"देवगढ़, उत्तर प्रदेश": अवतरणों में अंतर
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'''देवगढ़''' [[उत्तर प्रदेश]] [[राज्य]] के [[ललितपुर ज़िला|ललितपुर ज़िले]] से लगभग 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह मध्य रेलवे के जाखलौन से 9 मील {{मील|मील=9}} की दूरी पर पड़ता है। यहाँ के प्राचीन स्मारक बहुत ही उल्लेखनीय हैं। देवगढ़ में [[दशावतार]] [[विष्णु]] भगवान का मध्ययुगीन मन्दिर है, जो स्थापत्य कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। | '''देवगढ़''' [[उत्तर प्रदेश]] [[राज्य]] के [[ललितपुर ज़िला|ललितपुर ज़िले]] से लगभग 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह मध्य रेलवे के जाखलौन से 9 मील {{मील|मील=9}} की दूरी पर पड़ता है। यहाँ के प्राचीन स्मारक बहुत ही उल्लेखनीय हैं। देवगढ़ में [[दशावतार]] [[विष्णु]] भगवान का मध्ययुगीन मन्दिर है, जो स्थापत्य कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। | ||
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देवगढ़ का [[इतिहास]] में बहुत ही ख़ास स्थान रहा है। यह ऐतिहासिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसके अन्य दर्शनीय स्थलों में मुख्य हैं- सैपुरा ग्राम से 3 मील {{मील|मील=3}} पश्चिम की ओर पहाड़ी पर एक चतुष्कोण कोट, नीचे मैदान में एक भव्य विष्णु का मंदिर, यहाँ से एक फलांग पर वराह मंदिर, पास ही एक विशाल दुर्ग के खंडहर, इसके | देवगढ़ का [[इतिहास]] में बहुत ही ख़ास स्थान रहा है। यह ऐतिहासिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसके अन्य दर्शनीय स्थलों में मुख्य हैं- सैपुरा ग्राम से 3 मील {{मील|मील=3}} पश्चिम की ओर पहाड़ी पर एक चतुष्कोण कोट, नीचे मैदान में एक भव्य विष्णु का मंदिर, यहाँ से एक फलांग पर वराह मंदिर, पास ही एक विशाल दुर्ग के खंडहर, इसके पश्चात् दो और दुर्गों के भग्नावशेष, एक दुर्ग के विशाल घेरे में 31 [[जैन]] मंदिरों और अनेक भवनों के खंडहर। | ||
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देवगढ़ में सब मिला कर 300 के लगभग [[अभिलेख]] मिले हैं, जो 8वीं शती से लेकर 18वीं शती तक के हैं। इनमें [[ऋषभदेव]] की पुत्री ब्राह्मी द्वारा अंकित अठारह लिपियों का अभिलेख तो अद्वितीय ही है। [[चंदेल वंश|चंदेल]] नरेशों के अभिलेख भी महत्त्वपूर्ण हैं। देवगढ़ [[बेतवा नदी]] के तट पर स्थित है। तट के निकट पहाड़ी पर 24 मंदिरों के [[अवशेष]] हैं, जो 7वीं शती ई. से 12वीं शती ई. तक बने थे। देवगढ़ का शायद सर्वोत्कृष्ट स्मारक 'दशावतार का विष्णु मंदिर' है, जो अपनी रमणीय कला के लिए [[भारत]] भर के उच्च कोटि के मंदिरों में गिना जाता है। इसका समय छठी शती ई. माना जाता है, जब [[गुप्त]] वास्तु कला अपने पूर्ण विकास पर थी। मंदिर का समय भग्नप्राय अवस्था में है, किन्तु यह निश्चित है कि प्रारम्भ में इसमें अन्य गुप्त कालीन देवालयों की भांति ही गर्भगृह के चतुर्दिक पटा हुआ प्रदक्षिणा पथ रहा होगा। इस मंदिर के एक के बजाए चार प्रवेश द्वार थे और उन सबके सामने छोटे-छोटे मंडप तथा सीढ़ियां थीं। चारों कोनों में चार छोटे मंदिर थे। इनके शिखर आमलकों से अलंकृत थे, क्योंकि खंडहरों से अनेक आमलक प्राप्त हुए हैं। प्रत्येक सीढ़ियों की पंक्ति के पास एक गोखा था। मुख्य मंदिर के चतुर्दिक कई छोटे मंदिर थे, जिनकी कुर्सियाँ मुख्य मंदिर की कुर्सी से नीची हैं। ये मुख्य मंदिर के बाद में बने थे। इनमें से एक पर पुष्पावलियों तथा अधोशीर्ष [[स्तूप]] का अलंकरण अंकित है। यह अलंकरण देवगढ़ की पहाड़ी की चोटी पर स्थित मध्ययुगीन जैन मंदिरों में भी प्रचुरता से प्रयुक्त है। | देवगढ़ में सब मिला कर 300 के लगभग [[अभिलेख]] मिले हैं, जो 8वीं शती से लेकर 18वीं शती तक के हैं। इनमें [[ऋषभदेव]] की पुत्री ब्राह्मी द्वारा अंकित अठारह लिपियों का अभिलेख तो अद्वितीय ही है। [[चंदेल वंश|चंदेल]] नरेशों के अभिलेख भी महत्त्वपूर्ण हैं। देवगढ़ [[बेतवा नदी]] के तट पर स्थित है। तट के निकट पहाड़ी पर 24 मंदिरों के [[अवशेष]] हैं, जो 7वीं शती ई. से 12वीं शती ई. तक बने थे। देवगढ़ का शायद सर्वोत्कृष्ट स्मारक 'दशावतार का विष्णु मंदिर' है, जो अपनी रमणीय कला के लिए [[भारत]] भर के उच्च कोटि के मंदिरों में गिना जाता है। इसका समय छठी शती ई. माना जाता है, जब [[गुप्त]] वास्तु कला अपने पूर्ण विकास पर थी। मंदिर का समय भग्नप्राय अवस्था में है, किन्तु यह निश्चित है कि प्रारम्भ में इसमें अन्य गुप्त कालीन देवालयों की भांति ही गर्भगृह के चतुर्दिक पटा हुआ प्रदक्षिणा पथ रहा होगा। इस मंदिर के एक के बजाए चार प्रवेश द्वार थे और उन सबके सामने छोटे-छोटे मंडप तथा सीढ़ियां थीं। चारों कोनों में चार छोटे मंदिर थे। इनके शिखर आमलकों से अलंकृत थे, क्योंकि खंडहरों से अनेक आमलक प्राप्त हुए हैं। प्रत्येक सीढ़ियों की पंक्ति के पास एक गोखा था। मुख्य मंदिर के चतुर्दिक कई छोटे मंदिर थे, जिनकी कुर्सियाँ मुख्य मंदिर की कुर्सी से नीची हैं। ये मुख्य मंदिर के बाद में बने थे। इनमें से एक पर पुष्पावलियों तथा अधोशीर्ष [[स्तूप]] का अलंकरण अंकित है। यह अलंकरण देवगढ़ की पहाड़ी की चोटी पर स्थित मध्ययुगीन जैन मंदिरों में भी प्रचुरता से प्रयुक्त है। | ||
====गुप्त वास्तुकला का प्रभाव==== | ====गुप्त वास्तुकला का प्रभाव==== | ||
दशावतार मंदिर में गुप्त वास्तु कला के प्रारूपिक उदाहरण मिलते हैं, जैसे, विशाल स्तम्भ, जिनके दंड पर अर्ध अथवा तीन चौथाई भाग में अलंकृत गोल पट्टक बने हैं। ऐसे एक स्तम्भ पर छठी शती के अंतिम भाग की गुप्त लिपि में एक [[अभिलेख]] पाया गया है, जिससे उपर्युक्त अलंकरण का गुप्त कालीन होना सिद्ध होता है। इस मंदिर की [[वास्तु कला]] की दूसरी विशेषता चैत्य वातायनों के घेरों में कई प्रकार के उत्कीर्ण चित्र हैं। इन चित्रों में प्रवेश द्वार या मूर्ति रखने के अवकाश भी प्रदर्शित हैं। इनके अतिरिक्त [[सारनाथ]] की मूर्तिकला का विशिष्ट अभिप्राय स्वस्तिकाकार शीर्ष सहित स्तम्भयुग्म भी इस मंदिर के चैत्यवातायनों के घेरों में उत्कीर्ण है। दशावतार मंदिर का शिखर ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण संरचना है। पूर्व गुप्त कालीन मंदिरों में शिखरों का अभाव है। | दशावतार मंदिर में गुप्त वास्तु कला के प्रारूपिक उदाहरण मिलते हैं, जैसे, विशाल स्तम्भ, जिनके दंड पर अर्ध अथवा तीन चौथाई भाग में अलंकृत गोल पट्टक बने हैं। ऐसे एक स्तम्भ पर छठी शती के अंतिम भाग की [[गुप्त लिपि]] में एक [[अभिलेख]] पाया गया है, जिससे उपर्युक्त अलंकरण का गुप्त कालीन होना सिद्ध होता है। इस मंदिर की [[वास्तु कला]] की दूसरी विशेषता चैत्य वातायनों के घेरों में कई प्रकार के उत्कीर्ण चित्र हैं। इन चित्रों में प्रवेश द्वार या मूर्ति रखने के अवकाश भी प्रदर्शित हैं। इनके अतिरिक्त [[सारनाथ]] की मूर्तिकला का विशिष्ट अभिप्राय स्वस्तिकाकार शीर्ष सहित स्तम्भयुग्म भी इस मंदिर के चैत्यवातायनों के घेरों में उत्कीर्ण है। दशावतार मंदिर का शिखर ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण संरचना है। पूर्व गुप्त कालीन मंदिरों में शिखरों का अभाव है। | ||
देवगढ़ के मंदिर का शिखर भी अधिक ऊँचा नहीं है, वरन् इसमें क्रमिक घुमाव बनाए गए हैं। इस समय शिखर के निचले भाग की गोलाई ही शेष है, किन्तु इससे पूर्ण शिखर का आभास मिल जाता है। शिखर के आधार के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ की सपाट छत थी, जिसके किनारे पर बड़ी व छोटी दैत्य खिड़कियाँ थीं, जैसा कि [[महाबलीपुरम]] के रथों के किनारों पर हैं। द्वार मंडप दो विशाल स्तम्भों पर आधृत था। प्रवेश द्वार पर पत्थर की चौखट है, जिस पर अनेक [[देवता|देवताओं]] तथा [[गंगा]] और [[यमुना]] की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। मंदिर की बहिर्भित्तियों के अनेक विशाल पट्टों पर गजेन्द्रमोक्ष, शेषशायी [[विष्णु]] आदि के कलात्मक मूर्ति चित्र अंकित हैं। मंदिर की कुर्सी के चारों ओर भी [[गुप्त काल|गुप्त कालीन]] मूर्तिकारी का वैभव अवलोकनीय है। [[रामायण]] और [[रासलीला|कुष्ण लीला]] से संबंधित दृश्यों का चित्रण बहुत ही कलापूर्ण शैली में प्रदर्शित है। | देवगढ़ के मंदिर का शिखर भी अधिक ऊँचा नहीं है, वरन् इसमें क्रमिक घुमाव बनाए गए हैं। इस समय शिखर के निचले भाग की गोलाई ही शेष है, किन्तु इससे पूर्ण शिखर का आभास मिल जाता है। शिखर के आधार के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ की सपाट छत थी, जिसके किनारे पर बड़ी व छोटी दैत्य खिड़कियाँ थीं, जैसा कि [[महाबलीपुरम]] के रथों के किनारों पर हैं। द्वार मंडप दो विशाल स्तम्भों पर आधृत था। प्रवेश द्वार पर पत्थर की चौखट है, जिस पर अनेक [[देवता|देवताओं]] तथा [[गंगा]] और [[यमुना]] की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। मंदिर की बहिर्भित्तियों के अनेक विशाल पट्टों पर गजेन्द्रमोक्ष, शेषशायी [[विष्णु]] आदि के कलात्मक मूर्ति चित्र अंकित हैं। मंदिर की कुर्सी के चारों ओर भी [[गुप्त काल|गुप्त कालीन]] मूर्तिकारी का वैभव अवलोकनीय है। [[रामायण]] और [[रासलीला|कुष्ण लीला]] से संबंधित दृश्यों का चित्रण बहुत ही कलापूर्ण शैली में प्रदर्शित है। | ||
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* | *ऐतिहासिक स्थानावली | विजयेन्द्र कुमार माथुर | वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== |
07:46, 23 जून 2017 के समय का अवतरण
देवगढ़ | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- देवगढ़ |
देवगढ़ उत्तर प्रदेश राज्य के ललितपुर ज़िले से लगभग 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह मध्य रेलवे के जाखलौन से 9 मील (लगभग 14.4 कि.मी.) की दूरी पर पड़ता है। यहाँ के प्राचीन स्मारक बहुत ही उल्लेखनीय हैं। देवगढ़ में दशावतार विष्णु भगवान का मध्ययुगीन मन्दिर है, जो स्थापत्य कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
इतिहास
देवगढ़ का इतिहास में बहुत ही ख़ास स्थान रहा है। यह ऐतिहासिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसके अन्य दर्शनीय स्थलों में मुख्य हैं- सैपुरा ग्राम से 3 मील (लगभग 4.8 कि.मी.) पश्चिम की ओर पहाड़ी पर एक चतुष्कोण कोट, नीचे मैदान में एक भव्य विष्णु का मंदिर, यहाँ से एक फलांग पर वराह मंदिर, पास ही एक विशाल दुर्ग के खंडहर, इसके पश्चात् दो और दुर्गों के भग्नावशेष, एक दुर्ग के विशाल घेरे में 31 जैन मंदिरों और अनेक भवनों के खंडहर।
दशावतार विष्णु मंदिर
देवगढ़ में सब मिला कर 300 के लगभग अभिलेख मिले हैं, जो 8वीं शती से लेकर 18वीं शती तक के हैं। इनमें ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी द्वारा अंकित अठारह लिपियों का अभिलेख तो अद्वितीय ही है। चंदेल नरेशों के अभिलेख भी महत्त्वपूर्ण हैं। देवगढ़ बेतवा नदी के तट पर स्थित है। तट के निकट पहाड़ी पर 24 मंदिरों के अवशेष हैं, जो 7वीं शती ई. से 12वीं शती ई. तक बने थे। देवगढ़ का शायद सर्वोत्कृष्ट स्मारक 'दशावतार का विष्णु मंदिर' है, जो अपनी रमणीय कला के लिए भारत भर के उच्च कोटि के मंदिरों में गिना जाता है। इसका समय छठी शती ई. माना जाता है, जब गुप्त वास्तु कला अपने पूर्ण विकास पर थी। मंदिर का समय भग्नप्राय अवस्था में है, किन्तु यह निश्चित है कि प्रारम्भ में इसमें अन्य गुप्त कालीन देवालयों की भांति ही गर्भगृह के चतुर्दिक पटा हुआ प्रदक्षिणा पथ रहा होगा। इस मंदिर के एक के बजाए चार प्रवेश द्वार थे और उन सबके सामने छोटे-छोटे मंडप तथा सीढ़ियां थीं। चारों कोनों में चार छोटे मंदिर थे। इनके शिखर आमलकों से अलंकृत थे, क्योंकि खंडहरों से अनेक आमलक प्राप्त हुए हैं। प्रत्येक सीढ़ियों की पंक्ति के पास एक गोखा था। मुख्य मंदिर के चतुर्दिक कई छोटे मंदिर थे, जिनकी कुर्सियाँ मुख्य मंदिर की कुर्सी से नीची हैं। ये मुख्य मंदिर के बाद में बने थे। इनमें से एक पर पुष्पावलियों तथा अधोशीर्ष स्तूप का अलंकरण अंकित है। यह अलंकरण देवगढ़ की पहाड़ी की चोटी पर स्थित मध्ययुगीन जैन मंदिरों में भी प्रचुरता से प्रयुक्त है।
गुप्त वास्तुकला का प्रभाव
दशावतार मंदिर में गुप्त वास्तु कला के प्रारूपिक उदाहरण मिलते हैं, जैसे, विशाल स्तम्भ, जिनके दंड पर अर्ध अथवा तीन चौथाई भाग में अलंकृत गोल पट्टक बने हैं। ऐसे एक स्तम्भ पर छठी शती के अंतिम भाग की गुप्त लिपि में एक अभिलेख पाया गया है, जिससे उपर्युक्त अलंकरण का गुप्त कालीन होना सिद्ध होता है। इस मंदिर की वास्तु कला की दूसरी विशेषता चैत्य वातायनों के घेरों में कई प्रकार के उत्कीर्ण चित्र हैं। इन चित्रों में प्रवेश द्वार या मूर्ति रखने के अवकाश भी प्रदर्शित हैं। इनके अतिरिक्त सारनाथ की मूर्तिकला का विशिष्ट अभिप्राय स्वस्तिकाकार शीर्ष सहित स्तम्भयुग्म भी इस मंदिर के चैत्यवातायनों के घेरों में उत्कीर्ण है। दशावतार मंदिर का शिखर ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण संरचना है। पूर्व गुप्त कालीन मंदिरों में शिखरों का अभाव है।
देवगढ़ के मंदिर का शिखर भी अधिक ऊँचा नहीं है, वरन् इसमें क्रमिक घुमाव बनाए गए हैं। इस समय शिखर के निचले भाग की गोलाई ही शेष है, किन्तु इससे पूर्ण शिखर का आभास मिल जाता है। शिखर के आधार के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ की सपाट छत थी, जिसके किनारे पर बड़ी व छोटी दैत्य खिड़कियाँ थीं, जैसा कि महाबलीपुरम के रथों के किनारों पर हैं। द्वार मंडप दो विशाल स्तम्भों पर आधृत था। प्रवेश द्वार पर पत्थर की चौखट है, जिस पर अनेक देवताओं तथा गंगा और यमुना की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। मंदिर की बहिर्भित्तियों के अनेक विशाल पट्टों पर गजेन्द्रमोक्ष, शेषशायी विष्णु आदि के कलात्मक मूर्ति चित्र अंकित हैं। मंदिर की कुर्सी के चारों ओर भी गुप्त कालीन मूर्तिकारी का वैभव अवलोकनीय है। रामायण और कुष्ण लीला से संबंधित दृश्यों का चित्रण बहुत ही कलापूर्ण शैली में प्रदर्शित है।
अन्य स्थल
देवगढ़ के अन्य मंदिरों में गोमटेश्वर, भरत, चक्रेश्वरी, पद्मावती, ज्वालाभालिनी, श्री, ह्री, तथा पंच परमेष्ठी आदि जैन तथा तांत्रिक मूर्तियों का सुंदर प्रदर्शन है। दूसरे दुर्ग से पहाड़ी में नदी तक काटकर बनाई हुई सीढ़ियों द्वारा नाहरघाटी व राजघाटी तक पहुँचा जा सकता है। मार्ग में पांच पांडवों की मूर्तियां, जिन प्रतिमाएं, शैलकृत सिद्ध गुहा तथा गुप्त कालीन अभिलेख मिलते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |पृष्ठ संख्या: 442 |
- ऐतिहासिक स्थानावली | विजयेन्द्र कुमार माथुर | वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
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