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इस देव समूह में सर्वप्रधान देवता कौन था, यह निर्धारित करना कठिन है ऋग्वैदिक ऋषियों ने जिस समय जिस देवता की स्तुति की उसे ही सर्वोच्च मानकर उसमें सम्पूर्ण गुणों का अरोपण कर दिया। मैक्स मूलर ने इस प्रवृति की 'हीनाथीज्म' कहा है। सूक्तों की संख्या की दृष्टि यह मानना न्यायसंगत होगा कि इनका सर्वप्रधान देवता इन्द्र था। | इस देव समूह में सर्वप्रधान देवता कौन था, यह निर्धारित करना कठिन है ऋग्वैदिक ऋषियों ने जिस समय जिस देवता की स्तुति की उसे ही सर्वोच्च मानकर उसमें सम्पूर्ण गुणों का अरोपण कर दिया। मैक्स मूलर ने इस प्रवृति की 'हीनाथीज्म' कहा है। सूक्तों की संख्या की दृष्टि यह मानना न्यायसंगत होगा कि इनका सर्वप्रधान देवता इन्द्र था। | ||
ऋग्वेद में अन्तरिक्ष स्थानीय 'इन्द्र' का वर्णन सर्वाधिक प्रतापी देवता के रूप में किया गया है, ऋग्वेद के करीब 250 सूक्तों में इनका वर्णन है। | ऋग्वेद में अन्तरिक्ष स्थानीय 'इन्द्र' का वर्णन सर्वाधिक प्रतापी देवता के रूप में किया गया है, ऋग्वेद के करीब 250 सूक्तों में इनका वर्णन है। इन्हें वर्षा का देवता माना जाता था। उन्होंने वृक्ष राक्षस को मारा था इसीलिए उन्हे वृत्रहन कहा जाता है। अनेक किलों को नष्ट कर दिया था, इस रूप में वे पुरन्दर कहे जाते हैं। इन्द्र ने वृत्र की हत्या करके जल का मुक्त करते हैं इसलिए उन्हे पुर्मिद कहा गया। इन्द्र के लिए एक विशेषण अन्सुजीत (पानी को जीतने वाला) भी आता है।इन्द्र के पिता द्योंस हैं अग्नि उसका यमज भाई है और मरुत उसका सहयोगी है। विष्णु के वृत्र के वध में इन्द्र की सहायता की थी। ऋग्वेद में इन्द्र को समस्त संसार का स्वामी बताया गया है। उसका प्रिय आयुद्ध बज्र है इसलिए उन्हे ब्रजबाहू भी कहा गया है। इन्द्र कुशल रथ-योद्धा (रथेष्ठ), महान विजेता (विजेन्द्र) और सोम का पालन करने वाला (सोमपा) है। इन्द्र तूफ़ान और मेध के भी देवता है । एक शक्तिशाली देवता होने के कारण इन्द्र का शतक्रतु (एक सौ शक्ति धारण करने वाला) कहा गया है वृत्र का वध करने का कारण वृत्रहन और मधवन (दानशील) के रूप में जाना जाता है। उनकी पत्नी इन्द्राणी अथवा शची (ऊर्जा) हैं प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में इन्द्र के साथ कृष्ण के विरोध का उल्लेख मिलता है। | ||
ऋग्वेद में दूसरा महत्त्वपूर्ण देवता 'अग्नि' था, जिसका काम था मनुष्य और देवता के मध्य मध्यस्थ की भूमिका निभाना। अग्नि के द्वारा ही देवताओं आहुतियाँ दी जाती थीं। ऋग्वेद में करीब 200 सूक्तों में अग्नि का जिक्र किया गया है। वे पुरोहितों के भी देवता थे। उनका मूल निवास स्वर्ग है। किन्तु मातरिश्वन (देवता) न उसे पृथ्वी पर लाया। पृथ्वी पर यज्ञ वेदी में अग्नि की स्थापना भृगुओं एवं अंगीरसों ने की। इस कार्य के कारण उन्हे अथर्वन कहा गया है। वह प्रत्येक घर में प्रज्वलित होती थी इस कारण उसे प्रत्येक घर का अतिथि माना गया है। इसकी अन्य उपधियाँ जातदेवस् (चर-अचर का ज्ञात होने के कारण), भुवनचक्षु (सर्वद्रष्टा होने के कारण), हिरन्यदंत (सुरहरे दाँव वाला) अथर्ववेद में इसे प्रातः काल उचित होने वाला मित्र और सांयकाल को वरुण कहा गया है। तीसरा स्थान वम्ण का माना जाता है, जिसे समुद्र का देवता, विश्व के नियामक और शासक सत्य का प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन-रात का कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य का निर्माता के रूप में जाना जाता है। ईरान में | ऋग्वेद में दूसरा महत्त्वपूर्ण देवता 'अग्नि' था, जिसका काम था मनुष्य और देवता के मध्य मध्यस्थ की भूमिका निभाना। अग्नि के द्वारा ही देवताओं आहुतियाँ दी जाती थीं। ऋग्वेद में करीब 200 सूक्तों में अग्नि का जिक्र किया गया है। वे पुरोहितों के भी देवता थे। उनका मूल निवास स्वर्ग है। किन्तु मातरिश्वन (देवता) न उसे पृथ्वी पर लाया। पृथ्वी पर यज्ञ वेदी में अग्नि की स्थापना भृगुओं एवं अंगीरसों ने की। इस कार्य के कारण उन्हे अथर्वन कहा गया है। वह प्रत्येक घर में प्रज्वलित होती थी इस कारण उसे प्रत्येक घर का अतिथि माना गया है। इसकी अन्य उपधियाँ जातदेवस् (चर-अचर का ज्ञात होने के कारण), भुवनचक्षु (सर्वद्रष्टा होने के कारण), हिरन्यदंत (सुरहरे दाँव वाला) अथर्ववेद में इसे प्रातः काल उचित होने वाला मित्र और सांयकाल को वरुण कहा गया है। तीसरा स्थान वम्ण का माना जाता है, जिसे समुद्र का देवता, विश्व के नियामक और शासक सत्य का प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन-रात का कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य का निर्माता के रूप में जाना जाता है। ईरान में इन्हें 'अहुरमज्द' तथा यूनान में 'यूरेनस' के नाम से जाना जाता है। ये ऋतु के संरक्षक थे इसलिए इन्हें ऋतस्यगोप भी कहा जाता था।वरुण के साथ मित्र का भी उल्लेख है इन दोनों को मिलाकर मित्र वरूण कहते हैं। ऋग्वेद के मित्र और वरुण के साथ आप का भी उल्लेख किया गया है। आप का अर्थ जल होता है। ऋग्वेद के मित्र और वरुण का सहस्र स्तम्भों वाले भवन में निवास करने का उल्लेख मिलता है। मित्र के अतिरिक्त वरुण के साथ आप का भी उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में वरुण को वायु का सांस कहा गया है। वरुण देव लोक में सभी सितारों का मार्ग निर्धारित करते हैं। इन्हें असुर भी कहा जाता हैं। इनकी स्तुति लगभग 30 सूक्तियों में की गयी है। देवताओं के तीन वर्गो (पृथ्वी स्थान, वायु स्थान और आकाश स्थान) में वरुण का सर्वोच्च स्थान है। वे देवताओं के देवता है। ऋग्वेद का 7 वाँ मण्डल वरुण देवता को समर्पित है। दण्ड के रूप में लोगों को 'जलोदर रोग' से पीड़ित करते थे। | ||
'द्यौ' (आकाश) को ऋग्वैदिककालीन देवों में सबसे प्राचीन माना जाता है। तत्पश्चात् पृथ्वी भी दोनों द्यावा-पृथ्वी के नाम से जाने जाते थे। आकाश को सर्वश्रेष्ठ देवता के रूप में तथा सोम को वनस्पति देवता के रूप में माना जाता था। | 'द्यौ' (आकाश) को ऋग्वैदिककालीन देवों में सबसे प्राचीन माना जाता है। तत्पश्चात् पृथ्वी भी दोनों द्यावा-पृथ्वी के नाम से जाने जाते थे। आकाश को सर्वश्रेष्ठ देवता के रूप में तथा सोम को वनस्पति देवता के रूप में माना जाता था। | ||
सोमदेवता- ऋग्वेद के नवें मण्डल के सभी 144 सूक्त सोम देवता का समर्पित है। ये चन्द्रमा से सम्बन्धित देवता थे। इनकी तुलना ईरान में होम देवता तथा यूनान में दिआनासिस से की गयी है। 'ऊषा' को प्रगति एवं उत्थान के देवता के रूप में, 'अश्विन' विपत्तियों को हराने वाले देवता के रूप में उल्लेख किया गया है। | सोमदेवता- ऋग्वेद के नवें मण्डल के सभी 144 सूक्त सोम देवता का समर्पित है। ये चन्द्रमा से सम्बन्धित देवता थे। इनकी तुलना ईरान में होम देवता तथा यूनान में दिआनासिस से की गयी है। 'ऊषा' को प्रगति एवं उत्थान के देवता के रूप में, 'अश्विन' विपत्तियों को हराने वाले देवता के रूप में उल्लेख किया गया है। | ||
अश्विन- यह एक कल्याणकारी देवता थे। इसका स्वरूप युगल रूप में था। यह पूषन के पिता और ऊषा के भाई थे। | अश्विन- यह एक कल्याणकारी देवता थे। इसका स्वरूप युगल रूप में था। यह पूषन के पिता और ऊषा के भाई थे। इन्हें नासांत्य भी कहा जाता है। ये चिकित्सा के देवता थे। अपंग व्यक्ति को कृत्रिम पैर प्रदान करते थे। दुर्घटनाग्रस्त्र नाव के यात्रियों की रक्षा करते थे। युवतियों के लिए वर की तलाश करते थे। 'पूषन' को पशुओं के देवता के रूप में संबोधित किया गया है। | ||
पूषण - यह भी सूर्य के सम्बद्ध देवता थे। पूषन के रथ को बकरे खीचतें थे। | पूषण - यह भी सूर्य के सम्बद्ध देवता थे। पूषन के रथ को बकरे खीचतें थे। | ||
विष्णु- ये तीन कदम के देवता थे। | विष्णु- ये तीन कदम के देवता थे। इन्हें विश्व के संरक्षक और पालनकर्ता के रूप में माना जाता था। | ||
रूद्र - यह उग्र देवता था। उग्र रूप में रूद्र तथा मंगलकारी रूप में शिव था। अथर्ववेद में इसे 'भूपति' नीलोदर, लोहित पृष्ठ तथा नीलकण्ठ कहा गया है। उसे कृतवास (खाल धारण करने वाला) भी कहा गया है। ऐतरेय | रूद्र - यह उग्र देवता था। उग्र रूप में रूद्र तथा मंगलकारी रूप में शिव था। अथर्ववेद में इसे 'भूपति' नीलोदर, लोहित पृष्ठ तथा नीलकण्ठ कहा गया है। उसे कृतवास (खाल धारण करने वाला) भी कहा गया है। ऐतरेय | ||
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उत्तर वैदिक काल में पहली बार, आंधा्रे, बंगाल के पुण्ड्रों, उड़ीसा और मध्य प्रान्त के शवरों तथा दक्षिण-पश्चिम के पुलन्दों के नाम मिलते हैं | उत्तर वैदिक काल में पहली बार, आंधा्रे, बंगाल के पुण्ड्रों, उड़ीसा और मध्य प्रान्त के शवरों तथा दक्षिण-पश्चिम के पुलन्दों के नाम मिलते हैं | ||
उत्तर वैदिक काल में छोटे कबीले एक दूसरे में विलीन होकर बड़े क्षेत्रगत जनपदों को जन्म दे रहे थे। उदाहरण के लिए 'पुरु' एवं 'भरत' मिलकर कुरु और 'तुर्वष' तथा 'क्रिवि' मिलकर पांचाल कहलायें। इस प्रकार उत्तर वैदिक काल में कुरु, पांचाल, काशी का विदेश प्रमुख राज्य थे। | उत्तर वैदिक काल में छोटे कबीले एक दूसरे में विलीन होकर बड़े क्षेत्रगत जनपदों को जन्म दे रहे थे। उदाहरण के लिए 'पुरु' एवं 'भरत' मिलकर कुरु और 'तुर्वष' तथा 'क्रिवि' मिलकर पांचाल कहलायें। इस प्रकार उत्तर वैदिक काल में कुरु, पांचाल, काशी का विदेश प्रमुख राज्य थे। | ||
इन 'कुरु' और 'पञचालों' का अधिपत्य दिल्ली पर एवं दोआब के मध्य एवं ऊपरी भागों पर फैला था। उत्तर वैदिक काल में आर्यो का विस्तार अधिक क्षेत्र पर इसलिए हो गया क्योंकि अब वे लोहे के हथियार एवं अश्वचालित रथ का उपयोग जान गए थे। उत्तर वैदिक काल में पञचाल सर्वाधिक विकसित राज्य था। शतपथ ब्राह्मण में | इन 'कुरु' और 'पञचालों' का अधिपत्य दिल्ली पर एवं दोआब के मध्य एवं ऊपरी भागों पर फैला था। उत्तर वैदिक काल में आर्यो का विस्तार अधिक क्षेत्र पर इसलिए हो गया क्योंकि अब वे लोहे के हथियार एवं अश्वचालित रथ का उपयोग जान गए थे। उत्तर वैदिक काल में पञचाल सर्वाधिक विकसित राज्य था। शतपथ ब्राह्मण में इन्हें वैदिक सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कहा गया है। | ||
'अर्थर्ववेद' में कुरु राज्य की समृद्धि का चित्रण है। परीक्षित और जनमेजय यहाँ के प्रमुख राजा थे। परीक्षित को मृत्यु लोक का देवता कहा गया है। अथर्ववेद के 'छोन्दोग्योपनिषद' में कहा गया है कि कुरु जनपद में कभी-कभी भी ओले नही पड़े है और न ही टिड्डियों के उपद्रव के कारण अकाल पड़ा। कुरु कुल का इतिहास महाभारत यु़द्ध (18 दिनो तक चलने वाला, संभवतः 950 ई.पू. के आस-पास) के नाम से विख्यात है। (महाभारत महाकाव्य पर आधारित) | 'अर्थर्ववेद' में कुरु राज्य की समृद्धि का चित्रण है। परीक्षित और जनमेजय यहाँ के प्रमुख राजा थे। परीक्षित को मृत्यु लोक का देवता कहा गया है। अथर्ववेद के 'छोन्दोग्योपनिषद' में कहा गया है कि कुरु जनपद में कभी-कभी भी ओले नही पड़े है और न ही टिड्डियों के उपद्रव के कारण अकाल पड़ा। कुरु कुल का इतिहास महाभारत यु़द्ध (18 दिनो तक चलने वाला, संभवतः 950 ई.पू. के आस-पास) के नाम से विख्यात है। (महाभारत महाकाव्य पर आधारित) | ||
उत्तर वैदिक काल में त्रिककुद, कैञ्ज तथा मैनाम (हिमालय क्षेत्र मं स्थित) पर्वतों का उल्लेख मिलता है। | उत्तर वैदिक काल में त्रिककुद, कैञ्ज तथा मैनाम (हिमालय क्षेत्र मं स्थित) पर्वतों का उल्लेख मिलता है। | ||
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‘वामण पुराण‘ में शैव सम्प्रदाय का संख्या चार बताई गई है। ये है- शैव, पाशुपत, कापालिक एवं कालामुख। पाशुपत सम्प्रदाय शैवों का सर्वाधिक प्राचीन सम्प्रदाय हैं। इसका विवरण महाभारत में मिलता है। इस सम्प्रदाय के सिद्धान्त के तीन अंग है- पति (स्वामी), पशु (आत्मा), और पाश (वचन)। इस मत के चार पाद या पाश (बंधन) है- विद्या, क्रिया, योग और चर्या। इसके संस्थापक नकुलीश या लकुलीश थे, जिन्हें भगवान शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता था। इस सम्प्रदाय के अनुयायियों को पंचार्थिक कहा गया। इस मत का प्रमुख सैद्धान्तिक ग्रंथ ‘पाशुपत सूत्र‘ है। इसकी रचना महेश्वर ने की है। पंचाध्यायी या ‘पंचातविद्या‘ लकुलिश द्वारा रचित ग्रंथ है। लकुलिश का मंदिर मेवाड में है। कापालिक सम्प्रदाय के इष्टदेव भैरव थे, जिन्हें शिव का अवतार माना जाता है। इस सम्प्रदाय के उपासक क्रोधी स्वभाव के होते हैं। इस सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र ‘श्री शैल‘ नामक स्थान था जिसका प्रमाण भवभूति के ‘मालतीभाव‘ से मिलता है। | ‘वामण पुराण‘ में शैव सम्प्रदाय का संख्या चार बताई गई है। ये है- शैव, पाशुपत, कापालिक एवं कालामुख। पाशुपत सम्प्रदाय शैवों का सर्वाधिक प्राचीन सम्प्रदाय हैं। इसका विवरण महाभारत में मिलता है। इस सम्प्रदाय के सिद्धान्त के तीन अंग है- पति (स्वामी), पशु (आत्मा), और पाश (वचन)। इस मत के चार पाद या पाश (बंधन) है- विद्या, क्रिया, योग और चर्या। इसके संस्थापक नकुलीश या लकुलीश थे, जिन्हें भगवान शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता था। इस सम्प्रदाय के अनुयायियों को पंचार्थिक कहा गया। इस मत का प्रमुख सैद्धान्तिक ग्रंथ ‘पाशुपत सूत्र‘ है। इसकी रचना महेश्वर ने की है। पंचाध्यायी या ‘पंचातविद्या‘ लकुलिश द्वारा रचित ग्रंथ है। लकुलिश का मंदिर मेवाड में है। कापालिक सम्प्रदाय के इष्टदेव भैरव थे, जिन्हें शिव का अवतार माना जाता है। इस सम्प्रदाय के उपासक क्रोधी स्वभाव के होते हैं। इस सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र ‘श्री शैल‘ नामक स्थान था जिसका प्रमाण भवभूति के ‘मालतीभाव‘ से मिलता है। | ||
कालामुख सम्प्रदाय के लोग भी अतिवादी विचारधारा के थे। शिव पुराण में इन्हें, ‘महाव्रतधर‘ कहा गया है। इस सम्प्रदाय के लोग नर-कपाल में ही भोजन, जल तथा सुरापान करते है और साथ ही अपने शरीर पर चिता की भस्म मलते हैं। | कालामुख सम्प्रदाय के लोग भी अतिवादी विचारधारा के थे। शिव पुराण में इन्हें, ‘महाव्रतधर‘ कहा गया है। इस सम्प्रदाय के लोग नर-कपाल में ही भोजन, जल तथा सुरापान करते है और साथ ही अपने शरीर पर चिता की भस्म मलते हैं। | ||
लिंगायात सम्प्रदाय दक्षिण में प्रचलित था, | लिंगायात सम्प्रदाय दक्षिण में प्रचलित था, इन्हें जंगम भी कहा जाता था। इस सम्प्रदाय के लोग शिव लिंग की उपासना करते हैं। ‘बसव पुराण‘ इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक अल्लभ प्रभु एवं इनके शिष्य बसव का उल्लेख मिलता है। इस सम्प्रदाय की स्थापना 12वीं शताब्दी में की गई थी। इस सम्प्रदाय को वीर शिव सम्प्रदाय भी कहा जाता है। | ||
कश्मीरी शैव सम्प्रदाय का विकास कश्मीर में हुआ। यह सम्प्रदाय दार्शनिक एवं ज्ञानमार्गी है। इस सम्प्रदाय के संस्थापक वसुगुप्त थे। इस सम्प्रदाय को त्रिक, स्पंद एवं प्रत्यभिज्ञा नाम से भी जाना जाता है। कश्मीरी शैव मत के प्रत्यभिज्ञा, सम्प्रदाय के संस्थापक सोमानंद माने जाते हैं। अन्य सम्प्रदायों में दसवी शती में मत्स्येन्द्रनाथ ने ‘नाथ सम्प्रदाय‘ की स्थापना की। इस सम्प्रदाय का व्यापक प्रचार-प्रसार बाबा गोरखनाथ के समय में हुआ। | कश्मीरी शैव सम्प्रदाय का विकास कश्मीर में हुआ। यह सम्प्रदाय दार्शनिक एवं ज्ञानमार्गी है। इस सम्प्रदाय के संस्थापक वसुगुप्त थे। इस सम्प्रदाय को त्रिक, स्पंद एवं प्रत्यभिज्ञा नाम से भी जाना जाता है। कश्मीरी शैव मत के प्रत्यभिज्ञा, सम्प्रदाय के संस्थापक सोमानंद माने जाते हैं। अन्य सम्प्रदायों में दसवी शती में मत्स्येन्द्रनाथ ने ‘नाथ सम्प्रदाय‘ की स्थापना की। इस सम्प्रदाय का व्यापक प्रचार-प्रसार बाबा गोरखनाथ के समय में हुआ। | ||
शैव एवं वैष्णव मत में दोनों ईश्वरवादी एवं एकेश्वरवादी है। जहाँ वैष्णव मत व्यक्ति के मानवीय एवं भावात्मक पक्ष को छूता है वहीं पर शैव दार्शनिक एवं वैज्ञानिक विचाराधारा पर आधारित है। | शैव एवं वैष्णव मत में दोनों ईश्वरवादी एवं एकेश्वरवादी है। जहाँ वैष्णव मत व्यक्ति के मानवीय एवं भावात्मक पक्ष को छूता है वहीं पर शैव दार्शनिक एवं वैज्ञानिक विचाराधारा पर आधारित है। | ||
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मौर्य साम्राज्य की स्थापना | मौर्य साम्राज्य की स्थापना | ||
चन्द्रगुप्त मौर्य (323-298 ई.पू.) | चन्द्रगुप्त मौर्य (323-298 ई.पू.) | ||
चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरु विष्णुगुप्त अथवा चाणक्य की सहायता से नंद वंश के अन्तिम शासक धनानदं हो हराकर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। चन्द्रगुप्त मौर्य की जाति के विषय में एक मत नहीं है। ब्राह्राण साहित्य | चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरु विष्णुगुप्त अथवा चाणक्य की सहायता से नंद वंश के अन्तिम शासक धनानदं हो हराकर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। चन्द्रगुप्त मौर्य की जाति के विषय में एक मत नहीं है। ब्राह्राण साहित्य इन्हें ‘शुद्र‘ तथा बौद्ध एवं जैन गं्रथ इन्हें ‘क्षत्रिय‘ कुल में उत्पन्न बताते हैं। विशाखदत्त कृत ‘मुद्राराक्षस‘ में इनके लिए ‘वृषल‘ शब्द का प्रयोग किया गया है। ‘वृषल‘ शब्द का आशय निम्न कुल से है। रोमिला थापर ने चन्द्रगुप्त मौर्य को वैश्य जाति का माना। यूनानी स्त्रोत के अनुसार वह साधारण कुल में पैदा हुआ था। स्पूनर महोदय मौर्यो को पारसीक मानते हैं। कार्टिअस, डिओगेरस, प्लूटार्क तथा जस्टिन भी मौर्यो को निम्न जाति का मानते हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य की ‘चन्द्रगुप्त‘ संज्ञा का प्राचीनतम अभिलेख साक्ष्य रूददामन के जूनागढ अभिलेख से मिलता है। | ||
मगध के राजसिंहासन पर बैठकर चन्द्रगुप्त ने एक ऐसे साम्राज्य की नींव डाली जो सम्पूर्ण भारत में फैला था। चन्द्रगुप्त के विषय में जस्टिन का कथन है। कि उसने (चन्द्रगुप्त) छः लाख की सेना लेकर सम्पूर्ण भारत को रौंद डाला और उस पर अपना अधिकार कर लिया। चन्द्रगुप्त मौर्य ने उत्तरी-पश्चिमी भारत को सिकन्दर के उत्तराधिकारियों से मुक्त कर, नंदों का उन्मूलन कर, सेल्यूकस को पराजित कर संधि के लिए विवश कर जिस साम्राज्य की स्थापना की उसकी सीमायें उत्तर-पश्चिम में ईरान की सीमा से लेकर दक्षिण में वर्तमान उत्तरी कर्नाटक एवं पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम मंे सोपारा तथा सुराष्ट्र तक फैली हुई थी। महावंश की टीका मंे उसे सकल जम्बूद्वीप का शासक कहा गया है। रूद्रदामन ने जूनागढ अभिलेख से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त पुष्यगुप्त का वर्णन है जिसने सुदर्शन झील का निर्माण कराया था। महाराष्ट्र के थाने ज़िले में सोपारा में स्थित अशोक के शिलालेख से यह पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने सौराष्ट्र की सीमाओं से परे पश्चिमी भारत की अपनी विजय को कोंकण तक विस्तार किया था। | मगध के राजसिंहासन पर बैठकर चन्द्रगुप्त ने एक ऐसे साम्राज्य की नींव डाली जो सम्पूर्ण भारत में फैला था। चन्द्रगुप्त के विषय में जस्टिन का कथन है। कि उसने (चन्द्रगुप्त) छः लाख की सेना लेकर सम्पूर्ण भारत को रौंद डाला और उस पर अपना अधिकार कर लिया। चन्द्रगुप्त मौर्य ने उत्तरी-पश्चिमी भारत को सिकन्दर के उत्तराधिकारियों से मुक्त कर, नंदों का उन्मूलन कर, सेल्यूकस को पराजित कर संधि के लिए विवश कर जिस साम्राज्य की स्थापना की उसकी सीमायें उत्तर-पश्चिम में ईरान की सीमा से लेकर दक्षिण में वर्तमान उत्तरी कर्नाटक एवं पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम मंे सोपारा तथा सुराष्ट्र तक फैली हुई थी। महावंश की टीका मंे उसे सकल जम्बूद्वीप का शासक कहा गया है। रूद्रदामन ने जूनागढ अभिलेख से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त पुष्यगुप्त का वर्णन है जिसने सुदर्शन झील का निर्माण कराया था। महाराष्ट्र के थाने ज़िले में सोपारा में स्थित अशोक के शिलालेख से यह पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने सौराष्ट्र की सीमाओं से परे पश्चिमी भारत की अपनी विजय को कोंकण तक विस्तार किया था। | ||
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09:05, 20 फ़रवरी 2011 का अवतरण
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प्राचीन भारतीय इतिहास के स्त्रोत
भारतीय इतिहास जानने के स्त्रोत को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता हैं -
- साहित्यिक साक्ष्य
- विदेशी यात्रियों का विवरण
- पुरातत्त्व सम्बन्धी साक्ष्य
साहित्यिक साक्ष्य
साहित्यिक साक्ष्य के अन्तर्गत साहित्यिक ग्रन्थों से प्राप्त ऐतिहासिक वस्तुओं का अध्ययन किया जाता है। साहित्यिक साक्ष्य को दो भागों में विभाजित किया जाता सकता है-
- धार्मिक साहित्य
- लौकिक साहित्य।
धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेत्तर साहित्य की चर्चा की जाती है।
- ब्राह्मण ग्रन्थों में -
लौकिक साहित्य के अन्तर्गत ऐतिहासिक ग्रन्थ, जीवनी, कल्पना-प्रधान तथा गल्प साहित्य का वर्णन किया जाता है।
धर्म-ग्रन्थ
प्राचीन काल से ही भारत के धर्म प्रधान देश होने के कारण यहां प्रायः तीन धार्मिक धारायें- वैदिक, जैन एवं बौद्ध प्रवाहित हुईं। वैदिक धर्म ग्रन्थ को ब्राह्मण धर्म ग्रन्थ भी कहा जाता है।
ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ
ब्राह्मण धर्म - ग्रंथ के अन्तर्गत वेद, उपनिषद्, महाकाव्य तथा स्मृति ग्रंथों को शामिल किया जाता है।
वेद
वेद एक महत्त्वपूर्ण ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ है। वेद शब्द का अर्थ ‘ज्ञान‘ महतज्ञान अर्थात ‘पवित्र एवं आध्यात्मिक ज्ञान‘ है। यह शब्द संस्कृत के ‘विद्‘ धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना। वेदों के संकलनकर्ता 'कृष्ण द्वैपायन' थे। कृष्ण द्वैपायन को वेदों के पृथक्करण-व्यास के कारण 'वेदव्यास' की संज्ञा प्राप्त हुई। वेदों से ही हमें आर्यो के विषय में प्रारम्भिक जानकारी मिलती है। कुछ लोग वेदों को अपौरूषेय अर्थात दैवकृत मानते हैं। वेदों की कुल संख्या चार है-
वेद | विषय वस्तु | |
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1- ऋग्वेद |
यह ऋचाओं का संग्रह है। |
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2- सामवेद |
यह गीति/रूप मंत्रों का संग्रह है और इसके अधिकांश गीत ऋग्वेद से लिए गए हैं। | |
3- यजुर्वेद |
इसमें यागानुष्ठान के लिए विनियोग वाक्यों का समावेश है। | |
4- अथर्ववेद |
यह तंत्र-मंत्रों का संग्रह है। |
- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद, इन चारों वेदों को 'संहिता' कहा जाता है।
- इनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद के सम्मिलित संग्रह को 'वेदत्रयी' कहा जाता है।
- उपर्युक्त चारों वेदों में से प्रत्येक के एक-एक उपवेद भी है।
- ऋग्वेद का उपवेद 'आयुर्वेद' है, सामवेद का उपवेद 'गन्धर्ववेद' है, जो संगीत से संबद्व है।
- यजुर्वेद का उपवेद 'धनुर्वेद' है, जो युद्व कलाओं का वर्णन करता है।
- अथर्ववेद का उपवेद 'शिल्पवेद' है।
- इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण उपवेद है 'आयुर्वेद' है।
- इसके आठ भाग हैं- शल्य, शालक्य, काय-चिकित्सा, भूत विद्या, कुमारभृत्य, अंगदतन्त्र, रसायन और वाजीकरण।
- एक मान्यता के अनुसार आयुर्वेद के जन्मदाता प्रजापति (ब्रह्मा), धनुर्वेद के जन्मदाता विश्वामित्र, गन्धर्व के जन्मदाता नारद तथा शिल्पवेद के जन्मदाता विश्वकर्मा थे।
- इन ग्रन्थों से प्राचीन भारत में प्रचलित विभिन्न विधाओं का ज्ञान होता है।
वेद एवं उनके उपवेद तथा प्रवर्तक
वेद | उपवेद | प्रवर्तक |
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1- ऋग्वेद |
आयुर्वेद -1.शल्य, 2.शाल्यक, 3.काय चिकित्सा 4.भूतविद्या, 5.कुमार भृत्य, 6.अंगद तन्त्र, 7.रसायन, 8.वाजीकरण। |
|
2- सामवेद |
गंधर्ववेद (संगीत कला) |
|
3- यजुर्वेद |
धनुर्ववेद (युद्व कला) |
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4- अथर्ववेद |
शिल्पवेद (भवन निर्माण कला ) |
ब्राह्मण ग्रंथ
यज्ञों एवं कर्मकाण्डों के विधान एवं इनकी क्रियाओं को भली-भांति समझने के लिए ही इस ब्राह्मण ग्रंथ की रचना हुई। यहां पर 'ब्रह्म' का शाब्दिक अर्थ हैं- यज्ञ अर्थात यज्ञ के विषयों का अच्छी तरह से प्रतिपादन करने वाले ग्रंथ ही 'ब्राह्मण ग्रंथ' कहे गये। ब्राह्मण ग्रन्थों में सर्वथा यज्ञों की वैज्ञानिक, अधिभौतिक तथा अध्यात्मिक मीमांसा प्रस्तुत की गयी है। यह ग्रंथ अधिकतर गद्य में लिखे हुए हैं। इनमें उत्तरकालीन समाज तथा संस्कृति के सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त होता है। प्रत्येक वेद (संहिता) के अपने-अपने ब्राह्मण होते हैं, जैसे-
वेद | सम्बन्धित ब्राह्मण |
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1- ऋग्वेद |
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2- शुक्ल यजुर्वेद | |
3- कृष्ण यजुर्वेद | |
4- सामवेद |
पंचविंश या ताण्ड्य ब्राह्मण, षडविंश ब्राह्मण, सामविधान ब्राह्मण, वंश ब्राह्मण, मंत्र ब्राह्मण, जैमिनीय ब्राह्मण |
5- अथर्ववेद |
आरण्यक
आरयण्कों में दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों यथा, आत्मा, मृत्यु, जीवन आदि का वर्णन होता है। इन ग्रंथों को आरयण्क इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन ग्रंथों का मनन अरण्य अर्थात वन में किया जाता था। ये ग्रन्थ अरण्यों (जंगलों) में निवास करने वाले संन्यासियों के मार्गदर्शन के लिए लिखे गए थै। आरण्यकों में ऐतरेय आरण्यक, शांखायन्त आरण्यक, बृहदारण्यक, मैत्रायणी उपनिषद आरण्यक तथा तवलकार आरण्यक (इसे जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण भी कहते हैं) मुख्य हैं। ऐतरेय तथा शांखायन ऋग्वेद से, बृहदारण्यक शुक्ल यजुर्वेद से, मैत्रायणी उपनिषद आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद से तथा तवलकार आरण्यक सामवेद से सम्बद्ध हैं। अथर्ववेद का कोई आरण्यक उपलब्ध नहीं है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राण विद्या की महिमा का प्रतिपादन विशेष रूप से मिलता है। इनमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी हैं, जैसे- तैत्तिरीय आरण्यक में कुरु, पंचाल, काशी, विदेह आदि महाजनपदों का उल्लेख है।
वेद एवं संबधित आरयण्क
वेद | सम्बन्धित आरण्यक |
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1- ऋग्वेद |
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2- यजुर्वेद |
बृहदारण्यक, मैत्रायणी, तैत्तिरीयारण्यक |
3- सामवेद | |
4- अथर्ववेद |
कोई आरण्यक नहीं |
उपनिषद
उपनिषदों की कुल संख्या 108 है। प्रमुख उपनिषद हैं- ईश, केन, कठ, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक, कौषीतकि, मुण्डक, प्रश्न, मैत्राणीय आदि। लेकिन शंकराचार्य ने जिन 10 उपनिषदों पर स्पना भाष्य लिखा है, उनको प्रमाणिक माना गया है।ये हैं - ईश, केन, माण्डूक्य, मुण्डक, तैत्तिरीय, ऐतरेय, प्रश्न, छान्दोग्य और बृहदारण्यक उपनिषद। इसके अतिरिक्त श्वेताश्वतर और कौषीतकि उपनिषद भी महत्त्वपूर्ण हैं। इस प्रकार 103 उपनिषदों में से केवल 13 उपनिषदों को ही प्रामाणिक माना गया है। भारत का प्रसिद्ध आदर्श वाक्य 'सत्यमेव जयते' मुण्डोपनिषद से लिया गया है। उपनिषद गद्य और पद्य दोनों में हैं, जिसमें प्रश्न, माण्डूक्य, केन, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और कौषीतकि उपनिषद गद्य में हैं तथा केन, ईश, कठ और श्वेताश्वतर उपनिषद पद्य में हैं।
वेद एवं सम्बंधित उपनिषद
वेद | सम्बन्धित उपनिषद |
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1- ऋग्वेद |
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2- यजुर्वेद | |
3- शुक्ल यजुर्वेद | |
4- कृष्ण यजुर्वेद |
तैत्तिरीयोपनिषद, कठोपनिषद, श्वेताश्वतरोपनिषद, मैत्रायणी उपनिषद |
5- सामवेद | |
6- अथर्ववेद |
वेदांग
वेदों के अर्थ को अच्छी तरह समझने में वेदांग काफ़ी सहायक होते हैं। वेदांग शब्द से अभिप्राय है- 'जिसके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को समझने में सहायता मिले'। वेदांगो की कुल संख्या 6 है, जो इस प्रकार है-
- शिक्षा - वैदिक वाक्यों के स्पष्ट उच्चारण हेतु इसका निर्माण हुआ। वैदिक शिक्षा सम्बंधी प्राचीनतम साहित्य 'प्रातिशाख्य' है।
- कल्प - वैदिक कर्मकाण्डों को सम्पन्न करवाने के लिए निश्चित किए गये विधि नियमों का प्रतिपादन 'कल्पसूत्र' में किया गया है।
- व्याकरण - इसके अन्तर्गत समासों एवं सन्धि आदि के नियम, नामों एवं धातुओं की रचना, उपसर्ग एवं प्रत्यय के प्रयोग आदि के नियम बताये गये हैं। पाणिनि की अष्टाध्यायी प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ है।
- निरूक्त - शब्दों की व्युत्पत्ति एवं निर्वचन बतलाने वाले शास्त्र 'निरूक्त' कहलातें है। क्लिष्ट वैदिक शब्दों के संकलन ‘निघण्टु‘ की व्याख्या हेतु यास्क ने 'निरूक्त' की रचना की थी, जो भाषा शास्त्र का प्रथम ग्रंथ माना जाता है।
- छन्द - वैदिक साहित्य में मुख्य रूप से गायत्री, त्रिष्टुप, जगती, वृहती आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। पिंगल का छन्दशास्त्र प्रसिद्ध है।
- ज्योतिष - इसमें ज्योतिष शास्त्र के विकास को दिखाया गया है। इसकें प्राचीनतम आचार्य 'लगध मुनि' है।
ब्राह्मण ग्रन्थों में धर्मशास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
- धर्मशास्त्र में चार साहित्य आते हैं- 1- धर्म सूत्र, 2- स्मृति, 3- टीका एवं 4- निबन्ध ।
स्मृतियां
स्मृतियों को 'धर्म शास्त्र' भी कहा जाता है- 'श्रस्तु वेद विज्ञेयों धर्मशास्त्रं तु वैस्मृतिः।' स्मृतियों का उदय सूत्रों को बाद हुआ। मनुष्य के पूरे जीवन से सम्बधित अनेक क्रिया-कलापों के बारे में असंख्य विधि-निषेधों की जानकारी इन स्मृतियों से मिलती है। सम्भवतः मनुस्मृति (लगभग 200 ई.पूर्व. से 100 ई. मध्य) एवं याज्ञवल्क्य स्मृति सबसे प्राचीन हैं। उस समय के अन्य महत्त्वपूर्ण स्मृतिकार थे- नारद, पराशर, बृहस्पति, कात्यायन, गौतम, संवर्त, हरीत, अंगिरा आदि, जिनका समय सम्भवतः 100 ई. से लेकर 600 ई. तक था। मनुस्मृति से उस समय के भारत के बारे में राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जानकारी मिलती है। नारद स्मृति से गुप्त वंश के संदर्भ में जानकारी मिलती है। मेधातिथि, मारूचि, कुल्लूक भट्ट, गोविन्दराज आदि टीकाकारों ने 'मनुस्मृति' पर, जबकि विश्वरूप, अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि ने 'याज्ञवल्क्य स्मृति' पर भाष्य लिखे हैं।
मुख्य निबन्धकार एवं रचनाएं
मुख्य निबन्धकार | रचनाएं |
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1- देवण्णभट्ट |
स्मृतिचन्द्रिका |
2- श्रीदत्त उपाध्याय |
आचारादर्श |
3- माध्वाचार्य |
पाराशरमाधवीय |
4- जीमूतवाहन |
दायभाग |
5- रघुनन्दन |
स्मृतितत्व |
महाकाव्य
'रामायण' एवं 'महाभारत', भारत के दो सर्वाधिक प्राचीन महाकाव्य हैं। यद्यपि इन दोनों महाकाव्यों के रचनाकाल के विषय में काफ़ी विवाद है, फिर भी कुछ उपलब्ध साक्ष्यों के आधर पर इन महाकाव्यों का रचनाकाल चौथी शती ई.पू. से चौथी शती ई. के मध्य माना गया है।
रामायण
रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकि द्वारा पहली एवं दूसरी शताब्दी के दौरान संस्कृत भाषा में की गयी । बाल्मीकि कृत रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे, जो कालान्तर में 12000 हुए और फिर 24000 हो गये । इसे 'चतुर्विशिति साहस्त्री संहिता' भ्री कहा गया है। बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण- बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड एवं उत्तराकाण्ड नामक सात काण्डों में बंटा हुआ है। रामायण द्वारा उस समय की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है। रामकथा पर आधारित ग्रंथों का अनुवाद सर्वप्रथम भारत से बाहर चीन में किया गया। भूशुण्डि रामायण को 'आदिरामायण' कहा जाता है।
महाभारत
महर्षि व्यास द्वारा रचित महाभारत महाकाव्य रामायण से बृहद है। इसकी रचना का मूल समय ईसा पूर्व चौथी शताब्दी माना जाता है। महाभारत में मूलतः 8800 श्लोक थे तथा इसका नाम 'जयसंहिता' (विजय संबंधी ग्रंथ) था। बाद में श्लोकों की संख्या 24000 होने के पश्चात यह वैदिक जन भरत के वंशजों की कथा होने के कारण ‘भारत‘ कहलाया। कालान्तर में गुप्त काल में श्लोकों की संख्या बढ़कर एक लाख होने पर यह 'शतसाहस्त्री संहिता' या 'महाभारत' केहलाया। महाभारत का प्रारम्भिक उल्लेख 'आश्वलाय गृहसूत्र' में मिलता है। वर्तमान में इस महाकाव्य में लगभग एक लाख श्लोकों का संकलन है। महाभारत महाकाव्य 18 पर्वो- आदि, सभा, वन, विराट, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शान्ति, अनुशासन, अश्वमेघ, आश्रमवासी, मौसल, महाप्रास्थानिक एवं स्वर्गारोहण में विभाजित है। महाभारत में ‘हरिवंश‘ नाम परिशिष्ट है। इस महाकाव्य से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है।
पुराण
प्राचीन आख्यानों से युक्त ग्रंथ को पुराण कहते हैं। सम्भवतः 5वीं से 4थी शताब्दी ई.पू. तक पुराण अस्तित्व में आ चुके थे। ब्रह्म वैवर्त पुराण में पुराणों के पांच लक्षण बताये ये हैं। यह हैं- सर्प, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित। कुल पुराणों की संख्या 18 हैं- 1. ब्रह्म पुराण 2. पद्म पुराण 3. विष्णु पुराण 4. वायु पुराण 5. भागवत पुराण 6. नारदीय पुराण, 7. मार्कण्डेय पुराण 8. अग्नि पुराण 9. भविष्य पुराण 10. ब्रह्म वैवर्त पुराण, 11. लिंग पुराण 12. वराह पुराण 13. स्कन्द पुराण 14. वामन पुराण 15. कूर्म पुराण 16. मत्स्य पुराण 17. गरुड़ पुराण और 18. ब्रह्माण्ड पुराण इन पुराणों में विष्णु, मत्स्य, वायु, ब्रह्माण्ड, तथा भागवत पुराण सर्वाधिक ऐतिहासिक महत्व के हैं क्योंकि इनमें राजाओं की वंशावलियां पायी जाती हैं। अठारह पुराणों में सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक मत्स्य पुराण है। इसके द्वारा सातवाहन वंश के विषय में विशेष जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त विष्णु पुराण से मौर्य वंश एवं गुप्त वंश की एवं वायु पुराण से शुंग वंश एवं गुप्त वंश के विषय में विशेष जानकारी मिलती है। इस प्रकार पुराणों से हमें शिशुनाग, नन्द, मौर्य, शुंग, सातवाहन एवं गुप्त वंश के विषय में ज्ञान होता है। मार्कण्डेय पुराण मुख्यतः देवी दुर्गा से संबधित है। इसी में 'दुर्गा सप्तशती' नामक अंश शामिल है। अग्नि पुराण में तांत्रिक पद्धति का उल्लेख है। इसी पुराण में गणेश पूजा का प्रथम बार उल्लेख मिलता है।
बौद्ध साहित्य
बौद्ध साहित्य को ‘त्रिपिटक‘ कहा जाता है। महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के उपरान्त आयोजित विभिन्न बौद्ध संगीतियों में संकलित किये गये त्रिपिटक (संस्कृत त्रिपिटक) सम्भवतः सर्वाधिक प्राचीन धर्मग्रंथ हैं। वुलर एवं रीज डेविड्ज महोदय ने ‘पिटक‘ का शाब्दिक अर्थ टोकरी बताया है। त्रिपिटक हैं-
- सुत्तपिटक,
- विनयपिटक और
- अभिधम्मपिटक।
जैन साहित्य
ऐतिहसिक जानकारी हेतु जैन साहित्य भी बौद्ध साहित्य की ही तरह महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक उपलब्ध जैन साहित्य प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में मिलतें है। जैन साहित्य, जिसे ‘आगम‘ कहा जाता है, इनकी संख्या 12 बतायी जाती है। आगे चलकर इनके 'उपांग' भी लिखे गये । आगमों के साथ-साथ जैन ग्रंथों में 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, एक नंदि सूत्र एक अनुयोगद्वार एवं चार मूलसूत्र हैं। इन आगम ग्रंथों की रचना सम्भवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यो द्वारा महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद की गयी।
लौकिक साहित्य
इस प्रकार के साहित्य के अन्तर्गत ऐतिहासिक एवं समसामयिक साहित्य आते हैं, ऐसे साहित्य को धर्मेत्तर साहित्य भी कहते हैं इस प्रकार की कृतियों से तत्कालीन भारतीय समाज के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को जानने में काफ़ी मदद मिलती है। ऐसी रचनाओं में सर्वप्रथम उल्लेख अर्थशास्त्र का किया जाता है।
रचनाएं | रचनाकार |
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1- अर्थशास्त्र | आचार्य चाणक्य |
2- मुद्राराक्षस |
विशाखदत्त |
3- अष्टाध्यायी | |
4- महाभाष्य | |
5- मालविकाग्निमित्रम् | |
6- हर्षचरित | |
7- कामन्दकीय नीतिशास़्त्र |
कामन्दक |
8- बृहस्पतीय अर्थशास्त्र |
बृहस्पति |
9- स्वप्नवासवदत्तम | |
10- मृच्छकटिकम |
शूद्रक |
11- नवसाहसांक चरित |
पदमगुप्त परिमल |
12- राजतरंगिणी | |
13- विक्रमांकदेव चरित |
कवि विल्हण |
14- कुमारपाल चरित | |
15- प्रबन्ध चिन्तामणि |
मेरूतुंगाचार्य |
16- कीर्ति कौमुदी |
सोमेश्वर |
17- बसन्त विलास |
महाकवि वालचन्द्र |
18- मत्तविलास प्रहसन |
पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मा |
19- अवन्तिसुन्दरी कथा |
महाकवि दण्डी |
20- पृथ्वीराज विजय |
पण्डित जयनक |
21- गौड़वहो |
वाक्पतिराज |
- दक्षिण भारत का प्रारम्भिक इतिहास ‘संगम साहित्य‘ से ज्ञात होता है।
- सुदूर दक्षिण के पल्लव और चोल शासको का इतिहास नन्दिकक्लम्बकम, कलिंगत्तुपर्णि, चोल चरित आदि से प्राप्त होता है।
विदेशियों के विवरण
विदेशी यात्रियों एवं लेखकों के विवरण से भी हमें भारतीय इतिहास की जानकारी मिलती है। इनको तीन भागों में बांट सकते हैं-
- यूनानी-रोमन लेखक
- चीनी लेखक
- अरबी लेखक
यूनानी-रोमन लेखक
- यूनानी लेखकों को तीन भागों में बांटा जा सकता है-
- टेसियस और हेरोडोटस यूनान और रोम के प्राचीन लेखकों में से हैं। टेसियस 'ईरानी राजवैद्य' था, उसने भारत के विषय में समस्त जानकारी ईरानी अधिकारियों से प्राप्त की थी। हेरोडोटस, जिसे 'इतिहास का पिता' कहा जाता है, ने 5वी. शताब्दी में ई.पू. में ‘हिस्टोरिका‘ नामक पुस्तक की रचना की थी, जिसमें भारत और फ़ारस के सम्बन्धों का वर्णन किया गया है।
- नियार्कस, आनेसिक्रिटस और अरिस्टोवुलास ये सभी लेखक सिकन्दर के समकालीन। इन लेखकों द्वारा जो भी विवरण तत्कालीन भारतीय इतिहास से जुड़ा है वह अपने में प्रमाणिक है।
- सिकन्दर के बाद के लेखकों में महत्त्वपूर्ण था मेगस्थनीज जो यूनानी राजा सेल्यूकस का राजदूत था। उसने चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में करीब 14 वर्षो तक समय व्यतीत किया। उसने ‘इण्डिका ‘ नामक ग्रंथ की रचना की जिसमें तत्कालीन मौर्यवंशीय समाज एवं संस्कृति का विवरण दिया था। डाइमेकस, सीरियन नरेश अन्तियोकस का राजदूत था जो बिन्दुसार के राजदरबार में काफ़ी दिनों तक रहा। डायोनिसियस मिस्र नरेश 'टॉलमी फिलाडेल्फस' के राजदूत के रूप में काफ़ी दिनों तक सम्राट अशोक के राज दरबार में रहा था।
- अन्य पुस्तकों में ‘पेरीप्लस आॅफ द एरिथ्रियन सी‘, लगभग 150 ई. के आसपास टॉलमी का भूगोल, प्लिनी का 'नेचुरल हिस्टोरिका' (ई. की प्रथम सदी) महत्त्वपूर्ण है। ‘पेरीप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी‘ ग्रंथ जिसकी रचना 80 से 115 ई. के बीच हुई है, में भारतीय बन्दरगाहों एवं व्यापारिक वस्तुओं का विवरण मिलता है। प्लिनी के ‘नेचुरल हिस्टोरिका‘ से भारतीय पशु, पेड़-पौधों एवं खनिज पदार्थो की जानकारी मिलती है।
चीनी लेखक
चीनी लेखकों के विवरण से भी भारतीय इतिहास पर प्रचुर प्रभाव पड़ता है सभी चीनी लेखक यात्री बौद्ध मतानुयायी थे और वे इस धर्म के विषय में कुछ विषय जानकारी के लिए ही भारत आये थे। चीनी बौद्ध यात्रियों में से प्रमुख थे-
अरबी लेखक
पूर्व मध्यकालीन भारत के समाज और संस्कृति के विषयों में हमें सर्वप्रथम अरब व्यापारियों एवं लेखकों से विवरण प्राप्त होता है। इन व्यापारियों और लेखकों में मुख्य हैं-
- उपर्युक्त विदेशी यात्रियों के विवरण के अतिरिक्त कुछ फारसी लेखकों के विवरण भी प्राप्त होते है जिनसे भारतीय इतिहास के अध्ययन में काफ़ी सहायता मिलती है। इसमें महत्त्वपूर्ण हैं-
- फिरदौसी (940-1020ई.) कृतशाहनामा, (Books of Kings)
- रशदुद्वीन कृत ‘ जमीएत अल तवारीख‘ अली अहमद कृत ‘चाचनामा‘ मिनहाज-उल-सिराज कृत ‘तबकात-ए-नासिरी‘, जियाउद्वीन बरनी कृत ‘तारीख-ए-फिरोजशाही एवं अबुल फज़ल कृत ‘अकबरनामा‘ आदि।
- यूरोपीय यात्रियों में 13 वी शताब्दी में वेनिस (इटली) से आये से सुप्रसिद्व यात्री मार्कोपोलों द्वारा दक्षिण के पाण्ड्य राज्य के विषय में जानकारी मिलती है।
पुरातत्व
पुरातात्विक साक्ष्य के अंतर्गत मुख्यतः अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन, मूर्तियां चित्रकला आदि आते हैं।
अभिलेख
इतिहास निमार्ण में सहायक पुरातत्त्व सामग्री में अभिलेखों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये अभिलेख अधिकांशतः स्तम्भों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं पात्रों, मूर्तियों, गुहाओं आदि में खुदे हुए मिलते हैं। यद्यपि प्राचीनतम अभिलेख मध्य एशिया के ‘बोगजकोई‘ नाम स्थान से करीब 1400 ई.पू. में पाये गये जिनमें अनेक वैदिक देवताओं - इन्द्र, मित्र, वरूण, नासत्य आदि का उल्लेख मिलता है।
अपने यथार्थ रूप में अभिलेख हमें सर्वप्रथम अशोक के शासन काल में ही मिलतें हैं। एक अभिलेख, जो हैदराबाद में 'मास्की' नामक स्थान पर स्थित है, में अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त 'गुर्जरा', मध्य प्रदेश, 'पानगुड्इया',मध्य प्रदेश से प्राप्त लेखों में भी अशोक का नाम मिलता है। अन्य अभिलेखों में उसको देवताओं का प्रिय ‘प्रियदर्शी‘ राजा कहा गया है। अशोक के अभिलेख मुख्यतः ब्राह्यी, खरोष्ठी तथा आरमाइक लिपियों में मिलतें हैं जिसमें अधिकांश ब्राह्यी में खुदे हुए हैं। इस लिपि को बांयी से दायीं ओर लिखा जाता है। पश्चिमोत्तर प्रान्त में प्रयुक्त होने वाली ‘खरोष्ठी लिपि‘ दायीं से बायीं ओर लिखी जाती थी। पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान, में पाये गये अशोक के अभिलेखों में प्रयुक्त लिपि आरमाइक व यूनानी थी।
अशोक के बाद अभिलेखों की परम्परा से जुड़े अन्य अभिलेख इस प्रकार हैं- खारवेल का खारवेल का हाथीगुम्फा, शक क्षत्रप प्रथम रुद्रदामान का जूनागढ़ अभिलेख, सातवाहन नरेश पुलुमावी का नासिक गुहालेख, हरिषेण द्वारा लिखित समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भ लेख, मालव नरेश यशोवर्मन का मन्दसौर अभिलेख, चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल अभिलेख, |प्रतिहार नरेश भोज का ग्वालियर अभिलेख, स्कन्दगुप्त का भितरी तथा जूनागढ़ लेख, बंगाल के शासक विजय सेन का देवपाड़ा अभिलेख इत्यादि। कुछ गैर सरकारी अभिलेख हैं जैसे यवन राजदूत हेलियाडोरस का बेसनगर, विदिशा से प्राप्त गरुड़ स्तम्भ लेख। इससे द्वितीय शताब्दी ई.पू. में भारत में भागवत धर्म के विकसित होने के साक्ष्य मिलते हैं। मध्य प्रदेश के एरण से प्राप्त वराह प्रतिमा पर हूण राजा तोरमाण के लेखों का विवरण है।
मुद्रायें
भारतीय इतिहास अध्ययन में मुद्राओं की अतीव महत्ता है। भारत की प्राचीनतम मुद्राएं छठी शती ई.पू. में प्रचलित हुई। इन पर लेख नहीं होते थे। कुछ प्रतीक जैसे पर्वत, वृक्ष, पक्षी, मानव, पुष्प, जयामितीय आकृति आदि अंकित रहते थे। इन्हें आहत मुद्रा (पंच मार्क्ड क्वायन्स) कहा जाता था। सर्वप्रथम भारत में शासन करने वाले यूनानी शासकों की मुद्राओं पर लेख एवं तिथियां उत्कीर्ण मिलती हैं। सर्वाधिक मुद्राएं उत्तर मौर्य काल में मिलती हैं जो प्रधानतः सीसे, पोटीन, ताबें, कांसे, चांदी और सोने की होती हैं। कुषाणों के समय में सर्वाधिक शुद्ध सुवर्ण मुद्राएं प्रचलन में थे, पर सर्वाधिक सुवर्ण मुद्राएं गुप्त काल में जारी की गयी। समुद्रगुप्त की कुछ मुद्राओं पर ‘यूप‘ पर ‘अश्वमेध यज्ञ‘ और कुछ पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है। कनिष्क की मुद्राओं से यह पता चलता है कि वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था। सातवाहन नरेश शातकर्णि की एक मुद्रा पर जलपोत का चित्र उत्कीर्ण है जिससे अनुमान लगाया जाता है कि उसने समुद्र विजय की थी। चन्द्रगुप्त द्वितीय की व्याघ्रशैली की मुद्राओं से उसकी पश्चिमी भारत के शकों की विजय सूचित होती है।
स्मारक एवं भवन
इतिहास निर्माण में भारतीय स्थापत्यकारों, वास्तुकारों और चित्रकारों ने अपने हथियार, छेनी, कन्नी, और तूलिका के द्वारा विशेष योगदान दिया। इनके द्वारा निर्मित प्राचीन इमारतें, मंदिर मूर्तियों के अवशेषों से भारत की प्राचीन सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक परिस्थितियों का ज्ञान होता है। खुदाई में मिले महत्त्वपूर्ण अवशेषों में हडप्पा सभ्यता, पाटलिपुत्र की खुदाई में चन्द्रगुप्त मौर्य के समय लकड़ी के बने राजप्रसाद के ध्वंसावशेष, कौशाम्बी की खुदाई से महाराज उदयन के राजप्रसाद एवं घोषितराम बिहार के अवशेष अंतरजीखेड़ा में खुदाई से लोहे के प्रयोग के साक्ष्य, पांडिचेरी के अरिकामेडु में खुदाई से रोमन मुद्राओं, बर्तन आदि के अवशेषों से तत्कालीन इतिहास एवं संस्कृति की जानकारी प्राप्त होती है। उस समय मंदिर निर्माण की प्रचलित नागर शैलियों में ‘ नागर शैली‘ उत्तर भारत में प्रचलित थी जबकि द्रविड़ शैली दक्षिण भारत में प्रचलित थी। दक्षिणापथ में निर्मित वे मंदिर जिसमें नागर एवं द्रविड़ दोनों शैलियों का समावेश है उसे ‘वेसर शैली‘ कहा गया है। 8वीं शताब्दी में जावा में निर्मित बोराबुदुर मंदिर से बौद्ध धर्म की पहचान शाखा के प्रचलित होने का प्रमाण मिलता है।
मूर्तियां
प्राचीन काल में मूर्तियों का निर्माण कुषाण काल से आरम्भ होता है। कुषाणें, गुप्त शासकों एवं उत्तर गुप्तकाल में निर्मित मूर्तियों के विकास में जनसामान्य की धार्मिक भावनाओं का विशेष योगदान रहा है। कुषाणकालीन मूर्तियों एवं गुप्तकालीन मूर्तियों में व्याप्त मूलभूत अंतर इस प्रकार है -
- कुषाणकालीन मूर्तियां विदेशी प्रभाव से ओतप्रोत हैं वहीं पर गुप्तकालीन मूर्तियां स्वाभविकता से ओत-प्रोत हैं।
- भरहुत, बोधगया, सांची और अमरावती में मिली मूर्तियां, मूर्तिकला में जनसामान्य के जीवन की अति सजीव झांकी प्रस्तुत करती है।
चित्रकला
चित्रकाल से हमें उस समय के जीवन के विषय में जानकारी मिलती है। अजंता के चित्रों में मानवीय भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति मिलती है। चित्रों में ‘माता और शिशु‘ या ‘मरणशील राजकुमारी‘ जैसे चित्रों से गुप्तकाल की कलात्मक पराकाष्ठा का पूर्ण प्रमाण मिलता है।
पाषाण काल
समस्त इतिहास को तीन कालों में विभाजित किया जा एकता है-
- प्राक्इतिहास या प्रागैतिहासिक काल(Prehistoric Age),
- आद्य ऐतिहासिक काल(Proto-historic Age)
- ऐतिहासिक काल(Historic Age)
भारत की आदिम (प्रारंभिक) जातियां
प्रारम्भिक काल में भारत में कितने प्रकार की जातियां निवास करती थीं, उनमें आपसी सम्बन्घ किस स्तर के थे, आदि प्रश्न अत्यन्त ही विवादित हैं। फिर भी नवीनतम सर्वाधिक मान्यताओं में 'डॉ. बी.एस. गुहा' का मत है। भारतवर्ष की प्रारम्भिक जातियों को छः भागों में विभक्त किया जा सकता है। -
- नीग्रिटों
- प्रोटो-ऑस्ट्रेलियाईड
- मंगोलायड
- भूमध्य सागरीय
- पश्चिमी ब्रेकी सेफल
- नॉर्डिक
सिधु घाटी (सैंधव/हड़प्पा) सभ्यता
आज से लगभग 70 वर्ष पूर्व पाकिस्तान के 'पश्चिमी पंजाब प्रांत' के 'माण्टगोमरी ज़िले' में स्थित 'हरियाणा' के निवासियों को शायद इस बात का किंचित्मात्र भी आभास नहीं था कि वे अपने आस-पास की जमीन में दबी जिन ईटों का प्रयोग इतने धड़ल्ले से अपने मकानों का निर्माण में कर रहे हैं, वह कोई साधारण ईटें नहीं, बल्कि लगभग 5,000 वर्ष पुरानी और पूरी तरह विकसित सभ्यता के अवशेष हैं। इसका आभास उन्हे तब हुआ जब 1856 ई. में 'जॉन विलियम ब्रन्टम' ने कराची से लाहौर तक रेलवे लाइन बिछवाने हेतु ईटों की आपूर्ति के इन खण्डहरों की खुदाई प्रारम्भ करवायी। खुदाई के दौरान ही इस सभ्यता के प्रथम अवशेष प्राप्त हुए, जिसे इस सभ्यता का नाम ‘हड़प्पा सभ्यता‘ का नाम दिया गया।
- Comparison of Indus Valley Harappan
- Indus Script
- सिंधुघाटी सभ्यता
- विलुप्त होती सिन्धु घाटी की सभ्यता
- सिंधु घाटी सभ्यता
- सिंधु घाटी सभ्यता
विशेष इमारतें
सिंधु घाटी प्रदेश में हुई खुदाई कुछ महत्त्वपूर्ण ध्वंसावशेषों के प्रमाण मिले हैं। हड़प्पा की खुदाई में मिले अवशेषों में महत्त्वपूर्ण थे -
- दुर्ग,
- रक्षा-प्राचीर,
- निवासगृह,
- चबूतरे
- अन्नागार आदि ।
दुर्ग
नगर की पश्चिमी टीले पर सम्भवतः सुरक्षा हेतु एक 'दुर्ग' का निर्माण हुआ था जिसकी उत्तर से दक्षिण की ओर लम्बाई 460 गज एवं पूर्व से पश्चिम की ओर लम्बाई 215 गज थी। ह्वीलर द्वारा इस टीले को 'माउन्ट ए-बी' नाम प्रदान किया गया है। दुर्ग के चारों ओर करीब 45 फीट चौड़ी एक सुरक्षा प्राचीर का निर्माण किया गया था जिसमें जगह-जगह पर फाटकों एव रक्षक गृहों का निर्माण किया गया था। दुर्ग का मुख्य प्रवेश मार्ग उत्तर एवं दक्षिण दिशा में था।
दुर्ग के बाहर उत्तर की ओर 6 मीटर ऊंचे 'एफ' नामक टीले पर पकी ईटों से निर्मित अठारह वृत्ताकार चबूतरे मिले हैं जिसमें प्रत्येक चबूतरे का व्यास करीब 3.2 मीटर है चबूतरे के मध्य में एक बड़ा छेद हैं, जिसमें लकड़ी की ओखली लगी थी, इन छेदों से जौ, जले गेंहू एवं भूसी के अवशेष मिलतें हैं। इस क्षेत्र में श्रमिक आवास के रूप में पन्द्रह मकानों की दो पंक्तियां मिली हैं जिनमें सात मकान उत्तरी पंक्ति आठ मकान दक्षिणी पंक्ति में मिलें है, प्रत्येक मकान में एक आंगन एवं करीब दो कमरे अवशेष प्राप्त हुए हैं। ये मकान आकार में 17x7.5 मीटर के थे। चबूतरों के उत्तर की ओर निर्मित अन्नागारों को दो पंक्तियां मिली हैं, जिनमें प्रत्येक पंक्ति में 6-6 कमरे निर्मित हैं, दोनों पंक्तियों के मध्य करीब 7 मीटर चौड़ा एक रास्ता बना था। प्रत्येक अन्नागार करीब 15.24 मीटर लम्बा एवं 6.10 मीटर चौड़ा हैं।
कला
हड़प्पा लिपि
हड़प्पा लिपि का सर्वाधिक पुराना नमूना 1853 ई. में मिला था पर स्पष्टतः यह लिपि 1923 तक प्रकाश में आई। सिंधु लिपि में लगभग 64 मूल चिन्ह एवं 205 से 400 तक अक्षर हैं जो सेलखड़ी की आयताकार मुहरों, तांबे की गुटिकाओं आदि पर मिलते हैं। यह लिपि चित्रात्मक थी। यह लिपि अभी तक गढ़ी नहीं जा सकी है। इस लिपि में प्राप्त सबसे बड़े लेख में करीब 17 चिन्ह हैं। कालीबंगा के उत्खनन से प्राप्त मिट्टी के ठीकरों पर उत्कीर्ण चिन्ह अपने पार्श्ववर्ती दाहिने चिन्ह को काटते हैं। इसी आधार पर 'ब्रजवासी लाल' ने यह निष्कर्ष निकाला है - 'सैंधव लिपि दाहिनी ओर से बायीं ओर को लिखी जाती थी।'
मृण्मूर्तियां
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त मृण्मूर्तियों का निर्माण मिट्टी से किया गया है। इन मृण्मूर्तियों पर मानव के अतिरिक्त पशु पक्षियों में बैल, भैंसा, बकरा, बाघ, सुअर, गैंडा, भालू, बन्दर, मोर, तोता, बतख एवं कबूतर की मृणमूर्तियां मिली है। मानव मृण्मूर्तियां ठोस है पर पशुओं की खोखली। नर एवं नारी मृण्मूर्तियां में सर्वाधिक नारी मृण्मूर्तियां ठोस हैं, पर पशुओ की खोखली। नर एवं नारी- मृण्मूर्तियां में सर्वाधिक नारी मृण्मूर्तियां मिली है।
हड़प्पा सभ्यता के नगरों की विशेषताएं
हड़प्पा संस्कृति की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी- इसकी नगर योजना। इस सभ्यता के महत्त्वपूर्ण स्थलों के नगर निर्माण में समरूपता थी। नगरों के भवनो के बारे में विशिष्ट बात यह थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे।
हडप्पा जनजीवन
हडप्प्पा संस्कृति की व्यापकता एवं विकास को देखने से ऐसा लगता है कि यह सभ्यता किसी केन्द्रीय शक्ति से संचालित होती थी। वैसे यह प्रश्न अभी विवाद का विषय बना हुआ है, फिर भी चूंकि हडप्पावासी वाणिज्य की ओर अधिक आकर्षित थे, इसलिए ऐसा माना जाता है कि सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता का शासन वणिक वर्ग के हाथ में था।
- ह्नीलर ने सिंधु प्रदेश के लोगों के शासन को 'मध्यम वर्गीय जनतंन्त्रात्मक शासन' कहा और उसमें धर्म की महत्ता को स्वीकार किया।
- स्टुअर्ट पिग्गॉट महोदय ने कहा 'मोहनजोदाड़ों का शासन राजतन्त्रात्मक न होकर जनतंत्रात्मक' था।
- मैके के अनुसार ‘मोहनजोदड़ों का शासन एक प्रतिनिधि शासक के हाथों था।
सैधव-सभ्यता का विनाश
सैधव-सभ्यता के पतन के संदर्भ में ह्नीलर का मत पूरी तरह से अमान्य हो चुका है। हरियूपिया का उल्लेख जो ऋग्वेद में प्राप्त है उस ह्नीलर ने हड़प्पा मान लिया और किले को पुर और आर्या के देवता इंद्र को पुरंदर (किले को नष्ट करने वाला) मानकर यह सिद्धांत प्रतिपादित कर दिया कि सैंधव नगरों का पतन आर्यो के आक्रमण के कारण् हुआ था। ध्यातव्य है कि ह्नीलर का यह सिद्धान्त तभी खंडित हो जाता है जब सिंधु-सभ्यता को नागरीय सभ्यता घोषित किया जाता है। मोहनजोदाड़ो से प्राप्त नर कंकाल किसी एक की समय के नहीं है जिनमें व्यापक नरसंहर द्योतित हो रहा है।
मत | इतिहासकार |
---|---|
1- प्रशासनिक शिथिलता के कारण इस सभ्यता का विनाश हुआ। | जॉन मार्शल |
2- जलवायु में हुए परिवर्तन के कारण यह सभ्यता नष्ट हुई। | ऑरेल स्टाइन |
3- सिंधु सभ्यता बाढ़ के कारण नष्ट हुई। | अर्नेस्ट मैके एवं जॉन मार्शल |
4- भू तात्विक परिवर्तन के कारण सभ्यता नष्ट हुई। | एम.आर.साहनी, आर.एल.राइक्स, जॉर्ज एफ.डेल्स, एच.टी.लैम्ब्रिक |
5- मोहनजोदाड़ो के लोगों की आग लगाकर हत्या कर दी गयी। | डी.डी. कोसाम्बी |
6- सैंधव सभ्यता विदेशी आक्रमण व आर्यों के आक्रमण से नष्ट हुई। | गार्डन चाइल्ड, मार्टीमर ह्वीलर, डी.एच.गार्डन, स्टुअर्ड पिग्ग्ट |
वैदिक काल/सभ्यता
सिंधु सभ्यता के पतन के बाद जो नवीन संस्कृति प्रकाश में आयी उसके विषय में सम्पूर्ण जानकारी वेदों से मिलती है। इसलिए इस काल को हम ‘वैदिक काल‘ अथवा वैदिक सभ्यता के नाम से जानते हैं। चूँकि इस संस्कृति के प्रवर्तक आर्य लोग थे, इसलिए कभी कभी आर्य सभ्यता का नाम भी दिया जाता है। यहाँ आर्य शब्द का अर्थ - श्रेष्ठ, उदात्त, अभिजात्य, कुलीन, उत्कृष्ट, स्वतन्त्र आदि है। यह काल 1500 ई.पू. से 600 ई.पू. तक अस्तित्व में रहा।
ऋग्वैदिक काल
(1500-1000 ई.पू.)
स्रोत
ऋग्वैदिक काल के अध्ययन के लिए दो प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं-
- पुरातात्विक साक्ष्य
- साहित्यिक साक्ष्य
पुरातात्विक साक्ष्य
इसके अन्तर्गत निम्नलिखित साक्ष्य प्राप्त हुए हैं-
- चित्रित धूसर मृद्भांण्ड
- खुदाई में हरियाणा के पास भगवानपुरा में मिला 13 कमरों वाला मकान तथा पंजाब में भी प्राप्त तीन ऐसे स्थल जिनका सम्बन्ध ऋग्वैदिक काल से जोड़ा जाता है।
- बोगज - कोई अभिलेख/मितन्वी अभिलेख (1400 ई.पू.) - इस लेख में हित्ती राजा शुब्विलुलियुम और मित्तान्नी राजा मतिउआजा के मध्य हुई संधि के साक्षी के रूप में वैदिक देवता इन्द्र, मित्र वरूण और नासत्य का उल्लेख है।
साहित्यम साक्ष्य
ऋग्वेद में 10 मण्डल एवं 1028 मण्डल सूक्त है। पहला एवं दसवाँ मण्डल बाद में जोड़ा गया है जब कि दूसरे से 7 वाँ मण्डल पुराना है।
आर्यो का आगमन काल
आर्यो के आगमन के विषय में विद्धानों में मतभेद है। विक्टरनित्ज ने आर्यो के आगमन की तिथि के 2500 ई. निर्धारित की है जबकि बालगंगाधर तिलक ने इसकी तिथि 6000 ई.पू. निर्धारित की है। मैक्समूलर के अनुसार इनके आगमन की तिथि 1500 ई.पू. है। वर्तमान समय में मैक्सूमूलन ने मत स्वीकार्य हैं।
आर्यो का मूल स्थान
- डॉ. अविनाश चन्द्र द्रास ने अपनी पुस्तक ^Rigvedic India में भारत में सप्त सैंधव प्रदेश को आर्यो का मूल निवास स्थान माना है।
- महामोपाध्याय पं. गंगानाथ झा ने भारत में ब्रह्मर्षि को आर्यो का मूल निवास स्थान माना हैं।
- डॉ. राजबली पाण्डेय ने भारत में मध्य देश को आर्यो का मूल निवास स्थान माना है।
- एल.डी. कल्ला ने भारत में कश्मीर अथवा हिमालय प्रदेश आर्यों का मूल निवास स्थान माना है।
- श्री डी.एस. त्रिवेदी ने मुल्तान प्रदेश में देविका नदी के आस पास के क्षेत्र को आर्यो का मूल निवास स्थान माना है।
- स्वामी दयानन्द सरस्वती ने तिब्बत को आर्यो का मूल निवास स्थान माना है। यह वर्णन इनकी पुस्तक ^सत्यार्थ प्रकाश^ एवं ^इण्डियन हिस्टोरिकल टेªडिशन^ में मिलता है।
- मैक्स मूलर ने मध्य एशिया को आर्यो का मूल निवास स्थान बताया। मैक्स मूलन ने इसका उल्लेख लेक्चर्स आन द साइंस आफ लैग्युएजेज में किया है।
- जे.जी.रोड आर्यो का आदि देश बैक्ट्रिया मानते हैं।
- बाल गंगाधर तिलक ने उत्तरी ध्रुव को आर्यो का मूल निवास माना है। यह वर्णन इनकी पुस्तक The Arctic HOme of the Aryans में मिलता है।
- पी. गाइल्स ने यूरोप में डेन्यूब नदी की घाटी एवं हंगरी को आर्यो का मूल निवास स्थान माना है।
- पेन्का ने जर्मनी को आर्यो का मूल निवास स्थान बताया है।
- एडवर्ड मेयर, ओल्डेनवर्ग, कीथ ने मध्य एशिया के पामीर क्षेत्र. को आर्यो का मूल स्थान माना है।
- नेहरिंग एवं गार्डन चाइल्स ने दक्षिणी रूस को आर्यो का मूल स्थान माना है।
- आर्यो के मूल निवास के सन्दर्भ में सर्वाधिक प्रमाणिक मत आल्पस पर्व के पूर्वी भाग में स्थित यूरेशिया का है।
आदि स्थल(मूल स्थान) | मत |
---|---|
सप्तसैंधव क्षेत्र | डॉ. अविनाश चंद्र, डॉ सम्पूर्णानन्द |
ब्रह्मर्षि देश | पं गंगानाथ |
मध्य देश | डॉ. राजबली पाण्डेय |
कश्मीर | एल.डी. कल्ला |
देविका प्रदेश (मुल्तान) | डी.एस. त्रिवेदी |
उत्तरी ध्रुव प्रदेश | बाल गंगाधर तिलक |
हंगरी (यूरोप) (डेन्यूब नदी की घाटी) | नह. गार्डन चाइल्ड्स |
दक्षिणी रूस | पी गाइल्स |
जर्मनी | पेन्का |
यूरोप | फिलिप्पों सेस्सेटी, सर विलियम जोन्स |
पामीर एवं बैक्ट्रिया | एडवर्ड मेयर एवं ओल्डेन वर्ग जे.जी. रोड |
जर्मनी | पेन्का |
मध्य एशिया | मैक्समूलर |
तिब्बत | दयानन्द सरस्वती |
हिमालय (मानस) | के.के. शर्मा |
राजनीतिक विस्तार
डॉ जैकोबी के अनुसार आर्यो ने भारत में कई बार आक्रमण किया और उनकी एक से अधिक शाखाएं भारत में आयी। सबसे महत्त्वपूर्ण कबीला भारत था। इसके शासक वर्ग का नाम 'त्रित्सु' था। संभवतः 'सृजन' और 'क्रीवी' कबीले भी उनसे सम्बद्ध थे। ऋग्वेद में आर्यो के जिन पांच कबीलों का उल्लेख है उनमें- 'पुरु', 'यदु', 'तुर्वश', 'अनु', 'द्रुह्म' प्रमुख थे। ये पंचयन के नाम से जाने जाते थे। 'यदु' और 'तुर्वस' को दास कहा जाता था। यदु और तुर्वश के विषय में ऐसा माना जाता था कि इन्द्र उन्हे बाद में लाए थे। यह ज्ञात होता है कि सरस्वती, दृषद्वती एवं आपया नदी के किनारे भरत कबीले ने अग्नि की पूजा की।
आर्यो का भौगोलिक क्षेत्र
भारत में आर्यो का आगमन 1500 ई.पू. से कुछ पहले हुआ । भारत में उन्होंने सर्वप्रथम सप्त सैन्धव प्रदेश में बसना प्रारम्भ किया। इस प्रदेश में बहने वाली सात नदियों का जिक्र हमें ऋग्वेद से मिलता है। ये हैं सिंधु, सरस्वती, शतुद्रि, विपशा, परुष्णी, वितस्ता, अस्किनी आदि।
कुछ अफ़ग़ानिस्तान की नदियों का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। ये हैं- कुभा (काबुल नदी), क्रुभु (कुर्रम), गोमती (गोमल) एवं सुवास्तु (स्वात) आदि। इससे यह पता चलता है कि अफ़ग़ानिस्तान भी उस समय भारत का ही एक अंग था। हिमालय पर्वत का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। हिमालय की एक चोटी को मूजदन्त कहा गया है जो सोम के लिए प्रसिद्व थी। इस प्रकार आर्य हिमालय से परिचित थे। आर्यों ने अगले पड़ाव के रूप में कुरुक्षेत्र के निकट के प्रदेशों पर कब्जा कर उस क्षेत्र का नाम 'ब्रह्मवर्त' (आर्यावर्त) रखा। ब्रह्मवर्त से आगे बढ़कर आर्यो ने गंगा - यमुना के दोआब क्षेत्र एवं उसके नजदीक के क्षेत्रों पर कब्जा कर उस क्षेत्र का नाम 'ब्रह्मर्षि देश' रखा। इसके बाद हिमालय एवं विन्ध्यांचल पर्वतों के बीच के क्षेत्र पर कब्जा कर उस क्षेत्र का नाम 'मध्य प्रदेश' रखा। अन्त में बंगाल एवं बिहार के दक्षिण एवं पूर्वी भागों पर कब्जा कर समूचे उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया, कालान्तर में इस क्षेत्र का नाम आर्यावर्त रखा गया। मनुस्मृति में सरस्वती और दृशद्वती नदियों के बीच के प्रदेश को 'ब्रह्मवर्त' पुकारा गया।
ऋग्वेद में नदियों का उल्लेख
ऋग्वेद में 25 नदियों का उल्लेख है, जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण नदी सिन्धु नदी है, जिसका वर्णन कई बार आया है। यह सप्त सैन्धव क्षेत्र की पश्चिमी सीमा थी। क्रुमु (कुर्रम),गोमती (गोमल), कुभा (काबुल) और सुवास्तु (स्वात) नामक नदियां पश्चिम किनारे में सिन्धु की सहायक नदी थीं। पूर्वी किनारे पर सिन्धु की सहायक नदियों में वितास्ता (झेलम) आस्किनी (चेनाब), परुष्णी (रावी),शतुद्र (सतलज), विपासा (व्यास) प्रमुख थी। विपास (व्यास) नदी के तट पर ही इन्द्र ने उषा को पराजित किया और उसके रथ को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। सिन्धु नदी को उसके आर्थिक महत्व के कारण हिरण्यनी कहा गया है। सिन्धु नदी द्वार ऊनी वस्त्रों के व्यवसाय होने का कारण इसे सुवासा और ऊर्पावर्ती भी कहा गया है। ऋग्वेद में सिन्धु नदी की चर्चा सर्वाधिक बार हुयी है।
सरस्वती नदी
ऋग्वेद में सरस्वती नदी को नदियों की अग्रवती, नदियों की माता,वाणी, प्रार्थना एवं कविता की देवी, बुद्धि को तीव्र करने वाली और संगीत प्रणादायी कहा गया है। सरस्वती ऋग्वेद की सबसे पवित्र नदी मानी जाती थी। इसे नदीतमा (नदियों की माता) कहा गया। सरस्वती जो अब राजस्थान की रेगिस्तान में विलीन हो गई है। इसकी जगह अब घग्घर नदी बहती है।
दृषद्वती नदी
आधुनिक चितंग अथवा घघ्घर कही जाती है, यह सिन्धु समूल की नदी नही थी।
आपया नदी
यह दृषद्वती नदी एवं सरस्वती नदी के बीच में बहती थी।
सरयू नदी
यह गंगा नदी की सहायक नदी थी। ऋग्वेद के अनुसार संभवतः यदु एवं तुर्वस के द्वारा चित्ररथ और अर्ण सरयू नदी के किनारे ही पराजित किए गए थे।
यमुना नदी
ऋग्वेद में यमुना की चर्चा तीन बार की गयी हैं
गंगा नदी
गंगा का उल्लेख ऋग्वेद में एक ही बार हुआ है। नदी सूक्त की अन्तिम नदी गोमती है।
समुद्र
ऋग्वेद में समुद्र की चर्चा हुई है और भुज्य की नौका दुर्घटना वाली कहानी में जलयात्रा पर प्रकाश पड़ता है। वैदिक तौल की ईकाई ^मन^ एवं वेबीलोन की इकाई मन में समानता से भी समुद्र यात्रा पर पड़ता है। ऋग्वेद के दो मन्त्रों (9वें ओर 10वें मण्डल के) में चार समुद्रों का उल्लेख है।
पर्वत
ऋग्वैदिक आर्य हिमालय पहाड़ से परिचित थे। परन्तु विन्ध्य या सतपुड़ा से परिचित नहीं थें। कुछ महत्त्वपूर्ण चोटियों की चर्चा है, यथा जैसे हिमवंत, मंजदंत, शर्पणावन्, आर्जीक तथा सुषोम। मरुस्थल- ऋग्वेद में मरुस्थल के लिए धन्व शब्द आया है। आर्यो को सम्भवतः मरुस्थल का ज्ञात था, क्योंकि इस बात की चर्चा की जाती है कि पर्जन्य ने मरुस्थल को पर करने योग्य बनाया। क्षेत्र प्रारम्भिक वैदिक साहित्य में केवल एक क्षेत्र 'गांधारित' की चर्चा है। इसकी पहचान आधुनिक पेशावर एवं रावलपिण्डी से की गई है।
ऋग्वैदिककालीन नदियां
प्राचीन नाम | आधुनिक नाम |
---|---|
क्रुभु | कुर्रम |
कुभा | काबुल |
वितस्ता | झेलम |
आस्किनी | चिनाव |
पुरुष्णी | रावी |
शतद्रि | सतलज |
विपाशा | व्यास |
सदानीरा | गंडक |
दृषद्वती | घग्घर |
गोमती | गोमल |
सुवास्तु | स्वात |
सिंधु | सिन्ध |
सरस्वती/दृशद्वर्ती | घघ्घर/रक्षी/चित्तग |
सुषोमा | सोहन |
मरुद्वृधा | मरुवर्मन |
आर्यो का संघर्ष
आर्यो का संघर्ष गैरिक मृदभांण्ड एवं लाल और काले मृदभाण्ड वाले लोगों से हुआ।
आर्यो के विजयी होने के कारण
आर्य निम्नलिखित कारणों से विजयी होते रहे
- घोड़े चलित रथ
- काँसे के अच्छे उपकरण एवं
- कवच (वर्म)
आर्य सम्भवतः विशिष्ट प्रकार के दुर्ग का प्रयोग करते थे। इसे 'पुर' कहा जाता था। वे धनुष-वाण का प्रयोग करते थे। प्रायः दो प्रकार के बाणों में एक विषाक्त एवं सीग के सिरा (मुख) वाला तथा दूसरा ताँबा के मुख वाला होता था। इसके अतिरिक्त बरछी, भाला, फरसा और तलवार का प्रयोग भी करते थे। पुरचष्णि शब्द का अर्थ था- दुर्गों को गिराने वाला। 'दास एवं दस्यु' आर्यो के शस्त्रु थे। दस्यु को अनसा (चपटी नाक वाला),अकर्मन (वैदिक कर्मो में विश्वास न करने वाला) एवं शिश्नदेवा (लिंगपूजक) कहा जाता था। पुरु नामक कबीला त्रास दस्यु के नाम से जाना जाता था।
भरत जन को विश्वामित्र का सहयोग प्राप्त था। इसी सहयोग के बल पर उसने व्यास एवं शुतुद्री को जीता। किन्तु शीघ्र ही भरतों ने वशिष्ठ को अपना गुरु मान लिया। अतः क्रुध होकर विश्वामित्र ने भरत जन के विरोधियों को समर्थन दिया। परुष्णी नदी के किनारे 10 राजाओं का युद्ध हुआ। इसमें भरत के विरोध में पाँच आर्य एवं पाँच अनार्य कबीले मिलकर संघर्ष कर रहे थे। आर्यो के पाँच कबीले थे - पुरु, यदु, तुर्वश, द्रुह्म, और अनु। पाँच अनार्य कबीले थे- अलिन, पक्थ, भलानस, विसाणिन और शिव। इसमें भरत राजा सुदास की विजय हुई। दश राजाओं का युद्ध पश्चिमोत्तर प्रदेश में बसे हुए पूर्वकालीन जल तथा ब्रह्मवर्त के उत्तर कालीन आर्यो के बीच उत्तराधिकार के प्रश्न पर लड़ा गया था।
ऋग्वेद में करीब 25 नदियों का उल्लेख मिलता है जिनमे महत्त्वपूर्ण नदी सिंधु का वर्णन कई बार आया है। उनके द्वारा उल्लिखित दूसरी नदी है सरस्वती जो अब राजस्थान के रेगिस्तान में तिरोहित हो गयी है। इसकी जगह अब घग्घर नदी बहती है।ऋग्वेद में सरस्वती नदी को ^नदीतमा^ (नदियों में प्रमुख) कहा गया है। इसके अतिरिक्त गंगा का ऋग्वेद में एक बार एवं यमुना का तीन बार जिक्र आया है। ऋग्वेद में केवल हिमालय पर्वत एवं इसकी चोटी मंजूवत का उल्लेख मिलता है।
राजनीतिक अवस्था
सर्वप्रथम जब आर्य भारत में आये तो उनका यहाँ के दास अथवा दस्यु कहे जाने वाले पाँच लोगों से संघर्ष, अन्ततः आर्यो को विजय मिली। ऋग्वेद में आर्यो के पांच कबीले के होने की वजह से पंचजन्य कहा गया। ये थे पुरु, यदु, तुर्वश, द्रुह्म और अनु। भरत, क्रिव एवं त्रित्सु आर्य शासक वंश के थे। भरत कुल के नाम से ही इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। इनके पुरोहित थे वशिष्ठ। कालान्तर में भरत वंश के राजा सुदास तथा अन्य दस जनों, पुरु, यदु, तुर्वश, अनु, द्रह्म अकिन, पक्थ, भलानस, विषणिन और शिव के मध्य दाशराज्ञ यु़द्ध परुष्णी (रावी) नदी के किनारे लड़ा गया जिसमें सुदास को विजय मिली। कुछ समय पश्चात पराजित राजा पुरु और भरत के बीच मैत्री सम्बन्ध स्थापित होने से एक नवीन 'कुरु वंश' की स्थापना की गयी।
ऋग्वैदिक काल में समाज कबीले के रूप में संगठित था, कबीले को जन भी कहा जाता था। कबीले या जन का प्रशासन कबीले का मुखिया करता था, जिसे ^राजन^ कहा जाता था। इस समय तक राजा का पद आनुवंशिक हो चुका था। राजा का जनस्थ गोपा तथा पुरचेत्ता कहा जाता था। इसके अतिरिक्त राजा की अनेक उपधियाँ थी - विशापति,गणपति, ग्रामणी, आदि। कबीले के लोग स्वेच्छा से राजा का कर देते थें। इसे वलि कहा जाता था। 'राष्ट्र' की क्षेत्रीय अवधारणा धीरे-धीरे विकसित हो रही थीं क्योंकि ऋग्वेद के 10 वें मण्डल में राजा से ^राष्ट्र^ की रक्षा करने का कहा गया है। ऋग्वेद में 'जन' शब्द का उल्लेख 275 बार मिलता है जबकि जनपद शब्द का उल्लेख एक बार भी नहीं मिलता है। राजा कोई भी निर्णय कबायली संगठनों के सलाह से लेता था। राजा की सहायता हेतु पुरोहित, सेनानी, एवं ग्रामणी नामक प्रमुख अधिकारी थी। प्रायः पुरोहित का पद वंशानुगत होता था। लड़ाकू दल के प्रधान ग्रामणी कहलाते थे। सैन्य संचालन वा्रत, गण, ग्राम व सर्ध नामक कबीलाई टुकडिया करती थीं ऋग्वेद में युद्ध प्रायः धनुष-वाणों से होता था। ऋग्वेद में पुरपथरिष्णु का उल्लेख हुआ है, जो प्रायः दुर्गो को गिराने के लिए एक यन्त्र था। सूत, रथकार तथा कम्मादि आदि पदाधिकारी 'रत्नी' कहे जाते थे। इनकी संख्या राजा सहित करीब 12 होती थी। ये राजा के राज्याभिषेक के समय उपस्थित रहते थे। 'पुरप' दुर्गपति होते थे। 'स्पश' जनता की गतिविधियों को देखने वाले गुप्तचर होते थे। दूत समय समय पर सन्धि-विग्रह के प्रस्तावों को लेकर राजा के पास जाता था। वाजपति गोचर भूमि का अधिकारी एवं कुलप परिवार का मुखिया होता था।
कुछ कबीलाई संस्थाएं अस्तित्व में थी, जैसे-सभा, समितद, विदथ तथा गण। अथर्ववेद के अनुसार सभा और समिति प्रजापति की दो पुत्रियाँ थी।
सभा
सभा की उत्पत्ति ऋग्वेद के उत्तरकाल में हुई थी। यह वुद्ध (श्रेष्ठ) एवं अभिजात (संभ्रान्त) लोगों की संस्था थीं। यह समिति की अपेक्षा छोटी थी। सभा में भागेदारी करने वालों का सभेय कहा जाता था। अथर्ववेद में सभा एक स्थान पर ^नरिष्टा^ कहा गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ अनुलंधनीय है। इससे ज्ञात होता है कि सभी द्वारा लिया गया निर्णय अनुलंघनीय होता था। वेदों में इसके सदस्यों को पितरः (पिता) कह कर सम्बोधित कहा गया है । इसका अध्यक्ष सभापति कहा जाता था। सभी का प्रमुख कार्य न्याय प्रदान करना था। ऋग्वेद में 8 बार सभा की चर्चा की गई है।
समिति
यह एक आम जनप्रतिनिधि सभा (केन्द्रीय राजनीतिक) थी। समिति राजा का निर्वाचन करती थी तथा उस पर नियन्त्रण रखती थी। इस समिति के अध्यक्ष कोपति या ईशान कहा जाता था। समिति में राजकीय विषयों पर चर्चा होती थी तथा सहमति से निर्णय होता था। आरुणिपुत्र श्वेतकेतु पंचाल देशीय लोगों को समिति में आया था। उससे जीवन पुत्र प्रवाहण जैबलि ने पांच प्रश्न पूछा था जिसका उत्तर वह नहीं दे पाया था। इससे पता चलता है कि संभवतः समिति में राजनैतिक गैरराजनीतिक विषयों पर भी चर्चा होती थी यह राष्ट्रीय एकेडमी का भी काम करती थी। ऋग्वेद में 9 बार समिति की चर्चा हुई है।
विदथ
यह आर्यो की सर्वप्राचीन संस्था थी। इसे जनसभा भी कहा जाता था। रॉथ के अनुसार 'विदथ' संस्था सैनिक असैनिक तथा धार्मिक कार्यो से संम्बद्ध थी। इसी कारण के.पी. जायसवाल विद्थ को एक मौलिक बड़ी सभा मानते हैं। रामशरण शर्मा इसे आर्यो की प्राचीनतम संस्था मानते हैं, उनका मानना है कि ऋग्वेद में विद्थ का उल्लेख 22 बार हुआ है। आपके अनुसार विद्थ ऐसी संस्था थी जो यु़द्ध में लूटी गयी वस्तुओं अथवा उपहार और समय-समय पर मिलने वाली भेटों की सामग्रियों का वितरण करती थी। ऋग्वैदिक काल में स्त्रियाँ भी सभा और विद्थ में भाग लेती थी। इस प्रकार, सभा, समिति, विद्थ और परिषद् वैदिक राजतंत्र में सहायक के रूप में काम करती थी। ऋग्वेद तथा इस पर लिख गए ब्राह्मण एवं ऐतरेय ब्राह्मण दोनों में राजा के निर्वाचन सम्बन्धी सूक्त पाये जाते हैं।
भागदुध
विशिष्ट अधिकारी, जो राजा के अनुयायियों के मध्य बलि (भेंट) का समुचित बंटवारा एवं कर का निर्धारण करता था।
प्रशासनिक इकाई
ऋग्वैदिक काल में प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कुल या गृह था। उसके ऊपर ग्राम था। उसके ऊपर विश था। सबसे ऊपर जन होता था। ऋग्वेद में जन शब्द का उल्लेख 275 बार हुआ है, जबकि जनपथ शब्द का उल्लेख एक बार भी नहीं हुआ है। विश शब्द का उल्लेख 170 बार हुआ है। ऋग्वैदिक भारत का राजनीतिक ढाँचा आरोही क्रम में-
- कुल,
- ग्राम
- विशस,
- जन और
- राष्ट्र
इसमें कुल सबसे छोटी इकाई थी । कुल का मुखिया कुलप था। ग्राम का शासन ग्रामणी देखता था। विश ग्राम से बड़ी प्रशासनिक ईकाई थी। इसका शासक विश्पति कहा जाता था। जन काबीलाई संगठन था। इनका शासन प्रमुख पुरोहित हुआ करता था। इन्ही के नाम पर आगे जनपद बने। राष्ट्र शासन की सबसे बड़ी ईकाई थी। इसका शासक राजा होता था।
न्याय व्यवस्था
न्याय व्यवस्था धर्म पर आधारित होती थी। राजा क़ानूनी सलाहकारों तथा पुरोहित की सहायता से न्याय करता था। चोरी, डकैती, राहजनी, आदि अनेक अपराधों का उल्लेख मिलता है। इसमें पशुओं की चोरी सबसे अधिक होती थी जिसे पणि लोग करते थे। इनके अधिकांश युद्ध गाय को लेकर हुए हैं। ऋग्वेद में युद्ध का पर्याय गाविष्ठ (गाय का अन्वेषण) है। मुत्यु दंड की प्रथा नहीं थी। अपराधियों को शरीरदण्ड तथा जुर्माने की सजा दी जाती थी। वेरदेय (बदला चुकाने की प्रथा) का प्रचलन था। एक व्यक्ति को शतदाय कहा जाता था क्योंकि उसके जान की कीमत 100 गाय थी। हत्या का दण्ड द्रव्य के रूप में दिया जाता था। सूद का भुगतान वस्तु के ऊपर में किया जाता था। दिवालिए को ऋणदाता का दास बनाया जाता था। पुत्र सम्पत्ति का अधिकारी होता था।
सामाजिक जीवन
ऋग्वैदिक समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार या कुल होती थी। ऋग्वेद में 'कुल' शब्द का उल्लेख नहीं है। परिवार के लिए ^गृह^ शब्द का प्रयुक्त हुआ है। कई परिवार मिलकर ग्राम या गोत्र तथा कई ग्राम मिलकर 'विश' का निर्माण एवं कई 'विश' मिलकर जन का निर्माण करते थे। ऋग्वेद में 'जन' शब्द लगभग 275 तथा विश शब्द 170 बार प्रयुक्त हुआ है।
ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक समाज था। पिता ही परिवार का मुखिया होता था। ऋग्वेद के कुछ उल्लेखों से पिता के असीमित अधिकारों की पुष्टि होती है। ऋजाश्व के उल्लेख से पता चलता है कि उसके पिता ने एक मादा भेड़ के लिए सौ भेड़ों का वध कर देने के कारण उस अन्धा बना दिया था। वरूणसूक्त के शुनः शेष के आख्यान से ज्ञात होता है कि पिता अपनी सन्तान को बेंच सकता था। किन्तु उद्धरणों से यह ताप्र्पय कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि पिता-पुत्र के संबंध कटुतापूर्ण थे। इसे अपवादस्वरूप ही समझा जाना चाहिए। पुत्र प्राप्ति हेतु देवताओं से कामना की जाती थी परिवार संयुक्त होता था।
ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था के चिन्ह दिखाई पड़ते हैं। आर्यो को गौर वर्ण तथा दासों का कृष्ण वर्ण कहा जाता था। वर्णव्यवस्था का आधार कर्म को हो गया था। ऋग्वेद में एक छात्र लिखता है कि 'मै कवि हूँ मेरे पिता चिकित्सक हैं और मेरी माता आटा पीसती है' अर्थात् एक राजा कर्म से पुरोहित हो सकता था। और पुरोहित राजा महर्षि विश्वामित्र क्षत्रिय होते हुए भी कर्म से ब्राह्मण थे। ऋग्वेद के दशम् मण्डल का एकमात्र पुरुषसूक्त ही चतुवर्णो का उल्लेख करता है। इसमे कहा गया कि ब्राह्मण परम-पुरुष के मुख से, क्षत्रिय उसकी भुजाओं से, वैश्य उसकी जाँघों से एवं शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुआ है। ऋग्वेद के शेष भाग में कही भी वैश्य और शूद्र का वर्णन नहीं है।ऋग्वेद के शेष भाग में कही भी वैश्य और शूद्र का वर्णन नहीं है। ऋग्वेद में अनार्यो (आर्या के भारत में अभ्युदय से पहले भारत में निवास करने वाले लोग), को 'अव्रत' (व्रतों का पालन न करने वाला) मृधवाच (अस्पष्टवाणी बोलने वाले) एवं 'अनास' (चपटी नाक वाले) कहा गया हैं ऐतरेय ब्राह्मण में पंचजनों में देव, मनुष्य, गन्धर्व, अप्सरा, सर्प एवं पितरों की गणना की गयी है। 'निरुक्त' पंचजनों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र एवं निषाद की गणना की गयी है।
'शतपथ ब्राह्मण' में पत्नी को पति की अद्र्धागिनीं बताया गया है। ऋग्वेद में 'जायदस्तम' अर्थात पत्नी ही गृह है कहकर उसके महत्व को स्वीकारा गया है। स्त्रियों को जनसभा, विद्थ में अपनी बात कहने की छूट थी। ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति सम्मानीय थी। वे अपने पति के साथ यज्ञ कार्यो में सम्मिलित होती एवं दान दिया करती थीं। पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। स्त्रियाँ भी शिक्षा ग्रहण किया करती थीं, ऋग्वेद में लोपामुद्रा,घोषा, सिकता, अपाला, एवं विश्वास जेसी विदुषी स्त्रियों का जिक्र मिलता है।इन विदुषी कन्याओं को ^ऋषी^ उपधि से विभूषि किया गया। इस समय लड़कियों का भी उपनयन संस्कार किया जाता था। शिक्षा गुरुकुल पद्धति पर निर्भर थी, जहाँ सामान्यतः मौखिक शिक्षा का प्रचलन था। पिता की अकेली सन्तान होने अथवा विवाह न करने की स्थिति में पिता के घर में रहने पर कन्या पिता की सम्पत्ति में हिस्सेदार होती थी।
सामान्यतः बाल विवाह एवं बहु विवाह का प्रचलन नहीं था। विवाह की आयु लगभग 16-17 वर्ष होती थी। विधवा विवाह, अन्तर्जातीय एवं पुनर्विवाह की संभावना का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। साधारणतया समाज में एक पत्नी प्रथा का ही प्रचलन था, पर सम्पन्न लोग एक से अधिक विवाह करते थे। दहेज प्रथा का प्रचलन था। कन्या की विदाई के समय उपहार एवं द्रव्य दिये जाते थे, जिसे वस्तु कहते थे। सती प्रथा एवं पर्दा प्रथा का विवरण नहीं मिलता। समाज में नियोग प्रथा, जिसके अन्तर्गत पुत्रविहीन विधवा पुत्र प्राप्ति हेतु अपने देवर से यौन संबंध स्थापित कर सकती थी, एवं बहुपतीत्व प्रथा का प्रचलन भी था। उदाहरण हेतु मरुतों ने रोदसी को मिलकर भोगा, सूर्या (सूर्य की पुत्री) अपने दो भाई अश्विन के साथ रहती थी। जीवनभर अविवाहित रहने वाली लड़कियों को ^अमाजू^ कहा जाता था। समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी होते हुए भी दो दृष्टियों से ऋग्वैदिक समाज उन्हे अयोग्य समझता था-
- उन्हें राजनीति में भाग लेने का अधिकार नहीं था।
- उन्हे सम्पति सम्बन्धी अधिकार प्राप्त नहीं थे।
ऋग्वैदिककालीन लोगों का मुख्य भोजन पदार्थ चावल और जौ था। इसके अतिरिक्त फल, दूध, दही, घी एवं मांस भोज्य पदार्थ थे। अन्न में यव, धान्य, उड़द एवं मूँग का प्रयोग करते थे। पेय पदार्थ में सोमरस का पान करते थे। ऋग्वेद के नवें मण्डल में सोम की स्तुति में कई सूक्त मिलते हैं। एक स्थान पर कण्व ऋषि दावा करते हैं कि सोम रस पीने के बाद उन्होंने अमरत्व प्राप्त कर लिया और देवताओं को जान लिया। मांस में भेड़, बकरी, एवं बैल का मांस खाते थे। गाय को ^अघन्या^ - (न मारने योग्य) माना जाता था। फिर भी कही-कही पर वध के प्रमाण मिलते हैं। आर्य लोग नमक एवं मछली काप प्रयोग नहीं करते थे।शतपथ ब्राह्मण में अतिथि के सम्मान में विशाल वृषभ अथवा बकरी के मारे जाने का विधान मिलता है।
ऋग्वैदिक काल के लोग ^क्षे‘म^ (अलसी का सूत) ऊन और मृग के चमड़े से निर्मित वस्त्र धारण करते थे। आर्य मुख्यतः तीन प्रकार के वस्त्र धारण करते थे-वासस् (शरीर पर धारण किया जाने वाला मुख्य वस्त्र), अधिवास एवं उष्णीय (पगड़ी)। ऋग्वेद में ^सामूल्य^ ऊनी कपड़े को एवं ^पेशस^ कढ़े हुए कपडे को कहा गया है। ऋग्वैदिक काल में मुख्य आभूषण में निष्क, कुरीर एवं कर्णशोभन का उल्लेख मिलता है। आभूषण स्त्री और पुरुष दोनों धारण करते थे। मनोरंजन के साधनों में मुख्य साधन संगीत था। इसके बाद रथ दौड़, घुड़दौड़, द्यूतक्रीड़ा एवं आखेट को महत्व दिया जाता था। सम्भवतः जुए का भी प्रचलन था।
आर्थिक जीवन
ऋग्वेद में आर्यो के मुख्य व्यवसाय के रूप में पशुपालन एवं कृषि का विवरण मिलता है जबकि पूर्ववैदिक आर्यो ने पशुपालन को ही अपना मुख्य व्यवसाय बनाया था। ऋग्वैदिक सभ्यता ग्रामीण सभ्यता थी। इस वेद में ‘गव्य एवं गव्यति शब्द चारागाह के लिए प्रयुक्त है। इस काल में गाय का प्रयोग मुद्रा के रूप में भी होता था। अवि (भेड़),अजा (बकरी) का ऋग्वेद में अनेक बार जिक्र हुआ है। हाथी, वाघ, बतख,गिद्ध से आर्य लोग अपरिचित थे। धनी व्यक्ति को गोपत कहा गया था। राजा को गोपति कहा जाता था युद्ध के लिए गविष्ट, गेसू, गव्य ओर गम्य शब्द प्रचलित थे। समय की माप के लिए गोधुल शब्द का प्रयोग किया जाता था। दूरी का मान के लिए गवयतु।
ऋग्वेद में कृषि का उल्लेख मात्र 24 बार ही हुआ है, जिसमें अनेक स्थानों पर यव एवं धान्य शब्द का उल्लेख मिलता है। ^गो^ शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में 174 बार आया है। गाय को पवित्र माना जाता था और उसे अधन्य कहा जाता था। गाय विनिमय का मुख्य साधन थी, इसलिए इसका धार्मिक एवं सामाजिक की अपेक्षा आर्थिक महत्व अधिक था। ऋग्वेद में सम्पति का मुख्य रूप गोधन था। युद्ध का प्रमुख कारण गायों की गवेषणा अर्थात् ^गविष्टि^ था। पुरोहितों को गायें और दासियाँ दक्षिणा के रूप में दी जाती थीं। दान के रूप में भूमि न देकर दास-दासियाँ ही दी जाती थी।
ऋग्वैदिक कालीन महत्त्वपूर्ण शब्द
उर्वरा- जुते हुए खेत को कहा जाता था। खिल्य- पशु चारण योग्य भूमि या चारागाह। सीर- हल सृणि- पक कर तैयार फ़सल को काटने का यंत्र हासिया दात्र- हासिया पर्श- कटी फ़सल के गढ्ढे ( बोझ) खल- खलिहान खनित्रिमा- खोदने से उत्पन्न यह सिंचाई के लिए व्यवहार में लाये जाने वाले जलाशय का द्योतक है। कुल्या- बड़ी नाली या नहर स्थिव- अन्नादि का एक सूखा नाप जो लगभग आठ गैलेन के बराबर होता था। लांगल- शब्द का प्रयोग हल के लिए हुआ है। बृक- शब्द का प्रयोग बैल के लिए प्रयुक्त हुआ है। करीष- शब्द का प्रयोग गोबर की खाद के लिए होता थां अवत- शब्द का प्रयोग कूपों के लिए होता था। सीता- शब्द का प्रयोग हल से बनी नालियों के लिए होता था। ऊस्दर- शब्द का प्रयोग अनाज नापने वाले पात्र के लिए होता था। कीनांश- शब्द का हलवाले के लिए प्रयोग किया जाता है पर्जन्य- शब्द बादल के लिए प्रयोग किया गया है। ऋग्वैदिक काल में राजा भूमि का स्वामी नहीं होता था। वह विशेष रूप से युद्धकालीन स्वामी होता था। ऋग्वेद में दो प्रकार के सिंचाई का उल्लेख है- (1) खनित्रिमा (खोदकर प्राप्त किया गया जल) (2) स्वयंजा (प्राकृतिक जल)
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में कथन है कि अश्विन देवताओं ने मनु को हल चलाना सिखाया। ऋग्वेद में एक स्थान पर अपाला ने अपने पिता अत्रि से खेतों की समृद्धि के लिए प्रार्थना की है। इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में हांसिया (दात्र, सृणि), कोठार (स्थिति), गठ्टर (वर्ष), चलनी (तिउत), सूप (शूर्प), अनाज का ओसने वाला (धान्यकृत) आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल में खेती की प्रक्रिया का वर्णन मिलता है। यजुर्वेद में 5 प्रकार के चावल का उल्लेख है। महाब्राहि, कृष्णव्रीहि, शुक्लव्रीही, आशुधान्य और हायन। अथर्ववेद में यह उल्लेख मिलता है कि सर्वप्रथम पृथुवेन्य ने ही कृषि कार्य किया था। शतपथ ब्राह्मण में कृषि विषय पूरी प्रक्रिया की जानकारी मिलती है। इसी के खेत जोतने के लिए कर्षण, बोने के लिए (वपन), कटाने के लिए (कर्तन) तथा माड़ने के लिए मर्दन का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में 6,8 और 12 बैलों को हल में जाते जाने का वर्णन है तथा शतपथ ब्राह्मण में 6 से 24 बैलों को हल द्वारा चलाने की बात है। अथर्ववेद में कृषि दासियों का उल्लेख मिलता है, इसी में सिंचाई के लिए नहर खोदने तथा टिड्डियों द्वारा फ़सल नष्ट होने की जानकारी मिलती है। श्रमिक वर्ग के अन्तर्गत भूसी साफ करने वाले को उपप्रक्षणी कहा जाता था। खिल्य भूमि की माप ईकाई थी। भूमिकर व्यक्तिगत स्वामित्व शुरू हो गया था जिसके लिए -उर्वरासा, उर्वरापत्ति, क्षेत्रसा और क्षेत्रपति शब्द वैदिक संहिताओं में मिलते हैं। पशुओं के कानों पर स्वामित्व के चिन्ह लगा दिये जाते थे। गाय को अवट कर्णी कहा जाता था। वैदिक काल में राज कोई स्थायी सेना नहीं रखता था। युद्ध में विजय की कामना से राजा प्रजा के साथ एक ही थाली में भोजन करता था।
उद्योग - ऋग्वैदिक काल में वस्त्र धुलने वाले, वस्त्र बनाने वाले (वाय), लकड़ी एवं धातु का काम करने वाले एवं बर्तन बनाने वाले शिल्पों के विकास के बारें में विवरण मिलता है। चर्मकार एवं कुम्हार का भी उल्लेख मिलता है। सम्भवतः ^अयस^ शब्द का उपयोग ऋग्वेद में करघा के लिए, ^ओत^ एवं तन्तु शब्द का प्रयोग ताने-बाने के लिए एवं ^शुध्यव^ शब्द का प्रयोग ऊन के लिए किया जाता था। ऋग्वेद में कपास का उल्लेख नहीं मिलता है।ऋग्वेद में हिरण्य एवं सुवर्ण शब्द का प्रयोग सोने के लिए किया गया है। ^निष्क^ सोने की मुद्रा थी। तक्षन व तष्ट शब्द का प्रयोग बढ़ई के अर्थ में किया गया है। आर्यो के सामाजिक जीवन में रथों का अधिक महत्व होने के कारण ^तक्षा^ सामाजिक प्रतिष्ठा अधिकर बढ़ी हुई थी। ^अनस^ साधारण गाड़ी को कहा जाता था। ^नद^(नरकट) का प्रयोग ऋग्वेद काल में स्त्रियाँ चटाई बुनने के लिए करती थीं। 'चर्मग्न' चमड़ा सिझाने वालों का कहा जाता था।
व्यापार- ऋग्वैदिक काल में व्यापर में क्रय-विक्रय हेतुं विनिमय प्रणाली का शुभारम्भ हो चुका था। इस प्रणाली में वस्तु विनिमय के साथ-साथ गाय, घोड़े एवं स्वर्ण से भी क्रय-विक्रय किया जाता था। विनिमय के माध्यम के रूप में `निष्क का उल्लेख हुआ है, किन्तु इसका समीकरण विवादग्रस्त है। संभवतः यह प्रारंभ में हार जैसा कोई स्वर्णाभूषण था, कालान्तर में सिक्के के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऋग्वैदिक काल में व्यापार करने वाले व्यापारियों एवं व्यापार हेतु सदूरवर्ती प्रदेशों में भ्रमण करने वाले व्यक्ति को 'पणि' कहा जाता था। ऋग्वेद में एक स्थान पर देवताओं तथा पणियों के बीच संघर्ष तथा देवताओं द्वारा उनके संहार का वर्णन मिलता है।
व्यापार स्थल एवं जल दोनों रास्तों से होता था, आन्तरिक व्यापार बहुधा गाड़ियों, रथों एवं पशुओं द्वारा होता था। आर्यो को समुद्र के विषय में जानकारी थ या नहीं यह बात अभी तक अस्पष्ट है। फिर भी ऋग्वेद में सौ पतवारों वाली नौका से यात्रा करने का विवरण प्राप्त होता है। एक स्थान पर तुग्र के पुत्र भुज्य की समुद्र यात्रा वर्णन है जिसने मार्ग में जलयान को नष्ट हो जाने पर आत्मरक्षा के लिए अश्विनीकुमारों से प्रार्थना की थी। अश्विनी कुमारों ने उनकी रक्षा के लिए 100 पतवार वाला जहाज़ भेजा था। इस काल में ऋण देकर व्याज लेने वाले वर्ग को 'बेकनाट' (सूदखोर) कहा जाता था।
धर्म- वैदिक धर्म पूर्णतः प्रतिमार्गी हैं वैदिक देवताओं में पुरुष भाव की प्रधानता है। अधिकांश देवताओं की अराधना मानव के रूप में की जाती थी किन्तु कुछ देवताओं की अराधन पशु के रुप में की जाती थी। अज एकपाद और अहितर्बुध्न्य दोनों देवताओं परिकल्पना पशु के रूप में की गई है मरुतों की माता की परिकल्पना चितकबरी गाय के रूप में की गई है। इन्द्र की गाय खोजने वाला सरमा (कुत्तिया) स्वान के रूप में है। इसके अतिरिक्त इन्द्र क कल्पना वृषभ (बैल) के रूप में एवं सूर्य को अश्व के रूप में की गई है। ऋग्वेद में पशुओं के पूजा प्रचलन नहीं था। ऋग्वैदिक देवताओं में किसी प्रकार का उँच-नीच का भेदभाव नहीं था। वैदिक ऋषियों ने सभी देवताओं की महिमा गाई है। ऋग्वैदिक लोगों ने प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण किया है। इस समय 'बहुदेववाद' का प्रचलन था। ऋग्वैदिक आर्यो की देवमण्डली तीन भागों कें विभाजित थी। (1) आकाश के देवता - सूर्य, द्यौस, वरुण, मित्र, पूषन्, विष्णु, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत्, आदिंत्यगग, अश्विनद्वय आदि। (2) अन्तरिक्ष के देवता- इन्द्र, मरुत, रुद्र, वायु, पर्जन्य, मातरिश्वन्, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहिर्बुघ्न्य। (3) पृथ्वी के देवता- अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, तथा नदियां।
इस देव समूह में सर्वप्रधान देवता कौन था, यह निर्धारित करना कठिन है ऋग्वैदिक ऋषियों ने जिस समय जिस देवता की स्तुति की उसे ही सर्वोच्च मानकर उसमें सम्पूर्ण गुणों का अरोपण कर दिया। मैक्स मूलर ने इस प्रवृति की 'हीनाथीज्म' कहा है। सूक्तों की संख्या की दृष्टि यह मानना न्यायसंगत होगा कि इनका सर्वप्रधान देवता इन्द्र था।
ऋग्वेद में अन्तरिक्ष स्थानीय 'इन्द्र' का वर्णन सर्वाधिक प्रतापी देवता के रूप में किया गया है, ऋग्वेद के करीब 250 सूक्तों में इनका वर्णन है। इन्हें वर्षा का देवता माना जाता था। उन्होंने वृक्ष राक्षस को मारा था इसीलिए उन्हे वृत्रहन कहा जाता है। अनेक किलों को नष्ट कर दिया था, इस रूप में वे पुरन्दर कहे जाते हैं। इन्द्र ने वृत्र की हत्या करके जल का मुक्त करते हैं इसलिए उन्हे पुर्मिद कहा गया। इन्द्र के लिए एक विशेषण अन्सुजीत (पानी को जीतने वाला) भी आता है।इन्द्र के पिता द्योंस हैं अग्नि उसका यमज भाई है और मरुत उसका सहयोगी है। विष्णु के वृत्र के वध में इन्द्र की सहायता की थी। ऋग्वेद में इन्द्र को समस्त संसार का स्वामी बताया गया है। उसका प्रिय आयुद्ध बज्र है इसलिए उन्हे ब्रजबाहू भी कहा गया है। इन्द्र कुशल रथ-योद्धा (रथेष्ठ), महान विजेता (विजेन्द्र) और सोम का पालन करने वाला (सोमपा) है। इन्द्र तूफ़ान और मेध के भी देवता है । एक शक्तिशाली देवता होने के कारण इन्द्र का शतक्रतु (एक सौ शक्ति धारण करने वाला) कहा गया है वृत्र का वध करने का कारण वृत्रहन और मधवन (दानशील) के रूप में जाना जाता है। उनकी पत्नी इन्द्राणी अथवा शची (ऊर्जा) हैं प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में इन्द्र के साथ कृष्ण के विरोध का उल्लेख मिलता है।
ऋग्वेद में दूसरा महत्त्वपूर्ण देवता 'अग्नि' था, जिसका काम था मनुष्य और देवता के मध्य मध्यस्थ की भूमिका निभाना। अग्नि के द्वारा ही देवताओं आहुतियाँ दी जाती थीं। ऋग्वेद में करीब 200 सूक्तों में अग्नि का जिक्र किया गया है। वे पुरोहितों के भी देवता थे। उनका मूल निवास स्वर्ग है। किन्तु मातरिश्वन (देवता) न उसे पृथ्वी पर लाया। पृथ्वी पर यज्ञ वेदी में अग्नि की स्थापना भृगुओं एवं अंगीरसों ने की। इस कार्य के कारण उन्हे अथर्वन कहा गया है। वह प्रत्येक घर में प्रज्वलित होती थी इस कारण उसे प्रत्येक घर का अतिथि माना गया है। इसकी अन्य उपधियाँ जातदेवस् (चर-अचर का ज्ञात होने के कारण), भुवनचक्षु (सर्वद्रष्टा होने के कारण), हिरन्यदंत (सुरहरे दाँव वाला) अथर्ववेद में इसे प्रातः काल उचित होने वाला मित्र और सांयकाल को वरुण कहा गया है। तीसरा स्थान वम्ण का माना जाता है, जिसे समुद्र का देवता, विश्व के नियामक और शासक सत्य का प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन-रात का कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य का निर्माता के रूप में जाना जाता है। ईरान में इन्हें 'अहुरमज्द' तथा यूनान में 'यूरेनस' के नाम से जाना जाता है। ये ऋतु के संरक्षक थे इसलिए इन्हें ऋतस्यगोप भी कहा जाता था।वरुण के साथ मित्र का भी उल्लेख है इन दोनों को मिलाकर मित्र वरूण कहते हैं। ऋग्वेद के मित्र और वरुण के साथ आप का भी उल्लेख किया गया है। आप का अर्थ जल होता है। ऋग्वेद के मित्र और वरुण का सहस्र स्तम्भों वाले भवन में निवास करने का उल्लेख मिलता है। मित्र के अतिरिक्त वरुण के साथ आप का भी उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में वरुण को वायु का सांस कहा गया है। वरुण देव लोक में सभी सितारों का मार्ग निर्धारित करते हैं। इन्हें असुर भी कहा जाता हैं। इनकी स्तुति लगभग 30 सूक्तियों में की गयी है। देवताओं के तीन वर्गो (पृथ्वी स्थान, वायु स्थान और आकाश स्थान) में वरुण का सर्वोच्च स्थान है। वे देवताओं के देवता है। ऋग्वेद का 7 वाँ मण्डल वरुण देवता को समर्पित है। दण्ड के रूप में लोगों को 'जलोदर रोग' से पीड़ित करते थे। 'द्यौ' (आकाश) को ऋग्वैदिककालीन देवों में सबसे प्राचीन माना जाता है। तत्पश्चात् पृथ्वी भी दोनों द्यावा-पृथ्वी के नाम से जाने जाते थे। आकाश को सर्वश्रेष्ठ देवता के रूप में तथा सोम को वनस्पति देवता के रूप में माना जाता था।
सोमदेवता- ऋग्वेद के नवें मण्डल के सभी 144 सूक्त सोम देवता का समर्पित है। ये चन्द्रमा से सम्बन्धित देवता थे। इनकी तुलना ईरान में होम देवता तथा यूनान में दिआनासिस से की गयी है। 'ऊषा' को प्रगति एवं उत्थान के देवता के रूप में, 'अश्विन' विपत्तियों को हराने वाले देवता के रूप में उल्लेख किया गया है।
अश्विन- यह एक कल्याणकारी देवता थे। इसका स्वरूप युगल रूप में था। यह पूषन के पिता और ऊषा के भाई थे। इन्हें नासांत्य भी कहा जाता है। ये चिकित्सा के देवता थे। अपंग व्यक्ति को कृत्रिम पैर प्रदान करते थे। दुर्घटनाग्रस्त्र नाव के यात्रियों की रक्षा करते थे। युवतियों के लिए वर की तलाश करते थे। 'पूषन' को पशुओं के देवता के रूप में संबोधित किया गया है।
पूषण - यह भी सूर्य के सम्बद्ध देवता थे। पूषन के रथ को बकरे खीचतें थे।
विष्णु- ये तीन कदम के देवता थे। इन्हें विश्व के संरक्षक और पालनकर्ता के रूप में माना जाता था।
रूद्र - यह उग्र देवता था। उग्र रूप में रूद्र तथा मंगलकारी रूप में शिव था। अथर्ववेद में इसे 'भूपति' नीलोदर, लोहित पृष्ठ तथा नीलकण्ठ कहा गया है। उसे कृतवास (खाल धारण करने वाला) भी कहा गया है। ऐतरेय
ब्राह्मण में कहा गया है कि रुद्र की उत्पत्ति सभी देवताओं के उग्र अंशो से हुई है। यजुर्वेद के शतरुद्रिय प्रकारण में इसे पशुपति, शम्भू, शंकर, शिव कहा गया है। ये अनैतिक आचरणों से सम्बद्ध माने जाते थे। ये चिकित्सा से संरक्षण थे।
मित्र- ये वरुण देवता से सम्बन्धित है। यह शपथ एवं प्रतिज्ञा के देवता हैं।
त्वष्द्रा - धातुओं के देवता, आर्य-सन्धि और विवाह के देवता, विवस्तान- ऋग्वेद में इसे देवताओं के जनक कहा जाता गया। ऋग्वेद मेंे ऊषा, अदिति, सूर्या जैसे देवियों का उल्लेख है।
पृथ्वी- यह देवी थी। इसे तीन वर्गोंे में रखा गया था। आप- अप्सराओं के रुप में देवी थी। अदिति पृथ्वी के विशाल स्वरूप का दैवीकरण थी। अरण्यानी- यह वन देवी थी। इसका प्रथम उल्लेख ऋक् संहिताओं में मिलता है। इसके अतिरिक्त अन्य ऋग्वैदिक देवियों में वाक्, इला, सरस्वती, मही, पुरन्धि, धिषणा, निषा, इन्द्राणी, कुहू, प्रष्नि आदि थी। ऋग्वेद में कुछ अन्य देवता भी थे। जैसे - विश्वदेव, आर्यमन, तथा 'ऋत' की संकल्पना में विश्वास है। ऋत् एक प्रकार की नैतिक व्यवस्था थी जिससे विश्व में सुव्यवस्था तथा प्रतिष्ठा स्थापित होती है। 'वरुण' को 'ऋत्' का संरक्षक बताया गया है। ऋत् का पालन पुण्य था, उसके पालन न न करने पर वरुण देवता द्वारा दण्डित किये जाने का उल्लेख मिलता है।
इस समय देवों का पूजा की प्रधान विधि थी- स्तुति पाठ करना एवं यज्ञ में बलि चढ़ाना। बलि या यज्ञाहुति में जौ एवं शाक का प्रयोग किया जाता था। ऋग्वेद में बहुदेववाद, एकात्मावाद एव एकेश्वरवाद का उल्लेख मिलता है। देवताओं की बहुलता एवं कर्मकांडों की जटिलता से थककर कुछ समय बाद ऋग्वैदिक लोगों ने देवताओं की संख्या कम करने के लिए उनका संयुक्तीकरण करने लगे। जैसे द्यावा-पृथ्वी, ऊषा-रात्रि, मित्रा-वरुण आदि। यही भावना एकेश्वरवाद की ओर अग्रसर हुई। इस समय मंदिर या मूर्ति पूजा का कोई प्रमाण नहीं मिला है। ऋग्वेद के नारदीय सूक्त में निर्मणु ब्रह्म का वर्णन प्राप्त होता है। ऋग्वैदिक आर्य पुनर्जन्म को मानते थे, इस काल में देव पूजा के साथ पितृपूजा का भी उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में कही भी यज्ञ कार्य सम्पन्न करने के लिए के मनुष्य की बलि का जिक्र नहीं है। ऋग्वेद के नारदीय सूक्त में निर्गुण ब्रह्म का वर्णन प्राप्त होता है स्वर्ग की मनोरम कल्पना मिलती है। नरक की कल्पना दुष्किर्मियों के लिए दण्डस्थान के रूप में की गयी है। ऋग्वैदिक ऋषियों का जीवन के प्रति दृष्टिकोण पूर्णतया आशावादी था। देवताओं की स्तुति का उद्देश्य भौतिक सुखों की प्राप्ति था न कि मोक्ष की प्राप्ति । ऋग्वेद में स्थाई बस्ती, लिखने-पढ़ने की कला एवं स्थापत्य के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है।
उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई.पू.)
भारतीय इतिहास में उस काल को, जिसमें सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद तथा ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों एवं उपनिषद् की रचना हुई, को उत्तर वैदिक काल (100 से 600 ई.पू.) कहा जाता है। चित्रित धूसर मृद्भाण्ड इस काल की विशिष्टता थी, कयोंकि यहाँ के निवासी मिट्टी के चित्रित और भूरे रंग के कटोरों तथाथालियों का प्रयोग करते थे। वे लोहे के हथियारों का भी प्रयोग करते थे। 1000 ई.पू. में पाकिस्तान के गंधार में लोहे के उपकरण प्राप्त हुए हैं। वहाँ क़ब्र में मृतकों के साथ लोहे के उपकरण प्राप्त हुए हैं। 800 ई.पू. के आस-पास इसका उपयोग गंगा -यमुना दोआब में होने लगा था। उत्तरी दोआब में चित्रित धूसर मृदभाण्ड के 700 स्थल मिले हैं जिसमें चार की खुदाई हुई है -(1) अतरजीखेड़ा, (2) जखेड़ा, (3) हस्तिनापुर एवं (4) नोह। अभी तक उत्खनपन में केवल अतरंजीखेड़ा से ही लौह उपकरण के साक्ष्य मिले हैं। उत्तर वैदिक ग्रन्थों में लोहे के लिए लौह अयस एवं कृष्ण शब्द का प्रयोग हुआ है। अतरंजीखेड़ा में पहली बार कृषि से सम्बन्धित लौह उपकरण प्राप्त हुए हैं। उत्तर वैदिक काल में आर्यो ने यमुना, गंगा एवं सदानीरा (गण्डक) नदियों के मैदानों को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया । दक्षिण में आर्यो का फैलाव विदर्भ तक हुआ। उत्तर वैदिककालीन सभ्यता का मुख्य केन्द्र 'मध्यप्रदेश' था जिसका प्रसार सरस्वती से लेकर गंगा दोआब तक था। यही पर कुरु एवं पन्चाल जैसे विशाल राज्य थे। यहीं से आर्य संस्कृति की पूर्व ओर प्रस्थान कर कोशल, काशी एवं विदेह तक फैली। मणव एवं अंग प्रदेश आर्य सभ्यता के क्षेत्र के बाहर थे। मगध में निवास करने वाले लोगों को अथर्ववेद में 'व्रात्य' कहा गया है। ये प्राकृत भाषा बोलते थे। उत्तर वैदिक काल में पुरु और भरत कबीला मिलकर 'कुरु' तथा 'तुर्वश' और 'क्रिवि' कबीला मिलकर 'पंचाल' (पचांल) कहलाये। आरम्भ मं कुरुओं की राजधानी असनदिवन्त में थी जिसमे अन्तर्गत कुरुक्षेत्र (सरस्वती और दृष्द्वती के बीच भूमि) सम्मिलित था। शीघ्र ही कुरुओं ने दिल्ली एवं उत्तरी दोआब पर अधिकार कर लिया। अब उनकी राजधानी हस्तिनापुर हो गयी । बलिहव प्रतिपीय, राजा परीक्षित, जनमेजय आदि इसी राजवंश के प्रमुख राजा थे। परीक्षित का नाम अथर्ववेद में मिलता है। जनमेजय के बारे में माना जाता है कि उसने सर्पसत्र एवं दो अश्वमेध यज्ञ कराया था। कुरु वंश का अन्तिम शासक निचक्षु था। वह हस्तिनापुर से राजधानी कौशम्बी ले आया, क्योंकि हस्तिनापुर बाढ़ में नष्ट हो गया था। पञ्चाल क्षेत्र के अन्र्तगत आधुनिक बरेली, बदायूँ, एवं फर्रुखाबाद आता है। इनकी राजधानी काम्पिल्य थी। पञ्चालों के एक महत्त्वपूर्ण शासक प्रवाहण जैवलि थे, जो विद्धानों के संरक्षक थे। पञ्चांल दार्शनिक राजाओं के लिए भी जाना जाता था। आरुणि श्वेतकेतु पञ्चाल क्षेत्र के ही थे उत्तरवैदिक कालीन सभ्यता का केन्द्र मध्य देश था। यह सरस्वती से गंगा के दोआब तक फैला हुआ था। गंगा यमुना दोआब से सरयू नदी तक हुआ। इसके बाद आर्यो का विस्तार वरूणाअसी नदी तक हुआ और काशी राज्य की स्थापना हुई। शतपथ ब्राह्मण में यह उल्लेख मिलता है कि विदेधमाधव ने अपने गुरु राहुगण की सहायता से अग्नि के द्वारा इस क्षेत्र का सफाया किया था। अजातशत्रु एक दार्शनिक राजा माना जाता था। वह बनारस से सम्बद्ध था। सिन्धु नदी के दोनो तटों पर गंधार जनपद था। गंधार और व्यास नदी के बीच कैकेय देश स्थित था। छान्दोग्य-उपनिषद के अनुसार उसने दावा किया कि मेरे राज्य में चोर, मद्वसेवी, क्रियाहीन, व्यभिचारी और अविद्यान नहीं है। मद्र देश पंजाब में सियालकोट और उसके आस-पास स्थित था। मत्स्य राज्य के अन्तर्गत राजस्थान के जयपुर, अलवर, भरतपुर थे। आर्यों में विन्ध्याचल तक अपना विस्तार किया । गंगा-यमुना दोआब एवं उसके आस-पास का क्षेत्र ब्रह्मर्षि देश कहलाता था। हिमाचल और विन्ध्याचल का बीच का क्षेत्र मध्य देश कहलाता था। उपनिषद काल में विदेह ने पञ्चाल का स्थान ग्रहण कर लिया। विदेश के राजा जनक प्रसिद्ध दार्शनिक थे। दक्षिण में आर्यो का फैलाव विदर्भ तक हुआ। मगध और अंग प्रदेश आर्य क्षेत्र से बाहर थें उत्तर वैदिक काल में पहली बार, आंधा्रे, बंगाल के पुण्ड्रों, उड़ीसा और मध्य प्रान्त के शवरों तथा दक्षिण-पश्चिम के पुलन्दों के नाम मिलते हैं उत्तर वैदिक काल में छोटे कबीले एक दूसरे में विलीन होकर बड़े क्षेत्रगत जनपदों को जन्म दे रहे थे। उदाहरण के लिए 'पुरु' एवं 'भरत' मिलकर कुरु और 'तुर्वष' तथा 'क्रिवि' मिलकर पांचाल कहलायें। इस प्रकार उत्तर वैदिक काल में कुरु, पांचाल, काशी का विदेश प्रमुख राज्य थे। इन 'कुरु' और 'पञचालों' का अधिपत्य दिल्ली पर एवं दोआब के मध्य एवं ऊपरी भागों पर फैला था। उत्तर वैदिक काल में आर्यो का विस्तार अधिक क्षेत्र पर इसलिए हो गया क्योंकि अब वे लोहे के हथियार एवं अश्वचालित रथ का उपयोग जान गए थे। उत्तर वैदिक काल में पञचाल सर्वाधिक विकसित राज्य था। शतपथ ब्राह्मण में इन्हें वैदिक सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कहा गया है। 'अर्थर्ववेद' में कुरु राज्य की समृद्धि का चित्रण है। परीक्षित और जनमेजय यहाँ के प्रमुख राजा थे। परीक्षित को मृत्यु लोक का देवता कहा गया है। अथर्ववेद के 'छोन्दोग्योपनिषद' में कहा गया है कि कुरु जनपद में कभी-कभी भी ओले नही पड़े है और न ही टिड्डियों के उपद्रव के कारण अकाल पड़ा। कुरु कुल का इतिहास महाभारत यु़द्ध (18 दिनो तक चलने वाला, संभवतः 950 ई.पू. के आस-पास) के नाम से विख्यात है। (महाभारत महाकाव्य पर आधारित) उत्तर वैदिक काल में त्रिककुद, कैञ्ज तथा मैनाम (हिमालय क्षेत्र मं स्थित) पर्वतों का उल्लेख मिलता है। राजनीतिक संगठन उत्तर वैदिक काल में 'राजतंत्र' ही शासन तंत्र का आधार था, पर कही-कही पर गणराज्यों के उदाहरण भी मिले है। सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण में ही राजा की उत्पत्ति का सिद्धान्त मिलता है। इस काल में राजा का अधिकार ऋग्वेद काल की अपेक्षा कुछ बढ़ा। अब उसे बड़ी-बड़ी उपाधियां मिलने लगीं जैस अधिराज, राजाधिराज, सम्राट, एकराट्। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार प्रात्य (पूर्व) का शासक सम्राट की उपाधि धारण करते थे, पश्चिम के स्वराट्, उत्तर के विराट्, दक्षिण के भोज तथा मध्य देश के राजा होते थे। प्रदेश का संकेत करने वाला शब्द 'राष्ट्र' सर्वप्रथम उत्तरवैदिक काल में ही प्रयोग किया गया। इस काल के उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि शायद राजा का चुनाव पहले जनता (विश) द्वारा एवं कालान्तर में जनता के प्रतिनिधियों द्वारा होता था, पर अन्ततः राजा का पद वंशानुगत हो गया ।शतपथ ब्राह्मण में राजा के निर्वाचन की चर्चा है और ऐसे राजा विशपति कहलाते थे। अत्याचारी शासक को जनता पदच्युत भी कर देती थी। उदाहरण के लिए सृजंयों ने दुष्ट ऋतु से पौशायन को बाहर निकाल दिया था। ताण्ड्य ब्राह्मण प्रजा के द्वारा राजा के विनाश के लिए एक विशेष यज्ञ किऐ जाने का भी उल्लेख हैं वैराज्य का अर्थ उस राज्य से है जहाँ राजा नहीं होता था। शतपथ ब्राह्मण में उस राज्य के लिए राष्ट्री शब्द का प्रयोग किया गया है जो निरंकुशता पूर्वक जनता की सम्पत्ति का उपभोग करता था। अथर्ववेद में राजा को विषमत्ता (जनता का भक्षक) कहा गया। अथर्ववेद में कहा गया है कि समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का शासक एकराट होता है। ऐतरेय ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण में ऐसे राजाओं की सूची मिलती है। अथर्ववेद के एक परिच्छेद में कहा गया है कि राजा राष्ट्र (क्षेत्र) का स्वामी होता है और राजा को वरुण, बृहस्पति, इन्द्र तथा अग्नि देवता दृढ़ता प्रदान करते हैं। राजा के राज्याभिषेक के समय 'राजसूय यज्ञ' का अनुष्ठान किया जाता था। जिसमें राजा द्वारा राज्य के 'रत्नियों' को हंवि प्रदान की जाती थी। यहाँ हवि से मतलब है कि राज्य प्रत्येक रत्नी के घर जाकर उनका समर्थन एवं सहयोग प्राप्त करता था। राजसूय यज्ञ के अनुष्ठान से यह समझा जाता था कि राजा को दिव्य शक्ति मिल गयी है। राजसूय यज्ञ का वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। यह दो दिन तक चलता था। राजसूय यज्ञ में वरुण देवता पार्थिव शरीर में प्रकट होते थे। राजा की शक्ति में अभिवृद्वय के लिए अश्वमेघ और वाजपेय यज्ञों का भी विधान किया गया। अवश्वमेघ यज्ञ से समझा जाता था राजा द्वारा इस यज्ञ में छोड़ा गया घोड़ा जिन-जिन क्षेत्रों से बेरोक गुजरेगा, उन सारे क्षेत्रों पर राजा का एक छत्र अधिपत्य हो जायेगा। शतपथ ब्राह्मण में भरतों के दो राजाओं भरत दौषयन्ति और शतनिक सत्राजित द्वारा अश्वमेघ यज्ञ कराने का उल्लेख हैं वाजपेय (रथदौड़) यज्ञ में राजा का रथ अन्य सभी बन्धुओं के रथो से आगे निकल जाता था। इन सभी अनुष्ठानों स प्रजा के चित्त पर राजा बढ़ती शक्ति और महिमा गहरी छाप पड़ती थी। गोपथ ब्राह्मण के अनुसार राजा को राजसूय यज्ञ सम्राट को वाजपेय, स्वराट को अश्वमेघ, विराट को पुरुषमेघ और सर्वराट को सर्वमेघ करना चाहिए। किन्तु आपस्तम्भ श्रोत सूत्र के अनुसार अश्वमेघ यज्ञ केवल सर्वभौम ही कर सकता है। वाजपेय यज्ञ शक्ति प्राप्त करने वाला एक सोम यज्ञ था जो साल में 17 दिन तक चलता था। राजसूय यज्ञ करने पुरोहिताध्यक्ष को दक्षिण के रूप में 240,000 गाये दी जाती थी। शतपथ ब्राह्मण में 13 रत्नियों का उल्लेख किया गया है- 1. ब्राह्मन (पुरोहित), 2. राजन्य, 3. बवाता (प्रियरानी), 4. परिवृत्ती (राजा की उपेक्षित प्रथम पत्नी), 5. सेनानी (सेना का नायक), 6. सूत (सारथी), 7. ग्रामणी (ग्राम प्रधान), 8. क्षतृ (कोषाधिकारी), 9. संगहीत्ट (सारथी या कोषाध्यक्ष), 10. भगदुध (कर संग्रहकर्ता), 11. अक्षवाप (पासे का अधीक्षक अथवा पासा फेंकने वाला), 12. गोविकर्तन (आखेटक) और 13. पालागल (सन्देशवाहक) ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित-शासन प्रणाली क्षेत्र शासन उपाधि पूर्व सामा्रज्य सम्राट पश्चिम स्वराज्य स्वराट उत्तर वैराज्य विराट दक्षिण भोज्य भोज मध्य प्रदेश राज्य राजा
42 सामान्य अध्ययन प्रारम्भिक 376 ई.) ने अश्वमेघ यज्ञ किया। वाकाटक वंश के संस्थापक प्रवरसेन ने अग्निष्टोम, वाजपेय, बृहस्पितिसाव तथा अन्य कई यज्ञ करवाए। चालुक्यों ने पुलकेशिन प्रथम, कीर्तिवर्मन मंगलेश्वर और पुलकेशिन द्वितीन ने वैदिक यज्ञ करवाए तथा विद्वान ब्राह्मणों का सम्मान किया। भागवत धर्म भागवत धर्म का प्रारंभ महाभारत के नारायण उपाख्यान प्रसंग से माना जाता हैं। इसके प्रारंभिक सिद्धांत गीता में मिलते हैं। महाभारत में भागवत धर्म को दिव्य धर्म का रूप प्रदान किया गया है। इसमें विष्णु को वासुदेव नाम दिया गया है। भागवत धर्म में विष्णु के तीन अवतारों को माना गया है- 1. पुरूषावतार, 2. गुणावतार और 3. लीलावतार। ब्राह्मण धर्म के जटिल कर्मकाण्ड एवं यज्ञीय व्यवस्था के विरोध स्वरूप उदय होने वाला प्रथम सम्प्रदाय भागवत सम्प्रदाय कहलाया। यह धर्म माननीय स्वरूप वासुदेव कृष्ण की उपासना और भक्ति पर केन्द्रित था। भागवत धर्म से सम्बन्धित प्रथम प्रस्तर स्मारक विदिशा का गरूड़ स्तम्भ है। इससे पता चलता है कि तक्षशिला के यवन राजदूत हेलियोडोरस ने भागवत धर्म ग्रहण किया था। उसने इस स्तंभ की स्थापना करवाकर उसकी पूजा की थी। इस पर उत्कीर्ण लेख में होलियोडोरस को भागवत तथा वासुदेव के देवदेवस कहा गया है। वैष्णव धर्म भागवत धर्म से ही वैष्णव धर्म का विकास छठीं शताब्दी ई.पू.के लगभग हुआ। वैष्णव धर्म के प्रारम्भिक जानकारी उपनिषदों से मिलती है। इस धर्म के प्रवर्तक कृष्ण ‘वृष्णि कबीले‘ के थे जिनका निवास स्थान मथुरा था। सर्वप्रथम ‘छान्दोग्य उपनिषद्‘ में देवती पुत्र एवं अंगिरस के शिष्य के रूप में कृष्ण का उल्लेख आया है। वासुदेव कृष्ण के समर्थक इन्हें ‘भगवत‘ (पूज्य) कहते थे, इसलिए इनके द्वारा स्थापित धर्म भागवत् धर्म कहा गया। कालान्तर में ‘महाभारत काल‘ में कृष्ण का उल्लेख विष्णु के रूप में किया जाने लगा जिससे भागवत् धर्म का नाम वैष्णव धर्म में परिवर्तित हो गया। ऐतरेय ब्राह्मण में विष्णु का उल्लेख सर्वोच्च देवता के रूप में किया गया है। जब कृष्ण, विष्णु का तादात्म नारायण से स्थापित हुआ तो वैष्णव धर्म का एक नया नाम ‘पात्र्वरात्र धर्म‘ प्रकाश में आया। नारद के अनुसार पंचरात्र में- परमतत्व, मुक्ति, युक्ति, योग और विषय (संसार) जैसे पांच पदार्थ है इसलिए इसे पंचरात्र कहा गया। पंचरात्र में मुख्य उपासक नारायण विष्णु थे। विष्णु के दस अवतार 1. मत्स्य 6. परशुराम 2. कूर्म अथवा कच्छप 7. राम 3. वाराह 8. बलराम 4. नृसिंह 9. बुद्ध 5. वामन 10. काल्कि या कलि ‘नारायण‘ का जिक्र सर्वप्रथम ब्राह्मण ग्रंथों में मिलता है। महाभारत के नारायणीय पर्व में विष्णु के 6 तथा 12 अवतारों का वर्णन मिलता है। वैसे विष्णु के अधिकतम अवतारों की संख्या 24 है पर मत्स्य पुराण में इनके 10 अवतारों का उल्लेख मिलता है। प्रमुख 10 अवतार निम्न है- 1. मत्स्य, 2. कूर्म (कच्छप), 3. वाराह, 4. नृसिंह, 5. वामन, 6. परशुराम, 7. राम, 8. बलराम, 9. बुद्ध, 10. काल्कि या कलि। इसमें नारायण, नृसिंह एवं वामन दैवीय अवतार माने जाते है तथा शेष मानवीय अवतार। इन अवतारों में तीन पशु योनि में (वाराह, कूर्म और मत्स्य), मिश्रित योनि में (नृसिंह और वामन) तथा मानव योनि में (परशुराम, राम, बलराम, बुद्ध तथा दसवाँ अवतार कल्कि का होगा)। विष्णु के अवतारों में वाराह अवतार सर्वाधिक लोकप्रिय था। वाराह का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद में है। कृष्ण का प्रारम्भिक नाम ‘वासुदेव‘ पाणिनि के युग में प्रचलित था और इनकी उपासना करने वाले ‘वासुदेवक‘ कहलाये। गृह स्वामी एवं गृह स्वामिनी, जो भागवत धर्म का अनुसरण करते थे, उन्हें ‘भागवतम्‘ एवं ‘भागवती‘ कहा जाता था। वासुदेव को ‘सात्वर्षम‘ भी कहा जाता है। ‘सात्वत‘ जाति से ही भागवत् सम्प्रदाय का उदय हुआ। ईसा पूर्व चैथी सदी में मेगस्थनीज ने वासुदेव से सम्बन्धित विष्णु एवं शिव की उपासनाओं का उल्लेख किया, और इनके ग्रीक नाम क्रमशः हेराक्लीज (विष्णु) एवं डायोनिसस (शिव) रख दिए है। वैष्णव धर्म में ईश्वर को प्राप्त करने के तीन साधन-ज्ञान, कर्म एवं भक्ति है, जिसमें सर्वाधिक महत्व ‘भक्ति‘ को दिया जाता है। ‘अवतारवाद‘ का सिद्धान्त वैष्णव धर्म में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यह सिद्धान्त गुप्तकाल में अपने चरमोत्कर्ष पर था। अवतारवाद का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख भगवत्गीता में मिलता है। इस धर्म में मंदिर एवं मूर्ति पूजा को विशेष महत्व दिया गया है। इस धर्म में प्रारम्भिक अभिलेख के रूप में दूसरी शताब्दी ई.पू. में यूनानी राजदूत तक्षशिला निवासी होलिओदोरस ने गरूड ध्वज स्थापित कराया। पहली सदी ई.पू. के ‘नानाघाट‘ अभिलेख में संकर्षण (बलराम) एवं वासुदेव का विवरण मिलता है। मानवीय नायक के रूप में वासुदेव के दैवीकरण का प्राचीनतम उल्लेख पाणिनीकृत ‘अष्टाध्यायी‘ में मिलता हैं। भागवत धर्म में वासुदेव कृष्ण और चार वृष्णि वीरों की पूजा को चतुव्र्यूह के रूप में कल्पना की गई। वायु पुराण में वासुदेव कृष्ण सहित वृष्णि वीरों का उल्लेख इस प्रकार है- 1. वासुदेव कृष्ण देवकी का पुत्र 2. संकर्षण रोहिणी के उत्पन्न पुत्र 3. प्रधुम्न रूक्मिणी से उत्पन्न 4. साम्ब जम्बवती से उत्पन्न पुत्र 5.अनिरूद्ध प्रधुम्न से उत्पन्न पुत्र संकर्षण, प्रधुम्न तथा साम्ब को क्रमशः जीव, मन तथा अहंकार का प्रतीक माना गया है। भागवत धर्म में चतुव्र्यूह के चार प्रमुख देवता में संकर्षण, प्रधुम्न, साम्ब तथा अनिरूद्ध शामिल थे तथा पंचरात्र व्यूह के प्रमुख देवताओं में है- 1.वासुदेव, 2. संकर्षण, 3. प्रधुम्न, 4. अनिरूद्ध तथा 5. लक्ष्मी। गुप्त काल, जो वैष्णव धर्म के चरमोत्कर्ष का काल था, वैष्णव धर्म के महत्त्वपूर्ण अवशेष के रूप में देवगढ (झांसी) में स्थित ‘पंचायतन श्रेणी‘ का दशावतार मंदिर है दक्षिण भारत में वैष्णव धर्म का प्रचार देंगी के पूर्वी चालुक्य एवं राष्ट्रकूटों के समय में हुआ। राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्ग द्वारा स्थापित एलोरा में दशावतार का मंदिर काफ़ी प्रसिद्ध हैं। चंद्र गुप्त के काल के उदयगिरि गुफा के उत्कीर्ण लेख में विष्णु के वराहावतार का उल्लेख है। चालुक्यों और उनके सामंतों के अधिकांश अभिलेखों का आरंभ विष्णु के वराहावतार की स्तुति से आरंभ होता है। केरल का संत राजा कुलशेखर विष्णु का भक्त था। विष्णु के वामनावतार का उल्लेख स्कंदगुप्त के जूनागढ के उत्कीर्ण लेख में है। तमिल प्रदेश में यह धर्म आलवार संतों के माध्यम से विकसित हुआ। इन संतों की संख्या 12 थी, इन सब में तिरूमंगई सर्वाधिक प्रसिद्ध आलवार संत था। इन संतों में एक मात्र महिला साध्वी आण्डाल का जिक्र मिलता है। रामानूज, बल्लभाचार्य एवं चैतन्य ने वैष्णव धर्म के भक्तिपक्ष को अधिक महत्व दिया। दक्षिण भारत से उत्तर भारत में वैष्णव भक्ति लाए जाने का श्रेय रामानंद को है, जिसका उनके शिष्यों, विशेषकर कबीरदास ने प्रचार-प्रसार किया। व्यूहों में शुरू में संकर्षण, प्रधुम्न, अनिरूद्ध ही थे (इसमें साम्ब नहीं है) बाद में कृष्ण, बलदेव और सुभद्रा की पूजा इसके अन्तर्गत होने लगी। वराहमिहिर ने बलदेव एवं कृष्ण की एक संयुक्त प्रतिमा, जिसमें एक नशा उन दोनों के बीच खडी है, का उल्लेख किया है। कश्मीन ने उस व्यूह सिद्धांत का विकास हुआ, जिसमें विष्णु के बैकुंठ चतुर्मूर्ति की पूजा में ही चारो व्यूहों का समावेश हो गया। तीसरी शती ई.पू. में विकसित हुआ ‘पात्र्वरात्रमत‘ वैष्णवधर्म का प्रधान मत था, जिसमें नारद ने परमतव्त, मुक्ति, युक्ति, योग एवं विषय जैसे पांच तत्वों के होने की बात कहीं। गुप्तकाल में वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार भारत से बाहर दक्षिण-पूर्वी एशिया, हिन्द चीन, कम्बोडिया, मलाया एवं इन्डोनेशिया तक हुआ। निम्बार्क सम्प्रदाय- वैष्णव धर्म के अन्तर्गत विकसित तैलंग ब्राह्मणों का यह सम्प्रदाय बेल्लारी ज़िले के निम्ब ग्राम के निवासियों का था। इस सम्प्रदाय की स्थापना निम्बार्क द्वारा की गई। महाराष्ट्र में वैष्णव धर्म के प्रमुख स्थल के रूप में भैरथी नदी के किनारे स्थित पण्ढरपुर नगर था जहां पर प्रसिद्ध विठोबा मंदिर स्थित है। प्रमुख सम्प्रदाय एवं उसके मत वैष्णव सम्प्रदाय विशिष्टाद्वैत रामानुज ब्रह्मा सम्प्रदाय द्वैतसद माधव (आनन्दतीर्थ) रूद्र सम्प्रदाय शुद्धाद्वैत विष्णुस्वामी, वल्लभाचार्य सनक सम्प्रदाय द्वैताद्वैत निम्बार्क शैव धर्म भगवान शिव की पूजा करने वालों को शैव एवं शिव से सम्बन्धित धर्म को शैव धर्म कहा गया। शिव भक्ति के विषय में प्रारम्भिक जानकारी हमें सिन्धु घाटी से प्राप्त होती है। ऋग्वेद में शिव के लिए ‘रूद्र‘, नामक देवता का उल्लेख हैं। अथर्ववेद में शिव को भव, शर्व, पशुपति, भूपति कहा गया है। ब्राह्मण ग्रंथों में रूद्र का उल्लेख ‘स्हस्त्राक्ष‘ एवं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देवता के रूप में मिलता है। श्वेताश्वतर एवं अथर्वशिरस उपनिषद् में भगवान ‘रूद्र‘ की महानता का वर्णन मिलता है। ‘लिंग पूजा‘ का पहला स्पष्ट वर्णन मत्स्य पुराण में मिलता है। महाभारत के अनुशासन पर्व में भी लिंग पूजा का उल्लेख मिलता है। पतंजति के महाभाष्य (ई.पू.दूसरी शती) से शिव की मूर्ति बना कर पूजा करने का विवरण मिलता है। शिव की प्राचीनतम् मूर्ति गुडीमल्लम लिंग रेनूगुंटा से मिली है। मेगस्थनीज ने अपने विवरण में शिव का उल्लेख डायनोसिस के रूप में किया है। कौषीतिकी एवं शतपथ ब्राह्मण में शिव की आठ रूपों का उल्लेख है चार संहार के रूप में तथा चार सौभ्य के रूप में। ऐसे शिवलिंग, जिन पर किसी देवता की मूर्ति उत्कीर्ण नहीं है, मथुरा और उसके आस-पास के प्रदेश में पाए गए है। किन्तु उत्तर कुषाण या पूर्व गुप्तकाल की, एक मथुरा में मिली मूर्ति में चार मुख दिखाए गए है, ये मुख शिव देवता सद्योजात, वामदेव, अधोर और तत्पुरूष रूपों के द्योतक है। इनके ऊपर एक पांचवां मुख अर्थात् ईशान रूप है ये इस देवता के सौभ्य, चारू, प्रसन्न और संहारकारी रूप के प्रतीक है। इंडो-सीथियन, इंडो पार्थियन तथा कुषाण शासकों के सिक्कों पर भी इस देवता के चित्र मानवीय रूप में है। इसमें शिव को अपने पवित्र बैल नंदी के सहारे अर्धशायी स्थिति में दिखाया गया है। विमकडफिसेस स्वयं को ‘महेश्वर‘ कहता है सभी कुषाण शासकों के सिक्कों पर शिव की अपनी पत्नी नाना के साथ जिसे अम्बा या दुर्गा माना जाता है, चित्रित किया गया है। हुविष्क के सिक्के पर कुमार और विशाख की मूर्तियां है। गुप्तकाल में सर्वप्रथम शिव एवं पार्वती की संयुक्त मूर्तियों के निर्मित होने प्रमाण मिलते हैं। सर्वप्रथम मूर्ति पूजा के अन्तर्गत गुप्तकाल में ब्रह्रा, विष्णु एवं महेश की पूजा का उल्लेख मिलता है। ‘हरिहर‘ के रूप में शिव की विष्णु के साथ सर्वप्रथम मूर्तियों गुप्त यूग में बनाई गयी। गुप्तकाल में शैव धर्म की काफ़ी उन्नति हुई। कुमार गुप्त प्रथम के समय में करमदंडा एवं खोह में शिवलिंग की स्थापना हुई। इसीकाल में भूमरा एवं नचना कुठार में शिव एवं पार्वती के मंदिरों का निर्माण हुआ। राजपूतों के समय में, विर्शेषकर चन्देलों के युग में खजुराहों में कन्दारिया महादेव मंदिर का निर्माण हुआ। भारतीय इतिहास सी/43 गुप्त शासकों के अतिरिक्त, शैव मत को बंगाल के शशांक, कन्नौज के पुष्यभूति वंश के शासकों और वल्लभी के मैत्रकों ने भी संरक्षण पदान किया। उत्तर भारत की तरह दक्षिण में भी शैद धर्म विकसित हुआ। मुख्यतः चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव एवं चोलो के समय में यह धर्म उन्नति की और अग्रसर हुआ। ऐलोरा की प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूटों ने किया। दक्षिण में शैव धर्म के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले ‘पेरिय पुराण‘ में शिव के 63 भक्तों को वर्णण है। नायनार संतों ने पल्लव काल में इस धर्म का प्रचार-प्रसार किया। 63 नायनार संतों में अप्पार, तिरूज्ञान, सम्बन्दर, सुन्दर पूर्ति एवं मणिक्कवाचगर आदि विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। तमिल ग्रंथ ‘शिलप्पिदिकारम्‘ में पंचाक्षर मंत्र (नमः शिवाय) का उल्लेख है। ‘मेणिमेखलै‘ एवं संगम साहित्य में भी शैव मत की चर्चा है। चोल शासक राजाराज प्रथम में तंजोर में प्रसिद्ध राजराजेश्वर शैव मंदिर का निर्माण करवाया। इसी वंश के राजेन्द्र चोल ने वृहदीश्वर मंदिर का निर्माण करवाया। ‘वामण पुराण‘ में शैव सम्प्रदाय का संख्या चार बताई गई है। ये है- शैव, पाशुपत, कापालिक एवं कालामुख। पाशुपत सम्प्रदाय शैवों का सर्वाधिक प्राचीन सम्प्रदाय हैं। इसका विवरण महाभारत में मिलता है। इस सम्प्रदाय के सिद्धान्त के तीन अंग है- पति (स्वामी), पशु (आत्मा), और पाश (वचन)। इस मत के चार पाद या पाश (बंधन) है- विद्या, क्रिया, योग और चर्या। इसके संस्थापक नकुलीश या लकुलीश थे, जिन्हें भगवान शिव के 18 अवतारों में से एक माना जाता था। इस सम्प्रदाय के अनुयायियों को पंचार्थिक कहा गया। इस मत का प्रमुख सैद्धान्तिक ग्रंथ ‘पाशुपत सूत्र‘ है। इसकी रचना महेश्वर ने की है। पंचाध्यायी या ‘पंचातविद्या‘ लकुलिश द्वारा रचित ग्रंथ है। लकुलिश का मंदिर मेवाड में है। कापालिक सम्प्रदाय के इष्टदेव भैरव थे, जिन्हें शिव का अवतार माना जाता है। इस सम्प्रदाय के उपासक क्रोधी स्वभाव के होते हैं। इस सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र ‘श्री शैल‘ नामक स्थान था जिसका प्रमाण भवभूति के ‘मालतीभाव‘ से मिलता है। कालामुख सम्प्रदाय के लोग भी अतिवादी विचारधारा के थे। शिव पुराण में इन्हें, ‘महाव्रतधर‘ कहा गया है। इस सम्प्रदाय के लोग नर-कपाल में ही भोजन, जल तथा सुरापान करते है और साथ ही अपने शरीर पर चिता की भस्म मलते हैं। लिंगायात सम्प्रदाय दक्षिण में प्रचलित था, इन्हें जंगम भी कहा जाता था। इस सम्प्रदाय के लोग शिव लिंग की उपासना करते हैं। ‘बसव पुराण‘ इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक अल्लभ प्रभु एवं इनके शिष्य बसव का उल्लेख मिलता है। इस सम्प्रदाय की स्थापना 12वीं शताब्दी में की गई थी। इस सम्प्रदाय को वीर शिव सम्प्रदाय भी कहा जाता है। कश्मीरी शैव सम्प्रदाय का विकास कश्मीर में हुआ। यह सम्प्रदाय दार्शनिक एवं ज्ञानमार्गी है। इस सम्प्रदाय के संस्थापक वसुगुप्त थे। इस सम्प्रदाय को त्रिक, स्पंद एवं प्रत्यभिज्ञा नाम से भी जाना जाता है। कश्मीरी शैव मत के प्रत्यभिज्ञा, सम्प्रदाय के संस्थापक सोमानंद माने जाते हैं। अन्य सम्प्रदायों में दसवी शती में मत्स्येन्द्रनाथ ने ‘नाथ सम्प्रदाय‘ की स्थापना की। इस सम्प्रदाय का व्यापक प्रचार-प्रसार बाबा गोरखनाथ के समय में हुआ। शैव एवं वैष्णव मत में दोनों ईश्वरवादी एवं एकेश्वरवादी है। जहाँ वैष्णव मत व्यक्ति के मानवीय एवं भावात्मक पक्ष को छूता है वहीं पर शैव दार्शनिक एवं वैज्ञानिक विचाराधारा पर आधारित है। शाक्त धर्म शक्ति सम्प्रदाय का शैवतम धनिष्ठ सम्बन्ध था अम्बा, दुर्गा, पार्वती, अम्बिका, रूद्राणी, भवानी आदि को शक्ति की देवी के रूप में पूजा की जाती थी। ऋग्वेद के 10वें मण्डल का ‘तान्त्रिक देवी सुक्त‘ शक्ति देवी की उपासना में समर्पित है महाभारत में आदि शक्ति या देवी पूजा का स्पष्ट उल्लेख है। पुराणों के अनुसार शक्ति की उपासना मुख्यतया काली मंदिर शाक्त धर्म के विकसित अवस्था को प्रमाणित करती है। शाक्तों के दो वर्ग है: कौलमार्गी (अद्वैतवादी) और साभ्यचारी। कौलमार्गी पंचमकार (मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा, तथा मैथुन) की उपासना करते हैं। महाजनपद काल बुद्ध के जन्म के पूर्व लगभग छठीं शताब्दी ई.पू. में भारत वर्ष 16 महाजनपदों में बंटा हुआ था, जिसका उल्लेख हमें बौद्ध ग्रंथ के ‘अंगुत्तरनिकाय‘ में मिलता है। सोलह महाजनपदों में मगध शक्तिशाली था। सोलह महाजनपदों में अस्मक ही एक ऐसा जनपद था जो दक्षिण भारत में गोदावरी नदी के किनारे स्थित था। कुछ के समय 10 गणतंत्र राज्य थे जिसमें 8 वज्जि संघ के तथा दो मल्ल के अन्तर्गत आते थे। समकालीन 10 गणतंत्र राज्यों में कपिलवस्तु के शाक्य, 2. सुमसुमार गिरि के मग्न, 3. अल्लकप के मल्ल, 7. पावा के मल्ल, 8. पिप्पलिवन के मोरीय, 9. वैशाली के लिच्छिवी गणराज्य था। बुद्धकालीन चार शक्तिशाली राजतंत्र कोशल, मगध, वत्स एवं अवन्ति था। गंधार एवं कम्बोज के क्षत्रियों को चार्ताशस्त्रोप जीविनः कहा जाता है। षोडस महाजनपद महाजनपद राज्यधानी वर्तमान क्षेत्र 1. अंग चम्पा भागलपुर व मुंगेर 2. मगध गिरिव्रज (राजगृह) पटना, गया व शाहाबाद 3. काशी वाराणसी वाराणसी 4. कोशल श्रावस्ती/अयोध्या फैजाबाद, गोंडा व बहराइच 5. वज्जि विदेह एवं मिथिला वैशाली व उत्तर विहार के ज़िले 6. मल्ल कुशावती(कुशीनगर) देवरिया, कुशीनगर, बस्ती, गोरखपुर व सिद्धार्थनगर 7. चेदि शक्तिमती बुन्देलखण्ड 8. वत्स कौशाम्बी इलाहाबाद व मिर्जापुर 9. कुरू इन्द्रप्रस्थ के पश्चित में स्थित क्षेत्र हरियाणा व दिल्ली का यमुना 10. पंाचाल उत्तर पंचाल-अहिच्छत्र दक्षिण पंचाल-कापिल्य पश्चिमी उत्तर प्रदेश का क्षेत्र 11. मत्स्य विराट नगर अलवर, भरतपूर व जयपुर 12. शूरसेन मथुरा ब्रजमंडल का क्षेत्र 13. अश्मक पोतन या पोटली नर्मदा व गोदावरी नदियों के मध्य का क्षेत्र 14. अवन्ति उत्तरी अवन्ति-उज्जयिनी दक्षिणी अवन्ति-महिष्मती मालवा 15. गंधार तक्षशिला पाकिस्तान का पूर्वी व अफगानिस्तान का पूर्वी क्षेत्र 16. कम्बोज हाटक पाकिस्तान का आधुनिक हजारा जिला जैन ग्रन्थ ‘भगवतीसूत्र‘ में भी इन सोलह जनपदों की सूची मिलती है, किन्तु उसमें नाम कुछ भिन्न प्रकार का है। उपर्युक्त राज्य (महाजनपद) दो प्रकार के थे- राजतंत्रात्मक राज्य एवं गणतंत्रात्मक राज्य। अंग, मगध, काशी, कोशल, चेदि, वत्स, कुरू, पात्र्चाल, मत्स्य, शूरसेन, अश्मक, अवन्ति, गंधार तथा कम्बोज राजतन्त्रात्मक राज्य थे जबकि वज्जि और मल्ल गणतंत्र थे। ऐसे राज्यों का शासन राजा द्वारा न होकर गण अथवा संघ द्वारा होता था। आधुनिक काल में गणतंत्र प्रजातंत्र का समनार्थी है किन्तु प्राचीन काल के गणतंत्र को आधुनिक अर्थ में कुलीनतंत्र या निरंकुश तंत्र कह सकते है क्योंकि इसमें शासन की शक्ति सम्पूर्ण जनता के हाथों में न होकर किसी कुल विशेष के प्रमुख व्यक्तियों के हाथों में होती है। इन षोडश महाजनपदों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है- अंग- उत्तरी बिहार का आधुनिक भागलपुर तथा मुंगेर ज़िला इसके अन्तर्गत आता था, इसकी राजधानी चम्पा थी। चम्पा का प्राचीन नाम मालिनी था। अंग का प्राचीनतम उल्लेख अर्थर्ववेद में मिलता है। इसकी गणना बुद्धकालीन छः बडे नगरों में की जाती थी। यहां का शासक ब्रह्रादत्त था, कालान्तर में बिम्बसार ने अंग को जीतकर मगध साम्राज्य का अंग बना लिया। अजातशत्रु वहां पर बिम्बिसार के प्रतिनिधि के रूप में शासन करने लगा। इस नगर के निर्माण की योजना सुप्रसिद्ध वस्तुकार महागोविन्द ने की थी। काशी- आधुनिक बनारस एवं उसके निकटवर्ती क्षेत्रों को काशी महाजनपद कहा गया। वरूणा एवं असी नदियों के मध्य स्थित वाराणसी इस महाजनपद की राजधानी थी। बनारस का नामकरण वहां के राजा बानर के नाम पर हुआ था। यहां का सबसे सर्वशक्तिशाली राजा ब्रह्रादत्त था। जिसने कोशल के ऊपर विजय प्राप्त की थी। खुदाइयों से पता चलता है कि यहां पर सातवीं शताब्दी ई.पू. से ही जनजीवन स्थापित हो चुका था। छठीं शताब्दी ई.पू. में वाराणसी मिट्टी की दीवारों से घिरी हुई एक नगरी थी। संप्रभुता के लिए इस राज्य का कोशल के राज्य के साथ बराबर संघर्ष होता रहता था। अंततोगत्वा इसे मगध साम्राज्यवादी का शिकार बनना पडा। अजातशत्रु के समय इसे मगध में मिला लिया गया। कोशल- उत्तर प्रदेश के वर्तमान फैजाबाद ज़िले में स्थित यह महाजनपद उत्तर में नेपाल, दक्षिण में सई नदी, पश्चिम में पात्र्चाल, एवं पूर्व में गण्डक नदी तक फैला हुआ था। इसकी राजधानी श्रावस्ती थी। बुद्ध के समय यह महाजनपद दो भागों में विभाजित हो गया। उत्तरी भाग की राजधानी साकेत एवं दक्षिणी भाग की राजधानी श्रावस्ती थी। बुद्ध के समय के छः नगरों में कोशल भी था। कोशल को सरयू नदी दो भागों में बांटती थी। उत्तरी कोशल और दक्षिणी कोशल। उत्तरी कोशल की आरंभिक राजधानी श्रावस्ती (आधुनिक सहेत महेत जो उ.प्र.के गोण्डा और अहराइच ज़िले की सीमा पर स्थित है) थी। बाद में राजधानी श्रावस्ती से हटाकर अयोध्या या साकेत में स्थापित की गई। दक्षिणी कोशल की राजधानी कुशावती थी। कोशल को भी मगध साम्राज्यवाद का शिकार बनना पडा। अजातशत्रु ने अपने पराक्रम से कोशल को भी मगध में मिला लिया। इसी राज्य के अन्तर्गत शाक्यों का गणतंत्र भी था। वज्जि- मगध के पडोस में स्थित वज्जि संघ आठ कुलों का एक संघ था। इनमें विदेह, लिच्छवि, कात्रिक एवं वृज्जि महत्त्वपूर्ण थे। वज्जि संघ की राजधानी विदेह एवं मिथिला थी। लिच्छवियों की राजधानी वैशाली थी, जो अपने समय का एक महत्त्वपूर्ण नगर था। गौतम बुद्ध स्वयं वैशाली गए थे और वहां की प्रसिद्ध नर्तकी आम्रपाली को बौद्धधर्म में दीक्षित किया था। कालान्तर में आपसी वैमनस्य के कारण लिच्छियों की एकता एवं अजेयता नष्ट हो गई। अजातशत्रु ने वैशाली पर अधिकार कर इसे मगध साम्राज्य का अंग बना लिया। मल्ल- आधुनिक देवरिया एवं गोरखपुर क्षेत्र में स्थित मल्ल क्षेत्र दो भागों में बंटा था, जिसमें एक की राजधानी कुसावती अथवा कुसीनारा एवं दूसरी की राजधानी पावा थी। कुसीनारा में महात्मा बुद्ध का महापरिनिर्वाण एवं पावा में महावीर को निर्वाण प्राप्त हुआ। मल्लों की वीरता की प्रशंसा साहित्यिक स्त्रोतों में की गई है। आपसी संघर्षों से मल्लों की स्थिति कमज़ोर हो गई। इसका लाभ उठाकर मगध ने इसे अपने साम्राज्य में मिला लिया। चेदि- वर्तमान बुन्देलखण्ड का पूर्वी भाग एवं उसके निकटवर्ती भाग प्राचीन चेदि महाजनपद के अन्तर्गत आते थे। शक्तिमती चेदि महाजनपद की राजधानी थी। महाभारत काल में यहां का शासक शिशुपाल था। चेतिय जातक में यहां के एक राजा का नाम उपचार मिलता है। कलिंग (उडीसा) के चेदि भी संभवतः इन्हीं ‘चेदियों‘ से सम्बद्ध थे। वत्स- यमुना के किनारे स्थित वत्स महाजन वर्तमान इलाहाबाद एवं कौशाम्बी ज़िले का क्षेत्र था। इसकी राजधानी कौशाम्बी थी। यहाँ प्रसिद्ध शासक उदयन भास के ‘स्वप्नवावदत्तम‘ का नायक था। कथासरित्सागर के आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि उदयन पाण्डव परिवार से सम्बन्धित था। बाढ के कारण जब कुरूओं की राजधानी हस्तिनापुर नष्ट हो गई तब ‘निचक्षु‘ नामक राजा के कौशाम्बी में राजधानी स्थापित की। कौशाम्बी से श्रेष्ठि घोषित द्वारा निर्मित विहार तथा उदयन के राजप्रसाद के अवशेष भी प्राप्त होते हैं। कुरू- आधुनिक दिल्ली एवं उसके समीप के क्षेत्र ही प्राचीन कुरू प्रदेश के क्षेत्र थे। कुरू महाजनपद की राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी जिसका उल्लेख महाभारत में 46 सामान्य अध्ययन प्रारम्भिक मिलता है। बुद्ध के समय यहां का राजा कोरव्य था। पहले यहां राजतंत्र था बाद मंे गणतंत्र की स्थापना हुई। पांचाल- वर्तमान में रूहेलखण्ड क बरेली, बदायूं एवं फर्रूखाबाद ज़िलों को मिलाकर ही प्राचीन पांचाल महाजनपद का निर्माण होता था। गंगानदी इस महाजनपद को दो भागों-उत्तरी पांचाल एवं दक्षिणी पांचाल में बांटती है। उत्तरी पांचाल की राजधानी अहिच्छत्र एवं दक्षिणी पांचाल की राजधानी कांपिल्य थी। कान्यकुब्ज का प्रसिद्ध नगर इसी राज्य में स्थित था। द्रौपदी इसी राज्य की कन्या थी। मत्स्य- वर्तमान में जयपुर के समीपवर्ती क्षेत्र मत्स्य महाजनपद के अन्तर्गत आते थे, इसकी राजधानी विराटनगर थी। राजधानी विराटनगर की स्थापना राजा विराट ने की थी। बाद में मत्स्य भी मगध साम्राज्य का अंग बन गया। शूरसेन- आधुनिक मथुरा में प्राचीन शूरसेन महाजनपद का विस्तार था। इसकी राजधानी मथुरा थी। बुद्ध के समय में यहां का राजा अवन्तिपुत्र था जो बुद्ध के उपदेशों से बहुत प्रभावित था। अश्मक- प्राचीन अश्मक गोदावरी नदी के दक्षिणी तट पर स्थित माना गया है। इसकी राजधानी पोतन यो पोटली थी। बुद्ध के समय में अवन्ति राज्य के अश्मक को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। अवन्ति- आधुनिक मालवा का क्षेत्र ही प्राचीन अवन्ति महाजनपद का क्षेत्र था। यह महाजनपद दो भागों -उत्तरी अवन्ति एवं दक्षिणी अवन्ति में बंटा था, उत्तरी अवन्ति की राजधानी उज्जैन एवं दक्षिणी अवन्ति की राजधानी महिष्मती थी। बौद्ध ग्रंथ महावग्न जातक के अनुसार अवंति में प्रद्योत वंश का शासन था। बुद्धकाल में यहां का राजा चंड प्रद्योत था। बौद्ध धर्म से प्रभावित इस महाजनपद को शिशुनगा ने मगध में मिला लिया था। मगध सामाज्य हर्यंक वंश (545 ई.पू. से 412 ई.पू.) इस वंश का सबसे अधिक प्रतापी राजा बिम्बिसार (545 ई.पू. से 493 ई.पू.) था जिसने गिरिव्रज का अपनी राजधानी बनाया। बिम्बिसार का उपनाम ‘श्रेणिक‘ था। हर्यक वंश कुल के लोग नागवंश की एक उपशाखा थे। इसने कोशल एवं वैशाली के राज परिवारों से वैवाहिक सम्बन्ध कायम किया। उसकी पहली पत्नी कोशल देवी प्रसेनजीत की बहन थी, जिससे उसे काशी नगर की राजस्व प्राप्त हुआ। उसकी दूसरी पत्नी चेल्लना वैशाली के लिच्छवी प्रमुख चेटक की बहन थी। इसके पश्चात् उसने मद्र देश (कुरू के समीप) की राजकुमारी क्षेमा के साथ अपना विवाह कर मद्रों का सहयोग और समर्थन प्राप्त किया। महाबग्गा में उसकी 500 पत्नियों का उल्लेख है। कुशल प्रशासन की आवश्यकता पर सर्वप्रथम बिम्बिसार ने ही जोर दिया। बौद्ध साहित्य में उसके कुछ पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं। इनमें से प्रमुख निम्नलिखित है- सब्बन्धक महामात्त (सर्वमहापात्र)- यह सामान्य प्रशासन का प्रमुख पदाधिकारी होता था। बोहारिक महामात्त (व्यवहारिक महामात्र)- यह प्रधान न्यायिक अधिकारी अथवा न्यायधीश होता था। सेनानायक महामात्त- यह सेना का प्रधान अधिकारी होता था। बिम्बिसार स्वयं शासन की समस्याओं में रूचि लेता था। महाबग्ग जातक में कहा गया है कि उसकी राजसभा में 80 हजार ग्रामों के प्रतिनिधि भाग लेते थे। वह जैन तथा ब्राह्राण धर्म के प्रति भी सहिष्णु था। जैन ग्रन्थ उसे अपने मत का पोषक मानते हैं। दीर्धनिकाय से पता चलता है कि बिम्बिसार ने चम्पा के प्रसिद्ध ब्राह्राण सोनदण्ड को वहां की पूरी आमदनी दान में दें दिया था। पुराणों के अनुसार बिम्बिसार ने करीब 28 वर्ष तक शासन किया। बिम्बिसार महात्मा बुद्ध का मित्र एवं संरक्षक था। विनयपिटक से ज्ञात होता है कि बुद्ध से मिलने के बाद उसने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया और बेलुवन नामक उद्यान बुद्ध तथा संघ के निमित्त प्रदान कर दिया। अन्तिम समय में अजातशत्रु ने अपने पिता बिम्बिसार की हत्या कर दी। बिम्बिसार ने राजगृह नामक नवीन नगर की स्थापना करवाई थी। बिम्बिसार का अवन्ति से अच्छा सम्बन्ध था क्योंकि जब अवन्ति के राजा प्रद्योत बीमार थे तो बिम्बिसार ने अपने वैद्य जीवक को भेजा था। बिम्बिसार ने अंग और चम्पा को जीता और वहां पर अपने पुत्र अजातशत्रु को उपराजा बनाया। अजातशत्रु (493 ई.पू.-461 ई.पू.)- अजातशत्रु जिसे कुणिक भी कहा जाता था, पिता की हत्या कर मगध के सिंहासन पर बैठा। यह एक दुर्धर्ष गंधार- यह क्षेत्र वर्तमान में पाकिस्तन के रावलपिण्डी एवं पेशावर में स्थित के क्षेत्र थे। इसकी राजधानी हाटक थी। कौटिल्य ने कम्बोज राज्य को ‘वार्ताशस्त्रोपजीवी‘ कहा है। कम्बोज राज्य श्रेष्ठ घोडों के लिए विख्यात था। साहित्यिक स्त्रोतों में यहां के दो प्रमुख राजाओं, चन्द्रवर्मन और सुदक्षिण, का उल्लेख हुआ है। प्रारम्भ में यहां राजतंत्र था बाद में गणतंत्र स्थापित हुआ। बौद्ध साहित्यमें उल्लिखित सोलह महाजनपदों में मगध, वत्स, कोशल एवं अवन्ति सर्वाधिक शक्तिशाली थे। बुद्धकालीन गणराज्य गणतंत्रात्मक राज्यों को गणसंघ कहा गया है। बौद्ध-ग्रंथों से ज्ञात होता है कि बुद्ध के समय ऐसे बहुत से गणतंत्र राज्य थे। उनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण गणराज्य निम्नलिखित है- 1. कशीनारा के मल्ल। 2. पावा के मल्ल। 3. कपिलवस्तु के शाक्य। 4. रामग्राम के कोलीय। 5. पिप्पलिवन के मोरिय। 6. अलकष्प के बुलि। 7. केसपुत्त के कलाम। 8. सुमसुमारगिरि के भग्ग। 9. वैशाली के लिच्छिवी। साम्राज्यवादी था। इसने एक लम्बे संघर्ष के बाद काशी एवं वज्जि संघ को जीत लिया। उसके मंत्री सुनीध और वस्सकार द्वारा वैशाली के लिच्छिवियों में फूट डालने के कारण ही अजातशत्रु को वज्जि संघ पर विजय प्राप्त हुई। इन लडाइयों में अजातशत्रु रथमूशलों एवं महाशिलाकण्टक नाम के हथियारों का प्रयोग किया था। लिच्छिवियों के आक्रमण से सुरक्षा के लिए इसने अपनी राजधानी राजगृह की सुरक्षा हेतु एक मजबूत दुर्ग का निर्माण करवाया। इसके शासन काल के आठवें वर्ष में बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ था। महापरिनिर्वाण सूत्र के अनुसार अजातशत्रु ने बुद्ध के कुछ अवशेषों को लेकर राजगृह में एक स्तूप निर्मित कराया। इसके शासनकाल में ही राजगृह में सप्तपर्णि गुफा में 483 ई.पू. में प्रथम बौद्ध संगीति का मगध के प्रमुख शासक एवं राजवंश शासक राजवंश बिम्बिसार हर्यक वंश अजातशत्रु उदायिन/उदय भद्र अनुरूद्ध मुन्ड नागदाशक शिशुनाग शिशुनाग वंश कालाशोक महापदम पण्डुक पण्डुमति भूतपाल राष्ट्रपाल नंद वंश गोविन्दशाक दास सिद्धक कैपर्त धन आयोजन हुआ, जहां पर बुद्ध की शिक्षाओं को सुत्तपिटक एवं विनयपिटक में विभाजित किया गया। अजातशत्रु ने पुराणों के अनुसार 28 वर्ष एवं बौद्ध साक्ष्य के आधार पर 32 वर्ष तक शासन किया। अन्तिम समय में अजातशत्रु की हत्या पुत्र उदायिन द्वारा कर दी गई। द्वितीय शती ई.पू. के भरहुत की वेष्टिनी (रेलिंग) पर बुद्ध के समीप अजातशत्रु की यात्रा उत्कीर्ण है। उदायिन (461 ई.पू.-445 ई.पू.)- परिशिष्टपर्वन, गार्गी-संहिता एवं वायु पुराण के अनुसार उदायिन ने गंगा एवं सोन नदी के संगम पर पाटलिपुत्र नाम राजधानी की स्थापना की। पुराणों के अनुसार उदायिन पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) पर 33 वर्ष एवं महावंश के अनुसार 16 वर्ष तक शासन किया। उदायिन जैन मतानुयायी था। जैन ग्रंथों में उसके माता का नाम पद्मावती मिलता है। बौद्ध ग्रंथों में उसे पितृहन्ता कहा गया है जबकि जैन ग्रंथ परिशिष्टपर्वन के अनुसार वह पितृभक्त था। बौद्ध साहित्य के अनुसार उदायिन के बाद अनुरूद्ध, मुण्ड और नागदशक ने मिलकर करीब 412 ई.पू. तक शासन किया। तीनों को पितृहन्ता कहा गया है। इस वंश के अंतिम शासक नागदाशक को शिशुनाग नाम से कए योग्य अमात्य ने अपदस्थ कर दिया। अन्तिम राजा नागदशक कुछ प्रसिद्ध था पुराणों में उसे ‘दर्शक‘ कहा गया है। शिशुनाग वंश (412 ई.पू. से 345 ई.पू.) शिशुनाग वंश ने मगध साम्राज्य में अवन्ति एवं वत्सराज को जीत कर मिलाया, जिससे मगध साम्राज्य का विस्तार उत्तरी भारत में मालवा से बंगाल तक हो गया। इसने वैशाली को अपनी राजधानी बनाया। कालाशोक या काकवर्ण (394 ई.पू. -366 ई.पू.)- पुराण एवं दिव्यावदान में कालाशोक का नाम काकवर्ण मिलता है। इसने वैशाली के स्थान पर पुनः पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया। सिंहली महाकाव्यों के अनुसार बुद्ध के महापरिनिर्वाण के करीब सौ वर्ष बाद कालाशोक के शासन काल में दसवें वर्ष वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ। इसी संगीति (383 ई.पू.) मंे बौद्ध संघ स्थाविर एवं महासंधिक के रूप में बंट गया था। दीपवंश एवं महावंश के अनुसार कालाशोक ने करीब 28 वर्ष तक शासन किया। इसकी मृत्यु के उपरान्त इसके उत्तराधिकारियों ने करीब 22 वर्ष तक शासन किया। इस वंश का अंतिम राजा सम्भवतः नंदिवर्द्धन था। इसका उत्तराधिकारी महानन्दिन था। महापद्मनंद ने इसकी हत्या कर नंद वंश की स्थापना की। नन्द वंश (344 ई.पू. से 322 ई.पू.) पुराणों के अनुसार इस वंश का संस्थापक महापद्म नंद एक शुद्र शासक था। वह एक शूद्रदासी पुत्र था। जैन ग्रंथ परिशिष्टपर्वन के अनुसार वह नापित पिता और वैश्या माता का पुत्र था। आवश्यक सूत्र उसे नापितदास (नाई का दास) कहा गया है। महावंश टीका में नन्दों को अज्ञात कुल कहा गया है। पुराणों में इसके लिए एकच्छत्र पृथ्वी का राजा ‘अनुल्लांघित शासक‘ भार्गव (परशुराम) के समान, ‘सर्वक्षत्रान्तक‘ (क्षत्रियों का नाश करने वाला) एवं एकराट आदि उपाधियां दी गई है। ‘उग्रसेन‘ उसे ‘महाबोधिवंश‘ कहता है। अपनी विजयों के फलस्वरूप महापद्मनंद ने मगध को एक विशाल साम्रात्य में परिणित कर दिया। खारबेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से उसकी कलिंग विजय सूचित होती है। इसके अनुसार नन्दराजा जिनसेन की एक प्रतिमा उठा ले गया तथा उसने कलिंग में एक नहर का निर्माण कराया। महापद्म द्वारा उन्मूलित प्रमुख राजवंश 1. इक्ष्वाकु- इस वंश के लोग कोशल में शासन करते थे। महापद्मनन्द द्वारा कोशल राज्य की विजय की पुष्टि सोमदेव कृत कथासरितसागर से होती है। 2. पंचाल- इस राजवंश के लोग वर्तमान रूहेलखंड (बरेली-बदायूं, फरूखाबाद क्षेत्र) में शासन करते थे। 3. काकेय- इसका तात्पर्य काशी के वंशजों से है। 4. हैहय- इसकी राजधानी महिष्मती थी। 5. कलिंग- इस राजवंश के उडीसा में शासन करते थे। 6. अश्मक- इस वंश के लोग आन्ध्र प्रदेश के गोदावरी नदी के तट पर शासन करते थे। 7. कुरू- कुरू वंश का शासन मेरठ, दिल्ली तथा थानेश्वर के भूभाग पर था। 8. मैथिल- ये लोग मिथिला के निवासी थे। इसकी पहचान नेपाल की तराई में स्थित वर्ततान जनकपुर से की गई है। 9. शूरसेन- इसकी राजधानी मथुरा थी। शूरसेन राजा अवंतिपुत्र, महात्मा बुद्ध का अनुयायी था। 10. वीतिहोत्र- वीतीहोत्र राज्य अवन्ति तथा नर्मदा के बीच था। महापद्म नंद के आठ पुत्रों में अन्तिम पुत्र धनानन्द सिकन्दर का समकालीन था। ग्रीक लेखकों ने इसे अग्रमीज एवं जैन्द्रमीज कहा है। इसके शासन काल में ही सिकन्दर ने करीब 325 ई.पू. में पश्चिमी तट पर आक्रमण किया। घनानदं का विनाश चन्द्र गुप्त मौर्य ने किया। प्राचीन भारत पर विदेशी आक्रमण पारसीक व ईरानी आक्रमण भारत पर प्रथम विदेश आक्रमण ईरान के हखामनी वंश के राजाओं ने किया। इस वंश के संस्थापक कुरूष (लगभग 558-530 ई.पू.) की सेना भारत के समीप तक पहुंच गई थी। इस समय के यूनानी लेखक हेरोडोटस, एरियन एवं स्ट्राबो के अनुसार कुरूष ने जेड्रोसिया के रेगिस्तानी रास्ते से होता हुआ भारत पर आक्रमण करने का प्रयत्न किया था। परन्तु उसे असफलता का सामना करना पडा। नियार्कस तथा मेगस्थनीज के अनुसार साइरस ने कभी भी भारत का आक्रमण नहीं किया। प्लिनी एवं जैनोफोन के मतानुसार साइरस ने भारतीय क्षेत्र को अधिकृत किया। कुरूष के उत्तराधिकारी में प्रुख था- दारयवहु (522 ई.पू. - 480 ई.पू.), जिसे भारत पर आक्रमण करने में प्रथम सफलता मिली। दारयवहु के इस अभियान की सफलता का उल्लेख उसके बेहिस्तून (ठमीपेजनउ) पर्सिपोलिस (च्मतेमचवसपे) एवं नक्शे रूस्तम अभिलेखों में मिलता है। अभिलेखिक साक्ष्यों से दारा प् के समय भारत पर पारसीक आधिपत्य का अधिक पुष्ट प्रमाण प्राप्त होता है जबकि साइरस के भारतीय प्रदेशों के आधिपत्य के संदर्भ में विद्वानों के मत परस्पर विरोधी है। हेरोडोट्स के अनुसार भारतीय भू-भाग को जीतने के बाद यह क्षेत्र फारस साम्राज्य का बीसवां प्रांब बना। दारयवहु के पुत्र खषयार्ष जक्सींज (486 ई.पू.से 465 ई.पू.) ने जीते गए भारतीय प्रदेश पर अधिकार बनाये रखा। इसके उत्तराधिकारी दारयवहु प्प्प् के सिकन्दर द्वारा अखेला के युद्ध में 331 ई.पू. में क्षयार्ष (जरसिस) ने यूनानियों के विरूद्ध युद्ध में भारतीयों को अपनी फौज में शामिल किया था। पराजित कर दिए जाने पर भारत पर ईरानी अधिकार समाप्त हो गया। भारत का उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रान्त लगभग दो सौ वर्षो तक ईरानी व पारसीक अधिकार क्षेत्र में रहा, यहीं पर पहली बार भारतवासी किसी विदेशी संस्कृति के सम्पर्क में आए। इस सम्पर्क के उपरान्त ही भारत का अन्य सुदूर पश्चिम एशियाई एवं मध्य एशियाई देशों से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो सका एवं इस सम्पर्क के परिणामस्वरूप ही पहली बार भारतीय सेनाओं को यूरोपीय सेनाओं का सामना तथा भारतीय दार्शनिकों को यूरोपीय दार्शनिकों से सम्पर्क स्थापित करने का मौक़ा मिला। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि ईरानी व फारसी रजतमुद्रा सिग्लोई के आधार पर ही भारत में सर्वप्रथम मुद्रा प्रचलन का कार्य प्रारम्भ हुआ। पर इस मत का खण्डन करते हुए स्व. प्रोफेसर जी.आर.शर्मा ने कौशाम्बी की खुदाई के उपरान्त मिली ताम्र-मुद्राओं के सिग्लोई मुद्रा से पहले का माना है। मौर्य सम्राट अशोक के समय भारत के उत्तर-पश्चिम भाग में प्रयुक्त खरोष्ठी लिपि के स्त्रोत के रूप में लिपिकार (कातिब) भारत में लेखन का एक ख़ास रूप ले आए जो आगे चलकर खरोष्ठी नाम से मशहूर हुआ। यह लिपि अरबी की तरह दायें से बायें लिखी जाती थी। हैवेल, मार्शल, स्पूनर एवं डॉ. रोमिला थापर ने मौर्य कालीन भवनों पर 48 सामान्य अध्ययन प्रारम्भिक पारसीक सूसा तथा पर्सीपोलिस के प्रभाव की बात कही, पर वासुदेव शरण अग्रवाल ने मौर्यकालिन प्रासादों के पूर्णतः स्वदेशी होने की बात कही। रोमिला थापर के अनुसार अशोक के चट्टानों पर अभिलेख खुदवाने की प्रथा सम्भवतः एकमेनिड शासकों से ली थी। ईरानी व पारसीक आक्रमणों के परिणामस्वरूप भारतीय राजाओं में साम्राज्यवादी विचारधारा की भावना प्रबल हुई। पारसीक क्षत्रय प्रणाली का प्रयोग शक तथा कुषाण शासकों ने किया। पारसीक राजाओं ने महाराजाधिराज, परमदैवत, परमभागवत् जैसी उपाधियां ग्रहण की। मौर्य काल में दण्ड के रूप में घुटवाने की प्रथा, स्त्री शरीर रक्षकों की नियुक्ति, मंत्रियों के कक्ष में हर समय अग्नि के प्रज्वलित रहने आदि की व्यवस्था पारसीकों से ही ग्रहण की गई थी। यूनानी आक्रमण्-सिकन्दर ईरानी आक्रमण के बाद भारत को यूनानी आक्रमणकारी सिकन्दर का सामना करना पडा। सिकन्दर मेसीडोन के क्षत्रप फिलिप का पुत्र था। सिकन्दर के आक्रमण के समय पश्चिमोत्तर भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था, जिनमें कुछ गणतन्त्रात्मक एवं कुछ राजतन्त्रात्मक थे और जिनकों अलग-अलग जीतना सिकन्दर के लिए सरल था। भारत के विजय अभियान के तहत सिकन्दर ने 326 ई. पू. में बल्ख (बैक्ट्रिया) को जीतने के बाद काबुल होते हुए हिन्दुकुश पर्वत को पार किया। निकैया जो भारत का सबसे निकटवर्ती प्रदेश था, में तक्षशिला के राजा आम्भी के नेतृत्व में एक शिष्टमण्डल सिकन्दर से मिला और पूर्ण सहयोग का वचन दिया। भारत की धरती पर सिकन्दर का प्रबल प्रतिरोध पौरव राजा पोरस ने किया। हेडास्पीज (वितस्ता, आधुनिक झेलम) पोरस और सिकन्दर के बीच झेलम नदी किनारे सुप्रसिद्ध वितस्ता का युद्ध हुआ, जिसमें पोरस की हार हुई। पर सिकन्दर ने पोरस की बहादुरी से प्रभावित होकर उसके राज्य को वापस कर उससे दोस्ती कर ली। पोरस और सिकन्दर के बीच झेलम नदी किनारे सुप्रसिद्ध वितस्ता का युद्ध हुआ, जिसमें पोरस की हार हुई। पर सिकन्दर ने पोरस की बहादुरी से प्रभावित होकर उसके राज्य को वापस कर उससे दोस्ती कर ली। पोरस के बाद सिकन्दर ने ग्लौगनिकाय एवं कठ जातियों को हराया। विजय अभियान के अन्तर्गत जब सिकन्दर व्यास नदी के पश्चिमी किनारे पर पहुंचा तो उसके सैनिकों ने आगे बढने से मना कर दिया। इस घटना के पश्चात् सिकन्दर ने अपने विजय अभियान को रोक कर विजित भारतीय प्रदेशों को सेनापति फिलिप को सौप कर वापस लौट गया। 323 ई.पू. में बेबीलोन में सिकन्दर का निधन हो गया। यूनानी प्रभाव के अन्तर्गत भारतीयों ने यूनानियों से ‘क्षत्रप प्रणाली‘ और मुद्रा निर्माण की कला को ग्रहण किया। भारत में गन्धार शैली की कला जिसका विकास ई.पू. द्वितीय शताब्दी में हुई यूनानी प्रभाव का ही परिणाम है। सिकन्दर के आक्रमण के परिणामस्वरूप ही भारत का पश्चिमी देशों से जलीय एवं थलीय सम्पर्क स्थापित हो सका। सम्भवतः सिकन्दर ने अपने भारतीय विजित प्रान्तों के प्रशासन के लिए फिलिप को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। सिकन्दर भारत में करीब 19 महीने तक रहा। यूनानी आक्रमण का भारतीय राजनीति पर पडने वाला प्रभाव कुछ इस प्रकार था-सिकन्दर के आक्रमण के परिणामस्वरूप भारत के पश्चिमोत्तर प्रान्त में एकता के लक्षण दिखे। जो छोटे-बडे राज्य सिकन्दर के आक्रमण के समय आपस में संघर्षरत थे उनमें अब एक सूत्र में बंधने के लक्षण दिखे फलस्वरूप भारत में एकीकरण की प्रक्रिया को बल मिला। सिकन्दर के आक्रमण के उपरान्त ही भारत में साम्राज्यवादी प्रक्रिया का विकास हुआ जिसका ज्वलन्त उदाहरण मौर्य साम्राज्य था। सांस्कृतिक प्रभाव के अन्तर्गत आक्रमण के कारण ही पूर्व-पश्चिम के बीच सदियों खडी दीवार ढह सकी एवं उन्हें एक दूसरे के नजदीक आने का अवसर मिला। सिकन्दर के आक्रमण के फलस्वरूप पश्चिमोत्तर भारत कें अनेक यूनानी उपनिवेश जैसे-निकैया, बउकेफला, सिकन्दरिया,सोग्डियन-सिकन्दरिया, स्थापित हुए जिनसे भारत और यूनान एक दूसरे के धनिष्ठ संपर्क में आए। सिकन्दर के भारतीय अभियान के बाद ही भारत तथा पश्चिम के देशों के मध्य चार स्थल एवं चार जल मार्गों का पता चला जिनका कालान्तर में व्यापार पर अनुकूल असर पडा। यूनानियों की मुद्रा निर्माण कला का प्रभाव भारतीय मुद्रा निर्माण कला पर पडा जिसके परिणामस्वरूप भारतीय भी आकर्षक, लेखयुक्त मुद्रा ढालने लगे। भारत में यूनानी मुद्राओं की नकल पर उलूक शैली के सिक्के ढाले गये। कुषाण शासक कनिष्क के काल में विकसित गन्धार कला यूनानी प्रभाव का ही परिणाम है। भारत के पश्चिमोत्तर भागों में यूनानी भाषा के प्रचलित होने का प्रमाण अशोक के यूनानी भाषा के लेखों से मिलता है। मौर्य साम्राज्य (323 से 184 ई.पू.) मौर्य राजवंश के विषय में हमें विभिन्न स्त्रोतों से जानकारी मिलती है, जो निम्नलिखित है- 1. साहित्य- ब्राह्राण साहित्य में पुराण, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, विशाखदत्त कृत नाटक मुद्राराक्षस, कथासरित्सागर एवं व वृहत्कथामंजरी आदि से जानकारी मिलती है। बौद्ध ग्रंथों में दीपवंश, महावंश टीका, महाबोधि वंश, दिव्यावदान आदि महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है जो मौर्य साम्राज्य के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी देते हैं। दीपवंश और महावंश में श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रसार एवं अशोक की भूमिका पर प्रकाश पडता है। दीपवंश की रचना वाचिस्सक ने की है। दसवीं शताब्दी में महावंश पर ‘वंशत्थपकसिन‘ नामक टीका लिखी गई जो मौर्य इतिहास पर प्रकाश डालता है। जैन ग्रंथों में भद्रबाहु के कल्पसूत्र एवं हेमचन्द्र के परिशिष्टपर्वन से चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन की कुछ घटनाओं का उल्लेख मिलता है। विशाखदत्त कृत मुद्राराक्षस में चाणक्य के षड्यंत्र पर प्रकाश पडता है। ‘दुंढीराज‘ ने इस पर 9वीं शताब्दी में टीका लिखी है। सोमदेव का कथासरित्सागर और क्षेमेन्द्र का वृहत्कथामंजरी से भी मौर्य इतिहास पर प्रकाश पडता है। तमिल साहित्य मामूलनार और पुरनसूर की रचनाओं से भी मौर्य साम्राज्य के इतिहास पर प्रकाश पडता है। धर्म निरपेक्ष साहित्य में कौटिल्य का अर्थशास्त्र प्रमुख है जिसमें मौर्य साम्राज्य के इतिहास पर प्रकाश पडता है। इसके अतिरिक्त अर्थशास्त्र में मौर्य काल में स्थानों के साथ वहाँ उचित वस्तुओं का भी वर्णन हैं। जैसे-कलिंग और अंग जनपद हाथी के लिए प्रसिद्ध थे। काशी सूती वस्त्र के लिए प्रसिद्ध था, नेपाल कम्बल के लिए, कम्बोज घोडे के लिए और मगध बांट बनाने वाले पत्थर के लिए प्रसिद्ध थे। अर्थशास्त्र राजनीतिशास्त्र पर आधारित गं्रथ है। 2. विदेशी विवरण- स्टैªबों, कर्टिअस, डिओडोरस, प्लूटार्क, जस्टिन एवं अरिस्टोबुलस आदि के विवरणों से चन्द्रगुप्त के विषय में जानकारी मिलती है। स्टैªबों तथा जस्टिन ने चंद्रगुप्त मौर्य को ‘सैण्ड्रोकोट्स‘ एरियन तथा प्लूटार्क ने ‘एण्ड्रोट्स‘ तथा फिलार्कस ने ‘सैण्ड्रोप्टस‘ कहा है। सर्वप्रथम विलियम जोन्स ने ही सैण्ड्रोट्स की पहचान चन्द्रगुप्त मौर्य के रूप में की। स्ट्रेबो के अनुसार चन्द्रगुप्त ने पालिब्रोथस (पाटलिपुत्रक) उपनाम धारण किया था। कुछ राजदूत भी भारत आए और उन्होंनें मौर्य प्रशासन कें संदर्भ में लिखा है। जैसे-मिश्र के शासक टोलमी फिलीडेलफस ने डायोनीसियस को भेजा उसने तत्कालीन भारत पर प्रकाश डाला। सीरिया के शासक अण्टियालकीडस ने डायमेकस को अपना राजदूत बनाकर भेजा उसने बिन्दुसार के शासन के सम्बन्ध में लिखा है। चीनी यात्रियों, जैसे फाह्रान, हेनसांग एवं इत्सिंग के यात्रा विवरण से मौर्ययुगीन सभ्यता-संस्कृति की जानकारी एवं चन्द्रगुप्त के विषय में जानकारी मिलती है। पुरातत्व- इस काल के पुरातात्विक साक्ष्यों में अशोक के लेख अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। अशोक के अभिलेख राज्यादेश के रूप में जारी किए गए है। वहाँ पहला ऐसा शासक था जिसने अभिलेखों के माध्यम से जनता को सम्बोधित किया है। अशोक के अभिलेख 45 स्थानों पर पाए गए है। अशोक के अभिलेखों की भाषा प्रकृति है तथा लिपि ब्राह्री। लेकिन उत्तर पश्चिम के अभिलेखों में खरोष्टी और आरामाइक लिपि का प्रयोग हुआ है तथा अफगानिस्तान में इसकी भाषा आरामाइक और यूनानी है। इन अभिलेखों से अशोक के शासनकाल की समस्त जानकारी मिलती है। अशोक के अतिरिक्त शक महाक्षत्रप रूद्रदामन के जूनागढ लेख से भी हमें मौर्यकालिन इतिहास की जानकारी मिलती है। पुरातात्विक उत्खननों में पटना के निकट कुमराहार तथा बुलन्दीबाग से चन्द्रगुप्त मौर्य का भव्य राजप्रसाद के अवशेष मिले है। इसके अतिरिक्त कौशाम्बी, राजगृह, पाटलिपुत्र, हस्तिनापुर, तक्षशिला, आदि स्थानों से समकालीन इतिहास के साक्ष्य मिले है। उत्खननों द्वारा प्राप्ति उत्तरी चमकदार काले मृदभाण्ड (छठच्) का प्रयोग सम्पूर्ण मौर्य साम्राज्य में किया जाता था। मौर्य साम्राज्य की स्थापना चन्द्रगुप्त मौर्य (323-298 ई.पू.) चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरु विष्णुगुप्त अथवा चाणक्य की सहायता से नंद वंश के अन्तिम शासक धनानदं हो हराकर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। चन्द्रगुप्त मौर्य की जाति के विषय में एक मत नहीं है। ब्राह्राण साहित्य इन्हें ‘शुद्र‘ तथा बौद्ध एवं जैन गं्रथ इन्हें ‘क्षत्रिय‘ कुल में उत्पन्न बताते हैं। विशाखदत्त कृत ‘मुद्राराक्षस‘ में इनके लिए ‘वृषल‘ शब्द का प्रयोग किया गया है। ‘वृषल‘ शब्द का आशय निम्न कुल से है। रोमिला थापर ने चन्द्रगुप्त मौर्य को वैश्य जाति का माना। यूनानी स्त्रोत के अनुसार वह साधारण कुल में पैदा हुआ था। स्पूनर महोदय मौर्यो को पारसीक मानते हैं। कार्टिअस, डिओगेरस, प्लूटार्क तथा जस्टिन भी मौर्यो को निम्न जाति का मानते हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य की ‘चन्द्रगुप्त‘ संज्ञा का प्राचीनतम अभिलेख साक्ष्य रूददामन के जूनागढ अभिलेख से मिलता है। मगध के राजसिंहासन पर बैठकर चन्द्रगुप्त ने एक ऐसे साम्राज्य की नींव डाली जो सम्पूर्ण भारत में फैला था। चन्द्रगुप्त के विषय में जस्टिन का कथन है। कि उसने (चन्द्रगुप्त) छः लाख की सेना लेकर सम्पूर्ण भारत को रौंद डाला और उस पर अपना अधिकार कर लिया। चन्द्रगुप्त मौर्य ने उत्तरी-पश्चिमी भारत को सिकन्दर के उत्तराधिकारियों से मुक्त कर, नंदों का उन्मूलन कर, सेल्यूकस को पराजित कर संधि के लिए विवश कर जिस साम्राज्य की स्थापना की उसकी सीमायें उत्तर-पश्चिम में ईरान की सीमा से लेकर दक्षिण में वर्तमान उत्तरी कर्नाटक एवं पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम मंे सोपारा तथा सुराष्ट्र तक फैली हुई थी। महावंश की टीका मंे उसे सकल जम्बूद्वीप का शासक कहा गया है। रूद्रदामन ने जूनागढ अभिलेख से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त पुष्यगुप्त का वर्णन है जिसने सुदर्शन झील का निर्माण कराया था। महाराष्ट्र के थाने ज़िले में सोपारा में स्थित अशोक के शिलालेख से यह पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने सौराष्ट्र की सीमाओं से परे पश्चिमी भारत की अपनी विजय को कोंकण तक विस्तार किया था।