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[[भारत]] की आज़ादी की लड़ाई में भी इनकी भागीदारी थी। 1930-47 के बीच स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे। दो बार जेल गए। हंगल तीन साल पाकिस्तान में जेल में रहे। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पेशावर में काबुली गेट के पास एक बहुत बड़ा प्रदर्शन हुआ था, जिसमें हंगल साहब भी उपस्थित थे। [[अंग्रेज़|अंग्रेजों]] ने अपने सिपाहियों को प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का हुक्म दिया था, लेकिन चंदर सिंह गढ़वाली के नेतृत्व वाले उस गढ़वाल रेजिमेंट की टुकड़ी ने गोली चलाने से इनकार कर दिया। यह एक विद्रोह था। चंदर सिंह गढ़वाली को जेल में डाला गया। हंगल साहब को दुख था कि चंदर सिंह गढ़वाली को ‘[[भारत रत्न]]’ नहीं मिला। भारत मां का यह वीर सपूत 1981 में गुमनाम मौत मरा। पेशावर में हुआ नरसंहार उसी काबुल गेट वाली घटना के बाद हुआ था। उस वक्त अंग्रेजों ने अमेरिकी से गोलियां चलवाई थी। हंगल साहब ने अपनी [[आंख|आंखों]] से यह सब देखा था। यही वजह रही कि वे थियेटर से जुड़ने के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक आंदोलनों को लेकर हमेशा सजग रहते थे। | [[भारत]] की आज़ादी की लड़ाई में भी इनकी भागीदारी थी। 1930-47 के बीच स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे। दो बार जेल गए। हंगल तीन साल पाकिस्तान में जेल में रहे। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पेशावर में काबुली गेट के पास एक बहुत बड़ा प्रदर्शन हुआ था, जिसमें हंगल साहब भी उपस्थित थे। [[अंग्रेज़|अंग्रेजों]] ने अपने सिपाहियों को प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का हुक्म दिया था, लेकिन चंदर सिंह गढ़वाली के नेतृत्व वाले उस गढ़वाल रेजिमेंट की टुकड़ी ने गोली चलाने से इनकार कर दिया। यह एक विद्रोह था। चंदर सिंह गढ़वाली को जेल में डाला गया। हंगल साहब को दुख था कि चंदर सिंह गढ़वाली को ‘[[भारत रत्न]]’ नहीं मिला। भारत मां का यह वीर सपूत 1981 में गुमनाम मौत मरा। पेशावर में हुआ नरसंहार उसी काबुल गेट वाली घटना के बाद हुआ था। उस वक्त अंग्रेजों ने अमेरिकी से गोलियां चलवाई थी। हंगल साहब ने अपनी [[आंख|आंखों]] से यह सब देखा था। यही वजह रही कि वे थियेटर से जुड़ने के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक आंदोलनों को लेकर हमेशा सजग रहते थे। | ||
[[भगत सिंह]], [[सुखदेव]] और [[राजगुरु]] को फांसी से बचाने के लिए चलाये गये हस्ताक्षर अभियान में भी वे शामिल थे। किस्सा-ख्वानी बाज़ार नरसंहार के दौरान उनकी कमीज | [[भगत सिंह]], [[सुखदेव]] और [[राजगुरु]] को फांसी से बचाने के लिए चलाये गये हस्ताक्षर अभियान में भी वे शामिल थे। किस्सा-ख्वानी बाज़ार नरसंहार के दौरान उनकी कमीज ख़ून से भीग गयी थी। हंगल साहब कहते थे, ‘वह ख़ून सभी का था- [[हिंदू]], [[मुस्लिम]], [[सिख]] सबका मिला हुआ खून!’ छात्र जीवन से ही वे बड़े क्रांतिकारियों की मदद में जुट गये थे। बाद में उन्हें अंग्रेजों ने तीन साल तक जेल में भी रखा, फिर भी वे अपने इरादे से नहीं डिगे।<ref>{{cite web |url=http://www.prabhatkhabar.com/node/199921 |title=कश्मीरी हिरन हंगल साहब |accessmonthday=26 अगस्त |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=प्रभात खबर |language=हिन्दी }}</ref> | ||
==सिनेमा का सफर== | ==सिनेमा का सफर== |
13:54, 31 जुलाई 2014 का अवतरण
अवतार किशन हंगल
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पूरा नाम | अवतार किशन हंगल |
जन्म | 1 फ़रवरी 1917 |
जन्म भूमि | सियालकोट, पाकिस्तान |
मृत्यु | 26 अगस्त 2012 (उम्र- 95) |
मृत्यु स्थान | मुम्बई, महाराष्ट्र |
कर्म भूमि | मुम्बई |
कर्म-क्षेत्र | सिनेमा |
मुख्य फ़िल्में | 'नमक हराम', शौकीन, शोले, आईना, अवतार आदि |
पुरस्कार-उपाधि | पद्मभूषण |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | सन 1930 से 1947 के बीच भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे और दो बार जेल गए। |
अवतार किशन हंगल (अंग्रेज़ी: Avtar Kishan Hangal, जन्म: 1 फ़रवरी 1917, सियालकोट - मृत्यु: 26 अगस्त 2012 मुम्बई) हिन्दी फ़िल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता एवं दूरदर्शन कलाकार थे। वर्ष 1967 से हिन्दी फ़िल्म उद्योग का हिस्सा रहे हंगल ने लगभग 225 फ़िल्मों में काम किया। उन्हें फ़िल्म 'परिचय' और 'शोले' में अपनी यादगार भूमिकाओं के लिए जाना जाता है।
जीवन परिचय
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले ए.के. हंगल का जन्म 1 फ़रवरी 1917 को कश्मीरी पंडित परिवार में अविभाजित भारत में पंजाब राज्य के सियालकोट में हुआ था। इनका पूरा नाम अवतार किशन हंगल था। कश्मीरी भाषा में हिरन को हंगल कहते हैं। उन्होंने हिंदी सिनेमा में कई यादगार रोल अदा किए। वर्ष 1966 में उन्होंने हिंदी सिनेमा में कदम रखा और 2005 तक 225 फ़िल्मों में काम किया। राजेश खन्ना के साथ उन्होंने 16 फ़िल्में की थी। हंगल साहब उर्दू भाषी थे। उन्हें हिंदी में स्क्रिप्ट पढ़ने में परेशानी होती थी। इसलिए वे स्क्रिप्ट हमेशा उर्दू भाषा में ही मांगते थे।
परिवार
कश्मीरी ब्राह्मणों का यह परिवार बहुत पहले लखनऊ में बस गया था। लेकिन हंगल साहब के जन्म के डेढ़-दो सौ साल पहले वे लोग पेशावर चले गये थे। इनके दादा के एक भाई थे जस्टिस शंभुनाथ पंडित, जो बंगाल न्यायालय के प्रथम भारतीय जज बने थे। हंगल साहब के पिता उन्हें पारसी थियेटर दिखाने ले जाया करते थे। वहीं से नाटकों के प्रति शौक़ उत्पन्न हुआ। हंगल साहब शुरुआती दौर से ही कभी किसी काम को छोटा नहीं समझते थे।
शुरूआती जीवन
इनका बचपन पेशावर में गुजरा, यहां उन्होंने थिएटर में अभिनय किया। इनके पिता का नाम पंडित हरि किशन हंगल था। अपने जीवन के शुरुआती दिनों में, जब वे कराची में रहते थे, वहां उन्होंने टेलरिंग का काम भी किया है। पिता के सेवानिवृत होने के बाद पूरा परिवार पेशावर से कराची आ गया। 1949 में भारत विभाजन के बाद ए.के. हंगल मुंबई चले गए। 21 की उम्र में 20 रुपये लेकर पहली बार मुंबई आए थे। ये बलराज साहनी और कैफी आजमी के साथ थिएटर ग्रुप आईपीटीए के साथ जुड़े थे।
उन्होंने इप्टा से जुड़ कर अपने नाटकों के मंचन के माध्यम से सांस्कृतिक चेतना जगायी। हंगल साहब पेंटिंग भी करते थे। उन्होंने किशोर उम्र में ही एक उदास स्त्री का स्केच बनाया था और उसका नाम दिया चिंता। वे हमेशा अपनी फ़िल्मों से ज्यादा अपने नाटक को अहमियत देते थे और मानते थे कि ज़िंदगी का मतलब सिर्फ अपने बारे में सोचना नहीं है। वे हमेशा कहते थे कि चाहे कुछ भी हो जाये, ‘मैं एहसान-फरामोश और मतलबी नहीं बन सकता।’
भारत की आज़ादी में योगदान
भारत की आज़ादी की लड़ाई में भी इनकी भागीदारी थी। 1930-47 के बीच स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे। दो बार जेल गए। हंगल तीन साल पाकिस्तान में जेल में रहे। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पेशावर में काबुली गेट के पास एक बहुत बड़ा प्रदर्शन हुआ था, जिसमें हंगल साहब भी उपस्थित थे। अंग्रेजों ने अपने सिपाहियों को प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का हुक्म दिया था, लेकिन चंदर सिंह गढ़वाली के नेतृत्व वाले उस गढ़वाल रेजिमेंट की टुकड़ी ने गोली चलाने से इनकार कर दिया। यह एक विद्रोह था। चंदर सिंह गढ़वाली को जेल में डाला गया। हंगल साहब को दुख था कि चंदर सिंह गढ़वाली को ‘भारत रत्न’ नहीं मिला। भारत मां का यह वीर सपूत 1981 में गुमनाम मौत मरा। पेशावर में हुआ नरसंहार उसी काबुल गेट वाली घटना के बाद हुआ था। उस वक्त अंग्रेजों ने अमेरिकी से गोलियां चलवाई थी। हंगल साहब ने अपनी आंखों से यह सब देखा था। यही वजह रही कि वे थियेटर से जुड़ने के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक आंदोलनों को लेकर हमेशा सजग रहते थे।
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी से बचाने के लिए चलाये गये हस्ताक्षर अभियान में भी वे शामिल थे। किस्सा-ख्वानी बाज़ार नरसंहार के दौरान उनकी कमीज ख़ून से भीग गयी थी। हंगल साहब कहते थे, ‘वह ख़ून सभी का था- हिंदू, मुस्लिम, सिख सबका मिला हुआ खून!’ छात्र जीवन से ही वे बड़े क्रांतिकारियों की मदद में जुट गये थे। बाद में उन्हें अंग्रेजों ने तीन साल तक जेल में भी रखा, फिर भी वे अपने इरादे से नहीं डिगे।[1]
सिनेमा का सफर
ए.के. हंगल 50 वर्ष की उम्र में हिंदी सिनेमा में आए। उन्होंने 1966 में बासु चटर्जी की फ़िल्म 'तीसरी कसम' और 'शागिर्द' में काम किया। इसके बाद उन्होंने सिद्घांतवादी भूमिकाएं निभाई। 70, 80 और 90 के दशकों में उन्होंने प्रमुख फ़िल्मों में पिता या अंकल की भूमिका निभाई। हंगल ने फ़िल्म शोले में रहीम चाचा (इमाम साहब) और 'शौकीन' के इंदर साहब के किरदार से अपने अभिनय की छाप छोड़ी। इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) के साथ बढ-चढ़कर काम करने वाले हंगल ने 139 से अधिक फिल्मों में अपने अभिनय कौशल का लोहा मनवाया है। इनके प्रमुख रोल फ़िल्म 'नमक हराम', शौकीन, शोले, आईना, अवतार, अर्जुन, आंधी, तपस्या, कोरा कागज, बावर्ची, छुपा रुस्तम, चितचोर, बालिका वधू, गुड्डी, नरम-गरम में रहे। इनके बाद के समय में यादगार किरदारों में वर्ष 2002 में शरारत, 1997 में तेरे मेरे सपने और 2005 में आमिर खान के साथ लगान में नजर आए थे।
सम्मान और पुरस्कार
वर्ष 2006 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मभूषण से नवाजा।
टीवी सीरियल में उपस्थिति
- 1997 में बॉम्बे ब्लू
- 1998 में जीवन रेखा
- 1986 में मास्टरपीस थिएटर : लार्ड माउंटबेटन
- 1996 में चंद्रकांता
- 1993-94 में जबान संभाल के में छोटी भूमिका
- 2004-05 में होटल किंग्सटन में छोटी भूमिका
- 2012 में धारावाहिक कलर्स चैनल के धारावाहिक मधुबाला में विशेष उपस्थिति
निधन
हंगल लम्बे समय से बुढ़ापे की बीमारियों से पीडि़त रहे। बॉलीवुड के सबसे वयोवृद्ध अभिनेता ए. के. हंगल का 26 अगस्त 2012 को सुबह नौ बजे के क़रीब मुंबई के आशा पारेख अस्पताल में निधन हो गया था। 95 साल के हंगल को 16 अगस्त को अस्पताल में भर्ती कराया गया था। 13 अगस्त को हंगल गिर गए थे। पीठ में चोट लगने और कूल्हे की हड्डी टूटने के कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहाँ उनकी सर्जरी हुई। सर्जरी होने के बावजूद उनती सेहत में कोई सुधार नहीं हुआ। बाद में पता चला कि उन्हें सीने में दर्द और सास लेने में तकलीफ है। इसके बाद उन्हें वेंटीलेटर पर रखा गया, लेकिन उनकी सेहत में कोई सुधार नहीं हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कश्मीरी हिरन हंगल साहब (हिन्दी) प्रभात खबर। अभिगमन तिथि: 26 अगस्त, 2012।
बाहरी कड़ियाँ
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