"सुभाष चंद्र बोस": अवतरणों में अंतर
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|जन्म=[[23 जनवरी]], [[1897]] | |जन्म=[[23 जनवरी]], [[1897]] | ||
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|अन्य जानकारी=नेताजी सुभाष चंद्र बोस [[भारतीय स्वाधीनता संग्राम]] के उन योद्धाओं में से एक | |अन्य जानकारी=नेताजी सुभाष चंद्र बोस [[भारतीय स्वाधीनता संग्राम]] के उन योद्धाओं में से एक थे, जिनका नाम और जीवन आज भी करोड़ों देशवासियों को मातृभमि के लिए समर्पित होकर कार्य करने की प्रेरणा देता है। | ||
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'''सुभाष चंद्र बोस''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Subhas Chandra Bose'', जन्म- [[23 जनवरी]], [[1897]] ई., [[कटक]], [[उड़ीसा]]; मृत्यु- [[18 अगस्त]], [[1945]] ई., [[जापान]]) के अतिरिक्त [[भारत]] के [[इतिहास]] में ऐसा कोई व्यक्तित्व नहीं हुआ, जो एक साथ | '''सुभाष चंद्र बोस''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Subhas Chandra Bose'', जन्म- [[23 जनवरी]], [[1897]] ई., [[कटक]], [[उड़ीसा]]; मृत्यु- [[18 अगस्त]], [[1945]] ई., [[जापान]]) के अतिरिक्त [[भारत]] के [[इतिहास]] में ऐसा कोई व्यक्तित्व नहीं हुआ, जो एक साथ महान् सेनापति, वीर सैनिक, राजनीति का अद्भुत खिलाड़ी और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरुषों, नेताओं के समकक्ष साधिकार बैठकर कूटनीति तथा चर्चा करने वाला हो। भारत की स्वतंत्रता के लिए सुभाष चंद्र बोस ने क़रीब-क़रीब पूरे [[यूरोप]] में अलख जगाया। बोस प्रकृति से [[साधु]], ईश्वर [[भक्त]] तथा तन एवं मन से देशभक्त थे। [[महात्मा गाँधी]] के [[नमक सत्याग्रह]] को 'नेपोलियन की पेरिस यात्रा' की संज्ञा देने वाले सुभाष चंद्र बोस का एक ऐसा व्यक्तित्व था, जिसका मार्ग कभी भी स्वार्थों ने नहीं रोका। जिसके पाँव लक्ष्य से कभी पीछे नहीं हटे, जिसने जो भी स्वप्न देखे, उन्हें साधा। नेताजी में सच्चाई के सामने खड़े होने की अद्भुत क्षमता थी। | ||
==जीवन परिचय== | ==जीवन परिचय== | ||
सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी, सन 1897 ई. में [[उड़ीसा]] के [[कटक]] नामक स्थान पर हुआ था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पश्चिमी शक्तियों के विरुद्ध '[[आज़ाद हिंद फ़ौज]]' का नेतृत्व करने वाले बोस एक भारतीय क्रांतिकारी थे, जिनको ससम्मान 'नेताजी' भी कहते हैं। बोस के [[पिता]] का नाम 'जानकीनाथ बोस' और माँ का नाम 'प्रभावती' था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वक़ील थे। पहले वे सरकारी वक़ील थे, लेकिन बाद में उन्होंने निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी। [[चित्र:Netaji-Life-Depicted-Within-The-Letters-Jayhind.jpg|thumb|300px|left|जय हिन्द के अक्षरों पर चित्रित नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जीवन]] उन्होंने कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया था और वे [[बंगाल]] [[विधान सभा]] के सदस्य भी रहे थे। [[अंग्रेज़]] सरकार ने उन्हें 'रायबहादुर का ख़िताब' दिया था। प्रभावती देवी के पिता का नाम गंगानारायण दत्त था। दत्त परिवार को [[कोलकाता]] का एक कुलीन परिवार माना जाता था। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष चंद्र बोस उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थे। सुभाष उन्हें 'मेजदा' कहते थे। शरदबाबू की पत्नी का नाम विभावती था। | सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी, सन 1897 ई. में [[उड़ीसा]] के [[कटक]] नामक स्थान पर हुआ था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पश्चिमी शक्तियों के विरुद्ध '[[आज़ाद हिंद फ़ौज]]' का नेतृत्व करने वाले बोस एक भारतीय क्रांतिकारी थे, जिनको ससम्मान 'नेताजी' भी कहते हैं। बोस के [[पिता]] का नाम 'जानकीनाथ बोस' और माँ का नाम 'प्रभावती' था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वक़ील थे। पहले वे सरकारी वक़ील थे, लेकिन बाद में उन्होंने निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी। [[चित्र:Netaji-Life-Depicted-Within-The-Letters-Jayhind.jpg|thumb|300px|left|जय हिन्द के अक्षरों पर चित्रित नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जीवन]] उन्होंने कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया था और वे [[बंगाल]] [[विधान सभा]] के सदस्य भी रहे थे। [[अंग्रेज़]] सरकार ने उन्हें 'रायबहादुर का ख़िताब' दिया था। प्रभावती देवी के पिता का नाम गंगानारायण दत्त था। दत्त परिवार को [[कोलकाता]] का एक [[कुलीन]] [[परिवार]] माना जाता था। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष चंद्र बोस उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थे। सुभाष उन्हें 'मेजदा' कहते थे। शरदबाबू की पत्नी का नाम विभावती था। | ||
====बचपन==== | ====बचपन==== | ||
भारतीयों के साथ अल्पावस्था में अंग्रेज़ों का व्यवहार देखकर सुभाष चंद्र बोस ने अपने भाई से पूछा- "दादा कक्षा में आगे की सीटों पर हमें क्यों बैठने नहीं दिया जाता है?" बोस जो भी करते, आत्मविश्वास से करते थे। अंग्रेज़ अध्यापक बोस जी के अंक देखकर हैरान रह जाते थे। बोस जी के कक्षा में सबसे अधिक अंक लाने पर भी जब छात्रवृत्ति अंग्रेज़ बालक को मिली तो वह उखड़ गए। बोस ने मिशनरी स्कूल को छोड़ दिया। उसी समय [[अरबिंदो घोष|अरविन्द]] ने बोस जी से कहा- "हम में से प्रत्येक भारतीय को डायनमो बनना चाहिए, जिससे कि हममें से यदि एक भी खड़ा हो जाए तो हमारे आस-पास हज़ारों व्यक्ति प्रकाशवान हो जाएँ। अरविन्द के शब्द बोस के [[मस्तिष्क]] में गूँजते थे। सुभाष सोचते- 'हम अनुगमन किसका करें?' भारतीय जब चुपचाप कष्ट सहते तो वे सोचते- 'धन्य हैं ये वीर प्रसूत। ऐसे लोगों से क्या आशा की जा सकती है?'[[चित्र:Subhash-chandra-bose-student.png|thumb|left|सुभाष चंद्र बोस किशोरावस्था में]] | भारतीयों के साथ अल्पावस्था में [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] का व्यवहार देखकर सुभाष चंद्र बोस ने अपने भाई से पूछा- "दादा कक्षा में आगे की सीटों पर हमें क्यों बैठने नहीं दिया जाता है?" बोस जो भी करते, आत्मविश्वास से करते थे। अंग्रेज़ अध्यापक बोस जी के अंक देखकर हैरान रह जाते थे। बोस जी के कक्षा में सबसे अधिक अंक लाने पर भी जब छात्रवृत्ति अंग्रेज़ बालक को मिली तो वह उखड़ गए। बोस ने मिशनरी स्कूल को छोड़ दिया। उसी समय [[अरबिंदो घोष|अरविन्द]] ने बोस जी से कहा- "हम में से प्रत्येक भारतीय को डायनमो बनना चाहिए, जिससे कि हममें से यदि एक भी खड़ा हो जाए तो हमारे आस-पास हज़ारों व्यक्ति प्रकाशवान हो जाएँ। अरविन्द के शब्द बोस के [[मस्तिष्क]] में गूँजते थे। सुभाष सोचते- 'हम अनुगमन किसका करें?' भारतीय जब चुपचाप कष्ट सहते तो वे सोचते- 'धन्य हैं ये वीर प्रसूत। ऐसे लोगों से क्या आशा की जा सकती है?'[[चित्र:Subhash-chandra-bose-student.png|thumb|left|सुभाष चंद्र बोस किशोरावस्था में]] | ||
====शिक्षा==== | ====शिक्षा==== | ||
एक संपन्न व प्रतिष्ठित बंगाली वक़ील के पुत्र सुभाष चंद्र बोस की शिक्षा [[कलकत्ता]] के 'प्रेज़िडेंसी कॉलेज'<ref>जहाँ से सन [[1916]] ई. में राष्ट्रवादी गतिविधियों के लिए उन्हें निष्कासित कर दिया गया था</ref>और 'स्कॉटिश चर्च कॉलेज' से हुई,<ref>जहाँ से सन 1919 में बोस ने स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की</ref> और उसके बाद '[[भारतीय प्रशासनिक सेवा]]' (इण्डियन सिविल सर्विस) की तैयारी के लिए उनके माता-पिता ने बोस को [[इंग्लैंड]] के ' | एक संपन्न व प्रतिष्ठित बंगाली वक़ील के पुत्र सुभाष चंद्र बोस की शिक्षा [[कलकत्ता]] के 'प्रेज़िडेंसी कॉलेज'<ref>जहाँ से सन [[1916]] ई. में राष्ट्रवादी गतिविधियों के लिए उन्हें निष्कासित कर दिया गया था</ref>और 'स्कॉटिश चर्च कॉलेज' से हुई,<ref>जहाँ से सन 1919 में बोस ने स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की</ref> और उसके बाद '[[भारतीय प्रशासनिक सेवा]]' (इण्डियन सिविल सर्विस) की तैयारी के लिए उनके [[माता]]-[[पिता]] ने बोस को [[इंग्लैंड]] के 'कॅम्ब्रिज विश्वविद्यालय' भेज दिया। सन [[1920]] ई. में बोस ने 'इंडियन सिविल सर्विस' की परीक्षा उत्तीर्ण की, लेकिन [[अप्रैल]] सन [[1921]] ई. में [[भारत]] में बढ़ती राजनीतिक सरगर्मी की ख़बर सुनकर बोस ने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली और शीघ्र [[भारत]] लौट आए। अपने पूरे कार्यकाल में, ख़ासकर प्रारंभिक चरण में, बोस को अपने बड़े भाई शरतचंद्र बोस ([[1889]]-[[1950]] ई.) का भरपूर समर्थन मिला, जो [[कलकत्ता]] (वर्तमान कोलकाता) के एक धनाढ्य वक़ील होने के साथ-साथ प्रमुख कांग्रेसी राजनीतिज्ञ भी थे। | ||
[[चित्र:Netaji-Kohima-Nagaland-.jpg|thumb|[[कोहिमा]], [[नागालैंड]] के आक्रमण की विफलता पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और भारतमाता ग़ुलामी की हथकड़ी पहने हुए]] | [[चित्र:Netaji-Kohima-Nagaland-.jpg|thumb|[[कोहिमा]], [[नागालैंड]] के आक्रमण की विफलता पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और भारतमाता ग़ुलामी की हथकड़ी पहने हुए]] | ||
==देश भक्ति की भावना== | ==देश भक्ति की भावना== | ||
बोस जी [[अंग्रेज़ी]] शिक्षा को निषेधात्मक शिक्षा मानते थे। किन्तु बोस जी को उनके पिता ने समझाया- हम भारतीय अंग्रेज़ों से जब तक प्रशासनिक पद नहीं छीनेंगे, तब तक देश का भला कैसे होगा। सुभाष ने [[इंग्लैंड]] में जाकर आई. सी. एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की। वे प्रतियोगिता में उत्तीर्ण ही नहीं हुए, चतुर्थ स्थान पर रहे। नेता जी एक बहुत मेधावी छात्र थे। वे चाहते तो उच्च अधिकारी के पद पर आसीन हो सकते थे। परन्तु उनकी देश भक्ति की भावना ने उन्हें कुछ अलग करने के लिए प्रेरित किया। बोस जी ने नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। सारा देश हैरान रह गया। बोस जी को समझाते हुए कहा गया- तुम जानते भी हो कि तुम लाखों भारतीयों के सरताज़ होगे? तुम्हारे हज़ारों देशवासी तुम्हें नमन करेंगे? सुभाष ने कहा-<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31"> मैं लोगों पर नहीं उनके मनों पर राज्य करना चाहता हूँ। उनका हृदय सम्राट बनना चाहता हूँ।</span></blockquote> | बोस जी [[अंग्रेज़ी]] शिक्षा को निषेधात्मक शिक्षा मानते थे। किन्तु बोस जी को उनके पिता ने समझाया- हम भारतीय अंग्रेज़ों से जब तक प्रशासनिक पद नहीं छीनेंगे, तब तक देश का भला कैसे होगा। सुभाष ने [[इंग्लैंड]] में जाकर आई. सी. एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की। वे प्रतियोगिता में उत्तीर्ण ही नहीं हुए, चतुर्थ स्थान पर रहे। नेता जी एक बहुत मेधावी छात्र थे। वे चाहते तो उच्च अधिकारी के पद पर आसीन हो सकते थे। परन्तु उनकी देश भक्ति की भावना ने उन्हें कुछ अलग करने के लिए प्रेरित किया। बोस जी ने नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। सारा देश हैरान रह गया। बोस जी को समझाते हुए कहा गया- तुम जानते भी हो कि तुम लाखों भारतीयों के सरताज़ होगे? तुम्हारे हज़ारों देशवासी तुम्हें नमन करेंगे? सुभाष ने कहा-<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31"> मैं लोगों पर नहीं उनके मनों पर राज्य करना चाहता हूँ। उनका हृदय सम्राट बनना चाहता हूँ।</span></blockquote> | ||
==कल्याण संदेश== | ==कल्याण संदेश== | ||
एक शहर में हैजे का प्रकोप हो गया था। यह रोग इस हद तक अपने पैर पसार चुका था कि दवाएँ और चिकित्सक कम पड़ गए। चारों ओर मृत्यु का तांडव हो रहा था। शहर के कुछ कर्मठ एवं सेवाभावी युवकों ने ऐसी विकट स्थिति में एक दल का गठन किया। यह दल शहर की निर्धन बस्तियों में जाकर रोगियों की सेवा करने लगा। ये लोग एक बार उस हैजाग्रस्त बस्ती में गए, जहाँ का एक कुख्यात बदमाश हैदर ख़ाँ उनका घोर विरोधी था। हैदर ख़ाँ का [[परिवार]] भी हैजे के प्रकोप से नहीं बच सका। सेवाभावी पुरुषों की टोली उसके टूटे-फूटे मकान में भी पहुँची और बीमार लोगों की सेवा में लग गई। उन युवकों ने हैदर ख़ाँ के | एक शहर में हैजे का प्रकोप हो गया था। यह रोग इस हद तक अपने पैर पसार चुका था कि दवाएँ और चिकित्सक कम पड़ गए। चारों ओर मृत्यु का तांडव हो रहा था। शहर के कुछ कर्मठ एवं सेवाभावी युवकों ने ऐसी विकट स्थिति में एक दल का गठन किया। यह दल शहर की निर्धन बस्तियों में जाकर रोगियों की सेवा करने लगा। ये लोग एक बार उस हैजाग्रस्त बस्ती में गए, जहाँ का एक कुख्यात बदमाश हैदर ख़ाँ उनका घोर विरोधी था। हैदर ख़ाँ का [[परिवार]] भी हैजे के प्रकोप से नहीं बच सका। सेवाभावी पुरुषों की टोली उसके टूटे-फूटे मकान में भी पहुँची और बीमार लोगों की सेवा में लग गई। उन युवकों ने अस्वस्थ हैदर ख़ाँ के मकान की सफाई की, रोगियों को दवा दी और उनकी हर प्रकार से सेवा की। हैदर ख़ाँ के सभी परिजन धीरे-धीरे भले-चंगे हो गए। | ||
[[चित्र:Bose-Gandhi-1938.jpg|thumb|left|[[गाँधी जी]] के साथ नेताजी]] | [[चित्र:Bose-Gandhi-1938.jpg|thumb|left|[[गाँधी जी]] के साथ नेताजी]] | ||
हैदर ख़ाँ को अपनी ग़लती का एहसास हुआ। उन युवकों से हाथ जोड़कर क्षमा माँगते हुए हैदर ख़ाँ ने कहा मैं बहुत बड़ा पापी हूँ। मैंने आप लोगों का बहुत विरोध किया, किंतु आपने मेरे परिवार को जीवनदान दिया। सेवादल के मुखिया ने उसे अत्यंत स्नेह से समझाया आप इतना क्यों दुखी हो रहे हैं? आपका घर गंदा था, इस कारण रोग घर में आ गया और आपको इतनी परेशानी उठानी पड़ी। हमने तो बस घर की गंदगी ही साफ़ की है। तब हैदर ख़ाँ बोला केवल घर ही नहीं अपितु मेरा मन भी गंदा था आपकी सेवा ने दोनों का | हैदर ख़ाँ को अपनी ग़लती का एहसास हुआ। उन युवकों से हाथ जोड़कर क्षमा माँगते हुए हैदर ख़ाँ ने कहा मैं बहुत बड़ा पापी हूँ। मैंने आप लोगों का बहुत विरोध किया, किंतु आपने मेरे [[परिवार]] को जीवनदान दिया। सेवादल के मुखिया ने उसे अत्यंत स्नेह से समझाया आप इतना क्यों दुखी हो रहे हैं? आपका घर गंदा था, इस कारण रोग घर में आ गया और आपको इतनी परेशानी उठानी पड़ी। हमने तो बस घर की गंदगी ही साफ़ की है। तब हैदर ख़ाँ बोला- 'केवल घर ही नहीं अपितु मेरा मन भी गंदा था, आपकी सेवा ने दोनों का मैल साफ़ कर दिया है।' सुभाषचंद्र बोस इस सेवादल के ऊर्जावान नेता थे। जिन्होंने सेवा की नई इबारत लिखकर समाज को यह महान् संदेश दिया कि मानव जीवन तभी सार्थक होता है, जब वह दूसरों के कल्याण हेतु काम आए। वही मनुष्य सही मायनों में कसौटी पर खरा उतरता है। | ||
==देश सेवा== | ==देश सेवा== | ||
{{दाँयाबक्सा|पाठ=बोस जी ने मिशनरी स्कूल को छोड़ दिया। उसी समय [[अरबिंदो घोष]] ने बोस जी से कहा- हम में से प्रत्येक भारतीय को डायनमो बनना चाहिए जिससे कि हममें से यदि एक भी खड़ा हो जाए तो हमारे आस-पास हज़ारों व्यक्ति प्रकाशवान हो जाएँ। अरविन्द के शब्द बोस के [[मस्तिष्क]] में गूँजते थे। सुभाष सोचते- हम अनुगमन किसका करें? भारतीय जब चुपचाप कष्ट सहते तो वे सोचते- धन्य हैं ये वीर प्रसूत। ऐसे लोगों से क्या आशा की जा सकती है?|विचारक=}} | {{दाँयाबक्सा|पाठ=बोस जी ने मिशनरी स्कूल को छोड़ दिया। उसी समय [[अरबिंदो घोष]] ने बोस जी से कहा- हम में से प्रत्येक भारतीय को डायनमो बनना चाहिए जिससे कि हममें से यदि एक भी खड़ा हो जाए तो हमारे आस-पास हज़ारों व्यक्ति प्रकाशवान हो जाएँ। अरविन्द के शब्द बोस के [[मस्तिष्क]] में गूँजते थे। सुभाष सोचते- हम अनुगमन किसका करें? भारतीय जब चुपचाप कष्ट सहते तो वे सोचते- धन्य हैं ये वीर प्रसूत। ऐसे लोगों से क्या आशा की जा सकती है?|विचारक=}} | ||
बोस जी नौकरी छोड़ कर [[भारत]] आ गए। तब 23 वर्ष का नवयुवक विदेश से स्वदेशी बनकर लौटा। पूरा देश इस समय किसी नेतृत्व की प्रतीक्षा कर रहा था। पूरे देश को सुभाष अपने साथ ले चल पड़े। वे [[गाँधी जी]] से मिले। उनके विचार जाने, पर उनको यह बात समझ नहीं आई कि आन्दोलनकारी हँसते-हँसते लाठियाँ खा लेंगे। कब तक? वे [[चितरंजन दास]] जी के पास गए। उन्होंने | बोस जी नौकरी छोड़ कर [[भारत]] आ गए। तब 23 वर्ष का नवयुवक विदेश से स्वदेशी बनकर लौटा। पूरा देश इस समय किसी नेतृत्व की प्रतीक्षा कर रहा था। पूरे देश को सुभाष अपने साथ ले चल पड़े। वे [[गाँधी जी]] से मिले। उनके विचार जाने, पर उनको यह बात समझ नहीं आई कि आन्दोलनकारी हँसते-हँसते लाठियाँ खा लेंगे। कब तक? वे [[चितरंजन दास]] जी के पास गए। उन्होंने सुभाष को देश को समझने और जानने को कहा। सुभाष देश भर में घूमें और निष्कर्ष निकाला-<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">हमारी सामाजिक स्थिति बदतर है, जाति-पाँति तो है ही, ग़रीब और अमीर की खाई भी समाज को बाँटे हुए है। निरक्षरता देश के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। इसके लिए संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता है। -'''सुभाष चंद्र बोस'''</span></blockquote> | ||
[[कांग्रेस]] के अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस ने कहा-<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">मैं अंग्रेज़ों को देश से निकालना चाहता हूँ। मैं अहिंसा में विश्वास रखता हूँ किन्तु इस रास्ते पर चलकर स्वतंत्रता काफ़ी देर से मिलने की आशा है।</span></blockquote> क्रान्तिकारियों को बोस ने सशक्त बनने को कहा। वे चाहते थे कि अंग्रेज़ भयभीत होकर भाग खड़े हों। वे देश सेवा के काम पर लग गए। दिन देखा ना रात। उनकी सफलता देख [[चित्तरंजन दास|देशबन्धु]] ने कहा था-<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">मैं एक बात समझ गया हूँ कि तुम देश के लिए रत्न सिद्ध होगे।</span></blockquote> | [[कांग्रेस]] के अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस ने कहा-<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">मैं अंग्रेज़ों को देश से निकालना चाहता हूँ। मैं अहिंसा में विश्वास रखता हूँ किन्तु इस रास्ते पर चलकर स्वतंत्रता काफ़ी देर से मिलने की आशा है।</span></blockquote> क्रान्तिकारियों को बोस ने सशक्त बनने को कहा। वे चाहते थे कि अंग्रेज़ भयभीत होकर भाग खड़े हों। वे देश सेवा के काम पर लग गए। दिन देखा ना रात। उनकी सफलता देख [[चित्तरंजन दास|देशबन्धु]] ने कहा था-<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">मैं एक बात समझ गया हूँ कि तुम देश के लिए रत्न सिद्ध होगे।</span></blockquote> | ||
अंग्रेज़ों का दमन चक्र बढ़ता गया। बंगाल का शेर दहाड़ उठा- दमन चक्र की गति जैसे-जैसे बढ़ेगी, उसी अनुपात में हमारा आन्दोलन बढ़ेगा। यह तो एक मुक़ाबला है जिसमें जीत जनता की ही होगी। अंग्रेज़ जान गए कि जब तक सुभाष, दीनबन्धु, [[अबुलकलाम आज़ाद|मौलाना]] और [[चंद्रशेखर आज़ाद|आज़ाद]] गिरफ़्तार नहीं होते, स्थिति में सुधार नहीं हो सकता। अंग्रेज़ों ने कहा- '''सबसे अधिक खतरनाक व्यक्तित्व सुभाष का है। इसने पूरे बंगाल को जीवित कर दिया है।''' | अंग्रेज़ों का दमन चक्र बढ़ता गया। बंगाल का शेर दहाड़ उठा- दमन चक्र की गति जैसे-जैसे बढ़ेगी, उसी अनुपात में हमारा आन्दोलन बढ़ेगा। यह तो एक मुक़ाबला है जिसमें जीत जनता की ही होगी। अंग्रेज़ जान गए कि जब तक सुभाष, दीनबन्धु, [[अबुलकलाम आज़ाद|मौलाना]] और [[चंद्रशेखर आज़ाद|आज़ाद]] गिरफ़्तार नहीं होते, स्थिति में सुधार नहीं हो सकता। अंग्रेज़ों ने कहा- '''सबसे अधिक खतरनाक व्यक्तित्व सुभाष का है। इसने पूरे बंगाल को जीवित कर दिया है।''' | ||
====सिद्धांत==== | ====सिद्धांत==== | ||
सुभाष चंद्र बोस एक महान् नेता थे। नेता अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करते, पर उनमें विरोधियों को साथ लेकर चलने का महान् गुण होता है। सो, नेता जी में यह गुण कूट-कूट कर भरा था। दरअसल, [[भारतीय स्वतंत्रता संग्राम]] में अलग-अलग विचारों के दल थे। ज़ाहिर तौर पर [[महात्मा गाँधी]] को उदार विचारों वाले दल का प्रतिनिधि माना जाता था। वहीं नेताजी अपने जोशीले स्वभाव के कारण क्रांतिकारी विचारों वाले दल में थे। | |||
[[चित्र:Durga-Given-Sword-To-Netaji.jpg|thumb|250px|left|नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को तलवार देती [[दुर्गा|दुर्गामाता]]]] | [[चित्र:Durga-Given-Sword-To-Netaji.jpg|thumb|250px|left|नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को तलवार देती [[दुर्गा|दुर्गामाता]]]] | ||
यही कारण था कि महात्मा गाँधी और सुभाष चंद्र बोस के विचार भिन्न-भिन्न थे। लेकिन वे यह अच्छी तरह जानते थे कि महात्मा गाँधी और उनका मक़सद एक है, यानी देश की आज़ादी। वे यह भी जानते थे कि महात्मा गाँधी ही देश के राष्ट्रपिता कहलाने के सचमुच हक़दार हैं।<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">सबसे पहले गाँधी को राष्ट्रपिता कहने वाले नेताजी ही थे।</span></blockquote> | यही कारण था कि महात्मा गाँधी और सुभाष चंद्र बोस के विचार भिन्न-भिन्न थे। लेकिन वे यह अच्छी तरह जानते थे कि महात्मा गाँधी और उनका मक़सद एक है, यानी देश की आज़ादी। वे यह भी जानते थे कि महात्मा गाँधी ही देश के 'राष्ट्रपिता' कहलाने के सचमुच हक़दार हैं।<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">सबसे पहले गाँधी को राष्ट्रपिता कहने वाले नेताजी ही थे।</span></blockquote> | ||
==कांग्रेस के स्वयं सेवक== | ==कांग्रेस के स्वयं सेवक== | ||
गाँधी जी द्वारा [[असहयोग आंदोलन]] बीच में ही रोक देने के कारण सुभाष उनसे दुःखी हुए। कालान्तर में वे [[चित्तरंजन दास|देशबन्धु चितरंजन दास]] के क़रीब आये तथा उनके विश्वासपात्र एवं अनन्य सहयोगी बनने का गौरव प्राप्त किया। वहीं पर | [[गाँधी जी]] द्वारा [[असहयोग आंदोलन]] बीच में ही रोक देने के कारण सुभाष उनसे दुःखी हुए। कालान्तर में वे [[चित्तरंजन दास|देशबन्धु चितरंजन दास]] के क़रीब आये तथा उनके विश्वासपात्र एवं अनन्य सहयोगी बनने का गौरव प्राप्त किया। वहीं पर सुभाष चंद्र बोस एक युवा प्रशिक्षक, पत्रकार व बंगाल कांग्रेस के स्वयंसेवक बने। [[1923]] ई. में चितरंजन दास द्वारा गठित [[स्वराज्य पार्टी]] का सुभाष चन्द्र बोस ने समर्थन किया। [[1923]] ई. में जब चितरंजन दास ने 'कलकत्ता नगर निगम' के मेयर का कार्यभार संभाला तो उन्होंने सुभाष को निगम के 'मुख्य कार्यपालिका अधिकारी' पद पर नियुक्त किया। [[25 अक्टूबर]], [[1924]] ई. को उन्हें गिरफ़्तार कर [[बर्मा]] (वर्तमान [[म्यांमार]]) की 'माण्डले' जेल में बंद कर दिया गया। सन् [[1927]] ई. में रिहा होने पर बोस [[कलकत्ता]] लौट आए, जहाँ चितरंजन दास की मृत्यु के बाद उन्हें अस्त-व्यस्त [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस|कांग्रेस]] मिली। उन्होंने कांग्रेस के उदारवादी दल की आलोचना की। [[1928]] ई. में प्रस्तुत '[[नेहरू रिपोर्ट]]' के विरोध में उन्होंने एक अलग पार्टी 'इण्डिपेन्डेन्ट लीग' की स्थापना की। [[1928]] ई. में [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] के 'कलकत्ता अधिवेशन' में उन्होंने 'विषय समिति' में 'नेहरू रिपोर्ट' द्वारा अनुमोदित प्रादेशिक स्वायत्ता के प्रस्ताव का डटकर विरोध किया। [[1931]] ई. में हुए '[[गाँधी इरविन समझौता|गाँधी-इरविन समझौते]]' का भी सुभाष ने विरोध किया। सुभाष उग्र विचारों के समर्थक थे। उन्हें 'ऑल इण्डियन यूनियन कांग्रेस' एवं 'यूथ कांग्रेस' का भी अध्यक्ष बनाया गया था।<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">गाँधीजी ने भी उनकी देश की आज़ादी के प्रति लड़ने की भावना देखकर ही उन्हें '''देशभक्तों का देशभक्त''' कहा था।</span></blockquote> | ||
====कांग्रेस के अध्यक्ष==== | ====कांग्रेस के अध्यक्ष==== | ||
[[चित्र:Greater-East-Asia-Conference.JPG|thumb|ईस्ट | [[चित्र:Greater-East-Asia-Conference.JPG|thumb|ईस्ट एशिया कॉन्फ्रेस, 1943 में सुभाष चंद्र बोस (दाएँ से पहले)]] | ||
गाँधी जी कांग्रेस में फिर से सक्रिय हो गए और बोस बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए। सन् [[1930]] ई. में जब [[सविनय अवज्ञा आन्दोलन]] शुरू हुआ, बोस कारावास में थे। रिहा और फिर से गिरफ़्तार होने व अंतत: एक वर्ष की नज़रबंदी के बाद उन्हें [[यूरोप]] जाने की आज्ञा दे दी गई। निर्वासन काल में, उन्होंने द इंडियन स्ट्रगल <ref>इंडियन स्ट्रगल सन् 1920-34 नामक पुस्तक लिखी</ref> और यूरोपीय नेताओं से भारत पक्ष की पैरवी की। सन् 1936 ई. में यूरोप से लौटने पर उन्हें फिर एक वर्ष के लिए गिरफ़्तार कर लिया गया। सन् 1938 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद उन्होंने राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन किया, जिसने औद्योगिक नीति को सूत्रबद्ध किया। | गाँधी जी कांग्रेस में फिर से सक्रिय हो गए और बोस बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए। सन् [[1930]] ई. में जब [[सविनय अवज्ञा आन्दोलन]] शुरू हुआ, बोस कारावास में थे। रिहा और फिर से गिरफ़्तार होने व अंतत: एक वर्ष की नज़रबंदी के बाद उन्हें [[यूरोप]] जाने की आज्ञा दे दी गई। निर्वासन काल में, उन्होंने 'द इंडियन स्ट्रगल'<ref>इंडियन स्ट्रगल सन् 1920-34 नामक पुस्तक लिखी</ref> और यूरोपीय नेताओं से [[भारत]] पक्ष की पैरवी की। सन् [[1936]] ई. में [[यूरोप]] से लौटने पर उन्हें फिर एक वर्ष के लिए गिरफ़्तार कर लिया गया। सन् [[1938]] ई. में 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' का अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद उन्होंने 'राष्ट्रीय योजना आयोग' का गठन किया, जिसने औद्योगिक नीति को सूत्रबद्ध किया। | ||
====अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा==== | ====अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा==== | ||
यह नीति गाँधीवादी आर्थिक विचारों के अनुकूल नहीं थी, जो प्रतीक रूप में चरख़े में निष्ठा रखती थी। सन् [[1939]] ई. में बोस के | यह नीति गाँधीवादी आर्थिक विचारों के अनुकूल नहीं थी, जो प्रतीक रूप में [[चरख़ा|चरख़े]] में निष्ठा रखती थी। सन् [[1939]] ई. में बोस के प्रति समर्थन की अभिव्यक्ति एक गाँधीवादी प्रतिद्वंद्वी को दुबारा हुए चुनाव में हरा देने के रूप में प्रकट हुई। लेकिन गाँधी जी के विरोध के चलते इस ‘विद्रोही अध्यक्ष’ ने इस्तीफ़ा देने की आवश्यकता महसूस की। | ||
====फ़ारवर्ड ब्लॉक की स्थापना==== | ====फ़ारवर्ड ब्लॉक की स्थापना==== | ||
{{Main|फ़ारवर्ड ब्लॉक}} | {{Main|फ़ारवर्ड ब्लॉक}} | ||
सुभाष चंद्र बोस ने गरमपंथी तत्वों को साथ जुटाने की उम्मीद में '[[फ़ारवर्ड ब्लॉक]]' की स्थापना की, लेकिन सन् [[1940]] ई. में वह पुन: बंदी बना लिए गए। [[भारतीय इतिहास]] की इस नाज़ुक घड़ी में बंदी बने रहने से उनका | सुभाष चंद्र बोस ने गरमपंथी तत्वों को साथ जुटाने की उम्मीद में '[[फ़ारवर्ड ब्लॉक]]' की स्थापना की, लेकिन सन् [[1940]] ई. में वह पुन: बंदी बना लिए गए। [[भारतीय इतिहास]] की इस नाज़ुक घड़ी में बंदी बने रहने से उनका इन्कार आमरण अनशन के निर्णय के रूप में अभिव्यक्त हुआ, जिससे घबराकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। कड़ी निगरानी के बावज़ूद वह [[26 जनवरी]] सन् [[1941]] ई. को अपने कलकत्ता के आवास से वेश बदलकर निकल भागे और [[काबुल]] व मॉस्को के रास्ते अंतत: [[अप्रैल]] में [[जर्मनी]] पहुँच गए। | ||
==भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृव्य== | ==भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृव्य== | ||
{{main|भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन}} | {{main|भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन}} | ||
जर्मनी में नेताजी | जर्मनी में नेताजी एडम वॉन ट्रौट जू सोल्ज़ द्वारा नवगठित 'स्पेशल ब्यूरो फ़ॉर इंडिया' के संरक्षण में आ गए। जनवरी सन् [[1942]] ई. में उन्होंने और अन्य भारतीयों ने जर्मन प्रायोजित 'आज़ाद हिंद रेडियो' से [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]], [[हिन्दी भाषा|हिन्दी]], [[बांग्ला भाषा|बांग्ला]], [[तमिल भाषा|तमिल ]], [[तेलुगु भाषा|तेलुगु]], [[गुजराती भाषा|गुजराती]] और पश्तो में नियमित प्रसारण करना शुरू कर दिया। दक्षिणी-पूर्वी [[एशिया]] में जापानी हमले के एक वर्ष के कुछ ही समय बाद बोस ने जर्मनी छोड़ दी। वह जर्मन और जापानी पनडुब्बियों व हवाई जहाज़ से सफ़र करते हुए, सन् 1943 में टोक्यो पहुँचे। [[4 जुलाई]] को उन्होंने पूर्वी एशिया में चलने वाले [[भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन]] का नेतृव्य संभाला। | ||
==कारावास== | ==कारावास== | ||
[[चित्र:Netaji-And-Laxmi-.jpg|thumb|250px|चलो दिल्ली का नारा लगाते हुए नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और | [[चित्र:Netaji-And-Laxmi-.jpg|thumb|250px|चलो दिल्ली का नारा लगाते हुए नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और [[लक्ष्मी सहगल|कैप्टन लक्ष्मी सहगल]]]] | ||
सुभाष चंद्र बोस गिरफ़्तार कर लिए गए। मातृभूमि के प्रति, उसकी | सुभाष चंद्र बोस गिरफ़्तार कर लिए गए। मातृभूमि के प्रति, उसकी पुण्य वेदी पर इनका पहला पुण्य दान था। बोस ने जेल में चितरंजन दास जी से काफ़ी अनुभव प्राप्त किया। उन्हें [[मुसलमान|मुसलमानों]] से भी पूर्ण समर्थन मिला। वे कहते थे- 'मुसलमान इस देश से कोई अलग नहीं हैं। हम सब एक ही धारा में बह रहे हैं। आवश्यकता है सभी भेदभाव को समाप्त कर एक होकर अपने अधिकारों के लिए जूझने की।' 6 [[महीने|महीनों]] में ज्ञान की गंगा कितनी बही, किसी ने न देखा किन्तु जब वह जेल से बाहर आए तो तप पूत बन चुके थे। इसी समय बंगाल बाढ़ ग्रस्त हो गया। सुभाष ने निष्ठावान युवकों को संगठित किया और बचाव कार्य आरम्भ कर दिया। लोग उन्हें देखकर सारे दुःख भूल जाते थे। <br /> | ||
वे बाढ़ पीड़ितों के त्राता बन गए। सुभाष चितरंजन जी की प्रेरणा से 2 पत्र चलाने लगे। साधारण से साधारण मुद्दों से लेकर सचिवालय की गुप्त खबरों का प्रकाशन बड़ी ख़ूबी से किया। कोई भारतीय इतना दबंग हो सकता है- अंग्रेज़ हैरान थे। कुछ समय बाद उन्हें माँडले जेल ले जाया गया। सुभाष ने कहा- <br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">मैं इसे आज़ादी चाहने वालों का तीर्थ स्थल मानता हूँ। मेरा सौभाग्य है कि जिस स्थान को [[बाल गंगाधर तिलक|तिलक]], [[लाला लाजपत राय]], आदि क्रान्तिकारियों ने पवित्र किया, वहाँ मैं अपना शीश झुकाने आया हूँ।</span></blockquote> | वे बाढ़ पीड़ितों के त्राता बन गए। सुभाष चितरंजन जी की प्रेरणा से 2 पत्र चलाने लगे। साधारण से साधारण मुद्दों से लेकर सचिवालय की गुप्त खबरों का प्रकाशन बड़ी ख़ूबी से किया। कोई भारतीय इतना दबंग हो सकता है- [[अंग्रेज़]] हैरान थे। कुछ समय बाद उन्हें माँडले जेल ले जाया गया। सुभाष ने कहा- <br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">मैं इसे आज़ादी चाहने वालों का तीर्थ स्थल मानता हूँ। मेरा सौभाग्य है कि जिस स्थान को [[बाल गंगाधर तिलक|तिलक]], [[लाला लाजपत राय]], आदि क्रान्तिकारियों ने पवित्र किया, वहाँ मैं अपना शीश झुकाने आया हूँ।</span></blockquote> | ||
नेताजी ने सारा समय स्वाध्याय में लगाया। वहाँ | नेताजी ने सारा समय स्वाध्याय में लगाया। वहाँ [[वर्षा]], धूप, [[सर्दी]] का कोई बचाव ना था और जलवायु शिथिलता पैदा करती थी, जोड़ों के अकड़ जाने की बीमारी होती थी तथा बोर्ड लकड़ी के बने थे। अंग्रेज़ बार-बार उनको जेल भेजते रहे और रिहा करते रहे। उन्होंने एक सभा में कहा- 'यदि भारत [[ब्रिटेन]] के विरुद्ध लड़ाई में भाग ले तो उसे स्वतंत्रता मिल सकती है।' उन्होंने गुप्त रूप से इसकी तैयारी शुरू कर दी। [[25 जून]] को सिंगापुर रेडियो से उन्होंने सूचना दी कि [[आज़ाद हिन्द फ़ौज]] का निर्माण हो चुका है। अंग्रेज़ों ने उनको बन्दी बनाना चाहा, पर वे चकमा देकर भाग गए। | ||
[[चित्र:Subhash-Chandra-Bose.jpg|thumb|सुभाष चंद्र बोस की भारतीय [[डाक टिकट]]]] | |||
[[2 जुलाई]] को [[सिंगापुर]] के विशाल मैदान में भारतीयों का आह्वान किया। उन्होंने अपनी फ़ौज में महिलाओं को भी भर्ती किया। उनको बन्दूक चलाना और बम गिराना सिखाया। [[21 अक्टूबर]] को उन्होंने प्रतिज्ञा की-<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">मैं अपने देश भारत और भारतवासियों को स्वतंत्र कराने की प्रतिज्ञा करता हूँ।</span></blockquote> | |||
लोगों ने तन, मन और धन से इनका सहयोग किया। उन्होंने एक विशाल सभा में घोषणा की- '''तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।''' कतार लग गई। सबसे पहले महिलाएँ आईं। आर्थिक सहायता के लिए उन्होंने अपने सुहाग के [[आभूषण]] भी इनकी झोली में डाल दिए। | |||
==आज़ाद हिंद फ़ौज का गठन== | ==आज़ाद हिंद फ़ौज का गठन== | ||
{{Main|आज़ाद हिन्द फ़ौज}} | {{Main|आज़ाद हिन्द फ़ौज}} | ||
सुभाष चंद्र बोस ने पाँच वर्ष की आयु में [[अंग्रेज़ी]] का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया था। युवावस्था इन्हें राष्ट्रसेवा में खींच लाई। [[गाँधी जी]] से मतभेद होने के कारण वे कांग्रेस से अलग हो गए और ब्रिटिश जेल से भागकर [[जापान]] पहुँच गए। बोस ने जापानियों के प्रभाव और सहायता से दक्षिण-पूर्वी एशिया से जापान द्वारा एकत्रित क़रीब 40,000 भारतीय स्त्री-पुरुषों की प्रशिक्षित सेना का गठन शुरू कर दिया। | सुभाष चंद्र बोस ने पाँच वर्ष की आयु में [[अंग्रेज़ी]] का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया था। युवावस्था इन्हें राष्ट्रसेवा में खींच लाई। [[गाँधी जी]] से मतभेद होने के कारण वे कांग्रेस से अलग हो गए और ब्रिटिश जेल से भागकर [[जापान]] पहुँच गए। बोस ने जापानियों के प्रभाव और सहायता से दक्षिण-पूर्वी एशिया से जापान द्वारा एकत्रित क़रीब 40,000 भारतीय स्त्री-पुरुषों की प्रशिक्षित सेना का गठन शुरू कर दिया। | ||
[[चित्र:Azad-Hind-Fauj-Groupphoto.jpg|thumb|250px|left|सुभाष चन्द्र बोस और [[आज़ाद हिन्द फ़ौज]] के सदस्य]] | [[चित्र:Azad-Hind-Fauj-Groupphoto.jpg|thumb|250px|left|सुभाष चन्द्र बोस और [[आज़ाद हिन्द फ़ौज]] के सदस्य]] | ||
'नेताजी' के नाम से विख्यात सुभाष चन्द्र ने सशक्त क्रान्ति द्वारा भारत को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से [[21 अक्टूबर]], [[1943]] को 'आज़ाद हिन्द सरकार' की स्थापना की तथा '[[आज़ाद हिन्द फ़ौज]]' का गठन किया। इस संगठन के प्रतीक चिह्न पर एक झंडे पर दहाड़ते हुए [[बाघ]] का चित्र बना होता था।<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">क़दम-क़दम बढाए जा, खुशी के गीत गाए जा-इस संगठन का वह गीत था, जिसे गुनगुना कर संगठन के सेनानी जोश और उत्साह से भर उठते थे।</span></blockquote>और जापानी सैनिकों के साथ उनकी तथाकथित आज़ाद हिंद फ़ौज [[रंगून]] (अब [[यांगून]]) से होती हुई थल मार्ग से भारत की ओर बढ़ती, [[18 मार्च]] सन् [[1944]] ई. की [[कोहिमा]] और [[इम्फाल|इम्फ़ाल]] के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई। जापानी वायुसेना से सहायता न मिलने के कारण एक भीषण लड़ाई में भारतीयों और जापानियों की मिली-जुली सेना हार गई और उसे पीछे हटना पड़ा। लेकिन आज़ाद हिंद फ़ौज कुछ अर्से तक बर्मा (वर्तमान [[म्यांमार]]) और बाद में हिंद-चीन में अड्डों वाली मुक्तिवाहिनी सेना के रूप में अपनी पहचान बनाए रखने में सफल रही। इसी सेना ने [[1943]] से [[1945]] तक शक्तिशाली अंग्रेज़ों से युद्ध किया था तथा उन्हें भारत को स्वतंत्रता प्रदान कर देने के विषय में सोचने के लिए मजबूर किया था। सन् 1943 से 1945 तक 'आज़ाद हिन्द सेना' अंग्रेज़ों से युद्ध करती रही। अन्ततः [[ब्रिटिश शासन]] को उन्होंने महसूस करा दिया कि भारत को स्वतंत्रता देनी ही पड़ेगी। | 'नेताजी' के नाम से विख्यात सुभाष चन्द्र ने सशक्त क्रान्ति द्वारा [[भारत]] को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से [[21 अक्टूबर]], [[1943]] को 'आज़ाद हिन्द सरकार' की स्थापना की तथा '[[आज़ाद हिन्द फ़ौज]]' का गठन किया। इस संगठन के प्रतीक चिह्न पर एक झंडे पर दहाड़ते हुए [[बाघ]] का चित्र बना होता था।<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">क़दम-क़दम बढाए जा, खुशी के गीत गाए जा-इस संगठन का वह गीत था, जिसे गुनगुना कर संगठन के सेनानी जोश और उत्साह से भर उठते थे।</span></blockquote>और जापानी सैनिकों के साथ उनकी तथाकथित आज़ाद हिंद फ़ौज [[रंगून]] (अब [[यांगून]]) से होती हुई थल मार्ग से भारत की ओर बढ़ती, [[18 मार्च]] सन् [[1944]] ई. की [[कोहिमा]] और [[इम्फाल|इम्फ़ाल]] के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई। जापानी वायुसेना से सहायता न मिलने के कारण एक भीषण लड़ाई में भारतीयों और जापानियों की मिली-जुली सेना हार गई और उसे पीछे हटना पड़ा। लेकिन आज़ाद हिंद फ़ौज कुछ अर्से तक बर्मा (वर्तमान [[म्यांमार]]) और बाद में हिंद-चीन में अड्डों वाली मुक्तिवाहिनी सेना के रूप में अपनी पहचान बनाए रखने में सफल रही। इसी सेना ने [[1943]] से [[1945]] तक शक्तिशाली अंग्रेज़ों से युद्ध किया था तथा उन्हें भारत को स्वतंत्रता प्रदान कर देने के विषय में सोचने के लिए मजबूर किया था। सन् [[1943]] से [[1945]] तक 'आज़ाद हिन्द सेना' अंग्रेज़ों से युद्ध करती रही। अन्ततः [[ब्रिटिश शासन]] को उन्होंने महसूस करा दिया कि भारत को स्वतंत्रता देनी ही पड़ेगी। | ||
{{दाँयाबक्सा|पाठ=नेताजी सुभाष चंद्र बोस सर्व कालिक नेता थे जिनकी ज़रूरत कल थी, आज है और आने वाले कल में भी होगी। वह ऐसे वीर सैनिक थे इतिहास जिनकी गाथा गाता रहेगा। उनके विचार, कर्म और आदर्श अपना कर राष्ट्र वह सब कुछ हासिल कर सकता है जिसका हक़दार है। स्वतंत्रता समर के अमर सेनानी, | {{दाँयाबक्सा|पाठ=नेताजी सुभाष चंद्र बोस सर्व कालिक नेता थे जिनकी ज़रूरत कल थी, आज है और आने वाले कल में भी होगी। वह ऐसे वीर सैनिक थे इतिहास जिनकी गाथा गाता रहेगा। उनके विचार, कर्म और आदर्श अपना कर राष्ट्र वह सब कुछ हासिल कर सकता है जिसका हक़दार है। स्वतंत्रता समर के अमर सेनानी, माँ भारती के सच्चे सपूत थे।|विचारक=}} | ||
==ऐतिहासिक भाषण== | ==ऐतिहासिक भाषण== | ||
[[रंगून]] के 'जुबली हॉल' में सुभाष चंद्र बोस द्वारा दिया गया वह भाषण सदैव के लिए [[इतिहास]] के पत्रों में अंकित हो गया, जिसमें उन्होंने कहा था कि- "स्वतंत्रता बलिदान चाहती है। आपने आज़ादी के लिए बहुत त्याग किया है, किन्तु अभी प्राणों की आहुति देना शेष है। आज़ादी को आज अपने शीश फूल चढ़ा देने वाले पागल पुजारियों की आवश्यकता है। ऐसे नौजवानों की आवश्यकता है, जो अपना सिर काट कर स्वाधीनता देवी को भेट चढ़ा सकें। '''तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।''' इस वाक्य के जवाब में नौजवानों ने कहा- "हम अपना ख़ून देंगे।" उन्होंने आईएनए को 'दिल्ली चलो' का नारा भी दिया। | [[रंगून]] के 'जुबली हॉल' में सुभाष चंद्र बोस द्वारा दिया गया वह भाषण सदैव के लिए [[इतिहास]] के पत्रों में अंकित हो गया, जिसमें उन्होंने कहा था कि- "स्वतंत्रता बलिदान चाहती है। आपने आज़ादी के लिए बहुत त्याग किया है, किन्तु अभी प्राणों की आहुति देना शेष है। आज़ादी को आज अपने शीश फूल चढ़ा देने वाले पागल पुजारियों की आवश्यकता है। ऐसे नौजवानों की आवश्यकता है, जो अपना सिर काट कर स्वाधीनता देवी को भेट चढ़ा सकें। '''तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।''' इस वाक्य के जवाब में नौजवानों ने कहा- "हम अपना ख़ून देंगे।" उन्होंने आईएनए को 'दिल्ली चलो' का नारा भी दिया। | ||
सुभाष भारतीयता की पहचान ही बन गए थे और भारतीय युवक आज भी उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं। वे भारत की अमूल्य निधि थे। 'जयहिन्द' का नारा और अभिवादन उन्हीं की देन है।<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">तुम मुझे ख़ून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा। '''सुभाष चंद्र बोस'''</span></blockquote>ये घोषवाक्य आज भी हमें रोमांचित करता है। यही एक वाक्य सिद्ध करता है कि जिस व्यक्तित्व ने इसे देश हित में सबके सामने रखा वह किस जीवट का व्यक्ति होगा। | सुभाष भारतीयता की पहचान ही बन गए थे और भारतीय युवक आज भी उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं। वे भारत की अमूल्य निधि थे। 'जयहिन्द' का नारा और अभिवादन उन्हीं की देन है।<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">तुम मुझे ख़ून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा। '''सुभाष चंद्र बोस'''</span></blockquote>ये घोषवाक्य आज भी हमें रोमांचित करता है। यही एक वाक्य सिद्ध करता है कि जिस व्यक्तित्व ने इसे देश हित में सबके सामने रखा वह किस जीवट का व्यक्ति होगा। | ||
==मृत्यु== | ==मृत्यु== | ||
[[ | 'इंडियन नेशनल आर्मी' के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु पर इतने वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी रहस्य छाया हुआ है। सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु हवाई दुर्घटना में मानी जाती है। समय गुजरने के साथ ही [[भारत]] में भी अधिकांश लोग ये मानते है कि नेताजी की मौत ताईपे में विमान हादसे में हुई।[[चित्र:Subhash-Chandra-Bose-3.jpg|200px|left|thumb|सुभाष चंद्र बोस]] इसके अलावा एक वर्ग ऐसा भी है, जो विमान हादसे की बात को स्वीकार नहीं करता। ताईपे सरकार ने भी कहा था कि [[1944]] में उसके देश में कोई विमान हादसा नहीं हुआ। माना जाता है कि दूसरे विश्व युद्ध में [[जापान]] के आत्मसमर्पण के कुछ दिन बाद दक्षिण पूर्वी [[एशिया]] से भागते हुए एक हवाई दुर्घटना में [[18 अगस्त]], [[1945]] को बोस की मृत्यु हो गई। एक मान्यता यह भी है कि बोस की मौत [[1945]] में नहीं हुई, वह उसके बाद [[रूस]] में नजरबंद थे। | ||
उनके गुमशुदा होने और दुर्घटना में मारे जाने के बारे में कई विवाद छिड़े, लेकिन सच कभी सामने नहीं आया। हालांकि एक समाचार चैनल से ख़ास साक्षात्कार में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की बेटी अनीता बोस ने कहा था कि उन्हें भी इस बात पर पूरा यकीन है कि उनके [[पिता]] की मौत दुर्भाग्यपूर्ण विमान हादसे में हो गई। उन्होंने कहा था कि नेताजी की मौत का सबसे बड़ा कारण विमान हादसा ही है। कमोबेश उनकी मौत विमान हादसे की वजह से मानी जाती है। इससे इतर जो बातें हैं महज अटकलबाजी हो सकती हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि नेताजी की मौत विमान हादसे में हुई। अनिता ने इस इंटरव्यू के दौरान कहा था कि अगर नेताजी विमान हादसे के बाद कहीं छिपे होते तो उन्होंने अपने [[परिवार]] से संपर्क करने की कोशिश की होती और नहीं तो जब देश आजाद हुआ तो वे [[भारत]] अवश्य ही वापस लौट आते।<ref>{{cite web |url= http://zeenews.india.com/hindi/news/india/netaji-subhas-chandra-bose-s-death-has-remained-a-riddle/200676|title= नेताजी सुभाषचंद्र की मौत एक पहेली ही रह गई|accessmonthday= 14 जून|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | |||
अधिकांश लोगों का यही मानना है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया से भागते हुए हवाई दुर्घटना में जल जाने से हुए घावों के कारण [[ताइवान]] के एक जापानी अस्पताल में सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु पर किसी को विश्वास ही नहीं हुआ। लोगों को लगा कि किसी दिन वे फिर सामने आ खड़े होंगे। आज इतने वर्षों बाद भी जनमानस उनकी राह देखता है। '''वे रहस्य थे ना, और रहस्य को भी कभी किसी ने जाना है?''' | |||
==सर्वकालिक नेता== | ==सर्वकालिक नेता== | ||
[[चित्र:Azad-Hind-Fauj-1.jpg|thumb|250px|[[आज़ाद हिन्द फ़ौज]] का निरीक्षण करते सुभाष चन्द्र बोस]] | [[चित्र:Azad-Hind-Fauj-1.jpg|thumb|250px|[[आज़ाद हिन्द फ़ौज]] का निरीक्षण करते सुभाष चन्द्र बोस]] | ||
नेताजी सुभाष चंद्र बोस सर्वकालिक नेता थे जिनकी ज़रूरत कल थी, आज है और आने वाले कल में भी होगी। वह ऐसे वीर सैनिक थे इतिहास जिनकी गाथा गाता रहेगा। उनके विचार, कर्म और आदर्श अपना कर राष्ट्र वह सब कुछ हासिल कर सकता है जिसका हक़दार है। स्वतंत्रता समर के अमर सेनानी, | नेताजी सुभाष चंद्र बोस सर्वकालिक नेता थे, जिनकी ज़रूरत कल थी, आज है और आने वाले कल में भी होगी। वह ऐसे वीर सैनिक थे, [[इतिहास]] जिनकी गाथा गाता रहेगा। उनके विचार, कर्म और आदर्श अपना कर राष्ट्र वह सब कुछ हासिल कर सकता है, जिसका वह हक़दार है। सुभाष चंद्र बोस स्वतंत्रता समर के अमर सेनानी, माँ भारती के सच्चे सपूत थे। नेताजी [[भारतीय स्वाधीनता संग्राम]] के उन योद्धाओं में से एक थे, जिनका नाम और जीवन आज भी करोड़ों देशवासियों को मातृभमि के लिए समर्पित होकर कार्य करने की प्रेरणा देता है। उनमें नेतृत्व के चमत्कारिक गुण थे, जिनके बल पर उन्होंने [[आज़ाद हिंद फ़ौज]] की कमान संभाल कर अंग्रेज़ों को भारत से निकाल बाहर करने के लिए एक मज़बूत सशस्त्र प्रतिरोध खड़ा करने में सफलता हासिल की थी। नेताजी के जीवन से यह भी सीखने को मिलता है कि हम देश सेवा से ही जन्मदायिनी [[मिट्टी]] का कर्ज़ उतार सकते हैं। उन्होंने अपने [[परिवार]] के बारे में न सोचकर पूरे देश के बारे में सोचा। नेताजी के जीवन के कई और पहलू हमे एक नई [[ऊर्जा]] प्रदान करते हैं। वे एक सफल संगठनकर्ता थे। उनकी वाक्-शैली में जादू था और उन्होंने देश से बाहर रहकर 'स्वतंत्रता आंदोलन' चलाया। नेताजी मतभेद होने के बावज़ूद भी अपने साथियो का मान सम्मान रखते थे। उनकी व्यापक सोच आज की राजनीति के लिए भी सोचनीय विषय है। | ||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=|माध्यमिक=माध्यमिक1 |पूर्णता= |शोध= }} | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=|माध्यमिक=माध्यमिक1 |पूर्णता= |शोध= }} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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==बाहरी कड़ियाँ== | |||
*[http://www.subhaschandrabose.org/ subhaschandrabose.org] | |||
*[http://www.tribuneindia.com/2011/20110703/spectrum/book5.htm New look at Netaji] | |||
*[http://news.bbc.co.uk/2/hi/south_asia/4989868.stm Mystery over India freedom hero ] | |||
*[http://www.achhikhabar.com/2012/01/19/neataji-subhash-chandra-bose-speech-in-hindi/ तुम मुझे ख़ून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा ] | |||
*[http://srijanshilpi.com/archives/95 नेताजी सुभाष : सत्य की अनवरत तलाश] | |||
*[http://srijanshilpi.com/archives/111 नेताजी से जुड़े दस्तावेज सार्वजनिक करे सरकार] | |||
*[http://maisubhash.blogspot.in/ मैं सुभाष बोल रहा हूँ] | |||
*[http://nazehindsubhash.blogspot.in/ नेताजी के सपने को पूरा करना है...] | |||
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05:30, 18 अगस्त 2018 के समय का अवतरण
सुभाष चंद्र बोस
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पूरा नाम | सुभाष चंद्र बोस |
अन्य नाम | नेताजी |
जन्म | 23 जनवरी, 1897 |
जन्म भूमि | कटक, उड़ीसा |
मृत्यु | 18 अगस्त, 1945 |
मृत्यु स्थान | ताइवान, जापान |
अभिभावक | जानकीनाथ बोस, प्रभावती |
पति/पत्नी | ऐमिली शिंकल (Emilie Schenkl) |
संतान | पुत्री- अनीता बोस |
नागरिकता | भारतीय |
धर्म | हिन्दू |
आंदोलन | भारतीय स्वतंत्रता संग्राम |
विद्यालय | प्रेज़िडेंसी कॉलेज, स्कॉटिश चर्च कॉलेज, केंब्रिज विश्वविद्यालय |
शिक्षा | स्नातक |
संबंधित लेख | आज़ाद हिन्द फ़ौज, गाँधी-इरविन समझौता, नेहरू समिति, फ़ारवर्ड ब्लॉक, कैप्टन लक्ष्मी सहगल |
अन्य जानकारी | नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारतीय स्वाधीनता संग्राम के उन योद्धाओं में से एक थे, जिनका नाम और जीवन आज भी करोड़ों देशवासियों को मातृभमि के लिए समर्पित होकर कार्य करने की प्रेरणा देता है। |
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सुभाष चंद्र बोस (अंग्रेज़ी: Subhas Chandra Bose, जन्म- 23 जनवरी, 1897 ई., कटक, उड़ीसा; मृत्यु- 18 अगस्त, 1945 ई., जापान) के अतिरिक्त भारत के इतिहास में ऐसा कोई व्यक्तित्व नहीं हुआ, जो एक साथ महान् सेनापति, वीर सैनिक, राजनीति का अद्भुत खिलाड़ी और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरुषों, नेताओं के समकक्ष साधिकार बैठकर कूटनीति तथा चर्चा करने वाला हो। भारत की स्वतंत्रता के लिए सुभाष चंद्र बोस ने क़रीब-क़रीब पूरे यूरोप में अलख जगाया। बोस प्रकृति से साधु, ईश्वर भक्त तथा तन एवं मन से देशभक्त थे। महात्मा गाँधी के नमक सत्याग्रह को 'नेपोलियन की पेरिस यात्रा' की संज्ञा देने वाले सुभाष चंद्र बोस का एक ऐसा व्यक्तित्व था, जिसका मार्ग कभी भी स्वार्थों ने नहीं रोका। जिसके पाँव लक्ष्य से कभी पीछे नहीं हटे, जिसने जो भी स्वप्न देखे, उन्हें साधा। नेताजी में सच्चाई के सामने खड़े होने की अद्भुत क्षमता थी।
जीवन परिचय
सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी, सन 1897 ई. में उड़ीसा के कटक नामक स्थान पर हुआ था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पश्चिमी शक्तियों के विरुद्ध 'आज़ाद हिंद फ़ौज' का नेतृत्व करने वाले बोस एक भारतीय क्रांतिकारी थे, जिनको ससम्मान 'नेताजी' भी कहते हैं। बोस के पिता का नाम 'जानकीनाथ बोस' और माँ का नाम 'प्रभावती' था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वक़ील थे। पहले वे सरकारी वक़ील थे, लेकिन बाद में उन्होंने निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी।
उन्होंने कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया था और वे बंगाल विधान सभा के सदस्य भी रहे थे। अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें 'रायबहादुर का ख़िताब' दिया था। प्रभावती देवी के पिता का नाम गंगानारायण दत्त था। दत्त परिवार को कोलकाता का एक कुलीन परिवार माना जाता था। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष चंद्र बोस उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थे। सुभाष उन्हें 'मेजदा' कहते थे। शरदबाबू की पत्नी का नाम विभावती था।
बचपन
भारतीयों के साथ अल्पावस्था में अंग्रेज़ों का व्यवहार देखकर सुभाष चंद्र बोस ने अपने भाई से पूछा- "दादा कक्षा में आगे की सीटों पर हमें क्यों बैठने नहीं दिया जाता है?" बोस जो भी करते, आत्मविश्वास से करते थे। अंग्रेज़ अध्यापक बोस जी के अंक देखकर हैरान रह जाते थे। बोस जी के कक्षा में सबसे अधिक अंक लाने पर भी जब छात्रवृत्ति अंग्रेज़ बालक को मिली तो वह उखड़ गए। बोस ने मिशनरी स्कूल को छोड़ दिया। उसी समय अरविन्द ने बोस जी से कहा- "हम में से प्रत्येक भारतीय को डायनमो बनना चाहिए, जिससे कि हममें से यदि एक भी खड़ा हो जाए तो हमारे आस-पास हज़ारों व्यक्ति प्रकाशवान हो जाएँ। अरविन्द के शब्द बोस के मस्तिष्क में गूँजते थे। सुभाष सोचते- 'हम अनुगमन किसका करें?' भारतीय जब चुपचाप कष्ट सहते तो वे सोचते- 'धन्य हैं ये वीर प्रसूत। ऐसे लोगों से क्या आशा की जा सकती है?'
शिक्षा
एक संपन्न व प्रतिष्ठित बंगाली वक़ील के पुत्र सुभाष चंद्र बोस की शिक्षा कलकत्ता के 'प्रेज़िडेंसी कॉलेज'[1]और 'स्कॉटिश चर्च कॉलेज' से हुई,[2] और उसके बाद 'भारतीय प्रशासनिक सेवा' (इण्डियन सिविल सर्विस) की तैयारी के लिए उनके माता-पिता ने बोस को इंग्लैंड के 'कॅम्ब्रिज विश्वविद्यालय' भेज दिया। सन 1920 ई. में बोस ने 'इंडियन सिविल सर्विस' की परीक्षा उत्तीर्ण की, लेकिन अप्रैल सन 1921 ई. में भारत में बढ़ती राजनीतिक सरगर्मी की ख़बर सुनकर बोस ने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली और शीघ्र भारत लौट आए। अपने पूरे कार्यकाल में, ख़ासकर प्रारंभिक चरण में, बोस को अपने बड़े भाई शरतचंद्र बोस (1889-1950 ई.) का भरपूर समर्थन मिला, जो कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के एक धनाढ्य वक़ील होने के साथ-साथ प्रमुख कांग्रेसी राजनीतिज्ञ भी थे।
देश भक्ति की भावना
बोस जी अंग्रेज़ी शिक्षा को निषेधात्मक शिक्षा मानते थे। किन्तु बोस जी को उनके पिता ने समझाया- हम भारतीय अंग्रेज़ों से जब तक प्रशासनिक पद नहीं छीनेंगे, तब तक देश का भला कैसे होगा। सुभाष ने इंग्लैंड में जाकर आई. सी. एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की। वे प्रतियोगिता में उत्तीर्ण ही नहीं हुए, चतुर्थ स्थान पर रहे। नेता जी एक बहुत मेधावी छात्र थे। वे चाहते तो उच्च अधिकारी के पद पर आसीन हो सकते थे। परन्तु उनकी देश भक्ति की भावना ने उन्हें कुछ अलग करने के लिए प्रेरित किया। बोस जी ने नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। सारा देश हैरान रह गया। बोस जी को समझाते हुए कहा गया- तुम जानते भी हो कि तुम लाखों भारतीयों के सरताज़ होगे? तुम्हारे हज़ारों देशवासी तुम्हें नमन करेंगे? सुभाष ने कहा-
मैं लोगों पर नहीं उनके मनों पर राज्य करना चाहता हूँ। उनका हृदय सम्राट बनना चाहता हूँ।
कल्याण संदेश
एक शहर में हैजे का प्रकोप हो गया था। यह रोग इस हद तक अपने पैर पसार चुका था कि दवाएँ और चिकित्सक कम पड़ गए। चारों ओर मृत्यु का तांडव हो रहा था। शहर के कुछ कर्मठ एवं सेवाभावी युवकों ने ऐसी विकट स्थिति में एक दल का गठन किया। यह दल शहर की निर्धन बस्तियों में जाकर रोगियों की सेवा करने लगा। ये लोग एक बार उस हैजाग्रस्त बस्ती में गए, जहाँ का एक कुख्यात बदमाश हैदर ख़ाँ उनका घोर विरोधी था। हैदर ख़ाँ का परिवार भी हैजे के प्रकोप से नहीं बच सका। सेवाभावी पुरुषों की टोली उसके टूटे-फूटे मकान में भी पहुँची और बीमार लोगों की सेवा में लग गई। उन युवकों ने अस्वस्थ हैदर ख़ाँ के मकान की सफाई की, रोगियों को दवा दी और उनकी हर प्रकार से सेवा की। हैदर ख़ाँ के सभी परिजन धीरे-धीरे भले-चंगे हो गए।
हैदर ख़ाँ को अपनी ग़लती का एहसास हुआ। उन युवकों से हाथ जोड़कर क्षमा माँगते हुए हैदर ख़ाँ ने कहा मैं बहुत बड़ा पापी हूँ। मैंने आप लोगों का बहुत विरोध किया, किंतु आपने मेरे परिवार को जीवनदान दिया। सेवादल के मुखिया ने उसे अत्यंत स्नेह से समझाया आप इतना क्यों दुखी हो रहे हैं? आपका घर गंदा था, इस कारण रोग घर में आ गया और आपको इतनी परेशानी उठानी पड़ी। हमने तो बस घर की गंदगी ही साफ़ की है। तब हैदर ख़ाँ बोला- 'केवल घर ही नहीं अपितु मेरा मन भी गंदा था, आपकी सेवा ने दोनों का मैल साफ़ कर दिया है।' सुभाषचंद्र बोस इस सेवादल के ऊर्जावान नेता थे। जिन्होंने सेवा की नई इबारत लिखकर समाज को यह महान् संदेश दिया कि मानव जीवन तभी सार्थक होता है, जब वह दूसरों के कल्याण हेतु काम आए। वही मनुष्य सही मायनों में कसौटी पर खरा उतरता है।
देश सेवा
बोस जी ने मिशनरी स्कूल को छोड़ दिया। उसी समय अरबिंदो घोष ने बोस जी से कहा- हम में से प्रत्येक भारतीय को डायनमो बनना चाहिए जिससे कि हममें से यदि एक भी खड़ा हो जाए तो हमारे आस-पास हज़ारों व्यक्ति प्रकाशवान हो जाएँ। अरविन्द के शब्द बोस के मस्तिष्क में गूँजते थे। सुभाष सोचते- हम अनुगमन किसका करें? भारतीय जब चुपचाप कष्ट सहते तो वे सोचते- धन्य हैं ये वीर प्रसूत। ऐसे लोगों से क्या आशा की जा सकती है?
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बोस जी नौकरी छोड़ कर भारत आ गए। तब 23 वर्ष का नवयुवक विदेश से स्वदेशी बनकर लौटा। पूरा देश इस समय किसी नेतृत्व की प्रतीक्षा कर रहा था। पूरे देश को सुभाष अपने साथ ले चल पड़े। वे गाँधी जी से मिले। उनके विचार जाने, पर उनको यह बात समझ नहीं आई कि आन्दोलनकारी हँसते-हँसते लाठियाँ खा लेंगे। कब तक? वे चितरंजन दास जी के पास गए। उन्होंने सुभाष को देश को समझने और जानने को कहा। सुभाष देश भर में घूमें और निष्कर्ष निकाला-
हमारी सामाजिक स्थिति बदतर है, जाति-पाँति तो है ही, ग़रीब और अमीर की खाई भी समाज को बाँटे हुए है। निरक्षरता देश के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। इसके लिए संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता है। -सुभाष चंद्र बोस
कांग्रेस के अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस ने कहा-
मैं अंग्रेज़ों को देश से निकालना चाहता हूँ। मैं अहिंसा में विश्वास रखता हूँ किन्तु इस रास्ते पर चलकर स्वतंत्रता काफ़ी देर से मिलने की आशा है।
क्रान्तिकारियों को बोस ने सशक्त बनने को कहा। वे चाहते थे कि अंग्रेज़ भयभीत होकर भाग खड़े हों। वे देश सेवा के काम पर लग गए। दिन देखा ना रात। उनकी सफलता देख देशबन्धु ने कहा था-
मैं एक बात समझ गया हूँ कि तुम देश के लिए रत्न सिद्ध होगे।
अंग्रेज़ों का दमन चक्र बढ़ता गया। बंगाल का शेर दहाड़ उठा- दमन चक्र की गति जैसे-जैसे बढ़ेगी, उसी अनुपात में हमारा आन्दोलन बढ़ेगा। यह तो एक मुक़ाबला है जिसमें जीत जनता की ही होगी। अंग्रेज़ जान गए कि जब तक सुभाष, दीनबन्धु, मौलाना और आज़ाद गिरफ़्तार नहीं होते, स्थिति में सुधार नहीं हो सकता। अंग्रेज़ों ने कहा- सबसे अधिक खतरनाक व्यक्तित्व सुभाष का है। इसने पूरे बंगाल को जीवित कर दिया है।
सिद्धांत
सुभाष चंद्र बोस एक महान् नेता थे। नेता अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करते, पर उनमें विरोधियों को साथ लेकर चलने का महान् गुण होता है। सो, नेता जी में यह गुण कूट-कूट कर भरा था। दरअसल, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अलग-अलग विचारों के दल थे। ज़ाहिर तौर पर महात्मा गाँधी को उदार विचारों वाले दल का प्रतिनिधि माना जाता था। वहीं नेताजी अपने जोशीले स्वभाव के कारण क्रांतिकारी विचारों वाले दल में थे।
यही कारण था कि महात्मा गाँधी और सुभाष चंद्र बोस के विचार भिन्न-भिन्न थे। लेकिन वे यह अच्छी तरह जानते थे कि महात्मा गाँधी और उनका मक़सद एक है, यानी देश की आज़ादी। वे यह भी जानते थे कि महात्मा गाँधी ही देश के 'राष्ट्रपिता' कहलाने के सचमुच हक़दार हैं।
सबसे पहले गाँधी को राष्ट्रपिता कहने वाले नेताजी ही थे।
कांग्रेस के स्वयं सेवक
गाँधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन बीच में ही रोक देने के कारण सुभाष उनसे दुःखी हुए। कालान्तर में वे देशबन्धु चितरंजन दास के क़रीब आये तथा उनके विश्वासपात्र एवं अनन्य सहयोगी बनने का गौरव प्राप्त किया। वहीं पर सुभाष चंद्र बोस एक युवा प्रशिक्षक, पत्रकार व बंगाल कांग्रेस के स्वयंसेवक बने। 1923 ई. में चितरंजन दास द्वारा गठित स्वराज्य पार्टी का सुभाष चन्द्र बोस ने समर्थन किया। 1923 ई. में जब चितरंजन दास ने 'कलकत्ता नगर निगम' के मेयर का कार्यभार संभाला तो उन्होंने सुभाष को निगम के 'मुख्य कार्यपालिका अधिकारी' पद पर नियुक्त किया। 25 अक्टूबर, 1924 ई. को उन्हें गिरफ़्तार कर बर्मा (वर्तमान म्यांमार) की 'माण्डले' जेल में बंद कर दिया गया। सन् 1927 ई. में रिहा होने पर बोस कलकत्ता लौट आए, जहाँ चितरंजन दास की मृत्यु के बाद उन्हें अस्त-व्यस्त कांग्रेस मिली। उन्होंने कांग्रेस के उदारवादी दल की आलोचना की। 1928 ई. में प्रस्तुत 'नेहरू रिपोर्ट' के विरोध में उन्होंने एक अलग पार्टी 'इण्डिपेन्डेन्ट लीग' की स्थापना की। 1928 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 'कलकत्ता अधिवेशन' में उन्होंने 'विषय समिति' में 'नेहरू रिपोर्ट' द्वारा अनुमोदित प्रादेशिक स्वायत्ता के प्रस्ताव का डटकर विरोध किया। 1931 ई. में हुए 'गाँधी-इरविन समझौते' का भी सुभाष ने विरोध किया। सुभाष उग्र विचारों के समर्थक थे। उन्हें 'ऑल इण्डियन यूनियन कांग्रेस' एवं 'यूथ कांग्रेस' का भी अध्यक्ष बनाया गया था।
गाँधीजी ने भी उनकी देश की आज़ादी के प्रति लड़ने की भावना देखकर ही उन्हें देशभक्तों का देशभक्त कहा था।
कांग्रेस के अध्यक्ष
गाँधी जी कांग्रेस में फिर से सक्रिय हो गए और बोस बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए। सन् 1930 ई. में जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू हुआ, बोस कारावास में थे। रिहा और फिर से गिरफ़्तार होने व अंतत: एक वर्ष की नज़रबंदी के बाद उन्हें यूरोप जाने की आज्ञा दे दी गई। निर्वासन काल में, उन्होंने 'द इंडियन स्ट्रगल'[3] और यूरोपीय नेताओं से भारत पक्ष की पैरवी की। सन् 1936 ई. में यूरोप से लौटने पर उन्हें फिर एक वर्ष के लिए गिरफ़्तार कर लिया गया। सन् 1938 ई. में 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' का अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद उन्होंने 'राष्ट्रीय योजना आयोग' का गठन किया, जिसने औद्योगिक नीति को सूत्रबद्ध किया।
अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा
यह नीति गाँधीवादी आर्थिक विचारों के अनुकूल नहीं थी, जो प्रतीक रूप में चरख़े में निष्ठा रखती थी। सन् 1939 ई. में बोस के प्रति समर्थन की अभिव्यक्ति एक गाँधीवादी प्रतिद्वंद्वी को दुबारा हुए चुनाव में हरा देने के रूप में प्रकट हुई। लेकिन गाँधी जी के विरोध के चलते इस ‘विद्रोही अध्यक्ष’ ने इस्तीफ़ा देने की आवश्यकता महसूस की।
फ़ारवर्ड ब्लॉक की स्थापना
सुभाष चंद्र बोस ने गरमपंथी तत्वों को साथ जुटाने की उम्मीद में 'फ़ारवर्ड ब्लॉक' की स्थापना की, लेकिन सन् 1940 ई. में वह पुन: बंदी बना लिए गए। भारतीय इतिहास की इस नाज़ुक घड़ी में बंदी बने रहने से उनका इन्कार आमरण अनशन के निर्णय के रूप में अभिव्यक्त हुआ, जिससे घबराकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। कड़ी निगरानी के बावज़ूद वह 26 जनवरी सन् 1941 ई. को अपने कलकत्ता के आवास से वेश बदलकर निकल भागे और काबुल व मॉस्को के रास्ते अंतत: अप्रैल में जर्मनी पहुँच गए।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृव्य
जर्मनी में नेताजी एडम वॉन ट्रौट जू सोल्ज़ द्वारा नवगठित 'स्पेशल ब्यूरो फ़ॉर इंडिया' के संरक्षण में आ गए। जनवरी सन् 1942 ई. में उन्होंने और अन्य भारतीयों ने जर्मन प्रायोजित 'आज़ाद हिंद रेडियो' से अंग्रेज़ी, हिन्दी, बांग्ला, तमिल , तेलुगु, गुजराती और पश्तो में नियमित प्रसारण करना शुरू कर दिया। दक्षिणी-पूर्वी एशिया में जापानी हमले के एक वर्ष के कुछ ही समय बाद बोस ने जर्मनी छोड़ दी। वह जर्मन और जापानी पनडुब्बियों व हवाई जहाज़ से सफ़र करते हुए, सन् 1943 में टोक्यो पहुँचे। 4 जुलाई को उन्होंने पूर्वी एशिया में चलने वाले भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृव्य संभाला।
कारावास
सुभाष चंद्र बोस गिरफ़्तार कर लिए गए। मातृभूमि के प्रति, उसकी पुण्य वेदी पर इनका पहला पुण्य दान था। बोस ने जेल में चितरंजन दास जी से काफ़ी अनुभव प्राप्त किया। उन्हें मुसलमानों से भी पूर्ण समर्थन मिला। वे कहते थे- 'मुसलमान इस देश से कोई अलग नहीं हैं। हम सब एक ही धारा में बह रहे हैं। आवश्यकता है सभी भेदभाव को समाप्त कर एक होकर अपने अधिकारों के लिए जूझने की।' 6 महीनों में ज्ञान की गंगा कितनी बही, किसी ने न देखा किन्तु जब वह जेल से बाहर आए तो तप पूत बन चुके थे। इसी समय बंगाल बाढ़ ग्रस्त हो गया। सुभाष ने निष्ठावान युवकों को संगठित किया और बचाव कार्य आरम्भ कर दिया। लोग उन्हें देखकर सारे दुःख भूल जाते थे।
वे बाढ़ पीड़ितों के त्राता बन गए। सुभाष चितरंजन जी की प्रेरणा से 2 पत्र चलाने लगे। साधारण से साधारण मुद्दों से लेकर सचिवालय की गुप्त खबरों का प्रकाशन बड़ी ख़ूबी से किया। कोई भारतीय इतना दबंग हो सकता है- अंग्रेज़ हैरान थे। कुछ समय बाद उन्हें माँडले जेल ले जाया गया। सुभाष ने कहा-
मैं इसे आज़ादी चाहने वालों का तीर्थ स्थल मानता हूँ। मेरा सौभाग्य है कि जिस स्थान को तिलक, लाला लाजपत राय, आदि क्रान्तिकारियों ने पवित्र किया, वहाँ मैं अपना शीश झुकाने आया हूँ।
नेताजी ने सारा समय स्वाध्याय में लगाया। वहाँ वर्षा, धूप, सर्दी का कोई बचाव ना था और जलवायु शिथिलता पैदा करती थी, जोड़ों के अकड़ जाने की बीमारी होती थी तथा बोर्ड लकड़ी के बने थे। अंग्रेज़ बार-बार उनको जेल भेजते रहे और रिहा करते रहे। उन्होंने एक सभा में कहा- 'यदि भारत ब्रिटेन के विरुद्ध लड़ाई में भाग ले तो उसे स्वतंत्रता मिल सकती है।' उन्होंने गुप्त रूप से इसकी तैयारी शुरू कर दी। 25 जून को सिंगापुर रेडियो से उन्होंने सूचना दी कि आज़ाद हिन्द फ़ौज का निर्माण हो चुका है। अंग्रेज़ों ने उनको बन्दी बनाना चाहा, पर वे चकमा देकर भाग गए।
2 जुलाई को सिंगापुर के विशाल मैदान में भारतीयों का आह्वान किया। उन्होंने अपनी फ़ौज में महिलाओं को भी भर्ती किया। उनको बन्दूक चलाना और बम गिराना सिखाया। 21 अक्टूबर को उन्होंने प्रतिज्ञा की-
मैं अपने देश भारत और भारतवासियों को स्वतंत्र कराने की प्रतिज्ञा करता हूँ।
लोगों ने तन, मन और धन से इनका सहयोग किया। उन्होंने एक विशाल सभा में घोषणा की- तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा। कतार लग गई। सबसे पहले महिलाएँ आईं। आर्थिक सहायता के लिए उन्होंने अपने सुहाग के आभूषण भी इनकी झोली में डाल दिए।
आज़ाद हिंद फ़ौज का गठन
सुभाष चंद्र बोस ने पाँच वर्ष की आयु में अंग्रेज़ी का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया था। युवावस्था इन्हें राष्ट्रसेवा में खींच लाई। गाँधी जी से मतभेद होने के कारण वे कांग्रेस से अलग हो गए और ब्रिटिश जेल से भागकर जापान पहुँच गए। बोस ने जापानियों के प्रभाव और सहायता से दक्षिण-पूर्वी एशिया से जापान द्वारा एकत्रित क़रीब 40,000 भारतीय स्त्री-पुरुषों की प्रशिक्षित सेना का गठन शुरू कर दिया।
'नेताजी' के नाम से विख्यात सुभाष चन्द्र ने सशक्त क्रान्ति द्वारा भारत को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से 21 अक्टूबर, 1943 को 'आज़ाद हिन्द सरकार' की स्थापना की तथा 'आज़ाद हिन्द फ़ौज' का गठन किया। इस संगठन के प्रतीक चिह्न पर एक झंडे पर दहाड़ते हुए बाघ का चित्र बना होता था।
क़दम-क़दम बढाए जा, खुशी के गीत गाए जा-इस संगठन का वह गीत था, जिसे गुनगुना कर संगठन के सेनानी जोश और उत्साह से भर उठते थे।
और जापानी सैनिकों के साथ उनकी तथाकथित आज़ाद हिंद फ़ौज रंगून (अब यांगून) से होती हुई थल मार्ग से भारत की ओर बढ़ती, 18 मार्च सन् 1944 ई. की कोहिमा और इम्फ़ाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई। जापानी वायुसेना से सहायता न मिलने के कारण एक भीषण लड़ाई में भारतीयों और जापानियों की मिली-जुली सेना हार गई और उसे पीछे हटना पड़ा। लेकिन आज़ाद हिंद फ़ौज कुछ अर्से तक बर्मा (वर्तमान म्यांमार) और बाद में हिंद-चीन में अड्डों वाली मुक्तिवाहिनी सेना के रूप में अपनी पहचान बनाए रखने में सफल रही। इसी सेना ने 1943 से 1945 तक शक्तिशाली अंग्रेज़ों से युद्ध किया था तथा उन्हें भारत को स्वतंत्रता प्रदान कर देने के विषय में सोचने के लिए मजबूर किया था। सन् 1943 से 1945 तक 'आज़ाद हिन्द सेना' अंग्रेज़ों से युद्ध करती रही। अन्ततः ब्रिटिश शासन को उन्होंने महसूस करा दिया कि भारत को स्वतंत्रता देनी ही पड़ेगी।
ऐतिहासिक भाषण
रंगून के 'जुबली हॉल' में सुभाष चंद्र बोस द्वारा दिया गया वह भाषण सदैव के लिए इतिहास के पत्रों में अंकित हो गया, जिसमें उन्होंने कहा था कि- "स्वतंत्रता बलिदान चाहती है। आपने आज़ादी के लिए बहुत त्याग किया है, किन्तु अभी प्राणों की आहुति देना शेष है। आज़ादी को आज अपने शीश फूल चढ़ा देने वाले पागल पुजारियों की आवश्यकता है। ऐसे नौजवानों की आवश्यकता है, जो अपना सिर काट कर स्वाधीनता देवी को भेट चढ़ा सकें। तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा। इस वाक्य के जवाब में नौजवानों ने कहा- "हम अपना ख़ून देंगे।" उन्होंने आईएनए को 'दिल्ली चलो' का नारा भी दिया।
सुभाष भारतीयता की पहचान ही बन गए थे और भारतीय युवक आज भी उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं। वे भारत की अमूल्य निधि थे। 'जयहिन्द' का नारा और अभिवादन उन्हीं की देन है।
तुम मुझे ख़ून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा। सुभाष चंद्र बोस
ये घोषवाक्य आज भी हमें रोमांचित करता है। यही एक वाक्य सिद्ध करता है कि जिस व्यक्तित्व ने इसे देश हित में सबके सामने रखा वह किस जीवट का व्यक्ति होगा।
मृत्यु
'इंडियन नेशनल आर्मी' के संस्थापक नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु पर इतने वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी रहस्य छाया हुआ है। सुभाषचंद्र बोस की मृत्यु हवाई दुर्घटना में मानी जाती है। समय गुजरने के साथ ही भारत में भी अधिकांश लोग ये मानते है कि नेताजी की मौत ताईपे में विमान हादसे में हुई।
इसके अलावा एक वर्ग ऐसा भी है, जो विमान हादसे की बात को स्वीकार नहीं करता। ताईपे सरकार ने भी कहा था कि 1944 में उसके देश में कोई विमान हादसा नहीं हुआ। माना जाता है कि दूसरे विश्व युद्ध में जापान के आत्मसमर्पण के कुछ दिन बाद दक्षिण पूर्वी एशिया से भागते हुए एक हवाई दुर्घटना में 18 अगस्त, 1945 को बोस की मृत्यु हो गई। एक मान्यता यह भी है कि बोस की मौत 1945 में नहीं हुई, वह उसके बाद रूस में नजरबंद थे।
उनके गुमशुदा होने और दुर्घटना में मारे जाने के बारे में कई विवाद छिड़े, लेकिन सच कभी सामने नहीं आया। हालांकि एक समाचार चैनल से ख़ास साक्षात्कार में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की बेटी अनीता बोस ने कहा था कि उन्हें भी इस बात पर पूरा यकीन है कि उनके पिता की मौत दुर्भाग्यपूर्ण विमान हादसे में हो गई। उन्होंने कहा था कि नेताजी की मौत का सबसे बड़ा कारण विमान हादसा ही है। कमोबेश उनकी मौत विमान हादसे की वजह से मानी जाती है। इससे इतर जो बातें हैं महज अटकलबाजी हो सकती हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि नेताजी की मौत विमान हादसे में हुई। अनिता ने इस इंटरव्यू के दौरान कहा था कि अगर नेताजी विमान हादसे के बाद कहीं छिपे होते तो उन्होंने अपने परिवार से संपर्क करने की कोशिश की होती और नहीं तो जब देश आजाद हुआ तो वे भारत अवश्य ही वापस लौट आते।[4] अधिकांश लोगों का यही मानना है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया से भागते हुए हवाई दुर्घटना में जल जाने से हुए घावों के कारण ताइवान के एक जापानी अस्पताल में सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु पर किसी को विश्वास ही नहीं हुआ। लोगों को लगा कि किसी दिन वे फिर सामने आ खड़े होंगे। आज इतने वर्षों बाद भी जनमानस उनकी राह देखता है। वे रहस्य थे ना, और रहस्य को भी कभी किसी ने जाना है?
सर्वकालिक नेता
नेताजी सुभाष चंद्र बोस सर्वकालिक नेता थे, जिनकी ज़रूरत कल थी, आज है और आने वाले कल में भी होगी। वह ऐसे वीर सैनिक थे, इतिहास जिनकी गाथा गाता रहेगा। उनके विचार, कर्म और आदर्श अपना कर राष्ट्र वह सब कुछ हासिल कर सकता है, जिसका वह हक़दार है। सुभाष चंद्र बोस स्वतंत्रता समर के अमर सेनानी, माँ भारती के सच्चे सपूत थे। नेताजी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के उन योद्धाओं में से एक थे, जिनका नाम और जीवन आज भी करोड़ों देशवासियों को मातृभमि के लिए समर्पित होकर कार्य करने की प्रेरणा देता है। उनमें नेतृत्व के चमत्कारिक गुण थे, जिनके बल पर उन्होंने आज़ाद हिंद फ़ौज की कमान संभाल कर अंग्रेज़ों को भारत से निकाल बाहर करने के लिए एक मज़बूत सशस्त्र प्रतिरोध खड़ा करने में सफलता हासिल की थी। नेताजी के जीवन से यह भी सीखने को मिलता है कि हम देश सेवा से ही जन्मदायिनी मिट्टी का कर्ज़ उतार सकते हैं। उन्होंने अपने परिवार के बारे में न सोचकर पूरे देश के बारे में सोचा। नेताजी के जीवन के कई और पहलू हमे एक नई ऊर्जा प्रदान करते हैं। वे एक सफल संगठनकर्ता थे। उनकी वाक्-शैली में जादू था और उन्होंने देश से बाहर रहकर 'स्वतंत्रता आंदोलन' चलाया। नेताजी मतभेद होने के बावज़ूद भी अपने साथियो का मान सम्मान रखते थे। उनकी व्यापक सोच आज की राजनीति के लिए भी सोचनीय विषय है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
- subhaschandrabose.org
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- Mystery over India freedom hero
- तुम मुझे ख़ून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा
- नेताजी सुभाष : सत्य की अनवरत तलाश
- नेताजी से जुड़े दस्तावेज सार्वजनिक करे सरकार
- मैं सुभाष बोल रहा हूँ
- नेताजी के सपने को पूरा करना है...
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