"मुग़लकालीन शिक्षा एवं साहित्य": अवतरणों में अंतर
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शाहजहाँ के समय में सुन्दर कविराय ने ‘सुन्दर श्रृंगार’, ‘सेनापति ने ‘कवित्त रत्नाकर’, कवीन्द्र आचार्य ने ‘कवीन्द्र कल्पतरु’ की रचना की। इस समय के कुछ अन्य महान कवियों का सम्बन्ध क्षेत्रीय राजाओं से था, जैसे- बिहारी महाराजा जयसिंह से, [[केशवदास]] ओरछा से सम्बन्धित थे। केशवदास ने ‘कविप्रिया’, ‘रसिकप्रिया’ एवं ‘अलंकार मंजरी’ जैसी महत्वपूर्ण रचनायें की। अकबर के दरबार में प्रसिद्ध ग्रंथकर्ता [[कश्मीर]] के मुहम्मद हुसैन को ‘जरी कलम’ की उपाधि दी गई। [[बंगाल]] के प्रसिद्ध कवि मुकुन्दराय चक्रवर्ती को प्रोफ़ेसर कॉवेल ने ‘बंगाल का क्रैब’ कहा है। | शाहजहाँ के समय में सुन्दर कविराय ने ‘सुन्दर श्रृंगार’, ‘सेनापति ने ‘कवित्त रत्नाकर’, कवीन्द्र आचार्य ने ‘कवीन्द्र कल्पतरु’ की रचना की। इस समय के कुछ अन्य महान कवियों का सम्बन्ध क्षेत्रीय राजाओं से था, जैसे- बिहारी महाराजा जयसिंह से, [[केशवदास]] ओरछा से सम्बन्धित थे। केशवदास ने ‘कविप्रिया’, ‘रसिकप्रिया’ एवं ‘अलंकार मंजरी’ जैसी महत्वपूर्ण रचनायें की। अकबर के दरबार में प्रसिद्ध ग्रंथकर्ता [[कश्मीर]] के मुहम्मद हुसैन को ‘जरी कलम’ की उपाधि दी गई। [[बंगाल]] के प्रसिद्ध कवि मुकुन्दराय चक्रवर्ती को प्रोफ़ेसर कॉवेल ने ‘बंगाल का क्रैब’ कहा है। | ||
==उर्दू साहित्य== | |||
[[उर्दू]] का जन्म [[दिल्ली सल्तनत]] काल में हुआ। इस भाषा ने उत्तर मुग़लकालीन बादशाहों के समय में भाषा के रूप में महत्व प्राप्त किया। प्रारम्भ में उर्दू को ‘जबान-ए-हिन्दवी’ कहा गया। [[अमीर ख़ुसरो]] प्रथम विद्वान कवि था, जिसने उर्दू भाषा को अपनी कविता का माध्यम बनाया। [[मुग़ल]] बादशाहों में मुहम्मद शाह (1719-1748 ई.) प्रथम बादशाह था, जिसने उर्दू भाषा के विकास के लिए दक्षिण के कवि शम्सुद्दीन वली को अपने दरबार में बुलाकर सम्मानित किया। वली दकनी को उर्दू पद्य साहितय का जन्मदाता कहा जाता है। कालान्तर में उर्दू को ‘रेख्ता’ भी कहा गया। रेख्ता में गेसूदराज द्वारा लिखित पुस्तक ‘मिरातुल आशरीन’ सर्वाधिक प्राचीन है। | |||
==दारा शिकोह की रचनायें== | |||
*[[दारा शिकोह]] ने स्वयं अपनी देखरेख में [[संस्कृत]] ग्रन्थ श्रीमद्भावदगीता और योग वशिष्ठ का फारसी में अनुवाद कराया। | |||
*दारा का सबसे महत्वपूर्ण कृत्य वेदों को संकलन है। | |||
*दारा शिकोह ने मौलिक पुस्तक मज्म-उल-बहरीन (दो समुद्रो का संगम) की रचना की जिसमें हिन्दू और इस्लाम धर्म को एक ही ईश्वर की प्राप्ति के दो मार्ग बताया है। | |||
*दारा ने स्वयं तथा काशी के कुछ संस्कृत पंडितों की सहायता से बावन उपनिषदों का ‘सिर-ए-अकबर’ नाम से फारसी में अनुवाद कराया। | |||
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07:29, 15 अप्रैल 2011 का अवतरण
मुग़लकालीन शासकों ने अपने शासनकाल में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत कार्य किया। इन शासकों ने अपने राज्य में शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया था। इस समय की मस्जिदों में ‘मकतब’ की व्यवस्था होती थी, जिसमें लड़के-लड़कियाँ प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करते थे। बाबर के समय में एक विभाग ‘शुहरते आम’ होता था, जो स्कूल-कॉलेजों का निर्माण करवाता था।
मुग़ल शासकों का योगदान
हुमायूँ ज्योतिष एवं भूगोल का ज्ञाता था। उसने दिल्ली के पुराने क़िले के ‘शेर मण्डल’ नाम के हाल में अपने व्यक्तिगत पुस्तकालय की स्थापना की थी। हुमायूँ को पुस्तकों में बड़ी रुचि थी। वह सदैव अपने साथ एक चुना हुआ पुस्तकालय लेकर चलता था। हुमायूँ द्वारा ईरान से भारत वापस आने के उपरांत भारी संख्या में ईरानी प्रवासियों का भारत में आगमन हुआ, जिन्हें भारत में उपर्युक्त साहित्यिक वातावरण प्राप्त हुआ, जो उन्हें ईरान में प्राप्त नहीं था। उन्होंने भारतीय साहित्यिक मनीषियों के साथ एक पृथक भारतीय शैली 'सबक-ए-हिन्दी' का विकास किया। श्लेष, तिथिबन्ध व्यंग, मूल उपमाएँ तथा प्रत्यय आदि इस शैली की प्रमुख विशेषताएँ थीं।
शिक्षा के क्षेत्र में अकबर द्वारा किया गया प्रयास निःसंदेह स्मरणीय है। बदायूंनी के अनुसार अकबर ने गुजरात को जीतने के बाद अपने पुस्तकालय को अनेक दुर्लभ पुस्तकों से भर दिया। उसने एक अनुवाद विभाग की स्थापना की। अकबर के पुस्तकालय की प्रशंसा में स्मिथ ने कहा कि, 'अकबर का पुस्तकालय उस काल व उसके पूर्व के काल का अद्वितीय पुस्तकालय था'। इसके अतिरिक्त अकबर ने फ़तेहपुर सीकरी, आगरा एवं अन्य अनेक स्थानों पर अनेक 'ख़ानक़ाह' (आश्रम) एवं 'मदरसों' (पाठशाला) की स्थापना की। अकबर की उपमाता माहम अनगा ने दिल्ली में 'खैरूल मनाजित' नाम से एक मदरसा स्थापित किया था। फ़तेहपुर सीकरी मुस्लिम शिक्षा का मुख्य केन्द्र था। अकबर के समय फ़तेहपुरी सीकरी में अब्दुल कादिर शेख़, फ़ैज़ी, निज़ामुद्दीन जैसे विद्वान रहते थे।
अकबर का शासन काल भारत में फ़ारसी साहित्य के ‘पुनर्जागरण’ का काल था। ‘आइना-ए-अकबरी’ में अकबर के राजदरबार के 59 महान फ़ारसी कवियों के नाम मिलते हैं। अकबर का राजकवि 'अबुल फ़ैज़ी', अमीर ख़ुसरो से लेकर मुग़ल युग तक के भारतीय फ़ारसी साहित्य का महानतम कवि था। 'अब्बास ख़ान सरवानी' ने अकबर के आदेश पर 'तोहफ़ा-ए-अकबरशाही' की रचना की थी। इस पुस्तक में शेरशाह सूरी के कार्यकलापों को उजागर करने की भरपूर कोशिश की गई है।
जहाँगीर को फ़ारसी एवं तुर्की भाषा का अच्छा ज्ञान था। उसने अपने काल में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन की घोषणा की, जिसके अनुसार यदि कोई सम्पन्न व्यक्ति बिना किसी उत्तराधिकारी के मर जाता है तो, उसकी संपत्ति राज्य लेकर उससे मदरसे और मठों का निर्माण व मरम्मत करवायेगा। शाहजहाँ ने दिल्ली में एक कॉलेज का निर्माण एवं ‘दार्रुल बका’ नामक कॉलेज की मरम्मत करायी। मुग़ल राजपरिवार का सर्वाधिक विद्वान दारा शिकोह था, उसने श्रीमद्भागवदगीता, योगवशिष्ठ, उपनिषद एवं रामायण का अनुवाद फ़ारसी में करवाया था। उसने ‘सीर-ए-अकबर’ (महान रहस्य) नाम से 52 उपनिषदों का अनुवाद कराया था।
मुग़ल काल में राजकुमारियाँ, रानियाँ एवं उच्च घरानों की लड़कियाँ भी शिक्षा प्राप्त करती थीं, जिनमें प्रसिद्ध थीं- 'गुलबदन बेगम' (बाबर की पुत्री), फ़ारसी पद्य लेखिका 'सलीमा सुल्तान' (हुमायूँ की भतीजी), नूरजहाँ, मुमताज महल, जहाँआरा, जेबुन्निसा, दुर्गावती, चाँद बीबी आदि। अकबर की माँ ने पुराने क़िले में ‘खेर-दल-मंज़िल’ नामक मदरसे की स्थापना करवायी थी।
मुग़ल काल में शिक्षा के प्रमुख केन्द्र
मुग़ल काल में शिक्षा के महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में आगरा, फ़तेहपुर सीकरी, दिल्ली, गुजरात, लाहौर, सियालकोट, जौनपुर, अजमेर आदि विशेष रूप से प्रसिद्ध थे। मुग़ल काल के शासकों ने ‘फ़ारसी’ को अपनी राजभाषा बनाया था। इस काल का फ़ारसी साहित्य काफ़ी समृद्ध था। फ़ारसी के अतिरिक्त हिन्दी, संस्कृत, उर्दू का भी मुग़ल काल में विकास हुआ।
फ़ारसी साहित्य
मुग़लकालीन फ़ारसी साहित्य की प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं-
बाबरनामा (तुजुके बाबरी)
बाबर द्वारा रचित तुर्की भाषा की यह कृति, जिसका अकबर ने 1583 ई. में अर्ब्दुरहमान ख़ानख़ाना द्वारा अनुवाद करवाया था, भारत की 1504 से 1529 ई. तक की राजनैतिक एवं प्राकृतिक स्थिति पर वर्णनात्मक प्रकाश डालती है।
तारीख़-ए-रशीदी
हुमायूँ की शाही फ़ौज में कमांडर के पद पर नियुक्त मिर्ज़ा हैदर दोगलत द्वारा रचित यह कृति मध्य एशिया में तुर्कों के इतिहास तथा हुमायूँ के शासन काल पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालती है।
क़ानूने हुमायूँनी
1534 ई. में ख्वान्दमीर द्वारा रचित इस कृति में हुमायूँ की चापलूसी करते हुए उसे 'सिकन्दर-ए-आजम', ख़ुदा का साया आदि उपाधियाँ देने का वर्णन है।
हुमायूँनामा
रचना | रचनाकार |
---|---|
रामचरितमानस | तुलसीदास |
विनयपत्रिका | तुलसीदास |
सूरसागर | सूरदास |
प्रेमवाटिका | रसखान |
सुंदर श्रृगार | सुंदर कविराय |
कविता रत्नाकर | सेनापति |
कविन्द्र कल्पतरू | कविन्द्र आचार्य |
कविप्रिया | केशवदास |
अलंकार मंजरी | केशवदास |
रामचंद्रिका | केशव दास |
दो भागों में विभाजित यह पुस्तक ‘गुलबदन बेगम’ द्वारा लिखी गयी, जिसके एक भाग में बाबर का इतिहास तथा दूसरे में हुमायूँ के इतिहास का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त इस पुस्तक से तत्कालीन सामाजिक स्थिति पर भी प्रकाश पड़ता है।
तजकिरातुल वाकयात
1536-1537 ई. में 'जौहर आपताबची' द्वारा रचित इस पुस्तक में हुमायूँ के जीवन के उतार-चढ़ाव का उल्लेख है।
वाकयात-ए-मुश्ताकी
लोदी एवं सूर काल के विषय में जानकारी देने वाली यह कृति 'रिजकुल्लाह मुश्ताकी' द्वारा रचित है।
तोहफ़ा-ए-अकबरशाही
अकबर को समर्पित इस पुस्तक को 'अब्बास ख़ाँ सरवानी' ने अकबर के निर्देश पर लिखा था। इस पुस्तक से शेरशाह मे विषय मे जानकारी मिलती है।
तारीख़-ए-शाही
बहलोल लोदी के काल से प्रारम्भ होकर एवं हेमू की मृत्यु के समय समाप्त होने वाली यह पुस्तक 'अहमद यादगार' द्वारा रचित है।
तजकिरा-ए-हुमायूँ व अकबर
अकबर द्वारा अपने दरबारियों को हूमायूँ के विषय में जो कुछ जानते हैं, लिखने का आदेश देने पर अकबर के रसोई प्रबंधक 'बायर्जाद बयात' ने यह पुस्तक लिखी थी।
नफाइस-उल-मासिर
अकबर के समय यह प्रथम ऐतिहासिक पुस्तक 'मीर अलाउद्दौला कजवीनी' द्वारा रचित है, जिससे 1565 से 1575 ई. तक की स्थिति का पता चलता है।
तारीख़-ए-अकबरी
9 भागों में विभाजित यह पुस्तक 'निज़ामुद्दीन अहमद' द्वारा रचित है। इसके प्रथम दो भाग मुग़लों के इतिहास का उल्लेख करते हैं तथा शेष भाग दक्कन, मालवा, गुजरात, बंगाल, जौनपुर, कश्मीर, सिंध एवं मुल्तान की स्थिति का आभास कराते हैं।
इंशा
अबुल फ़ज़ल की रचना ‘इंशा’ (अकबर द्वारा विदेशी शासकों को भेजे गये शाही पत्रों का संकलन) ऐतिहासिक एवं साहित्यिक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।
मुन्तखब-उत-तवारीख़
1590 ई. में प्रारम्भ अब्दुल कादिर बदायूंनी द्वारा रचित यह पुस्तक हिन्दुस्तान के आम इतिहास के रूप में जानी जाती है, जो तीन भागों में विभाजित है। प्रथम भाग जिसे ‘तबकाते-अकबरी’ का संक्षिप्त रूप भी कहा जाता है, सुबुक्तगीन से हुमायूँ की मृत्यु तक की स्थिति का उल्लेख करता है तथा तीसरा भाग सूफ़ियों, शायरों एवं विद्वानों की जीवनियों पर प्रकाश डालता है। पुस्तक का रचयिता बदायूंनी, अकबर की उदार धार्मिक नीतियों का कट्टर विरोधी होने के कारण अकबर द्वारा लागू की गई उसकी हर नीति को इस्लाम धर्म के विरुद्ध साज़िश समझता था।
तुजुक-ए-जहाँगारी
जहाँगीर ने इस पुस्तक को अपने शासन काल के 16वें वर्ष तक लिखा। उसके बाद के 19 वर्षों का इतिहास 'मौतमिद ख़ाँ ने अपने नाम से लिखा। अन्तिम रूप से इस पुस्तक को पूर्ण करने का श्रेय 'मुहम्मद हादी' को है। यह पुस्तक जहाँगीर के शासन कालीन उतार-चढ़ाव तथा शासन सम्बन्धी क़ानूनों का उल्लेख करती है।
इकबालनामा-ए-जहाँगीरी
जहाँगीर के शासन काल के 19वें वर्ष के बाद की जानकारी देने वाली यह पुस्तक 'मौतमद ख़ाँ बख्शी' द्वारा रचित है।
पादशाहनामा
'पादशाहनामा' नाम से कई पुस्तकों की रचना हुई है, जिन रचनाकारों ने इन पुस्तकों की रचना की है, वे निम्नलिखित हैं-
- शाहजहाँ के शासन काल में प्रारम्भिक 10 वर्षों का उल्लेख करने वाली 'पादशाहनामा' नामक पुस्तक को शाहजहाँ के समय के प्रथम इतिहासकार 'मोहम्मद अमीन कजवीनी' ने शाहजहाँ के शासन काल के 8वें वर्ष प्रारम्भ कर 20वें वर्ष में लिखकर पूर्ण की।
- 'अब्दुल हमीद लाहौरी' द्वारा रचित 'पादशाहनामा' कृति में शाहजहाँ के शासन के 20 वर्षों के इतिहास का उल्लेख मिलता है, साथ ही यह कृति शाहजहाँ के शासन काल की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति पर भी प्रकाश डालती है।
- 'मोहम्मद वारिस' ने अपनी 'पादशाहनामा' पुस्तक को शाहजहाँ के शासन के 21 वें वर्ष में आरम्भ कर 30वें वर्ष में ख़त्म किया।
अमल-ए-सालेह
'मोहम्मद सालेह' द्वारा रचित इस कृति में शाहजहाँ के अन्तिम 2 वर्षों का इतिहास मिलता है।
तारीख़-ए-शाहजहाँनी
शाहजहाँ कालीन शासन के हालातों एवं अफ़सरों के सम्बन्ध में जानकारी देने वाली यह पुसतक 'सादिक ख़ाँ' द्वारा रचित है।
चहारचमन
'चन्द्रभान' द्वारा रचित यह कृति शाहजहाँ की शासन प्रणाली और कार्य प्रणाली का जिक्र करती है।
शाहजहाँनामा, आलमगीरनामा
ये दोनों ही कृतियाँ औरंगज़ेब के शासन काल के प्रथम 10 वर्षों के इतिहास को बताने वाली एकमात्र कृति मानी जाती है। ‘शाहजहाँनामा’ के रचयिता 'इनायत ख़ाँ एवं ‘आलमगीरनामा’ के रचयिता 'काजिम शीराजी' हैं। इन कृतियों में क़ीमते बढ़ने, खेती की हालत बिगड़ने आदि का भी उल्लेख है। काजिम शिराजी, औरंगज़ेब का सरकारी इतिहासकार था।
वाकयात-ए-आलमगीरी
'आकिल ख़ाँ' द्वारा रचित यह कृति औरंगज़ेब के राज्यारोहण के समय हुई लड़ाईयों का विस्तार से उल्लेख करती है।
खुलासत-उत-तवारीख़
औरंगज़ेब कालीन आर्थिक स्थिति, राज्यों की भौगोलिक सीमाओं एवं व्यापारिक मार्गों पर प्रकाश डालने वाली यह पुस्तक 'सुजान राय भंडारी' द्वारा रचित है।
मुन्तखब-उल-लुबाब
'खफी ख़ाँ' द्वारा रचित यह कृति औरंगज़ेब के शासन काल का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत करती है।
फतुहात-ए-आलमगीरी
औरंगज़ेब के 34 वर्षों के शासन काल पर प्रकाश डालने वाली यह कृति 'ईश्वरदास नागर' द्वारा रचित है।
नुस्खा-ए-दिलकुशा
औरंगज़ेब की शासन कालीन सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति का उल्लेख करने वाली यह पुस्तक 'भीमसेन कायस्थ' द्वारा रचित है।
मासिर-ए-आलमगीरी
'साकी मुस्तैद ख़ाँ' द्वारा रचित यह कृति औरंगज़ेब के शासन काल के 11 वें वर्ष से लेकर 20वें वर्ष तक की स्थिति पर प्रकाश डालती है। 'जदुनाथ सरकार' ने इस कृति को ‘मुग़ल राज्य का गजेटियर’ कहा है।
फतवा-ए-आलमगीरी
मुस्लिम क़ानूनों का अत्यन्त प्रामाणिक एवं विस्तृत सार संग्रह 'फतवा-ए-आलमगीरी' के नाम से जाना जाता है, जिसे औरंगज़ेब के आदेश से धर्माचार्यों के एक समूह ने तैयार किया था।
मजमा-ए-बहरीन
(दो महासागरों का मिलन)- दारा शिकोह द्वारा रचित इस पुस्तक में हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म को एक ही लक्ष्य के दो मार्ग बताया गया है।
संस्कृत साहित्य
मुग़ल काल में संस्कृत का विकास बाधित रहा। अकबर के समय में लिखे गये महत्वपूर्ण संस्कृत ग्रंथ थे- महेश ठाकुर द्वारा रचित 'अकबरकालीन इतिहास', पद्म सुन्दर द्वारा रचित ‘अकबरशाही श्रृंगार-दर्पण’, जैन आचार्य सिद्ध चन्द्र उपाध्याय द्वारा रचित ‘भानुचन्द्र चरित्र’, देव विमल का ‘हीरा सुभाग्यम’, ‘कृपा कोश’ आदि। अकबर के समय में ही ‘पारसी प्रकाश’ नामक प्रथम संस्कृत-फ़ारसी शब्द कोष की रचना की गई। शाहजहाँ के समय में कवीन्द्र आचार्य सरस्वती एवं जगन्नाथ पंडित को दरबार में आश्रय मिला हुआ था। पंडित जगन्नाथ ने ‘रस-गंगाधर’ एवं ‘गंगालहरी’ की रचना की। पंडित जगन्नाथ शाहजहाँ के दरबारी कवि थे।
जहाँगीर ने ‘चित्र मीमांसा खंडन’ (अलंकार शास्त्र पर ग्रंथ) एवं ‘आसफ़ विजय’ (नूरजहाँ के भाई आसफ़ ख़ाँ की स्तुति) के रचयिता जगन्नाथ को ‘पंडिताराज’ की उपाधि से सम्मानित किया था। वंशीधर मिश्र और हरिनारायण मिश्र वाले संस्कृत ग्रंथ हैं- रघुनाथ रचित ‘मुहूर्तमाला’, जो कि मुहूर्त संबंधी ग्रंथ है और चतुर्भुज का ‘रसकल्पद्रम’ जो औरंगज़ेब के चाचा शाइस्ता ख़ाँ को समर्पित है।
हिन्दी साहित्य
बाबर, हुमायूँ और शेरशाह के समय में हिन्दी को राजकीय संरक्षण प्राप्त नहीं हुआ, किन्तु व्यक्तिगत प्रयासों से ‘पद्मावत’ और ‘चुगावत’ नामक दो श्रेष्ठ ग्रन्थों की रचना हुई। मुग़ल सम्राट अकबर ने हिन्दी साहित्य को संरक्षण प्रदान किया। मुग़ल दरबार से सम्बन्धित हिन्दी के प्रसिद्ध कवि राजा बीरबल, मानसिंह, भगवानदास, नरहरि, हरिनाथ आदि थे। व्यक्त्गित प्रयासों से हिन्दी साहित्य को मजबूती प्रदान करने वाले कवियों में महत्वपूर्ण थे- नन्ददास, विट्ठलदास, परमानन्द दास, कुम्भन दास आदि। तुलसीदास एवं सूरदास मुग़ल काल के दो ऐसे विद्वान थे, जो अपनी कृतियों से हिन्दी साहित्य के इतिहास में अमर हो गये। अर्ब्दुरहमान ख़ानख़ाना और रसखान को भी इनकी हिन्दी की रचनाओं के कारण याद किया जाता है। इन सबके महत्वपूर्ण योगदान से ही ‘अकबर के काल को हिन्दी साहित्य का स्वर्ण काल’ कहा गया है। अकबर ने बीरबल को ‘कविप्रिय’ एवं नरहरि को ‘महापात्र’ की उपाधि प्रदान की। जहाँगीर का भाई दानियाल हिन्दी में कविता करता था।
शाहजहाँ के समय में सुन्दर कविराय ने ‘सुन्दर श्रृंगार’, ‘सेनापति ने ‘कवित्त रत्नाकर’, कवीन्द्र आचार्य ने ‘कवीन्द्र कल्पतरु’ की रचना की। इस समय के कुछ अन्य महान कवियों का सम्बन्ध क्षेत्रीय राजाओं से था, जैसे- बिहारी महाराजा जयसिंह से, केशवदास ओरछा से सम्बन्धित थे। केशवदास ने ‘कविप्रिया’, ‘रसिकप्रिया’ एवं ‘अलंकार मंजरी’ जैसी महत्वपूर्ण रचनायें की। अकबर के दरबार में प्रसिद्ध ग्रंथकर्ता कश्मीर के मुहम्मद हुसैन को ‘जरी कलम’ की उपाधि दी गई। बंगाल के प्रसिद्ध कवि मुकुन्दराय चक्रवर्ती को प्रोफ़ेसर कॉवेल ने ‘बंगाल का क्रैब’ कहा है।
उर्दू साहित्य
उर्दू का जन्म दिल्ली सल्तनत काल में हुआ। इस भाषा ने उत्तर मुग़लकालीन बादशाहों के समय में भाषा के रूप में महत्व प्राप्त किया। प्रारम्भ में उर्दू को ‘जबान-ए-हिन्दवी’ कहा गया। अमीर ख़ुसरो प्रथम विद्वान कवि था, जिसने उर्दू भाषा को अपनी कविता का माध्यम बनाया। मुग़ल बादशाहों में मुहम्मद शाह (1719-1748 ई.) प्रथम बादशाह था, जिसने उर्दू भाषा के विकास के लिए दक्षिण के कवि शम्सुद्दीन वली को अपने दरबार में बुलाकर सम्मानित किया। वली दकनी को उर्दू पद्य साहितय का जन्मदाता कहा जाता है। कालान्तर में उर्दू को ‘रेख्ता’ भी कहा गया। रेख्ता में गेसूदराज द्वारा लिखित पुस्तक ‘मिरातुल आशरीन’ सर्वाधिक प्राचीन है।
दारा शिकोह की रचनायें
- दारा शिकोह ने स्वयं अपनी देखरेख में संस्कृत ग्रन्थ श्रीमद्भावदगीता और योग वशिष्ठ का फारसी में अनुवाद कराया।
- दारा का सबसे महत्वपूर्ण कृत्य वेदों को संकलन है।
- दारा शिकोह ने मौलिक पुस्तक मज्म-उल-बहरीन (दो समुद्रो का संगम) की रचना की जिसमें हिन्दू और इस्लाम धर्म को एक ही ईश्वर की प्राप्ति के दो मार्ग बताया है।
- दारा ने स्वयं तथा काशी के कुछ संस्कृत पंडितों की सहायता से बावन उपनिषदों का ‘सिर-ए-अकबर’ नाम से फारसी में अनुवाद कराया।
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