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यह फ़िल्म 1957 में जब श्वेत-श्याम में प्रदर्शित हुई थी तो इसके गीत संगीत और कहानी में बुने गए आज़ादी के बाद मानव और मशीन के संघर्ष के बीच दोस्ती, प्रेम, त्याग और आज़ादी के बाद आम आदमी के होने की गाथा एक नई सिनेमा की भाषा की प्रतीक थी। लेकिन आज भी इसके मायने नहीं बदले हैं। हालाकि इसकी कहानी हमारे समाज और देश की मुख्यधारा के उसी सिनेमा की है जिसमें शंकर (दिलीप कुमार) और कृष्णा ([[अजीत]]) नाम के दोस्तों की कहानी है जो एक दूसरे पर जान देते हैं लेकिन उनके बीच जब एक लड़की रजनी (वैजयंती माला) आ जाती है तो न केवल उनकी दोस्ती के मायने बदल जाते हैं बल्कि गांव के | यह फ़िल्म 1957 में जब श्वेत-श्याम में प्रदर्शित हुई थी तो इसके गीत संगीत और कहानी में बुने गए आज़ादी के बाद मानव और मशीन के संघर्ष के बीच दोस्ती, प्रेम, त्याग और आज़ादी के बाद आम आदमी के होने की गाथा एक नई सिनेमा की भाषा की प्रतीक थी। लेकिन आज भी इसके मायने नहीं बदले हैं। हालाकि इसकी कहानी हमारे समाज और देश की मुख्यधारा के उसी सिनेमा की है जिसमें शंकर (दिलीप कुमार) और कृष्णा ([[अजीत]]) नाम के दोस्तों की कहानी है जो एक दूसरे पर जान देते हैं लेकिन उनके बीच जब एक लड़की रजनी (वैजयंती माला) आ जाती है तो न केवल उनकी दोस्ती के मायने बदल जाते हैं बल्कि गांव के ज़मींदार (नासिर हुसैन) के शहर से पढकर लौटे बेटे (जीवन) के गांव में आरा मशीन और लॉरी लाने के बाद तो वे एक दूसरे के दुश्मन भी हो जाते हैं।<ref name="हिन्दी मीडिया डॉट इन">{{cite web |url=http://hindimedia.in/content/view/108/43/index.php?option=com_content&task=view&id=193&Itemid=33 |title=समीक्षा : नया दौर (रंगीन) |accessmonthday=[[31 अगस्त]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=हिन्दी मीडिया डॉट इन |language=[[हिन्दी]] }}</ref> | ||
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बी. आर. चोपड़ा अपने समय से बहुत आगे की फ़िल्में बनाने वाले निर्देशक थे। उन्होंने हमेशा सामाजिक सच्चाइयों से जुड़ी फ़िल्मों का निर्माण किया; आम आदमी की समस्याओं को अपनी फ़िल्मों का विषय बनाया, मगर मनोरंजन का दामन नहीं छोड़ा। उनकी पत्रकारिता की पृष्ठभूमि उन्हें विषयों की तलाश में मदद करती थी। हमारी फ़िल्मी दुनिया में बी. आर. चोपड़ा अकेले ऐसे निर्देशक | बी. आर. चोपड़ा अपने समय से बहुत आगे की फ़िल्में बनाने वाले निर्देशक थे। उन्होंने हमेशा सामाजिक सच्चाइयों से जुड़ी फ़िल्मों का निर्माण किया; आम आदमी की समस्याओं को अपनी फ़िल्मों का विषय बनाया, मगर मनोरंजन का दामन नहीं छोड़ा। उनकी पत्रकारिता की पृष्ठभूमि उन्हें विषयों की तलाश में मदद करती थी। हमारी फ़िल्मी दुनिया में बी. आर. चोपड़ा अकेले ऐसे निर्देशक हैजिन्होंने अपनी फ़िल्मों में प्रयोग करने की परंपरा ड़ाली और नया दौर से लेकर बिना गीतों वाली क़ानून जैसी फ़िल्में बनाई। हालाकि बी. आर. चोपड़ा की इस फ़िल्म को रंगीन बनाने में क़रीब तीन करोड़ रूपए और तीन साल लगे हैं और यह दर्शकों के लिए एक जादुई उपहार से कम नहीं।<ref name="ममता टी वी" /> | ||
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नया दौर
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निर्देशक | बी. आर. चोपड़ा |
निर्माता | बी. आर. चोपड़ा |
लेखक | अख़्तर मिर्ज़ा, कामिल राशिद |
कलाकार | दिलीप कुमार, वैजयंती माला, अजीत, जॉनी वॉकर |
संगीत | ओ.पी. नैयर |
गीतकार | साहिर लुधियानवी |
गायक | मोहम्मद रफ़ी, शमशाद बेगम और आशा भोंसले |
प्रसिद्ध गीत | ये देश है वीर जवानों का |
छायांकन | एम. मल्होत्रा |
संपादन | प्राण मेहरा |
प्रदर्शन तिथि | 1957 |
अवधि | 173 मिनट |
भाषा | हिन्दी |
पुरस्कार | फ़िल्मफ़ेयर:- सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ कहानी |
मुख्य संवाद | ये लड़ाई तो मशीनों की है हमारी तुम्हारी काय की लड़ाई। |
दुबारा प्रदर्शन | 2007 |
दुबारा प्रदर्शन फ़िल्म का बजट | तीन करोड़ रूपए |
नया दौर दिलीप कुमार और वैजयंती माला के अभिनय से सजी भारतीय सिनेमा इतिहास की सुप्रसिद्ध फ़िल्म है, जिसे बी. आर. चोपड़ा ने बनाया था। आज भी इस फ़िल्म का संगीत बड़े चाव से सुना जाता है। इस फ़िल्म को रंगीन करने में तीन वर्ष से भी ज़्यादा का समय लगा। [1] नया दौर जो 1957 में बनी थी वो उस ज़माने की बहुत बड़ी सफल फ़िल्म थी। बी. आर. चोपड़ा की इस फ़िल्म ने जो संदेश उस समय दिया था वो आज के समय में भी उतना ही प्रसिद्ध है। उस समय की ये एक क्रांतिकारी फ़िल्म मानी गयी थी जैसा की इसके नाम से ही ज़ाहिर होता है नया दौर।[2] नया दौर चोपड़ा संभवतः उनकी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म कही जा सकती है। मनुष्य बनाम मशीन जैसे ज्वलंत विषय को उन्होंने बहुत संवेदनशील ढंग से प्रस्तुत किया है और उस पर ओ.पी. नैयर का पंजाबियत लिया सुरीला संगीत जैसे विषय को नये अर्थ दे रहा हो।[3]
कथावस्तु
औद्योगिक क्रांति के परिप्रेक्ष्य में वर्ष 1957 में बनी फ़िल्म ‘नया दौर’ में मशीन और मनुष्य के बीच की लड़ाई और फिर मनुष्य की जीत को दिखा गया है। चोपड़ा को सामाजिक मुद्दों पर प्रगतिशील फ़िल्में बनाने का श्रेय जाता है। फ़िल्म में दिलीप कुमार एक ऐसे तांगे वाले की भूमिका में हैं जो एक संपन्न व्यापारी को चुनौती देता है। यह व्यापारी तांगों की जगह सड़कों पर बसों की स्वीकार्यता बढ़ाने के प्रयास में ग़रीब तांगे वालों के हितों की अनदेखी करता है।[4]
यह फ़िल्म 1957 में जब श्वेत-श्याम में प्रदर्शित हुई थी तो इसके गीत संगीत और कहानी में बुने गए आज़ादी के बाद मानव और मशीन के संघर्ष के बीच दोस्ती, प्रेम, त्याग और आज़ादी के बाद आम आदमी के होने की गाथा एक नई सिनेमा की भाषा की प्रतीक थी। लेकिन आज भी इसके मायने नहीं बदले हैं। हालाकि इसकी कहानी हमारे समाज और देश की मुख्यधारा के उसी सिनेमा की है जिसमें शंकर (दिलीप कुमार) और कृष्णा (अजीत) नाम के दोस्तों की कहानी है जो एक दूसरे पर जान देते हैं लेकिन उनके बीच जब एक लड़की रजनी (वैजयंती माला) आ जाती है तो न केवल उनकी दोस्ती के मायने बदल जाते हैं बल्कि गांव के ज़मींदार (नासिर हुसैन) के शहर से पढकर लौटे बेटे (जीवन) के गांव में आरा मशीन और लॉरी लाने के बाद तो वे एक दूसरे के दुश्मन भी हो जाते हैं।[5]
अभिनय
फ़िल्म के कलाकारों की अभिनय की बात करें तो कोई भी किसी से कम नही, वो चाहे दिलीप कुमार हो या वैजयंती माला या अजीत। दिलीप कुमार की तो यही ख़ास बात थी की वो भूमिका में बिल्कुल डूब जाते थे। वैजयंती माला की सुन्दरता और बड़ी-बड़ी आँखें मटकाना ही उनकी ख़ासियत नहीं थी बल्कि वो अभिनय भी बहुत अच्छा करती थी। और गाँव का माहौल बिल्कुल सादगी भरा है। जीवन अपनी कारस्तानियों से (मतलब ख़ून चूसने वाले जमींदार) बाज नहीं आते थे। जीवन जैसे लोग हर गाँव में हमेशा मौजूद रहते है पहले भी थे और आज भी है। और शायद हमारे गांवों की हालत आज भी वैसी ही है।[5]
निर्देशन
बी. आर. चोपड़ा अपने समय से बहुत आगे की फ़िल्में बनाने वाले निर्देशक थे। उन्होंने हमेशा सामाजिक सच्चाइयों से जुड़ी फ़िल्मों का निर्माण किया; आम आदमी की समस्याओं को अपनी फ़िल्मों का विषय बनाया, मगर मनोरंजन का दामन नहीं छोड़ा। उनकी पत्रकारिता की पृष्ठभूमि उन्हें विषयों की तलाश में मदद करती थी। हमारी फ़िल्मी दुनिया में बी. आर. चोपड़ा अकेले ऐसे निर्देशक हैजिन्होंने अपनी फ़िल्मों में प्रयोग करने की परंपरा ड़ाली और नया दौर से लेकर बिना गीतों वाली क़ानून जैसी फ़िल्में बनाई। हालाकि बी. आर. चोपड़ा की इस फ़िल्म को रंगीन बनाने में क़रीब तीन करोड़ रूपए और तीन साल लगे हैं और यह दर्शकों के लिए एक जादुई उपहार से कम नहीं।[2]
गीत-संगीत
- साहिर के लिखे और ओ.पी. नैयर के संगीत वाले नया दौर फ़िल्म के गीत आज पचास साल बाद भी पुराने नहीं पड़े हैं और आज भी यह गाने सदाबहार है। हर एक गीत के बोल सुनने में जितने सरल है उनका अर्थ उतना ही गूढ़ है। हर गाना एक अलग ही अंदाज़ में गाया गया है। सुप्रसिद्ध दिवंगत संगीतकार ओ.पी. नैयर का संगीत इस फ़िल्म में चार चांद लगा देता है। कोई भी गाना जैसे साथी हाथ बढाना साथी हाथ बढ़ाना साथी रे, या फिर ये देश है वीर जवानों का। एक क्या इस फ़िल्म के तो सारे गाने ही बहुत अधिक लोकप्रिय हुए थे।[2]
- क्या इन गानों को हम भूल सकते है - उड़े जब-जब जुल्फें तेरी, या रेशमी सलवार कुर्ता जाली का। देशभक्ति, शरारत या छेड़-छाड़ या प्यार का इज़हार इन गानों में वो सभी कुछ है और सुनने में इतने मीठे की बस। आज भी यह गीत गाए बजाए और गुनगुनाए जा रहे हैं।[2]
- माँग के साथ तुम्हारा मैंने माँग लिया संसार तांगे पर फ़िल्माए गए गानों का सरताज और सबसे लोकप्रिय गीत है। दिलीप कुमार और वैजयंती माला तांगे पर जा रहे हैं। इस गाने में साहिर लुधियानवी के बोल और ओ.पी. नैयर का संगीत है। [6]
मुख्य कलाकार
- दिलीप कुमार:- शंकर
- वैजयंती माला:- रजनी
- अजित:- कृष्ण
- जॉनी वॉकर - बम्बई का बाबू
- डेज़ी ईरानी- चिखा मास्टर
- चांद उस्मानी:- मंजू
- जीवन:- कुंदन
- नासिर हुसैन:- सेठ. नजीर हुसैन
- मनमोहन कृष्णा:- जुम्मन काका
- लीला:- शंकर की माँ
- प्रतिमा देवी:- दुर्गा मोसी
पुरस्कार
- 1958 : फ़िल्मफ़ेयर:- सर्वश्रेष्ठ अभिनेता दिलीप कुमार
- 1958 : फ़िल्मफ़ेयर:- सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक ओ.पी. नैयर
- 1958 : फ़िल्मफ़ेयर:- सर्वश्रेष्ठ कहानी अख़्तर मिर्ज़ा
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रंगीन ‘नया दौर’ (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) वेब दुनिया। अभिगमन तिथि: 31 अगस्त, 2010।
- ↑ 2.0 2.1 2.2 2.3 नया दौर नया रंग (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) ममता टी वी। अभिगमन तिथि: 31 अगस्त, 2010।
- ↑ बीआर चोपड़ा अपने समय से आगे के फ़िल्मकार थे (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) मोहल्ला लाईव। अभिगमन तिथि: 31 अगस्त, 2010।
- ↑ नया दौर फ़िल्म कालजयी है: वैजयंतीमाला (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) जागरण। अभिगमन तिथि: 31 अगस्त, 2010।
- ↑ 5.0 5.1 समीक्षा : नया दौर (रंगीन) (हिन्दी) हिन्दी मीडिया डॉट इन। अभिगमन तिथि: 31 अगस्त, 2010।
- ↑ चले पवन की चाल (हिन्दी) दैनिक भास्कर। अभिगमन तिथि: 31 अगस्त, 2010।
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