खरोष्ठी
- खरोष्ठी लिपि गान्धारी लिपि के नाम से जानी जाती है । जो गान्धारी और संस्कृत भाषा को लिपिबद्ध करने में प्रयोग में आती है । इसका प्रयोग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी तक प्रमुख रूप से एशिया में होता रहा है । कुषाण काल में इसका प्रयोग भारत में बहुतायत में हुआ । बौद्ध उल्लेखों में खरोष्ठी लिपि प्रारम्भ से भी प्रयोग में आयी । कहीं-कहीं सातवीं शताब्दी में भी इसका प्रयोग हुआ है।
सिकन्दर के भारत-आक्रमण (326 ई.पू.) के बाद पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा बल्ख पर यूनानियों का शासन स्थापित हुआ तो उन्होंने भी अपने सिक्कों पर खरोष्ठी लिपि के अक्षरों का उपयोग किया। यूनानियों से भी पहले ईरानी शासकों के चांदी के सिक्कों पर खरोष्ठी के अक्षरों के ठप्पे देखने को मिलते हैं।
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- एक प्राचीन भारतीय लिपि जो अरबी लिपि की तरह दांये से बांये को लिखी जाती थी। चौथी-तीसरी शताब्दी ई.पू. में भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांतों में इस लिपि का प्रचलन था। शेष भागों में ब्राह्मी लिपि का प्रचलन था जो बांये से दांये को लिखी जाती थी। इस लिपि के प्रसार के कारण खरोष्ठी लिपि लुप्त हो गई इस लिपि में लिखे हुए कुछ सिक्के और अशोक के दो शिलालेख प्राप्त हुए हैं।
- भारत में इस्लामी शासन के साथ जिस प्रकार अरबी-फ़ारसी लिपि के आधार पर दाईं ओर से बाईं ओर लिखी जाने वाली एक लिपि उर्दू के लिए रची गयी, उसी प्रकार भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश पर ईरानियों का अधिकार हो जाने पर वहां ई.पू. पांचवी शताब्दी में आरमेई लिपि के आधार पर दाहिनी ओर से बाईं ओर लिखी जाने वाली एक नई लिपि खरोष्ठी का निर्माण किया गया था।
- सम्राट अशोक (272-232 ई. पू.) के मानसेहरा (हज़ारा ज़िला, सरहदी सूबा, पाकिस्तान) तथा शाहबाज़गढ़ी (पेशावर ज़िला, पंजाब, पाकिस्तान) के शिलालेख इस खरोष्ठी में ही हैं। इन दो को छोड़कर अशोक के अन्य सारे लेख ब्राह्मी लिपि में हैं।
- सिकन्दर के भारत-आक्रमण (326 ई.पू.) के बाद पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा बल्ख पर यूनानियों का शासन स्थापित हुआ तो उन्होंने भी अपने सिक्कों पर खरोष्ठी लिपि के अक्षरों का उपयोग किया। यूनानियों से भी पहले ईरानी शासकों के चांदी के सिक्कों पर खरोष्ठी के अक्षरों के ठप्पे देखने को मिलते हैं।
- यूनानियों के बाद शक, क्षत्रप, पह्लव, कुषाण तथा औदुंबर राजाओं ने भी इस लिपि का प्रयोग किया।
- खरोष्ठी के अधिकतर लेख प्राचीन गंधार देश में ही मिले हैं।
- तक्षशिला के धर्मराजिका स्तूप की खुदाई से सन् 78 का एक खरोष्ठी का लेख मिला है, जो रजतपत्र पर अंकित है। वहीं से ताम्रपत्र पर अंकित सन् 76 का एक और लेख प्राप्त हुआ है। प्राचीन पुष्कलावती (चारसद्दा, सरहदी सूबा, पाकिस्तान) तथा अफ़गानिस्तान के वर्डक और ह्ड्डा नामक स्थानों से भी खरोष्ठी के लेख मिले हैं। मथुरा से भी महाक्षत्रप राजुल की रानी का सिंहाकृति पर ख़ुदा हुआ खरोष्ठी लेख उपलब्ध हुआ है।
- पटना से भी खरोष्ठी एक लेख मिला है, परन्तु वह पश्चिमोत्तर के किसी यात्री द्वारा लाया गया होगा। इसके अलावा सिद्दापुर (ज़िला चित्रदुर्ग, कर्नाटक) के अशोक के ब्राह्मी के लेख की अंतिम पंक्ति में 'चपदेन लिखिते' शब्दों के बाद 'लिपिकरेण' शब्द के पांच अक्षर खरोष्ठी लिपि में खुदे हुए हैं, जिससे ज्ञात होता है कि इस लेख का लेखक पश्चिमोत्तर भारत का निवासी रहा होगा। लेकिन इन उदाहरणों का अर्थ यह नहीं है कि दक्षिण में सिद्दापुर और पूर्व में पटना तक कभी खरोष्ठी लिपि का प्रचार था। वस्तुत: गंधार देश में ही इस लिपि ने जन्म लिया था और वहीं पर इसका सर्वाधिक प्रयोग हुआ।
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- लेकिन अब हमें चीनी तुर्किस्तान को भी खरोष्ठी लिपि का क्षेत्र मानना पड़ेगा।
- 1892 में एक फ्रांसीसी यात्री द्यूत्र्य द रॅन्स ने खोतान से खरोष्ठी लिपि में भोजपत्र में लिखी हुई 'धम्मपद' की एक प्रति प्राप्त की थी। यह भोजपत्र पर लिखी हुई सबसे प्राचीन उपलब्ध पुस्तक है।
- प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता ऑरेल स्टाइन (1862-1943) ने मध्य एशिया के मासी-मजार, नीया, लोन-लन् आदि स्थानों से काष्टपट्टिकाओं पर लिखे हुए सैंकड़ों खरोष्ठी लेख प्राप्त किए हैं। इन काष्टपत्तिकाओं की लंबाई 7.5 से 15 इंच और चौड़ाई 1.5 से 2.5 इंच है। कुछ चौकोर पट्टिकाएं भी मिली हैं। ऐसी पट्टिकाओं को जब पत्र रूप में भेजा जाता था, तो इन्हें दूसरी पट्टिकाओं से ढककर उन पर मोहर लगा दी जाती थी चर्मपट्ट पर अंकित अंकित लेख भी नीया से मिले हैं।
- खरोष्ठी लिपि के ये सारे लेख प्राकृत में हैं, जो धम्मपद की प्राकृत से काफ़ी मिलती जुलती है।
- चीनी तुर्किस्तान से ही एक पट्टिका पर खरोष्ठी लिपि में संस्कृत के चार श्लोक प्राप्त हुए हैं। संस्कृत के लिए खरोष्ठी लिपि के प्रयोग का यह एक मात्र उपलब्ध उदाहरण है।
- लोन-लन् से काग़ज़ पर खरोष्ठी के लेख प्राप्त हुए हैं। हमें चीनी तुर्किस्तान को भी खरोष्ठी लिपि का क्षेत्र मानना पड़ेगा।
- सामान्यत: ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से ईसा की चौथी शताब्दी तक खरोष्ठी लिपि का व्यवहार होता रहा।
- खरोष्ठी के प्राचीनतम अभिलेख अशोक के शाहबाजगढ़ी तथा मानसेहरा के शिलालेख हैं।
- भारत में मिले खरोष्ठी के सबसे बाद के अभिलेख कुषाण शासकों (ईसा की तीसरी और चौथी शताब्दी) के हैं।
- चीनी तुर्किस्तान के लेख भी तीसरी-चौथी शताब्दी के हैं। संभव है कि इसके बाद भी वहां के निवासियों ने कुछ समय तक इस लिपि का उपयोग जारी रखा हो; परंतु भारत में पांचवीं शताब्दी में जब हूणों का आगमन होता है तो हम खरोष्ठी का कहीं कोई अस्तित्व नहीं देखते। जब विदेशी शासक भारत की संस्कृति में घुल-मिल गए तो उन्होंने खरोष्ठी लिपि को त्यागकर यहाँ की अधिक प्रचलित ब्राह्मी लिपि को अपना लिया।
इस लिपि का नाम खरोष्ठी क्यों पड़ा
इसके बारे में विद्वानों में काफ़ी मतभेद है। कुछ विद्वानों ने इसे 'इंडो-बैक्ट्रियन' , 'बैक्ट्रियन' 'बैक्ट्रो-पालि', 'क़ाबुली' , 'गांधारी' आदि नाम भी दिए हैं। लेकिन अब इसके लिए 'खरोष्ठी' नाम ही रूढ़ हो गया है। किंतु इस नाम की उत्पत्ति के बारे में भी नाना प्रकार के मत प्रचलित हैं।
- प्रसिद्ध बौद्ध ग्रंथ 'ललितविस्तर' (ईसा की दूसरी शताब्दी में रचित) के दसवें अध्याय में 64 लिपियों के नाम गिनाए गए हैं, जिनमें पहला नाम 'ब्राह्मी' का और दूसरा 'खरोष्ठी' का है। इन 64 नामों में अधिकतर नाम कल्पित यानी अवास्तविक ही जान पड़ते हैं।
- 668 ई. में लिखे गए एक चीनी बौद्ध विश्वकोश 'फा-वान-शु-लिन्' में भी ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों के उल्लेख मिलते हैं। उसमें खरोष्ठी लिपि के बारे में लिखा हैं, किअ-लु (किअ-लु-से-आ>क-लु-से-टो>ख-रो-स-ट> खरोष्ठ) की लिपि दाईं ओर से बाईं ओर को पढ़ी जाती है। ....ब्रह्मा और खरोष्ठ भारतवर्ष में हुए। ब्रह्मा और खरोष्ठ ने अपनी लिपियां देवलोक से पाईं।'
- ललितविस्तर और चीनी विश्वकोश के इन्हीं उल्लेखों के आधार पर प्रसिद्ध पुरालिपिविद ब्यूह्लर ने इस लिपि को 'खरोष्ठी' का नाम दिया था।
- खरोष्ठ का अर्थ 'गध् के ओठ वाला' होता है!
- एक मत के अनुसार गधे की खाल पर लिखी जाने से इसे ईरानी में खरपोस्त कहते थे और उसी का अपभ्रंश रूप खरोष्ठ है।
- एक अन्य मत यह है कि आरमेई भाषा में 'खरोष्ठ' शब्द था, और उसी के भ्रामक साम्य के आधार पर संस्कृत का 'खरोष्ठ' शब्द बना। लेकिन ये सारे मत अटकलें ही हैं; इनमें से किसी को भी ठोस प्रमाणों से सिद्ध नहीं किया जा सकता।
- खरोष्ठी लिपि, सेमेटिक लिपियों की तरह, दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थी। इसके कुछ अक्षर ही नहीं, बल्कि इनके ध्वनिमान भी आरमेई लिपि से मिलते हैं। इसलिए अनेक विद्वान् ऐसा मानते हैं कि खरोष्ठी का निर्माण आरमेई लिपि के आधार पर हुआ है।
- ईरान के हखामनी शासन-काल में संपूर्ण पश्चिम एशिया में आरमेई भाषा तथा लिपि का प्रचार था।
- तक्षशिला से भी आरमेई लिपि में लिखा हुआ एक शिलालेख मिला है।
- हखामनी शासकों का गंधारदेश पर भी शासन था। आरमेई लिपि सेमेटिक भाषाओं को लिखने के लिए तो ठीक थी, परंतु भारोपीय परिवार की प्राकृत भाषा को इस लिपि में लिखना संभव नहीं था। इसलिए, ऐसा जान पड़ता है कि ई.पू. पांचवीं शताब्दी मं गंधार देश में, आरमेई लिपि का अनुकरण करते हुए, इस नई लिपि को जन्म दिया गया। आरमेई लिपि में केवल 22 अक्षर थे और उसमें स्वरों की अपूर्णता (जैसा कि सभी सेमेटिक लिपियों में देखने को मिलता है) थी और उसमें ह्रस्व-दीर्घ का कोई भेद नहीं था। इसलिए प्राकृत (पालि) के लिए नई लिपि का निर्माण करते समय कुछ नए स्वर तथा उनकी मात्राओं के लिए संकेत गढ़ने पड़े।
- खरोष्ठी लिपि की वर्णमाला को देखने से स्पष्ट पता चलता है कि उसके निर्माण में ब्राह्मी लिपि का प्रभाव काफ़ी रहा है। इतना होने पर भी ब्राह्मी की तरह खरोष्ठी के स्वरों तथा उनकी मात्राओं में ह्रस्व-दीर्घ का भेद नहीं है। इसमें संयुक्ताक्षर भी बहुत कम मिलते हैं। कुछ संयुक्ताक्षरों का पढ़ना तो अब भी संदेह से मुक्त नहीं है। वस्तुत: जिस प्रकार हमारे देश में आज भी एक कामचलाऊ 'महाजनी' लिपि' चलती है, उसी की तरह इस खरोष्ठी का भी जन्म मामूली पत्र-व्यवहार, बही-खातों के हिसाब आदि के लिए ही हुआ था।
- खरोष्ठी के लेख शिलाओं, धातु-फलकों, काष्ठ-पट्टिकाओं, सिक्कों, भूर्जपत्रों तथा काग़ज़ पर मिलते हैं और इन सभी लेखन-सामग्रियों पर इस लिपि का सामान्यत: एक-सा ही स्वरूप देखने को मिलता है। यों यह लिपि स्याही और कलम से लिखने के लिए अधिक उपयुक्त थी।
- पिछली शताब्दी के पूर्वार्ध में कर्नल जेम्स टॉड, जनरल वेंटुरा, अलेक्जैंडर बर्न्स आदि पुराविदों ने बाख्त्री, यूनानी, शक, पह्लव तथा कुषाण शासकों के ढेरों सिक्कों का संग्रह किया था। इन सिक्कों में से कई पर एक तरफ यूनानी लिपि के अक्षर हैं और दूसरी तरफ खरोष्ठी लिपि के। आरंभ में खरोष्ठी लिपि के बारे में काफ़ी अटकलें लगाई गईं। इन सिक्कों के यूनानी अक्षरों को आसानी से पढ़ा जा सकता था।
- अफ़ग़ानिस्तान में पुरातत्त्वान्वेषण में जुटे हुए मेसन महाशय ने सबसे पहले सिक्कों के एक तरफ के यूनानी नामों की तुलना दूसरी ओर के खरोष्ठी अक्षरों से करके दूसरी तरफ की इबारतों का अध्ययन किया, तो उन्हें 'मिनांडर' 'एपोलोडोटस', 'हर्मिअस' , 'बेसिलियस' (राजा) और 'सोटेरस' (रक्षक) शब्दों के खरोष्ठी अक्षरों को पहचानने में सफलता मिली। मेसन ने अपनी इस खोज की जानकारी जेम्स प्रिन्सेप को दी।
- प्रिन्सेप (1799-1840) उस समय ब्राह्मी और खरोष्ठी के अन्वेषण में जुटे हुए थे। उन्होंने ब्राह्मी लिपि का तो उद्घाटन किया ही, उन्हें खरोष्ठी लिपि का भी उद्घाटन करने का श्रेय प्राप्त है।
- मेसन के अक्षरमानों के आधार पर प्रिन्सेप को आरंभ में 12 राजाओं के नामों तथा 6 पदवियों को पढ़ने में सफलता मिली। इसके साथ यह भी पता चला कि यह लिपि दाईं ओर से बाईं ओर को लिखी जाती थी। लेकिन प्रिन्सेप आरंभ में इस लिपि की भाषा को ग़लती से पहलवी समझ बैठे थे।
- 1838 में पहली बार दो बाख्त्री राजाओं के सिक्कों पर प्राकृत (पालि) में लेख देखने को मिले, तो यह सिद्ध हो गया कि खरोष्ठी लेखों की भाषा पालि है। इसके बाद तो खरोष्ठी लिपि के अक्षरों को पहचानना और भी अधिक आसान हो गया।
- स्वयं प्रिन्सेप ने इस लिपि के 17 अक्षर पहचाने थे।
- बाद में जनरल कनिंघम (1814-93) ने खरोष्ठी की संपूर्ण वर्णमाला तथा संयुक्ताक्षरों को पहचानने का काम पूरा कर दिया।
1. देवनं प्रियो प्रियशि रज सव्रत्र इछति सव्र अर्थात्, |