"आधुनिक भारत का आर्थिक इतिहास": अवतरणों में अंतर

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महालवाड़ी व्यवस्था का प्रस्ताव सर्वप्रथम 'हॉल्ट मैकेंजी' द्वारा लाया गया था। इस व्यवस्था के अंतर्गत भूमि पर ग्राम समुदाय का सामूहिक अधिकार होता था। इस समुदाय के सदस्य अलग-अलग या फिर संयुक्त रूप से लगान की अदायगी कर सकते थे। सरकारी लगान को एकत्र करने के प्रति पूरा 'महाल' या 'क्षेत्र' सामूहिक रूप से ज़िम्मेदार होता था। महाल के अंतर्गत छोटे व बड़े सभी स्तर के ज़मींदार आते थे। [[महालवाड़ी व्यवस्था]] का प्रस्ताव सर्वप्रथम 1819 ई. में 'हॉल्ट मैकेंजी' द्वारा लाया गया था। इस प्रस्ताव को 1822 ई. के रेग्यूलेशन-7 द्वारा क़ानूनी रूप प्रदान किया गया।
महालवाड़ी व्यवस्था का प्रस्ताव सर्वप्रथम 'हॉल्ट मैकेंजी' द्वारा लाया गया था। इस व्यवस्था के अंतर्गत भूमि पर ग्राम समुदाय का सामूहिक अधिकार होता था। इस समुदाय के सदस्य अलग-अलग या फिर संयुक्त रूप से लगान की अदायगी कर सकते थे। सरकारी लगान को एकत्र करने के प्रति पूरा 'महाल' या 'क्षेत्र' सामूहिक रूप से ज़िम्मेदार होता था। महाल के अंतर्गत छोटे व बड़े सभी स्तर के ज़मींदार आते थे। [[महालवाड़ी व्यवस्था]] का प्रस्ताव सर्वप्रथम 1819 ई. में 'हॉल्ट मैकेंजी' द्वारा लाया गया था। इस प्रस्ताव को 1822 ई. के रेग्यूलेशन-7 द्वारा क़ानूनी रूप प्रदान किया गया।
====रैय्यतवाड़ी व्यवस्था====
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इस व्यवस्था में प्रत्येक पंजीकृत भूमिदार भूमि का स्वामी होता था, जो सरकार को लगान देने के लिए उत्तरदायी होता था। इसके पास भूमि को रखने व बेचने का अधिकार होता था। भूमि कर न देने की स्थिति में उसे भूस्वमित्व के अधिकार से वंचित होना पड़ता था। इस व्यवस्था के अन्तर्गत सरकार का रैय्यत से सीधा सम्पर्क होता था। [[रैय्यतवाड़ी व्यवस्था]] को [[मद्रास]] तथा [[बम्बई]] एवं [[असम]] के अधिकांश भागों में लागू किया गया। रैय्यतवाड़ी भूमि कर व्यवस्था को पहली बार 1792 ई. में मद्रास के ‘बारामहल’ ज़िले में लागू किया गया। टॉमस मुनरो जिस समय मद्रास का गर्वनर था, उस समय उसने कुल उपज के तीसरे भाग को भूमिकर का आधार मानकर मद्रास में इस व्यवस्था को लागू किया। मद्रास में यह व्यवस्था लगभग 30 वर्षों तक लागू रही थी।
==कृषि का व्यापारीकरण==
[[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] द्वारा भारतीय [[कृषि]] के व्यापारीकरण के पीछे मुख्य उद्देश्य था- [[इंग्लैण्ड]] के उद्योगों के लिए कच्चे माल को उपलब्ध कराना। 1850 ई. तक [[भारत]] में उन वस्तुओं की खेती की जाती थी, जो मुख्यतः भारतीयों के उपभोग हेतु आवश्यक होती थी। परन्तु 1850 ई. के बाद अंग्रेज़ी सरकार ने उन्ही वस्तुओं के उत्पादन को प्रोत्साहन दिया, जिनका उपयोग [[ब्रिटेन]] के उद्योगों में कच्चे माल के रूप में हो सकता था। ब्रिटिश सरकार भारत को अपने सामानों की मंडी तथा कच्चा माल भेजने वाले एक उपनिवेश की भूमिका के लिए तेयार कर रही थी। इस नीति के तहत ब्रिटिश सरकार ने भारतीय किसानों को ऊँची क़ीमत देने का प्रलोभन देकर [[कपास]], [[जूट]], नील, कॉफ़ी, [[चाय]], [[मूंगफली]], [[गन्ना]] जैसे वाणिज्यिक फ़सलों के उत्पादन के लिए प्रोत्साहन दिया। सरकार द्वारा सर्वाधिक ध्यान कपास की खेती पर दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप [[गेंहूँ]], [[चावल]], ज्वार, बाजरा जैसे खाद्यानों का अभाव हो गया, जिससे यहाँ भुखमरी फैल गयी। फ़सलों के वाणिज्यीकरण के फलस्वरूप ही तत्कालीन समय में भारत को कई अकालों का सामना करना पड़ा।
*जॉन सुलविन के कथन के अनुसार, "हमारी प्रणाली एक ऐसे स्पंज के रूप में काम करती है, जो [[गंगा]] के किनारों से प्रत्येक अच्छी वस्तु को ले लेती है और टेम्स के किनारे पर निचोड़ देती है।"
====किसानों का शोषण====
1850 ई. के बाद देश में रेलों की व्यवस्था ने भी वाणिज्यिक फ़सलों के उत्पादन को प्रोत्साहित किया। इस सुविधा का लाभ उठाकर भारतीय किसान अब विश्व बाज़ार से सम्पर्क साधने लगे। नक़द पैसे के लालच में भारतीय किसान अपनी फ़सलों को निम्न दर पर बेचने लगा, जिससे उसके शोषण को बढ़ावा मिला। व्यापारिक फ़सलों की खेती करने से निःसंदेह कुछ किसानों की स्थिति पहले से बेहतर हुई, परन्तु देश में खाद्यान्नों के अभाव के कारण इनके मूल्य में भयंकर वृद्धि हुई।
==औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था==
अंग्रेज़ों द्वारा [[भारत]] का किया गया शोषण तीन कालों में बाँटा जा सकता है- प्रथम काल 1756 ई. से 1812 ई. तक माना जाता है। इस समय अर्थव्यवस्था में व्यापारिक पूंजी का साम्राज्य था। [[ईस्ट इंडिया कम्पनी]] ने व्यापार पर पूर्ण अधिकार रखा था। '''ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारी जी भरकर भारत को लूट रहे थे'''। प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार 'पर्सिवल स्पीयन' ने टिप्पणी की है, "अब [[बंगाल]] में खुला तथा बेशर्म लूट का काल आरम्भ हुआ।" वे कम दाम पर भारतीय वस्तुओं को क्रय कर [[इंग्लैण्ड]] निर्यात कर देते थे। प्रसिद्ध इतिहासकार 'के.एम.पणिक्कर' ने 1765 ई. से 1772 ई. के काल को 'डाकू राज्य' कहा है। द्वितीय काल अर्थात 1813 ई. से 1857 ई. के मध्य मुक्त व्यापार एवं पूंजी के साम्राज्यवाद का काल था। इस समय का भारत ब्रिटेन से निर्मित वस्त्रों के लिए बाज़ार एवं कच्चे माल के स्रोत के रूप में प्रसिद्ध था। इस काल में भारत के कुटीर एवं लघु उद्योगों का पतन हुआ। इस संदर्भ में कार्ल मार्क्स ने कहा था, "सूती कपड़ों के घर में सूती कपड़ों की भरमार कर दी गई है।" तृतीय काल अर्थात 1857 ई. से 1947 ई. के मध्य वित्तीय पूंजी का साम्राज्यवाद भारत में अपनी जड़ें जमाने का प्रयत्न करने लगा। तात्पर्य यह है कि [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] द्वारा यहाँ के उद्योगों में भारी मात्रा में पूंजी निवेश किया जाने लगा।


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10:06, 8 अगस्त 2011 का अवतरण

अंग्रेज़ों ने भारतीय कृषि के क्षेत्र में 'भूमि व्यवस्था' व 'भू-राजस्व' के अन्तर्गत व्यापक परिवर्तन किया था। उन्होंने अनेक भू-धृति पद्धतियाँ लागू कीं, जिनमें मुख्य थीं- स्थायी बन्दोबस्त या ज़मींदारी प्रथा, 'महालवाड़ी व्यवस्था' एवं 'रैय्यतवाड़ी व्यवस्था'। लगान व्यवस्था के अंतर्गत 1790 ई. में लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने दसवर्षीय व्यवस्था को लागू किया था। यह व्यवस्था 1793 ई. में बंगाल, बिहार और उड़ीसा में स्थाई रूप से लागू कर दी गई। ब्रिटिश भारत की 19 प्रतिशत भूमि पर यह व्यवस्था निश्चित कर दी गई थी। इसके बाद 'महालवाड़ी व्यवस्था' का प्रस्ताव सर्वप्रथम 1819 ई. में 'हॉल्ट मैकेंजी' द्वारा लाया गया। सबसे पहले यह व्यवस्था उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं पंजाब में लागू की गई थी। इसके अंतर्गत भूमि का लगभग 30 प्रतिशत भाग शामिल था। 1792 ई. में 'रैय्यतवाड़ी व्यवस्था' मद्रास के बारामहल में पहली बार लागू की गई। मद्रास में यह व्यवस्था 30 वर्षों तक लागू रही। 1835 ई. में भू-सर्वेक्षण के आधार पर इसे बम्बई (वर्तमान मुम्बई) में भी लागू कर दिया गया था।

भूमि व्यवस्था

भारत में अंग्रेज़ों ने जो भूमि व्यवस्था लागू की थी, उनका विवरण इस प्रकार से है-

स्थायी बन्दोबस्त

इस व्यवस्था को 'ज़मींदारी प्रथा', 'मालगुज़ारी' व 'बीसवेदारी' नाम से भी जाना जाता था। इस व्यवस्था के लागू किये जाने से पूर्व ब्रिटिश सरकार के समक्ष यह समस्या थी, कि भारत में कृषि योग्य भूमि का मालिक किसे मान जाय? सरकार राजस्व चुकाने के लिए अन्तिम रूप से किसे उत्तरदायी बनाये तथा उपज में से सरकार का हिस्सा कितना हो। वारेन हेस्टिंग्स ने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा था, कि किसानों से लगान वसूल करने के बदले में ज़मींदारों के पास कुछ कमीशन प्राप्त करने के अधिकार हों। परन्तु हेस्टिंग्स की यह पद्धति असफल रही। 1772 ई. में हेस्टिंग्स ने पंचवर्षीय बन्दोबस्त चलाया। 1776 ई. में इस व्यवस्था को भी त्याग दिया गया। 1786 ई. में लॉर्ड कॉर्नवॉलिस बंगाल का गवर्नर-जनरल बना। उसने जेम्स ग्राण्ट एवं सर जॉन शोर से नवीन लगान व्यवस्था पर विचार विमर्श किया। 1790 ई. में कार्नवालिस ने दसवर्षीय व्यवस्था को लागू किया। 1793 ई. में इस व्यवस्था को बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा में स्थायी कर दिया गया और कालान्तर में इसे उत्तर प्रदेश के बनारस खण्ड एवं उत्तरी कर्नाटक में भी लागू किया गया।

महालवाड़ी व्यवस्था

महालवाड़ी व्यवस्था का प्रस्ताव सर्वप्रथम 'हॉल्ट मैकेंजी' द्वारा लाया गया था। इस व्यवस्था के अंतर्गत भूमि पर ग्राम समुदाय का सामूहिक अधिकार होता था। इस समुदाय के सदस्य अलग-अलग या फिर संयुक्त रूप से लगान की अदायगी कर सकते थे। सरकारी लगान को एकत्र करने के प्रति पूरा 'महाल' या 'क्षेत्र' सामूहिक रूप से ज़िम्मेदार होता था। महाल के अंतर्गत छोटे व बड़े सभी स्तर के ज़मींदार आते थे। महालवाड़ी व्यवस्था का प्रस्ताव सर्वप्रथम 1819 ई. में 'हॉल्ट मैकेंजी' द्वारा लाया गया था। इस प्रस्ताव को 1822 ई. के रेग्यूलेशन-7 द्वारा क़ानूनी रूप प्रदान किया गया।

रैय्यतवाड़ी व्यवस्था

इस व्यवस्था में प्रत्येक पंजीकृत भूमिदार भूमि का स्वामी होता था, जो सरकार को लगान देने के लिए उत्तरदायी होता था। इसके पास भूमि को रखने व बेचने का अधिकार होता था। भूमि कर न देने की स्थिति में उसे भूस्वमित्व के अधिकार से वंचित होना पड़ता था। इस व्यवस्था के अन्तर्गत सरकार का रैय्यत से सीधा सम्पर्क होता था। रैय्यतवाड़ी व्यवस्था को मद्रास तथा बम्बई एवं असम के अधिकांश भागों में लागू किया गया। रैय्यतवाड़ी भूमि कर व्यवस्था को पहली बार 1792 ई. में मद्रास के ‘बारामहल’ ज़िले में लागू किया गया। टॉमस मुनरो जिस समय मद्रास का गर्वनर था, उस समय उसने कुल उपज के तीसरे भाग को भूमिकर का आधार मानकर मद्रास में इस व्यवस्था को लागू किया। मद्रास में यह व्यवस्था लगभग 30 वर्षों तक लागू रही थी।

कृषि का व्यापारीकरण

अंग्रेज़ों द्वारा भारतीय कृषि के व्यापारीकरण के पीछे मुख्य उद्देश्य था- इंग्लैण्ड के उद्योगों के लिए कच्चे माल को उपलब्ध कराना। 1850 ई. तक भारत में उन वस्तुओं की खेती की जाती थी, जो मुख्यतः भारतीयों के उपभोग हेतु आवश्यक होती थी। परन्तु 1850 ई. के बाद अंग्रेज़ी सरकार ने उन्ही वस्तुओं के उत्पादन को प्रोत्साहन दिया, जिनका उपयोग ब्रिटेन के उद्योगों में कच्चे माल के रूप में हो सकता था। ब्रिटिश सरकार भारत को अपने सामानों की मंडी तथा कच्चा माल भेजने वाले एक उपनिवेश की भूमिका के लिए तेयार कर रही थी। इस नीति के तहत ब्रिटिश सरकार ने भारतीय किसानों को ऊँची क़ीमत देने का प्रलोभन देकर कपास, जूट, नील, कॉफ़ी, चाय, मूंगफली, गन्ना जैसे वाणिज्यिक फ़सलों के उत्पादन के लिए प्रोत्साहन दिया। सरकार द्वारा सर्वाधिक ध्यान कपास की खेती पर दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप गेंहूँ, चावल, ज्वार, बाजरा जैसे खाद्यानों का अभाव हो गया, जिससे यहाँ भुखमरी फैल गयी। फ़सलों के वाणिज्यीकरण के फलस्वरूप ही तत्कालीन समय में भारत को कई अकालों का सामना करना पड़ा।

  • जॉन सुलविन के कथन के अनुसार, "हमारी प्रणाली एक ऐसे स्पंज के रूप में काम करती है, जो गंगा के किनारों से प्रत्येक अच्छी वस्तु को ले लेती है और टेम्स के किनारे पर निचोड़ देती है।"

किसानों का शोषण

1850 ई. के बाद देश में रेलों की व्यवस्था ने भी वाणिज्यिक फ़सलों के उत्पादन को प्रोत्साहित किया। इस सुविधा का लाभ उठाकर भारतीय किसान अब विश्व बाज़ार से सम्पर्क साधने लगे। नक़द पैसे के लालच में भारतीय किसान अपनी फ़सलों को निम्न दर पर बेचने लगा, जिससे उसके शोषण को बढ़ावा मिला। व्यापारिक फ़सलों की खेती करने से निःसंदेह कुछ किसानों की स्थिति पहले से बेहतर हुई, परन्तु देश में खाद्यान्नों के अभाव के कारण इनके मूल्य में भयंकर वृद्धि हुई।

औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था

अंग्रेज़ों द्वारा भारत का किया गया शोषण तीन कालों में बाँटा जा सकता है- प्रथम काल 1756 ई. से 1812 ई. तक माना जाता है। इस समय अर्थव्यवस्था में व्यापारिक पूंजी का साम्राज्य था। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने व्यापार पर पूर्ण अधिकार रखा था। ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारी जी भरकर भारत को लूट रहे थे। प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार 'पर्सिवल स्पीयन' ने टिप्पणी की है, "अब बंगाल में खुला तथा बेशर्म लूट का काल आरम्भ हुआ।" वे कम दाम पर भारतीय वस्तुओं को क्रय कर इंग्लैण्ड निर्यात कर देते थे। प्रसिद्ध इतिहासकार 'के.एम.पणिक्कर' ने 1765 ई. से 1772 ई. के काल को 'डाकू राज्य' कहा है। द्वितीय काल अर्थात 1813 ई. से 1857 ई. के मध्य मुक्त व्यापार एवं पूंजी के साम्राज्यवाद का काल था। इस समय का भारत ब्रिटेन से निर्मित वस्त्रों के लिए बाज़ार एवं कच्चे माल के स्रोत के रूप में प्रसिद्ध था। इस काल में भारत के कुटीर एवं लघु उद्योगों का पतन हुआ। इस संदर्भ में कार्ल मार्क्स ने कहा था, "सूती कपड़ों के घर में सूती कपड़ों की भरमार कर दी गई है।" तृतीय काल अर्थात 1857 ई. से 1947 ई. के मध्य वित्तीय पूंजी का साम्राज्यवाद भारत में अपनी जड़ें जमाने का प्रयत्न करने लगा। तात्पर्य यह है कि अंग्रेज़ों द्वारा यहाँ के उद्योगों में भारी मात्रा में पूंजी निवेश किया जाने लगा।


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