"श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 14-24": अवतरणों में अंतर

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राजन्! मैंने साँप से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सर्प की भाँति अकेले ही विचरण करना चाहिये, उसे मण्डली नहीं बाँधनी चाहिये, मठ तो बनाना ही नहीं चाहिये। वह एक स्थान में न रहे, प्रमाद न करे, गुहा आदि में पड़ा रहे, बाहरी आचारों से पहचाना न जाय। किसी से सहायता न ले और बहुत कम बोले । इस अनित्य शरीर के लिये घर बनाने के बखेड़े में पड़ना व्यर्थ और दुःख की जड़ है। साँप दूसरों के बनाये घर में घुसकर बड़े आराम से अपना समय काटता है ।
राजन्! मैंने साँप से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सर्प की भाँति अकेले ही विचरण करना चाहिये, उसे मण्डली नहीं बाँधनी चाहिये, मठ तो बनाना ही नहीं चाहिये। वह एक स्थान में न रहे, प्रमाद न करे, गुहा आदि में पड़ा रहे, बाहरी आचारों से पहचाना न जाय। किसी से सहायता न ले और बहुत कम बोले । इस अनित्य शरीर के लिये घर बनाने के बखेड़े में पड़ना व्यर्थ और दुःख की जड़ है। साँप दूसरों के बनाये घर में घुसकर बड़े आराम से अपना समय काटता है ।
अब मकड़ी से ली हुई शिक्षा सुनो। सबके प्रकाशक और अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् भगवान ने पूर्वकल्प में बिना किसी अन्य सहायक के अपनी ही माया से रचे हुए जगत् को कल्प के अन्त में (प्रलयकाल उपस्थित होने पर) काल शक्ति के द्वारा नष्ट कर दिया—उसे अपने में लीन कर लिया और सजातीय, विजातीय तथा स्वगतभेद से शून्य अकेले ही शेष रह गये। वे सबके अधिष्ठान हैं, सबके आश्रय हैं; परन्तु स्वयं अपने आश्रय—अपने ही आधार से रहते हैं, उनका कोई दूसरा आधार नहीं है। वे प्रकृति और पुरुष दोनों के नियामक, कार्य और करणात्मक जगत् के आदिकारण परमात्मा अपनी शक्ति काल के प्रभाव से सत्व-रज आदि समस्त शक्तियों को साम्यावस्था में पहुँचा देते हैं और स्वयं कैवल्यरूप से एक और अद्वितीयरूप से विराजमान रहते हैं। वे केवल अनुभवस्वरुप और आनन्दघन मात्र हैं। किसी भी प्रकार की उपाधि का उनसे सम्बन्ध नहीं है। वे ही प्रभु केवल अपनी शक्ति काल के द्वारा अपनी त्रिगुणमयी माया को क्षुब्ध करते हैं और उससे पहले क्रियाशक्ति-प्रधान सूत्र (महतत्व) की रचना करते हैं। यह सूत्ररूप महतत्व ही तीनों गुणों की पहली अभिव्यक्ति है, वही सब प्रकार की सृष्टि का मूल कारण है। उसी में यह सारा [[विश्व]], सूत में ताने-बाने की तरह ओतप्रोत है और इसी के कारण जीव को जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ना पड़ता है  । जैसे मकड़ी अपने ह्रदय से मुँह के द्वारा जाला फैलाती है, उसी में विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है, वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत् को अपने में से उत्पन्न करते हैं, उसमें जीवरूप से विहार करते हैं और फिर उसे अपने लीन कर लेते हैं ।
अब मकड़ी से ली हुई शिक्षा सुनो। सबके प्रकाशक और अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् भगवान ने पूर्वकल्प में बिना किसी अन्य सहायक के अपनी ही माया से रचे हुए जगत् को कल्प के अन्त में (प्रलयकाल उपस्थित होने पर) काल शक्ति के द्वारा नष्ट कर दिया—उसे अपने में लीन कर लिया और सजातीय, विजातीय तथा स्वगतभेद से शून्य अकेले ही शेष रह गये। वे सबके अधिष्ठान हैं, सबके आश्रय हैं; परन्तु स्वयं अपने आश्रय—अपने ही आधार से रहते हैं, उनका कोई दूसरा आधार नहीं है। वे प्रकृति और पुरुष दोनों के नियामक, कार्य और करणात्मक जगत् के आदिकारण परमात्मा अपनी शक्ति काल के प्रभाव से सत्व-रज आदि समस्त शक्तियों को साम्यावस्था में पहुँचा देते हैं और स्वयं कैवल्यरूप से एक और अद्वितीयरूप से विराजमान रहते हैं। वे केवल अनुभवस्वरूप और आनन्दघन मात्र हैं। किसी भी प्रकार की उपाधि का उनसे सम्बन्ध नहीं है। वे ही प्रभु केवल अपनी शक्ति काल के द्वारा अपनी त्रिगुणमयी माया को क्षुब्ध करते हैं और उससे पहले क्रियाशक्ति-प्रधान सूत्र (महतत्व) की रचना करते हैं। यह सूत्ररूप महतत्व ही तीनों गुणों की पहली अभिव्यक्ति है, वही सब प्रकार की सृष्टि का मूल कारण है। उसी में यह सारा [[विश्व]], सूत में ताने-बाने की तरह ओतप्रोत है और इसी के कारण जीव को जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ना पड़ता है  । जैसे मकड़ी अपने हृदय से मुँह के द्वारा जाला फैलाती है, उसी में विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है, वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत् को अपने में से उत्पन्न करते हैं, उसमें जीवरूप से विहार करते हैं और फिर उसे अपने लीन कर लेते हैं ।
राजन्! मैंने भृंगी (बिलनी) कीड़े से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यदि प्राणी स्नेह से, द्वेष से अथवा भय से भी जान-बूझकर एकाग्ररूप से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का स्वरुप प्राप्त हो जाता है । राजन्! जैसे भृंगी एक कीड़े को ले जाकर दीवार पर अपने रहने की जगह बंद कर देता है और वह कीड़ा भय से उसी का चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीर का त्याग किये बिना ही उसी शरीर से तद्रूप हो जाता है<ref>जब उसी शरीर से चिन्तन किये रूप की प्राप्ति हो जाती है; तब दूसरे शरीर से तो कहना ही क्या है ? इसलिये मनुष्य को अन्य वस्तु का चिन्तन न करके केवल परमात्मा का ही चिन्तन करना चाहिये।</ref>।
राजन्! मैंने भृंगी (बिलनी) कीड़े से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यदि प्राणी स्नेह से, द्वेष से अथवा भय से भी जान-बूझकर एकाग्ररूप से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का स्वरूप प्राप्त हो जाता है । राजन्! जैसे भृंगी एक कीड़े को ले जाकर दीवार पर अपने रहने की जगह बंद कर देता है और वह कीड़ा भय से उसी का चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीर का त्याग किये बिना ही उसी शरीर से तद्रूप हो जाता है<ref>जब उसी शरीर से चिन्तन किये रूप की प्राप्ति हो जाती है; तब दूसरे शरीर से तो कहना ही क्या है ? इसलिये मनुष्य को अन्य वस्तु का चिन्तन न करके केवल परमात्मा का ही चिन्तन करना चाहिये।</ref>।
राजन्! इस प्रकार मैंने इतने गुरुओं से ये शिक्षाएँ ग्रहण कीं। अब मैंने अपने शरीर से जो कुछ सीखा है, वह तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो ।
राजन्! इस प्रकार मैंने इतने गुरुओं से ये शिक्षाएँ ग्रहण कीं। अब मैंने अपने शरीर से जो कुछ सीखा है, वह तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो ।
{{लेख क्रम|पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 1-13|अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 25-33}}
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13:18, 29 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

एकादश स्कन्ध: नवमोऽध्यायः (9)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: नवमोऽध्यायः श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद


राजन्! मैंने साँप से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सर्प की भाँति अकेले ही विचरण करना चाहिये, उसे मण्डली नहीं बाँधनी चाहिये, मठ तो बनाना ही नहीं चाहिये। वह एक स्थान में न रहे, प्रमाद न करे, गुहा आदि में पड़ा रहे, बाहरी आचारों से पहचाना न जाय। किसी से सहायता न ले और बहुत कम बोले । इस अनित्य शरीर के लिये घर बनाने के बखेड़े में पड़ना व्यर्थ और दुःख की जड़ है। साँप दूसरों के बनाये घर में घुसकर बड़े आराम से अपना समय काटता है । अब मकड़ी से ली हुई शिक्षा सुनो। सबके प्रकाशक और अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् भगवान ने पूर्वकल्प में बिना किसी अन्य सहायक के अपनी ही माया से रचे हुए जगत् को कल्प के अन्त में (प्रलयकाल उपस्थित होने पर) काल शक्ति के द्वारा नष्ट कर दिया—उसे अपने में लीन कर लिया और सजातीय, विजातीय तथा स्वगतभेद से शून्य अकेले ही शेष रह गये। वे सबके अधिष्ठान हैं, सबके आश्रय हैं; परन्तु स्वयं अपने आश्रय—अपने ही आधार से रहते हैं, उनका कोई दूसरा आधार नहीं है। वे प्रकृति और पुरुष दोनों के नियामक, कार्य और करणात्मक जगत् के आदिकारण परमात्मा अपनी शक्ति काल के प्रभाव से सत्व-रज आदि समस्त शक्तियों को साम्यावस्था में पहुँचा देते हैं और स्वयं कैवल्यरूप से एक और अद्वितीयरूप से विराजमान रहते हैं। वे केवल अनुभवस्वरूप और आनन्दघन मात्र हैं। किसी भी प्रकार की उपाधि का उनसे सम्बन्ध नहीं है। वे ही प्रभु केवल अपनी शक्ति काल के द्वारा अपनी त्रिगुणमयी माया को क्षुब्ध करते हैं और उससे पहले क्रियाशक्ति-प्रधान सूत्र (महतत्व) की रचना करते हैं। यह सूत्ररूप महतत्व ही तीनों गुणों की पहली अभिव्यक्ति है, वही सब प्रकार की सृष्टि का मूल कारण है। उसी में यह सारा विश्व, सूत में ताने-बाने की तरह ओतप्रोत है और इसी के कारण जीव को जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ना पड़ता है । जैसे मकड़ी अपने हृदय से मुँह के द्वारा जाला फैलाती है, उसी में विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है, वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत् को अपने में से उत्पन्न करते हैं, उसमें जीवरूप से विहार करते हैं और फिर उसे अपने लीन कर लेते हैं । राजन्! मैंने भृंगी (बिलनी) कीड़े से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यदि प्राणी स्नेह से, द्वेष से अथवा भय से भी जान-बूझकर एकाग्ररूप से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का स्वरूप प्राप्त हो जाता है । राजन्! जैसे भृंगी एक कीड़े को ले जाकर दीवार पर अपने रहने की जगह बंद कर देता है और वह कीड़ा भय से उसी का चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीर का त्याग किये बिना ही उसी शरीर से तद्रूप हो जाता है[1]। राजन्! इस प्रकार मैंने इतने गुरुओं से ये शिक्षाएँ ग्रहण कीं। अब मैंने अपने शरीर से जो कुछ सीखा है, वह तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जब उसी शरीर से चिन्तन किये रूप की प्राप्ति हो जाती है; तब दूसरे शरीर से तो कहना ही क्या है ? इसलिये मनुष्य को अन्य वस्तु का चिन्तन न करके केवल परमात्मा का ही चिन्तन करना चाहिये।

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