"सरदार पटेल": अवतरणों में अंतर
गोविन्द राम (वार्ता | योगदान) No edit summary |
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|विशेष योगदान= | |विशेष योगदान=देशी रियासतों का विलय स्वतंत्र भारत की पहली उपलब्धि थी और निर्विवाद रूप से सरदार पटेल का इसमें विशेष योगदान था। नीतिगत दृढ़ता के लिए [[महात्मा गाँधी|गाँधीजी]] ने उन्हें 'सरदार' और 'लौह पुरुष' की उपाधि दी थी। | ||
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|अन्य जानकारी= | |अन्य जानकारी=वास्तव में सरदार पटेल [[आधुनिक भारत]] के शिल्पी थे। उनके कठोर व्यक्तित्व में विस्मार्क<ref>एक जर्मन राजनेता</ref> जैसी संगठन कुशलता, [[कौटिल्य]] जैसी राजनीति सत्ता तथा राष्ट्रीय एकता के प्रति अब्राहम लिंकन जैसी अटूट निष्ठा थी। | ||
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}} | }} | ||
'''सरदार | '''सरदार वल्लभभाई पटेल''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Sardar Vallabhbhai Patel''; जन्म- [[31 अक्टूबर]], [[1875]], [[गुजरात]]; मृत्यु- [[15 दिसंबर]], [[1950]], [[महाराष्ट्र]]) प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा स्वतंत्र [[भारत]] के प्रथम गृहमंत्री थे। वे 'सरदार पटेल' के उपनाम से प्रसिद्ध हैं। सरदार पटेल भारतीय बैरिस्टर और प्रसिद्ध राजनेता थे। भारत के [[स्वाधीनता संग्राम]] के दौरान '[[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]]' के नेताओं में से वे एक थे। [[1947]] में भारत की आज़ादी के बाद पहले तीन वर्ष वे [[उप प्रधानमंत्री]], गृहमंत्री, सूचना मंत्री और राज्य मंत्री रहे थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद क़रीब पाँच सौ से भी ज़्यादा देसी रियासतों का एकीकरण एक सबसे बड़ी समस्या थी। कुशल कूटनीति और ज़रूरत पड़ने पर सैन्य हस्तक्षेप के जरिए सरदार पटेल ने उन अधिकांश रियासतों को [[तिरंगा|तिरंगे]] के तले लाने में सफलता प्राप्त की। इसी उपलब्धि के चलते उन्हें '''लौह पुरुष''' या '''भारत का बिस्मार्क''' की उपाधि से सम्मानित किया गया। उन्हें मरणोपरांत वर्ष [[1991]] में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान '[[भारत रत्न]]' दिया गया। वर्ष [[2014]] में सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती ([[31 अक्टूबर]]) '[[राष्ट्रीय एकता दिवस]]' के रूप में मनाई जाती है। | ||
== | ==जीवन परिचय== | ||
सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म [[31 अक्टूबर]] [[1875]] | सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म [[31 अक्टूबर]], [[1875]] ई. में [[नाडियाड]], [[गुजरात]] में हुआ था। उनका जन्म लेवा पट्टीदार जाति के एक समृद्ध ज़मींदार [[परिवार]] में हुआ था। वे अपने [[पिता]] झवेरभाई पटेल एवं [[माता]] लाड़बाई की चौथी संतान थे। सोमभाई, नरसीभाई और [[विट्ठलदास झवेरभाई पटेल]] उनके अग्रज थे। पारम्परिक [[हिन्दू]] माहौल में पले-बढ़े सरदार पटेल ने करमसद में प्राथमिक विद्यालय और पेटलाद स्थित उच्च विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की, लेकिन उन्होंने अधिकांश ज्ञान स्वाध्याय से ही अर्जित किया। 16 [[वर्ष]] की आयु में उनका [[विवाह]] हो गया। 22 साल की उम्र में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की और ज़िला अधिवक्ता की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, जिससे उन्हें वक़ालत करने की अनुमति मिली। सन [[1900]] में उन्होंने गोधरा में स्वतंत्र ज़िला अधिवक्ता कार्यालय की स्थापना की और दो साल बाद खेड़ा ज़िले के बोरसद नामक स्थान पर चले गए। | ||
====परिवार==== | |||
== | सरदार पटेल के पिता झबेरभाई एक धर्मपरायण व्यक्ति थे। गुजरात में सन 1829 ई. में [[स्वामी सहजानंद सरस्वती|स्वामी सहजानन्द]] द्वारा स्थापित स्वामी नारायण पंथ के वे परम भक्त थे। 55 वर्ष की अवस्था के उपरान्त उन्होंने अपना जीवन उसी में अर्पित कर दिया था। वल्लभभाई ने स्वयं कहा है- "मैं तो साधारण कुटुम्ब का था। मेरे पिता मन्दिर में ही ज़िन्दगी बिताते थे और वहीं उन्होंने पूरी की।" वल्लभभाई की माता लाड़बाई अपने पति के समान एक धर्मपरायण महिला थीं। वल्लभभाई पाँच भाई व एक बहन थे। भाइयों के नाम क्रमशः सोभाभाई, नरसिंहभाई, विट्ठलभाई, वल्लभभाई और काशीभाई थे। बहन डाबीहा सबसे छोटी थी। इनमें विट्ठलभाई तथा वल्लभभाई ने [[भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन|राष्ट्रीय आन्दोलन]] में भाग लेकर [[भारतीय इतिहास]] में महत्त्वपूर्ण स्थान ग्रहण किया। माता-पिता के गुण संयम, साहस, सहिष्णुता, देश-प्रेम का प्रभाव वल्लभभाई के चरित्र पर स्पष्ट था।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=4618 |title=सरदार वल्लभभाई पटेल व्यक्ति एवं विचार |accessmonthday=7 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format=पी.एच.पी |publisher= भारतीय साहित्य संग्रह|language=हिंदी }}</ref> | ||
वकील के रूप में पटेल ने कमज़ोर मुक़दमे को सटीकता से प्रस्तुत करके और पुलिस के गवाहों तथा | ==व्यावसायिक शुरुआत== | ||
[[चित्र:Sardar-Vallabh-Bhai-Patel-2.png|thumb|left|सरदार वल्लभ भाई पटेल | एक वकील के रूप में सरदार पटेल ने कमज़ोर मुक़दमे को सटीकता से प्रस्तुत करके और पुलिस के गवाहों तथा [[अंग्रेज़]] न्यायाधीशों को चुनौती देकर विशेष स्थान अर्जित किया। [[1908]] में पटेल की पत्नी की मृत्यु हो गई। उस समय उनके एक पुत्र और एक पुत्री थी। इसके बाद उन्होंने विधुर जीवन व्यतीत किया। वक़ालत के पेशे में तरक़्क़ी करने के लिए कृतसंकल्प पटेल ने मिड्ल टेंपल के अध्ययन के लिए अगस्त, [[1910]] में [[लंदन]] की यात्रा की। वहाँ उन्होंने मनोयोग से अध्ययन किया और अंतिम परीक्षा में उच्च प्रतिष्ठा के साथ उत्तीर्ण हुए। | ||
[[चित्र:Sardar-Vallabh-Bhai-Patel-2.png|thumb|left|सरदार वल्लभ भाई पटेल]] | |||
====अग्रणी बैरिस्टर==== | ====अग्रणी बैरिस्टर==== | ||
फ़रवरी 1913 में भारत लौटकर | [[फ़रवरी]], [[1913]] में [[भारत]] लौटकर सरदार पटेल [[अहमदाबाद]] में बस गए और तेज़ी से उन्नति करते हुए अहमदाबाद अधिवक्ता बार में अपराध क़ानून के अग्रणी बैरिस्टर बन गए। गम्भीर और शालीन पटेल अपने उच्च स्तरीय तौर-तरीक़ों और चुस्त, अंग्रेज़ी पहनावे के लिए जाने जाते थे। वह अहमदाबाद के फ़ैशनपरस्त गुजरात क्लब में ब्रिज के चैंपियन होने के कारण भी विख्यात थे। [[1917]] तक वे भारत की राजनीतिक गतिविधियों के प्रति उदासीन रहे। | ||
== | ==सत्याग्रह से जुड़ाव== | ||
[[1917]] में [[महात्मा गाँधी|मोहनदास करमचन्द गांधी]] से प्रभावित होने के बाद पटेल ने पाया कि उनके जीवन की दिशा बदल गई है। | सन [[1917]] में [[महात्मा गाँधी|मोहनदास करमचन्द गांधी]] से प्रभावित होने के बाद सरदार पटेल ने पाया कि उनके जीवन की दिशा बदल गई है। वे गाँधीजी के [[सत्याग्रह आंदोलन|सत्याग्रह]] (अंहिसा की नीति) के साथ तब तक जुड़े रहे, जब तक वह [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के ख़िलाफ़ भारतीयों के संघर्ष में क़ारगर रहा। लेकिन उन्होंने कभी भी खुद को गाँधीजी के नैतिक विश्वासों व आदर्शों के साथ नहीं जोड़ा। उनका मानना था कि उन्हें सार्वभौमिक रूप से लागू करने का गाँधी का आग्रह, भारत के तत्कालीन राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अप्रासंगिक है। फिर भी गाँधीजी के अनुसरण और समर्थन का संकल्प करने के बाद पटेल ने अपनी [[शैली]] और वेशभूषा में परिवर्तन कर लिया। उन्होंने गुजरात क्लब छोड़ दिया और भारतीय किसानों के समान सफ़ेद वस्त्र पहनने लगे तथा भारतीय खान-पान को पूरी तरह से अपना लिया। | ||
==== | ====बारदोली सत्याग्रह का नेतृत्व==== | ||
1917 से [[1924]] तक पटेल ने [[अहमदनगर]] के पहले भारतीय निगम आयुक्त के रूप में सेवा प्रदान की और 1924 से 1928 तक | सन [[1917]] से [[1924]] तक सरदार पटेल ने [[अहमदनगर]] के पहले भारतीय निगम आयुक्त के रूप में सेवा प्रदान की और 1924 से [[1928]] तक वे इसके निर्वाचित नगरपालिका अध्यक्ष भी रहे। [[1918]] में उन्होंने अपनी पहली छाप छोड़ी, जब भारी [[वर्षा]] से फ़सल तबाह होने के बावज़ूद बम्बई सरकार द्वारा पूरा सालाना लगान वसूलने के फ़ैसले के विरुद्ध उन्होंने [[गुजरात]] के कैरा ज़िले में किसानों और काश्तकारों के जनांदोलन की रूपरेखा बनाई। [[1928]] में पटेल ने बढ़े हुए करों के ख़िलाफ़ बारदोली के भूमिपतियों के संघर्ष का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। [[बारदोली सत्याग्रह]] के कुशल नेतृत्व के कारण उन्हें 'सरदार' की उपाधि मिली और उसके बाद देश भर में राष्ट्रवादी नेता के रूप में उनकी पहचान बन गई। उन्हें व्यावहारिक, निर्णायक और यहाँ तक कि कठोर भी माना जाता था तथा [[अंग्रेज़]] उन्हें एक ख़तरनाक शत्रु मानते थे। | ||
[[1928]] में पटेल ने बढ़े हुए करों के ख़िलाफ़ बारदोली के भूमिपतियों के संघर्ष का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। बारदोली | |||
==राजनीतिक दर्शन== | ==राजनीतिक दर्शन== | ||
पटेल क्रान्तिकारी नहीं | [[चित्र:Sardar-Patel-and-Gandhi.jpg|thumb|250px|सरदार पटेल और [[महात्मा गाँधी|गाँधीजी]]]] | ||
सरदार पटेल क्रान्तिकारी नहीं थे। [[1928]] से [[1931]] के बीच [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] के उद्देश्यों पर हो रही महत्त्वपूर्ण बहस में पटेल का विचार था<ref>गाँधीजी और [[मोतीलाल नेहरू]] के समान, लेकिन [[जवाहरलाल नेहरू]] और [[सुभाषचन्द्र बोस]] के विपरीत</ref> कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का लक्ष्य स्वाधीनता नहीं, बल्कि ब्रिटिश राष्ट्रकुल के भीतर अधिराज्य का दर्जा प्राप्त करने का होना चाहिए। [[जवाहरलाल नेहरू]] के विपरीत, जो स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में हिंसा की अनदेखी करने के पक्ष में थे, पटेल नैतिक नहीं, व्यावहारिक आधार पर सशस्त्र आन्दोलन को नकारते थे। पटेल का मानना था कि यह विफल रहेगा और इसका ज़बरदस्त दमन होगा। [[महात्मा गाँधी]] की भाँति पटेल भी भविष्य में ब्रिटिश राष्ट्रकुल में स्वतंत्र भारत की भागीदारी में लाभ देखते थे। बशर्ते भारत को एक बराबरी के सदस्य के रूप में शामिल किया जाए। वह भारत में आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास क़ायम करने पर ज़ोर देते थे, लेकिन गाँधीजी के विपरीत, वह [[हिन्दू]]-[[मुस्लिम]] एकता को स्वतंत्रता की पूर्व शर्त नहीं मानते थे। | |||
बलपूर्वक आर्थिक और सामाजिक बदलाव लाने की आवश्यकता के बारे में पटेल जवाहरलाल नेहरू से असहमत थे। पारम्परिक हिन्दू मूल्यों से उपजे रूढ़िवादी पटेल ने भारत की सामाजिक और आर्थिक संरचना में समाजवादी विचारों को अपनाने की उपयोगिता का उपहास किया। वह मुक्त उद्यम में यक़ीन रखते थे। इस प्रकार, उन्हें रूढ़िवादी तत्वों का विश्वास प्राप्त हुआ तथा उनसे प्राप्त धन से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियाँ संचालित होती रहीं। | |||
बलपूर्वक आर्थिक और सामाजिक बदलाव लाने की आवश्यकता के बारे में सरदार पटेल जवाहरलाल नेहरू से असहमत थे। पारम्परिक हिन्दू मूल्यों से उपजे रूढ़िवादी पटेल ने [[भारत]] की सामाजिक और आर्थिक संरचना में समाजवादी विचारों को अपनाने की उपयोगिता का उपहास किया। वह मुक्त उद्यम में यक़ीन रखते थे। इस प्रकार, उन्हें रूढ़िवादी तत्वों का विश्वास प्राप्त हुआ तथा उनसे प्राप्त धन से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियाँ संचालित होती रहीं। | |||
==जेलयात्रा== | |||
[[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] के [[1929]] के लाहौर अधिवेशन में सरदार पटेल, [[महात्मा गाँधी]] के बाद अध्यक्ष पद के दूसरे उम्मीदवार थे। गाँधीजी ने स्वाधीनता के प्रस्ताव को स्वीकृत होने से रोकने के प्रयास में अध्यक्ष पद की दावेदारी छोड़ दी और पटेल पर भी नाम वापस लेने के लिए दबाव डाला। इसका प्रमुख कारण मुसलमानों के प्रति पटेल की हठधर्मिता थी। अंतत: जवाहरलाल नेहरू अध्यक्ष बने। [[1930]] में [[नमक सत्याग्रह]] के दौरान पटेल को तीन महीने की जेल हुई। [[मार्च]], [[1931]] में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के करांची अधिवेशन की अध्यक्षता की। [[जनवरी]], [[1932]] में उन्हें फिर गिरफ़्तार कर लिया गया। [[जुलाई]], [[1934]] में वह रिहा हुए और [[1937]] के चुनावों में उन्होंने कांग्रेस पार्टी के संगठन को व्यवस्थित किया। [[1937]]-[[1938]] में वे कांग्रेस के अध्यक्ष पद के प्रमुख दावेदार थे। एक बार फिर गाँधीजी के दबाव में पटेल को अपना नाम वापस लेना पड़ा और जवाहरलाल नेहरू निर्वाचित हुए। [[अक्टूबर]], [[1940]] में कांग्रेस के अन्य नेताओं के साथ पटेल भी गिरफ़्तार हुए और [[अगस्त]], [[1941]] में रिहा हुए। | |||
==गाँधीजी से मतभेद== | |||
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब जापानी हमले की आशंका हुई, तो सरदार पटेल ने गाँधीजी की अहिंसा की नीति को अव्यावहारिक बताकर ख़ारिज कर दिया। सत्ता के हस्तान्तरण के मुद्दे पर भी उनका गाँधीजी से इस बात पर मतभेद था कि उपमहाद्वीप का हिन्दू [[भारत]] तथा मुस्लिम [[पाकिस्तान]] के रूप में विभाजन अपरिहार्य है। पटेल ने ज़ोर दिया कि पाकिस्तान दे देना भारत के हित में है। [[1945]]-[[1946]] में [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] के अध्यक्ष पद के लिए सरदार पटेल प्रमुख उम्मीदवार थे। लेकिन महात्मा गाँधी ने एक बार फिर हस्तक्षेप करके जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष बनवा दिया। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नेहरू को ब्रिटिश [[वाइसरॉय]] ने अंतरिम सरकार के गठन के लिए आमंत्रित किया। इस प्रकार, यदि घटनाक्रम सामान्य रहता, तो सरदार पटेल [[भारत]] के पहले [[प्रधानमंत्री]] होते। | |||
==देशी रियासतों के विलय में भूमिका== | |||
[[चित्र:Sardar-Patel-Statue.jpg|thumb|left|250px|सरदार पटेल की प्रतिमा, [[अहमदाबाद]], [[गुजरात]]]] | |||
स्वतंत्र भारत के पहले तीन वर्ष सरदार पटेल उप-प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, सूचना मंत्री और राज्य मंत्री रहे। इस सबसे भी बढ़कर उनकी ख्याति [[भारत]] के रजवाड़ों को शान्तिपूर्ण तरीक़े से भारतीय संघ में शामिल करने तथा भारत के राजनीतिक एकीकरण के कारण है। [[5 जुलाई]], [[1947]] को सरदार पटेल ने रियासतों के प्रति नीति को स्पष्ट करते हुए कहा कि- "रियासतों को तीन विषयों 'सुरक्षा', 'विदेश' तथा 'संचार व्यवस्था' के आधार पर भारतीय संघ में शामिल किया जाएगा।" धीरे-धीरे बहुत-सी देसी रियासतों के शासक [[भोपाल]] के नवाब से अलग हो गये और इस तरह नवस्थापित रियासती विभाग की योजना को सफलता मिली। | |||
[[भारत]] के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भारतीय संघ में उन रियासतों का विलय किया, जो स्वयं में संप्रभुता प्राप्त थीं। उनका अलग झंडा और अलग शासक था। सरदार पटेल ने आज़ादी के ठीक पूर्व (संक्रमण काल में) ही पी.वी. मेनन के साथ मिलकर कई देसी राज्यों को भारत में मिलाने के लिये कार्य आरम्भ कर दिया था। पटेल और मेनन ने देसी राजाओं को बहुत समझाया कि उन्हें स्वायत्तता देना सम्भव नहीं होगा। इसके परिणामस्वरूप तीन रियासतें- [[हैदराबाद]], [[कश्मीर]] और [[जूनागढ़]] को छोडकर शेष सभी राजवाड़ों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। [[15 अगस्त]], [[1947]] तक हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोड़कर शेष भारतीय रियासतें 'भारत संघ' में सम्मिलित हो चुकी थीं, जो भारतीय इतिहास की एक बड़ी उपलब्धि थी। [[जूनागढ़]] के नवाब के विरुद्ध जब बहुत विरोध हुआ तो वह भागकर पाकिस्तान चला गया और इस प्रकार जूनागढ भी भारत में मिला लिया गया। जब हैदराबाद के निज़ाम ने भारत में विलय का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तो सरदार पटेल ने वहाँ सेना भेजकर निज़ाम का आत्मसमर्पण करा लिया। | |||
==राजनीतिक योगदान== | |||
[[भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन]] को वैचारिक एवं क्रियात्मक रूप में एक नई दिशा देने के कारण सरदार पटेल ने राजनीतिक इतिहास में एक गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया। वास्तव में वे [[आधुनिक भारत]] के शिल्पी थे। उनके कठोर व्यक्तित्व में विस्मार्क<ref>एक जर्मन राजनेता</ref> जैसी संगठन कुशलता, [[कौटिल्य]] जैसी राजनीति सत्ता तथा राष्ट्रीय एकता के प्रति अब्राहम लिंकन जैसी अटूट निष्ठा थी। जिस अदम्य उत्साह असीम शक्ति से उन्होंने नवजात गणराज्य की प्रारम्भिक कठिनाइयों का समाधान किया, उसके कारण विश्व के राजनीतिक मानचित्र में उन्होंने अमिट स्थान बना लिया। भारत के राजनीतिक इतिहास में सरदार पटेल के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। सरदार पटेल के ऐतिहासिक कार्यों और किये गये राजनीतिक योगदान निम्नवत हैं- | |||
[[चित्र:Sardar-Patel-01.jpg|thumb|left|सभा को संबोधित करते हुए सरदार पटेल]] | |||
*देशी राज्यों के एकीकरण की समस्या को सरदार पटेल ने बिना खून-खराबे के बड़ी खूबी से हल किया। देशी राज्यों में [[राजकोट]], [[जूनागढ़]], वहालपुर, [[बड़ौदा]], [[कश्मीर]], हैदराबाद को भारतीय महासंघ में सम्मिलित करने में सरदार पटेल को कई पेचीदगियों का सामना करना पड़ा। जब [[चीन]] के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने [[जवाहरलाल नेहरू]] को पत्र लिखा कि वे [[तिब्बत]] को चीन का अंग मान लें तो पटेल ने नेहरू से आग्रह किया कि वे तिब्बत पर चीन का प्रभुत्व क़तई न स्वीकारें अन्यथा चीन भारत के लिए खतरनाक सिद्ध होगा। जवाहरलाल नेहरू नहीं माने, बस इसी भूल के कारण हमें चीन से पिटना पड़ा और चीन ने हमारी सीमा की 40 हज़ार वर्ग गज भूमि पर क़ब्ज़ा कर लिया। | |||
*सरदार पटेल के ऐतिहासिक कार्यों में [[सोमनाथ मंदिर]] का पुनर्निमाण, गाँधी स्मारक निधि की स्थापना, [[कमला नेहरू]] अस्पताल की रूपरेखा आदि कार्य सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे। उनके मन में [[गोआ]] को भी [[भारत]] में विलय करने की इच्छा कितनी बलवती थी, इसके लिए निम्नलिखित उदाहरण ही काफ़ी है-<ref name="वेबदुनिया">{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/kidsworld-prompterpersonality/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%AD-%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%88-%E0%A4%AA%E0%A4%9F%E0%A5%87%E0%A4%B2-1121031014_1.htm |title=सरदार वल्लभ भाई पटेल |accessmonthday=7 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=वेबदुनिया हिंदी |language= हिंदी}}</ref> | |||
जब एक बार सरदार पटेल भारतीय युद्धपोत द्वारा [[बम्बई]] से बाहर यात्रा पर थे तो गोआ के निकट पहुंचने पर उन्होंने कमांडिंग अफसरों से पूछा कि- "इस युद्धपोत पर तुम्हारे कितने सैनिक हैं।" जब कप्तान ने उनकी संख्या बताई, तो पटेल ने फिर पूछा- "क्या वह गोआ पर अधिकार करने के लिए पर्याप्त हैं।" सकारात्मक उत्तर मिलने पर पटेल बोले- "अच्छा चलो जब तक हम यहाँ हैं, गोआ पर अधिकार कर लो।" किंकर्तव्यविमूढ़ कप्तान ने उनसे लिखित आदेश देने की विनती की, तब तक सरदार पटेल चौंके, फिर कुछ सोचकर बोले- "ठीक है चलो हमें वापस लौटना होगा।"<ref name="वेबदुनिया"/> | |||
*[[लक्षद्वीप|लक्षद्वीप समूह]] को भारत के साथ मिलाने में भी पटेल की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। इस क्षेत्र के लोग देश की मुख्यधारा से कटे हुए थे और उन्हें भारत की आज़ादी की जानकारी [[15 अगस्त]], [[1947]] के कई दिनों बाद मिली। हालांकि यह क्षेत्र पाकिस्तान के नजदीक नहीं था, लेकिन पटेल को लगता था कि इस पर पाकिस्तान दावा कर सकता है। इसलिए ऐसी किसी भी स्थिति को टालने के लिए पटेल ने लक्षद्वीप में राष्ट्रीय ध्वज फहराने के लिए [[भारतीय नौसेना]] का एक जहाज़ भेजा। इसके कुछ घंटे बाद ही पाकिस्तानी नौसेना के जहाज लक्षद्वीप के पास मंडराते देखे गए, लेकिन वहाँ भारत का झंडा लहराते देख उन्हें वापस [[कराची]] लौटना पड़ा।<ref name="AA">{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/kidsworld-prompterpersonality/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%AD-%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%88-%E0%A4%AA%E0%A4%9F%E0%A5%87%E0%A4%B2-1111215121_1.htm |title=सरदार वल्लभ भाई पटेल |accessmonthday=7 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=वेबदुनिया हिंदी |language= हिंदी}}</ref> | |||
==नेहरूजी, गाँधीजी और सरदार पटेल== | |||
[[चित्र:Gandhi-Patel-Nehru.png|thumb|250px|[[महात्मा गाँधी]], सरदार वल्लभ भाई पटेल और [[जवाहरलाल नेहरू]]]] | [[चित्र:Gandhi-Patel-Nehru.png|thumb|250px|[[महात्मा गाँधी]], सरदार वल्लभ भाई पटेल और [[जवाहरलाल नेहरू]]]] | ||
सरदार पटेल [[भारतीय स्वतंत्रता संग्राम]] में कई बार जेल के अंदर-बाहर हुए, हालांकि जिस चीज के लिए इतिहासकार हमेशा सरदार वल्लभ भाई पटेल के बारे में जानने के लिए इच्छुक रहते हैं, वह थी उनकी और [[जवाहरलाल नेहरू]] की प्रतिस्पर्द्धा। सब जानते हैं कि [[1929]] के लाहौर अधिवेशन में सरदार पटेल ही गाँधी जी के बाद दूसरे सबसे प्रबल दावेदार थे, किन्तु मुस्लिमों के प्रति सरदार पटेल की हठधर्मिता की वजह से गाँधीजी ने उनसे उनका नाम वापस दिलवा दिया। [[1945]]-[[1946]] में [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] के अध्यक्ष पद के लिए भी पटेल एक प्रमुख उम्मीदवार थे, लेकिन इस बार भी गाँधीजी के नेहरू प्रेम ने उन्हें अध्यक्ष नहीं बनने दिया। कई इतिहासकार यहाँ तक मानते हैं कि यदि सरदार पटेल को [[प्रधानमंत्री]] बनने दिया गया होता तो [[चीन]] और [[पाकिस्तान]] के युद्ध में भारत को पूर्ण विजय मिलती, परंतु गाँधीजी के जगजाहिर नेहरू प्रेम ने उन्हें प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया।<ref name="जागरण जंक्शन"/> | |||
;गाँधीजी के प्रति श्रद्धा | |||
==== | [[महात्मा गाँधी]] के प्रति सरदार पटेल की अटूट श्रद्धा थी। गाँधीजी की हत्या से कुछ क्षण पहले निजी रूप से उनसे बात करने वाले पटेल अंतिम व्यक्ति थे। उन्होंने सुरक्षा में चूक को गृह मंत्री होने के नाते अपनी ग़लती माना। उनकी हत्या के सदमे से वे उबर नहीं पाये। गाँधीजी की मृत्यु के दो महीने के भीतर ही पटेल को दिल का दौरा पड़ा था। | ||
[[ | ;नेहरूजी से संबंध | ||
[[जवाहरलाल नेहरू]] कश्मीरी ब्राह्मण थे, जबकि सरदार पटेल [[गुजरात]] के कृषक समुदाय से ताल्लुक रखते थे। दोनों ही गाँधीजी के निकट थे। नेहरू समाजवादी विचारों से प्रेरित थे। पटेल बिजनेस के प्रति नरम रुख रखने वाले खांटी हिन्दू थे। नेहरू से उनके सम्बंध मधुर थे, लेकिन कई मसलों पर दोनों के मध्य मतभेद भी थे। [[कश्मीर]] के मसले पर दोनों के विचार भिन्न थे। कश्मीर मसले पर [[संयुक्त राष्ट्र]] को मध्यस्थ बनाने के सवाल पर पटेल ने नेहरू का कड़ा विरोध किया था। कश्मीर समस्या को सरदर्द मानते हुए वे [[भारत]] और [[पाकिस्तान]] के बीच द्विपक्षीय आधार पर मामले को निपटाना चाहते थे। इस मसले पर विदेशी हस्तक्षेप के वे ख़िलाफ़ थे। [[भारत के प्रधानमंत्री|भारत के प्रथम प्रधानमंत्री]] के चुनाव के पच्चीस वर्ष बाद [[चक्रवर्ती राजगोपालाचारी]] ने लिखा था- "निस्संदेह बेहतर होता, यदि नेहरू को विदेश मंत्री तथा सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाया जाता। यदि पटेल कुछ दिन और जीवित रहते तो वे प्रधानमंत्री के पद पर अवश्य पहुँचते, जिसके लिए संभवत: वे योग्य पात्र थे। तब भारत में कश्मीर, [[तिब्बत]], [[चीन]] और अन्यान्य विवादों की कोई समस्या नहीं रहती।" | |||
{{seealso|सरदार पटेल के प्रेरक प्रसंग}} | |||
====संघ से नाता==== | |||
गाँधीजी की हत्या में [[हिन्दू]] चरमपंथियों का नाम आने पर सरदार पटेल ने [[राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ]] को प्रतिबंधित कर दिया था और सरसंघचालक एम.एस. गोलवरकर को जेल में डाल दिया गया। रिहा होने के बाद गोलवरकर ने उनको पत्र लिखे। [[11 सितम्बर]], [[1948]] को पटेल ने जवाब देते हुए संघ के प्रति अपना नजरिया स्पष्ट करते हुए लिखा कि- "संघ के भाषण में जहर होता है... उसी विष का नतीजा है कि देश को गाँधीजी के अमूल्य जीवन का बलिदान सहना पड़ रहा है।" | |||
==भारत के लौह पुरुष== | |||
सरदार पटेल को '''भारत का लौह पुरुष''' कहा जाता है। गृहमंत्री बनने के बाद भारतीय रियासतों के विलय की ज़िम्मेदारी उनको ही सौंपी गई थी। उन्होंने अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए छह सौ छोटी बड़ी रियासतों का भारत में विलय कराया। देशी रियासतों का विलय स्वतंत्र भारत की पहली उपलब्धि थी और निर्विवाद रूप से पटेल का इसमें विशेष योगदान था। नीतिगत दृढ़ता के लिए 'राष्ट्रपिता' ने उन्हें 'सरदार' और 'लौह पुरुष' की उपाधि दी थी। बिस्मार्क ने जिस तरह जर्मनी के एकीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, उसी तरह वल्लभ भाई पटेल ने भी आज़ाद भारत को एक विशाल राष्ट्र बनाने में उल्लेखनीय योगदान दिया। बिस्मार्क को जहाँ "जर्मनी का आयरन चांसलर" कहा जाता है, वहीं पटेल "भारत के लौह पुरुष" कहलाते हैं।<ref name="जागरण जंक्शन">{{cite web |url=http://days.jagranjunction.com/2011/10/31/biography-of-sardar-vallabhbhai-patel/ |title=लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल |accessmonthday=7 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=जागरण जंक्शन |language= हिंदी}}</ref> | |||
==कश्मीर एवं हैदराबाद== | |||
[[चित्र:Sardar-Vallabhbhai-Patel-and-Jawaharlal-Nehru.jpg|thumb|सरदार पटेल और [[जवाहरलाल नेहरू|पंडित जवाहरलाल नेहरू]]]] | |||
सरदार पटेल को [[भारत]] के गृह मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान [[कश्मीर]] के संवेदनशील मामले को सुलझाने में कई गंभीर मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। उनका मानना था कि कश्मीर मामले को [[संयुक्त राष्ट्र]] में नहीं ले जाना चाहिए था। वास्तव में सयुक्त राष्ट्र में ले जाने से पहले ही इस मामले को [[भारत]] के हित में सुलझाया जा सकता था। हैदराबाद रियासत के संबंध में सरदार पटेल समझौते के लिए भी तैयार नहीं थे। बाद में [[लॉर्ड माउंटबेटन]] के आग्रह पर ही वह [[20 नवंबर]], [[1947]] को निज़ाम द्वारा बाह्म मामले भारत रक्षा एवं संचार मंत्रालय, [[भारत सरकार]] को सौंपे जाने की बात पर सहमत हुए। [[हैदराबाद]] के भारत में विलय के प्रस्ताव को निज़ाम द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने पर अतंतः वहाँ सैनिक अभियान का नेतृत्व करने के लिए सरदार पटेल ने जनरल जे. एन. चौधरी को नियुक्त करते हुए शीघ्रातिशीघ्र कार्यवाई पूरी करने का निर्देश दिया। सैनिक हैदराबाद पहुँच गए और सप्ताह भर में ही हैदराबाद का भारत में विधिवत् विलय कर लिया गया। एक बार सरदार पटेल ने स्वयं श्री एच. वी. कामत को बताया था कि- "यदि [[जवाहरलाल नेहरू]] और गोपालस्वामी आयंगर कश्मीर मुद्दे पर हस्तक्षेप न करते और उसे गृह मंत्रालय से अलग न करते तो मैं हैदराबाद की तरह ही इस मुद्दे को भी आसानी से देश-हित में सुलझा लेता।"<br /> | |||
हैदराबाद के मामले में भी जवाहरलाल नेहरू सैनिक कार्रवाई के पक्ष में नही थे। उन्होंने सरदार पटेल को यह परामर्श दिया- "इस प्रकार से मसले को सुलझाने में पूरा खतरा और अनिश्चितता है।" वे चाहते थे कि हैदराबाद में की जाने वाली सैनिक काररवाई को स्थगित कर दिया जाए। इससे राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय जटिलताएँ उत्पन्न हो सकती हैं। | |||
प्रख्यात कांग्रेसी नेता [[एन. जी. रंगा|प्रो.एन. जी. रंगा]] की भी राय थी कि विलम्ब से की गई कार्रवाई के लिए नेहरू, [[मौलाना अबुल कलाम आज़ाद|मौलाना]] और माउंटबेटन जिम्मेदार हैं। रंगा लिखते हैं कि हैदराबाद के मामले में सरदार पटेल स्वयं अनुभव करते थे कि उन्होंने यदि जवाहरलाल नेहरू की सलाहें मान ली होतीं तो हैदराबाद मामला उलझ जाता; कमोबेश वैसी ही सलाहें मौलाना आजाद एवं लॉर्ड माउंटबेटन की भी थीं। सरदार पटेल हैदराबाद के भारत में शीघ्र विलय के पक्ष में थे, लेकिन जवाहरलाल नेहरू इससे सहमत नहीं थे। लॉर्ड माउंटबेटन की कूटनीति भी ऐसी थी कि सरदार पटेल के विचार और प्रयासों को साकार रूप देने में विलम्ब हो गया। | |||
सरदार पटेल के राजनीतिक विरोधियों ने उन्हें मुस्लिम वर्ग के विरोधी के रूप में वर्णित किया; लेकिन वास्तव में सरदार पटेल हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए संघर्षरत रहे। इस धारणा की पुष्टि उनके विचारों एवं कार्यों से होती है। यहाँ तक कि गाँधीजी ने भी स्पष्ट किया था कि- "सरदार पटेल को मुस्लिम-विरोधी बताना सत्य को झुठलाना है। यह बहुत बड़ी विडंबना है।" वस्तुत: स्वतंत्रता-प्राप्ति के तत्काल बाद 'अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय' में दिए गए उनके व्याख्यान में हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न पर उनके विचारों की पुष्टि होती है।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=3326 |title= कश्मीर एवं हैदराबाद ( सरदार पटेल)|accessmonthday=2 जनवरी |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=हिंदी }}</ref> | |||
==सम्मान और पुरस्कार== | |||
[[चित्र:Statue-of-unity.jpg|thumb|250px|[[स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी]]]] | |||
* सन [[1991]] में सरदार पटेल को मरणोपरान्त '[[भारत रत्न]]' से सम्मानित किया गया। | |||
* [[अहमदाबाद]] के हवाई अड्डे का नामकरण 'सरदार वल्लभभाई पटेल अन्तराष्ट्रीय हवाई अड्डा' रखा गया है। | |||
* [[गुजरात]] के वल्लभ विद्यानगर में 'सरदार पटेल विश्वविद्यालय' है। | |||
====स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी==== | |||
{{Main|स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी}} | |||
[[31 अक्टूबर]], [[2013]] को सरदार वल्लभ भाई पटेल की 137वीं जयंती के अवसर पर [[गुजरात]] के पूर्व [[मुख्यमंत्री]] [[नरेन्द्र मोदी]]<ref>भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री</ref> ने गुजरात के [[नर्मदा ज़िला|नर्मदा ज़िले]] में सरदार पटेल के स्मारक का शिलान्यास किया। इसका नाम 'एकता की मूर्ति' (स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी) रखा गया है। यह मूर्ति 'स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी' (93 मीटर) से दुगनी ऊँचाई वाली बनाई जाएगी। इस प्रतिमा को एक छोटे चट्टानी द्वीप पर स्थापित किया जाएगा, जो केवाड़िया में [[सरदार सरोवर बांध]] के सामने [[नर्मदा नदी]] के मध्य में है। सरदार वल्लभ भाई पटेल की यह प्रतिमा दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा होगी। यह 5 वर्ष में तैयार होनी है। | |||
==निधन == | |||
== | सरदार पटेल जी का निधन [[15 दिसंबर]], [[1950]] को [[मुंबई]], [[महाराष्ट्र]] में हुआ था। | ||
सरदार पटेल जी का निधन [[15 दिसंबर]], [[1950]] को [[मुंबई]] [[महाराष्ट्र]] में हुआ था। | |||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | |||
<references/> | |||
==बाहरी कड़ियाँ== | |||
*[http://sardarvallavbhaipatel.blogspot.in/ सरदार वल्लभ भाई पटेल] | |||
*[http://hindugarjan.blogspot.in/2010/09/blog-post_6515.html राष्ट्र-निर्माता लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल] | |||
*[http://hindi.in.com/latest-news/news/Today-Is-Birthday-Of-Sardar-Vallabhbhai-Patel-1524792.html ऐसे थे लौह पुरुष ‘सरदार वल्लभभाई पटेल’] | |||
*[http://hindi.oneindia.in/news/2011/10/31/india-forget-sardar-patel-in-front-of-indira-gandhi-aid0046.html इंदिरा के आगे सरदार पटेल को भूल गया भारत?] | |||
*[http://www.achhikhabar.com/2012/07/24/sardar-vallabhbhai-patel-quotes-in-hindi/ सरदार वल्लभभाई पटेल के अनमोल विचार ] | |||
*[http://panchjanya.com/arch/2011/3/6/File22.htm गांधी जी ने नेहरू को ही देश का नेतृत्व क्यों सौंपा? ] | |||
*[http://www.thesundayindian.com/hi/story/history-letter-patel-letter-to-nehru/12/4187/ सरदार पटेल का खत पंडित नेहरू के नाम] | |||
*[http://www.sardarpateltrust.org/ Sardar Patel Trust] | |||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{भारत रत्न}}{{स्वतन्त्रता सेनानी}}{{भारत रत्न2}} | {{सरदार पटेल}}{{भारत रत्न}}{{भारत का विभाजन}}{{स्वतन्त्रता सेनानी}}{{भारत रत्न2}} | ||
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08:40, 11 मार्च 2024 के समय का अवतरण
सरदार पटेल
| |
पूरा नाम | सरदार वल्लभ भाई पटेल |
अन्य नाम | सरदार पटेल |
जन्म | 31 अक्टूबर, 1875 |
जन्म भूमि | नाडियाड, गुजरात |
मृत्यु | 15 दिसंबर, 1950 (उम्र- 75) |
मृत्यु स्थान | मुम्बई, महाराष्ट्र |
मृत्यु कारण | दिल का दौरा |
अभिभावक | झवेरभाई पटेल, लाड़बाई |
पति/पत्नी | झवेरबा[1] |
संतान | पुत्र- दहयाभाई पटेल, पुत्री- मणिबेन पटेल |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | भारत के लौहपुरुष |
पार्टी | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस |
पद | उप प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, सूचना मंत्री और राज्य मंत्री |
कार्य काल | 15 अगस्त, 1947 से 15 दिसंबर, 1950 |
शिक्षा | वक़ालत |
भाषा | हिंदी |
जेल यात्रा | (1930), जनवरी 1932, अक्टूबर 1940 |
पुरस्कार-उपाधि | भारत रत्न |
विशेष योगदान | देशी रियासतों का विलय स्वतंत्र भारत की पहली उपलब्धि थी और निर्विवाद रूप से सरदार पटेल का इसमें विशेष योगदान था। नीतिगत दृढ़ता के लिए गाँधीजी ने उन्हें 'सरदार' और 'लौह पुरुष' की उपाधि दी थी। |
संबंधित लेख | राष्ट्रीय एकता दिवस, विट्ठलदास झवेरभाई पटेल |
आंदोलन | नमक सत्याग्रह |
उपाधियाँ | 'लौहपुरुष', 'भारत का बिस्मार्क' |
अन्य जानकारी | वास्तव में सरदार पटेल आधुनिक भारत के शिल्पी थे। उनके कठोर व्यक्तित्व में विस्मार्क[2] जैसी संगठन कुशलता, कौटिल्य जैसी राजनीति सत्ता तथा राष्ट्रीय एकता के प्रति अब्राहम लिंकन जैसी अटूट निष्ठा थी। |
सरदार वल्लभभाई पटेल (अंग्रेज़ी: Sardar Vallabhbhai Patel; जन्म- 31 अक्टूबर, 1875, गुजरात; मृत्यु- 15 दिसंबर, 1950, महाराष्ट्र) प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा स्वतंत्र भारत के प्रथम गृहमंत्री थे। वे 'सरदार पटेल' के उपनाम से प्रसिद्ध हैं। सरदार पटेल भारतीय बैरिस्टर और प्रसिद्ध राजनेता थे। भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के नेताओं में से वे एक थे। 1947 में भारत की आज़ादी के बाद पहले तीन वर्ष वे उप प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, सूचना मंत्री और राज्य मंत्री रहे थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद क़रीब पाँच सौ से भी ज़्यादा देसी रियासतों का एकीकरण एक सबसे बड़ी समस्या थी। कुशल कूटनीति और ज़रूरत पड़ने पर सैन्य हस्तक्षेप के जरिए सरदार पटेल ने उन अधिकांश रियासतों को तिरंगे के तले लाने में सफलता प्राप्त की। इसी उपलब्धि के चलते उन्हें लौह पुरुष या भारत का बिस्मार्क की उपाधि से सम्मानित किया गया। उन्हें मरणोपरांत वर्ष 1991 में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' दिया गया। वर्ष 2014 में सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती (31 अक्टूबर) 'राष्ट्रीय एकता दिवस' के रूप में मनाई जाती है।
जीवन परिचय
सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर, 1875 ई. में नाडियाड, गुजरात में हुआ था। उनका जन्म लेवा पट्टीदार जाति के एक समृद्ध ज़मींदार परिवार में हुआ था। वे अपने पिता झवेरभाई पटेल एवं माता लाड़बाई की चौथी संतान थे। सोमभाई, नरसीभाई और विट्ठलदास झवेरभाई पटेल उनके अग्रज थे। पारम्परिक हिन्दू माहौल में पले-बढ़े सरदार पटेल ने करमसद में प्राथमिक विद्यालय और पेटलाद स्थित उच्च विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की, लेकिन उन्होंने अधिकांश ज्ञान स्वाध्याय से ही अर्जित किया। 16 वर्ष की आयु में उनका विवाह हो गया। 22 साल की उम्र में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की और ज़िला अधिवक्ता की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, जिससे उन्हें वक़ालत करने की अनुमति मिली। सन 1900 में उन्होंने गोधरा में स्वतंत्र ज़िला अधिवक्ता कार्यालय की स्थापना की और दो साल बाद खेड़ा ज़िले के बोरसद नामक स्थान पर चले गए।
परिवार
सरदार पटेल के पिता झबेरभाई एक धर्मपरायण व्यक्ति थे। गुजरात में सन 1829 ई. में स्वामी सहजानन्द द्वारा स्थापित स्वामी नारायण पंथ के वे परम भक्त थे। 55 वर्ष की अवस्था के उपरान्त उन्होंने अपना जीवन उसी में अर्पित कर दिया था। वल्लभभाई ने स्वयं कहा है- "मैं तो साधारण कुटुम्ब का था। मेरे पिता मन्दिर में ही ज़िन्दगी बिताते थे और वहीं उन्होंने पूरी की।" वल्लभभाई की माता लाड़बाई अपने पति के समान एक धर्मपरायण महिला थीं। वल्लभभाई पाँच भाई व एक बहन थे। भाइयों के नाम क्रमशः सोभाभाई, नरसिंहभाई, विट्ठलभाई, वल्लभभाई और काशीभाई थे। बहन डाबीहा सबसे छोटी थी। इनमें विट्ठलभाई तथा वल्लभभाई ने राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेकर भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान ग्रहण किया। माता-पिता के गुण संयम, साहस, सहिष्णुता, देश-प्रेम का प्रभाव वल्लभभाई के चरित्र पर स्पष्ट था।[3]
व्यावसायिक शुरुआत
एक वकील के रूप में सरदार पटेल ने कमज़ोर मुक़दमे को सटीकता से प्रस्तुत करके और पुलिस के गवाहों तथा अंग्रेज़ न्यायाधीशों को चुनौती देकर विशेष स्थान अर्जित किया। 1908 में पटेल की पत्नी की मृत्यु हो गई। उस समय उनके एक पुत्र और एक पुत्री थी। इसके बाद उन्होंने विधुर जीवन व्यतीत किया। वक़ालत के पेशे में तरक़्क़ी करने के लिए कृतसंकल्प पटेल ने मिड्ल टेंपल के अध्ययन के लिए अगस्त, 1910 में लंदन की यात्रा की। वहाँ उन्होंने मनोयोग से अध्ययन किया और अंतिम परीक्षा में उच्च प्रतिष्ठा के साथ उत्तीर्ण हुए।
अग्रणी बैरिस्टर
फ़रवरी, 1913 में भारत लौटकर सरदार पटेल अहमदाबाद में बस गए और तेज़ी से उन्नति करते हुए अहमदाबाद अधिवक्ता बार में अपराध क़ानून के अग्रणी बैरिस्टर बन गए। गम्भीर और शालीन पटेल अपने उच्च स्तरीय तौर-तरीक़ों और चुस्त, अंग्रेज़ी पहनावे के लिए जाने जाते थे। वह अहमदाबाद के फ़ैशनपरस्त गुजरात क्लब में ब्रिज के चैंपियन होने के कारण भी विख्यात थे। 1917 तक वे भारत की राजनीतिक गतिविधियों के प्रति उदासीन रहे।
सत्याग्रह से जुड़ाव
सन 1917 में मोहनदास करमचन्द गांधी से प्रभावित होने के बाद सरदार पटेल ने पाया कि उनके जीवन की दिशा बदल गई है। वे गाँधीजी के सत्याग्रह (अंहिसा की नीति) के साथ तब तक जुड़े रहे, जब तक वह अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ भारतीयों के संघर्ष में क़ारगर रहा। लेकिन उन्होंने कभी भी खुद को गाँधीजी के नैतिक विश्वासों व आदर्शों के साथ नहीं जोड़ा। उनका मानना था कि उन्हें सार्वभौमिक रूप से लागू करने का गाँधी का आग्रह, भारत के तत्कालीन राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक परिप्रेक्ष्य में अप्रासंगिक है। फिर भी गाँधीजी के अनुसरण और समर्थन का संकल्प करने के बाद पटेल ने अपनी शैली और वेशभूषा में परिवर्तन कर लिया। उन्होंने गुजरात क्लब छोड़ दिया और भारतीय किसानों के समान सफ़ेद वस्त्र पहनने लगे तथा भारतीय खान-पान को पूरी तरह से अपना लिया।
बारदोली सत्याग्रह का नेतृत्व
सन 1917 से 1924 तक सरदार पटेल ने अहमदनगर के पहले भारतीय निगम आयुक्त के रूप में सेवा प्रदान की और 1924 से 1928 तक वे इसके निर्वाचित नगरपालिका अध्यक्ष भी रहे। 1918 में उन्होंने अपनी पहली छाप छोड़ी, जब भारी वर्षा से फ़सल तबाह होने के बावज़ूद बम्बई सरकार द्वारा पूरा सालाना लगान वसूलने के फ़ैसले के विरुद्ध उन्होंने गुजरात के कैरा ज़िले में किसानों और काश्तकारों के जनांदोलन की रूपरेखा बनाई। 1928 में पटेल ने बढ़े हुए करों के ख़िलाफ़ बारदोली के भूमिपतियों के संघर्ष का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। बारदोली सत्याग्रह के कुशल नेतृत्व के कारण उन्हें 'सरदार' की उपाधि मिली और उसके बाद देश भर में राष्ट्रवादी नेता के रूप में उनकी पहचान बन गई। उन्हें व्यावहारिक, निर्णायक और यहाँ तक कि कठोर भी माना जाता था तथा अंग्रेज़ उन्हें एक ख़तरनाक शत्रु मानते थे।
राजनीतिक दर्शन
सरदार पटेल क्रान्तिकारी नहीं थे। 1928 से 1931 के बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उद्देश्यों पर हो रही महत्त्वपूर्ण बहस में पटेल का विचार था[4] कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का लक्ष्य स्वाधीनता नहीं, बल्कि ब्रिटिश राष्ट्रकुल के भीतर अधिराज्य का दर्जा प्राप्त करने का होना चाहिए। जवाहरलाल नेहरू के विपरीत, जो स्वतंत्रता के लिए संघर्ष में हिंसा की अनदेखी करने के पक्ष में थे, पटेल नैतिक नहीं, व्यावहारिक आधार पर सशस्त्र आन्दोलन को नकारते थे। पटेल का मानना था कि यह विफल रहेगा और इसका ज़बरदस्त दमन होगा। महात्मा गाँधी की भाँति पटेल भी भविष्य में ब्रिटिश राष्ट्रकुल में स्वतंत्र भारत की भागीदारी में लाभ देखते थे। बशर्ते भारत को एक बराबरी के सदस्य के रूप में शामिल किया जाए। वह भारत में आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास क़ायम करने पर ज़ोर देते थे, लेकिन गाँधीजी के विपरीत, वह हिन्दू-मुस्लिम एकता को स्वतंत्रता की पूर्व शर्त नहीं मानते थे।
बलपूर्वक आर्थिक और सामाजिक बदलाव लाने की आवश्यकता के बारे में सरदार पटेल जवाहरलाल नेहरू से असहमत थे। पारम्परिक हिन्दू मूल्यों से उपजे रूढ़िवादी पटेल ने भारत की सामाजिक और आर्थिक संरचना में समाजवादी विचारों को अपनाने की उपयोगिता का उपहास किया। वह मुक्त उद्यम में यक़ीन रखते थे। इस प्रकार, उन्हें रूढ़िवादी तत्वों का विश्वास प्राप्त हुआ तथा उनसे प्राप्त धन से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियाँ संचालित होती रहीं।
जेलयात्रा
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1929 के लाहौर अधिवेशन में सरदार पटेल, महात्मा गाँधी के बाद अध्यक्ष पद के दूसरे उम्मीदवार थे। गाँधीजी ने स्वाधीनता के प्रस्ताव को स्वीकृत होने से रोकने के प्रयास में अध्यक्ष पद की दावेदारी छोड़ दी और पटेल पर भी नाम वापस लेने के लिए दबाव डाला। इसका प्रमुख कारण मुसलमानों के प्रति पटेल की हठधर्मिता थी। अंतत: जवाहरलाल नेहरू अध्यक्ष बने। 1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान पटेल को तीन महीने की जेल हुई। मार्च, 1931 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के करांची अधिवेशन की अध्यक्षता की। जनवरी, 1932 में उन्हें फिर गिरफ़्तार कर लिया गया। जुलाई, 1934 में वह रिहा हुए और 1937 के चुनावों में उन्होंने कांग्रेस पार्टी के संगठन को व्यवस्थित किया। 1937-1938 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष पद के प्रमुख दावेदार थे। एक बार फिर गाँधीजी के दबाव में पटेल को अपना नाम वापस लेना पड़ा और जवाहरलाल नेहरू निर्वाचित हुए। अक्टूबर, 1940 में कांग्रेस के अन्य नेताओं के साथ पटेल भी गिरफ़्तार हुए और अगस्त, 1941 में रिहा हुए।
गाँधीजी से मतभेद
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब जापानी हमले की आशंका हुई, तो सरदार पटेल ने गाँधीजी की अहिंसा की नीति को अव्यावहारिक बताकर ख़ारिज कर दिया। सत्ता के हस्तान्तरण के मुद्दे पर भी उनका गाँधीजी से इस बात पर मतभेद था कि उपमहाद्वीप का हिन्दू भारत तथा मुस्लिम पाकिस्तान के रूप में विभाजन अपरिहार्य है। पटेल ने ज़ोर दिया कि पाकिस्तान दे देना भारत के हित में है। 1945-1946 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए सरदार पटेल प्रमुख उम्मीदवार थे। लेकिन महात्मा गाँधी ने एक बार फिर हस्तक्षेप करके जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष बनवा दिया। कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नेहरू को ब्रिटिश वाइसरॉय ने अंतरिम सरकार के गठन के लिए आमंत्रित किया। इस प्रकार, यदि घटनाक्रम सामान्य रहता, तो सरदार पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री होते।
देशी रियासतों के विलय में भूमिका
स्वतंत्र भारत के पहले तीन वर्ष सरदार पटेल उप-प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, सूचना मंत्री और राज्य मंत्री रहे। इस सबसे भी बढ़कर उनकी ख्याति भारत के रजवाड़ों को शान्तिपूर्ण तरीक़े से भारतीय संघ में शामिल करने तथा भारत के राजनीतिक एकीकरण के कारण है। 5 जुलाई, 1947 को सरदार पटेल ने रियासतों के प्रति नीति को स्पष्ट करते हुए कहा कि- "रियासतों को तीन विषयों 'सुरक्षा', 'विदेश' तथा 'संचार व्यवस्था' के आधार पर भारतीय संघ में शामिल किया जाएगा।" धीरे-धीरे बहुत-सी देसी रियासतों के शासक भोपाल के नवाब से अलग हो गये और इस तरह नवस्थापित रियासती विभाग की योजना को सफलता मिली।
भारत के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भारतीय संघ में उन रियासतों का विलय किया, जो स्वयं में संप्रभुता प्राप्त थीं। उनका अलग झंडा और अलग शासक था। सरदार पटेल ने आज़ादी के ठीक पूर्व (संक्रमण काल में) ही पी.वी. मेनन के साथ मिलकर कई देसी राज्यों को भारत में मिलाने के लिये कार्य आरम्भ कर दिया था। पटेल और मेनन ने देसी राजाओं को बहुत समझाया कि उन्हें स्वायत्तता देना सम्भव नहीं होगा। इसके परिणामस्वरूप तीन रियासतें- हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोडकर शेष सभी राजवाड़ों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 15 अगस्त, 1947 तक हैदराबाद, कश्मीर और जूनागढ़ को छोड़कर शेष भारतीय रियासतें 'भारत संघ' में सम्मिलित हो चुकी थीं, जो भारतीय इतिहास की एक बड़ी उपलब्धि थी। जूनागढ़ के नवाब के विरुद्ध जब बहुत विरोध हुआ तो वह भागकर पाकिस्तान चला गया और इस प्रकार जूनागढ भी भारत में मिला लिया गया। जब हैदराबाद के निज़ाम ने भारत में विलय का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तो सरदार पटेल ने वहाँ सेना भेजकर निज़ाम का आत्मसमर्पण करा लिया।
राजनीतिक योगदान
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को वैचारिक एवं क्रियात्मक रूप में एक नई दिशा देने के कारण सरदार पटेल ने राजनीतिक इतिहास में एक गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया। वास्तव में वे आधुनिक भारत के शिल्पी थे। उनके कठोर व्यक्तित्व में विस्मार्क[5] जैसी संगठन कुशलता, कौटिल्य जैसी राजनीति सत्ता तथा राष्ट्रीय एकता के प्रति अब्राहम लिंकन जैसी अटूट निष्ठा थी। जिस अदम्य उत्साह असीम शक्ति से उन्होंने नवजात गणराज्य की प्रारम्भिक कठिनाइयों का समाधान किया, उसके कारण विश्व के राजनीतिक मानचित्र में उन्होंने अमिट स्थान बना लिया। भारत के राजनीतिक इतिहास में सरदार पटेल के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। सरदार पटेल के ऐतिहासिक कार्यों और किये गये राजनीतिक योगदान निम्नवत हैं-
- देशी राज्यों के एकीकरण की समस्या को सरदार पटेल ने बिना खून-खराबे के बड़ी खूबी से हल किया। देशी राज्यों में राजकोट, जूनागढ़, वहालपुर, बड़ौदा, कश्मीर, हैदराबाद को भारतीय महासंघ में सम्मिलित करने में सरदार पटेल को कई पेचीदगियों का सामना करना पड़ा। जब चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखा कि वे तिब्बत को चीन का अंग मान लें तो पटेल ने नेहरू से आग्रह किया कि वे तिब्बत पर चीन का प्रभुत्व क़तई न स्वीकारें अन्यथा चीन भारत के लिए खतरनाक सिद्ध होगा। जवाहरलाल नेहरू नहीं माने, बस इसी भूल के कारण हमें चीन से पिटना पड़ा और चीन ने हमारी सीमा की 40 हज़ार वर्ग गज भूमि पर क़ब्ज़ा कर लिया।
- सरदार पटेल के ऐतिहासिक कार्यों में सोमनाथ मंदिर का पुनर्निमाण, गाँधी स्मारक निधि की स्थापना, कमला नेहरू अस्पताल की रूपरेखा आदि कार्य सदैव स्मरण किए जाते रहेंगे। उनके मन में गोआ को भी भारत में विलय करने की इच्छा कितनी बलवती थी, इसके लिए निम्नलिखित उदाहरण ही काफ़ी है-[6]
जब एक बार सरदार पटेल भारतीय युद्धपोत द्वारा बम्बई से बाहर यात्रा पर थे तो गोआ के निकट पहुंचने पर उन्होंने कमांडिंग अफसरों से पूछा कि- "इस युद्धपोत पर तुम्हारे कितने सैनिक हैं।" जब कप्तान ने उनकी संख्या बताई, तो पटेल ने फिर पूछा- "क्या वह गोआ पर अधिकार करने के लिए पर्याप्त हैं।" सकारात्मक उत्तर मिलने पर पटेल बोले- "अच्छा चलो जब तक हम यहाँ हैं, गोआ पर अधिकार कर लो।" किंकर्तव्यविमूढ़ कप्तान ने उनसे लिखित आदेश देने की विनती की, तब तक सरदार पटेल चौंके, फिर कुछ सोचकर बोले- "ठीक है चलो हमें वापस लौटना होगा।"[6]
- लक्षद्वीप समूह को भारत के साथ मिलाने में भी पटेल की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। इस क्षेत्र के लोग देश की मुख्यधारा से कटे हुए थे और उन्हें भारत की आज़ादी की जानकारी 15 अगस्त, 1947 के कई दिनों बाद मिली। हालांकि यह क्षेत्र पाकिस्तान के नजदीक नहीं था, लेकिन पटेल को लगता था कि इस पर पाकिस्तान दावा कर सकता है। इसलिए ऐसी किसी भी स्थिति को टालने के लिए पटेल ने लक्षद्वीप में राष्ट्रीय ध्वज फहराने के लिए भारतीय नौसेना का एक जहाज़ भेजा। इसके कुछ घंटे बाद ही पाकिस्तानी नौसेना के जहाज लक्षद्वीप के पास मंडराते देखे गए, लेकिन वहाँ भारत का झंडा लहराते देख उन्हें वापस कराची लौटना पड़ा।[7]
नेहरूजी, गाँधीजी और सरदार पटेल
सरदार पटेल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई बार जेल के अंदर-बाहर हुए, हालांकि जिस चीज के लिए इतिहासकार हमेशा सरदार वल्लभ भाई पटेल के बारे में जानने के लिए इच्छुक रहते हैं, वह थी उनकी और जवाहरलाल नेहरू की प्रतिस्पर्द्धा। सब जानते हैं कि 1929 के लाहौर अधिवेशन में सरदार पटेल ही गाँधी जी के बाद दूसरे सबसे प्रबल दावेदार थे, किन्तु मुस्लिमों के प्रति सरदार पटेल की हठधर्मिता की वजह से गाँधीजी ने उनसे उनका नाम वापस दिलवा दिया। 1945-1946 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए भी पटेल एक प्रमुख उम्मीदवार थे, लेकिन इस बार भी गाँधीजी के नेहरू प्रेम ने उन्हें अध्यक्ष नहीं बनने दिया। कई इतिहासकार यहाँ तक मानते हैं कि यदि सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनने दिया गया होता तो चीन और पाकिस्तान के युद्ध में भारत को पूर्ण विजय मिलती, परंतु गाँधीजी के जगजाहिर नेहरू प्रेम ने उन्हें प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया।[8]
- गाँधीजी के प्रति श्रद्धा
महात्मा गाँधी के प्रति सरदार पटेल की अटूट श्रद्धा थी। गाँधीजी की हत्या से कुछ क्षण पहले निजी रूप से उनसे बात करने वाले पटेल अंतिम व्यक्ति थे। उन्होंने सुरक्षा में चूक को गृह मंत्री होने के नाते अपनी ग़लती माना। उनकी हत्या के सदमे से वे उबर नहीं पाये। गाँधीजी की मृत्यु के दो महीने के भीतर ही पटेल को दिल का दौरा पड़ा था।
- नेहरूजी से संबंध
जवाहरलाल नेहरू कश्मीरी ब्राह्मण थे, जबकि सरदार पटेल गुजरात के कृषक समुदाय से ताल्लुक रखते थे। दोनों ही गाँधीजी के निकट थे। नेहरू समाजवादी विचारों से प्रेरित थे। पटेल बिजनेस के प्रति नरम रुख रखने वाले खांटी हिन्दू थे। नेहरू से उनके सम्बंध मधुर थे, लेकिन कई मसलों पर दोनों के मध्य मतभेद भी थे। कश्मीर के मसले पर दोनों के विचार भिन्न थे। कश्मीर मसले पर संयुक्त राष्ट्र को मध्यस्थ बनाने के सवाल पर पटेल ने नेहरू का कड़ा विरोध किया था। कश्मीर समस्या को सरदर्द मानते हुए वे भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय आधार पर मामले को निपटाना चाहते थे। इस मसले पर विदेशी हस्तक्षेप के वे ख़िलाफ़ थे। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के चुनाव के पच्चीस वर्ष बाद चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने लिखा था- "निस्संदेह बेहतर होता, यदि नेहरू को विदेश मंत्री तथा सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाया जाता। यदि पटेल कुछ दिन और जीवित रहते तो वे प्रधानमंत्री के पद पर अवश्य पहुँचते, जिसके लिए संभवत: वे योग्य पात्र थे। तब भारत में कश्मीर, तिब्बत, चीन और अन्यान्य विवादों की कोई समस्या नहीं रहती।" इन्हें भी देखें: सरदार पटेल के प्रेरक प्रसंग
संघ से नाता
गाँधीजी की हत्या में हिन्दू चरमपंथियों का नाम आने पर सरदार पटेल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित कर दिया था और सरसंघचालक एम.एस. गोलवरकर को जेल में डाल दिया गया। रिहा होने के बाद गोलवरकर ने उनको पत्र लिखे। 11 सितम्बर, 1948 को पटेल ने जवाब देते हुए संघ के प्रति अपना नजरिया स्पष्ट करते हुए लिखा कि- "संघ के भाषण में जहर होता है... उसी विष का नतीजा है कि देश को गाँधीजी के अमूल्य जीवन का बलिदान सहना पड़ रहा है।"
भारत के लौह पुरुष
सरदार पटेल को भारत का लौह पुरुष कहा जाता है। गृहमंत्री बनने के बाद भारतीय रियासतों के विलय की ज़िम्मेदारी उनको ही सौंपी गई थी। उन्होंने अपने दायित्वों का निर्वहन करते हुए छह सौ छोटी बड़ी रियासतों का भारत में विलय कराया। देशी रियासतों का विलय स्वतंत्र भारत की पहली उपलब्धि थी और निर्विवाद रूप से पटेल का इसमें विशेष योगदान था। नीतिगत दृढ़ता के लिए 'राष्ट्रपिता' ने उन्हें 'सरदार' और 'लौह पुरुष' की उपाधि दी थी। बिस्मार्क ने जिस तरह जर्मनी के एकीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, उसी तरह वल्लभ भाई पटेल ने भी आज़ाद भारत को एक विशाल राष्ट्र बनाने में उल्लेखनीय योगदान दिया। बिस्मार्क को जहाँ "जर्मनी का आयरन चांसलर" कहा जाता है, वहीं पटेल "भारत के लौह पुरुष" कहलाते हैं।[8]
कश्मीर एवं हैदराबाद
सरदार पटेल को भारत के गृह मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान कश्मीर के संवेदनशील मामले को सुलझाने में कई गंभीर मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। उनका मानना था कि कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र में नहीं ले जाना चाहिए था। वास्तव में सयुक्त राष्ट्र में ले जाने से पहले ही इस मामले को भारत के हित में सुलझाया जा सकता था। हैदराबाद रियासत के संबंध में सरदार पटेल समझौते के लिए भी तैयार नहीं थे। बाद में लॉर्ड माउंटबेटन के आग्रह पर ही वह 20 नवंबर, 1947 को निज़ाम द्वारा बाह्म मामले भारत रक्षा एवं संचार मंत्रालय, भारत सरकार को सौंपे जाने की बात पर सहमत हुए। हैदराबाद के भारत में विलय के प्रस्ताव को निज़ाम द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने पर अतंतः वहाँ सैनिक अभियान का नेतृत्व करने के लिए सरदार पटेल ने जनरल जे. एन. चौधरी को नियुक्त करते हुए शीघ्रातिशीघ्र कार्यवाई पूरी करने का निर्देश दिया। सैनिक हैदराबाद पहुँच गए और सप्ताह भर में ही हैदराबाद का भारत में विधिवत् विलय कर लिया गया। एक बार सरदार पटेल ने स्वयं श्री एच. वी. कामत को बताया था कि- "यदि जवाहरलाल नेहरू और गोपालस्वामी आयंगर कश्मीर मुद्दे पर हस्तक्षेप न करते और उसे गृह मंत्रालय से अलग न करते तो मैं हैदराबाद की तरह ही इस मुद्दे को भी आसानी से देश-हित में सुलझा लेता।"
हैदराबाद के मामले में भी जवाहरलाल नेहरू सैनिक कार्रवाई के पक्ष में नही थे। उन्होंने सरदार पटेल को यह परामर्श दिया- "इस प्रकार से मसले को सुलझाने में पूरा खतरा और अनिश्चितता है।" वे चाहते थे कि हैदराबाद में की जाने वाली सैनिक काररवाई को स्थगित कर दिया जाए। इससे राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय जटिलताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
प्रख्यात कांग्रेसी नेता प्रो.एन. जी. रंगा की भी राय थी कि विलम्ब से की गई कार्रवाई के लिए नेहरू, मौलाना और माउंटबेटन जिम्मेदार हैं। रंगा लिखते हैं कि हैदराबाद के मामले में सरदार पटेल स्वयं अनुभव करते थे कि उन्होंने यदि जवाहरलाल नेहरू की सलाहें मान ली होतीं तो हैदराबाद मामला उलझ जाता; कमोबेश वैसी ही सलाहें मौलाना आजाद एवं लॉर्ड माउंटबेटन की भी थीं। सरदार पटेल हैदराबाद के भारत में शीघ्र विलय के पक्ष में थे, लेकिन जवाहरलाल नेहरू इससे सहमत नहीं थे। लॉर्ड माउंटबेटन की कूटनीति भी ऐसी थी कि सरदार पटेल के विचार और प्रयासों को साकार रूप देने में विलम्ब हो गया।
सरदार पटेल के राजनीतिक विरोधियों ने उन्हें मुस्लिम वर्ग के विरोधी के रूप में वर्णित किया; लेकिन वास्तव में सरदार पटेल हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए संघर्षरत रहे। इस धारणा की पुष्टि उनके विचारों एवं कार्यों से होती है। यहाँ तक कि गाँधीजी ने भी स्पष्ट किया था कि- "सरदार पटेल को मुस्लिम-विरोधी बताना सत्य को झुठलाना है। यह बहुत बड़ी विडंबना है।" वस्तुत: स्वतंत्रता-प्राप्ति के तत्काल बाद 'अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय' में दिए गए उनके व्याख्यान में हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न पर उनके विचारों की पुष्टि होती है।[9]
सम्मान और पुरस्कार
- सन 1991 में सरदार पटेल को मरणोपरान्त 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया।
- अहमदाबाद के हवाई अड्डे का नामकरण 'सरदार वल्लभभाई पटेल अन्तराष्ट्रीय हवाई अड्डा' रखा गया है।
- गुजरात के वल्लभ विद्यानगर में 'सरदार पटेल विश्वविद्यालय' है।
स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी
31 अक्टूबर, 2013 को सरदार वल्लभ भाई पटेल की 137वीं जयंती के अवसर पर गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी[10] ने गुजरात के नर्मदा ज़िले में सरदार पटेल के स्मारक का शिलान्यास किया। इसका नाम 'एकता की मूर्ति' (स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी) रखा गया है। यह मूर्ति 'स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी' (93 मीटर) से दुगनी ऊँचाई वाली बनाई जाएगी। इस प्रतिमा को एक छोटे चट्टानी द्वीप पर स्थापित किया जाएगा, जो केवाड़िया में सरदार सरोवर बांध के सामने नर्मदा नदी के मध्य में है। सरदार वल्लभ भाई पटेल की यह प्रतिमा दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा होगी। यह 5 वर्ष में तैयार होनी है।
निधन
सरदार पटेल जी का निधन 15 दिसंबर, 1950 को मुंबई, महाराष्ट्र में हुआ था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ Sardar Patel Trust
- ↑ एक जर्मन राजनेता
- ↑ सरदार वल्लभभाई पटेल व्यक्ति एवं विचार (हिंदी) (पी.एच.पी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 7 दिसम्बर, 2012।
- ↑ गाँधीजी और मोतीलाल नेहरू के समान, लेकिन जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस के विपरीत
- ↑ एक जर्मन राजनेता
- ↑ 6.0 6.1 सरदार वल्लभ भाई पटेल (हिंदी) वेबदुनिया हिंदी। अभिगमन तिथि: 7 दिसम्बर, 2012।
- ↑ सरदार वल्लभ भाई पटेल (हिंदी) वेबदुनिया हिंदी। अभिगमन तिथि: 7 दिसम्बर, 2012।
- ↑ 8.0 8.1 लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल (हिंदी) जागरण जंक्शन। अभिगमन तिथि: 7 दिसम्बर, 2012।
- ↑ कश्मीर एवं हैदराबाद ( सरदार पटेल) (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 2 जनवरी, 2015।
- ↑ भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री
बाहरी कड़ियाँ
- सरदार वल्लभ भाई पटेल
- राष्ट्र-निर्माता लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल
- ऐसे थे लौह पुरुष ‘सरदार वल्लभभाई पटेल’
- इंदिरा के आगे सरदार पटेल को भूल गया भारत?
- सरदार वल्लभभाई पटेल के अनमोल विचार
- गांधी जी ने नेहरू को ही देश का नेतृत्व क्यों सौंपा?
- सरदार पटेल का खत पंडित नेहरू के नाम
- Sardar Patel Trust
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