"अनमोल वचन 1": अवतरणों में अंतर
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|'''सुभाषित''' | |'''सुभाषित'''<br> | ||
1) इस संसार में प्यार करने लायक दो वस्तुएँ हैं - एक दु:ख और दूसरा श्रम। दुख के बिना हृदय निर्मल नहीं होता और श्रम के बिना मनुष्यत्व का विकास नहीं होता। | 1) इस संसार में प्यार करने लायक दो वस्तुएँ हैं - एक दु:ख और दूसरा श्रम। दुख के बिना हृदय निर्मल नहीं होता और श्रम के बिना मनुष्यत्व का विकास नहीं होता।<br> | ||
2) ज्ञान का अर्थ है-जानने की शक्ति। सच को झूठ को सच से पृथक् करने वाली जो विवेक बुद्धि है-उसी का नाम ज्ञान है। | 2) ज्ञान का अर्थ है-जानने की शक्ति। सच को झूठ को सच से पृथक् करने वाली जो विवेक बुद्धि है-उसी का नाम ज्ञान है।<br> | ||
3) अध्ययन, विचार, मनन, विश्वास एवं आचरण द्वार जब एक मार्ग को मजबूति से पकड़ लिया जाता है, तो अभीष्ट उद्द्श्य को प्राप्त करना बहुत सरल हो जाता है। | 3) अध्ययन, विचार, मनन, विश्वास एवं आचरण द्वार जब एक मार्ग को मजबूति से पकड़ लिया जाता है, तो अभीष्ट उद्द्श्य को प्राप्त करना बहुत सरल हो जाता है।<br> | ||
4) आदर्शों के प्रति श्रद्धा और कत्र्तव्य के प्रति लगन का जहाँ भी उदय हो रहा है, समझना चाहिए कि वहाँ किसी देवमानव का आविर्भाव हो रहा है। | 4) आदर्शों के प्रति श्रद्धा और कत्र्तव्य के प्रति लगन का जहाँ भी उदय हो रहा है, समझना चाहिए कि वहाँ किसी देवमानव का आविर्भाव हो रहा है।<br> | ||
5) कुचक्र, छद्म और आतंक के बलबूते उपार्जित की गई सफलताएँ जादू के तमाशे में हथेली पर सरसों जमाने जैसे चमत्कार दिखाकर तिरोहित हो जाती हैं। बिना जड़ का पेड़ कब तक टिकेगा और किस प्रकार फलेगा-फूलेगा। | 5) कुचक्र, छद्म और आतंक के बलबूते उपार्जित की गई सफलताएँ जादू के तमाशे में हथेली पर सरसों जमाने जैसे चमत्कार दिखाकर तिरोहित हो जाती हैं। बिना जड़ का पेड़ कब तक टिकेगा और किस प्रकार फलेगा-फूलेगा।<br> | ||
6) जो दूसरों को धोखा देना चाहता है, वास्तव में वह अपने आपको ही धोखा देता है। | 6) जो दूसरों को धोखा देना चाहता है, वास्तव में वह अपने आपको ही धोखा देता है।<br> | ||
7) समर्पण का अर्थ है - पूर्णरूपेण प्रभु को हृदय में स्वीकार करना, उनकी इच्छा, प्रेरणाओं के प्रति सदैव जागरूक रहना और जीवन के प्रतयेक क्षण में उसे परिणत करते रहना। | 7) समर्पण का अर्थ है - पूर्णरूपेण प्रभु को हृदय में स्वीकार करना, उनकी इच्छा, प्रेरणाओं के प्रति सदैव जागरूक रहना और जीवन के प्रतयेक क्षण में उसे परिणत करते रहना।<br> | ||
8) मनोविकार भले ही छोटे हों या बड़े, यह शत्रु के समान हैं और प्रताड़ना के ही योग्य हैं। 9) सबसे महान् धर्म है, अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनना। | 8) मनोविकार भले ही छोटे हों या बड़े, यह शत्रु के समान हैं और प्रताड़ना के ही योग्य हैं। 9) सबसे महान् धर्म है, अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनना।<br> | ||
10) सद्व्यवहार में शक्ति है। जो सोचता है कि मैं दूसरों के काम आ सकने के लिए कुछ करूँ, वही आत्मोन्नति का सच्चा पथिक है। | 10) सद्व्यवहार में शक्ति है। जो सोचता है कि मैं दूसरों के काम आ सकने के लिए कुछ करूँ, वही आत्मोन्नति का सच्चा पथिक है।<br> | ||
11) जिनका प्रत्येक कर्म भगवान् को, आदर्शों को समर्पित होता है, वही सबसे बड़ा योगी है। | 11) जिनका प्रत्येक कर्म भगवान् को, आदर्शों को समर्पित होता है, वही सबसे बड़ा योगी है।<br> | ||
12) कोई भी कठिनाई क्यों न हो, अगर हम सचमुच शान्त रहें तो समाधान मिल जाएगा। | 12) कोई भी कठिनाई क्यों न हो, अगर हम सचमुच शान्त रहें तो समाधान मिल जाएगा।<br> | ||
13) सत्संग और प्रवचनों का-स्वाध्याय और सुदपदेशों का तभी कुछ मूल्य है, जब उनके अनुसार कार्य करने की प्रेरणा मिले। अन्यथा यह सब भी कोरी बुद्धिमत्ता मात्र है। | 13) सत्संग और प्रवचनों का-स्वाध्याय और सुदपदेशों का तभी कुछ मूल्य है, जब उनके अनुसार कार्य करने की प्रेरणा मिले। अन्यथा यह सब भी कोरी बुद्धिमत्ता मात्र है।<br> | ||
14) सब ने सही जाग्रत् आत्माओं में से जो जीवन्त हों, वे आपत्तिकालीन समय को समझें और व्यामोह के दायरे से निकलकर बाहर आएँ। उन्हीं के बिना प्रगति का रथ रुका पड़ा है। | 14) सब ने सही जाग्रत् आत्माओं में से जो जीवन्त हों, वे आपत्तिकालीन समय को समझें और व्यामोह के दायरे से निकलकर बाहर आएँ। उन्हीं के बिना प्रगति का रथ रुका पड़ा है।<br> | ||
15) साधना एक पराक्रम है, संघर्ष है, जो अपनी ही दुष्प्रवृत्तियों से करना होता है। | 15) साधना एक पराक्रम है, संघर्ष है, जो अपनी ही दुष्प्रवृत्तियों से करना होता है।<br> | ||
16) आत्मा को निर्मल बनाकर, इंद्रियों का संयम कर उसे परमात्मा के साथ मिला देने की प्रक्रिया का नाम योग है। | 16) आत्मा को निर्मल बनाकर, इंद्रियों का संयम कर उसे परमात्मा के साथ मिला देने की प्रक्रिया का नाम योग है।<br> | ||
17) जैसे कोरे कागज पर ही पत्र लिखे जा सकते हैं, लिखे हुए पर नहीं, उसी प्रकार निर्मल अंत:करण पर ही योग की शिक्षा और साधना अंकित हो सकती है। | 17) जैसे कोरे कागज पर ही पत्र लिखे जा सकते हैं, लिखे हुए पर नहीं, उसी प्रकार निर्मल अंत:करण पर ही योग की शिक्षा और साधना अंकित हो सकती है।<br> | ||
18) योग के दृष्टिकोण से तुम जो करते हो वह नहीं, बल्कि तुम कैसे करते हो, वह बहुत अधिक महत्त्पूर्ण है। | 18) योग के दृष्टिकोण से तुम जो करते हो वह नहीं, बल्कि तुम कैसे करते हो, वह बहुत अधिक महत्त्पूर्ण है।<br> | ||
19) यह आपत्तिकालीन समय है। आपत्ति धर्म का अर्थ है-सामान्य सुख-सुविधाओं की बात ताक पर रख देना और वह करने में जुट जाना जिसके लिए मनुष्य की गरिमा भरी अंतरात्मा पुकारती है। | 19) यह आपत्तिकालीन समय है। आपत्ति धर्म का अर्थ है-सामान्य सुख-सुविधाओं की बात ताक पर रख देना और वह करने में जुट जाना जिसके लिए मनुष्य की गरिमा भरी अंतरात्मा पुकारती है।<br> | ||
20) जीवन के प्रकाशवान् क्षण वे हैं, जो सत्कर्म करते हुए बीते। | 20) जीवन के प्रकाशवान् क्षण वे हैं, जो सत्कर्म करते हुए बीते।<br> | ||
21) प्रखर और सजीव आध्यात्मिकता वह है, जिसमें अपने आपका निर्माण दुनिया वालों की अँधी भेड़चाल के अनुकरण से नहीं, वरन् स्वतंत्र विवेक के आधार पर कर सकना संभव हो सके। | 21) प्रखर और सजीव आध्यात्मिकता वह है, जिसमें अपने आपका निर्माण दुनिया वालों की अँधी भेड़चाल के अनुकरण से नहीं, वरन् स्वतंत्र विवेक के आधार पर कर सकना संभव हो सके।<br> | ||
22) बलिदान वही कर सकता है, जो शुद्ध है, निर्भय है और योग्य है। | 22) बलिदान वही कर सकता है, जो शुद्ध है, निर्भय है और योग्य है।<br> | ||
23) जिस आदर्श के व्यवहार का प्रभाव न हो, वह फिजूल है और जो व्यवहार आदर्श प्रेरित न हो, वह भयंकर है। | 23) जिस आदर्श के व्यवहार का प्रभाव न हो, वह फिजूल है और जो व्यवहार आदर्श प्रेरित न हो, वह भयंकर है।<br> | ||
24) भगवान जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्नि परीक्षाओं में होकर गुजारते हैं। | 24) भगवान जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्नि परीक्षाओं में होकर गुजारते हैं।<br> | ||
25) हम अपनी कमियों को पहचानें और इन्हें हटाने और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियाँ स्थापित करने का उपाय सोचें इसी में अपना व मानव मात्र का कल्याण है। | 25) हम अपनी कमियों को पहचानें और इन्हें हटाने और उनके स्थान पर सत्प्रवृत्तियाँ स्थापित करने का उपाय सोचें इसी में अपना व मानव मात्र का कल्याण है।<br> | ||
26) प्रगति के लिए संघर्ष करो। अनीति को रोकने के लिए संघर्ष करो और इसलिए भी संघर्ष करो कि संघर्ष के कारणों का अन्त हो सके। | 26) प्रगति के लिए संघर्ष करो। अनीति को रोकने के लिए संघर्ष करो और इसलिए भी संघर्ष करो कि संघर्ष के कारणों का अन्त हो सके।<br> | ||
27) धर्म की रक्षा और अधर्म का उन्मूलन करना ही अवतार और उसके अनुयायियों का कत्र्तव्य है। इसमें चाहे निजी हानि कितनी ही होती हो, कठिनाई कितनी ही उइानी पड़ती हो। | 27) धर्म की रक्षा और अधर्म का उन्मूलन करना ही अवतार और उसके अनुयायियों का कत्र्तव्य है। इसमें चाहे निजी हानि कितनी ही होती हो, कठिनाई कितनी ही उइानी पड़ती हो।<br> | ||
28) अवतार व्यक्ति के रूप में नहीं, आदर्शवादी प्रवाह के रूप में होते हैं और हर जीवन्त आत्मा को युगधर्म निबाहने के लिए बाधित करते हैं। | 28) अवतार व्यक्ति के रूप में नहीं, आदर्शवादी प्रवाह के रूप में होते हैं और हर जीवन्त आत्मा को युगधर्म निबाहने के लिए बाधित करते हैं।<br> | ||
29) शरीर और मन की प्रसन्नता के लिए जिसने आत्म-प्रयोजन का बलिदान कर दिया, उससे बढ़कर अभागा एवं दुबुद्धि और कौन हो सकता है? | 29) शरीर और मन की प्रसन्नता के लिए जिसने आत्म-प्रयोजन का बलिदान कर दिया, उससे बढ़कर अभागा एवं दुबुद्धि और कौन हो सकता है?<br> | ||
30) जीवन के आनन्द गौरव के साथ, सम्मान के साथ और स्वाभिमान के साथ जीने में है। | 30) जीवन के आनन्द गौरव के साथ, सम्मान के साथ और स्वाभिमान के साथ जीने में है।<br> | ||
31) आचारनिष्ठ उपदेशक ही परिवर्तन लाने में सफल हो सकते हैं। अनधिकारी ध्र्मोपदेशक खोटे सिक्के की तरह मात्र विक्षोभ और अविश्वास ही भड़काते हैं। | 31) आचारनिष्ठ उपदेशक ही परिवर्तन लाने में सफल हो सकते हैं। अनधिकारी ध्र्मोपदेशक खोटे सिक्के की तरह मात्र विक्षोभ और अविश्वास ही भड़काते हैं।<br> | ||
32) इन दिनों जाग्रत् आत्मा मूक दर्शक बनकर न रहे। बिना किसी के समर्थन, विरोध की परवाह किए आत्म-प्रेरणा के सहारे स्वयंमेव अपनी दिशाधारा का निर्माण-निर्धारण करें। | 32) इन दिनों जाग्रत् आत्मा मूक दर्शक बनकर न रहे। बिना किसी के समर्थन, विरोध की परवाह किए आत्म-प्रेरणा के सहारे स्वयंमेव अपनी दिशाधारा का निर्माण-निर्धारण करें।<br> | ||
33) जौ भौतिक महत्त्वाकांक्षियों की बेतरह कटौती करते हुए समय की पुकार पूरी करने के लिए बढ़े-चढ़े अनुदान प्रस्तुत करते और जिसमेंं महान् परम्परा छोड़ जाने की ललक उफनती रहे, यही है-प्रज्ञापुत्र शब्द का अर्थ। | 33) जौ भौतिक महत्त्वाकांक्षियों की बेतरह कटौती करते हुए समय की पुकार पूरी करने के लिए बढ़े-चढ़े अनुदान प्रस्तुत करते और जिसमेंं महान् परम्परा छोड़ जाने की ललक उफनती रहे, यही है-प्रज्ञापुत्र शब्द का अर्थ।<br> | ||
34) दैवी शक्तियों के अवतरण के लिए पहली शर्त है- साधक की पात्रता, पवित्रता और प्रामाणिकता। | 34) दैवी शक्तियों के अवतरण के लिए पहली शर्त है- साधक की पात्रता, पवित्रता और प्रामाणिकता।<br> | ||
35) आशावादी हर कठिनाई में अवसर देखता है, पर निराशावादी प्रत्येक अवसर में कठिनाइयाँ ही खोजता है। | 35) आशावादी हर कठिनाई में अवसर देखता है, पर निराशावादी प्रत्येक अवसर में कठिनाइयाँ ही खोजता है।<br> | ||
36) चरित्रवान् व्यक्ति ही किसी राष्ट्र की वास्तविक सम्पदा है।-वाङ्गमय | 36) चरित्रवान् व्यक्ति ही किसी राष्ट्र की वास्तविक सम्पदा है।-वाङ्गमय<br> | ||
37) व्यक्तिगत स्वार्थों का उत्सर्ग सामाजिक प्रगति के लिए करने की परम्परा जब तक प्रचलित न होगी, तब तक कोई राष्ट्र सच्चे अर्थों मेंं सामथ्र्यवान् नहीं बन सकता है।-वाङ्गमय | 37) व्यक्तिगत स्वार्थों का उत्सर्ग सामाजिक प्रगति के लिए करने की परम्परा जब तक प्रचलित न होगी, तब तक कोई राष्ट्र सच्चे अर्थों मेंं सामथ्र्यवान् नहीं बन सकता है।-वाङ्गमय<br> | ||
38) युग निर्माण योजना का लक्ष्य है-शुचिता, पवित्रता, सच्चरित्रता, समता, उदारता, सहकारिता उत्पन्न करना।-वाङ्गमय | 38) युग निर्माण योजना का लक्ष्य है-शुचिता, पवित्रता, सच्चरित्रता, समता, उदारता, सहकारिता उत्पन्न करना।-वाङ्गमय<br> | ||
39) भुजार्ए साक्षात् हनुमान हैं और मस्तिष्क गणेश, इनके निरन्तर साथ रहते हुए किसी को दरिद्र रहने की आवश्यकता नहीं। | 39) भुजार्ए साक्षात् हनुमान हैं और मस्तिष्क गणेश, इनके निरन्तर साथ रहते हुए किसी को दरिद्र रहने की आवश्यकता नहीं।<br> | ||
40) विद्या की आकांक्षा यदि सच्ची हो, गहरी हो तो उसके रह्ते कोई व्यक्ति कदापि मूर्ख, अशिक्षित नहीं रह सकता।- वाङ्गमय | 40) विद्या की आकांक्षा यदि सच्ची हो, गहरी हो तो उसके रह्ते कोई व्यक्ति कदापि मूर्ख, अशिक्षित नहीं रह सकता।- वाङ्गमय<br> | ||
41) मनुष्य दु:खी, निराशा, चिंतित, उदिग्न बैठा रहता हो तो समझना चाहिए सही सोचने की विधि से अपरिचित होने का ही यह परिणाम है।-वाङ्गमय | 41) मनुष्य दु:खी, निराशा, चिंतित, उदिग्न बैठा रहता हो तो समझना चाहिए सही सोचने की विधि से अपरिचित होने का ही यह परिणाम है।-वाङ्गमय<br> | ||
42) धर्म अंत:करण को प्रभावित और प्रशासित करता है, उसमें उत्कृष्टता अपनाने, आदर्शों को कार्यान्वित करने की उमंग उत्पन्न करता है।-वाङ्गमय | 42) धर्म अंत:करण को प्रभावित और प्रशासित करता है, उसमें उत्कृष्टता अपनाने, आदर्शों को कार्यान्वित करने की उमंग उत्पन्न करता है।-वाङ्गमय<br> | ||
43) जीवन साधना का अर्थ है- अपने समय, श्रम ओर साधनों का कण-कण उपयोगी दिशा में नियोजित किये रहना।-वाङ्गमय | 43) जीवन साधना का अर्थ है- अपने समय, श्रम ओर साधनों का कण-कण उपयोगी दिशा में नियोजित किये रहना।-वाङ्गमय<br> | ||
44) निकृष्ट चिंतन एवं घृणित कर्तृत्व हमारी गौरव गरिमा पर लगा हुआ कलंक है।-वाङ्गमय | 44) निकृष्ट चिंतन एवं घृणित कर्तृत्व हमारी गौरव गरिमा पर लगा हुआ कलंक है।-वाङ्गमय<br> | ||
45) आत्मा का परिष्कृत रूप ही परमात्मा है।-वाङ्गमय | 45) आत्मा का परिष्कृत रूप ही परमात्मा है।-वाङ्गमय<br> | ||
46) हम कोई ऐसा काम न करें, जिसमें अपनी अंतरात्मा ही अपने को धिक्कारे।-वाङ्गमय | 46) हम कोई ऐसा काम न करें, जिसमें अपनी अंतरात्मा ही अपने को धिक्कारे।-वाङ्गमय<br> | ||
47) अपनी दुCताएँ दूसरों से छिपाकर रखी जा सकती हैं, पर अपने आप से कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता। | 47) अपनी दुCताएँ दूसरों से छिपाकर रखी जा सकती हैं, पर अपने आप से कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता।<br> | ||
48) किसी महान् उद्देश्य को न चलना उतनी लज्जा की बात नहीं होती, जितनी कि चलने के बाद कठिनाइयों के भय से पीछे हट जाना। | 48) किसी महान् उद्देश्य को न चलना उतनी लज्जा की बात नहीं होती, जितनी कि चलने के बाद कठिनाइयों के भय से पीछे हट जाना।<br> | ||
49) महानता का गुण न तो किसी के लिए सुरक्षित है और न प्रतिबंधित। जो चाहे अपनी शुभेच्छाओं से उसे प्राप्त कर सकता है। | 49) महानता का गुण न तो किसी के लिए सुरक्षित है और न प्रतिबंधित। जो चाहे अपनी शुभेच्छाओं से उसे प्राप्त कर सकता है।<br> | ||
50) सच्ची लगन तथा निर्मल उद्देश्य से किया हुआ प्रयत्न कभी निष्फल नहींं जाता। | 50) सच्ची लगन तथा निर्मल उद्देश्य से किया हुआ प्रयत्न कभी निष्फल नहींं जाता।<br> | ||
51) खरे बनिये, खरा काम कीजिए और खरी बात कहिए। इससे आपका हृदय हल्का रहेगा। | 51) खरे बनिये, खरा काम कीजिए और खरी बात कहिए। इससे आपका हृदय हल्का रहेगा।<br> | ||
52) मनुष्य जन्म सरल है, पर मनुष्यता कठिन प्रयत्न करके कमानी पड़ती है। | 52) मनुष्य जन्म सरल है, पर मनुष्यता कठिन प्रयत्न करके कमानी पड़ती है।<br> | ||
53) साधना का अर्थ है-कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए भी सत्प्रयास जारी रखना। | 53) साधना का अर्थ है-कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए भी सत्प्रयास जारी रखना।<br> | ||
54) सज्जनों की कोई भी साधना कठिनाइयों में से होकर निकलने पर ही पूर्ण होती है। | 54) सज्जनों की कोई भी साधना कठिनाइयों में से होकर निकलने पर ही पूर्ण होती है।<br> | ||
55) असत् से सत् की ओर, अंधकार से आलोक की और विनाश से विकास की ओर बढ़ने का नाम ही साधना है। | 55) असत् से सत् की ओर, अंधकार से आलोक की और विनाश से विकास की ओर बढ़ने का नाम ही साधना है।<br> | ||
56) किसी सदुद्देश्य के लिए जीवन भर कठिनाइयों से जूझते रहना ही महापुरुष होना है। | 56) किसी सदुद्देश्य के लिए जीवन भर कठिनाइयों से जूझते रहना ही महापुरुष होना है।<br> | ||
57) अपना मूल्य समझो और विश्वास करो कि तुम संसार के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हो। | 57) अपना मूल्य समझो और विश्वास करो कि तुम संसार के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हो।<br> | ||
58) उत्कृष्ट जीवन का स्वरूप है-दूसरों के प्रति नम्र और अपने प्रति कठोर होना। | 58) उत्कृष्ट जीवन का स्वरूप है-दूसरों के प्रति नम्र और अपने प्रति कठोर होना।<br> | ||
59) वही जीवति है, जिसका मस्तिष्क ठण्डा, रक्त गरम, हृदय कोमल और पुरुषार्थ प्रखर है। | 59) वही जीवति है, जिसका मस्तिष्क ठण्डा, रक्त गरम, हृदय कोमल और पुरुषार्थ प्रखर है।<br> | ||
60) चरित्र का अर्थ है- अपने महान् मानवीय उत्तरदायित्वों का महत्त्व समझना और उसका हर कीमत पर निर्वाह करना। | 60) चरित्र का अर्थ है- अपने महान् मानवीय उत्तरदायित्वों का महत्त्व समझना और उसका हर कीमत पर निर्वाह करना।<br> | ||
61) मनुष्य एक भटका हुआ देवता है। सही दिशा पर चल सके, तो उससे बढ़कर श्रेष्ठ और कोई नहीं। | 61) मनुष्य एक भटका हुआ देवता है। सही दिशा पर चल सके, तो उससे बढ़कर श्रेष्ठ और कोई नहीं।<br> | ||
62) अपने अज्ञान को दूर करके मन-मन्दिर में ज्ञान का दीपक जलाना भगवान् की सच्ची पूजा है। | 62) अपने अज्ञान को दूर करके मन-मन्दिर में ज्ञान का दीपक जलाना भगवान् की सच्ची पूजा है।<br> | ||
63) जो बीत गया सो गया, जो आने वाला है वह अज्ञात है! लेकिन वर्तमान तो हमारे हाथ मेंं है। | 63) जो बीत गया सो गया, जो आने वाला है वह अज्ञात है! लेकिन वर्तमान तो हमारे हाथ मेंं है।<br> | ||
64) हर वक्त, हर स्थिति मेंं मुस्कराते रहिये, निर्भय रहिये, कत्र्तव्य करते रहिये और प्रसन्न रहिये। | 64) हर वक्त, हर स्थिति मेंं मुस्कराते रहिये, निर्भय रहिये, कत्र्तव्य करते रहिये और प्रसन्न रहिये।<br> | ||
65) वह स्थान मंदिर है, जहाँ पुस्तकों के रूप में मूक; किन्तु ज्ञान की चेतनायुक्त देवता निवास करते हैं। | 65) वह स्थान मंदिर है, जहाँ पुस्तकों के रूप में मूक; किन्तु ज्ञान की चेतनायुक्त देवता निवास करते हैं।<br> | ||
66) वे माता-पिता धन्य हैं, जो अपनी संतान के लिए उत्तम पुस्तकों का एक संग्रह छोड़ जाते हैं। | 66) वे माता-पिता धन्य हैं, जो अपनी संतान के लिए उत्तम पुस्तकों का एक संग्रह छोड़ जाते हैं।<br> | ||
67) मनोविकारों से परेशान, दु:खी, चिंतित मनुष्य के लिए उनके दु:ख-दर्द के समय श्रेष्ठ पुस्तकें ही सहारा है। | 67) मनोविकारों से परेशान, दु:खी, चिंतित मनुष्य के लिए उनके दु:ख-दर्द के समय श्रेष्ठ पुस्तकें ही सहारा है।<br> | ||
68) अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बढ़कर प्रमाद इस संसार में और कोई दूसरा नहीं हो सकता। | 68) अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बढ़कर प्रमाद इस संसार में और कोई दूसरा नहीं हो सकता।<br> | ||
69) विषयों, व्यसनों और विलासों मेंं सुख खोजना और पाने की आशा करना एक भयानक दुराशा है। | 69) विषयों, व्यसनों और विलासों मेंं सुख खोजना और पाने की आशा करना एक भयानक दुराशा है।<br> | ||
70) कुकर्मी से बढ़कर अभागा और कोई नहीं है; क्यांकि विपत्ति में उसका कोई साथी नहीं होता। | 70) कुकर्मी से बढ़कर अभागा और कोई नहीं है; क्यांकि विपत्ति में उसका कोई साथी नहीं होता।<br> | ||
71) गृहसि एक तपोवन है जिसमें संयम, सेवा, त्याग और सहिष्णुता की साधना करनी पड़ती है। | 71) गृहसि एक तपोवन है जिसमें संयम, सेवा, त्याग और सहिष्णुता की साधना करनी पड़ती है।<br> | ||
72) परमात्मा की सृष्टि का हर व्यक्ति समान है। चाहे उसका रंग वर्ण, कुल और गोत्र कुछ भी क्यों न हो। | 72) परमात्मा की सृष्टि का हर व्यक्ति समान है। चाहे उसका रंग वर्ण, कुल और गोत्र कुछ भी क्यों न हो।<br> | ||
73) ज्ञान अक्षय है, उसकी प्राप्ति शैय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। | 73) ज्ञान अक्षय है, उसकी प्राप्ति शैय्या तक बन पड़े तो भी उस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहिए।<br> | ||
74) वास्तविक सौन्दर्य के आधर हैं-स्वस्थ शरीर, निर्विकार मन और पवित्र आचरण। | 74) वास्तविक सौन्दर्य के आधर हैं-स्वस्थ शरीर, निर्विकार मन और पवित्र आचरण।<br> | ||
75) ज्ञानदान से बढ़कर आज की परिस्थितियों मेंं और कोई दान नहीं। | 75) ज्ञानदान से बढ़कर आज की परिस्थितियों मेंं और कोई दान नहीं।<br> | ||
76) केवल ज्ञान ही एक ऐसा अक्षय तत्त्व है, जो कहीं भी, किसी अवस्था और किसी काल में भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता। | 76) केवल ज्ञान ही एक ऐसा अक्षय तत्त्व है, जो कहीं भी, किसी अवस्था और किसी काल में भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता।<br> | ||
77) इस युग की सबसे बड़ी शक्ति शस्त्र नहीं, सद्विचार है। | 77) इस युग की सबसे बड़ी शक्ति शस्त्र नहीं, सद्विचार है।<br> | ||
78) उत्तम पुस्तकें जाग्रत् देवता हैं। उनके अध्ययन-मनन-चिंतन के द्वारा पूजा करने पर तत्काल ही वरदान पाया जा सकता है। | 78) उत्तम पुस्तकें जाग्रत् देवता हैं। उनके अध्ययन-मनन-चिंतन के द्वारा पूजा करने पर तत्काल ही वरदान पाया जा सकता है।<br> | ||
79) शान्तिकुञ्ज एक विश्वविद्यालय है। कायाकल्प के लिए बनी एक अकादमी है। हमारी सतयुगी सपनों का महल है। | 79) शान्तिकुञ्ज एक विश्वविद्यालय है। कायाकल्प के लिए बनी एक अकादमी है। हमारी सतयुगी सपनों का महल है।<br> | ||
80) शांन्किुञ्ज एक क्रान्तिकारी विश्वविद्यालय है। अनौचित्य की नींव हिला देने वाली यह संस्था प्रभाव पर्त की एक नवोदित किरण है। | 80) शांन्किुञ्ज एक क्रान्तिकारी विश्वविद्यालय है। अनौचित्य की नींव हिला देने वाली यह संस्था प्रभाव पर्त की एक नवोदित किरण है।<br> | ||
81) गंगा की गोद, हिमालय की छाया, ऋषि विश्वामित्र की तप:स्थली, अजस्त्र प्राण ऊर्जा का उद्भव स्त्रोत गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज जैसा जीवन्त स्थान उपासना के लिए दूसरा ढूँढ सकना कठिन है। | 81) गंगा की गोद, हिमालय की छाया, ऋषि विश्वामित्र की तप:स्थली, अजस्त्र प्राण ऊर्जा का उद्भव स्त्रोत गायत्री तीर्थ शान्तिकुञ्ज जैसा जीवन्त स्थान उपासना के लिए दूसरा ढूँढ सकना कठिन है।<br> | ||
82) नित्य गायत्री जप, उदित होते स्वर्णिम सविता का ध्यान, नित्य यज्ञ, अखण्ड दीप का सान्निध्य, दिव्यनाद की अवधारणा, आत्मदेव की साधना की दिव्य संगम स्थली है-शांतिकुञ्ज गायत्री तीर्थ। | 82) नित्य गायत्री जप, उदित होते स्वर्णिम सविता का ध्यान, नित्य यज्ञ, अखण्ड दीप का सान्निध्य, दिव्यनाद की अवधारणा, आत्मदेव की साधना की दिव्य संगम स्थली है-शांतिकुञ्ज गायत्री तीर्थ।<br> | ||
83) धर्म का मार्ग फूलों सेज नहीं, इसमें बड़े-बड़े कष्ट सहन करने पड़ते हैं। | 83) धर्म का मार्ग फूलों सेज नहीं, इसमें बड़े-बड़े कष्ट सहन करने पड़ते हैं।<br> | ||
84) मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है; परन्तु इनके परिणामों में चुनाव की कोई सुविधा नहीं। | 84) मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है; परन्तु इनके परिणामों में चुनाव की कोई सुविधा नहीं।<br> | ||
85) सलाह सबकी सुनो, पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे। | 85) सलाह सबकी सुनो, पर करो वह जिसके लिए तुम्हारा साहस और विवेक समर्थन करे।<br> | ||
86) हम क्या करते हैं, इसका महत्त्व कम है; किन्तु उसे हम किस भाव से करते हैं इसका बहुत महत्त्व है। | 86) हम क्या करते हैं, इसका महत्त्व कम है; किन्तु उसे हम किस भाव से करते हैं इसका बहुत महत्त्व है।<br> | ||
87) संसार में सच्चा सुख ईश्वर और धर्म पर विश्वास रखते हुए पूर्ण परिश्रम के साथ अपना कत्र्तव्य पालन करने में है। | 87) संसार में सच्चा सुख ईश्वर और धर्म पर विश्वास रखते हुए पूर्ण परिश्रम के साथ अपना कत्र्तव्य पालन करने में है।<br> | ||
88) किसी को आत्म-विश्वास जगाने वाला प्रोत्साहन देना ही सर्वोत्तम उपहार है। | 88) किसी को आत्म-विश्वास जगाने वाला प्रोत्साहन देना ही सर्वोत्तम उपहार है।<br> | ||
89) दुनिया में आलस्य को पोषण देने जैसा दूसरा भयंकर पाप नहीं है। | 89) दुनिया में आलस्य को पोषण देने जैसा दूसरा भयंकर पाप नहीं है।<br> | ||
90) निरभिमानी धन्य है; क्योंकि उन्हीं के हृदय में ईश्वर का निवास होता है। | 90) निरभिमानी धन्य है; क्योंकि उन्हीं के हृदय में ईश्वर का निवास होता है।<br> | ||
91) दुनिया में भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक चमकता हुआ हीरा है। | 91) दुनिया में भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक चमकता हुआ हीरा है।<br> | ||
92) सज्जनता ऐसी विधा है जो वचन से तो कम; किन्तु व्यवहार से अधिक परखी जाती है। | 92) सज्जनता ऐसी विधा है जो वचन से तो कम; किन्तु व्यवहार से अधिक परखी जाती है।<br> | ||
93) अपनी महान् संभावनाओं पर अटूट विश्वास ही सच्ची आस्तिकता है। | 93) अपनी महान् संभावनाओं पर अटूट विश्वास ही सच्ची आस्तिकता है।<br> | ||
94) 'अखण्ड ज्योति' हमारी वाणी है। जो उसे पढ़ते हैं, वे ही हमारी प्रेरणाओं से परिचित होते हैं। | 94) 'अखण्ड ज्योति' हमारी वाणी है। जो उसे पढ़ते हैं, वे ही हमारी प्रेरणाओं से परिचित होते हैं।<br> | ||
95) चरित्रवान् व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में भगवद् भक्त हैं। | 95) चरित्रवान् व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में भगवद् भक्त हैं।<br> | ||
96) ऊँचे उठो, प्रसुप्त को जगाओं, जो महान् है उसका अवलम्बन करो ओर आगे बढ़ो। | 96) ऊँचे उठो, प्रसुप्त को जगाओं, जो महान् है उसका अवलम्बन करो ओर आगे बढ़ो।<br> | ||
97) जिस आदर्श के व्यवहार का प्रभाव न हो, वह फिजूल और जो व्यवहार आदर्श प्रेरित न हो, वह भयंकर है। | 97) जिस आदर्श के व्यवहार का प्रभाव न हो, वह फिजूल और जो व्यवहार आदर्श प्रेरित न हो, वह भयंकर है।<br> | ||
98) परमात्मा जिसे जीवन मेंं कोई विशेष अभ्युदय-अनुग्रह करना चाहता है, उसकी बहुत-सी सुविधाओं को समाप्त कर दिया करता है। | 98) परमात्मा जिसे जीवन मेंं कोई विशेष अभ्युदय-अनुग्रह करना चाहता है, उसकी बहुत-सी सुविधाओं को समाप्त कर दिया करता है।<br> | ||
99) देवमानव वे हैं, जो आदर्शों के क्रियान्वयन की योजना बनाते और सुविधा की ललक-लिप्सा को अस्वीकार करके युगधर्म के निर्वाह की काँटों भरी राह पर एकाकी चल पड़ते हैं। | 99) देवमानव वे हैं, जो आदर्शों के क्रियान्वयन की योजना बनाते और सुविधा की ललक-लिप्सा को अस्वीकार करके युगधर्म के निर्वाह की काँटों भरी राह पर एकाकी चल पड़ते हैं।<br> | ||
100) अच्छाइयों का एक-एक तिनका चुन-चुनकर जीवन भवन का निर्माण होता है, पर बुराई का एक हल्का झोंका ही उसे मिटा डालने के लिए पर्याप्त होता है। | 100) अच्छाइयों का एक-एक तिनका चुन-चुनकर जीवन भवन का निर्माण होता है, पर बुराई का एक हल्का झोंका ही उसे मिटा डालने के लिए पर्याप्त होता है।<br> | ||
101) स्वार्थ, अंहकार और लापरवाही की मात्रा बढ़ जाना ही किसी व्यक्ति के पतन का कारण होता है। | 101) स्वार्थ, अंहकार और लापरवाही की मात्रा बढ़ जाना ही किसी व्यक्ति के पतन का कारण होता है।<br> | ||
102) बुद्धिमान् वह है, जो किसी को गलतियों से हानि होते देखकर अपनी गलतियाँ सुधार लेता है। | 102) बुद्धिमान् वह है, जो किसी को गलतियों से हानि होते देखकर अपनी गलतियाँ सुधार लेता है।<br> | ||
103) भूत लौटने वाला नहीं, भविष्य का कोई निश्चय नहीं; सँभालने और बनाने योग्य तो वर्तमान है। | 103) भूत लौटने वाला नहीं, भविष्य का कोई निश्चय नहीं; सँभालने और बनाने योग्य तो वर्तमान है।<br> | ||
104) लोग क्या कहते हैं-इस पर ध्यान मत दो। सिर्फ यह देखो कि जो करने योग्य था, वह बनपड़ा या नहीं? | 104) लोग क्या कहते हैं-इस पर ध्यान मत दो। सिर्फ यह देखो कि जो करने योग्य था, वह बनपड़ा या नहीं?<br> | ||
105) जिनकी तुम प्रशंसा करते हो, उनके गुणों को अपनाओ और स्वयं भी प्रशंसा के योग्य बनो। | 105) जिनकी तुम प्रशंसा करते हो, उनके गुणों को अपनाओ और स्वयं भी प्रशंसा के योग्य बनो।<br> | ||
106) भगवान् के काम में लग जाने वाले कभी घाटे में नहीं रह सकते। | 106) भगवान् के काम में लग जाने वाले कभी घाटे में नहीं रह सकते।<br> | ||
107) दूसरों की निन्दा और त्रूटियाँ सुनने में अपना समय नष्ट मत करो। | 107) दूसरों की निन्दा और त्रूटियाँ सुनने में अपना समय नष्ट मत करो।<br> | ||
108) दूसरों की निन्दा करके किसी को कुछ नहींं मिला, जिसने अपने को सुधारा उसने बहुत कुछ पाया। | 108) दूसरों की निन्दा करके किसी को कुछ नहींं मिला, जिसने अपने को सुधारा उसने बहुत कुछ पाया।<br> | ||
109) सबसे बड़ा दीन-दुर्बल वह है, जिसका अपने ऊपर नियंत्रयण नहीं। | 109) सबसे बड़ा दीन-दुर्बल वह है, जिसका अपने ऊपर नियंत्रयण नहीं।<br> | ||
110) यदि मनुष्य कुछ सीखना चाहे, तो उसकी प्रत्येक भूल कुछ न कुछ सिखा देती है। | 110) यदि मनुष्य कुछ सीखना चाहे, तो उसकी प्रत्येक भूल कुछ न कुछ सिखा देती है।<br> | ||
111) मानवता की सेवा से बढ़कर और कोई काम बडΠा नहीं हो सकता। | 111) मानवता की सेवा से बढ़कर और कोई काम बडΠा नहीं हो सकता।<br> | ||
112) जिसने शिष्टता और नम्रता नहीं सीखी, उनका बहुत सीखना भी व्यर्थ रहा। | 112) जिसने शिष्टता और नम्रता नहीं सीखी, उनका बहुत सीखना भी व्यर्थ रहा।<br> | ||
113) शुभ कार्यों के लिए हर दिन शुभ और अशुभ कार्यों के लिए हर दिना अशुभ है। | 113) शुभ कार्यों के लिए हर दिन शुभ और अशुभ कार्यों के लिए हर दिना अशुभ है।<br> | ||
114) किसी सदुद्देश्य के लिए जीवन भर कठिनाइयों से जूझते रहना ही महापुरुष होना है। | 114) किसी सदुद्देश्य के लिए जीवन भर कठिनाइयों से जूझते रहना ही महापुरुष होना है।<br> | ||
115) अपनी प्रशंसा आप न करें, यह कार्य आपके सत्कर्म स्वयं करा लेंगे। | 115) अपनी प्रशंसा आप न करें, यह कार्य आपके सत्कर्म स्वयं करा लेंगे।<br> | ||
116) भगवान् जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्नि परीक्षाओं में होकर गुजारते हैं। | 116) भगवान् जिसे सच्चे मन से प्यार करते हैं, उसे अग्नि परीक्षाओं में होकर गुजारते हैं।<br> | ||
117) गुण, कर्म और स्वभाव का परिष्कार ही अपनी सच्ची सेवा है। | 117) गुण, कर्म और स्वभाव का परिष्कार ही अपनी सच्ची सेवा है।<br> | ||
118) दूसरों के साथ वह व्यवहार न करो, जो तुम्हें अपने लिए पसन्द नहीं। | 118) दूसरों के साथ वह व्यवहार न करो, जो तुम्हें अपने लिए पसन्द नहीं।<br> | ||
119) आज के काम कल पर मत टालिए। | 119) आज के काम कल पर मत टालिए।<br> | ||
120) आत्मा की पुकार अनसुनी न करें। | 120) आत्मा की पुकार अनसुनी न करें।<br> | ||
121) मनुष्य परिस्थितियों का गुलाम नहीं, अपने भाग्य का निर्माता और विधाता है। | 121) मनुष्य परिस्थितियों का गुलाम नहीं, अपने भाग्य का निर्माता और विधाता है।<br> | ||
122) आप समय को नष्ट करेंगे तो समय भी आपको नष्ट कर देगा। | 122) आप समय को नष्ट करेंगे तो समय भी आपको नष्ट कर देगा।<br> | ||
123) समय की कद्र करो। एक मिनट भी फिजूल मत गँवाओं। | 123) समय की कद्र करो। एक मिनट भी फिजूल मत गँवाओं।<br> | ||
124) जीवन का हर क्षण उज्ज्वल भविष्य की संभावना लेकर आता है। | 124) जीवन का हर क्षण उज्ज्वल भविष्य की संभावना लेकर आता है।<br> | ||
125) कत्र्तव्यों के विषय में आने वाले कल की कल्पना एक अंध-विश्वास है। | 125) कत्र्तव्यों के विषय में आने वाले कल की कल्पना एक अंध-विश्वास है।<br> | ||
126) हँसती-हँसाती जिन्दगी ही सार्थक है। | 126) हँसती-हँसाती जिन्दगी ही सार्थक है।<br> | ||
127) पढ़ने का लाभ तभी है जब उसे व्यवहार में लाया जाए। | 127) पढ़ने का लाभ तभी है जब उसे व्यवहार में लाया जाए।<br> | ||
128) वत मत करो, जिसके लिए पीछे पछताना पड़े। | 128) वत मत करो, जिसके लिए पीछे पछताना पड़े।<br> | ||
129) प्रकृति के अनुकूल चलें, स्वस्थ रहें। | 129) प्रकृति के अनुकूल चलें, स्वस्थ रहें।<br> | ||
130) स्वच्छता सभ्यता का प्रथम सोपान है। | 130) स्वच्छता सभ्यता का प्रथम सोपान है।<br> | ||
131) भगवान् भावना की उत्कृष्टता को ही प्यार करता है। | 131) भगवान् भावना की उत्कृष्टता को ही प्यार करता है।<br> | ||
132) सत्प्रयत्न कभी निरर्थक नहीं होते। | 132) सत्प्रयत्न कभी निरर्थक नहीं होते।<br> | ||
133) गुण ही नारी का सच्चा आभूषण है। | 133) गुण ही नारी का सच्चा आभूषण है।<br> | ||
134) नर और नारी एक ही आत्मा के दो रूप है। | 134) नर और नारी एक ही आत्मा के दो रूप है।<br> | ||
135) नारी का असली श्रृंगार, सादा जीवन उच्च विचार। | 135) नारी का असली श्रृंगार, सादा जीवन उच्च विचार।<br> | ||
136) बहुमूल्य वर्तमान का सदुपयोग कीजिए। | 136) बहुमूल्य वर्तमान का सदुपयोग कीजिए।<br> | ||
137) जो तुम दूसरे से चाहते हो, उसे पहले स्वयं करो। | 137) जो तुम दूसरे से चाहते हो, उसे पहले स्वयं करो।<br> | ||
138) जो हम सोचते हैं सो करते हैं और जो करते हैं सो भुगतते हैं। | 138) जो हम सोचते हैं सो करते हैं और जो करते हैं सो भुगतते हैं।<br> | ||
139) सेवा में बड़ी शक्ति है। उससे भगवान् भी वश में हो सकते हैं। | 139) सेवा में बड़ी शक्ति है। उससे भगवान् भी वश में हो सकते हैं।<br> | ||
140) स्वाध्याय एक वैसी ही आत्मिक आवश्यकता है जैसे शरीर के लिए भोजन। | 140) स्वाध्याय एक वैसी ही आत्मिक आवश्यकता है जैसे शरीर के लिए भोजन।<br> | ||
141) दूसरों के साथ सदैव नम्रता, मधुरता, सज्जनता, उदारता एवं सहृदयता का व्यवहार करें। | 141) दूसरों के साथ सदैव नम्रता, मधुरता, सज्जनता, उदारता एवं सहृदयता का व्यवहार करें।<br> | ||
142) अपने कार्यों में व्यवस्था, नियमितता, सुन्दरता, मनोयोग तथा जिम्मेदार का ध्यान रखें। | 142) अपने कार्यों में व्यवस्था, नियमितता, सुन्दरता, मनोयोग तथा जिम्मेदार का ध्यान रखें।<br> | ||
143) धैर्य, अनुद्वेग, साहस, प्रसन्नता, दृढ़ता और समता की संतुलित स्थिति सदेव बनाये रखें। | 143) धैर्य, अनुद्वेग, साहस, प्रसन्नता, दृढ़ता और समता की संतुलित स्थिति सदेव बनाये रखें।<br> | ||
144) स्वर्ग और नरक कोई स्थान नहीं, वरन् दृष्टिकोण है। | 144) स्वर्ग और नरक कोई स्थान नहीं, वरन् दृष्टिकोण है।<br> | ||
145) आत्मबल ही इस संसार का सबसे बड़ा बल है। | 145) आत्मबल ही इस संसार का सबसे बड़ा बल है।<br> | ||
146) सादगी सबसे बड़ा फैशन है। | 146) सादगी सबसे बड़ा फैशन है।<br> | ||
147) हर मनुष्य का भाग्य उसकी मुट्ठी में है। | 147) हर मनुष्य का भाग्य उसकी मुट्ठी में है।<br> | ||
148) सन्मार्ग का राजपथ कभी भी न छोड़े। | 148) सन्मार्ग का राजपथ कभी भी न छोड़े।<br> | ||
149) आत्म-निरीक्षण इस संसार का सबसे कठिन, किन्तु करने योग्य कर्म है। | 149) आत्म-निरीक्षण इस संसार का सबसे कठिन, किन्तु करने योग्य कर्म है।<br> | ||
150) महानता के विकास में अहंकार सबसे घातक शत्रु है। | 150) महानता के विकास में अहंकार सबसे घातक शत्रु है।<br> | ||
151) 'स्वाध्यान्मा प्रमद:' अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद न करें। | 151) 'स्वाध्यान्मा प्रमद:' अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद न करें।<br> | ||
152) श्रेष्ठता रहना देवत्व के समीप रहना है। | 152) श्रेष्ठता रहना देवत्व के समीप रहना है।<br> | ||
153) मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। | 153) मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।<br> | ||
154) परमात्मा की सच्ची पूजा सद्व्यवहार है। | 154) परमात्मा की सच्ची पूजा सद्व्यवहार है।<br> | ||
155) आत्म-निर्माण का ही दूसरा नाम भाग्य निर्माण है। | 155) आत्म-निर्माण का ही दूसरा नाम भाग्य निर्माण है।<br> | ||
156) आत्मा की उत्कृष्टता संसार की सबसे बड़ी सिद्धि है। | 156) आत्मा की उत्कृष्टता संसार की सबसे बड़ी सिद्धि है।<br> | ||
157) ज्ञान की आराधना से ही मनुष्य तुच्छ से महान् बनता है। | 157) ज्ञान की आराधना से ही मनुष्य तुच्छ से महान् बनता है।<br> | ||
158) उपासना सच्ची तभी है, जब जीवन में ईश्वर घुल जाए। | 158) उपासना सच्ची तभी है, जब जीवन में ईश्वर घुल जाए।<br> | ||
159) आत्मा का परिष्कृत रूप ही परमात्मा है। | 159) आत्मा का परिष्कृत रूप ही परमात्मा है।<br> | ||
160) सज्जनता और मधुर व्यवहार मनुष्यता की पहली शर्ता है। | 160) सज्जनता और मधुर व्यवहार मनुष्यता की पहली शर्ता है।<br> | ||
161) दूसरों को पीड़ा न देना ही मानव धर्म है। | 161) दूसरों को पीड़ा न देना ही मानव धर्म है।<br> | ||
162) खुद साफ रहो, सुरक्षित रहो और औरों को भी रोगों से बचाओं। | 162) खुद साफ रहो, सुरक्षित रहो और औरों को भी रोगों से बचाओं।<br> | ||
163) 'स्वर्ग' शब्द में जिन गुणों का बोध होता है, सफाई और शुचिता उनमें सर्वप्रमुख है। | 163) 'स्वर्ग' शब्द में जिन गुणों का बोध होता है, सफाई और शुचिता उनमें सर्वप्रमुख है।<br> | ||
164) धरती पर स्वर्ग अवतरित करने का प्रारम्भ सफाई और स्वच्छता से करें। | 164) धरती पर स्वर्ग अवतरित करने का प्रारम्भ सफाई और स्वच्छता से करें।<br> | ||
165) गलती को ढँÚूढ़ना, मानना और सुधारना ही मनुष्य का बड़प्पन है। | 165) गलती को ढँÚूढ़ना, मानना और सुधारना ही मनुष्य का बड़प्पन है।<br> | ||
166) जीवन एक पाठशाला है, जिसमें अनुभवों के आधार पर हम शिक्षा प्राप्त करते हैं। | 166) जीवन एक पाठशाला है, जिसमें अनुभवों के आधार पर हम शिक्षा प्राप्त करते हैं।<br> | ||
167) प्रशंसा और प्रतिष्ठा वही सच्ची है, जो उत्कृष्ट कार्य करने के लिए प्राप्त हो। | 167) प्रशंसा और प्रतिष्ठा वही सच्ची है, जो उत्कृष्ट कार्य करने के लिए प्राप्त हो।<br> | ||
168) दृष्टिकोण की श्रेष्ठता ही वस्तुत: मानव जीवन की श्रेष्ठता है। | 168) दृष्टिकोण की श्रेष्ठता ही वस्तुत: मानव जीवन की श्रेष्ठता है।<br> | ||
169) जीवन एक परीक्षा है। उसे परीक्षा की कसौटी पर सर्वत्र कसा जाता है। | 169) जीवन एक परीक्षा है। उसे परीक्षा की कसौटी पर सर्वत्र कसा जाता है।<br> | ||
170) उत्कृष्टता का दृष्टिकोण ही जीवन को सुरक्षित एवं सुविकसित बनाने एकमात्र उपाय है। | 170) उत्कृष्टता का दृष्टिकोण ही जीवन को सुरक्षित एवं सुविकसित बनाने एकमात्र उपाय है।<br> | ||
171) खुशामद बड़े-बड़ों को ले डूृबती है। | 171) खुशामद बड़े-बड़ों को ले डूृबती है।<br> | ||
172) आशावाद और ईश्वरवाद एक ही रहस्य के दो नाम हैं। | 172) आशावाद और ईश्वरवाद एक ही रहस्य के दो नाम हैं।<br> | ||
173) ईष्र्या न करें, प्रेरणा ग्रहण करें। | 173) ईष्र्या न करें, प्रेरणा ग्रहण करें।<br> | ||
174) ईश्र्या आदमी को उसी तरह खा जाती है, जैसे कपड़े को कीड़ा। | 174) ईश्र्या आदमी को उसी तरह खा जाती है, जैसे कपड़े को कीड़ा।<br> | ||
175) स्वाधीन मन मनुष्य का सच्चा सहायक होता है। | 175) स्वाधीन मन मनुष्य का सच्चा सहायक होता है।<br> | ||
176) अनासक्त जीवन ही शुद्ध और सच्चा जीवन है। | 176) अनासक्त जीवन ही शुद्ध और सच्चा जीवन है।<br> | ||
177) विचारों की पवित्रता स्वयं एक स्वास्थ्यवर्धक रसायन है। | 177) विचारों की पवित्रता स्वयं एक स्वास्थ्यवर्धक रसायन है।<br> | ||
178) सुखी होना है तो प्रसन्न रहिए, निश्चिन्त रहिए, मस्त रहिए। | 178) सुखी होना है तो प्रसन्न रहिए, निश्चिन्त रहिए, मस्त रहिए।<br> | ||
179) ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब वह आचरण में आए। | 179) ज्ञान की सार्थकता तभी है, जब वह आचरण में आए।<br> | ||
180) समय का सुदपयोग ही उन्नति का मूलमंत्र है। | 180) समय का सुदपयोग ही उन्नति का मूलमंत्र है।<br> | ||
181) एक सत्य का आधार ही व्यक्ति को भवसागर से पार कर देता है। | 181) एक सत्य का आधार ही व्यक्ति को भवसागर से पार कर देता है।<br> | ||
182) जाग्रत् आत्मा का लक्षण है- सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् की ओर उन्मुखता। | 182) जाग्रत् आत्मा का लक्षण है- सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् की ओर उन्मुखता।<br> | ||
183) परोपकार से बढ़कर और निरापद दूसरा कोई धर्म नहीं। | 183) परोपकार से बढ़कर और निरापद दूसरा कोई धर्म नहीं।<br> | ||
184) जीवन उसी का सार्थक है, जो सदा परोपकार में प्रवृत्त है। | 184) जीवन उसी का सार्थक है, जो सदा परोपकार में प्रवृत्त है।<br> | ||
185) बड़प्पन सादगी और शालीनता में है। | 185) बड़प्पन सादगी और शालीनता में है।<br> | ||
186) चरित्रनिष्ठ व्यक्ति ईश्वर के समान है। | 186) चरित्रनिष्ठ व्यक्ति ईश्वर के समान है।<br> | ||
187) मनुष्य उपाधियों से नहीं, श्रेष्ठ कार्यों से सज्जन बनता है। | 187) मनुष्य उपाधियों से नहीं, श्रेष्ठ कार्यों से सज्जन बनता है।<br> | ||
188) धनवाद् नहीं, चरित्रवान् सुख पाते हैं। | 188) धनवाद् नहीं, चरित्रवान् सुख पाते हैं।<br> | ||
189) बड़प्पन सुविधा संवर्धन में नहीं, सद्गुण संवर्धन का नाम है। | 189) बड़प्पन सुविधा संवर्धन में नहीं, सद्गुण संवर्धन का नाम है।<br> | ||
190) भाग्य पर नहीं, चरित्र पर निर्भर रहो। | 190) भाग्य पर नहीं, चरित्र पर निर्भर रहो।<br> | ||
191) वही उन्नति कर सकता है, जो स्वयं को उपदेश देता है। | 191) वही उन्नति कर सकता है, जो स्वयं को उपदेश देता है।<br> | ||
192) भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक चमकता हुआ हीरा है। | 192) भलमनसाहत का व्यवहार करने वाला एक चमकता हुआ हीरा है।<br> | ||
193) प्रसुप्त देवत्व का जागरण ही सबसे बड़ी ईश्वर पूजा है। | 193) प्रसुप्त देवत्व का जागरण ही सबसे बड़ी ईश्वर पूजा है।<br> | ||
194) चरित्र ही मनुष्य की श्रेष्ठता का उत्तम मापदण्ड है। | 194) चरित्र ही मनुष्य की श्रेष्ठता का उत्तम मापदण्ड है।<br> | ||
195) आत्मा के संतोष का ही दूसरा नाम स्वर्ग है। | 195) आत्मा के संतोष का ही दूसरा नाम स्वर्ग है।<br> | ||
196) मनुष्य का अपने आपसे बढ़कर न कोई शत्रु है, न मित्र। | 196) मनुष्य का अपने आपसे बढ़कर न कोई शत्रु है, न मित्र।<br> | ||
197) फूलों की तरह हँसते-मुस्कराते जीवन व्यतीत करो। | 197) फूलों की तरह हँसते-मुस्कराते जीवन व्यतीत करो।<br> | ||
198) उत्तम ज्ञान और सद्विचार कभी भी नष्ट नहीं होते है। | 198) उत्तम ज्ञान और सद्विचार कभी भी नष्ट नहीं होते है।<br> | ||
199) अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है। | 199) अपना सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है।<br> | ||
200) भाग्य को मनुष्य स्वयं बनाता है, ईश्वर नहीं। | 200) भाग्य को मनुष्य स्वयं बनाता है, ईश्वर नहीं।<br> | ||
201) अवसर की प्रतीक्षा में मत बैठों। आज का अवसर ही सर्वोत्तम है।<br> | |||
202) दो याद रखने योग्य हैं-एक कत्र्तव्य और दूसरा मरण।<br> | |||
203) कर्म ही पूजा है और कत्र्तव्यपालन भक्ति है।<br> | |||
204) र्हमान और भगवान् ही मनुष्य के सच्चे मित्र है।<br> | |||
205) सम्मान पद में नहीं, मनुष्यता में है।<br> | |||
206) महापुरुषों का ग्रंथ सबसे बड़ा सत्संग है।<br> | |||
207) चिंतन और मनन बिना पुस्तक बिना साथी का स्वाध्याय-सत्संग ही है।<br> | |||
208) बहुमूल्य समय का सदुपयोग करने की कला जिसे आ गई उसने सफलता का रहस्य समझ लिया।<br> | |||
209) सबकी मंगल कामना करो, इससे आपका भी मंगल होगा।<br> | |||
210) स्वाध्याय एक अनिवार्य दैनिक धर्म कत्र्तव्य है।<br> | |||
211) स्वाध्याय को साधना का एक अनिवार्य अंग मानकर अपने आवश्यक नित्य कर्मों में स्थान दें।<br> | |||
212) अपना आदर्श उपस्थित करके ही दूसरों को सच्ची शिक्षा दी जा सकती है।<br> | |||
213) प्रतिकूल परिस्थितियों करके ही दूसरों को सच्ची शिक्षा दी जा सकती है।<br> | |||
214) प्रतिकूल परिस्थिति में भी हम अधीर न हों।<br> | |||
215) जैसा खाय अन्न, वैसा बने मन।<br> | |||
216) यदि मनुष्य सीखना चाहे, तो उसकी प्रत्येक भूल उसे कुछ न कुछ सिखा देती है।<br> | |||
217) कत्र्तव्य पालन ही जीवन का सच्चा मूल्य है।<br> | |||
218) इस संसार में कमजोर रहना सबसे बड़ा अपराध है।<br> | |||
219) काल(समय) सबसे बड़ा देवता है, उसका निरादर मत करा॥<br> | |||
220) अवकाश का समय व्यर्थ मत जाने दो।<br> | |||
221) परिश्रम ही स्वस्थ जीवन का मूलमंत्र है।<br> | |||
222) व्यसनों के वश मेंं होकर अपनी महत्ता को खो बैठे वह मूर्ख है।<br> | |||
223) संसार में रहने का सच्चा तत्त्वज्ञान यही है कि प्रतिदिन एक बार खिलखिलाकर जरूर हँसना चाहिए।<br> | |||
224) विवेक और पुरुषार्थ जिसके साथी हैं, वही प्रकाश प्राप्त करेंगे।<br> | |||
225) अज्ञानी वे हैं, जो कुमार्ग पर चलकर सुख की आशा करते हैं।<br> | |||
226) जो जैसा सोचता और करता है, वह वैसा ही बन जाता है।<br> | |||
227) अज्ञान और कुसंस्कारों से छूटना ही मुक्ति है।<br> | |||
228) किसी को गलत मार्ग पर ले जाने वाली सलाह मत दो।<br> | |||
229) जो महापुरुष बनने के लिए प्रयत्नशील हैं, वे धन्य है।<br> | |||
230) भाग्य भरोसे बैठे रहने वाले आलसी सदा दीन-हीन ही रहेंगे।<br> | |||
231) जिसके पास कुछ भी कर्ज नहीं, वह बड़ा मालदार है।<br> | |||
232) नैतिकता, प्रतिष्ठाओं में सबसे अधिक मूल्यवान् है।<br> | |||
233) जो तुम दूसरों से चाहते हो, उसे पहले तुम स्वयं करो।<br> | |||
234) वे प्रत्यक्ष देवता हैं, जो कत्र्तव्य पालन के लिए मर मिटते हैं।<br> | |||
235) जो असत्य को अपनाता है, वह सब कुछ खो बैठता है।<br> | |||
236) जिनके भीतर-बाहर एक ही बात है, वही निष्कपट व्यक्ति धन्य है।<br> | |||
237) दूसरों की निन्दा-त्रुटियाँ सुनने में अपना समय नष्ट मत करो।<br> | |||
238) आत्मोन्नति से विमुख होकर मृगतृष्णा में भटकने की मूर्खता न करो।<br> | |||
239) आत्म निर्माण ही युग निर्माण है।<br> | |||
240) जमाना तब बदलेगा, जब हम स्वयं बदलेंगे।<br> | |||
241) युग निर्माण योजना का आरम्भ दूसरों को उपदेश देने से नहीं, वरन् अपने मन को समझाने से शुरू होगा।<br> | |||
242) भगवान् की सच्ची पूजा सत्कर्मों में ही हो सकती है।<br> | |||
243) सेवा से बढ़कर पुण्य-परमार्थ इस संसार में और कुछ नहीं हो सकता।<br> | |||
244) स्वयं उत्कृष्ट बनने और दूसरों को उत्कृष्ट बनाने का कार्य आत्म कल्याण का एकमात्र उपाय है।<br> | |||
245) अपने आपको सुधार लेने पर संसार की हर बुराई सुधर सकती है।<br> | |||
246) अपने आपको जान लेने पर मनुष्य सब कुछ पा सकता है।<br> | |||
247) सबके सुख में ही हमारा सुख सन्निहित है।<br> | |||
248) उनसे दूर रहो जो भविष्य को निराशाजनक बताते है।<br> | |||
249) सत्कर्म ही मनुष्य का कत्र्तव्य है।<br> | |||
250) जीवन दिन काटने के लिए नहीं, कुछ महान् कार्य करने के लिए है।<br> | |||
251) राष्ट्र को बुराइयों से बचाये रखने का उत्तरदायित्व पुरोहितों का है।<br> | |||
252) इतराने में नहीं, श्रेष्ठ कार्यों में ऐश्वर्य का उपयोग करो।<br> | |||
253) सतोगुणी भोजन से ही मन की सात्विकता स्थिर रहती है।<br> | |||
254) जीभ पर काबू रखो, स्वाद के लिए नहीं, स्वास्थ्य के लिए खाओ।<br> | |||
255) श्रम और तितिक्षा से शरीर मजबूत बनता है।<br> | |||
256) दूसरे के लिए पाप की बात सोचने में पहले स्वयं को ही पाप का भागी बनना पड़ता है।<br> | |||
257) पराये धन के प्रति लोभ पैदा करना अपनी हानि करना है।<br> | |||
258) ईष्र्या और द्वेष की आग में जलने वाले अपने लिए सबसे बड़े शत्रु हैं।<br> | |||
259) चिता मरे को जलाती है, पर चिन्ता तो जीवित को ही जला डालती है।<br> | |||
260) पेट और मस्तिष्क स्वास्थ्य की गाड़ी को ठीक प्रकार चलाने वाले दो पहिए हैं। इनमेंं से एक बिगड़ गया तो दूसरा भी बेकार ही बना रहेगा।<br> | |||
261) आराम की जिन्गदी एक तरह से मौत का निमंत्रण है।<br> | |||
262) आलस्य से आराम मिल सकता है, पर यह आराम बड़ा महँगा पड़ता है।<br> | |||
263) ईश्वर उपासना की सर्वोपरि सब रोग नाशक औषधि का आप नित्य सेवन करें।<br> | |||
264) मन का नियन्त्रण मनुष्य का एक आवश्यक कत्र्तव्य है।<br> | |||
265) किसी बेईमानी का कोई सच्चा मित्र नहीं होता।<br> | |||
266) शिक्षा का स्थान स्कूल हो सकते हैं, पर दीक्षा का स्थान तो घर ही है।<br> | |||
267) वाणी नहीं, आचरण एवं व्यक्तित्व ही प्रभावशाली उपदेश है<br> | |||
268) आत्म निर्माण का अर्थ है-भाग्य निर्माण।<br> | |||
269) ज्ञान का अंतिम लक्ष्य चरित्र निर्माण ही है।<br> | |||
270) बच्चे की प्रथम पाठशाला उसकी माता की गोद में होती है।<br> | |||
271) शिक्षक राष्ट्र मंदिर के कुशल शिल्पी हैं।<br> | |||
272) शिक्षक नई पीढ़ी के निर्माता होत हैं।<br> | |||
273) समाज सुधार सुशिक्षितों का अनिवार्य धर्म-कत्र्तव्य है।<br> | |||
274) ज्ञान और आचरण में जो सामंजस्य पैदा कर सके, उसे ही विद्या कहते हैं।<br> | |||
275) अब भगवानÔ गंगाजल, गुलाबजल और पंचामृत से स्नान करके संतुष्ट होने वाले नहीं हैं। उनकी माँग श्रम बिन्दुओं की है। भगवान् का सच्चा भक्त वह माना जाएगा जो पसीने की बूँदों से उन्हें स्नान कराये।<br> | |||
276) जो हमारे पास है, वह हमारे उपयोग, उपभोग के लिए है यही असुर भावना है।<br> | |||
277) स्वार्थपरता की कलंक कालिमा से जिन्होंने अपना चेहरा पोत लिया है, वे असुर है।<br> | |||
278) मात्र हवन, धूपबत्ती और जप की संख्या के नाम पर प्रसन्न होकर आदमी की मनोकामना पूरी कर दिया करे, ऐसी देवी दुनिया मेंं कहीं नहीं है।<br> | |||
279) दुनिया में सफलता एक चीज के बदले में मिलती है और वह है आदमी की उत्कृष्ट व्यक्तित्व।<br> | |||
280) जब तक तुम स्वयं अपने अज्ञान को दूर करने के लिए कटिबद्ध नहीं होत, तब तक कोई तुम्हारा उद्धार नहीं कर सकता।<br> | |||
281) सूर्य प्रतिदिन निकलता है और डूबते हुए आयु का एक दिन छीन ले जाता है, पर माया-मोह में डूबे मनुष्य समझते नहीं कि उन्हें यह बहुमूल्य जीवन क्यों मिला ?<br> | |||
282) दरिद्रता पैसे की कमी का नाम नहीं है, वरन् मनुष्य की कृपणता का नाम दरिद्रता है।<br> | |||
283) हे मनुष्य! यश के पीछे मत भाग, कत्र्तव्य के पीछे भाग। लोग क्या कहते हैं यह न सुनकर विवेक के पीछे भाग। दुनिया चाहे कुछ भी कहे, सत्य का सहारा मत छोड़।<br> | |||
284) कामना करने वाले कभी भक्त नहीं हो सकते। भक्त शब्द के साथ में भगवान् की इच्छा पूरी करने की बात जुड़ी रहती है।<br> | |||
285) भगवान् आदर्शों, श्रेष्ठताओं के समूच्चय का नाम है। सिद्धान्तों के प्रति मनुष्य के जो त्याग और बलिदान है, वस्तुत: यही भगवान् की भक्ति है।<br> | |||
286) आस्तिकता का अर्थ है-ईश्वर विश्वास और ईश्वर विश्वास का अर्थ है एक ऐसी न्यायकारी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करना जो सर्वव्यापी है और कर्मफल के अनुरूप हमें गिरने एवं उठने का अवसर प्रस्तुत करती है।<br> | |||
287) पुण्य-परमार्थ का कोई अवसर टालना नहीं चाहिए; क्योंकि अगले क्षण यह देह रहे या न रहे क्या ठिकाना।<br> | |||
288) अपनी दिनचर्या में परमार्थ को स्थान दिये बिना आत्मा का निर्मल और निष्कलंक रहना संभव नहीं।<br> | |||
289) जो मन की शक्ति के बादशाह होते हैं, उनके चरणों पर संसार नतमस्तक होता है।<br> | |||
290) एक बार लक्ष्य निर्धारित करने के बाद बाधाओं और व्यवधानों के भय से उसे छोड़ देना कायरता है। इस कायरता का कलंक किसी भी सत्पुरुष को नहीं लेना चाहिए।<br> | |||
291) आदर्शवाद की लम्बी-चौड़ी बातें बखानना किसी के लिए भी सरल है, पर जो उसे अपने जीवनक्रम में उतार सके, सच्चाई और हिम्मत का धनी वही है।<br> | |||
292) किसी से ईष्र्या करके मनुष्य उसका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकता है, पर अपनी निद्रा, अपना सुख और अपना सुख-संतोष अवश्य खो देता है।<br> | |||
293) ईष्र्या की आग में अपनी शक्तियाँ जलाने की अपेक्षा कहीं अच्छा और कल्याणकारी है कि दूसरे के गुणों और सत्प्रयत्नों को देखें जिसके आधार पर उनने अच्छी स्थिति प्राप्त की है।<br> | |||
294) जिस दिन, जिस क्षण किसी के अंदर बुरा विचार आये अथवा कोई दुष्कर्म करने की प्रवृत्ति उपजे, मानना चाहिए कि वह दिन-वह क्षण मनुष्य के लिए अशुभ है।<br> | |||
295) किसी महान् उद्द्ेश्य को लेकर न चलना उतनी लज्जा की बात नहीं होती, जितनी कि चलने के बाद कठिनाइयों के भय से रुक जाना अथवा पीछे हट जाना।<br> | |||
296) सहानुभूति मनुष्य के हृदय में निवास करने वाली वह कोमलता है, जिसका निर्माण संवेदना, दया, प्रेम तथा करुणा के सम्मिश्रण से होता है।<br> | |||
297) असफलताओं की कसौटी पर ही मनुष्य के धैर्य, साहस तथा लगनशील की परख होती है। जो इसी कसौटी पर खरा उतरता है, वही वास्तव में सच्चा पुरुषार्थी है।<br> | |||
298) 'स्वर्ग' शब्द में जिन गुणों का बोध होता है, सफाई और शुचिता उनमें सर्वप्रमुख है।<br> | |||
299) जाग्रत आत्माएँ कभी चुप बैठी ही नहीं रह सकतीं। उनके अर्जित संस्कार व सत्साहस युग की पुकार सुनकर उन्हें आगे बढ़ने व अवतार के प्रयोजनों हेतु क्रियाशील होने को बाध्य कर देते हैं।<br> | |||
300) जाग्रत् अत्माएँ कभी अवसर नहीं चूकतीं। वे जिस उद्देश्य को लेकर अवतरित होती हैं, उसे पूरा किये बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता।<br> | |||
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14:18, 30 जनवरी 2011 का अवतरण
हम अनमोल वचन उन बातों और लेखों को कहते हैं, जिन्हें संसार के अनेकानेक विद्वानों ने कहे और लिखे हैं, जो जीवन उपयोगी हैं। इन अनमोल वचनों को हम अपने जीवन में अपनाकर अपने जीवन में नई उंमग एवं उत्साह का संचार कर सकते हैं। अनमोल वचन को हम सूक्ति (सु + उक्ति) या सुभाषित (सु + भाषित) भी कहते हैं। इन बातों को अनमोल इसलिए भी कहा जाता हैं क्योंकि यदि हम इन बातों का अर्थ या सार समझेगें, तो हम पायेंगे की इन बातों का कोई मोल नहीं लगा सकता। इन बातों को हम अपने जीवन में अपनाकर अपने जीवन की दिशा को बदल सकते हैं और जीवन की दिशा बदलनें वाली बातों का कभी कोई मोल नही लगा सकता हैं क्योकि ये बातें तो अनमोल होती हैं।
वक्ता हो या संत हो, विद्वान हो या लेखक हो, राजनेता हो या फिर कोई प्रशासक — अपनी बात कहने के साथ-साथ वह उसे सार-रूप में कहता हुआ एक माला के रूप में पिरोता चलता है। इस सार-रूप में कहे गए वाक्यों में ऐसे सूत्र छिपे रहते हैं, जिन पर चिंतन करने से विचारों की एक व्यवस्थित श्रृंखला का सहज रूप से निर्माण होता है। उस समय ऐसा लगता है मानो किसी विशिष्ट विषय पर लिखी गई पुस्तक के पन्ने एक-एक करके पलट रहे हों।
सूत्ररूप में कहे गए ये कथन आत्मविकास के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। इसीलिए व्यक्तित्व विकास पर कार्य कर रहे अनुसंधानकर्ताओं और विद्वानों का कहना है कि प्रत्येक आत्मविकास के इच्छुक को चाहिए कि वह अपने लिए आदर्शवाक्य चुनकर उसे ऐसे स्थान पर रख या चिपका ले, जहां उसकी नजर ज्यादातर पड़ती हो। ऐसा करने से वह विचार अवचेतन में बैठकर उसके व्यक्तित्व को गहराई तक प्रभावित करेगा। इन वाक्यों का आपसी बातचीत में, भाषण आदि में प्रयोग करके आप अपने पक्ष को पुष्ट करते हैं। ऐसा करने से आपकी बातों में वजन तो आता ही है लोगों के बीच आपकी साख भी बढ़ती है।
लोग जीवन में कर्म को महत्त्व देते हैं, विचार को नहीं। ऐसा सोचने वाले शायद यह नहीं जानते कि विचारों का ही स्थूल रूप होता है कर्म अर्थात् किसी भी कर्म का चेतन-अचेतन रूप से विचार ही कारण होता है। जानाति, इच्छति, यतते—जानता है (विचार करता है), इच्छा करता है फिर प्रयत्न करता है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसे आधुनिक मनोविज्ञान भी स्वीकार करता है। जानना और इच्छा करना विचार के ही पहलू हैं । आपने यह भी सुना होगा कि विचारों का ही विस्तार है आपका अतीत, वर्तमान और भविष्य। दूसरे शब्दों में, आज आप जो भी हैं, अपने विचारों के परिमामस्वरूप ही हैं और भविष्य का निर्धारण आपके वर्तमान विचार ही करेंगे। तो फिर उज्ज्वल भविष्य की आकांक्षा करने वाले आप शुभ-विचारों से आपने दिलो-दिमाग को पूरित क्यों नहीं करते।
ख़ंज़र की क्या मजाल जो इक ज़ख़्म कर सके। तेरा ही है ख़याल कि घायल हुआ है तू।। --- स्वामी रामतीर्थ
शब्द ब्रह्म है। भारतीय दर्शकों में शब्द को उत्तम प्रमाण माना गया है। इस संदर्भ में एक अत्यंत प्रचलित कथा का उल्लेख करना यहां युक्तिसंगत होगा। कथा इस प्रकार है — दस व्यक्तियों ने बरसाती नदी पार की। पार पहुँचने पर यह जांचने के लिए कि दसों ने नदी पार कर ली है, कोई नदी में डूब तो नहीं गया, एक ने गिनना शुरू किया। उसके अनुसार उनका एक साथी नदी में बह गया था। एक-एक करके सभी ने गिनती की, प्रत्येक का यही मानना था कि कोई बह गया है। सभी उस दसवें व्यक्ति के लिए रोने और विलाप करने लगे। वहां से गुजर रहे एक बुद्धिमान व्यक्ति ने जब उनसे रोने तथा विलाप करने का कारण पूछा, तो उन्होंने सारी बात कह सुनाई। उस व्यक्ति ने उनको एक पंक्ति में खड़ा होने को कहा। जब सब पंक्ति में खड़े हो गए, तब उनमें से एक को बुलाकर उससे गिनने को कहा। उस व्यक्ति ने नौ तक गिनती गिनी और चुप हो गया। तब आगन्तुक ने कहा दसवें तुम हो’ इतना सुनते ही सारा रोना-विलाप करना अपने आप, बिना किसी प्रयास के समाप्त हो गया। आगंतुक ने क्या किया ? उसके शब्दों ने ही रोने-बिलखने को विदाई दिलवा दी।
ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण मिल जाएँगे, जिनसे इस बात की पुष्टि होगी कि एक वाक्य ने किसी की जीवनधारा ही बदल दी। आपने कहानी सुनी होगी यह छोटी-सी कहानी, जो कुछ ठगों ने मिलकर एक व्यक्ति को, जो बछिया ले जा रहा था, यह विश्वास दिला दिया कि वह हछिया नहीं, बकरी ले जा रहा है। एक विचार यदि आपके अचेतन पर बराबर चोट करे तो आपकी दृष्टि में परिवर्तन हो जाता है।
आद्यशंकराचार्य से जब उनके शिष्यों ने पूछा कि इस संसार - चक्र से मुक्त होने का क्या उपाय है, तो उनका जवाब था - केवल विचार ही। इसीलिए प्रत्येक धर्म-संप्रदाय और जाति के महान पुरुषों ने सुझाव दिया कि जिस दिशा में आप अपने व्यक्तित्व को विकसित करना चाहते हैं, उससे संबंधित विचार को आप किसी ऐसी जगह रखे या चिपकाएं, जहां आपकी नजर बार-बार जाती हो। वाक्य का अर्थ आपके भीतर बूस्टर की सी प्रतिक्रिया करेगा। श्रीमद्भागवद्ग गीता में श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा कि मनुष्य को स्वयं से स्वयं का उद्धार करना होगा। कोई किसी की अवनति के लिए न तो उत्तरदायी है, न ही कोई किसी की उन्नति में अवरोध पैदा कर सकता है। मंथरा ने कैकेई में परिवर्तन कैसे किया ? कैसे वह राम के राजा बनने में विरोधी बन गई ? कैसे उसने अपने पति दशरथ की मृत्यु और अपने वैधव्य की परवाह नहीं की ? इन सभी सवालों का जवाब आपको विचारों के परिवर्तन के इर्द-गिर्द ही घूमता मिलेगा। जिसने ‘क्रिश्चियन साइन्स’ — एक ऐसा उपचार पद्धति जिसमें रोगी अपने स्वस्थ होने के विचारों से स्वयं पूरित करता है और स्वस्थ हो जाता है — का विकास किया, वह स्वयं विचारों के प्रभाव को भोग चुकी थी। तात्पर्य यह है कि एक ही विचार की बारंबारता के प्रभाव की गहराई का आपको एकदम पता नहीं चलेगा, लेकिन कुछ दिनों के बाद उसके फलस्वरूप होने वाले परिवर्तन को आप स्वयं महसूस करेंगे।
महापुरुषों के वाक्यों को पढ़ते समय उनके व्यक्तित्व की गरिमा भी आपको प्रभावित करती है, जिससे अचेतन मन वैसा करने या न करने को विवश हो जाता है। इस प्रकार की बेबसी की स्थिति व्यक्तित्व के विकास के लिए अनुकूल वातावरण पैदा करती है, क्योंकि तब आपके मन के पास मनमानी करने का न तो अवसर होता है, न ही सामर्थ्य। अनुभव में एक बात और आई है कि कभी - कभी आपकी ऐसी शंका का समाधान एक छोटा-सा वाक्य कर जाता है, जिसके लिए आप लंबे समय से भटक रहे होते हैं। ‘देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर’ वाली इन वाक्यों के साथ लागू होती है। बातचीत करते समय, भाषण देते समय, बहस करते वक्त या लिखते समय जब आप इन वाक्यों द्वारा अपने कथन की पुष्टि करते हैं तो आपकी बात में वजन आ जाता है, आपके व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने में इनसे सहायता मिलती है। सुनने - पढ़ने वाले ‘कुएं का मेढक’ नहीं समझते।
हमें विश्वास है कि यह संकलन आपके व्यक्तित्व को विकसित कर आपके जीवन में नई स्फूर्ति का संचार करते हुए आपमें आत्मविश्वास पैदा करेगा कि आपसे श्रेष्ठ कोई नहीं है और कौन-सा काम ऐसा है, जिसे आप नहीं कर सकते।
इन्हें भी देखें: कहावत लोकोक्ति मुहावरे एवं सूक्ति और कहावत
अनमोल वचन |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गांधीजी के शब्दों में (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल)। । अभिगमन तिथि: 20 जनवरी, 2011।
- ↑ स्वामी विवेकानन्द के सुविचार (हिन्दी) (पी.एच.पी.) छठ पूजा। अभिगमन तिथि: 20 जनवरी, 2011।
- ↑ स्वामी रामदेव- अनमोल (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) पंतजलि योग कर्जन। अभिगमन तिथि: 30 जनवरी, 2011।
- ↑ आचार्य बालकृष्ण (हिन्दी) (ए.एस.पी) भारत स्वाभिमान। अभिगमन तिथि: 30 जनवरी, 2011।
- ↑ अनमोल वचन (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) आधारशिला। अभिगमन तिथि: 30 जनवरी, 2011।
- ↑ महापुरूषों के प्रेरक-वचन एवं कहावतें (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) महाशक्ति। अभिगमन तिथि: 30 जनवरी, 2011।
- ↑ सूक्तियाँ (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) अभिव्यक्ति। अभिगमन तिथि: 30 जनवरी, 2011।
- ↑ ज्ञान का सागर- अनमोल वचन (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) अपने विचार। अभिगमन तिथि: 30 जनवरी, 2011।
- ↑ अनमोल वचन (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) quotes। अभिगमन तिथि: 30 जनवरी, 2011।