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'''नीम का पेड़''' [[राही मासूम रज़ा|डॉ. राही मासूम रज़ा]] द्वारा लिखा गया [[उपन्यास]] है। यह उपन्यास दो पीढ़ियों की दास्तान का दस्तावेज़ है, जिसमें राजनीति का विदु्रप चेहरा भी मुख्य रूप से दिखाई देता है। इसमें पतन का मंजर है, लेकिन उसी में आदर्श की तलाश भी ढूँढ़ने का प्रयास किया गया है। 'नीम का पेड़' में राही मासूम रज़ा ने राजनीति की तमाम बदबूदार, खोखली, धोखेबाजी और दिखावटी परतों को धारदार तरीके से उधेड़ा है। इस उपन्यास का प्रकाशन 'राजकमल प्रकाशन' द्वारा किया गया था।
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==पुस्तक अंश==
==पुस्तक अंश==

09:59, 25 मार्च 2013 का अवतरण

नीम का पेड़ -राही मासूम रज़ा
नीम का पेड़ आवरण पृष्ठ
नीम का पेड़ आवरण पृष्ठ
लेखक राही मासूम रज़ा
मूल शीर्षक 'नीम का पेड़'
प्रकाशक राजकमल प्रकाशन
ISBN 9788126706273
देश भारत
पृष्ठ: 91
भाषा हिन्दी
विधा उपन्यास

नीम का पेड़ डॉ. राही मासूम रज़ा द्वारा लिखा गया उपन्यास है। यह उपन्यास दो पीढ़ियों की दास्तान का दस्तावेज़ है, जिसमें राजनीति का विदु्रप चेहरा भी मुख्य रूप से दिखाई देता है। इसमें पतन का मंजर है, लेकिन उसी में आदर्श की तलाश भी ढूँढ़ने का प्रयास किया गया है। 'नीम का पेड़' में राही मासूम रज़ा ने राजनीति की तमाम बदबूदार, खोखली, धोखेबाजी और दिखावटी परतों को धारदार तरीके से उधेड़ा है। इस उपन्यास का प्रकाशन 'राजकमल प्रकाशन' द्वारा किया गया था।

पुस्तक अंश

लेखक के कथनानुसार- "मैं अपनी तरफ़ से इस कहानी में कहानी भी नहीं जोड़ सकता था। इसलिए इस कहानी में आपको हदें भी दिखाई देंगी और सरहदें भी। नफरतों की आग में मोहब्बत के छींटे दिखाई देंगे। सपने दिखाई देंगे तो उनका टूटना भी।...और इन सबके पीछे दिखाई देगी, सियासत की काली स्याह दीवार। हिन्दुस्तान की आज़ादी को जिसने निगल लिया। जिसने राज को कभी सु-राज नहीं होने दिया। जिसे हम रोज़ झंडे और पहिए के पीछे ढूँढते रहे कि आख़िर उसका निशान कहाँ है? गाँव मदरसा खुर्द और लछमनपुर कलाँ महज दो गाँव-भर नहीं है और अली ज़ामिन ख़ाँ और मुसलिम मियाँ की अदावत बस दो ख़ालाज़ाद भाइयों की अदावत नहीं है। ये तो मुझे मुल्कों की अदावत की तरह दिखाई देती है, जिसमें कभी एक का पलड़ा झुकता दिखाई देता है तो कभी दूसरे का और जिसमें न कोई हारता है, न कोई जीतता है। बस, बाकी रह जाता है नफरत का एक सिलसिला...। सच-सच बताऊँ तो मैं न लछमनपुर कलाँ को जानता हूँ और न ही मदरसा खुर्द को और अली ज़ामिन खाँ, मुसलिम मियाँ नाम के उन दो ख़ालाज़ाद भाइयों को तो बिल्कुल ही नहीं। हो सकता है यह सब उस नीम के पेड़ की कोरी बकवास हो जो उसने मुझे सुनाई और मैं आपको सुनाने बैठ गया। मैं तो शुक्रगुज़ार हूँ उस नीम के पेड़ का, जिसने मुल्क को टुकड़े होते हुए भी देखा है और आज़ादी के सपनों को टूटते हुए भी देखा है। उसका दर्द बस इतना है कि वह इन सबके बीच मोहब्बत और सुकून की तलाश करता फिर रहा है।"


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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