग्र मेघदूत को बड़ी कुशलता से समाहित करके 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का चरित्र चित्रण किया गया है और अपनी विलक्षण प्रतिभा का दिग्दर्शन किया गया है।
- पुराणजगत में आचार्य जिनसेन का आदिपुराण और उनके साक्षात् शिष्य आचार्य गुणभद्र का उत्तरपुराण-ये दोनों अत्यन्त प्रसिद्ध पुराण-ग्रन्थ हैं। गुणभद्र की अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों में आत्मानुशासन और जिनदत्तचरित्र विशेष उल्लेखनीय एवं विश्रुत हैं।
हरिवंशपुराण
आदिपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन से भिन्न पुन्नाटसंघीय आचार्य जिनसेन का 'हरिवंशपुराण' दिगम्बर सम्प्रदाय के कथा साहित्य में अपना प्रमुख स्थान रखता है। यह विषय-विवेचना की अपेक्षा तो विशेषता रखता ही है, प्राचीनता की अपेक्षा भी संस्कृत कथाग्रन्थों में इसका तीसरा स्थान ठहरता है। पहला रविषेणाचार्य का पद्मपुराण, दूसरा जटासिंहनन्दि का वरांगचरित और तीसरा जिनसेन का यह हरिवंशपुराण है। हरिवंशपुराण और महापुराण दोनों को देखने के बाद ऐसा लगता है कि महापुराणकार ने हरिवंशपुराण को देखने के बाद उसकी रचना की है। हरिवंशपुराण में तीन लोकों का, संगीत का तथा व्रत विधान आदि का जो बीच-बीच में विराट वर्णन किया गया है उससे कथा के सौन्दर्य की हानि हुई है। इसलिये महापुराण में उन सबके विस्तृत वर्णन को छोड़कर प्रसंगोपात्त संक्षिप्त ही वर्णन किया गया है। काव्योचित भाषा तथा अलंकार की विच्छित्ति भी हरिवंश की अपेक्षा महापुराण में अत्यन्त परिष्कृत है।
हरिवंशपुराण का आधार
- जिस प्रकार सेनसंघीय जिनसेन के महापुराण का आधार परमेष्ठी कवि का 'वागर्थसंग्रह' पुराण है, उसी प्रकार हरिवंश का आधार भी कुछ-न-कुछ अवश्य रहा होगा। हरिवंश के कर्ता जिनसेन ने प्रकृत ग्रन्थ के अन्तिम सर्ग में भगवान् महावीर से लेकर 683 वर्ष तक की और उसके बाद अपने समय तक की विस्तृत अविच्छिन्न परम्परा की लेखा दी है उससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि इनके गुरु कीर्तिषेण थे और संभवतया हरिवंश की कथावस्तु उन्हें उनसे प्राप्त हुई होगी। वर्णनशैली को देखते हुए ऐसा लगता है कि जिनसेन ने रविषेण के पद्मपुराण को अच्छी तरह देखा है। पद्यमय ग्रन्थों में गद्य का उपयोग अन्यत्र देखने में नहीं आया। परन्तु जिस प्रकार रविषेण ने पद्मपुराण में वृत्तानुबन्धी गद्य का उपयोग किया है उसी प्रकार जिनसेन ने भी हरिवंश के 49वें नेमि जिनेन्द्र का स्तवन करते हुए वृत्तानुबन्धीगद्य का उपयोग किया है। हरिवंश का लोकविभाग एवं शलाकापुरुषों का वर्णन आचार्य यतिवृषभ की 'तिलोयपण्णत्ती' से मेल खाता है। द्वादशांग का वर्णन तत्त्वार्थवार्तिक के अनुरूप है, संगीत का वर्णन भरत मुनि के नाट्यशास्त्र से अनुप्राणित है और तत्त्वों का वर्णन तत्त्वार्थसूत्र तथा सर्वार्थसिद्धि के अनुकूल है। इससे जान पड़ता है कि आचार्य जिनसेन ने उन सब ग्रन्थों का अच्छी तरह आलेख किया है। तत्तत प्रकरणों में दिये गये तुलनात्मक टिप्पणों से उक्त बात का निर्णय सुगम है। हाँ, क्रमविधान, समवसरण तथा जिनेन्द्र विहार किससे अनुप्राणित है, यह निर्णय मैं नहीं कर सका।
हरिवंशपुराण के रचयिता आचार्य जिनसेन
हरिवंशपुराण के रचयिता जिनसेन पुन्नाट संघ के थे। ये महापुराण के कर्ता जिनसेन से भिन्न हैं। इनके गुरु का नाम कीर्तिषेण और दादा गुरु का नाम जिनसेन था। महापुराण के कर्ता जिनसेन के गुरु वीरसेन और दादा गुरु आर्यनन्दी थे। पुन्नाट कर्णाटक का प्राचीन नाम है। इसलिये इस देश के मुनि संघ का नाम पुन्नाट संघ था। जिनसेन के जन्म स्थान, माता-पिता तथा प्रारम्भिक जीवन के कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है। गृहविरत पुरुष के लिये इन सबके उल्लेख की आवश्यकता भी नहीं है।
हरिवंशपुराण का रचना स्थान और समय
हरिवंशपुराण की रचना का प्रारम्भ वर्धमानपुर में हुआ और समाप्ति दोस्तटिका के शान्तिनाथ ज़िलालय में हुआ। यह वर्द्धमानपुर सौराष्ट्र का प्रसिद्ध शहर वडवाण जान पड़ता है। वडवाण से गिरिनगर को जानेवाले मार्ग में 'दोत्ताडि' स्थान है। वही 'दोस्ताडिका' है। हरिवंशपुराण के 66वें सर्ग के 52 और 53 श्लोक में कहा गया है कि शक-संवत् 705 में, जब कि उत्तर दिशा की इन्द्रायुध, दक्षिण दिशा की कृष्ण का पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्व की अवन्तिराज वत्सराज और पश्चिम की वीर जयवराह रक्षा करता था तब अनेक कल्याणों अथवा पुर के पार्श्वजिनालय में जो कि नन्नराज वसति के नाम से प्रसिद्ध था, यह ग्रन्थ पहले प्रारम्भ किया गया और पीछे चलकर दोस्तटिका की प्रजा के द्वारा उत्पादित प्रकृष्ट पूजा से युक्त शान्तिजिनेन्द्र के शान्तिपूर्ण गृह मन्दिर में रचा गया।
हरिवंशपुराण की कथावस्तु
हरिवंशपुराण में पुन्नाट संघीय जिनसेनाचार्य प्रधान रूप से बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान् का चरित्र लिखना चाहते थे। परन्तु प्रसंगोपात्त अन्य कथानक भी इसमें लिखे गये हैं। भगवान नेमिनाथ का जीवन आदर्श त्याग का जीवन है। वे हरिवंश-गगन के प्रकाशमान सूर्य थे। भगवान नेमिनाथ के साथ उनके वंशज नारायण और बलभद्र पद के धारक श्रीकृष्ण तथा बलराम के भी कौतुकी वह चरित इसमें अंकित है। पाण्डवों और कौरवों का लोकप्रिय चरित इसमें बड़ी सुन्दरता के साथ अंकित किया गया है। श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का चरित्र भी इसमें अपना पृथक् स्थान रखता है और बड़ा मार्मिक है।
पद्मपुराण
संस्कृत-साहित्य, सागर के समान विशाल है। जिस प्रकार सागर के भीतर अगणित रत्न विद्यमान हैं उसी प्रकार संस्कृत साहित्य सागर में पुराण, काव्य, न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त, दर्शन, नाटक, ज्योतिष और आयुर्वेद आदि रत्न विद्यमान हैं। प्राचीन संस्कृत-साहित्य में ऐसा कोई विषय नहीं हैं, जिस पर किसी ने कुछ न लिखा हो। वैदिक संस्कृत साहित्य तो विशालतम है ही, परन्तु जैन संस्कृत-साहित्य भी उसके अनुपात में अल्प प्रमाण होने पर भी उच्च कोटि का है। जैन साहित्य की प्रमुख विशेषता यह है कि उसमें वस्तु स्वरूप का वर्णन काल्पनिक नहीं है और इसीलिये वह प्राणी मात्र का कल्याणकारी है।
निष्कर्ष
इस प्रकार उपलब्ध शौरसेनी प्राकृत एवं संस्कृतभाषा निबद्ध कर्मसाहित्य के ग्रन्थों का परिचयात्मक इतिहास लिखा गया, इनमें दिगम्बर जैन परम्परा के ग्रंथों का ही परिचय दिया जा सका। श्वेताम्बर परम्परा में भी कर्म ग्रन्थ आदि के रूप में कर्मसिद्धान्त विषयक विपुल साहित्य उपलब्ध है। इस तरह हम मूल्यांकन करें तो पाते हैं कि जैन मनीषियों ने कर्मसाहिथ्य को ही संस्कृत भाषा में नहीं लिखा अपितु सिद्धान्त, दर्शन, न्याय, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, काव्य आदि विषयों का विवेचन भी लोकप्रिय संस्कृत भाषा में निरूपण किया है या यों कहना चाहिए कि इन विषयों का निरूपण संस्कृत में ही किया गया है। उदाहरण के लिए तत्त्वार्थसूत्र (गृद्धपिच्छाचार्य), तत्त्वार्थसार (अमृतचन्द्र), तत्त्वार्थवार्तिक (अकलंकदेव), तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरसूरि), तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-भाष्य (विद्यानन्द), अष्टसहस्री (विद्यानन्द), पत्रपरीक्षा (विद्यानंद), सत्यशासनपरीक्षा (आ0 विद्यानन्द), तत्त्वार्थभाष्य (उमास्वामि), तत्त्वार्थवृत्ति (सिद्धर्षिगणी) आदि सहस्रों ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखें गये हैं। जैन परम्परा का संस्कृत वाङमय विशाल और अटूट है। और यह सच है कि कोई भी भाषा, जब वह लोकप्रिय हो जाती है, तब वह सभी के लिए आदरणीय एवं ग्राह्य हो जाती है।
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