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बनारस घराने का [[ख़्याल]] शैली में भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। इस गायन पद्धति में शब्द का स्पष्ट उच्चारण किया जाता है। भावनाओं को स्वरों के माध्यम से सशक्त रूप से प्रकट किया जाता है। बनारस घराने के गायक ख़्याल गायन के लिए विशेष तौर पर पहचाने जाते हैं। ख़्याल का तात्पर्य है- 'कल्पना'। इसका अभिव्यक्तिकरण विविधता से और सावधानी पूर्वक किया जाना चाहिए। ख़्याल गायन हज़ारों वर्षों की प्राचीन परंपरा है। यह प्राचीन परंपरा [[मुग़ल]] बादशाहों के दरबार में [[ध्रुपद]] पद्धति से गायी जाती थी। ख़्याल में [[हिन्दू]] और [[मुस्लिम]] कवियों की श्रंगारिक या [[भक्ति रस]] में समर्पित रचनाओं का समावेश है। बनारस घराने के ख़्याल गायन में बनारस एवं [[गया]] की [[ठुमरी]] का समावेश है।<ref name="mcc"/>
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====तबला प्रस्तुति====
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इस घराने की [[तबला]] वादन प्रस्तुति की अपनी एक स्वतंत्र पद्धति रही है। लगभग दो सौ वर्ष पूर्व पंडित रामसहाय मिश्र का जन्म [[1780]] में बनारस में हुआ था। बारह वर्ष की अल्प आयु में ही पंडित जी को अपने गुरु से तबले का सर्वोत्तम प्रशिक्षण प्राप्त हुआ था। वे जब मात्र केवल 21 वर्ष के थे, तभी उन्होंने नवाब वाजिदअली शाह के दरबार में सात दिन तक बिना रुके और पुनरावृत्ति न करते हुए तबला वादन किया था। उन्होंने अपनी [[कला]] का प्रदर्शन लोगों के सामने बंद कर अपना ध्यान तबला वादन की नयी पद्धति की खोज करने में केन्द्रित कर दिया था। इन्होंने तबले पर हाथ रखने की पद्धति और उँगलियों का प्रयोग नए ढंग से करके तबला वादन की नई पद्धति की खोज की, जिसका नाम '''बनारसी बाज़''' पड़ा। इस पद्धति का उपयोग एकल वादन के साथ [[ध्रुपद]] गायन, जो [[पखावज]] के साथ गाया जाता है तथा [[ठुमरी]], [[टप्पा]] और अनेक प्रकार के [[वाद्य यंत्र|वाद्यों]] के साथ संगत में होने लगा।
इस घराने की तबला वादन प्रस्तुति की अपनी एक स्वतंत्र पद्धति रही है। लगभग दो सौ वर्ष पूर्व पंडित रामसहाय मिश्र का जन्म [[1780]] में बनारस में हुआ था। बारह वर्ष की अल्प आयु में ही पंडित जी को अपने गुरु से तबले का सर्वोत्तम प्रशिक्षण प्राप्त हुआ था। वे जब मात्र केवल 21 वर्ष के थे, तभी उन्होंने नवाब वाजिदअली शाह के दरबार में सात दिन तक बिना रुके और पुनरावृत्ति न करते हुए तबला वादन किया था। उन्होंने अपनी [[कला]] का प्रदर्शन लोगों के सामने बंद कर अपना ध्यान तबला वादन की नयी पद्धति की खोज करने में केन्द्रित कर दिया था। इन्होंने तबले पर हाथ रखने की पद्धति और उँगलियों का प्रयोग नए ढंग से करके तबला वादन की नई पद्धति की खोज की, जिसका नाम '''बनारसी बाज़''' पड़ा। इस पद्धति का उपयोग एकल वादन के साथ [[ध्रुपद]] गायन, जो [[पखावज]] के साथ गाया जाता है तथा [[ठुमरी]], [[टप्पा]] और अनेक प्रकार के [[वाद्य यंत्र|वाद्यों]] के साथ संगत में होने लगा।
==प्रसिद्ध संगीतज्ञ==
==प्रसिद्ध संगीतज्ञ==
बनारस घराना गायन और वादन दोनों के लिए ही बहुत प्रसिद्ध रहा है। इस घराने के कुछ संगीतज्ञों के नाम इस प्रकार हैं-
बनारस घराना गायन और वादन दोनों के लिए ही बहुत प्रसिद्ध रहा है। इस घराने के कुछ संगीतज्ञों के नाम इस प्रकार हैं-
#[[शहनाई]] वादक - [[उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान]], पंडित रामसहाय मिश्र (जिन्होंने 'बनारसी बाज़' का शोध किया था)
#शहनाई वादक - [[उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान]], पंडित रामसहाय मिश्र (जिन्होंने 'बनारसी बाज़' का शोध किया था)
#[[तबला]] वादक - पंडित कंठे महाराज, पंडित अनोखे लाल, [[पंडित किशन महाराज]] एवं पंडित गुदई महाराज आदि।
#तबला वादक - पंडित कंठे महाराज, पंडित अनोखे लाल, [[पंडित किशन महाराज]] एवं पंडित गुदई महाराज आदि।
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सुप्रसिद्ध सितार वादक [[पंडित रविशंकर]] का जन्म भी [[बनारस]] में हुआ। श्रेष्ठ संतूर वादक पंडित [[शिवकुमार शर्मा]] के [[पिता]] पंडित अमर दत्त शर्मा ने बनारस घराने के महान गायक पंडित बड़े रामदास जी से शिक्षा प्राप्त की थी। बनारस घराना सारंगी वादकों के लिए भी प्रसिद्ध रहा है, जिसमें प्रमुख है-
#शम्भू सुमीर
#शम्भू सुमीर
#गोपाल मिश्र
#गोपाल मिश्र

13:34, 12 अक्टूबर 2012 का अवतरण

बनारस घराना हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के प्रसिद्ध घरानों में गिना जाता है। शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में इस घराने का बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान है। यह घराना गायन और वादन दोनों कलाओं के लिए प्रसिद्ध रहा है। इस घराने के गायक ख़्याल गायकी के लिए जाने जाते हैं। इसके साथ ही बनारस घराने के तबला वादकों की भी अपनी एक स्वतंत्र शैली रही है। सारंगी वादकों के लिए भी यह घराना काफ़ी प्रसिद्ध रहा है।

शैली

इस घराने की गायन एवं वादन शैली पर उत्तर भारत के लोक गायन का गहरा प्रभाव है। कुछ विद्वानों का कथन है कि आर्यों के भारत में स्थायी होने से पहले यहाँ की जनजातियों में संगीत विद्यमान था। उसका आभास बनारस के लोक संगीत में दिखता है। ठुमरी मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश की ही देन है। लखनऊ में इसकी पैदाइश हुई थी और बनारस में इसका विकास हुआ। बनारसी ठुमरी के दो प्रकार है-

  1. धनाक्षरी अर्थात शायरी ठुमरी - यह द्रुतलय में गाई जाती है और द्रुत तानों के द्वारा प्रसारित की जाती है।
  2. बोल की ठुमरी - इसे मंद गति के साथ गाया जाता है और एक-एक शब्द को बोलते हैं।

बनारस अंग की ठुमरी में चैनदारी है। यहाँ की बोल-चाल और कहने का अलग क़िस्म का होता है। यहाँ की ठुमरी में ठहराव और अदायगी का अपना एक अलग रंग है। इसमें खूबसूरती अपेक्षाकृत अधिक रहती है।[1]

बनारसी ठुमरी

ग्वालियर के राजा मानसिहं तोमर (तंवर) ठुमरी के आदि प्रवर्तक थे। उन्हीं के नाम पर इसका नाम 'तनवरी' पड़ा था, जो बाद में बिगड़कर ठुमरी हो गया। ठुमरी के इतिहास में मौजुद्दीन ख़ान, ग्वालियर के भैयासाहब गणपतराव और नवाब वाजिद अलीशाह का नाम भी महत्त्वपूर्ण है। बनारस की ठुमरी पंडित जगदीप मिश्र जी से शुरू हुई। पंडित जगदीप मिश्र, भैया गणपतराव एवं मौजुद्दीन ख़ान के समय से विलंबित लय की बोल बनाव ठुमरी के गाने का प्रचलन बढ़ा तथा बनारस में इसका अत्यधिक प्रचार-प्रसार हुआ, तत्पश्चात यही ठुमरी पूरब की बोलियाँ तथा लोकगीतों के प्रभाव से और अधिक भाव प्रधान हो गई, और अंत में 'बनारसी ठुमरी' के नाम से रूढ़ हो गई।

घराने की ख़्याल शैली

बनारस घराने का ख़्याल शैली में भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। इस गायन पद्धति में शब्द का स्पष्ट उच्चारण किया जाता है। भावनाओं को स्वरों के माध्यम से सशक्त रूप से प्रकट किया जाता है। बनारस घराने के गायक ख़्याल गायन के लिए विशेष तौर पर पहचाने जाते हैं। ख़्याल का तात्पर्य है- 'कल्पना'। इसका अभिव्यक्तिकरण विविधता से और सावधानी पूर्वक किया जाना चाहिए। ख़्याल गायन हज़ारों वर्षों की प्राचीन परंपरा है। यह प्राचीन परंपरा मुग़ल बादशाहों के दरबार में ध्रुपद पद्धति से गायी जाती थी। ख़्याल में हिन्दू और मुस्लिम कवियों की श्रंगारिक या भक्ति रस में समर्पित रचनाओं का समावेश है। बनारस घराने के ख़्याल गायन में बनारस एवं गया की ठुमरी का समावेश है।[1]

तबला प्रस्तुति

इस घराने की तबला वादन प्रस्तुति की अपनी एक स्वतंत्र पद्धति रही है। लगभग दो सौ वर्ष पूर्व पंडित रामसहाय मिश्र का जन्म 1780 में बनारस में हुआ था। बारह वर्ष की अल्प आयु में ही पंडित जी को अपने गुरु से तबले का सर्वोत्तम प्रशिक्षण प्राप्त हुआ था। वे जब मात्र केवल 21 वर्ष के थे, तभी उन्होंने नवाब वाजिदअली शाह के दरबार में सात दिन तक बिना रुके और पुनरावृत्ति न करते हुए तबला वादन किया था। उन्होंने अपनी कला का प्रदर्शन लोगों के सामने बंद कर अपना ध्यान तबला वादन की नयी पद्धति की खोज करने में केन्द्रित कर दिया था। इन्होंने तबले पर हाथ रखने की पद्धति और उँगलियों का प्रयोग नए ढंग से करके तबला वादन की नई पद्धति की खोज की, जिसका नाम बनारसी बाज़ पड़ा। इस पद्धति का उपयोग एकल वादन के साथ ध्रुपद गायन, जो पखावज के साथ गाया जाता है तथा ठुमरी, टप्पा और अनेक प्रकार के वाद्यों के साथ संगत में होने लगा।

प्रसिद्ध संगीतज्ञ

बनारस घराना गायन और वादन दोनों के लिए ही बहुत प्रसिद्ध रहा है। इस घराने के कुछ संगीतज्ञों के नाम इस प्रकार हैं-

  1. शहनाई वादक - उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान, पंडित रामसहाय मिश्र (जिन्होंने 'बनारसी बाज़' का शोध किया था)
  2. तबला वादक - पंडित कंठे महाराज, पंडित अनोखे लाल, पंडित किशन महाराज एवं पंडित गुदई महाराज आदि।
  3. पखावज और मृदंग वादक - बनारस के पंडित मदन मोहन, पंडित भोलानाथ पाठक और पंडित अमरनाथ मिश्र आदि।[1]

सुप्रसिद्ध सितार वादक पंडित रविशंकर का जन्म भी बनारस में हुआ। श्रेष्ठ संतूर वादक पंडित शिवकुमार शर्मा के पिता पंडित अमर दत्त शर्मा ने बनारस घराने के महान गायक पंडित बड़े रामदास जी से शिक्षा प्राप्त की थी। बनारस घराना सारंगी वादकों के लिए भी प्रसिद्ध रहा है, जिसमें प्रमुख है-

  1. शम्भू सुमीर
  2. गोपाल मिश्र
  3. हनुमान प्रसाद मिश्र
  4. नारायण विनायक

बनारसी ठुमरी एवं ख़्याल गायन यहाँ की विशिष्ट पद्धति है। ठुमरी गायिकाओं में रसूलन बाई, बड़ी मोती बाई, सिद्धेश्वरी देवी और गिरिजा देवी प्रमुख हैं। ख़्याल गायन में पंडित बड़े रामदास जी, पंडित छोटे रामदास जी, पंडित महादेव प्रसाद मिश्र, पंडित राजन-साजन मिश्र और उनके पुत्र एवं शिष्य इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 बनारस घराना (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 12 अक्टूबर, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

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