"कबीर -हज़ारी प्रसाद द्विवेदी": अवतरणों में अंतर
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - "जरूर" to "ज़रूर") |
|||
(2 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 20: | पंक्ति 20: | ||
| टिप्पणियाँ = | | टिप्पणियाँ = | ||
}} | }} | ||
[[कबीर]] धर्मगुरु थे। इसलिए उनकी वाणियों का आध्यात्मिक रस ही आस्वाद्य होना चाहिए, परंतु विद्वानों ने नाना रूप में उन वाणियों का अध्ययन और उपयोग किया है। काव्य रूप में उसे आस्वादन करने की प्रथा ही चल पड़ी है, समाजसुधारक के रूप में, सर्वधर्म समन्वयकारी के रूप में, [[हिंदू]] [[मुस्लिम]] ऐक्य विधायक के रूप में, विशेष सम्प्रदाय के प्रतिष्ठाता के रूप में और वेदांत व्याख्याता दार्शनिक के रूप में भी उनकी चर्चा कम नहीं हुई है। यों तो 'हरि अनंत हरि कथा अनंता, विविध भाँति गावहिं श्रुति संता' के अनुसार कबीर कथित 'हरि कथा' का विविध रूपों में उपयोग होना स्वाभाविक ही है, पर कभी कभी उत्साह-परायण | [[कबीर]] धर्मगुरु थे। इसलिए उनकी वाणियों का आध्यात्मिक रस ही आस्वाद्य होना चाहिए, परंतु विद्वानों ने नाना रूप में उन वाणियों का अध्ययन और उपयोग किया है। काव्य रूप में उसे आस्वादन करने की प्रथा ही चल पड़ी है, समाजसुधारक के रूप में, सर्वधर्म समन्वयकारी के रूप में, [[हिंदू]] [[मुस्लिम]] ऐक्य विधायक के रूप में, विशेष सम्प्रदाय के प्रतिष्ठाता के रूप में और वेदांत व्याख्याता दार्शनिक के रूप में भी उनकी चर्चा कम नहीं हुई है। यों तो 'हरि अनंत हरि कथा अनंता, विविध भाँति गावहिं श्रुति संता' के अनुसार कबीर कथित 'हरि कथा' का विविध रूपों में उपयोग होना स्वाभाविक ही है, पर कभी कभी उत्साह-परायण विद्वान् ग़लती से कबीर को इन्हीं रूपों में से किसी एक का प्रतिनिधि समझ कर ऐसी ऐसी बातें करने लगते हैं जो असंगत कही जा सकती हैं।<ref>{{cite book | last =हज़ारी प्रसाद| first =द्विवेदी| title =कबीर| edition =| publisher =| location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय| language =हिंदी| pages =| chapter =}}</ref> | ||
==संतुलित और सम्यक् मूल्यांकन== | ==संतुलित और सम्यक् मूल्यांकन== | ||
[[हजारी प्रसाद द्विवेदी|आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी]] पहले | [[हजारी प्रसाद द्विवेदी|आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी]] पहले विद्वान् हैं, जिन्होंने इस प्रकार के एकांगी दृष्टिकोण से बचाकर कबीर के बहुमुखी व्यक्तित्व और कृतित्व का समग्र रूप में संतुलित और सम्यक् मूल्यांकन किया है। उनका मत है कि कबीरदास में इन सभी रूपों का समंवय था, किंतु उनका वास्तविक रूप भक्त का ही था और अन्य सारे रूपों को उन्होंने भक्ति के साधन के रूप मे स्वीकार किया था। | ||
==आलोचना साहित्य में अद्वितीय== | ==आलोचना साहित्य में अद्वितीय== | ||
आचार्य द्विवेदी की प्रस्तुत कृति आज भी कबीर विषयक आलोचना साहित्य में अद्वितीय मानी जाती है और कबीरदास के कृतित्व और व्यक्तित्व को समग्र रूप में हृदयंगम करने के लिए यह अकेली पुस्तक पर्याप्त है, ऐसा विद्वानों का मत है। | आचार्य द्विवेदी की प्रस्तुत कृति आज भी कबीर विषयक आलोचना साहित्य में अद्वितीय मानी जाती है और कबीरदास के कृतित्व और व्यक्तित्व को समग्र रूप में हृदयंगम करने के लिए यह अकेली पुस्तक पर्याप्त है, ऐसा विद्वानों का मत है। | ||
पंक्ति 29: | पंक्ति 29: | ||
पुस्तक के अंत में उपयोगी समझ कर 'कबीर वाणी' नाम से कुछ चुने हुए पद्य संग्रह किये गये हैं। उनके शुरू के सौ पद 'आचार्य क्षितिमोहन सेन' के संग्रह के हैं। इन्हीं को कविवर [[रवींद्रनाथ ठाकुर |रवींद्रनाथ ठाकुर]] ने [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ी]] में अनूदित किया था।<ref>{{cite book | last =हज़ारी प्रसाद| first =द्विवेदी| title =कबीर| edition =| publisher =| location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय| language =हिंदी| pages =| chapter =}}</ref> | पुस्तक के अंत में उपयोगी समझ कर 'कबीर वाणी' नाम से कुछ चुने हुए पद्य संग्रह किये गये हैं। उनके शुरू के सौ पद 'आचार्य क्षितिमोहन सेन' के संग्रह के हैं। इन्हीं को कविवर [[रवींद्रनाथ ठाकुर |रवींद्रनाथ ठाकुर]] ने [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ी]] में अनूदित किया था।<ref>{{cite book | last =हज़ारी प्रसाद| first =द्विवेदी| title =कबीर| edition =| publisher =| location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय| language =हिंदी| pages =| chapter =}}</ref> | ||
==हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में== | ==हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में== | ||
<blockquote>‘कबीर’ लिखते समय नाना साधनाओं की चर्चा प्रसंगवश आ गई है। उनके उसी पहलू का परिचय विशेष रूप से कराया गया है जिसे कबीरदास ने अधिक लक्ष्य किया था। पाठक पुस्तक में यथास्थान पढ़ेंगे कि कबीरदास बहुत-कुछ को अस्वीकार करने का अपार साहस लेकर अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने तत्काल प्रचलित नाना साधन-मार्गों पर उग्र आक्रमण किया है। कबीरदास के इस विशेष दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से हृदयंगम कराने के लिए मैंने उसकी ओर पाठक की सहानुभूति पैदा करने की चेष्टा की है। इसीलिए कहीं-कहीं पुस्तक में ऐसा लग सकता है कि लेखक भी व्यक्तिगत भाव से किसी साधन-मार्ग का विरोधी है, परंतु बात ऐसी नहीं है। जहाँ कहीं भी अवसर मिला है वहीं लेखक ने इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया है, पर फिर भी यदि कहीं भ्रम का अवकाश रह गया हो तो वह इस वक्तव्य से दूर हो जाना चाहिए। कबीरदास ने तत्कालीन नाथपंथी योगियों की साधन-क्रिया पर भी आक्षेप किया है, यथास्थान उसकी चर्चा की गई है। पुस्तक के अधिकांश स्थलों में ‘योगी’ शब्द से इन्हीं नाथपंथी योगियों से तात्पर्य है। समाधि के विरुद्ध जहाँ कहीं कबीरदास ने कहा है वहाँ ‘जड़-समाधि’ अर्थ समझना चाहिए। यथाप्रसंग पुस्तक में इसकी चर्चा आ गई है। वैसे, कबीरदास जिस सहज समाधि की बात कहते हैं वह योगमार्ग से असम्मत नहीं है। यहाँ यह भी कह रखना | <blockquote>‘कबीर’ लिखते समय नाना साधनाओं की चर्चा प्रसंगवश आ गई है। उनके उसी पहलू का परिचय विशेष रूप से कराया गया है जिसे कबीरदास ने अधिक लक्ष्य किया था। पाठक पुस्तक में यथास्थान पढ़ेंगे कि कबीरदास बहुत-कुछ को अस्वीकार करने का अपार साहस लेकर अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने तत्काल प्रचलित नाना साधन-मार्गों पर उग्र आक्रमण किया है। कबीरदास के इस विशेष दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से हृदयंगम कराने के लिए मैंने उसकी ओर पाठक की सहानुभूति पैदा करने की चेष्टा की है। इसीलिए कहीं-कहीं पुस्तक में ऐसा लग सकता है कि लेखक भी व्यक्तिगत भाव से किसी साधन-मार्ग का विरोधी है, परंतु बात ऐसी नहीं है। जहाँ कहीं भी अवसर मिला है वहीं लेखक ने इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया है, पर फिर भी यदि कहीं भ्रम का अवकाश रह गया हो तो वह इस वक्तव्य से दूर हो जाना चाहिए। कबीरदास ने तत्कालीन नाथपंथी योगियों की साधन-क्रिया पर भी आक्षेप किया है, यथास्थान उसकी चर्चा की गई है। पुस्तक के अधिकांश स्थलों में ‘योगी’ शब्द से इन्हीं नाथपंथी योगियों से तात्पर्य है। समाधि के विरुद्ध जहाँ कहीं कबीरदास ने कहा है वहाँ ‘जड़-समाधि’ अर्थ समझना चाहिए। यथाप्रसंग पुस्तक में इसकी चर्चा आ गई है। वैसे, कबीरदास जिस सहज समाधि की बात कहते हैं वह योगमार्ग से असम्मत नहीं है। यहाँ यह भी कह रखना ज़रूरी है कि पुस्तक में भिन्न-भिन्न साधन-मार्गों के ऐतिहासिक विकास की ओर ही अधिक ध्यान दिया गया है। | ||
पुस्तक के अंत में उपयोगी समझकर ‘कबीर-वाणी’ नाम से कुछ चुने हुए पद्य संग्रह किए गए हैं। उनके शुरू के सौ पद श्री आचार्य क्षितिमोहन सेन के संग्रह के हैं। इन्हीं को कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने अंग्रेजी में अनूदित किया था। आचार्य सेन ने इन पद्यों को लेने की अनुमति देकर हमें अनुग्रहीत किया है। | पुस्तक के अंत में उपयोगी समझकर ‘कबीर-वाणी’ नाम से कुछ चुने हुए पद्य संग्रह किए गए हैं। उनके शुरू के सौ पद श्री आचार्य क्षितिमोहन सेन के संग्रह के हैं। इन्हीं को कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने अंग्रेजी में अनूदित किया था। आचार्य सेन ने इन पद्यों को लेने की अनुमति देकर हमें अनुग्रहीत किया है। | ||
पंक्ति 47: | पंक्ति 47: | ||
[[Category:पुस्तक कोश]] | [[Category:पुस्तक कोश]] | ||
__NOTOC__ | __NOTOC__ | ||
__INDEX__ |
10:46, 2 जनवरी 2018 के समय का अवतरण
कबीर -हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
| |
लेखक | आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी |
मूल शीर्षक | कबीर-हज़ारी प्रसाद द्विवेदी |
प्रकाशक | राजकमल प्रकाशन |
ISBN | 81-267-0395-4 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 280 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | जीवनी और आलोचना |
प्रकार | व्यक्तित्व, साहित्य, जीवनी और दार्शनिक विचारों की आलोचना |
कबीर धर्मगुरु थे। इसलिए उनकी वाणियों का आध्यात्मिक रस ही आस्वाद्य होना चाहिए, परंतु विद्वानों ने नाना रूप में उन वाणियों का अध्ययन और उपयोग किया है। काव्य रूप में उसे आस्वादन करने की प्रथा ही चल पड़ी है, समाजसुधारक के रूप में, सर्वधर्म समन्वयकारी के रूप में, हिंदू मुस्लिम ऐक्य विधायक के रूप में, विशेष सम्प्रदाय के प्रतिष्ठाता के रूप में और वेदांत व्याख्याता दार्शनिक के रूप में भी उनकी चर्चा कम नहीं हुई है। यों तो 'हरि अनंत हरि कथा अनंता, विविध भाँति गावहिं श्रुति संता' के अनुसार कबीर कथित 'हरि कथा' का विविध रूपों में उपयोग होना स्वाभाविक ही है, पर कभी कभी उत्साह-परायण विद्वान् ग़लती से कबीर को इन्हीं रूपों में से किसी एक का प्रतिनिधि समझ कर ऐसी ऐसी बातें करने लगते हैं जो असंगत कही जा सकती हैं।[1]
संतुलित और सम्यक् मूल्यांकन
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पहले विद्वान् हैं, जिन्होंने इस प्रकार के एकांगी दृष्टिकोण से बचाकर कबीर के बहुमुखी व्यक्तित्व और कृतित्व का समग्र रूप में संतुलित और सम्यक् मूल्यांकन किया है। उनका मत है कि कबीरदास में इन सभी रूपों का समंवय था, किंतु उनका वास्तविक रूप भक्त का ही था और अन्य सारे रूपों को उन्होंने भक्ति के साधन के रूप मे स्वीकार किया था।
आलोचना साहित्य में अद्वितीय
आचार्य द्विवेदी की प्रस्तुत कृति आज भी कबीर विषयक आलोचना साहित्य में अद्वितीय मानी जाती है और कबीरदास के कृतित्व और व्यक्तित्व को समग्र रूप में हृदयंगम करने के लिए यह अकेली पुस्तक पर्याप्त है, ऐसा विद्वानों का मत है।
अनुवाद
पुस्तक के अंत में उपयोगी समझ कर 'कबीर वाणी' नाम से कुछ चुने हुए पद्य संग्रह किये गये हैं। उनके शुरू के सौ पद 'आचार्य क्षितिमोहन सेन' के संग्रह के हैं। इन्हीं को कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने अंग्रेज़ी में अनूदित किया था।[2]
हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में
‘कबीर’ लिखते समय नाना साधनाओं की चर्चा प्रसंगवश आ गई है। उनके उसी पहलू का परिचय विशेष रूप से कराया गया है जिसे कबीरदास ने अधिक लक्ष्य किया था। पाठक पुस्तक में यथास्थान पढ़ेंगे कि कबीरदास बहुत-कुछ को अस्वीकार करने का अपार साहस लेकर अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने तत्काल प्रचलित नाना साधन-मार्गों पर उग्र आक्रमण किया है। कबीरदास के इस विशेष दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से हृदयंगम कराने के लिए मैंने उसकी ओर पाठक की सहानुभूति पैदा करने की चेष्टा की है। इसीलिए कहीं-कहीं पुस्तक में ऐसा लग सकता है कि लेखक भी व्यक्तिगत भाव से किसी साधन-मार्ग का विरोधी है, परंतु बात ऐसी नहीं है। जहाँ कहीं भी अवसर मिला है वहीं लेखक ने इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया है, पर फिर भी यदि कहीं भ्रम का अवकाश रह गया हो तो वह इस वक्तव्य से दूर हो जाना चाहिए। कबीरदास ने तत्कालीन नाथपंथी योगियों की साधन-क्रिया पर भी आक्षेप किया है, यथास्थान उसकी चर्चा की गई है। पुस्तक के अधिकांश स्थलों में ‘योगी’ शब्द से इन्हीं नाथपंथी योगियों से तात्पर्य है। समाधि के विरुद्ध जहाँ कहीं कबीरदास ने कहा है वहाँ ‘जड़-समाधि’ अर्थ समझना चाहिए। यथाप्रसंग पुस्तक में इसकी चर्चा आ गई है। वैसे, कबीरदास जिस सहज समाधि की बात कहते हैं वह योगमार्ग से असम्मत नहीं है। यहाँ यह भी कह रखना ज़रूरी है कि पुस्तक में भिन्न-भिन्न साधन-मार्गों के ऐतिहासिक विकास की ओर ही अधिक ध्यान दिया गया है।
पुस्तक के अंत में उपयोगी समझकर ‘कबीर-वाणी’ नाम से कुछ चुने हुए पद्य संग्रह किए गए हैं। उनके शुरू के सौ पद श्री आचार्य क्षितिमोहन सेन के संग्रह के हैं। इन्हीं को कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने अंग्रेजी में अनूदित किया था। आचार्य सेन ने इन पद्यों को लेने की अनुमति देकर हमें अनुग्रहीत किया है।
पुस्तक के इस संस्करण में यथासंभव संशोधन किया गया है। पुस्तक लंबी प्रतीक्षा के उपरांत पाठकों के समक्ष आ रही है। श्रीमती शीला संधू, प्रबंध निदेशिका, राजकमल प्रकाशन, प्रा.लि.दिल्ली को पुस्तक का नया रूप देकर शीघ्र प्रकाशित करने का श्रेय प्राप्त है। अनेक लेखकों और प्रकाशकों के अमूल्य ग्रंथों की सहायता न मिली होती तो पुस्तक लिखी ही न गई होती। जिन लोगों के मत का कहीं-कहीं विरोध करना पड़ा है उनके प्रति मेरी गंभीर श्रद्धा है। वस्तुत: जिनके ऊपर श्रद्धा है उन्हीं के मतों की मैंने प्रतीक्षा की है। इनमें कई मेरे गुरुतुल्य हैं। सब लोगों के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। - हज़ारी प्रसाद द्विवेदी[3]
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख