"कबीर के दोहे": अवतरणों में अंतर
गोविन्द राम (वार्ता | योगदान) No edit summary |
गोविन्द राम (वार्ता | योगदान) No edit summary |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
[[चित्र:Kabirdas.jpg|250px|thumb|[[कबीरदास]]]] | [[चित्र:Kabirdas.jpg|250px|thumb|[[कबीरदास]]]] | ||
< | {{Poemopen}} | ||
कस्तूरी कुंजल बसे, मृग ढूढै बन | </poem> | ||
ऐसे घट घट राम हैं, दुनिया देखे | कस्तूरी कुंजल बसे, मृग ढूढै बन माहि । | ||
ऐसे घट घट राम हैं, दुनिया देखे नाहि ।। | |||
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय । | कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय । | ||
भक्ति करे | भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ | ||
काल करै सो आज कर, आज करै सो अब । | काल करै सो आज कर, आज करै सो अब । | ||
पल में प्रलय होयगी, बहुरि | पल में प्रलय होयगी, बहुरि करेगौ कब ।। | ||
कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय। | कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय। | ||
पंक्ति 35: | पंक्ति 36: | ||
कबीर तूं काहै डरै, सिर पर हरि का हाथ। | कबीर तूं काहै डरै, सिर पर हरि का हाथ। | ||
हस्ती चढि नहि डोलिये, कुकर | हस्ती चढि नहि डोलिये, कुकर भूखे साथ।। | ||
कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार। | कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार। | ||
पंक्ति 190: | पंक्ति 191: | ||
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय। | दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय। | ||
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥ | जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥</poem> | ||
</poem> | {{Poemclose}} | ||
07:46, 22 अगस्त 2011 का अवतरण
</poem> कस्तूरी कुंजल बसे, मृग ढूढै बन माहि । ऐसे घट घट राम हैं, दुनिया देखे नाहि ।। कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय । भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ काल करै सो आज कर, आज करै सो अब । पल में प्रलय होयगी, बहुरि करेगौ कब ।। कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय। ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।। करता था सो क्यों किया, अब करि क्यों पछताय। बोवे पेड बबूल का, आम कहां से खाय।। कर बहियां बल आपनी, छोड़ बीरानी आस। जाके आंगन नदि बहे, सो कस मरत प्यास।। कथनी कथी तो क्या भया जो करनी ना ठहराइ । कालबूत के कोट ज्यूं देखत ही ढहि जाइ।। कबिरा गरब न कीजिये, कबहूं न हंसिये कोय। अबहूं नाव समुंद्र में, का जाने का होय।। कबीरा खड़ा बजार में, सब की चाहे खैर । ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर ।। कबीरा सोई पीर हैं, जो जाने पर पीर। जो पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर ।। कबीर माला काठ की, कहि समझावै तोहि। मन न फिरावै आपणा, कहा फिरावै मोहि।। कबीर तूं काहै डरै, सिर पर हरि का हाथ। हस्ती चढि नहि डोलिये, कुकर भूखे साथ।। कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार। ग्यान षड्ग गहि, काल सिरि, भली मचाई मार।। कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और । हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥ कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान । जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥
सतनाम जाने बिना, हंस लोक नहिं जाए। ज्ञानी पंडित सूरमा, कर कर मुये उपाय।। सुख मे सुमिरन ना किया, दुख में करते याद । कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ साई इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय। मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाय।। सुमिरन करहु राम का, काल गहै है केस। न जानो कब मारिहै, का घर का परदेस।। सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । जाके हिरदय सांच हें, वाके हिरदय आप ।। सहज सहज सब कोऊ कहै, सहज न चीन्है कोइ। जिन्ह सहजैं विषया तजी, सहज कहीजै सोइ। सुखिया सब संसार है खावै और सोवै। दुखिया दास कबीर है जागै अरू रोवै।। सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ। धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥ साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥ साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय। आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥ [/b] जो तोको कांटा बुवै, ताहि बोओ तू फूल। ताहि फूल को फूल हैं, वाको हैं तिरसूल।। जो जल बाढ़े नांव में, घर में बाढ़े दाम। दोऊ हाथ उलीचिये, यही सयानो काम।। जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। मैं बौरी बन डरी, रही किनारे बैठ।। जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।। मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान।। जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय । यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम । दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥
पूरब दिसा हरि को बासा, पश्चिम अलह मुकामा। दिल महं खोजु, दिलहि में खोजो यही करीमा रामा।। पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय । एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥
चारिउं वेदि पठाहि, हरि सूं न लाया हेत। बालि कबीरा ले गया, पंडित ढूंढे खेत।। चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह । जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥
माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर। आशा त्रिष्णा ना मुई, यौ कह गया कबीर।। मन माया तो एक हैं, माया नहीं समाय। तीन लोक संसय परा, काहि कहूं समझाय। माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥ माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय ॥ एक राम दशरथ का प्यारा, एक राम का सकल पसारा। एक राम घट घट में छा रहा, एक राम दुनिया से न्यारा।। एकै साध सब सधै, सब साधे सब जाय । जो तू सींचे मूल को, फूले फल अघाय ।। ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोइ। आपन को सीतल करे, और हु सीतल होइ।। धरती सब कागद करूं, लेखनी सब बनराय। साह सुमुंद्र की मसि करूं, गुरू गुण लिखा न जाय़।। धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय । माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट । पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥
उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास। तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय । कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर। पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय। जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥</poem> |