"महाराणा प्रताप": अवतरणों में अंतर
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[[हल्दीघाटी]] का युद्ध [[अकबर]] और महाराणा प्रताप के बीच हुआ। [[अकबर]] ने 1541 ई. में [[मेवाड़]] पर आक्रमण कर [[चित्तौड़]] को घेर लिया | [[हल्दीघाटी]] का युद्ध [[अकबर]] और महाराणा प्रताप के बीच [[18 जून]], 1576 ई. को हुआ। इससे पूर्व [[अकबर]] ने 1541 ई. में [[मेवाड़]] पर आक्रमण कर [[चित्तौड़]] को घेर लिया था, किंतु [[राणा उदयसिंह]] ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की थी। उदयसिंह प्राचीन आधाटपुर के पास [[उदयपुर]] नामक अपनी राजधानी बसाकर वहाँ चला गया। उनके बाद [[महाराणा प्रताप]] ने भी अकबर से युद्ध जारी रखा। उनका 'हल्दीघाटी का युद्ध' इतिहास प्रसिद्ध है। अकबर ने मेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए [[अप्रैल]], 1576 ई. में [[आमेर]] के [[राजा मानसिंह]] एवं आसफ ख़ाँ के नेतृत्व में [[मुग़ल]] सेना को आक्रमण के लिए भेजा। दोनों सेनाओं के मध्य गोगुडा के निकट [[अरावली पर्वत श्रृंखला|अरावली पर्वत]] की 'हल्दीघाटी' शाखा के मध्य युद्ध हुआ। इस युद्ध में राणा प्रताप पराजित हुए। लड़ाई के दौरान अकबर ने कुम्भलमेर दुर्ग से भी महाराणा प्रताप को खदेड़ दिया तथा मेवाड़ पर अनेक आक्रमण करवाये। इस पर भी राणा प्रताप ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की। बाद के कुछ वर्षों में जब अकबर का ध्यान दूसरे कामों में लगा गया, तब प्रताप ने अपने स्थानों पर फिर अधिकार कर लिया था। सन् 1597 में चावंड में उनकी मृत्यु हो गई थी। | ||
==राणा प्रताप की मानसिंह से भेंट== | ==राणा प्रताप की मानसिंह से भेंट== |
10:28, 4 मई 2013 का अवतरण
महाराणा प्रताप
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पूरा नाम | महाराणा प्रताप |
जन्म | 9 मई, 1540 ई. |
जन्म भूमि | राजस्थान, कुम्भलगढ़ |
मृत्यु तिथि | 29 जनवरी, 1597 ई. |
पिता/माता | (पिता) महाराणा उदयसिंह, (माता) राणी जीवत कँवर |
राज्य सीमा | मेवाड़ |
शासन काल | 1568–1597 ई. |
शा. अवधि | 29 वर्ष |
धार्मिक मान्यता | हिंदू धर्म |
युद्ध | हल्दीघाटी का युद्ध |
राजधानी | उदयपुर |
पूर्वाधिकारी | महाराणा उदयसिंह |
उत्तराधिकारी | राणा अमर सिंह |
राजघराना | राजपूताना |
अन्य जानकारी | महाराणा प्रताप के पास एक सबसे प्रिय घोड़ा था, जिसका नाम 'चेतक' था। |
महाराणा प्रताप (अंग्रेज़ी: Maharana Pratap, जन्म: 9 मई, 1540 ई, - मृत्यु: 29 जनवरी, 1597 ई.)[1] उदयपुर, मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा थे। वह तिथि धन्य है, जब मेवाड़ की शौर्य-भूमि पर मेवाड़-मुकुट मणि राणा प्रताप का जन्म हुआ। प्रताप का नाम इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर है। महाराणा प्रताप की जयंती विक्रमी सम्वत् कॅलण्डर के अनुसार प्रतिवर्ष ज्येष्ठ, शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाई जाती है।
जीवन परिचय
राजस्थान के कुम्भलगढ़ में प्रताप का जन्म महाराणा उदयसिंह एवं माता राणी जीवत कँवर के घर हुआ था। बप्पा रावल के कुल की अक्षुण्ण कीर्ति की उज्ज्वल पताका, राजपूतों की आन एवं शौर्य का यह पुण्य प्रतीक, राणा साँगा का वह पावन पौत्र (विक्रम संवत 1628 फाल्गुन शुक्ल 15) तारीख़ 1 मार्च सन 1573 ई. को सिंहासनासीन हुआ। शौर्य की मूर्ति प्रताप एकाकी थे। अपनी प्रजा के साथ और एकाकी ही उन्होंने जो धर्म एवं स्वाधीनता के लिये ज्योतिर्मय बलिदान किया, वह विश्व में सदा परतन्त्रता और अधर्म के विरुद्ध संग्राम करने वाले, मानधनी, गौरवशील मानवों के लिये मशाल सिद्ध होगा।
- 'धर्म रहेगा और पृथ्वी भी रहेगी, (पर) मुग़ल-साम्राज्य एक दिन नष्ट हो जायगा। अत: हे राणा! विश्वम्भर भगवान के भरोसे अपने निश्चय को अटल रखना।' - अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना[2]
- महाराणा का वह निश्चय लोकविश्रुत है - 'भगवान एकलिंग की शपथ है, प्रताप के इस मुख से अकबर तुर्क ही कहलायेगा। मैं शरीर रहते उसकी अधीनता स्वीकार करके उसे बादशाह नहीं कहूँगा। सूर्य जहाँ उगता है, वहाँ पूर्व में ही उगेगा। सूर्य के पश्चिम में उगने के समान प्रताप के मुख से अकबर को बादशाह निकलना असम्भव है।[3]
- सम्राट अकबर की कूटनीति व्यापक थी। राज्य को जिस प्रकार उन्होंने राजपूत नरेशों से सन्धि एवं वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा निर्भय एवं विस्तृत कर लिया था, धर्म के सम्बन्ध में भी वे अपने 'दीन-ए-इलाही' के द्वारा हिन्दू धर्म की श्रद्धा थकित करने के प्रयास में नहीं थे, कहना कठिन है। आज कोई कुछ कहे, किंतु उस युग में सच्ची राष्ट्रीयता थी। हिंदुत्व और उसकी उज्ज्वल ध्वजा, गर्वपूर्वक उठाने वाला एक ही अमर सेनानी था- प्रताप। अकबर का शक्ति सागर इस अरावली के शिखर से व्यर्थ ही टकराता रहा- नहीं झुका।
- अकबर के महासेनापति राजा मानसिंह, शोलापुर विजय करके लौट रहे थे। उदय सागर पर महाराणा ने उनके स्वागत का प्रबन्ध किया। हिन्दू नरेश के यहाँ भला अतिथि का सत्कार न होता, किंतु महाराणा प्रताप ऐसे राजपूत के साथ बैठकर भोजन कैसे कर सकते थे, जिसकी बुआ मुग़ल अन्त:पुर में हो। मानसिंह को बात समझने में कठिनाई नहीं हुई। अपमान से जले वे दिल्ली पहुँचे। उन्होंने सैन्य सज्जित करके चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया।
हल्दीघाटी
राजपूताने की पावन बलिदान-भूमि के समकक्ष, विश्व में इतना पवित्र बलिदान स्थल कोई नहीं। उस शौर्य एवं तेज़ की भव्य गाथा से इतिहास के पृष्ठ रंगे हैं। भीलों का अपने देश और नरेश के लिये वह अमर बलिदान राजपूत वीरों की वह तेजस्विता और महाराणा का वह लोकोत्तर पराक्रम इतिहास का, वीरकाव्य का परम उपजीव्य है। मेवाड़ के उष्ण रक्त ने श्रावण संवत 1633 विक्रमी में हल्दीघाटी का कण-कण लाल कर दिया। अपार शत्रु सेना के सम्मुख थोड़े-से राजपूत और भील सैनिक कब तक टिकते? महाराणा को पीछे हटना पड़ा और उनका प्रिय अश्व चेतक, जिसने उन्हें निरापद पहुँचाने में इतना श्रम किया कि अन्त में वह सदा के लिये अपने स्वामी के चरणों में गिर पड़ा।
दिल्ली का उत्तराधिकारी युवराज 'सलीम' (बाद में जहाँगीर) मुग़ल सेना के साथ युद्ध के लिए चढ़ आया। उसके साथ राजा मानसिंह और सागरजी का जातिभ्रष्ट पुत्र मोहबत ख़ाँ भी था। प्रताप ने अपने पर्वतों और बाईस हज़ार राजपूतों में विश्वास रखते हुए अकबर के पुत्र का सामना किया। अरावली के पश्चिम छोर तक शाही सेना को किसी प्रकार के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा, परन्तु इसके आगे का मार्ग प्रताप के नियन्त्रण में था।
प्रताप अपनी नई राजधानी के पश्चिम की ओर पहाड़ियों में आ डटे। इस इलाक़े की लम्बाई लगभग 80 मील (लगभग 128 कि.मी.) थी और इतनी ही चौड़ाई थी। सारा इलाक़ा पर्वतों और वनों से घिरा हुआ था। बीच-बीच में कई छोटी-छोटी नदियाँ बहती थीं। राजधानी की तरफ़ जाने वाले मार्ग इतने तंग और दुर्गम थे कि बड़ी कठिनाई से दो गाड़ियाँ आ-जा सकती थीं। उस स्थान का नाम हल्दीघाटी था, जिसके द्वार पर खड़े पर्वत को लाँघकर उसमें प्रवेश करना संकट को मोल लेना था। उनके साथ विश्वासी भील लोग भी धनुष और बाण लेकर डट गए। भीलों के पास बड़े-बड़े पत्थरों के ढेर पड़े थे। जैसे ही शत्रु सामने से आयेगा, वैसे ही पत्थरों को लुढ़काकर उनके सिर को तोड़ने की योजना थी।
प्रताप और जहाँगीर का संघर्ष
हल्दीघाटी के इस प्रवेश द्वार पर अपने चुने हुए सैनिकों के साथ प्रताप शत्रु की प्रतीक्षा करने लगे। दोनों ओर की सेनाओं का सामना होते ही भीषण रूप से युद्ध शुरू हो गया और दोनों तरफ़ के शूरवीर योद्धा घायल होकर ज़मीन पर गिरने लगे। प्रताप अपने घोड़े पर सवार होकर द्रुतगति से शत्रु की सेना के भीतर पहुँच गये और राजपूतों के शत्रु मानसिंह को खोजने लगे। वह तो नहीं मिला, परन्तु प्रताप उस जगह पर पहुँच गये, जहाँ पर 'सलीम' (जहाँगीर) अपने हाथी पर बैठा हुआ था। प्रताप की तलवार से सलीम के कई अंगरक्षक मारे गए और यदि प्रताप के भाले और सलीम के बीच में लोहे की मोटी चादर वाला हौदा नहीं होता तो अकबर अपने उत्तराधिकारी से हाथ धो बैठता। प्रताप के घोड़े चेतक ने अपने स्वामी की इच्छा को भाँपकर पूरा प्रयास किया और तमाम ऐतिहासिक चित्रों में सलीम के हाथी के सूँड़ पर चेतक का एक उठा हुआ पैर और प्रताप के भाले द्वारा महावत का छाती का छलनी होना अंकित किया गया है।[4] महावत के मारे जाने पर घायल हाथी सलीम सहित युद्ध भूमि से भाग खड़ा हुआ।
राजपूतों का बलिदान
इस समय युद्ध अत्यन्त भयानक हो उठा था। सलीम पर प्रताप के आक्रमण को देखकर असंख्य मुग़ल सैनिक उसी तरफ़ बढ़े और प्रताप को घेरकर चारों तरफ़ से प्रहार करने लगे। प्रताप के सिर पर मेवाड़ का राजमुकुट लगा हुआ था। इसलिए मुग़ल सैनिक उसी को निशाना बनाकर वार कर रहे थे। राजपूत सैनिक भी उसे बचाने के लिए प्राण हथेली पर रखकर संघर्ष कर रहे थे। परन्तु धीरे-धीरे प्रताप संकट में फँसता जा रहे थे। स्थिति की गम्भीरता को परखकर 'झाला सरदार' ने स्वामिभक्ति का एक अपूर्व आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। झाला सरदार 'मन्नाजी' तेज़ी के साथ आगे बढ़ा और प्रताप के सिर से मुकुट उतार कर अपने सिर पर रख लिया और तेज़ी के साथ कुछ दूरी पर जाकर घमासान युद्ध करने लगा। मुग़ल सैनिक उसे ही प्रताप समझकर उस पर टूट पड़े और प्रताप को युद्ध भूमि से दूर निकल जाने का अवसर मिल गया। उसका सारा शरीर अगणित घावों से लहूलुहान हो चुका था। युद्धभूमि से जाते-जाते प्रताप ने मन्नाजी को मरते देखा। राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुग़लों का मुक़ाबला किया, परन्तु मैदानी तोपों तथा बन्दूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने समूचा पराक्रम निष्फल रहा। युद्धभूमि पर उपस्थित बाईस हज़ार राजपूत सैनिकों में से केवल आठ हज़ार जीवित सैनिक युद्धभूमि से किसी प्रकार बचकर निकल पाये।
वनवास
महाराणा प्रताप चित्तौड़ छोड़कर वनवासी हो गए। महाराणी, सुकुमार राजकुमारी और कुमार घास की रोटियों और निर्झर के जल पर ही किसी प्रकार जीवन व्यतीत करने को बाध्य हुए। अरावली की गुफ़ाएँ ही अब उनका आवास थीं और शिला ही शैय्या थी। दिल्ली का सम्राट सादर सेनापतित्व देने को प्रस्तुत था। उससे भी अधिक वह केवल यह चाहता था कि प्रताप मुग़लों की अधीनता स्वीकार कर लें और उसका दम्भ सफल हो जाय। हिंदुत्व पर 'दीन-ए-इलाही' स्वयं विजयी हो जाता। प्रताप राजपूत की आन का वह सम्राट, हिंदुत्व का वह गौरव-सूर्य इस संकट, त्याग, तप में अम्लान रहा, अडिंग रहा। धर्म के लिये, आन के लिये यह तपस्या अकल्पित है। कहते हैं महाराणा ने अकबर को एक बार सन्धि-पत्र भेजा था, पर इतिहासकार इसे सत्य नहीं मानते। यह अबुल फ़ज़ल की मात्र एक गढ़ी हुई कहानी भर है। अकल्पित सहायता मिली, मेवाड़ के गौरव भामाशाह ने महाराणा के चरणों में अपनी समस्त सम्पत्ति रख दी। महाराणा इस प्रचुर सम्पत्ति से पुन: सैन्य-संगठन में लग गये। चित्तौड़ को छोड़कर महाराणा ने अपने समस्त दुर्गों का शत्रु से उद्धार कर लिया। उदयपुर उनकी राजधानी बना। अपने 24 वर्षों के शासन काल में उन्होंने मेवाड़ की केसरिया पताका सदा ऊँची रखी।
पराक्रमी चेतक
महाराणा प्रताप का सबसे प्रिय घोड़ा 'चेतक' था। हल्दीघाटी के युद्ध में बिना किसी सहायक के प्रताप अपने पराक्रमी चेतक पर सवार हो पहाड़ की ओर चल पडे। उसके पीछे दो मुग़ल सैनिक लगे हुए थे, परन्तु चेतक ने प्रताप को बचा लिया। रास्ते में एक पहाड़ी नाला बह रहा था। घायल चेतक फुर्ती से उसे लाँघ गया, परन्तु मुग़ल उसे पार न कर पाये। चेतक, नाला तो लाँघ गया, पर अब उसकी गति धीरे-धीरे कम होती गई और पीछे से मुग़लों के घोड़ों की टापें भी सुनाई पड़ीं। उसी समय प्रताप को अपनी मातृभाषा में आवाज़ सुनाई पड़ी, "हो, नीला घोड़ा रा असवार।" प्रताप ने पीछे मुड़कर देखा तो उसे एक ही अश्वारोही दिखाई पड़ा और वह था, उसका भाई शक्तिसिंह। प्रताप के साथ व्यक्तिगत विरोध ने उसे देशद्रोही बनाकर अकबर का सेवक बना दिया था और युद्धस्थल पर वह मुग़ल पक्ष की तरफ़ से लड़ रहा था। जब उसने नीले घोड़े को बिना किसी सेवक के पहाड़ की तरफ़ जाते हुए देखा तो वह भी चुपचाप उसके पीछे चल पड़ा, परन्तु केवल दोनों मुग़लों को यमलोक पहुँचाने के लिए।
शक्तिसिंह द्वारा राणा प्रताप की सुरक्षा
जीवन में पहली बार दोनों भाई प्रेम के साथ गले मिले। इस बीच चेतक ज़मीन पर गिर पड़ा और जब प्रताप उसकी काठी को खोलकर अपने भाई द्वारा प्रस्तुत घोड़े पर रख रहा था, चेतक ने प्राण त्याग दिए। बाद में उस स्थान पर एक चबूतरा खड़ा किया गया, जो आज तक उस स्थान को इंगित करता है, जहाँ पर चेतक मरा था। प्रताप को विदा करके शक्तिसिंह खुरासानी सैनिक के घोड़े पर सवार होकर वापस लौट आया। सलीम को उस पर कुछ सन्देह पैदा हुआ। जब शक्तिसिंह ने कहा कि प्रताप ने न केवल पीछा करने वाले दोनों मुग़ल सैनिकों को मार डाला अपितु मेरा घोड़ा भी छीन लिया। इसलिए मुझे खुरासानी सैनिक के घोड़े पर सवार होकर आना पड़ा। सलीम ने वचन दिया कि अगर तुम सत्य बात कह दोगे तो मैं तुम्हें क्षमा कर दूँगा। तब शक्तिसिंह ने कहा, "मेरे भाई के कन्धों पर मेवाड़ राज्य का बोझा है। इस संकट के समय उसकी सहायता किए बिना मैं कैसे रह सकता था।" सलीम ने अपना वचन निभाया, परन्तु शक्तिसिंह को अपनी सेवा से हटा दिया। राणा प्रताप की सेवा में पहुँचकर उसे अच्छी नज़र भेंट की जा सके, इस ध्येय से उसने भिनसोर नामक दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। उदयपुर पहुँचकर उस दुर्ग को भेंट में देते हुए शक्तिसिंह ने प्रताप का अभिवादन किया। प्रताप ने प्रसन्न होकर वह दुर्ग शक्तिसिंह को पुरस्कार में दे दिया। यह दुर्ग लम्बे समय तक उसके वंशजों के अधिकार में बना रहा।[5] संवत 1632 (जुलाई, 1576 ई.) के सावन मास की सप्तमी का दिन मेवाड़ के इतिहास में सदा स्मरणीय रहेगा। उस दिन मेवाड़ के अच्छे रुधिर ने हल्दीघाटी को सींचा था। प्रताप के अत्यन्त निकटवर्ती पाँच सौ कुटुम्बी और सम्बन्धी, ग्वालियर का भूतपूर्व राजा रामशाह और साढ़े तीन सौ तोमर वीरों के साथ रामशाह का बेटा खाण्डेराव मारा गया। स्वामिभक्त झाला मन्नाजी अपने डेढ़ सौ सरदारों सहित मारा गया और मेवाड़ के प्रत्येक घर ने बलिदान किया।
महाराणा की प्रतिज्ञा
प्रताप को अभूतपूर्व समर्थन मिला। यद्यपि धन और उज्ज्वल भविष्य ने उसके सरदारों को काफ़ी प्रलोभन दिया, परन्तु किसी ने भी उसका साथ नहीं छोड़ा। जयमल के पुत्रों ने उसके कार्य के लिये अपना रक्त बहाया। पत्ता के वंशधरों ने भी ऐसा ही किया और सलूम्बर के कुल वालों ने भी चूण्डा की स्वामिभक्ति को जीवित रखा। इनकी वीरता और स्वार्थ-त्याग का वृत्तान्त मेवाड़ के इतिहास में अत्यन्त गौरवमय समझा जाता है। उसने प्रतिज्ञा की थी कि वह 'माता के पवित्र दूध को कभी कलंकित नहीं करेगा।' इस प्रतिज्ञा का पालन उसने पूरी तरह से किया। कभी मैदानी प्रदेशों पर धावा मारकर जन-स्थानों को उजाड़ना तो कभी एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर भागना और इस विपत्ति काल में अपने परिवार का पर्वतीय कन्दमूल-फल द्वारा भरण-पोषण करना और अपने पुत्र 'अमर' का जंगली जानवरों और जंगली लोगों के मध्य पालन करना, अत्यन्त कष्टप्राय कार्य था। इन सबके पीछे मूल मंत्र यही था कि बप्पा रावल का वंशज किसी शत्रु अथवा देशद्रोही के सम्मुख शीश झुकाये, यह असम्भव बात थी। क़ायरों के योग्य इस पापमय विचार से ही प्रताप का हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता था। तातार वालों को अपनी बहन-बेटी समर्पण कर अनुग्रह प्राप्त करना, प्रताप को किसी भी दशा में स्वीकार्य न था। 'चित्तौड़ के उद्धार से पूर्व पात्र में भोजन, शैय्या पर शयन दोनों मेरे लिये वर्जित रहेंगे।' महाराणा की प्रतिज्ञा अक्षुण्ण रही और जब वे (विक्रम संवत 1653 माघ शुक्ल 11) तारीख़ 29 जनवरी सन 1597 ई. में परमधाम की यात्रा करने लगे, उनके परिजनों और सामन्तों ने वही प्रतिज्ञा करके उन्हें आश्वस्त किया। अरावली के कण-कण में महाराणा का जीवन-चरित्र अंकित है। शताब्दियों तक पतितों, पराधीनों और उत्पीड़ितों के लिये वह प्रकाश का काम देगा। चित्तौड़ की उस पवित्र भूमि में युगों तक मानव स्वराज्य एवं स्वधर्म का अमर सन्देश झंकृत होता रहेगा।
माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप।
अकबर सूतो ओधकै, जाण सिराणै साप॥
कठोर जीवन निर्वाह
चित्तौड़ के विध्वंस और उसकी दीन दशा को देखकर भट्ट कवियों ने उसको आभूषण रहित विधवा स्त्री की उपमा दी है। प्रताप ने अपनी जन्मभूमि की इस दशा को देखकर सब प्रकार के भोग-विलास को त्याग दिया। भोजन-पान के समय काम में लिये जाने वाले सोने-चाँदी के बर्तनों को त्यागकर वृक्षों के पत्तों को काम में लिया जाने लगा। कोमल शय्या को छोड़ तृण शय्या का उपयोग किया जाने लगा। उसने अकेले ही इस कठिन मार्ग को अपनाया ही नहीं अपितु अपने वंश वालों के लिये भी इस कठोर नियम का पालन करने के लिये आज्ञा दी थी कि "जब तक चित्तौड़ का उद्धार न हो, तब तक सिसोदिया राजपूतों को सभी सुख त्याग देने चाहिए।" चित्तौड़ की मौजूदा दुर्दशा सभी लोगों के हृदय में अंकित हो जाय, इस दृष्टि से उसने यह आदेश भी दिया कि युद्ध के लिये प्रस्थान करते समय जो नगाड़े सेना के आगे-आगे बजाये जाते थे, वे अब सेना के पीछे बजाये जायें। इस आदेश का पालन आज तक किया जा रहा है और युद्ध के नगाड़े सेना के पिछले भाग के साथ ही चलते हैं।
राणा साँगा नेता के रूप में
प्रताप को प्रायः यह कहते सुना गया कि "यदि उदयसिंह पैदा न होते अथवा संग्राम सिंह और उनके बीच में कोई सिसोदिया कुल में उत्पन्न न होता तो कोई भी तुर्क राजस्थान पर अपना नियम लागू न कर पाता।" सौ वर्ष के बीच में हिन्दू जाति का एक नया चित्र दिखलाई देता है। गंगा और यमुना का मध्यवर्ती देश अपने विध्वंस को भुलाकर एक नवीन बल से बलवान होकर धीरे-धीरे अपना मस्तक उठा रहा था। आमेर और मारवाड़ इतने बलवान हो गये थे कि अकेले मारवाड़ ने ही सम्राट शेरशाह के विरुद्ध संघर्ष किया था और चम्बल नदी के दोनों किनारों पर अनेक छोटे-छोटे राज्य बल संग्रह करके उन्नति की ओर बढ़ रहे थे। कमी थी तो केवल एक ऐसे नेता की जो उन सब शक्तियों को संगठित करके मुसलमानों की सत्ता को छीन सके। ऐसा नेता उन्हें राणा साँगा के रूप में मिला था। हिमालय से लेकर रामेश्वर तक सब ने ही साँगा के गुणों की प्रशंसा की थी। साँगा के स्वर्ग सिधारने के पश्चात जातीय जीवन धीरे-धीरे नष्ट होता गया और हिन्दू लोग अपने पैतृक राज्य से हाथ धो बैठे। यदि साँगा के पीछे उदयसिंह का जन्म न होता अथवा अकबर की अपेक्षा कम समर्थ वाले मुस्लिम के हाथ में भारत का शासन होता तो भारत की ऐसी दुर्दशा कभी न होती।
महाराणा द्वारा तैयार ढाँचा
अपने कुछ अनुभवी और बुद्धिमान सरदारों की सहायता से प्रताप ने सीमित साधनों और समय की आवश्यकता को समझते हुए अपनी सरकार का नया ढाँचा निर्मित किया। आवश्यक सैनिक सेवा की स्पष्ट व्याख्या के साथ नई-नई जागीरें प्रदान की गईं। सरकार के मौजूदा केन्द्र कमलमीर की सुरक्षा को मज़बूत बनाया गया तथा गोगुन्दा और अन्य पर्वतीय दुर्गों की मरम्मत की गई। मेवाड़ के समतल मैदान की रक्षा करने में असमर्थ प्रताप ने अपने पूर्वजों की नीति का अनुसरण करते हुए दुर्गम पहाड़ी स्थानों में अपने मोर्चे क़ायम किए तथा मैदानी क्षेत्रों के लोगों को परिवार सहित पर्वतों में आश्रय लेने को कहा गया। ऐसा न करने वालों को प्राणदण्ड देने की घोषणा की गई। कुछ ही दिनों में बनास और बेड़स नदियों के सिंचित क्षेत्र भी सूने हो गये अर्थात् "बे-चिराग़" हो गए। प्रताप ने अपनी प्रजा को कठोरता के साथ अपने आदेशों का पालन करने के लिए विवश कर दिया था। उसकी आज्ञा के फलस्वरूप मेवाड़ की सुन्दर भूमि श्मशान के समान हो गई और उस पर यवनों के दाँत पड़ने की कोई आशंका न रही। उस समय यूरोप के साथ मुग़लों का व्यापार-वाणिज्य मेवाड़ के भीतर होकर सूरत या किसी और बन्दरगाह से होता था। प्रताप तथा उसके सरदार अवसर पाकर उस समस्त सामग्री को लूटने लगे।
राणा प्रताप और अकबर
अजमेर को अपना केन्द्र बनाकर अकबर ने प्रताप के विरुद्ध सैनिक अभियान शुरू कर दिया। मारवाड़ का मालदेव, जिसने शेरशाह का प्रबल विरोध किया था, मेड़ता और जोधपुर में असफल प्रतिरोध के बाद आमेर के भगवान दास के समान ही अकबर की शरण में चला गया।[6] उसने अपने पुत्र उदयसिंह को अकबर की सेवा में भेजा। अकबर ने अजमेर की तरफ़ जाते हुए नागौर में उससे मुलाक़ात की और इस अवसर पर मंडौर के राव को 'राजा' की उपाधि प्रदान की।[7]उसका उत्तराधिकारी उदयसिंह स्थूल शरीर का था, अतः आगे चलकर वह राजस्थान के इतिहास में मोटा राजा के नाम से विख्यात हुआ। इस समय से कन्नौज के वंशज मुग़ल बादशाह के 'दाहिने हाथ' पर स्थान पाने लगे। परन्तु अपनी कुल मर्यादा की बलि देकर मारवाड़ नरेश ने जिस सम्मान को प्राप्त किया था, वह सम्मान क्या मारवाड़ के राजा के सन्तान की ऊँचे सम्मान की बराबरी कर सकता है।
उदयसिंह द्वारा मुग़लों से विवाह सम्बन्ध
मोटा राजा उदयसिंह पहला व्यक्ति था, जिसने अपनी कुल की पहली कन्या का विवाह तातार से किया था।[8] इस सम्बन्ध के लिए जो घूस ली गई वह महत्त्वपूर्ण थी। उसे चार समृद्ध परगने प्राप्त हुए। इनकी सालाना आमदनी बीस लाख रुपये थी। इन परगनों के प्राप्त हो जाने से मारवाड़ राज्य की आय दुगुनी हो गई। आमेर और मारवाड़ जैसे उदाहरणों की मौजूदगी में और प्रलोभन का विरोध करने की शक्ति की कमी के कारण, राजस्थान के छोटे राजा लोग अपने असंख्य पराक्रमी सरदारों के साथ दिल्ली के सामंतों में परिवर्तित हो गए और इस परिवर्तन के कारण उनमें से बहुत से लोगों का महत्त्व भी बढ़ गया। मुग़ल इतिहासकारों ने सत्य ही लिखा है कि वे 'सिंहासन के स्तम्भ और अलंकार के स्वरूप थे।' परन्तु उपर्युक्त सभी बातें प्रताप के विरुद्ध भयजनक थीं। उसके देशवासियों के शस्त्र अब उसी के विरुद्ध उठ रहे थे। अपनी मान-मर्यादा बेचने वाले राजाओं से यह बात सही नहीं जा रही थी कि प्रताप गौरव के ऊँचे आसमान पर विराजमान रहे। इस बात का विचार करके ही उनके हृदय में डाह की प्रबल आग जलने लगी। प्रताप ने उन समस्त राजाओं (बूँदी के अलावा) से अपना सम्बन्ध छोड़ दिया, जो मुसलमानों से मिल गए थे।
वैवाहिक संबंधों पर रोक
सिसोदिया वंश के किसी शासक ने अपनी कन्या मुग़लों को नहीं दी। इतना ही नहीं, उन्होंने लम्बे समय तक उन राजवंशों को भी अपनी कन्याएँ नहीं दीं, जिन्होंने मुग़लों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध क़ायम किये थे। इससे उन राजाओं को काफ़ी आघात पहुँचा। इसकी पुष्टि मारवाड़ और आमेर के राजाओं, बख़्त सिंह और जयसिंह के पुत्रों से होती है। दोनों ही शासकों ने मेवाड़ के सिसोदिया वंश के साथ वैवाहिक सम्बन्धों को पुनः स्थापित करने का अनुरोध किया था। लगभग एक शताब्दी के बाद उनका अनुरोध स्वीकार किया गया और वह भी इस शर्त के साथ कि मेवाड़ की राजकन्या के गर्भ से उत्पन्न होने वाला पुत्र ही सम्बन्धित राजा का उत्तराधिकारी होगा। सिसोदिया घराने ने अपने रक्त की पवित्रता को बनाये रखने के लिए जो क़दम उठाये गए, उनमें से एक का उल्लेख करना आवश्यक है, क्योंकि उस घटना ने आने वाली घटनाओं को काफ़ी प्रभावित किया है। आमेर का राजा मानसिंह अपने वंश का अत्यधिक प्रसिद्ध राजा था और उसके समय से ही उसके राज्य की उन्नति आरम्भ हुई थी। अकबर उसका फूफ़ा था। वैसे मानसिंह एक साहसी, चतुर और रणविशारद् सेनानायक था और अकबर की सफलताओं में आधा योगदान भी रहा था, परन्तु पारिवारिक सम्बन्ध तथा अकबर की विशेष कृपा से वह मुग़ल साम्राज्य का महत्त्वपूर्ण सेनापित बन गया था। कच्छवाह भट्टकवियों ने उसके शौर्य तथा उसकी उपलब्धियों का तेजस्विनी भाषा में उल्लेख किया है।
हल्दीघाटी युद्ध
हल्दीघाटी का युद्ध अकबर और महाराणा प्रताप के बीच 18 जून, 1576 ई. को हुआ। इससे पूर्व अकबर ने 1541 ई. में मेवाड़ पर आक्रमण कर चित्तौड़ को घेर लिया था, किंतु राणा उदयसिंह ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की थी। उदयसिंह प्राचीन आधाटपुर के पास उदयपुर नामक अपनी राजधानी बसाकर वहाँ चला गया। उनके बाद महाराणा प्रताप ने भी अकबर से युद्ध जारी रखा। उनका 'हल्दीघाटी का युद्ध' इतिहास प्रसिद्ध है। अकबर ने मेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए अप्रैल, 1576 ई. में आमेर के राजा मानसिंह एवं आसफ ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को आक्रमण के लिए भेजा। दोनों सेनाओं के मध्य गोगुडा के निकट अरावली पर्वत की 'हल्दीघाटी' शाखा के मध्य युद्ध हुआ। इस युद्ध में राणा प्रताप पराजित हुए। लड़ाई के दौरान अकबर ने कुम्भलमेर दुर्ग से भी महाराणा प्रताप को खदेड़ दिया तथा मेवाड़ पर अनेक आक्रमण करवाये। इस पर भी राणा प्रताप ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की। बाद के कुछ वर्षों में जब अकबर का ध्यान दूसरे कामों में लगा गया, तब प्रताप ने अपने स्थानों पर फिर अधिकार कर लिया था। सन् 1597 में चावंड में उनकी मृत्यु हो गई थी।
राणा प्रताप की मानसिंह से भेंट
शोलापुर की विजय के बाद मानसिंह वापस हिन्दुस्तान लौट रहा था तो उसने राणा प्रताप से, जो इन दिनों कमलमीर में था, मिलने की इच्छा प्रकट की। प्रताप उसका स्वागत करने के लिए उदयसागर तक आया। इस झील के सामने वाले टीले पर आमेर के राजा के लिए दावत की व्यवस्था की गई थी। भोजन तैयार हो जाने पर मानसिंह को बुलावा भेजा गया। राजकुमार अमरसिंह को अतिथि की सेवा के लिए नियुक्त किया गया था। राणा प्रताप अनुपस्थित थे। मानसिंह के पूछने पर अमरसिंह ने बताया कि राणा को सिरदर्द है, वे नहीं आ पायेंगे। आप भोजन करके विश्राम करें। मानसिंह ने गर्व के साथ सम्मानित स्वर में कहा कि "राणा जी से कहो कि उनके सिर दर्द का यथार्थ कारण समझ गया हूँ। जो कुछ होना था, वह तो हो गया और उसको सुधारने का कोई उपाय नहीं है, फिर भी यदि वे मुझे खाना नहीं परोसेंगे तो और कौन परोसेगा।" मानसिंह ने राणा के बिना भोजन स्वीकार नहीं किया। तब प्रताप ने उसे कहला भेजा कि "जिस राजपूत ने अपनी बहन तुर्क को दी हो, उसके साथ कौन राजपूत भोजन करेगा।"
राजा मानसिंह ने इस अपमान को आहूत करने में बुद्धिमता नहीं दिखाई थी। यदि प्रताप की तरफ़ से उसे निमंत्रित किया गया होता, तब तो उसका विचार उचित माना जा सकता था, परन्तु इसके लिए प्रताप को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। मानसिंह ने भोजन को छुआ तक नहीं, केवल चावल के कुछ कणों को जो अन्न देवता को अर्पण किए थे, उन्हें अपनी पगड़ी में रखकर वहाँ से चला गया। जाते समय उसने कहा, "आपकी ही मान-मर्यादा बचाने के लिए हमने अपनी मर्यादा को खोकर मुग़लों को अपनी बहिन-बेटियाँ दीं। इस पर भी जब आप में और हम में विषमता रही, तो आपकी स्थिति में भी कमी आयेगी। यदि आपकी इच्छा सदा ही विपत्ति में रहने की है, तो यह अभिप्राय शीघ्र ही पूरा होगा। यह देश हृदय से आपको धारण नहीं करेगा।" अपने घोड़े पर सवार होकर मानसिंह ने राणा प्रताप, जो इस समय आ पहुँचे थे, को कठोर दृष्टि से निहारते हुए कहा, "यदि मैं तुम्हारा यह मान चूर्ण न कर दूँ तो मेरा नाम मानसिंह नहीं।"
प्रताप ने उत्तर दिया कि "आपसे मिलकर मुझे खुशी होगी।" वहाँ पर उपस्थित किसी व्यक्ति ने अभद्र भाषा में कह दिया कि "अपने साथ फूफ़ा को लाना मत भूलना।" जिस स्थान पर मानसिंह के लिए भोजन सजाया गया था, उसे अपवित्र हुआ मानकर खोद दिया गया और फिर वहाँ गंगा का जल छिड़का गया और जिन सरदारों एवं राजपूतों ने अपमान का यह दृश्य देखा था, उन सभी ने अपने को मानसिंह का दर्शन करने से पतित समझकर स्नान किया तथा वस्त्रादि बदले।[9]मुग़ल सम्राट को सम्पूर्ण वृत्तान्त की सूचना दी गई। उसने मानसिंह के अपमान को अपना अपमान समझा। अकबर ने समझा था कि राजपूत अपने पुराने संस्कारों को छोड़ बैठे होंगे, परन्तु यह उसकी भूल थी। इस अपमान का बदला लेने के लिए युद्ध की तैयारी की गई और इन युद्धों ने प्रताप का नाम अमर कर दिया। पहला युद्ध हल्दीघाटी के नाम से प्रसिद्ध है। जब तक मेवाड़ पर किसी सिसोदिया का अधिकार रहेगा अथवा कोई भट्टकवि जीवित रहेगा, तब तक हल्दीघाटी का नाम कोई भुला नहीं सकेगा।
कमलमीर का युद्ध
विजय से प्रसन्न सलीम पहाड़ियों से लौट गया, क्योंकि वर्षा ऋतु के आगमन से आगे बढ़ना सम्भव न था। इससे प्रताप को कुछ राहत मिली। परन्तु कुछ समय बाद शत्रु पुनः चढ़ आया और प्रताप को एक बार पुनः पराजित होना पड़ा। तब प्रताप ने कमलमीर को अपना केन्द्र बनाया। मुग़ल सेनानायकों कोका और शाहबाज ख़ाँ ने इस स्थान को भी घेर लिया। प्रताप ने जमकर मुक़ाबला किया और तब तक इस स्थान को नहीं छोड़ा, जब तक पानी के विशाल स्रोत नोगन के कुँए का पानी विषाक्त नहीं कर दिया गया। ऐसे घृणित विश्वासघात का श्रेय आबू के देवड़ा सरदार को जाता है, जो इस समय अकबर के साथ मिला हुआ था। कमलमीर से प्रताप चावंड चला गया और सोनगरे सरदार भान ने अपनी मृत्यु तक कमलमीर की रक्षा की। कमलमीर के पतन के बाद राजा मानसिंह ने धरमेती और गोगुन्दा के दुर्गों पर भी अधिकार कर लिया। इसी अवधि में मोहब्बत ख़ाँ ने उदयपुर पर अधिकार कर लिया और अमीशाह नामक एक मुग़ल शाहज़ादा ने चावंड और अगुणा पानोर के मध्यवर्ती क्षेत्र में पड़ाव डाल कर यहाँ के भीलों से प्रताप को मिलने वाली सहायता रोक दी। फ़रीद ख़ाँ नामक एक अन्य मुग़ल सेनापति ने छप्पन पर आक्रमण किया और दक्षिण की तरफ़ से चावंड को घेर लिया। इस प्रकार प्रताप चारों तरफ़ से शत्रुओं से घिर गया और बचने की कोई उम्मीद न थी। वह रोज़ाना एक स्थान से दूसरे स्थान, एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी के गुप्त स्थानों में छिपता रहता और अवसर मिलने पर शत्रु पर आक्रमण करने से भी न चूकता। फ़रीद ने प्रताप को पकड़ने के लिए चारों तरफ़ अपने सैनिकों का जाल बिछा दिया, परन्तु प्रताप की छापामार पद्धति ने असंख्य मुग़ल सैनिकों को मौत के घाट पहुँचा दिया। वर्षा ऋतु ने पहाड़ी नदियों और नालों को पानी से भर दिया, जिसकी वजह से आने जाने के मार्ग अवरुद्ध हो गए। परिणामस्वरूप मुग़लों के आक्रमण स्थगित हो गए।
परिवार की सुरक्षा
इस प्रकार समय गुज़रता गया और प्रताप की कठिनाइयाँ भयंकर बनती गईं। पर्वत के जितने भी स्थान प्रताप और उसके परिवार को आश्रय प्रदान कर सकते थे, उन सभी पर बादशाह का आधिकार हो गया। राणा को अपनी चिन्ता न थी, चिन्ता थी तो बस अपने परिवार की ओर से छोटे-छोटे बच्चों की। वह किसी भी दिन शत्रु के हाथ में पड़ सकते थे। एक दिन तो उसका परिवार शत्रुओं के पँन्जे में पहुँच गया था, परन्तु कावा के स्वामीभक्त भीलों ने उसे बचा लिया। भील लोग राणा के बच्चों को टोकरों में छिपाकर जावरा की खानों में ले गये और कई दिनों तक वहीं पर उनका पालन-पोषण किया। भील लोग स्वयं भूखे रहकर भी राणा और परिवार के लिए खाने की सामग्री जुटाते रहते थे। जावरा और चावंड के घने जंगल के वृक्षों पर लोहे के बड़े-बड़े कीले अब तक गड़े हुए मिलते हैं। इन कीलों में बेतों के बड़े-बड़े टोकरे टाँग कर उनमें राणा के बच्चों को छिपाकर वे भील राणा की सहायता करते थे। इससे बच्चे पहाड़ों के जंगली जानवरों से भी सुरक्षित रहते थे। इस प्रकार की विषम परिस्थिति में भी प्रताप का विश्वास नहीं डिगा।
अकबर द्वारा प्रशंसा
अकबर ने भी इन समाचारों को सुना और पता लगाने के लिए अपना एक गुप्तचर भेजा। वह किसी तरक़ीब से उस स्थान पर पहुँच गया, जहाँ राणा और उसके सरदार एक घने जंगल के मध्य एक वृक्ष के नीचे घास पर बैठे भोजन कर रहे थे। खाने में जंगली फल, पत्तियाँ और जड़ें थीं। परन्तु सभी लोग उस खाने को उसी उत्साह के साथ खा रहे थे, जिस प्रकार कोई राजभवन में बने भोजन को प्रसन्नता और उमंग के साथ खाता हो। गुप्तचर ने किसी चेहरे पर उदासी और चिन्ता नहीं देखी। उसने वापस आकर अकबर को पूरा वृत्तान्त सुनाया। सुनकर अकबर का हृदय भी पसीज गया और प्रताप के प्रति उसमें मानवीय भावना जागृत हुई। उसने अपने दरबार के अनेक सरदारों से प्रताप के तप, त्याग और बलिदान की प्रशंसा की। अकबर के विश्वासपात्र सरदार अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना ने भी अकबर के मुख से प्रताप की प्रशंसा सुनी थी। उसने अपनी भाषा में लिखा, "इस संसार में सभी नाशवान हैं। राज्य और धन किसी भी समय नष्ट हो सकता है, परन्तु महान व्यक्तियों की ख्याति कभी नष्ट नहीं हो सकती। पुत्तों ने धन और भूमि को छोड़ दिया, परन्तु उसने कभी अपना सिर नहीं झुकाया। हिन्द के राजाओं में वही एकमात्र ऐसा राजा है, जिसने अपनी जाति के गौरव को बनाए रखा है।"
परन्तु कभी-कभी ऐसे अवसर आ उपस्थित होते, जब अपने प्राणों से भी प्यारे लोगों को भयानक आवाज़ से ग्रस्त देखकर वह भयभीत हो उठता। उसकी पत्नी किसी पहाड़ी या गुफ़ा में भी असुरक्षित थी और उसके उत्तराधिकारी, जिन्हें हर प्रकार की सुविधाओं का अधिकार था, भूख से बिलखते उसके पास आकर रोने लगते। मुग़ल सैनिक इस प्रकार उसके पीछे पड़ गए थे कि भोजन तैयार होने पर कभी-कभी खाने का अवसर न मिलता था और सुरक्षा के लिए भोजन छोड़कर भागना पड़ता था। एक दिन तो पाँच बार भोजन पकाया गया और हर बार भोजन को छोड़कर भागना पड़ा। एक अवसर पर प्रताप की पत्नी और उसकी पुत्र-वधु ने घास के बीजों को पीसकर कुछ रोटियाँ बनाई। उनमें से आधी रोटियाँ बच्चों को दे दी गई और बची हुई आधी रोटियाँ दूसरे दिन के लिए रख दी गईं। इसी समय प्रताप को अपनी लड़की की चिल्लाहट सुनाई दी। एक जंगली बिल्ली लड़की के हाथ से उसके हिस्से की रोटी को छीनकर भाग गई और भूख से व्याकुल लड़की के आँसू टपक आये।[10] जीवन की इस दुरावस्था को देखकर राणा का हृदय एक बार विचलित हो उठा। अधीर होकर उसने ऐसे राज्याधिकार को धिक्कारा, जिसकी वज़ह से जीवन में ऐसे करुण दृश्य देखने पड़े और उसी अवस्था में अपनी कठिनाइयों को दूर करने के लिए उसने एक पत्र के द्वारा अकबर से मिलने की माँग की।
पृथ्वीराज द्वारा प्रताप का स्वाभिमान जाग्रत करना
प्रताप के पत्र को पाकर अकबर की प्रसन्नता की सीमा न रही। उसने इसका अर्थ प्रताप का आत्मसमर्पण समझा और उसने कई प्रकार के सार्वजनिक उत्सव किए। अकबर ने उस पत्र को पृथ्वीराज नामक एक श्रेष्ठ एवं स्वाभीमानी राजपूत को दिखलाया। पृथ्वीराज बीकानेर के नरेश का छोटा भाई था। बीकानेर नरेश ने मुग़ल सत्ता के सामने शीश झुका दिया था। पृथ्वीराज केवल वीर ही नहीं अपितु एक योग्य कवि भी था। वह अपनी कविता से मनुष्य के हृदय को उन्मादित कर देता था। वह सदा से प्रताप की आराधना करता आया था। प्रताप के पत्र को पढ़कर उसका मस्तक चकराने लगा। उसके हृदय में भीषण पीड़ा की अनुभूति हुई। फिर भी अपने मनोभावों पर अंकुश रखते हुए उसने अकबर से कहा कि "यह पत्र प्रताप का नहीं है। किसी शत्रु ने प्रताप के यश के साथ यह जालसाज़ की है। आपको भी धोखा दिया है। आपके ताज़ के बदले में भी वह आपकी आधीनता स्वीकार नहीं करेगा।" सच्चाई को जानने के लिए उसने अकबर से अनुरोध किया कि वह उसका पत्र प्रताप तक पहुँचा दे। अकबर ने उसकी बात मान ली और पृथ्वीराज ने राजस्थानी शैली में प्रताप को एक पत्र लिख भेजा। अकबर ने सोचा कि इस पत्र से असलियत का पता चल जायेगा और पत्र था भी ऐसा ही। परन्तु पृथ्वीराज ने उस पत्र के द्वारा प्रताप को उस स्वाभीमान का स्मरण कराया, जिसकी खातिर उसने अब तक इतनी विपत्तियों को सहन किया था और अपूर्व त्याग व बलिदान के द्वारा अपना मस्तक ऊँचा रखा था। पत्र में इस बात का भी उल्लेख था कि हमारे घरों की स्त्रियों की मर्यादा छिन्न-भिन्न हो गई है और बाज़ार में वह मर्यादा बेची जा रही है। उसका ख़रीददार केवल अकबर है। उसने सिसोदिया वंश के एक स्वाभिमानी पुत्र को छोड़कर सबको ख़रीद लिया है, परन्तु प्रताप को नहीं ख़रीद पाया है। वह ऐसा राजपूत नहीं, जो नौरोजा के लिए अपनी मर्यादा का परित्याग कर सकता है। क्या अब चित्तौड़ का स्वाभिमान भी इस बाज़ार में बिक़ेगा।[11]
खुशरोज़ त्योहार
राठौर पृथ्वीराज के ओजस्वी पत्र ने प्रताप के मन की निराशा को दूर कर दिया और उसे लगा जैसे दस हज़ार राजपूतों की शक्ति उसके शरीर में समा गई हो। उसने अपने स्वाभिमान को क़ायम रखने का दृढ़संकल्प कर लिया। पृथ्वीराज के पत्र में "नौरोजा के लिए मर्यादा का सौदा" करने की बात कही गई। इसका स्पष्टीकरण देना आवश्यक है। 'नौरोजा' का अर्थ "वर्ष का नया दिन" होता है और पूर्व के मुसलमानों का यह धार्मिक त्योहार है। अकबर ने स्वयं इसकी प्रतिष्ठा की और इसका नाम रखा "खुशरोज़" अर्थात् 'खुशी का दिन' और इसकी शुरुआत अकबर ने ही की थी। इस अवसर पर सभी लोग उत्सव मनाते और राजदरबार में भी कई प्रकार के आयोजन किए जाते थे। इस प्रकार के आयोजनों में एक प्रमुख आयोजन स्त्रियों का मेला था। एक बड़े स्थान पर मेले का आयोजन किया जाता था, जिसमें केवल स्त्रियाँ ही भाग लेती थीं। वे ही दुकानें लगाती थीं और वे ही ख़रीददारी करती थीं। पुरुषों का प्रवेश निषिद्ध था। राजपूत स्त्रियाँ भी दुकानें लगाती थीं। अकबर छद्म वेष में बाज़ार में जाता था और कहा जाता है कि कई सुन्दर बालाएँ उसकी कामवासना का शिकार हो अपनी मर्यादा लुटा बैठतीं। एक बार राठौर पृथ्वीराज की स्त्री भी इस मेले में शामिल हुई थी और उसने बड़े साहस तथा शौर्य के साथ अपने सतीत्व की रक्षा की थी। वह शाक्तावत वंश की लड़की थी। उस मेले में घूमते हुए अकबर की नज़र उस पर पड़ी और उसकी सुन्दरता से प्रभावित होकर अकबर की नियत बिगड़ गई और उसने किसी उपाय से उसे मेले से अलग कर दिया। पृथ्वीराज की स्त्री ने जब क़ामुक अकबर को अपने सम्मुख पाया तो उसने अपने वस्त्रों में छिपी कटार को निकालकर कहा, "ख़बरदार, अगर इस प्रकार की तूने हिम्मत की। सौगन्ध खा कि आज से कभी किसी स्त्री के साथ में ऐसा व्यवहार न करेगा।" अकबर के क्षमा माँगने के बाद पृथ्वीराज की स्त्री मेले से चली गई। अबुल फ़ज़ल ने इस मेले के बारे में अलग बात लिखी है। उनके अनुसार बादशाह अकबर वेष बदलकर मेले में इसलिए जाता था कि उसे वस्तुओं के भाव-ताव मालूम हो सकें।
भामाशाह द्वारा प्रताप की शक्तियाँ जाग्रत होना
पृथ्वीराज का पत्र पढ़ने के बाद राणा प्रताप ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करने का निर्णय कर लिया। परन्तु मौजूदा परिस्थितियों में पर्वतीय स्थानों में रहते हुए मुग़लों का प्रतिरोध करना सम्भव न था। अतः उसने रक्तरंजित चित्तौड़ और मेवाड़ को छोड़कर किसी दूरवर्ती स्थान पर जाने का विचार किया। उसने तैयारियाँ शुरू कीं। सभी सरदार भी उसके साथ चलने को तैयार हो गए। चित्तौड़ के उद्धार की आशा अब उनके हृदय से जाती रही थी। अतः प्रताप ने सिंध नदी के किनारे पर स्थित सोगदी राज्य की तरफ़ बढ़ने की योजना बनाई ताकि बीच का मरुस्थल उसके शत्रु को उससे दूर रखे। अरावली को पार कर जब प्रताप मरुस्थल के किनारे पहुँचा ही था कि एक आश्चर्यजनक घटना ने उसे पुनः वापस लौटने के लिए विवश कर दिया। मेवाड़ के वृद्ध मंत्री भामाशाह ने अपने जीवन में काफ़ी सम्पत्ति अर्जित की थी। वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति के साथ प्रताप की सेवा में आ उपस्थित हुआ और उससे मेवाड़ के उद्धार की याचना की। यह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि उससे वर्षों तक 25,000 सैनिकों का खर्चा पूरा किया जा सकता था।[12] भामाशाह का नाम मेवाड़ के उद्धारकर्ताओं के रूप में आज भी सुरक्षित है। भामाशाह के इस अपूर्व त्याग से प्रताप की शक्तियाँ फिर से जागृत हो उठीं।
दुर्गों पर अधिकार
महाराणा प्रताप ने वापस आकर राजपूतों की एक अच्छी सेना बना ली, जबकि उसके शत्रुओं को इसकी भनक भी नहीं मिल पाई। ऐसे में प्रताप ने मुग़ल सेनापति शाहबाज़ ख़ाँ को देवीर नामक स्थान पर अचानक आ घेरा। मुग़लों ने जमकर सामना किया, परन्तु वे परास्त हुए। बहुत से मुग़ल मारे गए और बाक़ी पास की छावनी की ओर भागे। राजपूतों ने आमेर तक उनका पीछा किया और उस मुग़ल छावनी के अधिकांश सैनिकों को भी मौत के घाट उतार दिया गया। इसी समय कमलमीर पर आक्रमण किया गया और वहाँ का सेनानायक अब्दुल्ला मारा गया और दुर्ग पर प्रताप का अधिकार हो गया। थोड़े ही दिनों में एक के बाद एक करके बत्तीस दुर्गों पर अधिकार कर लिया गया और दुर्गों में नियुक्त मुग़ल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया। संवत 1586 (1530 ई.) में चित्तौड़, अजमेर और मांडलगढ़ को छोड़कर सम्पूर्ण मेवाड़ पर प्रताप ने अपना पुनः अधिकार जमा लिया।[13] राजा मानसिंह को उसके देशद्रोह का बदला देने के लिए प्रताप ने आमेर राज्य के समृद्ध नगर मालपुरा को लूटकर नष्ट कर दिया। उसके बाद प्रताप उदयपुर की तरफ़ बढ़ा। मुग़ल सेना बिना युद्ध लड़े ही वहाँ से चली गई और उदयपुर पर प्रताप का अधिकार हो गया। अकबर ने थोड़े समय के लिए युद्ध बन्द कर दिया।
सम्पूर्ण जीवन युद्ध करके और भयानक कठिनाइयों का सामना करके प्रताप ने जिस तरह से अपना जीवन व्यतीत किया, उसकी प्रशंसा इस संसार से मिट न सकेगी। परन्तु इन सबके परिणामस्वरूप प्रताप में समय से पहले ही बुढ़ापा आ गया। उसने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे अन्त तक निभाया। राजमहलों को छोड़कर प्रताप ने पिछोला तालाब के निकट अपने लिए कुछ झोपड़ियाँ बनवाई थीं ताकि वर्षा में आश्रय लिया जा सके। इन्हीं झोपड़ियों में प्रताप ने सपरिवार सहित अपना जीवन व्यतीत किया। अब जीवन का अन्तिम समय आ पहुँचा था। प्रताप ने चित्तौड़ के उद्धार की प्रतिज्ञा की थी, परन्तु उसमें सफलता न मिली। फिर भी, उसने अपनी थोड़ी सी सेना की सहायता से मुग़लों की विशाल सेना को इतना अधिक परेशान किया कि अन्त में अकबर को युद्ध बन्द कर देना पड़ा।
वीरता के परिचायक
महाराणा प्रताप ने एक प्रतिष्ठित कुल के मान-सम्मान और उसकी उपाधि को प्राप्त किया। परन्तु उसके पास न तो राजधानी थी और न ही वित्तीय साधन। बार-बार की पराजयों ने उसके स्व-बन्धुओं और जाति के लोगों को निरुत्साहित कर दिया था। फिर भी उसके पास अपना जातीय स्वाभिमान था। उसने सत्तारूढ़ होते ही चित्तौड़ के उद्धार, कुल के सम्मान की पुनर्स्थापना तथा उसकी शक्ति को प्रतिष्ठित करने की तरफ़ अपना ध्यान केन्द्रित किया। इस ध्येय से प्रेरित होकर वह अपने प्रबल शत्रु के विरुद्ध जुट सका। उसने इस बात की चिन्ता नहीं की कि परिस्थितियाँ उसके कितने प्रतिकूल हैं। उसका चतुर विरोधी एक सुनिश्चित नीति के द्वारा उसके ध्येय का परास्त करने में लगा हुआ था। मुग़ल प्रताप के धर्म और रक्त बंधुओं को ही उसके विरोध में खड़ा करने में जुटा था। मारवाड़, आमेर, बीकानेर और बूँदी के राजा लोग अकबर की सार्वभौम सत्ता के सामने मस्तक झुका चुके थे। इतना ही नहीं, प्रताप का सगा भाई 'सागर'[14] भी उसका साथ छोड़कर शत्रु पक्ष से जा मिला और अपने इस विश्वासघात की क़ीमत उसे अपने कुल की राजधानी और उपाधि के रूप में प्राप्त हुई।
कुशल प्रशासक
महाराणा प्रताप प्रजा के हृदय पर शासन करने वाले थे। एक आज्ञा हुई और विजयी सेना ने देखा उसकी विजय व्यर्थ है। चित्तौड़ भस्म हो गया, खेत उजड़ गये, कुएँ भर दिये गये और ग्राम के लोग जंगल एवं पर्वतों में अपने समस्त पशु एवं सामग्री के साथ अदृश्य हो गये। शत्रु के लिये इतना विकट उत्तर, यह उस समय महाराणा की अपनी सूझ है। अकबर के उद्योग में राष्ट्रीयता का स्वप्न देखने वालों को इतिहासकार बदायूँनी आसफ ख़ाँ के ये शब्द स्मरण कर लेने चाहिये- "किसी की ओर से सैनिक क्यों न मरे, थे वे हिन्दू ही और प्रत्येक स्थिति में विजय इस्लाम की ही थी।" यह कूटनीति थी अकबर की और महाराणा इसके समक्ष अपना राष्ट्रगौरव लेकर अडिग भाव से उठे थे।
मृत्यु
अकबर के युद्ध बन्द कर देने से प्रताप को महा दुःख हुआ। कठोर उद्यम और परिश्रम सहन कर उसने हज़ारों कष्ट उठाये थे, परन्तु शत्रुओं से चित्तौड़ का उद्धार न कर सके। वह एकाग्रचित्त से चित्तौड़ के उस ऊँचे परकोटे और जयस्तम्भों को निहारा करते थे और अनेक विचार उठकर हृदय को डाँवाडोल कर देते थे। ऐसे में ही एक दिन प्रताप एक साधारण कुटी में लेटे हुए काल की कठोर आज्ञा की प्रतीज्ञा कर रहे थे। उनके चारों तरफ़ उनके विश्वासी सरदार बैठे हुए थे। तभी प्रताप ने एक लम्बी साँस ली। सलूम्बर के सामंन्त ने कातर होकर पूछा, "महाराज! ऐसे कौन से दारुण दुःख ने आपको दुःखित कर रखा है और अन्तिम समय में आपकी शान्ति को भंग कर रहा है।" प्रताप का उत्तर था "सरदार जी! अभी तक प्राण अटके हुए हैं, केवल एक ही आश्वासन की वाणी सुनकर यह अभी सुखपूर्वक देह को छोड़ जायेगा। यह वाणी आप ही के पास है।"
"आप सब लोग मेरे सम्मुख प्रतिज्ञा करें कि जीवित रहते अपनी मातृभूमि किसी भी भाँति तुर्कों के हाथों में नहीं सौंपेंगे। पुत्र राणा अमर सिंह हमारे पूर्वजों के गौरव की रक्षा नहीं कर सकेगा। वह मुग़लों के ग्रास से मातृभूमि को नहीं बचा सकेगा। वह विलासी है, वह कष्ट नहीं झेल सकेगा।" इसके बाद राणा ने अमरसिंह को बातें सुनाते हुए कहा, "एक दिन उस नीचि कुटिया में प्रवेश करते समय अमरसिंह अपने सिर से पगड़ी उतारना भूल गया था। द्वार के एक बाँस से टकराकर उसकी पगड़ी नीचे गिर गई। दूसरे दिन उसने मुझसे कहा कि यहाँ पर बड़े-बड़े महल बनवा दीजिए।" कुछ क्षण चुप रहकर प्रताप ने कहा, "इन कुटियों के स्थान पर बड़े-बड़े रमणीक महल बनेंगे, मेवाड़ की दुरवस्था भूलकर अमरसिंह यहाँ पर अनेक प्रकार के भोग-विलास करेगा। अमर के विलासी होने पर मातृभूमि की वह स्वाधीनता जाती रहेगी, जिसके लिए मैंने बराबर पच्चीस वर्ष तक कष्ट उठाए, सभी भाँति की सुख-सुविधाओं को छोड़ा। वह इस गौरव की रक्षा न कर सकेगा और तुम लोग-तुम सब उसके अनर्थकारी उदाहरण का अनुसरण करके मेवाड़ के पवित्र यश में कलंक लगा लोगे।" प्रताप का वाक्य पूरा होते ही समस्त सरदारों ने उससे कहा, "महाराज! हम लोग बप्पा रावल के पवित्र सिंहासन की शपथ करते हैं कि जब तक हम में से एक भी जीवित रहेगा, उस दिन तक कोई तुर्क मेवाड़ भूमि पर अधिकार न कर सकेगा। जब तक मेवाड़ भूमि की पूर्व-स्वाधीनता का पूरी तरह उद्धार हो नहीं पायेगा, तब तक हम लोग इन्हीं कुटियों में निवास करेंगे।" इस संतोषजनक वाणी को सुनते ही प्रताप के प्राण निकल गए।[15]
इस प्रकार एक ऐसे राजपूत के जीवन का अवसान हो गया, जिसकी स्मृति आज भी प्रत्येक सिसोदिया को प्रेरित कर रही है। इस संसार में जितने दिनों तक वीरता का आदर रहेगा, उतने ही दिन तक प्रताप की वीरता, माहात्म्य और गौरव संसार के नेत्रों के सामने अचल भाव से विराजमान रहेगा। उतने दिन तक वह 'हल्दीघाट मेवाड़ की थर्मोपोली' और उसके अंतर्गत देवीर क्षेत्र 'मेवाड़ का मैराथन' नाम से पुकारा जाया करेगा।
- पंडित नरेन्द्र मिश्र की कविता इस प्रकार है-
महाराणा प्रताप पर एक कविता |
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राणा प्रताप इस भरत भूमि के, मुक्ति मंत्र का गायक है। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ Maharana Pratap
- ↑ ध्रम रहसी, रहसी धरा, खिस जासे खुरसाण।
अमर बिसंभर ऊपरे रखिओ नहचो राण॥
-अब्दुलरहीम खानखाना - ↑ तुरक कहासी मुख पतो इण तनसूँ इकलिंग।
ऊगै हाँईं ऊगसी, प्राची बीच पतंग॥
- ↑ डॉक्टर गोपीनाथ शर्मा इस कथन को सही नहीं मानते। प्रताप ने सलीम के हाथी पर नहीं अपितु मानसिंह के हाथी पर आक्रमण किया था। सलीम तो युद्धस्थल पर उपस्थित ही नहीं था।
- ↑ शक्तिसिंह की कथा भी अन्य प्रमाणों से सिद्ध नहीं होती। शक्तिसिंह पहले ही चित्तौड़ के आक्रमण के समय काम आ चुका था। सम्भवतः दोनों भाइयों को मिलाने की कथा भाटों ने गढ़ ली है।
- ↑ टॉड का यह कथन कि मालदेव भी अकबर की शरण में चला गया था, सही नहीं है। 1562 ई. में मालदेव की मृत्यु हुई और 1564 ई. में उसका बड़ा लड़का राम मौजूदा मारवाड़ नरेश चन्द्रसेन के विरुद्ध सहायता प्राप्त करने के लिए अकबर के पास गया था। मालदेव और चन्द्रसेन ने कभी भी अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की थी।
- ↑ उदयसिंह को 4 अगस्त, 1583 ई. में मारवाड़ का राज्य अधिकार दिया गया था। 1564 ई. में मुग़लों ने जोधपुर पर अधिकार कर लिया था और चन्द्रसेन की मृत्यु (जनवरी, 1581 ई.) के बाद लगभग तीन वर्ष तक अकबर ने जोधपुर राज्य को अपने ही अधिकार में रखा था, जबकि मालदेव के पुत्र उसकी सेवा में उपस्थित थे।
- ↑ उदयसिंह ने अपनी 'जोधाबाई' (भानीबाई) नामक पुत्री का विवाह 'सलीम' (जहाँगीर) से किया था। वह 'जगत गुसाईं' के नाम से प्रसिद्ध थी। इसी के गर्भ से सम्राट शाहजहाँ का जन्म हुआ था।
- ↑ इस कथा को लगभग सभी लेखकों ने मान्यता दी है। परन्तु डॉक्टर गोपीनाथ शर्मा इसे सही नहीं मानते। उनके मतानुसार दोनों की मुलाक़ात गोगुन्दा में हुई थी, न कि उदयसागर पर। टॉड ने यह कथा ख्यातों से ली है, जो अविश्सनीय नहीं है।
- ↑ इस प्रकार के कथानक असत्य हैं। प्रथम तो राणा प्रताप के कोई पुत्री ही नहीं थी, इसलिए उसका रोना अप्रासंगिक है। दूसरा, जिस पहाड़ी भाग में राणा घूमते-फिरते थे, वह भाग इतना उपजाऊ था कि उन्हें खाने-पीने में कठिनता का सामना करना पड़ा, यह समझ में नहीं आता। पिछले स्रोतों में भी इस कथा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। ये तो कर्नल टॉड के मस्तिष्क की उपज मात्र है।
- ↑ डॉक्टर गोपीनाथ शर्मा को इस पत्र-व्यवहार के बारे में शंका है। क्योंकि इसका उल्लेख फ़ारसी तवारीख़ों में नहीं है।
- ↑ डा. ओझा और डा. गोपीनाथ शर्मा-ये दोनों ही इस कथन को भी कल्पित मानते हैं कि भामाशाह ने अपनी निजी सम्पत्ति प्रताप को दे थी। उनके मतानुसार यह राजकीय द्रव्य था अथवा मालवा से लूटकर लाया हुआ धन था।
- ↑ कर्नल टॉड ने जो तिथि दी है, वह ग़लत है। 1576 ई. में तो हल्दीघाटी का युद्ध ही लड़ा गया था। अतः यह 1580 ई. के बाद का समय होना चाहिए।
- ↑ 'कन्धार' नामक दुर्ग सागर के अधिकार में था। उसके वंशज 'सागरौत' कहलाये
- ↑ प्रताप का स्वर्गवास 19 जनवरी, 1597 को हुआ था।
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