"वार्ता:रंग कहाँ जाएंगे -सुभाष रस्तोग़ी": अवतरणों में अंतर
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मन की व्यथा-----दिनेश सिंह | |||
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कितना सुंदर होता की हम | |||
एक सिर्फ इन्सां होते - | |||
न जाती पाती के लिए जगह - | |||
न धर्मो के बंधन होते - | |||
शोर मचा है धर्म धर्म का - | |||
कौम कौम का लगता नारा- | |||
इस चलती कौमी बयारी में - | |||
उन्मय उन्मय जन मानस सारा - | |||
जो घूम रहा था शहर शहर - | |||
पहुँच रहा अब गाँव गाँव में - | |||
वो कौम बयारी जहर घोलते - | |||
महकती स्वच्छ हवाओं में - | |||
क्या सुलझेंगी ये मानस की गांठे घनेरी - | |||
क्या रोशन होंगी ये गलियाँ अंधेरी - | |||
क्यों बुझ जाती है गूंज आखिरी - | |||
इस उन्मन उन्मन पथ के ऊपर |
10:25, 17 अक्टूबर 2013 के समय का अवतरण
मन की व्यथा-----दिनेश सिंह
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कितना सुंदर होता की हम एक सिर्फ इन्सां होते - न जाती पाती के लिए जगह - न धर्मो के बंधन होते -
शोर मचा है धर्म धर्म का - कौम कौम का लगता नारा- इस चलती कौमी बयारी में - उन्मय उन्मय जन मानस सारा -
जो घूम रहा था शहर शहर - पहुँच रहा अब गाँव गाँव में - वो कौम बयारी जहर घोलते - महकती स्वच्छ हवाओं में -
क्या सुलझेंगी ये मानस की गांठे घनेरी - क्या रोशन होंगी ये गलियाँ अंधेरी - क्यों बुझ जाती है गूंज आखिरी - इस उन्मन उन्मन पथ के ऊपर