"मेवाड़ के लोक संस्कार": अवतरणों में अंतर
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[[मेवाड़]] में संयुक्त परिवार व्यवस्था में विवाह संस्कार एक धार्मिक तथा सामाजिक दायित्व समझा जाता था। प्रायः परिवार के मुखिया ही वैवाहिक संबंध तय करते थे। कन्या के परिवार वाले अपनी स्थिति से उच्च तथा प्रतिष्ठित परिवार में संबंध करने की लालसा रखते थे। साधारणत: अपनी जाति के अन्दर ही [[विवाह]] करने की प्रथा प्रचलित थी, किन्तु निम्न जातियों में इस प्रकार का कोई कठोर प्रतिबंध नहीं था। सगाई के समय ही दहेज देने का प्रचलन था। यह प्रथा पहले शासक एवं कुलीन वर्ग तक ही सीमित थी, किन्तु 11वीं सदी में इसका प्रभाव समूचे मेवाड़ी जन-जीवन पर दृष्टिगत होने लगा था। इसी प्रथा का परिणाम था कि परिवार में लड़की का जन्म अभिशाप समझा जाने लगा तथा कन्या-वध की अमानवीय परम्परा का प्रचलन हुआ। [[भील]], ग्रासिया तथा मीणा जैसी जनजातियों में जीवन साथी चुनने की स्वच्छन्द परम्परा थी, अतः उनमें सगाई प्रथा का अधिक प्रचलन नहीं था। सगाई के बाद ज्योतिष अथवा पंडित से विवाह का शुभ मुहूर्त निश्चित किया जाता था। [[वर्षा ऋतु]] में विवाह नहीं किये जाते थे। [[जन्माष्टमी]], [[बसंत पंचमी]] और [[अक्षय तृतीया]] के लिए मुहूर्त पूछने की आवश्यकता नहीं थी। विवाह का दिन निश्चित हो जाने से लेकर बारात की विदाई तक अलग-अलग जातियों में विभिन्न प्रकार के रीति-रिवाजों का पालन किया जाता था। बारात की विदाई के पूर्व दहेज दिया जाता था, जिसका सामाजिक प्रदर्शन किया जाता था। इसके साथ ही जाति पंचायत के सामाजिक नेग व दस्तूर का लेन देन होता था। | |||
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05:52, 18 जनवरी 2013 का अवतरण
मेवाड़ अपने प्रारम्भिक समय से ही सामाजिक एवं धार्मिक रूढ़ियों में जकड़ा रहा था। इन रूढ़ियों ने कई सामाजिक-धार्मिक संस्कारों को जन्म दिया तथा उन्हें समाज में एक स्थान दिया। यहाँ प्रचलित सोलह संस्कारों में से कुछ संस्कार निम्नलिखित थे-
उपरोक्त संस्कारों में विवाह तथा मृतक संस्कार सामाजिक जीवन के अभिन्न अंग थे। अन्य संस्कारों का समाज पर उतना प्रभाव नहीं था। परन्तु 19वीं सदी के उपरान्त धीरे-धीरे संस्कारों का वैदिक स्वरूप लोक संस्कारों में परिवर्तित होने लगा था तथा लम्बे समय तक व्यवहार में आते-आते धार्मिक प्रथाओं का रूप ग्रहण कर चुका था।
विवाह संस्कार
मेवाड़ में संयुक्त परिवार व्यवस्था में विवाह संस्कार एक धार्मिक तथा सामाजिक दायित्व समझा जाता था। प्रायः परिवार के मुखिया ही वैवाहिक संबंध तय करते थे। कन्या के परिवार वाले अपनी स्थिति से उच्च तथा प्रतिष्ठित परिवार में संबंध करने की लालसा रखते थे। साधारणत: अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करने की प्रथा प्रचलित थी, किन्तु निम्न जातियों में इस प्रकार का कोई कठोर प्रतिबंध नहीं था। सगाई के समय ही दहेज देने का प्रचलन था। यह प्रथा पहले शासक एवं कुलीन वर्ग तक ही सीमित थी, किन्तु 11वीं सदी में इसका प्रभाव समूचे मेवाड़ी जन-जीवन पर दृष्टिगत होने लगा था। इसी प्रथा का परिणाम था कि परिवार में लड़की का जन्म अभिशाप समझा जाने लगा तथा कन्या-वध की अमानवीय परम्परा का प्रचलन हुआ। भील, ग्रासिया तथा मीणा जैसी जनजातियों में जीवन साथी चुनने की स्वच्छन्द परम्परा थी, अतः उनमें सगाई प्रथा का अधिक प्रचलन नहीं था। सगाई के बाद ज्योतिष अथवा पंडित से विवाह का शुभ मुहूर्त निश्चित किया जाता था। वर्षा ऋतु में विवाह नहीं किये जाते थे। जन्माष्टमी, बसंत पंचमी और अक्षय तृतीया के लिए मुहूर्त पूछने की आवश्यकता नहीं थी। विवाह का दिन निश्चित हो जाने से लेकर बारात की विदाई तक अलग-अलग जातियों में विभिन्न प्रकार के रीति-रिवाजों का पालन किया जाता था। बारात की विदाई के पूर्व दहेज दिया जाता था, जिसका सामाजिक प्रदर्शन किया जाता था। इसके साथ ही जाति पंचायत के सामाजिक नेग व दस्तूर का लेन देन होता था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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