"राजा हरिश्चंद्र (फ़िल्म)": अवतरणों में अंतर

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'''सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र'''<br />
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'''राजा हरिश्चंद्र''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Raja Harishchandra'') [[भारतीय सिनेमा]] की पहली फ़िल्म है जो अवाक (मूक) थी। यह फ़िल्म भारतीय सिनेमा के जनक माने जाने वाले [[दादा साहेब फाल्के]] ने1913 में बनाई थी। ‘राजा हरिश्चंद्र’ के रिलीज़ होते ही चारों ओर धूम मच गई। [[भारत]] ने पूरी लम्बाई की पारम्परिक फ़िल्मों के जगत् में कदम रख दिया था। धुंडीराज गोंविद फाल्के यानी दादा साहेब फाल्के इस फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक थे और इस तरह वे भारतीय फ़िल्मों के पितामह बन गए।  इस फ़िल्म ने खूब धूम मचाई और फाल्के को इसकी अतिरिक्त प्रिंट्स बनवाकर गांव-गांव में दिखाना पड़ा।
==कथानक==
फ़िल्म का कथानक [[हिंदू]] पौराणिक ग्रंथों में वर्णित महान् [[हरिश्चंद्र|सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र]] के जीवन पर आधारित था।
==कलाकार==
*दत्तत्रेय दामोदर दबके
*सालुंके
*भालाचंद्र डी. फ़ाल्के
*जी.वी. सेन
==प्रदर्शन तिथि==
[[21 अप्रैल]] [[1913]] को ओलम्पिया थियेटर, [[मुम्बई]] में प्रीमियर हुआ और [[13 मई]], 1913 को फ़िल्म आम लोगों के लिए प्रदर्शित की गई।


*[[इक्ष्वाकु वंश]] में [[त्रिशंकु]] नामक राजा तथा उनकी पत्नी सत्यवती के पुत्र का नाम हरिश्चंद्र था। हरिश्चंद्र ने समस्त पृथ्वी को जीतकर राजसूय यज्ञ किया।<ref>महाभारत, सभापर्व, 12|10-19</ref> राजा हरिश्चंद्र धार्मिक, सत्यप्रिय तथा न्यायी थे। एक बार उन्होंने स्त्रियों का आर्त्तनाद सुना। वे रक्षा के लिए पुकार रही थीं। हरिश्चंद्र ने उनकी रक्षा के निमित्त पग पढ़ाया तो उसके ह्रदय मे विघ्नराज (संपूर्ण कार्यों में बाधा स्वरूप) ने प्रवेश किया, क्योंकि वह आर्त्तनाद उन विधाओं का ही था, जिनका [[विश्वामित्र]] अध्ययन करते थे। मौन और आत्मसंयम से जिन विधाओं को वे पहले सिद्ध नहीं कर पाये थे, वह नारी-रूप में उनके भय से पीड़ित होकर रो रही थीं। रुद्रकुमार विघ्न-राज ने उनकी सहायता के निमित्त ही राजा के ह्रदय में प्रवेश किया था। हरिश्चंद्र ने अभिमानपूर्वक कहा—'वह कौन पापात्मा है जो हमारे राज्य में किसी को सता रहा है?' विश्वामित्र ने उसके अभिमान से रुष्ट होकर उससे पूछा—'दान किसे देना चाहिए? किसकी रक्षा करनी चाहिए और किससे युद्ध करना चाहिए?' 
 
*राजा ने तीनों प्रश्नों के उत्तर क्रमश: ये दिये—
 
#ब्राह्मण अथवा आजीविकाविहीन को,
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
#भयभीत प्राणी को, तथा
#शत्रु से। विश्वामित्र ने ब्राह्माण होने के नाते राजा से उसका समस्त दानस्वरूप ले लिया। तदनंतर उसे उस राज्य की सीमाएं छोड़कर चले जाने को कहा और यह भी कहा कि एक माह के उपरांत हरिश्चंद्र उनके [[राजसूय यज्ञ]] के लिए दीक्षास्वरूप धन भी प्रदान करे। राजा अपनी पत्नी [[तारामती]] (शैव्या) तथा पुत्र रोहिताश्व को साथ ले पैदल ही [[काशी]] की ओर चल दिया। तारामती धीरे-धीरे चल रही थी, अतः क्रुद्ध मुनि ने उस पर डंडे से प्रहार किया। कालांतर में वे लोग काशी पहुंचे। वहां विश्वामित्र दक्षिणा लेने के निमित्त पहले से ही विद्यमान थे। कोई और मार्ग न देख राजा ने शैव्या और [[रोहिताश्व]] को एक ब्राह्मण के हाथों बेच दिया। दक्षिणा के लिए धन पर्याप्त न होने के कारण स्वयं चांडाल के हाथों बिक गया। वास्तव में धर्म ने ही चांडाल का रूप धारण कर रखा था। हरिश्चंद्र का कार्य शवों के वस्त्र आदि एकत्र करना था। उसे श्मशान भूमि में ही रहना भी पड़ता था। कुछ समय उपरांत किसी सर्प ने रोहिताश्व का दंशन कर लिया। उसका शव लेकर शैव्या श्मशान पहुँची। हरिश्चंद्र और शैव्या ने परस्पर पहचाना तो अपने-अपने कष्ट की गाथा कह सुनायी। तदनंतर चिता तैयार करके बालक रोहिताश्व के साथ ही हरिश्चंद्र और शैव्या ने आत्मदाह का निश्चय कर किया। धर्म ने प्रकट होकर उन्हें प्राण त्यागने से रोका।
*[[इन्द्र]] ने प्रकट होकर उन्हें प्राण त्यागने से रोका। इन्द्र ने प्रकट होकर प्रसन्नतापूर्वक उन्हें स्वर्ग-लोक चलने के लिए कहा किंतु चांडाल की आज्ञा के बिना हरिश्चंद्र कहीं भी जाने के लिए तैयार नहीं था। रोहिताश्व चिता से जीता-जागता उठ खड़ा हुआ। धर्म ने बताया कि उसी ने चांडाल का रूप धारण किया था। तदुपरांत विश्वामित्र ने प्रसन्न होकर रोहिताश्व को [[अयोध्या]] का राजा घोषित कर उसका राज्य-तिलक किया। राजा हरिश्चंद्र ने शैव्या तथा अपने राज्य के अन्य अनेक व्यक्तियों सहित स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया।
*हरिश्चंद्र के पुरोहित [[वसिष्ठ]] थे। वे बारह वर्ष तक जल में रहने के बाद बाहर निकले तो हरिश्चंद्र के ऐहिक कष्ट तथा स्वर्ग गमन के विषय में सुनकर बहुत क्रुद्ध हुए। उन्होंने विश्वामित्र को तिर्यक-योनि प्राप्त करने का शाप दिया। विश्वामित्र ने भी वसिष्ठ को वही शाप दिया, विश्वामित्र ने क्रमशः चील और बगुले का रूप प्राप्त किया। वे दोनों परस्पर लड़ने लगे, जिससे समस्त [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] तहस-नहस होने लगी। [[ब्रह्मा]] ने दोनों का पक्षी-रूप वापस ले लिया और उन्हें शांत कर फिर से मित्रता के सूत्र से आबद्ध किया।<ref>म. पु., 7-9|-</ref>
*एक बार [[इन्द्रलोक]] में [[विश्वामित्र]] [[वसिष्ठ]] से मिले। विश्वामित्र ने उनसे पूछा कि उन्हें इन्द्रलोक पहुचंने का पुण्य कैसे प्राप्त हुआ। वसिष्ठ ने कहा—'हरिश्चंद्र अत्यंत सत्यवादी हैं—उन्हीं के पुण्यों से इन्द्रलोक की प्राप्ति हुई है।' विश्वामित्र ने शेष घटना को स्मरण करके हरिश्चंद्र को मिथ्यावादी कहा। घर लौटकर उन्होंने अपना कथन सिद्ध करने का निश्चय किया। एक दिन राजा मृगया के लिए वन गये, वहां एक सुंदरी रो रही थी। उससे ज्ञात हुआ कि वह सिद्धिरुपिणी थी। उसे प्राप्त करने के लिए विश्वामित्र घोर तप कर रहे थे, अतः वह क्लेश पा रही थी। राजा ने उसका दुःख हरने के लिए विश्वामित्र को तपस्या छोड़ने के लिए कहा।
*विश्वामित्र  तपस्या भंग होने से बहुत क्रुद्ध हो उठे। उन्होंने एक भंयकर दानव को शूकर का रूप देकर राजा के राज्य में भेजा। प्रजा के त्रास की निवृति के लिए राजा धनुष-वाण लेकर उसका पीछा करते हुए जंगल में [[गंगा नदी|गंगा]]] तटीय एक तीर्थ स्थान पर पहुंच गये। नगर का मार्ग पूछते हुए राजा को विश्वामित्र ने तीर्थस्थान करने के लिए प्रेरित किया। तदनंतर दक्षिणा स्वरूप अपने मायावी पुत्र के विवाह में राजा ने समस्त राज्य देने को कहा। राजा दान देने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध थे। अतः उन्होंने राज्य प्रदान किया। विश्वामित्र ने ब्राह्मण के रूप ही फिर ढाई भार स्वर्ण की दक्षिणा मांगी। राजा ने दक्षिणा देना का वायदा तो कर लिया किंतु उसके पास स्वर्ण अथवा मुद्रा नहीं थी। अतः उसने पत्नी के कहने पर उसे बेचने का निश्चय किया।
*विश्वामित्र ने एक बूढ़े ब्राह्मण का रूप धरकर उसकी पत्नी तथा बालक [[रोहिताश्व]] को ख़रीद लिया तथा एक चांडाल के हाथों राजा को बेचकर पर्याप्त मुद्रा प्राप्त कर ली। चांडाल का नाम वीरबाहु था। उसने राजा को श्मशान में मृत व्यक्तियों के वस्त्र लेने के लिए नियुक्त कर दिया। एक दिन रोहिताश्व बच्चों के साथ खेल रहा था। सांप के डंस लेने से उसका निधन हो गया। मां अत्यंत दीनहीन स्थिति में विलाप करने लगी। नगर के लोग एकत्र हो गये। उनके परिचय पूछने पर उसने कोई उत्तर नहीं दिया, अतः सबने उसे मायावी राक्षसी जानकर चांडाल से कहा कि उसका वध कर दे। चांडाल ने पाशबद्ध करके हरिश्चंद्र को वध करने के निमित्त बुलाया।
*शैव्या ने अपने पुत्र का दाह-संस्कार करने तक उसे रुकने के लिए कहा। रोहिताश्व को देखने किए उपरांत राजा ने रानी को तथा शैव्या ने चांड़ाल वेशी राजा को पहचाना। दोनों ने विलाप करते हुए बालक का शव चिता पर रखा। तभी [[इन्द्र]], [[विष्णु]] तथा विश्वामित्र सहित समस्त देवताओं ने वहां प्रकट होकर उन दोनों को सहनशीलता की सराहना की। धर्म ने हरिश्चंद्र को स्वर्ग प्रदान किया। राजा चांडाल से आज्ञा लेना नहीं भूले। धर्म ने कहा—'वास्तव में तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए मैने ही ब्राह्माण, चांडाल तथा सर्प का रूप धारण किया था।' उनके आशीर्वाद से रोहिताश्व भी पुनर्जीवित हो उठा। राजा के कहने से उसकी समस्त प्रजा को भी स्वर्ग की प्राप्ति हुई।<ref>भागवत,7|17-27 </ref>
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==संबंधित लेख==
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11:09, 1 अगस्त 2017 के समय का अवतरण

राजा हरिश्चंद्र (फ़िल्म)
फ़िल्म राजा हरिश्चंद्र का एक दृश्य
फ़िल्म राजा हरिश्चंद्र का एक दृश्य
निर्देशक दादा साहब फाल्के
निर्माता दादा साहब फाल्के
लेखक दादा साहब फाल्के
पटकथा रणछोड़बाई उदयराम
कलाकार दत्तत्रेय दामोदर दबके, सालुंके, भालाचंद्र डी. फाल्के, जी.वी. सेन
प्रदर्शन तिथि 3 मई, 1913
अवधि 40 मिनट
अन्य जानकारी भारतीय सिनेमा की पहली फ़िल्म जो अवाक (मूक) थी।

राजा हरिश्चंद्र (अंग्रेज़ी: Raja Harishchandra) भारतीय सिनेमा की पहली फ़िल्म है जो अवाक (मूक) थी। यह फ़िल्म भारतीय सिनेमा के जनक माने जाने वाले दादा साहेब फाल्के ने1913 में बनाई थी। ‘राजा हरिश्चंद्र’ के रिलीज़ होते ही चारों ओर धूम मच गई। भारत ने पूरी लम्बाई की पारम्परिक फ़िल्मों के जगत् में कदम रख दिया था। धुंडीराज गोंविद फाल्के यानी दादा साहेब फाल्के इस फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक थे और इस तरह वे भारतीय फ़िल्मों के पितामह बन गए। इस फ़िल्म ने खूब धूम मचाई और फाल्के को इसकी अतिरिक्त प्रिंट्स बनवाकर गांव-गांव में दिखाना पड़ा।

कथानक

फ़िल्म का कथानक हिंदू पौराणिक ग्रंथों में वर्णित महान् सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के जीवन पर आधारित था।

कलाकार

  • दत्तत्रेय दामोदर दबके
  • सालुंके
  • भालाचंद्र डी. फ़ाल्के
  • जी.वी. सेन

प्रदर्शन तिथि

21 अप्रैल 1913 को ओलम्पिया थियेटर, मुम्बई में प्रीमियर हुआ और 13 मई, 1913 को फ़िल्म आम लोगों के लिए प्रदर्शित की गई।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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