ध्रुपद

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ध्रुपद
ध्रुपद गायन करते फ़रीदुद्दीन डागर
ध्रुपद गायन करते फ़रीदुद्दीन डागर
विवरण 'ध्रुपद' भारत की प्रसिद्ध गायन शैली है। यह गायन शैली अपने आप में परिपूर्ण है, जो वेदों से चली आ रही है।
उत्पत्ति अधिकांश विद्वानों का मत है कि पन्द्रहवीं शताब्दी में ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने इसकी रचना की थी।
बानियाँ ध्रुपद गायन की चार बानियाँ मानी जाती हैं-
  1. 'गोउहार बानी'
  2. 'खंडार बानी'
  3. 'नौहार बानी'
  4. 'डांगुर बानी'
विशेष ध्रुपद गंभीर प्रकृति का गीत है। इसे गाने में कण्ठ और फेफड़े पर बल पड़ता है। इसलिये लोग इसे 'मर्दाना गीत' कहते हैं।
संबंधित लेख ज़िया फ़रीदुद्दीन डागर, तानसेन, स्वामी हरिदास, बैजू बावरा
बाहरी कड़ियाँ शास्त्रीय संगीत के पद, ख़याल, ध्रुपद आदि का जन्म ब्रजभूमि में होने के कारण इन सबकी भाषा ब्रज है और ध्रुपद का विषय समग्र रूप ब्रज का रास ही है।

ध्रुपद अथवा ध्रुवपद (अंग्रेज़ी: Dhrupad) भारत की समृद्ध गायन शैली है। 'ध्रुपद' का शब्दश: अर्थ होता है- 'ध्रुव+पद' अर्थात् 'जिसके नियम निश्चित हों, अटल हों, जो नियमों में बंधा हुआ हो।' यह अत्यधिक प्राचीन शैली है।

उत्पत्ति

आज तक सर्व सम्मति से यह निश्चित नहीं हो पाया है कि ध्रुपद का अविष्कार कब और किसने किया। इस सम्बन्ध में विद्वानों के कई मत हैं। अधिकांश विद्वानों का मत यह है कि पन्द्रहवीं शताब्दी में ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने इसकी रचना की। इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि राजा मानसिंह तोमर ने ध्रुपद के प्रचार में बहुत हाथ बंटाया। उन्होंने ध्रुपद का शिक्षण देने हेतु विद्यालय भी खोला। अकबर के समय में तानसेन और उनके गुरु स्वामी हरिदास, नायक बैजू और गोपाल आदि प्रख्यात गायक ही गाते थे।

परिभाषा

'नाट्यशास्त्र' के अनुसार वर्ण, अलंकार, गान-क्रिया, यति, वाणी, लय आदि जहाँ परस्पर सम्बद्ध रहें, उन गीतों को 'ध्रुव' कहा गया है। जिन पदों में यह नियम शामिल हों, उन्हें 'ध्रुवपद' या 'ध्रुपद' कहा जाता है।[1]

विशेषता

ध्रुपद गंभीर प्रकृति का गीत है। इसे गाने में कण्ठ और फेफड़े पर बल पड़ता है। इसलिये लोग इसे मर्दाना गीत कहते हैं। नाट्यशास्र के अनुसार वर्ण, अलंकार, गान- क्रिया, यति, वाणी, लय आदि जहाँ ध्रुव रूप में परस्पर संबद्ध रहें, उन गीतों को ध्रुवा कहा गया है। जिन पदों में उक्त नियम का निर्वाह हो रहा हो, उन्हें ध्रुवपद अथवा ध्रुपद कहा जाता है। शास्रीय संगीत के पद, ख़याल, ध्रुपद आदि का जन्म ब्रजभूमि में होने के कारण इन सबकी भाषा ब्रज है और ध्रुपद का विषय समग्र रूप ब्रज का रास ही है। कालांतर में मुग़ल काल में ख़्याल उर्दू की शब्दावली का प्रभाव भी ध्रुपद रचनाओं पर पड़ा। वृन्दावन के निधिवन निकुंज निवासी स्वामी हरिदास ने इनके वर्गीकरण और शास्त्रीयकरण का सबसे पहले प्रयास किया। स्वामी हरिदास की रचनाओं में गायन, वादन और नृत्य संबंधी अनेक पारिभाषिक शब्द, वाद्ययंत्रों के बोल एवं नाम तथा नृत्य की तालों व मुद्राओं के स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं। सूरदास द्वारा रचित ध्रुवपद अपूर्व नाद-सौंदर्य, गमक एवं विलक्षण शब्द- योजना से ओतप्रोत दिखाई देते हैं।

हिंदुस्तानी संगीत में चार भागों में बंटा पुरातन स्वर संगीत, जिसमें सबसे पहले विस्तृत परिचयात्मक आलाप किया जाता है और फिर उस लय, ताल और धुन की बढ़त से फैलाया जाता है। यह बाद में प्रचलित छोटे ख़याल से संबंधित है, जिसने कुछ हद तक ध्रुपद की लोकप्रियता को कम कर दिया है, शास्त्रीय ध्रुपद की गुरु गंभीर राजसी शैली के लिए अत्यधिक श्वास नियंत्रण की आवश्यकता होती थी। इसका गायन नायकों, ईश्वरों और राजाओं की प्रशंसा में किया जाता था।

बानियाँ

ध्रुपद गायन शैली अपने आप में परिपूर्ण है। यह वेदों से चली आ रही है। इस शैली को स्वामी हरिदास, तानसेन, बैजब बाबर जैसे संगीत साधकों ने अपनी साधना से सींचा है। ध्रुपद गायन की चार बानियाँ मानी जाती हैं-

  1. गोउहार बानी
  2. खंडार बानी
  3. नौहार बानी
  4. डांगुर बानी

उपरोक्त चार घरानों में डांगुर बानी और गौउहार बानी प्रचलन में हैं।[2]

समृद्ध गायन शैली

ध्रुपद भारत की समृद्ध गायन शैली है। इसमें आलापचारी का महत्त्व होता है। सुंदर और संथ आलाप ध्रुपद के प्राण हैं। नोम-तोम की आलापचारी ध्रुपद गायन की विशेषता है। प्राचीन काल में "तू ही अनंत हरी" जैसे शब्दों का प्रयोग होता था। बाद में इन्ही शब्दों का स्थान नोम-तोम ने ले लिया। शब्द अधिकांशत: ईश्वर आराधना से युक्त होते हैं। गमक का विशेष स्थान होता है। इस गायकी में वीर, भक्ति, श्रृंगार आदि रस भी होते हैं। पूर्व में ध्रुपद की चार बानियाँ मानी जाती थीं अर्थात् ध्रुपद गायन की चार शैलियाँ। इन बानियों के नाम थे खनडारी, नोहरी, गौरहारी और डागुर।

प्रमुख गायक

'डागर बंधु' के नाम से सभी परिचित हैं। उमाकांत व रमाकांत गुंदेचा ने ध्रुपद गायकी में एक नई मिसाल कायम की है। इन्होंने ध्रुपद गायकी को परिपूर्ण किया है। इनका ध्रुपद गायन अत्यन्त ही मधुर, सुंदर और भावप्रद होता है। इन्होंने सूरदास, मीरां आदि के पदों का गायन भी ध्रुपद में सम्मिलित किया है।[3]

फ़रीदुद्दीन डागर

ज़िया फ़रीदुद्दीन डागर भारत के प्रसिद्ध ध्रुपद गायकों में गिने जाते थे। प्रसिद्ध ध्रुपदिया गायक उस्ताद ज़ियाउददीन डागर के बेटे फ़रीदुद्दीन डागर ने अपने दिवंगत भाई ज़िया मोहिउद्दीन डागर (मशहूर रुद्र वीणा वादक) के साथ मिलकर ध्रुपद शैली के गायन को पुनर्जीवित करने में अहम भूमिका निभाई थी। उस्ताद फ़रीदुद्दीन डागर की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि उन्होंने संगीत के दामन में सबसे ज़्यादा सितारे जड़े। उनके शागिर्द पं. उमाकांत-रमाकांत गुंदेचा, पं. ऋतिक सान्याल, उदय भवालकर, पुष्पराज कोष्ठी आज ध्रुपद के ऐसे बेनजीर हीरे हैं, जिनकी चमक ने दुनियाभर में ध्रुपद को रोशन किया। फ़रीदुद्दीन डागर ने स्वयं तो गुणी शिष्य तैयार किए ही, साथ ही भोपाल स्थित गुंदेचा बंधुओं के ध्रुपद संस्थान का भूमिपूजन कर नए चिरागों को रोशन करने की ज़मीन में बीज भी डाल दिए थे।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. ध्रुपद की परंपरा बढ़ाते गुंदेचा बंधु (हिन्दी) बीबीसी। अभिगमन तिथि: 21 जनवरी, 2016।
  2. वीणा, वाणी, वेणु का संगम है ध्रुपद गायन (हिन्दी) अमर उजाला.कॉम। अभिगमन तिथि: 21 जनवरी, 2016।
  3. ध्रुपद एक समृद्ध गायन शैली (हिन्दी) (html) surshree.blogspot.in। अभिगमन तिथि: 20 जनवरी, 2016।

बाहरी कड़ियाँ

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