"गुरु गोबिन्द सिंह": अवतरणों में अंतर

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{{सूचना बक्सा प्रसिद्ध व्यक्तित्व
|चित्र=Guru Gobind Singh.jpg
|पूरा नाम=गुरु गोबिन्द सिंह
|अन्य नाम=गोबिन्द राय (मूल नाम)
|जन्म=[[22 दिसंबर]] सन् 1666 ई.
|जन्म भूमि=[[पटना]], [[बिहार]], [[भारत]]
|मृत्यु=[[7 अक्तूबर]] सन् 1708 ई.
|मृत्यु स्थान=[[नांदेड़]], [[महाराष्ट्र]]
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|पति/पत्नी=माता संदरी, माता साहिब दीवान
|संतान=अजीत सिंह, जुझर सिंह, ज़ोरावर सिंह, [[फतेह सिंह]]
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|मुख्य रचनाएँ=चण्डी चरित्र, दशमग्रन्थ, कृष्णावतार आदि।
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|पुरस्कार-उपाधि= [[सिक्ख|सिक्खों]] के दसवें गुरु
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|संबंधित लेख=[[ख़ालसा पंथ]], [[गुरु ग्रंथ साहिब]]
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}}
'''गुरु गोबिन्द सिंह''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Guru Gobind Singh'', जन्म- [[22 दिसंबर]], 1666 ई. [[पटना]], [[बिहार]]; मृत्यु- [[7 अक्तूबर]], 1708 ई. [[नांदेड़]], [[महाराष्ट्र]]) [[सिक्ख धर्म|सिक्खों]] के दसवें व अंतिम गुरु माने जाते हैं। वे [[11 नवंबर]], 1675 को सिक्खों के गुरु नियुक्त हुए थे और 1708 ई. तक इस पद पर रहे। वे सिक्खों के सैनिक संगति, ख़ालसा के सृजन के लिए प्रसिद्ध थे। कुछ ज्ञानी कहते हैं कि जब-जब [[धर्म]] का ह्रास होता है, तब-तब सत्य एवं न्याय का विघटन भी होता है तथा आतंक के कारण अत्याचार, अन्याय, हिंसा और मानवता खतरे में होती है। उस समय दुष्टों का नाश एवं सत्य, न्याय और धर्म की रक्षा करने के लिए ईश्वर स्वयं इस भूतल पर अवतरित होते हैं। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने भी इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए कहा है,
<blockquote>"जब-जब होत अरिस्ट अपारा। तब-तब देह धरत अवतारा।"</blockquote>
==जीवन परिचय==
गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म [[22 दिसंबर]] सन् 1666 ई. को [[पटना]], [[बिहार]] में हुआ था। इनका मूल नाम 'गोबिन्द राय' था। गोबिन्द सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा [[गुरु हरगोबिन्द सिंह]] से मिला था और उन्हें महान् बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। वह बहुभाषाविद थे, जिन्हें [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] [[अरबी भाषा|अरबी]], [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] और अपनी मातृभाषा [[पंजाबी भाषा|पंजाबी]] का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख क़ानून को सूत्रबद्ध किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ 'दसम ग्रंथ' (दसवां खंड) लिखकर प्रसिद्धि पाई। उन्होंने देश, [[धर्म]] और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला। दशम गुरु गोबिन्द सिंह जी स्वयं एक ऐसे ही महापुरुष थे, जो उस युग की आतंकवादी शक्तियों का नाश करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिए [[गुरु तेग़बहादुर सिंह]] जी के यहाँ अवतरित हुए। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था।
<blockquote>"मुझे परमेश्वर ने दुष्टों का नाश करने और धर्म की स्थापना करने के लिए भेजा है।"</blockquote>
====बचपन====
गुरु गोबिन्द सिंह के जन्म के समय देश पर [[मुग़ल|मुग़लों]] का शासन था। [[हिन्दू|हिन्दुओं]] को [[मुसलमान]] बनाने की [[औरंगज़ेब]] ज़बरदस्ती कोशिश करता था। इसी समय [[22 दिसंबर]], सन् 1666 को गुरु तेग़बहादुर की धर्मपत्नी माता गुजरी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोबिन्द सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। खिलौनों से खेलने की उम्र में गोबिन्द जी कृपाण, कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे। गोबिन्द बचपन में शरारती थे लेकिन वे अपनी शरारतों से किसी को परेशान नहीं करते थे। गोबिन्द एक निसंतान बुढ़िया, जो सूत काटकर अपना गुज़ारा करती थी, से बहुत शरारत करते थे। वे उसकी पूनियाँ बिखेर देते थे। इससे दुखी होकर वह उनकी माँ के पास शिकायत लेकर पहुँच जाती थी। माता गुजरी पैसे देकर उसे खुश कर देती थी। माता गूजरी ने गोबिन्द से बुढ़िया को तंग करने का कारण पूछा तो उन्होंने सहज भाव से कहा,
<blockquote>"उसकी ग़रीबी दूर करने के लिए। अगर मैं उसे परेशान नहीं करूँगा तो उसे पैसे कैसे मिलेंगे।"</blockquote>
====9 वर्ष की आयु में गद्दी====
[[गुरु तेग़बहादुर सिंह|तेग़बहादुर]] की शहादत के बाद गद्दी पर 9 वर्ष की आयु में 'गुरु गोबिन्द राय' को बैठाया गया था। 'गुरु' की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और [[संस्कृत]], [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]], [[पंजाबी भाषा|पंजाबी]] और [[अरबी भाषा|अरबी भाषाएँ]] सीखीं। गोबिन्द राय ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने अन्य [[सिक्ख|सिक्खों]] को भी [[अस्त्र शस्त्र]] चलाना सिखाया। सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया। उनका नारा था- '''सत श्री अकाल'''<ref>सत्य ही ईश्वर है।</ref>
[[चित्र:Guru-Gobind-Singh-ji.jpg|गुरु गोबिन्द सिंह जी|thumb|250px]]
====पंच प्यारे====
{{main|पंच प्यारे}}
पाँच प्यारे जो देश के विभिन्न भागों से आए थे और समाज के अलग- अलग जाति और सम्प्रदाय के लोग थे, उन्हें एक ही कटोरे में अमृत पिला कर गुरु गोबिन्द सिंह ने एक बना दिया। इस प्रकार समाज में उन्होंने एक ऐसी क्रान्ति का बीज रोपा, जिसमें जाति का भेद और सम्प्रदायवाद, सब कुछ मिटा दिया। बैसाखी का एक महत्त्व यह है कि परम्परा के अनुसार [[पंजाब]] में फ़सल की कटाई पहली [[बैसाख]] को ही शुरू होती है और देश के दूसरे हिस्सों में भी आज ही के दिन फ़सल कटाई का त्योहार मनाया जाता है, जिनके नाम भले ही अलग-अलग हों। आज के दिन यदि हम श्री गुरु गोबिन्द सिंह के जीवन के आदर्शों को, देश, समाज और मानवता की भलाई के लिए उनके समर्पण को अपनी प्रेरणा का स्रोत बनाऐं और उनके बताये गए रास्ते पर निष्ठापूर्वक चलें तो कोई कारण नहीं कि देश के अन्दर अथवा बाहर से आए आतंकवादी और हमलावर हमारा कुछ भी बिगाड़ सकें।
==सिक्खों में युद्ध का उत्साह==
गुरु गोबिन्द सिंह ने सिक्खों में युद्ध का उत्साह बढ़ाने के लिए हर क़दम उठाया। वीर काव्य और संगीत का सृजन उन्होंने किया था। उन्होंने अपने लोगों में कृपाण जो उनकी लौह कृपा था, के प्रति प्रेम विकसित किया। [[खालसा]] को पुर्नसंगठित सिक्ख सेना का मार्गदर्शक बनाकर, उन्होंने दो मोर्चों पर सिक्खों के शत्रुओं के ख़िलाफ़ क़दम उठाये।
#पहला [[मुग़ल|मुग़लों]] के ख़िलाफ़ एक फ़ौज और
#दूसरा विरोधी पहाड़ी जनजातियों के ख़िलाफ़।
{{बाँयाबक्सा|पाठ=सवा लाख से एक लड़ाऊँ चिड़ियों सों मैं बाज तड़ऊँ तबे गोबिंदसिंह नाम कहाऊँ |विचारक=गुरु गोबिन्द सिंह}}
उनकी सैन्य टुकड़ियाँ सिक्ख आदर्शो के प्रति पूरी तरह समर्पित थीं और सिक्खों की धार्मिक तथा राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार थीं। लेकिन गुरु गोबिन्द सिंह को इस स्वतंत्रता की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। [[अंबाला]] के पास एक युद्ध में उनके चारों बेटे मारे गए।<ref>पुस्तक- भारत ज्ञानकोश खंड-2  | पृष्ठ संख्या-115</ref>
==वीरता और बलिदान==
गुरु गोबिन्द सिंह ने [[धर्म]], [[संस्कृति]] व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। गुरु गोबिन्द सिंह जैसी वीरता और बलिदान [[इतिहास]] में कम ही देखने को मिलता है। इसके बावज़ूद इस महान् शख़्सियत को इतिहासकारों ने वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हक़दार हैं। कुछ इतिहासकारों का मत है कि गुरु गोबिन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई थी। क्या संभव है कि वह बालक स्वयं लड़ने के लिए प्रेरित होगा जिसने अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो। गुरु गोबिन्द सिंह जी को किसी से बैर नहीं था, उनके सामने तो पहाड़ी राजाओं की ईर्ष्या पहाड़ जैसी ऊँची थी, तो दूसरी ओर [[औरंगज़ेब]] की धार्मिक कट्टरता की आँधी लोगों के अस्तित्व को लील रही थी। ऐसे समय में गुरु गोबिन्द सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया। उन्होंने आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण की।{{दाँयाबक्सा|पाठ=वो पाँच प्यारे जो देश के विभिन्न भागों से आए थे और समाज के अलग- अलग जाति और सम्प्रदाय के लोग थे, उन्हें एक ही कटोरे में अमृत पिला कर गुरु गोबिन्द सिंह ने एक बना दिया। इस प्रकार समाज में उन्होंने एक ऐसी क्रान्ति का बीज रोपा, जिसमें जाति का भेद और सम्प्रदायवाद, सब कुछ मिटा दिया।|विचारक=}}
====बहादुर शाह प्रथम से भेंट====
[[8 जून]] 1707 ई. [[आगरा]] के पास जांजू के पास लड़ाई लड़ी गई, जिसमें [[बहादुरशाह प्रथम|बहादुरशाह]] की जीत हुई। इस लड़ाई में गुरु गोबिन्द सिंह की हमदर्दी अपने पुराने मित्र बहादुरशाह के साथ थी। कहा जाता है कि गुरु जी ने अपने सैनिकों द्वारा जांजू की लड़ाई में बहादुरशाह का साथ दिया, उनकी मदद की। इससे बादशाह बहादुरशाह की जीत हुई। बादशाह ने गुरु गोबिन्द सिंह जी को आगरा बुलाया। उसने एक बड़ी क़ीमती सिरोपायो (सम्मान के वस्त्र) एक धुकधुकी (गर्दन का गहना) जिसकी क़ीमत 60 हज़ार रुपये थी, गुरुजी को भेंट की। [[मुग़ल|मुग़लों]] के साथ एक युग पुराने मतभेद समाप्त होने की सम्भावना थी। गुरु साहब की तरफ से [[2 अक्टूबर]] 1707 ई. और [[धौलपुर]] की संगत तरफ लिखे हुक्मनामा के कुछ शब्दों से लगता है कि गुरुजी की बादशाह बहादुरशाह के साथ मित्रतापूर्वक बातचीत हो सकती थी। जिसके खत्म होने से गुरु जी [[आनंदपुर साहिब]] वापस आ जांएगे, जहाँ उनको आस थी कि खालसा लौट के इकट्ठा हो सकेगा। पर हालात के चक्कर में उनको दक्षिण दिशा में पहुँचा दिया। जहाँ अभी बातचीत ही चल रही थी। बादशाह बहादुरशाह [[कछवाहा वंश|कछवाहा]] राजपूतों के विरुद्ध कार्रवाई करने कूच किया था कि उसके भाई कामबख़्श ने बग़ावत कर दी। बग़ावत दबाने के लिए बादशाह दक्षिण की तरफ़ चला और विनती करके गुरु जी को भी साथ ले गया।<ref>डॉ. गण्डा सिंह की पुस्तक 'सिख इतिहास' के पृष्ठ संख्या 91 के कुछ अंश <br />
सौजन्य से- हरप्रीत सिंह नाज़</ref>
====वीरता व बलिदान की मिसालें====
*परदादा [[गुरु अर्जन देव]] की शहादत।
*[[गुरु हरगोबिन्द सिंह|दादा गुरु हरगोबिन्द]] द्वारा किए गए युद्ध।
*पिता [[गुरु तेग़बहादुर सिंह]] की शहादत।
*दो पुत्रों का चमकौर के युद्ध में शहीद होना।
*दो पुत्रों को ज़िंदा दीवार में चुनवा दिया जाना।
इस सारे घटनाक्रम में भी अड़िग रहकर गुरु गोबिन्द सिंह संघर्षरत रहे, यह कोई सामान्य बात नहीं है। यह उनके महान् कर्मयोगी होने का प्रमाण है। उन्होंने ख़ालसा के सृजन का मार्ग देश की अस्मिता, भारतीय विरासत और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए, समाज को नए सिरे से तैयार करने के लिए अपनाया था। वे सभी प्राणियों को आध्यात्मिक स्तर पर परमात्मा का ही रूप मानते थे। 'अकाल उस्तति' में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जैसे एक अग्नि से करोड़ों अग्नि स्फुर्ल्लिंग उत्पन्न होकर अलग-अलग खिलते हैं, लेकिन सब अग्नि रूप हैं, उसी प्रकार सब जीवों की भी स्थिति है। उन्होंने सभी को मानव रूप में मानकर उनकी एकता में विश्वास प्रकट करते हुए कहा है कि
<blockquote>"हिन्दू तुरक कोऊ सफजी इमाम शाफी। मानस की जात सबै ऐकै पहचानबो।"</blockquote>
==ख़ालसा पंथ==
{{Main|ख़ालसा पंथ}}
ख़ालसा का अर्थ है ख़ालिस अर्थात् विशुद्ध, निर्मल और बिना किसी मिलावट वाला व्यक्ति। इसके अलावा हम यह कह सकते हैं कि ख़ालसा हमारी मर्यादा और [[भारतीय संस्कृति]] की एक पहचान है, जो हर हाल में प्रभु का स्मरण रखता है और अपने कर्म को अपना धर्म मान कर ज़ुल्म और ज़ालिम से लोहा भी लेता है। गोबिन्द सिंह जी ने एक नया नारा दिया है- '''वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह।'''<ref>कि ख़ालसा ईश्वर का है और ईश्वर की विजय सुनिश्चित है।</ref>
गुरु जी द्वारा ख़ालसा का पहला धर्म है कि वह देश, धर्म और मानवता की रक्षा के लिए तन-मन-धन सब न्यौछावर कर दे। निर्धनों, असहायों और अनाथों की रक्षा के लिए सदा आगे रहे। जो ऐसा करता है, वह ख़लिस है, वही सच्चा ख़ालसा है। ये संस्कार अमृत पिलाकर गोबिन्द सिंह जी ने उन लोगों में भर दिए, जिन्होंने ख़ालसा पंथ को स्वीकार किया था।
'[[ज़फ़रनामा]]' में स्वयं गुरु गोबिन्द सिंह जी ने लिखा है कि जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है। गुरु गोबिन्द सिंह ने 1699 ई. में धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही ख़ालसा पंथ की स्थापना की थी। ख़ालसा यानि ख़ालिस (शुद्ध), जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। सभी जातियों के वर्ग-विभेद को समाप्त करके उन्होंने न सिर्फ़ समानता स्थापित की बल्कि उनमें आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा की भावना भी पैदा की। उनका स्पष्ट मत व्यक्त है-
<blockquote>"मानस की जात सभैएक है।"</blockquote>
ख़ालसा पंथ की स्थापना (1699) देश के चौमुखी उत्थान की व्यापक कल्पना थी। एक बाबा द्वारा गुरु हरगोबिन्द को 'मीरी' और 'पीरी' दो तलवारें पहनाई गई थीं।
# एक आध्यात्मिकता की प्रतीक थी।
# दूसरी सांसारिकता की।
गुरु गोबिन्द सिंह ने आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का संदेश दिया था। ख़ालसा पंथ में वे सिख थे, जिन्होंने किसी युद्ध कला का कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं लिया था। सिखों में समाज एवं धर्म के लिए स्वयं को बलिदान करने का जज़्बा था।
<poem>
एक से कटाने सवा लाख शत्रुओं के सिर
गुरु गोबिन्द ने बनाया पंथ ख़ालसा
पिता और पुत्र सब देश पे शहीद हुए
नहीं रही सुख साधनों की कभी लालसा
ज़ोरावर फतेसिंह दीवारों में चुने गए
जग देखता रहा था क्रूरता का हादसा
चिड़ियों को बाज से लड़ा दिया था गुरुजी ने
मुग़लों के सर पे जो छा गया था काल सा</poem>
गुरु गोबिन्द सिंह का एक और उदाहरण उनके व्यक्तित्व को अनूठा साबित करता है-
पंच पियारा बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं- '''ख़ालसा मेरो रूप है ख़ास, ख़ालसा में हो करो निवास।'''<ref>जहाँ पाँच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूँगा।</ref>
==पाँच ककार==
युद्ध की प्रत्येक स्थिति में सदा तैयार रहने के लिए उन्होंने सिखों के लिए पाँच ककार अनिवार्य घोषित किए, जिन्हें आज भी प्रत्येक सिख धारण करना अपना गौरव समझता है:-
# केश : जिसे सभी गुरु और ऋषि-मुनि धारण करते आए थे।
# कंघा : केशों को साफ़ करने के लिए।
# कच्छा : स्फूर्ति के लिए।
# कड़ा : नियम और संयम में रहने की चेतावनी देने के लिए।
# कृपाण : आत्मरक्षा के लिए।<ref>{{cite web |url=http://indianfestivals.mywebdunia.com/2009/01/05/guru_gobind_singh_1231153380000.html |title=गुरु गोबिंद सिंह |accessmonthday=14 जून |accessyear=2010 |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=वेबदुनिया |language=[[हिन्दी]]}}</ref>


{{tocright}}
जहाँ [[शिवाजी]] राजशक्ति के शानदार प्रतीक हैं, वहीं गुरु गोबिन्द सिंह एक संत और सिपाही के रूप में दिखाई देते हैं। क्योंकि गुरु गोबिन्द सिंह को न तो सत्ता चाहिए और न ही सत्ता सुख। शान्ति एवं समाज कल्याण उनका था। अपने माता-पिता, पुत्रों और हज़ारों सिखों के प्राणों की आहुति देने के बाद भी वह औरंगज़ेब को फ़ारसी में लिखे अपने पत्र [[ज़फ़रनामा]] में लिखते हैं- '''औरंगजेब तुझे प्रभु को पहचानना चाहिए तथा प्रजा को दु:खी नहीं करना चाहिए। तूने [[क़ुरान]] की कसम खाकर कहा था कि मैं सुलह रखूँगा, लड़ाई नहीं करूँगा, यह क़सम तुम्हारे सिर पर भार है। तू अब उसे पूरा कर।'''
कुछ ज्ञानियों द्वारा कहते हैं कि जब-जब धर्म का ह्रास होता है, तब-तब सत्य एवं न्याय का विघटन भी होता है तथा आतंक के कारण अत्याचार, अन्याय, हिंसा और मानवता खतरे में होती है। उस समय दुष्टों का नाश एवं सत्य, न्याय और धर्म की रक्षा करने के लिए ईश्वर स्वयं इस भूतल पर अवतरित होते हैं। गुरु गोविंदसिंहजी ने भी इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए कहा है, "जब-जब होत अरिस्ट अपारा। तब-तब देह धरत अवतारा।"
==महान विद्वान==
==परिचय==
एक आध्यात्मिक गुरु के अतिरिक्त गुरु गोबिन्द सिंह एक महान् विद्वान् भी थे। उन्होंने 52 कवियों को अपने दरबार में नियुक्त किया था। गुरु गोबिन्द सिंह की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं- ज़फ़रनामा एवं विचित्र नाटक। वह स्वयं सैनिक एवं संत थे। उन्होंने अपने सिखों में भी इसी भावनाओं का पोषण किया था। गद्दी को लेकर सिखों के बीच कोई विवाद न हो इसके लिए गुरु गोबिन्द सिंह ने '[[गुरु ग्रन्थ साहिब]]' को अन्तिम गुरु का दर्जा दिया। इसका श्रेय भी प्रभु को देते हुए कहते हैं-  
गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर सन् 1666 ई॰ को पटना (बिहार) में हुआ था। इनका मूल नाम गोबिंद राय था। यह सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु माने जाते थे, और सिक्खों के सैनिक संगति, खालसा के सृजन के लिए प्रसिद्ध थे। गोबिंद सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोबिंद राय से मिला था और उन्हें महान बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। वह बहुभाषाविद् थे, जिन्हें फ़ारसी, अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख कानून को और सूत्रबद्ध किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ दसम ग्रंथ (दसवां खंड) लिखने की प्रसिद्धि पाई। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला।
<blockquote>"आज्ञा भई अकाल की तभी चलाइयो पंथ, सब सिक्खन को हुकम है गुरु मानियहु ग्रंथ।"</blockquote>
[[गुरु नानक]] की दसवीं जोत गुरु गोबिन्द सिंह अपने जीवन का सारा श्रेय प्रभु को देते हुए कहते है-
<blockquote>"मैं हूँ परम पुरखको दासा, देखन आयोजगत तमाशा।"</blockquote>
==ज़फ़रनामा==
{{main|ज़फ़रनामा}}
गुरु गोबिन्द सिंह मूलतः धर्मगुरु थे, लेकिन सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए उन्हें शस्त्र धारण करने पड़े। औरंगज़ेब को लिखे गए अपने 'ज़फ़रनामा' में उन्होंने इसे स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा था,  
<blockquote>"चूंकार अज हमा हीलते दर गुजशत, हलाले अस्त बुरदन ब समशीर ऐ दस्त।"</blockquote>
अर्थात् जब सत्य और न्याय की रक्षा के लिए अन्य सभी साधन विफल हो जाएँ तो तलवार को धारण करना सर्वथा उचित है। उनकी यह वाणी सिख इतिहास की अमर निधि है, जो आज भी हमें प्रेरणा देती है। {{दाँयाबक्सा|पाठ=गुरु गोबिन्द सिंह ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। गुरु गोबिन्द सिंह जैसी वीरता और बलिदान इतिहास में कम ही देखने को मिलता है। इसके बावज़ूद इस महान् शख़्सियत को इतिहासकारों ने वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हक़दार हैं। कुछ इतिहासकारों का मत हैं कि गुरु गोबिन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई थी। क्या संभव है कि वह बालक स्वयं लड़ने के लिए प्रेरित होगा जिसने अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो।|विचारक=}}
==ज्ञाता और ग्रंथकार==
यद्यपि सब गुरुओं ने थोड़े बहुत पद, भजन आदि बनाए हैं, पर गुरु गोबिन्द सिंह काव्य के अच्छे ज्ञाता और ग्रंथकार थे। सिखों में शास्त्रज्ञान का अभाव इन्हें बहुत खटका था और इन्होंने बहुत से सिखों को व्याकरण, [[साहित्य]], [[दर्शन शास्त्र|दर्शन]] आदि के अध्ययन के लिए [[काशी]] भेजा था। ये [[हिंदू]] भावों और आर्य संस्कृति की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करते रहे। '[[तिलक (हिन्दू धर्म)|तिलक]]' और '[[जनेऊ]]' की रक्षा में इनकी तलवार सदा खुली रहती थी। यद्यपि सिख संप्रदाय की निर्गुण उपासना है, पर सगुण स्वरूप के प्रति इन्होंने पूरी आस्था प्रकट की है और देव कथाओं की चर्चा बड़े भक्तिभाव से की है। यह बात प्रसिद्ध है कि ये शक्ति के आराधक थे। इन्होंने [[हिन्दी]] में कई अच्छे और साहित्यिक ग्रंथों की रचना की है जिनमें से कुछ के नाम ये हैं - सुनीतिप्रकाश, सर्वलोहप्रकाश, प्रेमसुमार्ग, बुद्धि सागर और चंडीचरित्र। चंडीचरित्र की रचना पद्धति बड़ी ही ओजस्विनी है। ये प्रौढ़ साहित्यिक [[ब्रजभाषा]] लिखते थे। चंडीचरित्र की दुर्गासप्तशती की कथा बड़ी सुंदर कविता में कही गई है -
<poem>निर्जर निरूप हौ, कि सुंदर सरूप हौ,
कि भूपन के भूप हौ, कि दानी महादान हौ?
प्रान के बचैया, दूध-पूत के देवैया,
रोग-सोग के मिटैया, किधौं मानी महामानहौ?
विद्या के विचार हौ, कि अद्वैत अवतार हौ,
कि सुद्ध ता की मूर्ति हौ कि सिद्ध ता की सान हौ?
जोबन के जाल हौ, कि कालहू के काल हौ,
कि सत्रुन के साल हौ कि मित्रन के प्रान हौ?<ref>{{cite book | last =आचार्य| first =रामचंद्र शुक्ल| title =हिन्दी साहित्य का इतिहास| edition =| publisher =कमल प्रकाशन, नई दिल्ली| location =भारतडिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिन्दी | pages =पृष्ठ सं. 230| chapter =प्रकरण 3}}</ref></poem>
==रचनाएँ==
गुरु गोबिन्द सिंह [[कवि]] भी थे। चंडी दीवार गुरु गोबिन्द सिंह की [[पंजाबी भाषा]] की एकमात्र रचना है। शेष सब हिन्दी भाषा में हैं। इनकी मुख्य रचनाएँ हैं-
*चण्डी चरित्र- माँ चण्डी (शिवा) की स्तुति
*दशमग्रन्थ- गुरु जी की कृतियों का संकलन
*कृष्णावतार- [[भागवत पुराण]] के दशमस्कन्ध पर आधारित
*गोबिन्द गीत
*प्रेम प्रबोध
*जाप साहब
*अकाल उस्तुता
*चौबीस अवतार
*नाममाला
*विभिन्न गुरुओं, भक्तों एवं सन्तों की वाणियों का गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलन।
==भाई मणिसिंह==
{{मुख्य|मणिसिंह}}
भाई मणि सिंह जी गुरु साहिब के एक दीवान (मंत्री) थे। भाई मणिसिंह ने गुरु गोबिन्द सिंह की रचनाओं को एक जिल्द (दशमग्रंथ) में प्रस्तुत किया था।
==मृत्यु==
गुरु गोबिन्द सिंह ने अपना अंतिम समय निकट जानकर अपने सभी [[सिक्ख|सिखों]] को एकत्रित किया और उन्हें मर्यादित तथा शुभ आचरण करने, देश से प्रेम करने और सदा दीन-दुखियों की सहायता करने की सीख दी। इसके बाद यह भी कहा कि अब उनके बाद कोई देहधारी गुरु नहीं होगा और 'गुरुग्रन्थ साहिब' ही आगे गुरु के रूप में उनका मार्ग दर्शन करेंगे। गुरु गोबिन्दसिंह की मृत्यु [[7 अक्तूबर]] सन् 1708 ई. में  [[नांदेड़]], [[महाराष्ट्र]] में हुई थी। आज मानवता स्वार्थ, संदेह, संघर्ष, हिंसा, आतंक, अन्याय और अत्याचार की जिन चुनौतियों से जूझ रही है, उनमें गुरु गोबिन्द सिंह का जीवन-दर्शन हमारा मार्गदर्शन कर सकता है।
==गुरु स्तुति==
{| class="bharattable" border="1"
|-
! गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द
|-
|<poem>
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द
गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत


दशम गुरु गोविंदसिंहजी स्वयं एक ऐसे ही महापुरुष थे, जो उस युग की आतंकवादी शक्तियों का नाश करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिए गुरु तेगबहादुरजी के यहाँ अवतरित हुए। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था।"मुझे परमेश्वर ने दुष्टों का नाश करने और धर्म की स्थापना करने के लिए भेजा है।"
गुरु मेरा देऊ, अलख अभेऊ, सर्व पूज चरण गुरु सेवऊ
गुरु गोविंद सिंह के जन्म के समय देश पर मुगलों का शासन था। हिन्दुओं को  मुसलमान बनाने की औरंगजेब जबरदस्ती कोशिश करता था। इसी समय 22 दिसंबर, सन् 1666 को गुरु तेग बहादुर की धर्मपत्नी गूजरी देवी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोबिंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया।  बचपन में सभी लोग गोविंद जी को 'बाला प्रीतम' कहकर बुलाते थे। उनके मामा उन्हें भगवान की कृपा मानकर 'गोविंद' कहते थे। बार-बार 'गोविंद ' कहने से बाला प्रीतम का नाम 'गोविंद राय' पड़ गया।
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत
==गोविंद का बचपन==
खिलौनों से खेलने की उम्र में गोविंद जी कृपाण, कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे। गोविंद बचपन में शरारती थे लेकिन वे अपनी शरारतों से किसी को परेशान नहीं करते थे। गोविंद एक निसंतान बुढ़िया, जो सूत काटकर अपना गुज़ारा करती थी, से बहुत शरारत करते थे । वे उसकी पूनियाँ बिखेर देते थे। इससे दुखी होकर वह  उनकी मां के पास शिकायत लेकर पहुँच जाती थी। माता गूजरी पैसे देकर उसे खुश कर देती थी। माता गूजरी ने गोविंद से  बुढ़िया को तंग करने का कारण पूछा तो उन्होंने सहज भाव से कहा,
"उसकी गरीबी दूर करने के लिए। अगर मैं उसे परेशान नहीं करूंगा तो उसे पैसे कैसे मिलेंगे।"
==औरंगजेब से तेग बहादुर की बातचीत==
जब गोविंद आठ-नौ साल के थे तब उनके पिता तेग बहादुर आनंदपुर साहिब चले गये। गुरु तेग बहादुर का प्रभाव उन दिनों काफ़ी बढ़ रहा था वहीं दूसरी ओर औरंगज़ेब हिदुओं पर कहर बरपा रहा था। कुछ कश्मीरी पंडित तेग बहादुर की शरण में औरंगजेब से बचने के लिए आनंद पुर साहिब आये। तेग बहादुर औरंगजेब से इस विषय में बातचीत करने के लिए दिल्ली पहुँचे लेकिन औरंगजेब ने उन्हें गिरफ्तार करवा लिया। औरंगजेब ने उनसे कहा,
"तेग बहादुर, अब तुम मेरे रहमो-करम पर हो। अगर तुम सच्चे संत हो तो हमें कोई चमत्कार करके दिखाओ, वरना अपना ईमान छोड़ दो।"
गुरु तेग बहादुर ने कहा,
"मेरी गर्दन में एक ताबीज बंधा है, जिसके कारण तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।"


यह सुनते ही गुरु तेग बहादुर का सर औरंगजेब के इशारे पर काट कर दिया गया। यह घटना11 नवम्बर 1675 ई॰ में  दिल्ली के चांदनी चौक में हुई थी। जब तेग बहादुर जी की गर्दन में बंधा ताबीज खोलकर देखा गया तो उसमे लिखा था -
गुरु का दर्शन .... देख - देख जीवां, गुरु के चरण धोये -धोये पीवां
"मैंने अपना सिर दे दिया, धर्म नहीं।"


तेग बहादुर की शहादत के बाद गद्दी पर ९ वर्ष की आयु में 'गुरु गोविंद राय' को बैठाया गया था। 'गुरु' की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी  भाषाएँ  सीखीं। गोविन्द राय ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने अन्य सिक्खों को भी अस्त्र-शस्त्र चलाना सिखाया। सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढाया। उनका नारा था- 'सत् श्री अकाल'- सत्य ही ईश्वर है'।
गुरु बिन अवर नहीं मैं ठाऊँ, अनबिन जपऊ गुरु गुरु नाऊँ
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत


==आस्था की परीक्षा ==
गुरु मेरा ज्ञान, गुरु हिरदय ध्यान, गुरु गोपाल पुरख भगवान
सिक्खों को सुदृढ़ सैन्य आधार प्रदान करना गोबिंद सिंह की महानतम उपलब्धि थी। एक मान्यता के अनुसार, एक सुबह प्रार्थना के बाद वह सिक्ख समूह के समक्ष समाधि लगाकर बैठे। अचानक वह उठे और उन्होंने कहा कि 'मेरे कृपाण को एक शीश चाहिए। कौन आगे बढ़कर पंथ के लिए अपना बलिदान देगा?' भीड़ में भय, घबराहट और अविश्वास की लहर दौड़ गई। अंतत: एक व्यक्ति आगे आया और गुरु के साथ तंबू के अंदर चला गया कुछ देर बाद गोबिंद सिंह रक्तरंजित कृपाण लेकर बाहर आए और स्वेच्छा से बलिदान करने वाले अन्य व्यक्ति को पुकारा। यह प्रक्रिया पाँच लोगों के स्वेच्छा से आगे आने तक चलती रही। उसके बाद सभी पाँचों जीवित बाहर आ गए। गोबिंद तो केवल उनकी आस्था की परीक्षा ले रहे थे। उन्हें पंज पियारा (पाँच प्रिय) की उपाधि दी गई और उन्होंने मिलकर सिक्ख सैन्य बिरादरी का केंद्र बनाया, खालसा, जिसकी स्थापना 1699 में हुई।
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत


==सिक्खों में युद्ध का उत्साह==
ऐसे गुरु को बल-बल जाइये ..-2 आप मुक्त मोहे तारें ..
गोबिंद सिंह ने सिक्खों में युद्ध का उत्साह बढ़ाने के लिए हर कदम उठाया।  वीर काव्य और संगीत का सृजन उन्होंने किया था। उन्होंने अपने लोगों में कृपाण जो उनकी लौह कृपा था, के प्रति प्रेम विकसित किया। खालसा को पुनर्संगठित सिक्ख सेना का मार्गदर्शक बनाकर, उन्होंने दो मोर्चो पर सिक्खों के शत्रुओं के ख़िलाफ़ कदम उठाये।
*पहला मुग़लों के ख़िलाफ़ एक फ़ौज और
* दूसरा विरोधी पहाड़ी जनजातियों के ख़िलाफ़।
उनकी सैन्य टुकड़ियाँ सिक्ख आदर्शो के प्रति पूरी तरह समर्पित थीं, और सिक्खों की धार्मिक तथा राजनैतिक स्वतंत्रता के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार थीं। लेकिन गुरु गोबिंद सिंह को इस स्वतंत्रता की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। अंबाला के पास एक युद्ध में उनके चारों बेटे मारे गए। बाद में उनकी पत्नी, मां और पिता भी संघर्ष की भेंट चढ़ गए। वह स्वयं भी एक पश्तो क़बीलाई के हाथों उसके पिता की मौत के  प्रतिशोधस्वरूप मारे गए।
गोबिंद सिंह ने स्वयं को अंतिम गुरू घोषित किया। उसके बाद से पवित्र पुस्तक आदिग्रंथ को ही सिक्ख गुरू होना था। गुरू गोबिंद सिंह आज भी सिक्खों के मन में वीरता के आदर्श और सिक्ख सैनिक संत के रूप में अंकित हैं।


==इतिहास==
गुरु की शरण रहो कर जोड़े, गुरु बिना मैं नहीं होर
गुरु गोविन्द सिंह ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया था। गुरु गोविन्द सिंह जैसी वीरता और बलिदान इतिहास में कम ही देखने को मिलता है। इसके बावजूद इस महान शख्सियत को इतिहासकारों ने वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हकदार हैं। कुछ इतिहासकारों का मत हैं कि गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई थी। क्या संभव है कि वह बालक स्वयं लड़ने के लिए प्रेरित होगा जिसने स्वयं अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो,
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत
गुरु गोविन्द सिंह जी को किसी से वैर नहीं था, उनके सामने तो पहाड़ी राजाओं की ईर्ष्या पहाड़ जैसी ऊँची थी,  तो दूसरी ओर औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता की आँधी लोगों के अस्तित्व को लीलरही थी। ऐसे समय में गुरु गोविन्द सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया। उन्होंने आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण की।
जफरनामा में स्वयं गुरु गोविन्द सिंह जी ने लिखा है कि जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है। गुरु गोविन्द सिंह ने 1699 ई. में धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही खालसा पंथ की स्थापना की थी। खालसा यानि खालिस (शुद्ध), जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। सभी जातियों के वर्ग-विभेद को समाप्त करके उन्होंने न सिर्फ समानता स्थापित की बल्कि उनमें आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा की भावना भी पैदा की। उनका स्पष्ट मत व्यक्त है- '''मानस की जात सभैएक है।'''
गुरु गोविन्द सिंह ने आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का संदेश दिया था। खालसा पंथ में वे सिख थे, जिन्होंने किसी युद्ध कला का कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं लिया था। सिखों में समाज एवं धर्म के लिए स्वयं को बलिदान करने का जज्बा था।
गुरु गोविन्द सिंह का एक और उदाहरण उनके व्यक्तित्व को अनूठा साबित करता है-
"पांच प्यारे बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं-  जहाँ पाँच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूंगा। खालसा मेरो रूप है खास, खालसा में हो करो निवास।"


जहाँ शिवाजी राजशक्ति के शानदार प्रतीक हैं, वहीं गुरु गोविन्द सिंह एक संत और सिपाही के रूप में दिखाई देते हैं। क्योंकि गुरु गोविन्द सिंह को न तो सत्ता चाहिए और न ही सत्ता सुख। शान्ति एवं समाज कल्याण उनका था। अपने माता-पिता, पुत्रों और हजारों सिखों के प्राणों की आहुति देने के बाद भी वह औरंगजेब को फारसी में लिखे अपने पत्र जफरनामा में लिखते हैं- औररंगजेब तुझे प्रभु को पहचानना चाहिए तथा प्रजा को दु:खी नहीं करना चाहिए। तूने कुरान की कसम खाकर कहा था कि मैं सुलह रखूंगा, लड़ाई नहीं करूंगा, यह कसम तुम्हारे सिर पर भार है। तू अब उसे पूरा कर।
गुरु बहुत तारे भव पार, गुरु सेवा जम से छुटकार
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत


एक आध्यात्मिक गुरु के अतिरिक्त गुरु गोविंद सिंह एक महान विद्वान भी थे। उन्होंने 52कवियों को अपने दरबार में नियुक्त किया था। गुरु गोविन्द सिंह की महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं- जफरनामा एवं विचित्र नाटक। वह स्वयं सैनिक एवं संत थे। उन्होंने अपने सिखों में भी इसी भावनाओं का पोषण किया था। गुरु गद्दी को लेकर सिखों के बीच कोई विवाद न हो इसके लिए उन्होंने गुरुग्रन्थ साहिब को गुरु का दर्जा दिया। इसका श्रेय भी प्रभु को देते हुए कहते हैं-
अंधकार में गुरु मंत्र उजारा, गुरु के संग सजल निस्तारा
''आज्ञा भई अकाल की तभी चलाइयोपंथ, सब सिक्खन को हुकम है गुरू मानियहु ग्रंथ।''
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत
गुरुनानक की दसवीं जोत गुरु गोविंद सिंह अपने जीवन का सारा श्रेय प्रभु को देते हुए कहते है-
मैं हूं परम पुरखको दासा, देखन आयोजगत तमाशा। ऐसी शख्सियत को शत-शत नमन।
==खालसा पंथ==
खालसा पंथ की स्थापना (1699) देश के चौमुखी उत्थान की व्यापक कल्पना थी। एक बाबा द्वारा गुरु हरगोविंद को 'मीरी' और 'पीरी' दो तलवारें पहनाई गई थीं।
*एक आध्यात्मिकता की प्रतीक थी।
*दूसरी सांसारिकता की।


==वीरता व बलिदान की मिसालें==
गुरु पूरा पाईया बडभागी, गुरु की सेवा जिथ ना लागी
*परदादा गुरु अर्जुनदेव की शहादत।
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत</poem>
*दादागुरु हरगोविंद द्वारा किए गए युद्ध।
|}
*पिता गुरु तेगबहादुर की शहीदी
*दो पुत्रों का चमकौर के युद्ध में शहीद होना।
*दो पुत्रों को जिंदा दीवार में चुनवा दिया जाना।


इस सारे घटनाक्रम में भी अडिग रहकर गुरु गोविंदसिंह संघर्षरत रहे, यह कोई सामान्य बात नहीं है। यह उनके महान कर्मयोगी होने का प्रमाण है। उन्होंने खालसा के सृजन का मार्ग देश की अस्मिता, भारतीय विरासत और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए, समाज को नए सिरे से तैयार करने के लिए अपनाया था। वे सभी प्राणियों को आध्यात्मिक स्तर पर परमात्मा का ही रूप मानते थे। 'अकाल उस्तति' में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जैसे एक अग्नि से करोड़ों अग्नि स्फुर्ल्लिंग उत्पन्न होकर अलग-अलग खिलते हैं, लेकिन सब अग्नि रूप हैं, उसी प्रकार सब जीवों की भी स्थिति है। उन्होंने सभी को मानव रूप में मानकर उनकी एकता में विश्वास प्रकट करते हुए कहा है कि
"हिन्दू तुरक कोऊ सफजी इमाम शाफी। मानस की जात सबै ऐकै पहचानबो।"
==अजफरनामा==
गुरु गोविंदसिंह मूलतः धर्मगुरु थे, लेकिन सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए उन्हें शस्त्र धारण करना पड़े। औरंगजेब को लिखे गए अपने 'अजफरनामा' में उन्होंने इसे स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा था, "चूंकार अज हमा हीलते दर गुजशत, हलाले अस्त बुरदन ब समशीर ऐ दस्त।" अर्थात जब सत्य और न्याय की रक्षा के लिए अन्य सभी साधन विफल हो जाएँ तो तलवार को धारण करना सर्वथा उचित है। उनकी यह वाणी सिख इतिहास की अमर निधि है, जो आज भी हमें प्रेरणा देती है।


==मृत्यु==
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गुरु गोविंदसिंह की मृत्यु  7 अक्तूबर सन् 1708 ई॰ में  नांदेड़, महाराष्ट्र में हुई थी।
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
आज मानवता स्वार्थ, संदेह, संघर्ष, हिंसा, आतंक, अन्याय और अत्याचार की जिन चुनौतियों से जूझ रही है, उनमें गुरु गोविंदसिंह का जीवन-दर्शन हमारा मार्गदर्शन कर सकता है।
<references/>
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://www.sikhiwiki.org/index.php/Guru_Gobind_Singh Guru Gobind Singh (अंग्रेज़ी)]
*[http://www.sikhnet.com/ sikhnet]
*[http://new.sgpc.net/sikhism/ Sikhism]
==संबंधित लेख==
{{सिक्ख धर्म}}
[[Category:सिक्ख धर्म]][[Category:सिक्ख धर्म कोश]][[Category:धर्म कोश]][[Category:सिक्खों के गुरु]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:चरित कोश]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]][[Category:जीवनी साहित्य]]
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09:07, 10 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

गुरु गोबिन्द सिंह
पूरा नाम गुरु गोबिन्द सिंह
अन्य नाम गोबिन्द राय (मूल नाम)
जन्म 22 दिसंबर सन् 1666 ई.
जन्म भूमि पटना, बिहार, भारत
मृत्यु 7 अक्तूबर सन् 1708 ई.
मृत्यु स्थान नांदेड़, महाराष्ट्र
अभिभावक गुरु तेग़बहादुर और माता गुजरी
पति/पत्नी माता संदरी, माता साहिब दीवान
संतान अजीत सिंह, जुझर सिंह, ज़ोरावर सिंह, फतेह सिंह
कर्म भूमि भारत
मुख्य रचनाएँ चण्डी चरित्र, दशमग्रन्थ, कृष्णावतार आदि।
भाषा फ़ारसी, अरबी, संस्कृत, पंजाबी
पुरस्कार-उपाधि सिक्खों के दसवें गुरु
प्रसिद्धि सिख खालसा सेना के संस्थापक एवं प्रथम सेनापति
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख ख़ालसा पंथ, गुरु ग्रंथ साहिब
अन्य जानकारी गद्दी को लेकर सिखों के बीच कोई विवाद न हो इसके लिए गुरु गोबिन्द सिंह ने 'गुरु ग्रन्थ साहिब' को अन्तिम गुरु का दर्जा दिया।

गुरु गोबिन्द सिंह (अंग्रेज़ी: Guru Gobind Singh, जन्म- 22 दिसंबर, 1666 ई. पटना, बिहार; मृत्यु- 7 अक्तूबर, 1708 ई. नांदेड़, महाराष्ट्र) सिक्खों के दसवें व अंतिम गुरु माने जाते हैं। वे 11 नवंबर, 1675 को सिक्खों के गुरु नियुक्त हुए थे और 1708 ई. तक इस पद पर रहे। वे सिक्खों के सैनिक संगति, ख़ालसा के सृजन के लिए प्रसिद्ध थे। कुछ ज्ञानी कहते हैं कि जब-जब धर्म का ह्रास होता है, तब-तब सत्य एवं न्याय का विघटन भी होता है तथा आतंक के कारण अत्याचार, अन्याय, हिंसा और मानवता खतरे में होती है। उस समय दुष्टों का नाश एवं सत्य, न्याय और धर्म की रक्षा करने के लिए ईश्वर स्वयं इस भूतल पर अवतरित होते हैं। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने भी इस तथ्य का प्रतिपादन करते हुए कहा है,

"जब-जब होत अरिस्ट अपारा। तब-तब देह धरत अवतारा।"

जीवन परिचय

गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर सन् 1666 ई. को पटना, बिहार में हुआ था। इनका मूल नाम 'गोबिन्द राय' था। गोबिन्द सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोबिन्द सिंह से मिला था और उन्हें महान् बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी। वह बहुभाषाविद थे, जिन्हें फ़ारसी अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख क़ानून को सूत्रबद्ध किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ 'दसम ग्रंथ' (दसवां खंड) लिखकर प्रसिद्धि पाई। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला। दशम गुरु गोबिन्द सिंह जी स्वयं एक ऐसे ही महापुरुष थे, जो उस युग की आतंकवादी शक्तियों का नाश करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिए गुरु तेग़बहादुर सिंह जी के यहाँ अवतरित हुए। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था।

"मुझे परमेश्वर ने दुष्टों का नाश करने और धर्म की स्थापना करने के लिए भेजा है।"

बचपन

गुरु गोबिन्द सिंह के जन्म के समय देश पर मुग़लों का शासन था। हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की औरंगज़ेब ज़बरदस्ती कोशिश करता था। इसी समय 22 दिसंबर, सन् 1666 को गुरु तेग़बहादुर की धर्मपत्नी माता गुजरी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो गुरु गोबिन्द सिंह के नाम से विख्यात हुआ। पूरे नगर में बालक के जन्म पर उत्सव मनाया गया। खिलौनों से खेलने की उम्र में गोबिन्द जी कृपाण, कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे। गोबिन्द बचपन में शरारती थे लेकिन वे अपनी शरारतों से किसी को परेशान नहीं करते थे। गोबिन्द एक निसंतान बुढ़िया, जो सूत काटकर अपना गुज़ारा करती थी, से बहुत शरारत करते थे। वे उसकी पूनियाँ बिखेर देते थे। इससे दुखी होकर वह उनकी माँ के पास शिकायत लेकर पहुँच जाती थी। माता गुजरी पैसे देकर उसे खुश कर देती थी। माता गूजरी ने गोबिन्द से बुढ़िया को तंग करने का कारण पूछा तो उन्होंने सहज भाव से कहा,

"उसकी ग़रीबी दूर करने के लिए। अगर मैं उसे परेशान नहीं करूँगा तो उसे पैसे कैसे मिलेंगे।"

9 वर्ष की आयु में गद्दी

तेग़बहादुर की शहादत के बाद गद्दी पर 9 वर्ष की आयु में 'गुरु गोबिन्द राय' को बैठाया गया था। 'गुरु' की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फ़ारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएँ सीखीं। गोबिन्द राय ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने अन्य सिक्खों को भी अस्त्र शस्त्र चलाना सिखाया। सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया। उनका नारा था- सत श्री अकाल[1]

गुरु गोबिन्द सिंह जी

पंच प्यारे

पाँच प्यारे जो देश के विभिन्न भागों से आए थे और समाज के अलग- अलग जाति और सम्प्रदाय के लोग थे, उन्हें एक ही कटोरे में अमृत पिला कर गुरु गोबिन्द सिंह ने एक बना दिया। इस प्रकार समाज में उन्होंने एक ऐसी क्रान्ति का बीज रोपा, जिसमें जाति का भेद और सम्प्रदायवाद, सब कुछ मिटा दिया। बैसाखी का एक महत्त्व यह है कि परम्परा के अनुसार पंजाब में फ़सल की कटाई पहली बैसाख को ही शुरू होती है और देश के दूसरे हिस्सों में भी आज ही के दिन फ़सल कटाई का त्योहार मनाया जाता है, जिनके नाम भले ही अलग-अलग हों। आज के दिन यदि हम श्री गुरु गोबिन्द सिंह के जीवन के आदर्शों को, देश, समाज और मानवता की भलाई के लिए उनके समर्पण को अपनी प्रेरणा का स्रोत बनाऐं और उनके बताये गए रास्ते पर निष्ठापूर्वक चलें तो कोई कारण नहीं कि देश के अन्दर अथवा बाहर से आए आतंकवादी और हमलावर हमारा कुछ भी बिगाड़ सकें।

सिक्खों में युद्ध का उत्साह

गुरु गोबिन्द सिंह ने सिक्खों में युद्ध का उत्साह बढ़ाने के लिए हर क़दम उठाया। वीर काव्य और संगीत का सृजन उन्होंने किया था। उन्होंने अपने लोगों में कृपाण जो उनकी लौह कृपा था, के प्रति प्रेम विकसित किया। खालसा को पुर्नसंगठित सिक्ख सेना का मार्गदर्शक बनाकर, उन्होंने दो मोर्चों पर सिक्खों के शत्रुओं के ख़िलाफ़ क़दम उठाये।

  1. पहला मुग़लों के ख़िलाफ़ एक फ़ौज और
  2. दूसरा विरोधी पहाड़ी जनजातियों के ख़िलाफ़।

सवा लाख से एक लड़ाऊँ चिड़ियों सों मैं बाज तड़ऊँ तबे गोबिंदसिंह नाम कहाऊँ

- गुरु गोबिन्द सिंह

उनकी सैन्य टुकड़ियाँ सिक्ख आदर्शो के प्रति पूरी तरह समर्पित थीं और सिक्खों की धार्मिक तथा राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार थीं। लेकिन गुरु गोबिन्द सिंह को इस स्वतंत्रता की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। अंबाला के पास एक युद्ध में उनके चारों बेटे मारे गए।[2]

वीरता और बलिदान

गुरु गोबिन्द सिंह ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। गुरु गोबिन्द सिंह जैसी वीरता और बलिदान इतिहास में कम ही देखने को मिलता है। इसके बावज़ूद इस महान् शख़्सियत को इतिहासकारों ने वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हक़दार हैं। कुछ इतिहासकारों का मत है कि गुरु गोबिन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई थी। क्या संभव है कि वह बालक स्वयं लड़ने के लिए प्रेरित होगा जिसने अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो। गुरु गोबिन्द सिंह जी को किसी से बैर नहीं था, उनके सामने तो पहाड़ी राजाओं की ईर्ष्या पहाड़ जैसी ऊँची थी, तो दूसरी ओर औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता की आँधी लोगों के अस्तित्व को लील रही थी। ऐसे समय में गुरु गोबिन्द सिंह ने समाज को एक नया दर्शन दिया। उन्होंने आध्यात्मिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए तलवार धारण की।

वो पाँच प्यारे जो देश के विभिन्न भागों से आए थे और समाज के अलग- अलग जाति और सम्प्रदाय के लोग थे, उन्हें एक ही कटोरे में अमृत पिला कर गुरु गोबिन्द सिंह ने एक बना दिया। इस प्रकार समाज में उन्होंने एक ऐसी क्रान्ति का बीज रोपा, जिसमें जाति का भेद और सम्प्रदायवाद, सब कुछ मिटा दिया।

बहादुर शाह प्रथम से भेंट

8 जून 1707 ई. आगरा के पास जांजू के पास लड़ाई लड़ी गई, जिसमें बहादुरशाह की जीत हुई। इस लड़ाई में गुरु गोबिन्द सिंह की हमदर्दी अपने पुराने मित्र बहादुरशाह के साथ थी। कहा जाता है कि गुरु जी ने अपने सैनिकों द्वारा जांजू की लड़ाई में बहादुरशाह का साथ दिया, उनकी मदद की। इससे बादशाह बहादुरशाह की जीत हुई। बादशाह ने गुरु गोबिन्द सिंह जी को आगरा बुलाया। उसने एक बड़ी क़ीमती सिरोपायो (सम्मान के वस्त्र) एक धुकधुकी (गर्दन का गहना) जिसकी क़ीमत 60 हज़ार रुपये थी, गुरुजी को भेंट की। मुग़लों के साथ एक युग पुराने मतभेद समाप्त होने की सम्भावना थी। गुरु साहब की तरफ से 2 अक्टूबर 1707 ई. और धौलपुर की संगत तरफ लिखे हुक्मनामा के कुछ शब्दों से लगता है कि गुरुजी की बादशाह बहादुरशाह के साथ मित्रतापूर्वक बातचीत हो सकती थी। जिसके खत्म होने से गुरु जी आनंदपुर साहिब वापस आ जांएगे, जहाँ उनको आस थी कि खालसा लौट के इकट्ठा हो सकेगा। पर हालात के चक्कर में उनको दक्षिण दिशा में पहुँचा दिया। जहाँ अभी बातचीत ही चल रही थी। बादशाह बहादुरशाह कछवाहा राजपूतों के विरुद्ध कार्रवाई करने कूच किया था कि उसके भाई कामबख़्श ने बग़ावत कर दी। बग़ावत दबाने के लिए बादशाह दक्षिण की तरफ़ चला और विनती करके गुरु जी को भी साथ ले गया।[3]

वीरता व बलिदान की मिसालें

इस सारे घटनाक्रम में भी अड़िग रहकर गुरु गोबिन्द सिंह संघर्षरत रहे, यह कोई सामान्य बात नहीं है। यह उनके महान् कर्मयोगी होने का प्रमाण है। उन्होंने ख़ालसा के सृजन का मार्ग देश की अस्मिता, भारतीय विरासत और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए, समाज को नए सिरे से तैयार करने के लिए अपनाया था। वे सभी प्राणियों को आध्यात्मिक स्तर पर परमात्मा का ही रूप मानते थे। 'अकाल उस्तति' में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जैसे एक अग्नि से करोड़ों अग्नि स्फुर्ल्लिंग उत्पन्न होकर अलग-अलग खिलते हैं, लेकिन सब अग्नि रूप हैं, उसी प्रकार सब जीवों की भी स्थिति है। उन्होंने सभी को मानव रूप में मानकर उनकी एकता में विश्वास प्रकट करते हुए कहा है कि

"हिन्दू तुरक कोऊ सफजी इमाम शाफी। मानस की जात सबै ऐकै पहचानबो।"

ख़ालसा पंथ

ख़ालसा का अर्थ है ख़ालिस अर्थात् विशुद्ध, निर्मल और बिना किसी मिलावट वाला व्यक्ति। इसके अलावा हम यह कह सकते हैं कि ख़ालसा हमारी मर्यादा और भारतीय संस्कृति की एक पहचान है, जो हर हाल में प्रभु का स्मरण रखता है और अपने कर्म को अपना धर्म मान कर ज़ुल्म और ज़ालिम से लोहा भी लेता है। गोबिन्द सिंह जी ने एक नया नारा दिया है- वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह।[4] गुरु जी द्वारा ख़ालसा का पहला धर्म है कि वह देश, धर्म और मानवता की रक्षा के लिए तन-मन-धन सब न्यौछावर कर दे। निर्धनों, असहायों और अनाथों की रक्षा के लिए सदा आगे रहे। जो ऐसा करता है, वह ख़लिस है, वही सच्चा ख़ालसा है। ये संस्कार अमृत पिलाकर गोबिन्द सिंह जी ने उन लोगों में भर दिए, जिन्होंने ख़ालसा पंथ को स्वीकार किया था। 'ज़फ़रनामा' में स्वयं गुरु गोबिन्द सिंह जी ने लिखा है कि जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है। गुरु गोबिन्द सिंह ने 1699 ई. में धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही ख़ालसा पंथ की स्थापना की थी। ख़ालसा यानि ख़ालिस (शुद्ध), जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। सभी जातियों के वर्ग-विभेद को समाप्त करके उन्होंने न सिर्फ़ समानता स्थापित की बल्कि उनमें आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा की भावना भी पैदा की। उनका स्पष्ट मत व्यक्त है-

"मानस की जात सभैएक है।"

ख़ालसा पंथ की स्थापना (1699) देश के चौमुखी उत्थान की व्यापक कल्पना थी। एक बाबा द्वारा गुरु हरगोबिन्द को 'मीरी' और 'पीरी' दो तलवारें पहनाई गई थीं।

  1. एक आध्यात्मिकता की प्रतीक थी।
  2. दूसरी सांसारिकता की।

गुरु गोबिन्द सिंह ने आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का संदेश दिया था। ख़ालसा पंथ में वे सिख थे, जिन्होंने किसी युद्ध कला का कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं लिया था। सिखों में समाज एवं धर्म के लिए स्वयं को बलिदान करने का जज़्बा था।

एक से कटाने सवा लाख शत्रुओं के सिर
गुरु गोबिन्द ने बनाया पंथ ख़ालसा
पिता और पुत्र सब देश पे शहीद हुए
नहीं रही सुख साधनों की कभी लालसा
ज़ोरावर फतेसिंह दीवारों में चुने गए
जग देखता रहा था क्रूरता का हादसा
चिड़ियों को बाज से लड़ा दिया था गुरुजी ने
मुग़लों के सर पे जो छा गया था काल सा

गुरु गोबिन्द सिंह का एक और उदाहरण उनके व्यक्तित्व को अनूठा साबित करता है- पंच पियारा बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं- ख़ालसा मेरो रूप है ख़ास, ख़ालसा में हो करो निवास।[5]

पाँच ककार

युद्ध की प्रत्येक स्थिति में सदा तैयार रहने के लिए उन्होंने सिखों के लिए पाँच ककार अनिवार्य घोषित किए, जिन्हें आज भी प्रत्येक सिख धारण करना अपना गौरव समझता है:-

  1. केश : जिसे सभी गुरु और ऋषि-मुनि धारण करते आए थे।
  2. कंघा : केशों को साफ़ करने के लिए।
  3. कच्छा : स्फूर्ति के लिए।
  4. कड़ा : नियम और संयम में रहने की चेतावनी देने के लिए।
  5. कृपाण : आत्मरक्षा के लिए।[6]

जहाँ शिवाजी राजशक्ति के शानदार प्रतीक हैं, वहीं गुरु गोबिन्द सिंह एक संत और सिपाही के रूप में दिखाई देते हैं। क्योंकि गुरु गोबिन्द सिंह को न तो सत्ता चाहिए और न ही सत्ता सुख। शान्ति एवं समाज कल्याण उनका था। अपने माता-पिता, पुत्रों और हज़ारों सिखों के प्राणों की आहुति देने के बाद भी वह औरंगज़ेब को फ़ारसी में लिखे अपने पत्र ज़फ़रनामा में लिखते हैं- औरंगजेब तुझे प्रभु को पहचानना चाहिए तथा प्रजा को दु:खी नहीं करना चाहिए। तूने क़ुरान की कसम खाकर कहा था कि मैं सुलह रखूँगा, लड़ाई नहीं करूँगा, यह क़सम तुम्हारे सिर पर भार है। तू अब उसे पूरा कर।

महान विद्वान

एक आध्यात्मिक गुरु के अतिरिक्त गुरु गोबिन्द सिंह एक महान् विद्वान् भी थे। उन्होंने 52 कवियों को अपने दरबार में नियुक्त किया था। गुरु गोबिन्द सिंह की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं- ज़फ़रनामा एवं विचित्र नाटक। वह स्वयं सैनिक एवं संत थे। उन्होंने अपने सिखों में भी इसी भावनाओं का पोषण किया था। गद्दी को लेकर सिखों के बीच कोई विवाद न हो इसके लिए गुरु गोबिन्द सिंह ने 'गुरु ग्रन्थ साहिब' को अन्तिम गुरु का दर्जा दिया। इसका श्रेय भी प्रभु को देते हुए कहते हैं-

"आज्ञा भई अकाल की तभी चलाइयो पंथ, सब सिक्खन को हुकम है गुरु मानियहु ग्रंथ।"

गुरु नानक की दसवीं जोत गुरु गोबिन्द सिंह अपने जीवन का सारा श्रेय प्रभु को देते हुए कहते है-

"मैं हूँ परम पुरखको दासा, देखन आयोजगत तमाशा।"

ज़फ़रनामा

गुरु गोबिन्द सिंह मूलतः धर्मगुरु थे, लेकिन सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए उन्हें शस्त्र धारण करने पड़े। औरंगज़ेब को लिखे गए अपने 'ज़फ़रनामा' में उन्होंने इसे स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा था,

"चूंकार अज हमा हीलते दर गुजशत, हलाले अस्त बुरदन ब समशीर ऐ दस्त।"

अर्थात् जब सत्य और न्याय की रक्षा के लिए अन्य सभी साधन विफल हो जाएँ तो तलवार को धारण करना सर्वथा उचित है। उनकी यह वाणी सिख इतिहास की अमर निधि है, जो आज भी हमें प्रेरणा देती है।

गुरु गोबिन्द सिंह ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। गुरु गोबिन्द सिंह जैसी वीरता और बलिदान इतिहास में कम ही देखने को मिलता है। इसके बावज़ूद इस महान् शख़्सियत को इतिहासकारों ने वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हक़दार हैं। कुछ इतिहासकारों का मत हैं कि गुरु गोबिन्द सिंह ने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार उठाई थी। क्या संभव है कि वह बालक स्वयं लड़ने के लिए प्रेरित होगा जिसने अपने पिता को आत्मबलिदान के लिए प्रेरित किया हो।

ज्ञाता और ग्रंथकार

यद्यपि सब गुरुओं ने थोड़े बहुत पद, भजन आदि बनाए हैं, पर गुरु गोबिन्द सिंह काव्य के अच्छे ज्ञाता और ग्रंथकार थे। सिखों में शास्त्रज्ञान का अभाव इन्हें बहुत खटका था और इन्होंने बहुत से सिखों को व्याकरण, साहित्य, दर्शन आदि के अध्ययन के लिए काशी भेजा था। ये हिंदू भावों और आर्य संस्कृति की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करते रहे। 'तिलक' और 'जनेऊ' की रक्षा में इनकी तलवार सदा खुली रहती थी। यद्यपि सिख संप्रदाय की निर्गुण उपासना है, पर सगुण स्वरूप के प्रति इन्होंने पूरी आस्था प्रकट की है और देव कथाओं की चर्चा बड़े भक्तिभाव से की है। यह बात प्रसिद्ध है कि ये शक्ति के आराधक थे। इन्होंने हिन्दी में कई अच्छे और साहित्यिक ग्रंथों की रचना की है जिनमें से कुछ के नाम ये हैं - सुनीतिप्रकाश, सर्वलोहप्रकाश, प्रेमसुमार्ग, बुद्धि सागर और चंडीचरित्र। चंडीचरित्र की रचना पद्धति बड़ी ही ओजस्विनी है। ये प्रौढ़ साहित्यिक ब्रजभाषा लिखते थे। चंडीचरित्र की दुर्गासप्तशती की कथा बड़ी सुंदर कविता में कही गई है -

निर्जर निरूप हौ, कि सुंदर सरूप हौ,
कि भूपन के भूप हौ, कि दानी महादान हौ?
प्रान के बचैया, दूध-पूत के देवैया,
रोग-सोग के मिटैया, किधौं मानी महामानहौ?
विद्या के विचार हौ, कि अद्वैत अवतार हौ,
कि सुद्ध ता की मूर्ति हौ कि सिद्ध ता की सान हौ?
जोबन के जाल हौ, कि कालहू के काल हौ,
कि सत्रुन के साल हौ कि मित्रन के प्रान हौ?[7]

रचनाएँ

गुरु गोबिन्द सिंह कवि भी थे। चंडी दीवार गुरु गोबिन्द सिंह की पंजाबी भाषा की एकमात्र रचना है। शेष सब हिन्दी भाषा में हैं। इनकी मुख्य रचनाएँ हैं-

  • चण्डी चरित्र- माँ चण्डी (शिवा) की स्तुति
  • दशमग्रन्थ- गुरु जी की कृतियों का संकलन
  • कृष्णावतार- भागवत पुराण के दशमस्कन्ध पर आधारित
  • गोबिन्द गीत
  • प्रेम प्रबोध
  • जाप साहब
  • अकाल उस्तुता
  • चौबीस अवतार
  • नाममाला
  • विभिन्न गुरुओं, भक्तों एवं सन्तों की वाणियों का गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलन।

भाई मणिसिंह

भाई मणि सिंह जी गुरु साहिब के एक दीवान (मंत्री) थे। भाई मणिसिंह ने गुरु गोबिन्द सिंह की रचनाओं को एक जिल्द (दशमग्रंथ) में प्रस्तुत किया था।

मृत्यु

गुरु गोबिन्द सिंह ने अपना अंतिम समय निकट जानकर अपने सभी सिखों को एकत्रित किया और उन्हें मर्यादित तथा शुभ आचरण करने, देश से प्रेम करने और सदा दीन-दुखियों की सहायता करने की सीख दी। इसके बाद यह भी कहा कि अब उनके बाद कोई देहधारी गुरु नहीं होगा और 'गुरुग्रन्थ साहिब' ही आगे गुरु के रूप में उनका मार्ग दर्शन करेंगे। गुरु गोबिन्दसिंह की मृत्यु 7 अक्तूबर सन् 1708 ई. में नांदेड़, महाराष्ट्र में हुई थी। आज मानवता स्वार्थ, संदेह, संघर्ष, हिंसा, आतंक, अन्याय और अत्याचार की जिन चुनौतियों से जूझ रही है, उनमें गुरु गोबिन्द सिंह का जीवन-दर्शन हमारा मार्गदर्शन कर सकता है।

गुरु स्तुति

गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द

गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द
गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत

गुरु मेरा देऊ, अलख अभेऊ, सर्व पूज चरण गुरु सेवऊ
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत

गुरु का दर्शन .... देख - देख जीवां, गुरु के चरण धोये -धोये पीवां

गुरु बिन अवर नहीं मैं ठाऊँ, अनबिन जपऊ गुरु गुरु नाऊँ
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत

गुरु मेरा ज्ञान, गुरु हिरदय ध्यान, गुरु गोपाल पुरख भगवान
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत

ऐसे गुरु को बल-बल जाइये ..-2 आप मुक्त मोहे तारें ..

गुरु की शरण रहो कर जोड़े, गुरु बिना मैं नहीं होर
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत

गुरु बहुत तारे भव पार, गुरु सेवा जम से छुटकार
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत

अंधकार में गुरु मंत्र उजारा, गुरु के संग सजल निस्तारा
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत

गुरु पूरा पाईया बडभागी, गुरु की सेवा जिथ ना लागी
गुरु मेरी पूजा, गुरु गोबिन्द, गुरु मेरा पार ब्रह्म, गुरु भगवंत


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सत्य ही ईश्वर है।
  2. पुस्तक- भारत ज्ञानकोश खंड-2 | पृष्ठ संख्या-115
  3. डॉ. गण्डा सिंह की पुस्तक 'सिख इतिहास' के पृष्ठ संख्या 91 के कुछ अंश
    सौजन्य से- हरप्रीत सिंह नाज़
  4. कि ख़ालसा ईश्वर का है और ईश्वर की विजय सुनिश्चित है।
  5. जहाँ पाँच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूँगा।
  6. गुरु गोबिंद सिंह (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) वेबदुनिया। अभिगमन तिथि: 14 जून, 2010।
  7. आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 230।

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