पल्लव -सुमित्रानन्दन पंत

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पल्लव -सुमित्रानन्दन पंत
पल्लव कविता संग्रह का आवरण पृष्ठ
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कवि सुमित्रानंदन पंत
मूल शीर्षक 'पल्लव'
प्रकाशक 'राजकमल प्रकाशन'
ISBN 81-267-0335-5
देश भारत
पृष्ठ: 156
भाषा हिन्दी
प्रकार कविता संग्रह

पल्लव भारत के प्रसिद्ध साहित्यकार सुमित्रानंदन पंत के प्रारम्भिक काव्य-प्रयोगों की परिणति है। यह एक कविता संग्रह है, जिसका प्रकाशन 'राजकमल प्रकाशन' द्वारा किया गया था। इसमें संकलित रचनाओं की संख्या 32 है, जो 1918 ई. से लेकर 1924 ई. तक की कृतियाँ है। 'विज्ञापन' में पंत ने लिखा है कि उसने प्रत्येक वर्ष क़ी 2-3 रचनाएँ ग्रंथ में संग्रहीत कर दी हैं। इसमें सन्देह नहीं कि इस रचना से पंत के काव्य-विकास की प्रगति स्पष्टत: सूचित होती है। श्रेष्ठतम रचनाएँ अंतिम चार वर्षों (1921-1925 ई.) की कृतियाँ हैं। इनमें कवि रसबोध की परिपूर्णता प्राप्त कर सका है। 'पल्लव' की अंतिम कविता 'परिवर्त्तन' कवि के जीवन दर्शन तथा काव्य-प्रयास में एक नये मोड़ की सूचना देती है और 'छाया-काल' शीर्षक अंतिम रचना में अब तक के जीवन का आह्वान स्वीकार किया है, इस मंगलाशा साथ कि,

"दिव्य हो भोला बालापन, नव्य जीवन, पर, परिवर्त्तन।
स्वस्ति, मेरे अनंग नूतन। पुरातन मदन-दहन॥[1]"

सच तो यह कि 'पल्लव' सुमित्रानंदन पंत की काव्य-प्रतिभा का गौरीशंकर है और काव्य-पारखियों ने उसे इसी रूप में ग्रहण किया है। कल्पना, कला, मूर्तिमान, भाषा - माधुर्य तथा अभिव्यंजना की प्रौढ़ता में पंत ने इस संकलन में अपनी सभी पहली रचनाओं को पीछे छोड़ दिया है। इस ग्रंथ को हम पंत के कल्पनाशील किशोर जीवन का सर्वोच्च उत्कर्ष कह सकते हैं।

पल्लव में संकलित कविताएँ

'पल्लव' की रचनाओं को हम कई श्रेणियों में रख सकते हैं -

प्रथम श्रेणी

पहली श्रेणी विप्रलम्भ-प्रधान रचनाओं की है, जिनमें 'उच्छ्वास' (1922), 'आँसू' (1921), 'स्मृति' (1922) शीर्षक रचनाएँ आती हैं। इनमें 'उच्छ्वास' कवि की पहली प्रकाशित रचना भी है। इन रचनाओं को हम 'ग्रंथि' की भावभूमि से जोड़ सकते हैं यद्यपि अभिव्यंजना के क्षेत्र में ये उससे कहीं आगे बढ़ी रचनाएँ हैं। 'पल्लव' के 'प्रवेश' (भूमिका) में कवि ने 'आँसू' की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर इस नयी भूमि भी मिलती है। इन्हीं रचनाओं के आधार पर प्रारम्भिक समीक्षकों ने पंत को विप्रलम्भ का कवि कहा है और उसके काव्य में उसी की पंक्तियों-'वियोगी होगा पहला कवि, आह से निकला होगा गान।' को रचनाओं चरितार्थ करने का प्रयत्न किया है।

द्वितीय श्रेणी

हम खड़ी बोली से अपरिचित हैं, उसमें हमने अपने प्राणों का संगीत अभी नहीं भरा, उसके शब्द हमारे हृदय के मधु से सिक्त होकर अभी सरस नहीं हुए, वे केवल नाम मात्र हैं, उनमें हमें रूप-रस गंध भरना होगा। उनकी आत्मा से अभी हमारी आत्मा का साक्षात्कार नहीं हुआ, उनके स्पन्दन से हमारा स्पन्दन नहीं मिला, वे अभी हमारे मनोवेगों के चिरालिंगन-पाश में नहीं बँधे, इसीलिए उनका स्पर्श अभी हमें रोमांचित नहीं करता, वे हमें रसहीन, गन्धहीन लगते हैं। जिस प्रकार बड़ी चुवाने से पहले उड़द की पीठी को मथ कर हलका तथा कोमल कर लेना पड़ता है, उसी प्रकार कविता से स्वरूप में भावों के ढाँचे में, ढालने के पूर्व भाषा को भी हृदय के ताप में गला कर कोमल, करुण, सरस, प्रांजल कर लेना पड़ता है।

- पंत[2]

दूसरी श्रेणी की रचनाएँ 'वीणा' काल की अवशिष्ट रचनाएँ हैं। ये रचनाएँ हैं 'विनय', 'वसंतश्री', 'मुस्कान', 'निर्झर-गान', 'सोने का गान', 'निर्झरी', आकांक्षा', 'याचना' और 'स्याही की बूँद'। इनमें हमें बालकवि का स्वप्न-विलास और तुतला कण्ठस्वर ही अधिक मिलता है। सरस, प्रसादिक भावाभिव्यक्ति से लेकर 'स्याही की बूँद' रचना की दुरूह कल्पना तक, जो काव्यक्रीड़ा जैसी लगती है, इन रचनाओं का भावजगत फैला है। जिज्ञासा, वैचित्र्य, अद्भूत के प्रति आकर्षण और कोमलता की साधना का वैशिष्टय इन रचनाओं को स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान करता है परंतु इन रचनाओं में कवि का किशोर कण्ठ अभी फूटा नहीं है।

तृतीय श्रेणी

तीसरी कोटि की रचनाएँ 'परिवर्त्तन' को छोड़ कर शेष रचनाएँ हैं, जिन्हें पूर्व पंत की श्रेष्ठतम कृतियाँ कहा जा सकता है। इन रचनाओं में अंग्रेजी के रोमांटिक कवियों, विशेषत: वर्डस्वर्थ और शेली की रचनाओं से स्पर्द्धा स्पष्ट रूप में दिखलाई देती है। कल्पना का अबाध और अप्रतिहत प्रवाह इन रचनाओं की विशेषता है। इससे जहाँ भावोन्मुक्ति की सूचना मिलती है, वही किशोर कवि के दुस्साहस और असंयम का भी पता चलता है। 'छायावाद' शब्द से यही रचनाएँ परिलक्षित थीं, जिनमें द्विवेदीयुग का प्रसार माना है परंतु 'प्रवेश' में उनका विद्रोह और चुनौती का भाव भी स्पष्ट हो जाता है। इन रचनाओं में जहाँ चित्रमय भाषा-शैली और स्वरातमक माधुर्य का नया वैभव है, वहाँ भावों की कोमलता और नवीनता भी द्रष्टव्य है। 'बीचिविलास', 'अनंग', 'नक्षत्र', 'स्वप्न' और 'छाया' इस स्वच्छन्दतावाद अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ पल्लवित हुआ है। इनके अतिरिक्त 'मौन निमंत्रण', 'विश्वछवि' और 'विश्वव्याप्ति' जैसी रचनाओं में कवि अद्भूत और प्रकृति का अंचल पकड़ कर रहस्यवाद की अवतारण करता है और अपने प्राकृतिक संवेदनों में अतीन्द्रिय रहस्यलोक का संकेत देता है। 'मौन-निमंत्रण' पंत की अत्यंत लोकप्रिय कविता है, जिसमें प्रकृति के माध्यम से रहस्यसत्ता की व्यंजना की गयी है। ये सभी रचनाएँ प्रकृति-व्यपार को विषय बनाती हैं परंतु कवि शीध्र ही बाह्य प्रकृति का आलम्बन छोड़कर कल्पित रूपजगत में खो जाता है। भावसाम्य के आधार पर उसके कल्पना-जगत में असंख्य फूल खिल जाते हैं और उसकी कवि-प्रतिभा किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं मानती। पहली कोटि की रचनाओं में यदि कवि मानवीय प्रेम और वियोग का कवि है तो इस कोटि रचनाओं में वह प्रकृति को भावों से रंग कर नया रूप रंग और नया सार्थकता देने की अपार क्षमता है।

चतुर्थ श्रेणी

चौथी कोटि का निर्माण 'परिवर्त्तन' शीर्षक एकमात्र कविता में मिलता है। यह 'पल्लव' की सर्वश्रेष्ठ रचना समझी जाती है परंतु पंत के सम्पूर्ण काव्य में भी यह प्रथम पंक्ति में रहेगी। इस रचना में अनेक स्वतंत्र भावानुबन्ध हैं और पंत सामान्य द्वान्द्वबोध से ऊपर उठकर विराठ चित्रों और गम्भीरतम दार्शनिक विचारणा के क्षेत्र में पहुँच जाता है। इस रचना को हम महाकाव्यात्मक रचना कह सकते हैं। इसी में पंत का कोमल नारी-कण्ठ पहली बार पुरुष-कण्ठ में बदला है। तारुण्य के पंख खोलते हुए पंत ने इस रचना में निस्सीम नीलाकाश में उन्मक्त उड़ान भरी है।

भाषा और शैली

भाषा और शैली की दृष्टि से 'पल्लव' स्वयं एक अभिनव जगत् है। उसमें संस्कृत के समस्त शब्दकोश को खोज कर मधुर, सानुप्रात तथा साभिप्राय शब्दों का उपयोग हुआ है। 'प्रवेश' में कवि ने लिखा है- "हम खड़ी बोली से अपरिचित हैं, उसमें हमने अपने प्राणों का संगीत अभी नहीं भरा, उसके शब्द हमारे हृदय के मधु से सिक्त होकर अभी सरस नहीं हुए, वे केवल नाम मात्र हैं, उनमें हमें रूप-रस गंध भरना होगा। उनकी आत्मा से अभी हमारी आत्मा का साक्षात्कार नहीं हुआ, उनके स्पन्दन से हमारा स्पन्दन नहीं मिला, वे अभी हमारे मनोवेगों के चिरालिंगन-पाश में नहीं बँधे, इसीलिए उनका स्पर्श अभी हमें रोमांचित नहीं करता, वे हमें रसहीन, गन्धहीन लगते हैं। जिस प्रकार बड़ी चुवाने से पहले उड़द की पीठी को मथ कर हलका तथा कोमल कर लेना पड़ता है, उसी प्रकार कविता से स्वरूप में भावों के ढाँचे में, ढालने के पूर्व भाषा को भी हृदय के ताप में गला कर कोमल, करुण, सरस, प्रांजल कर लेना पड़ता है।'[3] इस मंतव्य में स्वयं कवि की स्वर-साधना की झंकार प्रकट है। पुल्लिंग-स्त्रीलिंग प्रयोग तथा संयुक्त क्रियाओं के क्षेत्र में कवि ने भावाभिव्यंजना के लिए आयी है। कवि मुक्त-छन्द का समर्थक नहीं है, ऐसा भूमिका से जान पड़ता है, परंतु हिन्दी की प्रकृति के अनुरूप प्रथित मात्रिक छ्न्दों को चुन कर उनमें पद-परिवर्तन के द्वारा नयी भावर्भोगमा भरने में वह समर्थ सिद्ध हुआ है। संस्कृत की कोमलकांत पदावली का आदर्श सामने रखते हुए पंत ने हिन्दी के कण्ठ की रक्षा की है। छ्न्द-विधान पर विशेषत: अंग्रेज़ी काव्य का प्रभाव परिलक्षित है। तात्पर्य यह कि 'पल्लव' के साथ खड़ी बोली के काव्य का कण्ठ फूटता है और वह समर्थ अभिव्यंजना के साहसी अभियान की दिशा में अग्रसर होता है।

पल्लव का महत्त्व

भाषा, छन्द और प्रतीक-विधान के क्षेत्र में नये कवि का दृष्टिकोण द्विवेदीयुग के कवि से भिन्न है, इसका दो-टूक पता 'प्रवेश' से लगता है, जिसका आधुनिक काव्य समीक्षा में महत्त्वपूर्ण स्थान है। कॉलेरिज और वर्डस्वर्थ की लिरिकल बैलेड्स की भूमिका की भाँति 'पल्लव' की भूमिका भी काव्य-जगत की ऐतिहासिक घटना है। 'पल्लव' का कवि की रचनाओं में क्या स्थान है, यह विवादग्रस्त प्रश्न है। कुछ विद्वान् के विचार में 'पल्लव' की ऊँचाई पर पंत फिर नहीं उठ सके-वे विचारों और वादों के जगत् में खो गये और उन्होंने अपनी सौन्दर्यांवेषी कवि-प्रतिभा को पंगु बना लिया। परंतु 'पल्लव' में पंत की सौन्दर्य दृष्टि प्रकृति पर केन्द्रित थी और यह दृष्टि नये-नये सन्दर्भों से पुष्ट होकर उनके काव्य में बराबर सम्पन्न होती गयी है। उत्तर रचनाओं में उन्होंने अपनी अबाध कल्पना को लगाम दी है। परन्तु उनका भावप्रवाण कल्पनाशील व्यक्तित्व उन्हें तथ्यकथन की निरंतर उबारता रहा है। नि:सन्देह 'पल्लव' में पंत के किशोर स्वप्न मूर्तिमान हैं और परवर्त्ती काव्य में उसने इन स्वप्नों को जग के सुख-दुख से मांसल बनाना चाहा है। जो हो, वय: सन्धिक, कल्पनाप्रवण और विशुद्धताग्रही काव्यरसिकों के लिए 'पल्लव' छायावाद का सर्वोच्च शिखर ही रहेगा।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दिसंबर 1925
  2. पल्लव, प्रवेश पृष्ठ 45-46
  3. पल्लव प्रवेश पृष्ठ 45-46

धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 334-335।

बाहरी कड़ियाँ

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