"सुमित्रानंदन पंत": अवतरणों में अंतर
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सुमित्रानंदन पंत | {| style="background:transparent; float:right" | ||
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित | | | ||
==स्वतंत्रता संग्राम == | {{सूचना बक्सा साहित्यकार | ||
1921 के असहयोग आंदोलन में उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया था, पर देश के स्वतंत्रता संग्राम की गंभीरता के प्रति उनका ध्यान 1930 के [[नमक सत्याग्रह]] के समय से अधिक केंद्रित होने लगा, इन्हीं दिनों संयोगवश उन्हें कालाकांकर में ग्राम जीवन के अधिक निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। उस ग्राम जीवन की पृष्ठभूमि में जो संवेदन उनके | |चित्र=Sumitranandan-Pant.jpg | ||
|पूरा नाम=सुमित्रानंदन पंत | |||
|अन्य नाम=गुसाईं दत्त | |||
|जन्म=[[20 मई]] [[1900]] | |||
|जन्म भूमि=[[कौसानी]], [[उत्तराखण्ड]], [[भारत]] | |||
|मृत्यु=[[28 दिसंबर]], [[1977]] | |||
|मृत्यु स्थान=[[इलाहाबाद]], [[उत्तर प्रदेश]], [[भारत]] | |||
|अभिभावक= | |||
|पति/पत्नी= | |||
|संतान= | |||
|कर्म भूमि=[[इलाहाबाद]] | |||
|कर्म-क्षेत्र=अध्यापक, लेखक, कवि | |||
|मुख्य रचनाएँ=[[वीणा -सुमित्रानन्दन पंत|वीणा]], [[पल्लव -सुमित्रानन्दन पंत|पल्लव]], [[चिदंबरा -सुमित्रानन्दन पंत|चिदंबरा]], [[युगवाणी -सुमित्रानन्दन पंत|युगवाणी]], [[लोकायतन]], [[युगपथ -सुमित्रानन्दन पंत|युगपथ]], [[स्वर्णकिरण -सुमित्रानन्दन पंत|स्वर्णकिरण]], [[कला और बूढ़ा चाँद -सुमित्रानन्दन पंत|कला और बूढ़ा चाँद]] आदि | |||
|विषय=गीत, कविताएँ | |||
|भाषा=[[हिन्दी]] | |||
|विद्यालय=जयनारायण हाईस्कूल, म्योर सेंट्रल कॉलेज | |||
|शिक्षा= | |||
|पुरस्कार-उपाधि=[[ज्ञानपीठ पुरस्कार]], [[पद्म भूषण]], [[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी पुरस्कार ]], 'लोकायतन' पर सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार | |||
|प्रसिद्धि= | |||
|विशेष योगदान= | |||
|नागरिकता=भारतीय | |||
|संबंधित लेख= | |||
|शीर्षक 1=आंदोलन | |||
|पाठ 1=[[रहस्यवाद]] व प्रगतिवाद | |||
|शीर्षक 2= | |||
|पाठ 2= | |||
|अन्य जानकारी= | |||
|बाहरी कड़ियाँ= | |||
|अद्यतन= | |||
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<div style="border:thin solid #a7d7f9; margin:10px"> | |||
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! सुमित्रानंदन पंत की रचनाएँ | |||
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<div style="height: 250px; overflow:auto; overflow-x: hidden; width:99%"> | |||
{{सुमित्रानंदन पंत की रचनाएँ}} | |||
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'''सुमित्रानंदन पंत''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Sumitranandan Pant'', जन्म: [[20 मई]] [[1900]]; मृत्यु: [[28 दिसंबर]], [[1977]]) [[हिन्दी साहित्य]] में [[छायावादी युग]] के चार स्तंभों में से एक हैं। सुमित्रानंदन पंत नये युग के प्रवर्तक के रूप में आधुनिक [[हिन्दी साहित्य]] में उदित हुए। सुमित्रानंदन पंत ऐसे साहित्यकारों में गिने जाते हैं, जिनका प्रकृति चित्रण समकालीन कवियों में सबसे बेहतरीन था। आकर्षक व्यक्तित्व के धनी सुमित्रानंदन पंत के बारे में साहित्यकार [[राजेन्द्र यादव]] कहते हैं कि 'पंत [[अंग्रेज़ी]] के रूमानी कवियों जैसी वेशभूषा में रहकर प्रकृति केन्द्रित साहित्य लिखते थे।' जन्म के महज छह घंटे के भीतर उन्होंने अपनी माँ को खो दिया। पंत लोगों से बहुत जल्द प्रभावित हो जाते थे। पंत ने [[महात्मा गाँधी]] और कार्ल मार्क्स से प्रभावित होकर उन पर रचनाएँ लिख डालीं। हिंदी साहित्य के '''विलियम वर्ड्सवर्थ''' कहे जाने वाले इस कवि ने महानायक [[अमिताभ बच्चन]] को ‘अमिताभ’ नाम दिया था। [[पद्मभूषण]], [[ज्ञानपीठ पुरस्कार]] और [[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी पुरस्कारों]] से नवाजे जा चुके पंत की रचनाओं में समाज के यथार्थ के साथ-साथ प्रकृति और मनुष्य की सत्ता के बीच टकराव भी होता था। [[हरिवंश राय बच्चन|हरिवंश राय ‘बच्चन’]] और [[अरविंदो घोष|श्री अरविंदो]] के साथ उनकी ज़िंदगी के अच्छे दिन गुजरे। आधी सदी से भी अधिक लंबे उनके रचनाकाल में आधुनिक [[हिंदी]] [[कविता]] का एक पूरा युग समाया हुआ है।<ref>{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/miscellaneous/literature/remembrance/0912/29/1091229096_1.htm |title=सुमित्रानंदन पंत : प्रकृति के सुकोमल कवि |accessmonthday=13 सितम्बर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=वेबदुनिया हिंदी |language=हिंदी }}</ref> | |||
==जीवन परिचय== | |||
सुमित्रानंदन पंत का जन्म [[20 मई]] [[1900]] में [[कौसानी]], [[उत्तराखण्ड]], [[भारत]] में हुआ था। जन्म के छह घंटे बाद ही [[माँ]] को क्रूर मृत्यु ने छीन लिया। शिशु को उसकी दादी ने पाला पोसा। शिशु का नाम रखा गया गुसाईं दत्त। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हिन्दी के सुकुमार कवि पंत की प्रारंभिक शिक्षा [[कौसानी]] गांव के स्कूल में हुई, फिर वह [[वाराणसी]] आ गए और 'जयनारायण हाईस्कूल' में शिक्षा पाई, इसके बाद उन्होंने [[इलाहाबाद]] में 'म्योर सेंट्रल कॉलेज' में प्रवेश लिया, पर इंटरमीडिएट की परीक्षा में बैठने से पहले ही [[1921]] में [[असहयोग आंदोलन]] में शामिल हो गए। | |||
[[चित्र:Pant.jpg|left|thumb|250px|[[कौसानी]] में महाकवि का दुर्लभ चित्र]] | |||
====प्रारम्भिक जीवन==== | |||
कवि के बचपन का नाम 'गुसाईं दत्त' था। स्लेटी छतों वाले पहाड़ी घर, आंगन के सामने आडू, खुबानी के पेड़, पक्षियों का कलरव, सर्पिल पगडण्डियां, बांज, बुरांश व चीड़ के पेड़ों की बयार व नीचे दूर दूर तक मखमली कालीन सी पसरी कत्यूर घाटी व उसके उपर [[हिमालय]] के उत्तंग शिखरों और दादी से सुनी [[कहानी|कहानियों]] व शाम के समय सुनायी देने वाली [[आरती]] की स्वर लहरियों ने गुसाईं दत्त को बचपन से ही कवि हृदय बना दिया था। क्योंकि जन्म के छ: घण्टे बाद ही इनकी माँ का निधन हो गया था, इसीलिए प्रकृति की यही रमणीयता इनकी माँ बन गयी। प्रकृति के इसी ममतामयी छांव में बालक गुसाईं दत्त धीरे- धीरे यहां के सौन्दर्य को शब्दों के माध्यम से [[काग़ज़]] में उकेरने लगा। [[पिता]] 'गंगादत्त' उस समय कौसानी चाय बग़ीचे के मैनेजर थे। उनके भाई [[संस्कृत]] व [[अंग्रेज़ी]] के अच्छे जानकार थे, जो [[हिन्दी]] व [[कुमाँऊनी भाषा|कुमाँऊनी]] में कविताएं भी लिखा करते थे। यदाकदा जब उनके भाई अपनी पत्नी को मधुर कंठ से कविताएं सुनाया करते तो बालक गुसाईं दत्त किवाड़ की ओट में चुपचाप सुनता रहता और उसी तरह के शब्दों की तुकबन्दी कर [[कविता]] लिखने का प्रयास करता। बालक गुसाईं दत्त की प्राइमरी तक की शिक्षा कौसानी के 'वर्नाक्यूलर स्कूल' में हुई। इनके कविता पाठ से मुग्ध होकर स्कूल इंसपैक्टर ने इन्हें उपहार में एक पुस्तक दी थी। ग्यारह साल की उम्र में इन्हें पढा़ई के लिये [[अल्मोड़ा|अल्मोडा़]] के 'गवर्नमेंट हाईस्कूल' में भेज दिया गया। कौसानी के सौन्दर्य व एकान्तता के अभाव की पूर्ति अब नगरीय सुख वैभव से होने लगी। अल्मोडा़ की ख़ास संस्कृति व वहां के समाज ने गुसाईं दत्त को अन्दर तक प्रभावित कर दिया। सबसे पहले उनका ध्यान अपने नाम पर गया। और उन्होंने [[लक्ष्मण]] के चरित्र को आदर्श मानकर अपना नाम गुसाईं दत्त से बदल कर 'सुमित्रानंदन' कर लिया। कुछ समय बाद [[नेपोलियन]] के युवावस्था के चित्र से प्रभावित होकर अपने लम्बे व घुंघराले बाल रख लिये।<ref name="hillwani">{{cite web |url=http://www.hillwani.com/ndisplay.php?n_id=195 |title=कौसानी के कवि पंत |accessmonthday=13 सितम्बर |accessyear=2013 |last=तिवारी |first= चंद्रशेखर |authorlink= |format= |publisher=हिलवाणी |language=हिंदी }}</ref> | |||
==साहित्यिक परिचय== | |||
[[अल्मोड़ा]] में तब कई साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियां होती रहती थीं जिसमें पंत अक्सर भाग लेते रहते। स्वामी सत्यदेव जी के प्रयासों से नगर में ‘शुद्ध साहित्य समिति‘ नाम से एक पुस्तकालय चलता था। इस पुस्तकालय से पंत जी को उच्च कोटि के विद्वानों का साहित्य पढ़ने को मिलता था। [[कौसानी]] में [[साहित्य]] के प्रति पंत जी में जो अनुराग पैदा हुआ वह यहां के साहित्यिक वातावरण में अब अंकुरित होने लगा। [[कविता]] का प्रयोग वे सगे सम्बन्धियों को पत्र लिखने में करने लगे। शुरुआती दौर में उन्होंने 'बागेश्वर के मेले', 'वकीलों के धनलोलुप स्वभाव' व 'तम्बाकू का धुंआ' जैसी कुछ छुटपुट कविताएं लिखी। आठवीं कक्षा के दौरान ही उनका परिचय प्रख्यात नाटककार [[गोविन्द बल्लभ पंत]], श्यामाचरण दत्त पंत, [[इलाचन्द्र जोशी]] व हेमचन्द्र जोशी से हो गया था। अल्मोड़ा से तब हस्तलिखित पत्रिका ‘सुधाकर‘ व ‘अल्मोड़ा अखबार‘ नामक पत्र निकलता था जिसमें वे कविताएं लिखते रहते। अल्मोड़ा में पंत जी के घर के ठीक उपर स्थित गिरजाघर की घण्टियों की आवाज़ उन्हें अत्यधिक सम्मोहित करती थीं। अक़्सर प्रत्येक [[रविवार]] को वे इस पर एक कविता लिखते। ‘गिरजे का घण्टा‘ शीर्षक से उनकी यह कविता सम्भवतः पहली रचना है- | |||
[[चित्र:Sumitranandan-Pant-kavita-paath.jpg|thumb|left|सुमित्रानंदन पंत कविता पढ़ते हुए]] | |||
<poem>नभ की उस नीली चुप्पी पर घण्टा है एक टंगा सुन्दर | |||
जो घड़ी घड़ी मन के भीतर कुछ कहता रहता बज बज कर</poem> | |||
दुबले पतले व सुन्दर काया के कारण पंत जी को स्कूल के नाटकों में अधिकतर स्त्री पात्रों का अभिनय करने को मिलता। [[1916]] में जब वे जाड़ों की छुट्टियों में कौसानी गये तो उन्होंने ‘हार‘ शीर्षक से 200 पृष्ठों का 'एक खिलौना' [[उपन्यास]] लिख डाला। जिसमें उनके किशोर मन की कल्पना के नायक नायिकाओं व अन्य पात्रों की मौजूदगी थी। कवि पंत का किशोर कवि जीवन कौसानी व अल्मोड़ा में ही बीता था। इन दोनों जगहों का वर्णन भी उनकी कविताओं में मिलता है।<ref name="hillwani"/> | |||
==स्वतंत्रता संग्राम में योगदान == | |||
[[चित्र:Harivanshrai-bachchan-sumitra-nandan-pant-ramdhari-singh-dinkar.jpg|thumb|300px|[[हरिवंशराय बच्चन]], सुमित्रानंदन पंत और [[रामधारी सिंह 'दिनकर']]]] | |||
[[1921]] के [[असहयोग आंदोलन]] में उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया था, पर देश के [[स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन|स्वतंत्रता संग्राम]] की गंभीरता के प्रति उनका ध्यान [[1930]] के [[नमक सत्याग्रह]] के समय से अधिक केंद्रित होने लगा, इन्हीं दिनों संयोगवश उन्हें कालाकांकर में ग्राम जीवन के अधिक निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। उस ग्राम जीवन की पृष्ठभूमि में जो संवेदन उनके [[हृदय]] में अंकित होने लगे, उन्हें वाणी देने का प्रयत्न उन्होंने [[युगवाणी -सुमित्रानन्दन पंत|युगवाणी]] (1938) और [[ग्राम्या -सुमित्रनन्दन पंत|ग्राम्या]] (1940) में किया। यहाँ से उनका काव्य, युग का जीवन-संघर्ष तथा नई चेतना का दर्पण बन जाता है। [[स्वर्णकिरण -सुमित्रनन्दन पंत|स्वर्णकिरण]] तथा उसके बाद की रचनाओं में उन्होंने किसी आध्यात्मिक या दार्शनिक सत्य को वाणी न देकर व्यापक मानवीय सांस्कृतिक तत्त्व को अभिव्यक्ति दी, जिसमें अन्न प्राण, मन आत्मा, आदि मानव-जीवन के सभी स्वरों की चेतना को संयोजित करने का प्रयत्न किया गया। | |||
==काव्य एवं साहित्य की साधना== | ==काव्य एवं साहित्य की साधना== | ||
पंतजी संघर्षों के एक लंबे दौर से गुज़रे, जिसके दौरान स्वयं को काव्य एवं साहित्य की साधना में लगाने के लिए उन्होंने अपनी आजीविका सुनिश्चित करने का प्रयास किया। बहुत पहले ही उन्होंने यह समझ लिया था कि उनके जीवन का लक्ष्य और कार्य यदि कोई है, तो वह काव्य साधना ही है। पंत की भाव-चेतना महाकवि [[रबींद्रनाथ ठाकुर]], [[महात्मा गांधी]] और श्री [[अरबिंदो घोष]] की रचनाओं से प्रभावित हुई। साथ ही कुछ मित्रों ने मार्क्सवाद के अध्ययन की ओर भी उन्हें प्रवृत किया और उसके विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पक्षों को उन्होंने गहराई से देखा व समझा। [[1950]] में रेडियो विभाग से जुड़ने से उनके जीवन में एक ओर मोड़ आया। सात [[वर्ष]] उन्होंने 'हिन्दी चीफ़ प्रोड्यूसर' के पद पर कार्य किया और उसके बाद साहित्य सलाहकार के रूप में कार्यरत रहे। | |||
====युग प्रवर्तक कवि==== | |||
[[चित्र:Pant amitabh.jpg|left|thumb|250px|[[हरिवंशराय बच्चन]] और सदी के महानायक [[अमिताभ बच्चन]] के साथ महाकवि सुमित्रानंदन पंत]] | |||
सुमित्रानंदन पंत आधुनिक [[हिन्दी साहित्य]] के एक युग प्रवर्तक कवि हैं। उन्होंने [[भाषा]] को निखार और संस्कार देने, उसकी सामर्थ्य को उद्घाटित करने के अतिरिक्त नवीन विचार व भावों की समृद्धि दी। पंत सदा ही अत्यंत सशक्त और ऊर्जावान कवि रहे हैं। सुमित्रानंदन पंत को मुख्यत: प्रकृति का कवि माना जाने लगा। लेकिन पंत वास्तव में मानव-सौंदर्य और आध्यात्मिक चेतना के भी कुशल कवि थे। | |||
==रचनाकाल== | ==रचनाकाल== | ||
पंत का पल्लव, ज्योत्सना तथा गुंजन का रचनाकाल काल (1926-33) उनकी सौंदर्य एवं कला-साधना का काल रहा है। वह मुख्यत: भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आदर्शवादिता से अनुप्राणिक थे। किंतु युगांत (1937) तक आते-आते बहिर्जीवन के खिंचाव से उनके भावात्मक दृष्टिकोण में परिवर्तन आए। | पंत का [[पल्लव पंत|पल्लव]], ज्योत्सना तथा गुंजन का रचनाकाल काल ([[1926]]-[[1933|33]]) उनकी सौंदर्य एवं कला-साधना का काल रहा है। वह मुख्यत: भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आदर्शवादिता से अनुप्राणिक थे। किंतु युगांत ([[1937]]) तक आते-आते बहिर्जीवन के खिंचाव से उनके भावात्मक दृष्टिकोण में परिवर्तन आए। पन्तजी की रचनाओं का क्षेत्र बहुविध और बहुआयामी है। आपकी रचनाओं सा संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है- | ||
==== | ====महाकाव्य==== | ||
चिदंबरा 1958 का प्रकाशन है। इसमें युगवाणी (1937-38) से अतिमा (1948) तक कवि की 10 कृतियों से चुनी हुई 196 कविताएं संकलित हैं। एक लंबी आत्मकथात्मक कविता आत्मिका भी इसमें सम्मिलित है, जो वाणी (1957) से ली गई है। चिदंबरा पंत की काव्य चेतना के द्वितीय उत्थान की परिचायक है। प्रमुख रचनाएं इस प्रकार है:- | [[चित्र:Sumitranandan pant1.jpg|thumb|सुमित्रानन्दन पंत हस्तलिपि 'याद']] | ||
'[[लोकायतन]]' कवि सुमित्रानन्दन पन्त का [[महाकाव्य]] है। [[कवि]] की विचारधारा और लोक-जीवन के प्रति उसकी प्रतिबद्धता इस रचना में अभिव्यक्त हुई है। इस पर कवि को 'सोवियत रूस' तथा [[उत्तर प्रदेश]] शासन से पुरस्कार प्राप्त हुआ है। पंत जी को अपने [[माता]]-[[पिता]] के प्रति असीम-सम्मान था। इसलिए उन्होंने अपने दो [[महाकाव्य|महाकाव्यों]] में से एक महाकाव्य '[[लोकायतन -सुमित्रानन्दन पंत|लोकायतन]]' अपने पूज्य पिता को और दूसरा महाकाव्य '[[सत्यकाम -सुमित्रानन्दन पंत|सत्यकाम]]' अपनी स्नेहमयी माता को, जो इन्हें जन्म देते ही स्वर्ग सिधार गईं, समर्पित किया है।<ref name="BSS">{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=2150|title=सुमित्रानन्दन पंत रचना संचयन|accessmonthday=13 सितम्बर|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= भारतीय साहित्य संग्रह|language=हिन्दी}}</ref> अपनी माँ सरस्वती देवी<ref>पीहर का पुकारू नाम 'सरुली'</ref> को स्मरण करते हुए इन्होंने अपना दूसरा महाकाव्य 'सत्यकाम' जिन शब्दों के साथ उन्हें समर्पित किया है, वे द्रष्टव्य हैं- | |||
<blockquote><poem>मुझे छोड़ अनगढ़ जग में तुम हुई अगोचर, | |||
*वीणा (1919) | भाव-देह धर लौटीं माँ की ममता से भर ! | ||
*पल्लव (1926) | वीणा ले कर में, शोभित प्रेरणा-हंस पर, | ||
*युगांत (1937) | साध चेतना-तंत्रि रसौ वै सः झंकृत कर | ||
*युगवाणी (1938) | खोल हृदय में भावी के सौन्दर्य दिगंतर !</poem></blockquote> | ||
*ग्राम्या (1940) | ====काव्य-संग्रह==== | ||
*स्वर्णकिरण (1947) | '[[वीणा -सुमित्रानन्दन पंत|वीणा]]', '[[पल्लव -सुमित्रानन्दन पंत|पल्लव]]' तथा '[[गुंजन -सुमित्रानन्दन पंत|गुंजन]]' छायावादी शैली में सौन्दर्य और प्रेम की प्रस्तुति है। '[[युगांत -सुमित्रानन्दन पंत|युगान्त]]', [[युगवाणी -सुमित्रानन्दन पंत|युगवाणी]]' तथा '[[ग्राम्या -सुमित्रानन्दन पंत|ग्राम्या]]' में पन्तजी के प्रगतिवादी और यथार्थपरक भावों का प्रकाशन हुआ है। '[[स्वर्णकिरण -सुमित्रानन्दन पंत|स्वर्ण-किरण]]', '[[स्वर्णधूलि -सुमित्रनन्दन पंत|स्वर्ण-धूलि]]', '[[युगपथ -सुमित्रानन्दन पंत|युगपथ]]', '[[उत्तरा -सुमित्रनन्दन पंत|उत्तरा]]', 'अतिमा', तथा 'रजत-रश्मि' संग्रहों में अरविन्द-दर्शन का प्रभाव परिलक्षित होता है। इनके अतिरिक्त '[[कला और बूढ़ा चाँद -सुमित्रानन्दन पंत|कला और बूढ़ा चाँद]]' तथा '[[चिदम्बरा -सुमित्रानन्दन पंत|चिदम्बरा]]' भी आपकी सम्मानित रचनाएँ हैं। पन्तजी की अन्तर्दृष्टि तथा संवेदनशीलता ने जहाँ उनके भाव-पक्ष को गहराई और विविधता प्रदान की हैं, वहीं उनकी कल्पना-प्रबलता और अभिव्यक्ति-कौशल ने उनके कला-पक्ष को सँवारा है। | ||
*स्वर्णधूलि (1947) | ==रचनाएँ== | ||
[[चित्र:Sumitranandan.jpg|thumb|सुमित्रानंदन पंत]] | |||
*उत्तरा (1949) | [[चिदंबरा -सुमित्रानन्दन पंत|चिदंबरा]] [[1958]] का प्रकाशन है। इसमें [[युगवाणी -सुमित्रनन्दन पंत|युगवाणी]] ([[1937]]-38) से अतिमा ([[1948]]) तक कवि की 10 कृतियों से चुनी हुई 196 कविताएं संकलित हैं। एक लंबी आत्मकथात्मक कविता आत्मिका भी इसमें सम्मिलित है, जो वाणी ([[1957]]) से ली गई है। चिदंबरा पंत की काव्य चेतना के द्वितीय उत्थान की परिचायक है। प्रमुख रचनाएं इस प्रकार है:- | ||
*युगपथ (1949) | {| class="bharattable-green" | ||
*चिदंबरा (1958) | |-valign="top" | ||
*कला और बूढ़ा | | | ||
*लोकायतन (1964) | ; कविताएं | ||
*गीतहंस (1969)। | *[[वीणा पंत|वीणा]] ([[1919]]) | ||
*[[ग्रंथि पंत|ग्रंथि]] ([[1920]]) | |||
*पाँच कहानियाँ (1938) | *[[पल्लव पंत|पल्लव]] ([[1926]]) | ||
* | *[[गुंजन पंत|गुंजन]] ([[1932]]) | ||
*[[युगांत]] ([[1937]]) | |||
*[[युगवाणी पंत|युगवाणी]] ([[1938]]) | |||
==सम्मानित== | *[[ग्राम्या पंत|ग्राम्या]] ([[1940]]) | ||
सुमित्रानंदन पंत को | *[[स्वर्णकिरण पंत|स्वर्णकिरण]] ([[1947]]) | ||
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; कविताएं | |||
*[[स्वर्णधूलि पंत|स्वर्णधूलि]] ([[1947]]) | |||
*[[उत्तरा पंत|उत्तरा]] ([[1949]]) | |||
*[[युगपथ पंत|युगपथ]] ([[1949]]) | |||
*[[चिदंबरा -सुमित्रानन्दन पंत|चिदंबरा]] ([[1958]]) | |||
*[[कला और बूढ़ा चाँद -सुमित्रानन्दन पंत|कला और बूढ़ा चाँद]] ([[1959]]) | |||
*[[लोकायतन]] ([[1964]]) | |||
*गीतहंस ([[1969]])। | |||
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; कहानियाँ | |||
*पाँच कहानियाँ (1938) | |||
; उपन्यास | |||
* हार (1960), | |||
; आत्मकथात्मक संस्मरण | |||
* साठ वर्ष : एक रेखांकन ([[1963]])। | |||
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==साहित्यिक विशेषताएँ== | |||
छायावाद को मुख्यतः ‘प्रेरणा का काव्य’ मानने वाले इस कोमल-प्राण कवि ने 'हार' नामक उपन्यास के लेखन से अपनी रचना-यात्रा आरंभ की थी, जो ‘मुक्ताभ’ के प्रणयन तक जारी रही। मुख्यतः कवि-रूप में प्रसिद्ध होने के अलावा ये 'प्रथम कोटि के आलोचक, विचारक और गद्यकार' थे। इन्होंने [[मुक्तक]], लंबी कविता, गद्य-नाटिका, पद्य-नाटिका, रेडियो-रूपक, [[एकांकी]], [[उपन्यास]], [[कहानी]] इत्यादि जैसी विभिन्न विधाओं में अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं और [[लोकायतन -सुमित्रनन्दन पंत|लोकायतन]] तथा [[सत्यकाम -सुमित्रानन्दन पंत|सत्यकाम]] जैसे वृहद [[महाकाव्य]] भी लिखे हैं। विधाओं की विविधता की दृष्टि से इनके द्वारा संपादित 'रूपाभ पत्रिका' (सन् [[1938]] ईस्वी) की संपादकीय टिप्पणियाँ और मधुज्वाल की भावानुवादाश्रित कविताएँ भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। आशय यह कि विभिन्न विधाओं में उपलब्ध इनके विपुल साहित्य को एक नातिदीर्घ रचना-संचयन में प्रस्तुत करना कठिन कार्य है। रचनाओं की विपुलता के साथ ही यह भी लक्ष्य करने योग्य है कि प्रकृति और नारी–सौंदर्य से रचनारंभ करनेवाले पंत जी मानव, सामान्य जन और समग्र मानवता की कल्याण-कामना से सदैव जुड़े रहे। इनकी मान्यता थी कि ‘आने वाला मानव निश्चिय ही न पूर्व का होगा, न पश्चिम का।’ ये सार्वभौम मनुष्यता के विश्वासी थे। अध्यात्म, अंतश्चेतना, प्रेम, समदिक् संचरण इत्यादि जैसा संकल्पनाओं से भावाकुल पंत के लेखन-चिन्तन का केन्द्र-बिन्दु हमेशा ‘लोक’ पक्ष ही रहा, जो लोकायतन के नामकरण से भी संकेतित होता है। पंत-काव्य का तृतीय चरण, जो ‘नवीन सगुण’ के नाम से चर्चित है और जिसे हम शुभैषणा-सदिच्छा का स्वस्ति-काव्य कह सकते हैं, इसी ‘लोक’ के मंगल पर केन्द्रित है।<ref name="BSS"/> | |||
[[चित्र:Sumitranandan pant-nakshtra.jpg|thumb|सुमित्रानन्दन पंत हस्तलिपि 'नक्षत्र']] | |||
====प्रकृति-प्रेमी कवि==== | |||
'उच्छास' से लेकर 'गुंजन' तक की कविता का सम्पूर्ण भावपट कवि की सौन्दर्य-चेतना का काल है। सौन्दर्य-सृष्टि के उनके प्रयत्न के मुख्य उपादान हैं- प्रकृति, प्रेम और आत्म-उद्बोधन। अल्मोड़ा की प्राकृतिक सुषमा ने उन्हें बचपन से ही अपनी ओर आकृष्ट किया। ऐसा प्रतीत होता है जैसे माँ की ममता से रहित उनके जीवन में मानो प्रकृति ही उनकी माँ हो। [[उत्तर प्रदेश]] के [[अल्मोड़ा]] के पर्वतीय अंचल की गोद में पले बढ़े पंत जी स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि उस मनोरम वातावरण का इनके व्यक्तित्व पर गंभीर प्रभाव पड़ा। कवि या कलाकार कहां से प्रेरणा ग्रहण करता है इस बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए पंत जी कहते हैं, संभवत: प्रेरणा के स्रोत भीतर न होकर अधिकतर बाहर ही रहते हैं। अपनी काव्य यात्रा में पन्त जी सदैव सौन्दर्य को खोजते नजर आते हें। शब्द, शिल्प, भाव और भाषा के द्वारा कवि पंत प्रकृति और प्रेम के उपादानों से एक अत्यंत सूक्ष्य और हृदयकारी सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं, किंतु उनके शब्द केवल प्रकृति-वर्णन के अंग न होकर एक दूसरे अर्थ की गहरी व्यंजना से संयोजित हैं। उनकी रचनाओं में छायावाद एवं [[रहस्यवाद]] का समावेश भी है। साथ ही शेली, कीट्स, टेनिसन आदि अंग्रेज़ी कवियों का प्रभाव भी है। मेरे मूक कवि को बाहर लाने का सर्वाधिक श्रेय मेरी जन्मभूमि के उस नैसर्गिक सौन्दर्य को है जिसकी गोद में पलकर मैं बड़ा हुआ जिसने छुटपन से ही मुझे अपने रूपहले एकांत में एकाग्र तन्मयता के रश्मिदोलन में झुलाया, रिझाया तथा कोमल कण्ठ वन-पखियों ने साथ बोलना कुहुकन सिखाया। पंतजी को जन्म के उपरांत ही मातृ-वियोग सहना पड़ा।<ref>{{cite web |url=http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/4919/3/0|title=वियोगी होगा पहला कवि...|accessmonthday=13 सितम्बर|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= देशबंधु|language=हिन्दी}}</ref> | |||
====भाव पक्ष==== | |||
पन्तजी के भाव-पक्ष का एक प्रमुख तत्त्व उनका मनोहारी प्रकृति चित्रण है। [[कौसानी]] की सौन्दर्यमयी प्राकृतिक छटा के बीच पन्तजी ने अपनी बाल-कल्पनाओं को रूपायित किया था। प्रकृति के प्रति उनका सहज आकर्षण उनकी रचनाओं के बहुत बड़े भाग को प्रभावित किए हुए है। प्रकृति के विविध आयामों और भंगिमाओं को हम पन्त के काव्य में रूपांकित देखते हैं। वह मानवी-कृता सहेली है, भावोद्दीपिका है, अभिव्यक्ति का आलम्बन है और अलंकृता प्रकृति-वधू भी है। इसके अतिरिक्त प्रकृति कवि पन्त के लिए उपदेशिका और दार्शनिक चिन्तन का आधार भी बनी है। कवि पन्त को सामान्यतया कोमल-कान्त भावनाओं और सौन्दर्य का कवि समझा जाता है किन्तु जीवन के यथार्थों से सामना होने पर कवि में जीवन के प्रति यथार्थपरक और दार्शनिक दृष्टिकोण का विकास होता गया है। सर्वप्रथम पन्त मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित हुए, जिसका प्रभाव उनकी 'युगान्त', 'युगवाणी' आदि रचनाओं में परिलक्षित होता है। गाँधीवाद से भी आप प्रभावित दिखते हैं। '[[लोकायतन]]' में यह प्रभाव विद्यमान है। [[महर्षि अरविन्द]] की विचारधारा का भी आप पर गहरा प्रभाव पड़ा। '[[गीत विहग -सुमित्रानंदन पंत|गीत-विहग]]' रचना इसका उदाहरण है। सौन्दर्य और उल्लास के कवि पन्त को जीवन का निराशामय विरूप-पक्ष भी भोगना पड़ा और इसकी प्रतिक्रिया 'परिवर्तन' नामक रचना में दृष्टिगत होती है- | |||
[[चित्र:Sumitranandan-pant.jpg|thumb|left|राजकीय संग्रहालय [[कौसानी]] में स्थापित महाकवि की मूर्ति]] | |||
<blockquote>अखिल यौवन के रंग उभार हड्डियों के हिलते कंकाल,<br /> | |||
खोलता इधर जन्म लोचन मूँदती उधर मृत्यु क्षण-क्षण।</blockquote> | |||
पन्तजी के [[काव्य]] में मानवतावादी दृष्टि को भी सम्मानित स्थान प्राप्त है। वह मानवीय प्रतिष्ठा और मानव-जाति के भावी विकास में दृढ़ विश्वास रखते हैं। 'द्रुमों की छाया' और 'प्रकृति की माया' को छोड़कर जो पन्त 'बाला के बाल-जाल' में 'लोचन उलझाने' को प्रस्तुत नहीं थे, वही मानव को विधाता की सुन्दरतम कृति स्वीकार करते हैं- | |||
<blockquote>सुन्दर है विहग सुमन सुन्दर, मानव तुम सबसे सुन्दरतम।<br /> | |||
वह चाहते हैं कि देश, जाति और वर्गों में विभाजित मनुष्य की केवल एक ही पहचान हो - मानव।</blockquote> | |||
====भाषा-शैली==== | |||
कवि पन्त का [[भाषा]] पर असाधारण अधिकार है। भाव और विषय के अनुकूल मार्मिक शब्दावली उनकी लेखनी से सहज प्रवाहित होती है। यद्यपि पन्त की भाषा का एक विशिष्ट स्तर है फिर भी वह विषयानुसार परिवर्तित होती है। पन्तजी के काव्य में एकाधिक शैलियों का प्रयोग हुआ है। प्रकृति-चित्रण में भावात्मक, आलंकारिक तथा दृश्य विधायनी शैली का प्रयोग हुआ है। विचार-प्रधान तथा दार्शनिक विषयों की शैली विचारात्मक एवं विश्लेषणात्मक भी हो गई है। इसके अतिरिक्त प्रतीक-शैली का प्रयोग भी हुआ है। सजीव बिम्ब-विधान तथा ध्वन्यात्मकता भी आपकी रचना-शैली की विशेषताएँ हैं। | |||
====अलंकरण==== | |||
पन्तजी ने परम्परागत एवं नवीन, दोनों ही प्रकार के [[अलंकार|अलंकारों]] का भव्यता से प्रयोग किया है। बिम्बों की मौलिकता तथा उपमानों की मार्मिकता हृदयहारिणी है। [[रूपक अलंकार|रूपक]], [[उपमा अलंकार|उपमा]], सांगरूपक, मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय तथा ध्वन्यर्थ-व्यंजना का आकर्षक प्रयोग आपने किया है। | |||
====छंद==== | |||
पन्तजी ने परम्परागत [[छन्द|छन्दों]] के साथ-साथ नवीन छंदों की भी रचना की है। आपने गेयता और ध्वनि-प्रभाव पर ही बल दिया है, मात्राओं और वर्णों के क्रम तथा संख्या पर नहीं। प्रकृति के चितेरे तथा छायावादी कवि के रूप में पन्तजी का स्थान निश्चय ही विशिष्ट है। [[हिन्दी]] की लालित्यपूर्ण और संस्कारित [[खड़ी बोली]] भी पन्तजी की देन है। पन्तजी विश्व-साहित्य में भी अपना स्थान बना गए हैं। | |||
==पुरस्कार== | |||
[[चित्र:Pant_sagrahalay.jpg|right|thumb|250px|महाकवि की स्मृतियों को संजोता राजकीय संग्रहालय]] | |||
सुमित्रानंदन पंत को [[पद्म भूषण]] ([[1961]]) और [[ज्ञानपीठ पुरस्कार]] ([[1968]]) से सम्मानित किया गया। '''[[कला और बूढ़ा चाँद -सुमित्रानन्दन पंत|कला और बूढ़ा चाँद]]''' के लिए [[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी पुरस्कार]], '''[[लोकायतन -सुमित्रनन्दन पंत|लोकायतन]]''' पर 'सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार' एवं '[[चिदंबरा -सुमित्रानन्दन पंत|चिदंबरा]]' पर इन्हें 'भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार' प्राप्त हुआ। | |||
====संग्रहालय==== | |||
[[उत्तराखंड|उत्तराखंड राज्य]] के [[कौसानी]] में महाकवि पंत की जन्म स्थली को सरकारी तौर पर अधिग्रहीत कर उनके नाम पर एक राजकीय संग्रहालय बनाया गया है, जिसकी देखरेख एक स्थानीय व्यक्ति करता है। इस स्थल के प्रवेश द्वार से लगे भवन की छत पर महाकवि की मूर्ति स्थापित है। वर्ष [[1990]] में स्थापित इस मूर्ति का अनावरण वयोवृद्ध साहित्यकार तथा इतिहासवेत्ता पंडित नित्यनंद मिश्र द्वारा उनके जन्म दिवस [[20 मई]] को किया गया था। महाकवि सुमित्रानंदन पंत का पैत्रक ग्राम यहां से कुछ ही दूरी पर है; परन्तु वह आज भी अनजाना तथा तिरस्कृत है। संग्रहालय में महाकवि द्वारा उपयोग में लायी गयी दैनिक वस्तुएँ यथा शॉल, दीपक, पुस्तकों की अलमारी तथा महाकवि को समर्पित कुछ सम्मान-पत्र, पुस्तकें तथा हस्तलिपि सुरक्षित हैं। | |||
==मृत्यु== | ==मृत्यु== | ||
सुमित्रानंदन पंत की मृत्यु 28 दिसम्बर 1977 को | कौसानी चाय बाग़ान के व्यवस्थापक के [[परिवार]] में जन्मे महाकवि सुमित्रानंदन पंत की मृत्यु [[28 दिसम्बर]], [[1977]] को [[इलाहाबाद]], [[उत्तर प्रदेश]] में हुई। | ||
[[Category: | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक3 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | |||
<references/> | |||
==बाहरी कड़ियाँ== | |||
*[http://www.sahityashilpi.com/2008/12/blog-post_28.html सुमित्रानंदन पंत – जीवन एवं रचना संसार ] | |||
*[http://www.anubhuti-hindi.org/gauravgram/snp/ सुमित्रानंदन पंत] | |||
*[http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF_%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A4_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A5%8C%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A5%87....._/_%E0%A4%85%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%95_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%BE जन्मभूमि कौसानी से.....] | |||
*[http://www.aazad.com/sumitranandan-pant-.html#.UjLgRX9mids Sumitranandan Pant (सुमित्रानंदन पंत) ] | |||
*[http://www.zipmytravel.com/photogallery-images-pictures-of-Sumitranandan%20Pant%20Gallery-Kausani Photogallery Of Sumitranandan Pant Gallery, Kausani] | |||
==संबंधित लेख== | |||
{{ज्ञानपीठ पुरस्कार}}{{सुमित्रानन्दन पंत}}{{भारत के कवि}} | |||
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सुमित्रानंदन पंत (अंग्रेज़ी: Sumitranandan Pant, जन्म: 20 मई 1900; मृत्यु: 28 दिसंबर, 1977) हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार स्तंभों में से एक हैं। सुमित्रानंदन पंत नये युग के प्रवर्तक के रूप में आधुनिक हिन्दी साहित्य में उदित हुए। सुमित्रानंदन पंत ऐसे साहित्यकारों में गिने जाते हैं, जिनका प्रकृति चित्रण समकालीन कवियों में सबसे बेहतरीन था। आकर्षक व्यक्तित्व के धनी सुमित्रानंदन पंत के बारे में साहित्यकार राजेन्द्र यादव कहते हैं कि 'पंत अंग्रेज़ी के रूमानी कवियों जैसी वेशभूषा में रहकर प्रकृति केन्द्रित साहित्य लिखते थे।' जन्म के महज छह घंटे के भीतर उन्होंने अपनी माँ को खो दिया। पंत लोगों से बहुत जल्द प्रभावित हो जाते थे। पंत ने महात्मा गाँधी और कार्ल मार्क्स से प्रभावित होकर उन पर रचनाएँ लिख डालीं। हिंदी साहित्य के विलियम वर्ड्सवर्थ कहे जाने वाले इस कवि ने महानायक अमिताभ बच्चन को ‘अमिताभ’ नाम दिया था। पद्मभूषण, ज्ञानपीठ पुरस्कार और साहित्य अकादमी पुरस्कारों से नवाजे जा चुके पंत की रचनाओं में समाज के यथार्थ के साथ-साथ प्रकृति और मनुष्य की सत्ता के बीच टकराव भी होता था। हरिवंश राय ‘बच्चन’ और श्री अरविंदो के साथ उनकी ज़िंदगी के अच्छे दिन गुजरे। आधी सदी से भी अधिक लंबे उनके रचनाकाल में आधुनिक हिंदी कविता का एक पूरा युग समाया हुआ है।[1]
जीवन परिचय
सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई 1900 में कौसानी, उत्तराखण्ड, भारत में हुआ था। जन्म के छह घंटे बाद ही माँ को क्रूर मृत्यु ने छीन लिया। शिशु को उसकी दादी ने पाला पोसा। शिशु का नाम रखा गया गुसाईं दत्त। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हिन्दी के सुकुमार कवि पंत की प्रारंभिक शिक्षा कौसानी गांव के स्कूल में हुई, फिर वह वाराणसी आ गए और 'जयनारायण हाईस्कूल' में शिक्षा पाई, इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद में 'म्योर सेंट्रल कॉलेज' में प्रवेश लिया, पर इंटरमीडिएट की परीक्षा में बैठने से पहले ही 1921 में असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए।
प्रारम्भिक जीवन
कवि के बचपन का नाम 'गुसाईं दत्त' था। स्लेटी छतों वाले पहाड़ी घर, आंगन के सामने आडू, खुबानी के पेड़, पक्षियों का कलरव, सर्पिल पगडण्डियां, बांज, बुरांश व चीड़ के पेड़ों की बयार व नीचे दूर दूर तक मखमली कालीन सी पसरी कत्यूर घाटी व उसके उपर हिमालय के उत्तंग शिखरों और दादी से सुनी कहानियों व शाम के समय सुनायी देने वाली आरती की स्वर लहरियों ने गुसाईं दत्त को बचपन से ही कवि हृदय बना दिया था। क्योंकि जन्म के छ: घण्टे बाद ही इनकी माँ का निधन हो गया था, इसीलिए प्रकृति की यही रमणीयता इनकी माँ बन गयी। प्रकृति के इसी ममतामयी छांव में बालक गुसाईं दत्त धीरे- धीरे यहां के सौन्दर्य को शब्दों के माध्यम से काग़ज़ में उकेरने लगा। पिता 'गंगादत्त' उस समय कौसानी चाय बग़ीचे के मैनेजर थे। उनके भाई संस्कृत व अंग्रेज़ी के अच्छे जानकार थे, जो हिन्दी व कुमाँऊनी में कविताएं भी लिखा करते थे। यदाकदा जब उनके भाई अपनी पत्नी को मधुर कंठ से कविताएं सुनाया करते तो बालक गुसाईं दत्त किवाड़ की ओट में चुपचाप सुनता रहता और उसी तरह के शब्दों की तुकबन्दी कर कविता लिखने का प्रयास करता। बालक गुसाईं दत्त की प्राइमरी तक की शिक्षा कौसानी के 'वर्नाक्यूलर स्कूल' में हुई। इनके कविता पाठ से मुग्ध होकर स्कूल इंसपैक्टर ने इन्हें उपहार में एक पुस्तक दी थी। ग्यारह साल की उम्र में इन्हें पढा़ई के लिये अल्मोडा़ के 'गवर्नमेंट हाईस्कूल' में भेज दिया गया। कौसानी के सौन्दर्य व एकान्तता के अभाव की पूर्ति अब नगरीय सुख वैभव से होने लगी। अल्मोडा़ की ख़ास संस्कृति व वहां के समाज ने गुसाईं दत्त को अन्दर तक प्रभावित कर दिया। सबसे पहले उनका ध्यान अपने नाम पर गया। और उन्होंने लक्ष्मण के चरित्र को आदर्श मानकर अपना नाम गुसाईं दत्त से बदल कर 'सुमित्रानंदन' कर लिया। कुछ समय बाद नेपोलियन के युवावस्था के चित्र से प्रभावित होकर अपने लम्बे व घुंघराले बाल रख लिये।[2]
साहित्यिक परिचय
अल्मोड़ा में तब कई साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियां होती रहती थीं जिसमें पंत अक्सर भाग लेते रहते। स्वामी सत्यदेव जी के प्रयासों से नगर में ‘शुद्ध साहित्य समिति‘ नाम से एक पुस्तकालय चलता था। इस पुस्तकालय से पंत जी को उच्च कोटि के विद्वानों का साहित्य पढ़ने को मिलता था। कौसानी में साहित्य के प्रति पंत जी में जो अनुराग पैदा हुआ वह यहां के साहित्यिक वातावरण में अब अंकुरित होने लगा। कविता का प्रयोग वे सगे सम्बन्धियों को पत्र लिखने में करने लगे। शुरुआती दौर में उन्होंने 'बागेश्वर के मेले', 'वकीलों के धनलोलुप स्वभाव' व 'तम्बाकू का धुंआ' जैसी कुछ छुटपुट कविताएं लिखी। आठवीं कक्षा के दौरान ही उनका परिचय प्रख्यात नाटककार गोविन्द बल्लभ पंत, श्यामाचरण दत्त पंत, इलाचन्द्र जोशी व हेमचन्द्र जोशी से हो गया था। अल्मोड़ा से तब हस्तलिखित पत्रिका ‘सुधाकर‘ व ‘अल्मोड़ा अखबार‘ नामक पत्र निकलता था जिसमें वे कविताएं लिखते रहते। अल्मोड़ा में पंत जी के घर के ठीक उपर स्थित गिरजाघर की घण्टियों की आवाज़ उन्हें अत्यधिक सम्मोहित करती थीं। अक़्सर प्रत्येक रविवार को वे इस पर एक कविता लिखते। ‘गिरजे का घण्टा‘ शीर्षक से उनकी यह कविता सम्भवतः पहली रचना है-
नभ की उस नीली चुप्पी पर घण्टा है एक टंगा सुन्दर
जो घड़ी घड़ी मन के भीतर कुछ कहता रहता बज बज कर
दुबले पतले व सुन्दर काया के कारण पंत जी को स्कूल के नाटकों में अधिकतर स्त्री पात्रों का अभिनय करने को मिलता। 1916 में जब वे जाड़ों की छुट्टियों में कौसानी गये तो उन्होंने ‘हार‘ शीर्षक से 200 पृष्ठों का 'एक खिलौना' उपन्यास लिख डाला। जिसमें उनके किशोर मन की कल्पना के नायक नायिकाओं व अन्य पात्रों की मौजूदगी थी। कवि पंत का किशोर कवि जीवन कौसानी व अल्मोड़ा में ही बीता था। इन दोनों जगहों का वर्णन भी उनकी कविताओं में मिलता है।[2]
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
1921 के असहयोग आंदोलन में उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया था, पर देश के स्वतंत्रता संग्राम की गंभीरता के प्रति उनका ध्यान 1930 के नमक सत्याग्रह के समय से अधिक केंद्रित होने लगा, इन्हीं दिनों संयोगवश उन्हें कालाकांकर में ग्राम जीवन के अधिक निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। उस ग्राम जीवन की पृष्ठभूमि में जो संवेदन उनके हृदय में अंकित होने लगे, उन्हें वाणी देने का प्रयत्न उन्होंने युगवाणी (1938) और ग्राम्या (1940) में किया। यहाँ से उनका काव्य, युग का जीवन-संघर्ष तथा नई चेतना का दर्पण बन जाता है। स्वर्णकिरण तथा उसके बाद की रचनाओं में उन्होंने किसी आध्यात्मिक या दार्शनिक सत्य को वाणी न देकर व्यापक मानवीय सांस्कृतिक तत्त्व को अभिव्यक्ति दी, जिसमें अन्न प्राण, मन आत्मा, आदि मानव-जीवन के सभी स्वरों की चेतना को संयोजित करने का प्रयत्न किया गया।
काव्य एवं साहित्य की साधना
पंतजी संघर्षों के एक लंबे दौर से गुज़रे, जिसके दौरान स्वयं को काव्य एवं साहित्य की साधना में लगाने के लिए उन्होंने अपनी आजीविका सुनिश्चित करने का प्रयास किया। बहुत पहले ही उन्होंने यह समझ लिया था कि उनके जीवन का लक्ष्य और कार्य यदि कोई है, तो वह काव्य साधना ही है। पंत की भाव-चेतना महाकवि रबींद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी और श्री अरबिंदो घोष की रचनाओं से प्रभावित हुई। साथ ही कुछ मित्रों ने मार्क्सवाद के अध्ययन की ओर भी उन्हें प्रवृत किया और उसके विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पक्षों को उन्होंने गहराई से देखा व समझा। 1950 में रेडियो विभाग से जुड़ने से उनके जीवन में एक ओर मोड़ आया। सात वर्ष उन्होंने 'हिन्दी चीफ़ प्रोड्यूसर' के पद पर कार्य किया और उसके बाद साहित्य सलाहकार के रूप में कार्यरत रहे।
युग प्रवर्तक कवि
सुमित्रानंदन पंत आधुनिक हिन्दी साहित्य के एक युग प्रवर्तक कवि हैं। उन्होंने भाषा को निखार और संस्कार देने, उसकी सामर्थ्य को उद्घाटित करने के अतिरिक्त नवीन विचार व भावों की समृद्धि दी। पंत सदा ही अत्यंत सशक्त और ऊर्जावान कवि रहे हैं। सुमित्रानंदन पंत को मुख्यत: प्रकृति का कवि माना जाने लगा। लेकिन पंत वास्तव में मानव-सौंदर्य और आध्यात्मिक चेतना के भी कुशल कवि थे।
रचनाकाल
पंत का पल्लव, ज्योत्सना तथा गुंजन का रचनाकाल काल (1926-33) उनकी सौंदर्य एवं कला-साधना का काल रहा है। वह मुख्यत: भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आदर्शवादिता से अनुप्राणिक थे। किंतु युगांत (1937) तक आते-आते बहिर्जीवन के खिंचाव से उनके भावात्मक दृष्टिकोण में परिवर्तन आए। पन्तजी की रचनाओं का क्षेत्र बहुविध और बहुआयामी है। आपकी रचनाओं सा संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-
महाकाव्य
'लोकायतन' कवि सुमित्रानन्दन पन्त का महाकाव्य है। कवि की विचारधारा और लोक-जीवन के प्रति उसकी प्रतिबद्धता इस रचना में अभिव्यक्त हुई है। इस पर कवि को 'सोवियत रूस' तथा उत्तर प्रदेश शासन से पुरस्कार प्राप्त हुआ है। पंत जी को अपने माता-पिता के प्रति असीम-सम्मान था। इसलिए उन्होंने अपने दो महाकाव्यों में से एक महाकाव्य 'लोकायतन' अपने पूज्य पिता को और दूसरा महाकाव्य 'सत्यकाम' अपनी स्नेहमयी माता को, जो इन्हें जन्म देते ही स्वर्ग सिधार गईं, समर्पित किया है।[3] अपनी माँ सरस्वती देवी[4] को स्मरण करते हुए इन्होंने अपना दूसरा महाकाव्य 'सत्यकाम' जिन शब्दों के साथ उन्हें समर्पित किया है, वे द्रष्टव्य हैं-
मुझे छोड़ अनगढ़ जग में तुम हुई अगोचर,
भाव-देह धर लौटीं माँ की ममता से भर !
वीणा ले कर में, शोभित प्रेरणा-हंस पर,
साध चेतना-तंत्रि रसौ वै सः झंकृत कर
खोल हृदय में भावी के सौन्दर्य दिगंतर !
काव्य-संग्रह
'वीणा', 'पल्लव' तथा 'गुंजन' छायावादी शैली में सौन्दर्य और प्रेम की प्रस्तुति है। 'युगान्त', युगवाणी' तथा 'ग्राम्या' में पन्तजी के प्रगतिवादी और यथार्थपरक भावों का प्रकाशन हुआ है। 'स्वर्ण-किरण', 'स्वर्ण-धूलि', 'युगपथ', 'उत्तरा', 'अतिमा', तथा 'रजत-रश्मि' संग्रहों में अरविन्द-दर्शन का प्रभाव परिलक्षित होता है। इनके अतिरिक्त 'कला और बूढ़ा चाँद' तथा 'चिदम्बरा' भी आपकी सम्मानित रचनाएँ हैं। पन्तजी की अन्तर्दृष्टि तथा संवेदनशीलता ने जहाँ उनके भाव-पक्ष को गहराई और विविधता प्रदान की हैं, वहीं उनकी कल्पना-प्रबलता और अभिव्यक्ति-कौशल ने उनके कला-पक्ष को सँवारा है।
रचनाएँ
चिदंबरा 1958 का प्रकाशन है। इसमें युगवाणी (1937-38) से अतिमा (1948) तक कवि की 10 कृतियों से चुनी हुई 196 कविताएं संकलित हैं। एक लंबी आत्मकथात्मक कविता आत्मिका भी इसमें सम्मिलित है, जो वाणी (1957) से ली गई है। चिदंबरा पंत की काव्य चेतना के द्वितीय उत्थान की परिचायक है। प्रमुख रचनाएं इस प्रकार है:-
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साहित्यिक विशेषताएँ
छायावाद को मुख्यतः ‘प्रेरणा का काव्य’ मानने वाले इस कोमल-प्राण कवि ने 'हार' नामक उपन्यास के लेखन से अपनी रचना-यात्रा आरंभ की थी, जो ‘मुक्ताभ’ के प्रणयन तक जारी रही। मुख्यतः कवि-रूप में प्रसिद्ध होने के अलावा ये 'प्रथम कोटि के आलोचक, विचारक और गद्यकार' थे। इन्होंने मुक्तक, लंबी कविता, गद्य-नाटिका, पद्य-नाटिका, रेडियो-रूपक, एकांकी, उपन्यास, कहानी इत्यादि जैसी विभिन्न विधाओं में अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं और लोकायतन तथा सत्यकाम जैसे वृहद महाकाव्य भी लिखे हैं। विधाओं की विविधता की दृष्टि से इनके द्वारा संपादित 'रूपाभ पत्रिका' (सन् 1938 ईस्वी) की संपादकीय टिप्पणियाँ और मधुज्वाल की भावानुवादाश्रित कविताएँ भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। आशय यह कि विभिन्न विधाओं में उपलब्ध इनके विपुल साहित्य को एक नातिदीर्घ रचना-संचयन में प्रस्तुत करना कठिन कार्य है। रचनाओं की विपुलता के साथ ही यह भी लक्ष्य करने योग्य है कि प्रकृति और नारी–सौंदर्य से रचनारंभ करनेवाले पंत जी मानव, सामान्य जन और समग्र मानवता की कल्याण-कामना से सदैव जुड़े रहे। इनकी मान्यता थी कि ‘आने वाला मानव निश्चिय ही न पूर्व का होगा, न पश्चिम का।’ ये सार्वभौम मनुष्यता के विश्वासी थे। अध्यात्म, अंतश्चेतना, प्रेम, समदिक् संचरण इत्यादि जैसा संकल्पनाओं से भावाकुल पंत के लेखन-चिन्तन का केन्द्र-बिन्दु हमेशा ‘लोक’ पक्ष ही रहा, जो लोकायतन के नामकरण से भी संकेतित होता है। पंत-काव्य का तृतीय चरण, जो ‘नवीन सगुण’ के नाम से चर्चित है और जिसे हम शुभैषणा-सदिच्छा का स्वस्ति-काव्य कह सकते हैं, इसी ‘लोक’ के मंगल पर केन्द्रित है।[3]
प्रकृति-प्रेमी कवि
'उच्छास' से लेकर 'गुंजन' तक की कविता का सम्पूर्ण भावपट कवि की सौन्दर्य-चेतना का काल है। सौन्दर्य-सृष्टि के उनके प्रयत्न के मुख्य उपादान हैं- प्रकृति, प्रेम और आत्म-उद्बोधन। अल्मोड़ा की प्राकृतिक सुषमा ने उन्हें बचपन से ही अपनी ओर आकृष्ट किया। ऐसा प्रतीत होता है जैसे माँ की ममता से रहित उनके जीवन में मानो प्रकृति ही उनकी माँ हो। उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा के पर्वतीय अंचल की गोद में पले बढ़े पंत जी स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि उस मनोरम वातावरण का इनके व्यक्तित्व पर गंभीर प्रभाव पड़ा। कवि या कलाकार कहां से प्रेरणा ग्रहण करता है इस बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए पंत जी कहते हैं, संभवत: प्रेरणा के स्रोत भीतर न होकर अधिकतर बाहर ही रहते हैं। अपनी काव्य यात्रा में पन्त जी सदैव सौन्दर्य को खोजते नजर आते हें। शब्द, शिल्प, भाव और भाषा के द्वारा कवि पंत प्रकृति और प्रेम के उपादानों से एक अत्यंत सूक्ष्य और हृदयकारी सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं, किंतु उनके शब्द केवल प्रकृति-वर्णन के अंग न होकर एक दूसरे अर्थ की गहरी व्यंजना से संयोजित हैं। उनकी रचनाओं में छायावाद एवं रहस्यवाद का समावेश भी है। साथ ही शेली, कीट्स, टेनिसन आदि अंग्रेज़ी कवियों का प्रभाव भी है। मेरे मूक कवि को बाहर लाने का सर्वाधिक श्रेय मेरी जन्मभूमि के उस नैसर्गिक सौन्दर्य को है जिसकी गोद में पलकर मैं बड़ा हुआ जिसने छुटपन से ही मुझे अपने रूपहले एकांत में एकाग्र तन्मयता के रश्मिदोलन में झुलाया, रिझाया तथा कोमल कण्ठ वन-पखियों ने साथ बोलना कुहुकन सिखाया। पंतजी को जन्म के उपरांत ही मातृ-वियोग सहना पड़ा।[5]
भाव पक्ष
पन्तजी के भाव-पक्ष का एक प्रमुख तत्त्व उनका मनोहारी प्रकृति चित्रण है। कौसानी की सौन्दर्यमयी प्राकृतिक छटा के बीच पन्तजी ने अपनी बाल-कल्पनाओं को रूपायित किया था। प्रकृति के प्रति उनका सहज आकर्षण उनकी रचनाओं के बहुत बड़े भाग को प्रभावित किए हुए है। प्रकृति के विविध आयामों और भंगिमाओं को हम पन्त के काव्य में रूपांकित देखते हैं। वह मानवी-कृता सहेली है, भावोद्दीपिका है, अभिव्यक्ति का आलम्बन है और अलंकृता प्रकृति-वधू भी है। इसके अतिरिक्त प्रकृति कवि पन्त के लिए उपदेशिका और दार्शनिक चिन्तन का आधार भी बनी है। कवि पन्त को सामान्यतया कोमल-कान्त भावनाओं और सौन्दर्य का कवि समझा जाता है किन्तु जीवन के यथार्थों से सामना होने पर कवि में जीवन के प्रति यथार्थपरक और दार्शनिक दृष्टिकोण का विकास होता गया है। सर्वप्रथम पन्त मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित हुए, जिसका प्रभाव उनकी 'युगान्त', 'युगवाणी' आदि रचनाओं में परिलक्षित होता है। गाँधीवाद से भी आप प्रभावित दिखते हैं। 'लोकायतन' में यह प्रभाव विद्यमान है। महर्षि अरविन्द की विचारधारा का भी आप पर गहरा प्रभाव पड़ा। 'गीत-विहग' रचना इसका उदाहरण है। सौन्दर्य और उल्लास के कवि पन्त को जीवन का निराशामय विरूप-पक्ष भी भोगना पड़ा और इसकी प्रतिक्रिया 'परिवर्तन' नामक रचना में दृष्टिगत होती है-
अखिल यौवन के रंग उभार हड्डियों के हिलते कंकाल,
खोलता इधर जन्म लोचन मूँदती उधर मृत्यु क्षण-क्षण।
पन्तजी के काव्य में मानवतावादी दृष्टि को भी सम्मानित स्थान प्राप्त है। वह मानवीय प्रतिष्ठा और मानव-जाति के भावी विकास में दृढ़ विश्वास रखते हैं। 'द्रुमों की छाया' और 'प्रकृति की माया' को छोड़कर जो पन्त 'बाला के बाल-जाल' में 'लोचन उलझाने' को प्रस्तुत नहीं थे, वही मानव को विधाता की सुन्दरतम कृति स्वीकार करते हैं-
सुन्दर है विहग सुमन सुन्दर, मानव तुम सबसे सुन्दरतम।
वह चाहते हैं कि देश, जाति और वर्गों में विभाजित मनुष्य की केवल एक ही पहचान हो - मानव।
भाषा-शैली
कवि पन्त का भाषा पर असाधारण अधिकार है। भाव और विषय के अनुकूल मार्मिक शब्दावली उनकी लेखनी से सहज प्रवाहित होती है। यद्यपि पन्त की भाषा का एक विशिष्ट स्तर है फिर भी वह विषयानुसार परिवर्तित होती है। पन्तजी के काव्य में एकाधिक शैलियों का प्रयोग हुआ है। प्रकृति-चित्रण में भावात्मक, आलंकारिक तथा दृश्य विधायनी शैली का प्रयोग हुआ है। विचार-प्रधान तथा दार्शनिक विषयों की शैली विचारात्मक एवं विश्लेषणात्मक भी हो गई है। इसके अतिरिक्त प्रतीक-शैली का प्रयोग भी हुआ है। सजीव बिम्ब-विधान तथा ध्वन्यात्मकता भी आपकी रचना-शैली की विशेषताएँ हैं।
अलंकरण
पन्तजी ने परम्परागत एवं नवीन, दोनों ही प्रकार के अलंकारों का भव्यता से प्रयोग किया है। बिम्बों की मौलिकता तथा उपमानों की मार्मिकता हृदयहारिणी है। रूपक, उपमा, सांगरूपक, मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय तथा ध्वन्यर्थ-व्यंजना का आकर्षक प्रयोग आपने किया है।
छंद
पन्तजी ने परम्परागत छन्दों के साथ-साथ नवीन छंदों की भी रचना की है। आपने गेयता और ध्वनि-प्रभाव पर ही बल दिया है, मात्राओं और वर्णों के क्रम तथा संख्या पर नहीं। प्रकृति के चितेरे तथा छायावादी कवि के रूप में पन्तजी का स्थान निश्चय ही विशिष्ट है। हिन्दी की लालित्यपूर्ण और संस्कारित खड़ी बोली भी पन्तजी की देन है। पन्तजी विश्व-साहित्य में भी अपना स्थान बना गए हैं।
पुरस्कार
सुमित्रानंदन पंत को पद्म भूषण (1961) और ज्ञानपीठ पुरस्कार (1968) से सम्मानित किया गया। कला और बूढ़ा चाँद के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, लोकायतन पर 'सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार' एवं 'चिदंबरा' पर इन्हें 'भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार' प्राप्त हुआ।
संग्रहालय
उत्तराखंड राज्य के कौसानी में महाकवि पंत की जन्म स्थली को सरकारी तौर पर अधिग्रहीत कर उनके नाम पर एक राजकीय संग्रहालय बनाया गया है, जिसकी देखरेख एक स्थानीय व्यक्ति करता है। इस स्थल के प्रवेश द्वार से लगे भवन की छत पर महाकवि की मूर्ति स्थापित है। वर्ष 1990 में स्थापित इस मूर्ति का अनावरण वयोवृद्ध साहित्यकार तथा इतिहासवेत्ता पंडित नित्यनंद मिश्र द्वारा उनके जन्म दिवस 20 मई को किया गया था। महाकवि सुमित्रानंदन पंत का पैत्रक ग्राम यहां से कुछ ही दूरी पर है; परन्तु वह आज भी अनजाना तथा तिरस्कृत है। संग्रहालय में महाकवि द्वारा उपयोग में लायी गयी दैनिक वस्तुएँ यथा शॉल, दीपक, पुस्तकों की अलमारी तथा महाकवि को समर्पित कुछ सम्मान-पत्र, पुस्तकें तथा हस्तलिपि सुरक्षित हैं।
मृत्यु
कौसानी चाय बाग़ान के व्यवस्थापक के परिवार में जन्मे महाकवि सुमित्रानंदन पंत की मृत्यु 28 दिसम्बर, 1977 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में हुई।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सुमित्रानंदन पंत : प्रकृति के सुकोमल कवि (हिंदी) वेबदुनिया हिंदी। अभिगमन तिथि: 13 सितम्बर, 2013।
- ↑ 2.0 2.1 तिवारी, चंद्रशेखर। कौसानी के कवि पंत (हिंदी) हिलवाणी। अभिगमन तिथि: 13 सितम्बर, 2013।
- ↑ 3.0 3.1 सुमित्रानन्दन पंत रचना संचयन (हिन्दी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 13 सितम्बर, 2013।
- ↑ पीहर का पुकारू नाम 'सरुली'
- ↑ वियोगी होगा पहला कवि... (हिन्दी) देशबंधु। अभिगमन तिथि: 13 सितम्बर, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
- सुमित्रानंदन पंत – जीवन एवं रचना संसार
- सुमित्रानंदन पंत
- जन्मभूमि कौसानी से.....
- Sumitranandan Pant (सुमित्रानंदन पंत)
- Photogallery Of Sumitranandan Pant Gallery, Kausani