"वियोगी हरि": अवतरणों में अंतर

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==जन्म तथा शिक्षा==
==जन्म तथा शिक्षा==
वियोगी हरि का जन्म [[वर्ष]] [[1896]] ई. में [[छतरपुर|छतरपुर राज्य]] के एक [[कान्यकुब्ज ब्राह्मण]] [[परिवार]] में हुआ था। बचपन में ही [[पिता]] की मृत्यु हो जाने के कारण इनका पालन-पोषण एवं शिक्षा ननिहाल में घर पर ही हुई। शिक्षा आदि के कार्य में वियोगी हरि प्रारम्भ से ही मेधावी रहे थे। इनकी [[हिन्दी]] और [[संस्कृत]] की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। मैट्रिकुलेशन की परीक्षा इन्होंने [[1915]] में छतरपुर के हाईस्कूल से उत्तीर्ण की। वियोगी हरि की किशोरावस्था से ही दर्शनशास्त्र में विशेष अभिरुचि थी। छतरपुर की महारानी कमलकुमारी 'युगलप्रिया' के स्नेह-सिक्त सम्पर्क से उनके साथ [[भारत]] के प्रसिद्ध तीर्थों का इन्होंने भ्रमण किया।
वियोगी हरि का जन्म [[वर्ष]] [[1896]] ई. में [[छतरपुर|छतरपुर राज्य]] के एक [[कान्यकुब्ज ब्राह्मण]] [[परिवार]] में हुआ था। बचपन में ही [[पिता]] की मृत्यु हो जाने के कारण इनका पालन-पोषण एवं शिक्षा ननिहाल में घर पर ही हुई। शिक्षा आदि के कार्य में वियोगी हरि प्रारम्भ से ही मेधावी रहे थे। इनकी [[हिन्दी]] और [[संस्कृत]] की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। मैट्रिकुलेशन की परीक्षा इन्होंने [[1915]] में छतरपुर के हाईस्कूल से उत्तीर्ण की। वियोगी हरि की किशोरावस्था से ही दर्शनशास्त्र में विशेष अभिरुचि थी। छतरपुर की महारानी कमलकुमारी 'युगलप्रिया' के स्नेह-सिक्त सम्पर्क से उनके साथ [[भारत]] के प्रसिद्ध तीर्थों का इन्होंने भ्रमण किया।<ref name="aa">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन= भारतकोश पुस्तकालय|संपादन= डॉ. धीरेंद्र वर्मा|पृष्ठ संख्या=570|url=}}</ref>
==अध्यात्म-चिंतन==
वियोगी हरि का अध्यात्म-चिंतन सर्वेश्वरवादी है। उनकी प्रेमलक्षणाभक्ति, ज्ञान एवं कर्म की अविरोधिनी है। उस पर [[सूरदास]], [[तुलसीदास]], [[कबीर]] तथा सूफ़ी कवियों की विचारधारा का प्रभाव पड़ा है। उनका धर्म समंवयवादी विश्वधर्म है, जिसका आदर्श बहुत कुछ गाँधीवाद और आधार ईश्वरवाद है। सामाजिक विचार सुधारवादी और कबीर आदि संतों की भाँति खण्डनात्मक है। उनकी रचनाओं में मुख्यत: वीर और शांत भावना की व्यंजना हुई है। उनके गद्य गीत चिंतन प्रधान एवं व्यंग्यात्मक हैं। गद्य भाषा अलंकृत, काव्यात्मक, लाक्षणिक तथा काव्य-भाषा सरल और मिश्रित है।
==गद्यकार व समाजसेवी==
==गद्यकार व समाजसेवी==
वियोगी हरि आधुनिक [[ब्रजभाषा]] के प्रमुख [[कवि]], [[हिन्दी]] के सफल गद्यकार और देश के समाजसेवी संत थे। वे लगभग 40 वर्षों तक [[हिन्दी साहित्य]] की सक्रिय सेवा करते रहे। सन [[1917]] में [[पुरुषोत्तमदास टण्डन]] से इनका परिचय हुआ और उन्हीं से इन्हें लेखन और साहित्य-सेवा की सबसे पहले प्रेरणा मिली। इनकी प्रवृत्ति अस्पृश्यतानिवारण की दिशा में उन्होंने [[1920]] में [[कानपुर]] के 'प्रताप' में एक लेखमाला लिखी थी। [[महात्मा गाँधी]] के सम्पर्क ने इन्हें इस कार्य से और अधिक बाँध दिया था। यह कार्य ही उनके जीवन का एक उद्देश्य बन गया। गाँधीजी द्वारा प्रवर्तित 'हरिजन-सेवक' (हिन्दी संस्करण) के सम्पादन का कार्य भी इन्होंने सँभाल लिया था। तभी से '[[हरिजन सेवक संघ]]' से इनका घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया था। बाद में वियोगी हरि इसके अध्यक्ष भी रहे।
वियोगी हरि आधुनिक [[ब्रजभाषा]] के प्रमुख [[कवि]], [[हिन्दी]] के सफल गद्यकार और देश के समाजसेवी संत थे। वे लगभग 40 वर्षों तक [[हिन्दी साहित्य]] की सक्रिय सेवा करते रहे। सन [[1917]] में [[पुरुषोत्तमदास टण्डन]] से इनका परिचय हुआ और उन्हीं से इन्हें लेखन और साहित्य-सेवा की सबसे पहले प्रेरणा मिली। इनकी प्रवृत्ति अस्पृश्यतानिवारण की दिशा में उन्होंने [[1920]] में [[कानपुर]] के 'प्रताप' में एक लेखमाला लिखी थी। [[महात्मा गाँधी]] के सम्पर्क ने इन्हें इस कार्य से और अधिक बाँध दिया था। यह कार्य ही उनके जीवन का एक उद्देश्य बन गया। गाँधीजी द्वारा प्रवर्तित 'हरिजन-सेवक' (हिन्दी संस्करण) के सम्पादन का कार्य भी इन्होंने सँभाल लिया था। तभी से '[[हरिजन सेवक संघ]]' से इनका घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया था। बाद में वियोगी हरि इसके अध्यक्ष भी रहे।
==लेखन कार्य==
==लेखन कार्य==
वियोगी हरि ने अनेक ग्रंथों का सम्पादन, प्राचीन कविताओं का संग्रह तथा संतों की वाणियों का संकलन किया। [[कविता]], [[नाटक]], गद्यगीत, [[निबन्ध]] आदि के अतिरिक्त बालोपयोगी पुस्तकें और महापुरुषों की जीवनियाँ लिखीं। [[1932]] से साहित्य साधना से विरत होकर 'हरिजन सेवक संघ', 'दिल्ली गांधी स्मारक निधि' एवं '[[भूदान आन्दोलन]]' का कार्य वियोगी हरि  करते रहे।
वियोगी हरि ने अनेक ग्रंथों का सम्पादन, प्राचीन कविताओं का संग्रह तथा संतों की वाणियों का संकलन किया। [[कविता]], [[नाटक]], गद्यगीत, [[निबन्ध]] आदि के अतिरिक्त बालोपयोगी पुस्तकें और महापुरुषों की जीवनियाँ लिखीं। [[1932]] से साहित्य साधना से विरत होकर 'हरिजन सेवक संघ', 'दिल्ली गांधी स्मारक निधि' एवं '[[भूदान आन्दोलन]]' का कार्य वियोगी हरि  करते रहे।<ref name="aa"/>
====कविता संग्रह====
====कृतियाँ====
'हरिजन सेवक संघ', 'गाँधी स्मारक निधि' तथा 'भूदान आंदोलन' में भी वियोगी हरि सक्रिय रहे थे। उन्होंने लगभग 40 पुस्तकों की रचना की थी। इनके मुख्य कविता संग्रह इस प्रकार हैं-
[[धर्म]], [[दर्शन]], [[भक्ति]], हरिजन कार्य, सामाजिक सुधार तथा अनेक साहित्यिक विषयों को लेकर वियोगी हरि ने लगभग 40-45 पुस्तकें लिखी हैं, जो इस प्रकार हैं-
#भावना
{| width="80%" class="bharattable-green"
#प्रार्थना
|+वियोगी हरि की प्रमुख रचनाएँ<ref name="aa"/>
#अंतर्नाद
|-
#प्रेम-शतक
! क्रम संख्या
#मेवाड-केसरी
! कृति
#वीर-सतसई
! क्रम संख्या
#महाराणा प्रताप
! कृति
#देशद्रोह
|-
#व्यर्थ गर्व
|1.
 
|'साहित्य विहार' ([[1922]] ई.)
|2.
|'छद्मयोगिनी नाटिका' ([[1922]] ई.)
|-
|3.
|'ब्रज माधुरी सार' ([[1923]] ई.)
|4.
|'कवि कीर्तन' ([[1923]] ई.)
|-
|5.
|'सूरदास की विनयपत्रिका' ([[1924]] ई.)
|6.
|'अंतर्नाद' ([[1926]] ई.)
|-
|7.
|'भावना' ([[1928]] ई.)
|8.
|'प्रार्थना' ([[1929]] ई.)
|-
|9.
|'तुलसीदासकृत विनय-पत्रिका हरिजोणी टीका' ([[1923]] ई.)
|10.
|'वीर-सतसई' (1927 ई.)
|-
|11.
|'विश्वधर्म' ([[1930]] ई.)
|12.
|'योगी अरविन्द की दिव्यवाणी'
|-
|13.
|'छत्रसाल ग्रंथावली'
|14.
|'मन्दिर प्रवेश'
|-
|15.
|'प्रबुद्ध यामुन' अथवा 'यामुनाचार्य-चरित' (1929 ई.)
|16.
|'अनुरागवाटिका'
|-
|17.
|'मेवाड़ केशरी'
|18.
|'चरखा स्तोत्र'
|-
|19.
|'मेरा जीवन प्रवाह'
|20.
|'तरंगिणी'
|-
|21.
|'चरखे की गूँज'
|22.
|'गाँधी जी का आदर्श'
|-
|23.
|'प्रेमशतक'
|24.
|'प्रेमपथिक'
|-
|25.
|'प्रेमांजलि'
|26.
|'प्रेमपरिषद्'
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|27.
|'वीर बिरुदावली'
|28.
|'गुरु पुष्पांजलि'
|-
|29.
|'संतवाणी'
|30.
|'संत-सुधासार'
|-
|31.
|'युद्ध वाणी'
|32.
|'यों भी तो देखिये'
|-
|33.
|'श्रद्धाकण'
|34.
|'पावभर आटा'
|-
|35.
|'जपुजी'
|36.
|'संक्षिप्त सूरसागर'
|-
|37.
|'संत सुधासार'
|38.
|'दादू'
|-
|39.
|'शुकदेव खण्डकाव्य'
|40.
| -
|}
==अध्यात्म-चिंतन==
वियोगी हरि का अध्यात्म-चिंतन सर्वेश्वरवादी है। उनकी प्रेमलक्षणाभक्ति, ज्ञान एवं कर्म की अविरोधिनी है। उस पर [[सूरदास]], [[तुलसीदास]], [[कबीर]] तथा सूफ़ी कवियों की विचारधारा का प्रभाव पड़ा है। उनका धर्म समंवयवादी विश्वधर्म है, जिसका आदर्श बहुत कुछ गाँधीवाद और आधार ईश्वरवाद है। सामाजिक विचार सुधारवादी और कबीर आदि संतों की भाँति खण्डनात्मक है। उनकी रचनाओं में मुख्यत: वीर और शांत भावना की व्यंजना हुई है। उनके गद्य गीत चिंतन प्रधान एवं व्यंग्यात्मक हैं। गद्य भाषा अलंकृत, काव्यात्मक, लाक्षणिक तथा काव्य-भाषा सरल और मिश्रित है।
====सम्मान====
वियोगी हरि ने [[1925]] में [[पुरुषोत्तमदास टण्डन]] के साथ मिलकर [[प्रयाग]] (वर्तमान [[इलाहाबाद]]) में 'हिन्दी विद्यापीठ' की स्थापना की थी। सन [[1928]] में उनकी प्रसिद्ध कृति 'वीर-सतसई' पर उन्हें 'मंगलाप्रसाद पारितोषक' प्रदान किया गया था।
====कुछ पंक्तियाँ====
वियोगी हरि की लिखी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
;महाराणा प्रताप
;महाराणा प्रताप
<blockquote><poem>अणु-अणु पै मेवाड़ के, छपी तिहारी छाप।
<blockquote><poem>अणु-अणु पै मेवाड़ के, छपी तिहारी छाप।
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उँमडि समुद्र लौं, ठिलें आप तें आप।
उँमडि समुद्र लौं, ठिलें आप तें आप।
करुण-वीर-रस लौं मिले, सक्ता और प्रताप॥</poem></blockquote>
करुण-वीर-रस लौं मिले, सक्ता और प्रताप॥</poem></blockquote>
;देशद्रोह
;देशद्रोह
<blockquote><poem>भूलेहुँ कबहुँ न जाइए, देस-बिमुखजन पास।
<blockquote><poem>भूलेहुँ कबहुँ न जाइए, देस-बिमुखजन पास।
देश-विरोधी-संग तें, भलो नरक कौ बास॥
देश-विरोधी-संग तें, भलो नरक कौ बास॥

13:40, 6 मई 2015 का अवतरण

वियोगी हरि (अंग्रेज़ी: Viyogi Hari , जन्म- 1896, छतरपुर; मृत्यु- 1988) हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। वे आधुनिक ब्रजभाषा के प्रमुख कवि, हिन्दी के सफल गद्यकार, गाँधीवादी और एक समाज सेवी संत थे। उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण कृति 'वीर-सतसई' थी, जिसके लिए इन्हें 'मंगलाप्रसाद पारितोषिक' प्रदान किया गया था। वियोगी हरि ने अनेक ग्रंथों का संपादन, प्राचीन कविताओं का संग्रह तथा संतों की वाणियों को संकलित किया था। निबन्ध, नाटक, कविता, गद्यगीत तथा बालोपयोगी पुस्तकें भी उन्होंने लिखी थीं।

जन्म तथा शिक्षा

वियोगी हरि का जन्म वर्ष 1896 ई. में छतरपुर राज्य के एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन में ही पिता की मृत्यु हो जाने के कारण इनका पालन-पोषण एवं शिक्षा ननिहाल में घर पर ही हुई। शिक्षा आदि के कार्य में वियोगी हरि प्रारम्भ से ही मेधावी रहे थे। इनकी हिन्दी और संस्कृत की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। मैट्रिकुलेशन की परीक्षा इन्होंने 1915 में छतरपुर के हाईस्कूल से उत्तीर्ण की। वियोगी हरि की किशोरावस्था से ही दर्शनशास्त्र में विशेष अभिरुचि थी। छतरपुर की महारानी कमलकुमारी 'युगलप्रिया' के स्नेह-सिक्त सम्पर्क से उनके साथ भारत के प्रसिद्ध तीर्थों का इन्होंने भ्रमण किया।[1]

गद्यकार व समाजसेवी

वियोगी हरि आधुनिक ब्रजभाषा के प्रमुख कवि, हिन्दी के सफल गद्यकार और देश के समाजसेवी संत थे। वे लगभग 40 वर्षों तक हिन्दी साहित्य की सक्रिय सेवा करते रहे। सन 1917 में पुरुषोत्तमदास टण्डन से इनका परिचय हुआ और उन्हीं से इन्हें लेखन और साहित्य-सेवा की सबसे पहले प्रेरणा मिली। इनकी प्रवृत्ति अस्पृश्यतानिवारण की दिशा में उन्होंने 1920 में कानपुर के 'प्रताप' में एक लेखमाला लिखी थी। महात्मा गाँधी के सम्पर्क ने इन्हें इस कार्य से और अधिक बाँध दिया था। यह कार्य ही उनके जीवन का एक उद्देश्य बन गया। गाँधीजी द्वारा प्रवर्तित 'हरिजन-सेवक' (हिन्दी संस्करण) के सम्पादन का कार्य भी इन्होंने सँभाल लिया था। तभी से 'हरिजन सेवक संघ' से इनका घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया था। बाद में वियोगी हरि इसके अध्यक्ष भी रहे।

लेखन कार्य

वियोगी हरि ने अनेक ग्रंथों का सम्पादन, प्राचीन कविताओं का संग्रह तथा संतों की वाणियों का संकलन किया। कविता, नाटक, गद्यगीत, निबन्ध आदि के अतिरिक्त बालोपयोगी पुस्तकें और महापुरुषों की जीवनियाँ लिखीं। 1932 से साहित्य साधना से विरत होकर 'हरिजन सेवक संघ', 'दिल्ली गांधी स्मारक निधि' एवं 'भूदान आन्दोलन' का कार्य वियोगी हरि करते रहे।[1]

कृतियाँ

धर्म, दर्शन, भक्ति, हरिजन कार्य, सामाजिक सुधार तथा अनेक साहित्यिक विषयों को लेकर वियोगी हरि ने लगभग 40-45 पुस्तकें लिखी हैं, जो इस प्रकार हैं-

वियोगी हरि की प्रमुख रचनाएँ[1]
क्रम संख्या कृति क्रम संख्या कृति
1. 'साहित्य विहार' (1922 ई.) 2. 'छद्मयोगिनी नाटिका' (1922 ई.)
3. 'ब्रज माधुरी सार' (1923 ई.) 4. 'कवि कीर्तन' (1923 ई.)
5. 'सूरदास की विनयपत्रिका' (1924 ई.) 6. 'अंतर्नाद' (1926 ई.)
7. 'भावना' (1928 ई.) 8. 'प्रार्थना' (1929 ई.)
9. 'तुलसीदासकृत विनय-पत्रिका हरिजोणी टीका' (1923 ई.) 10. 'वीर-सतसई' (1927 ई.)
11. 'विश्वधर्म' (1930 ई.) 12. 'योगी अरविन्द की दिव्यवाणी'
13. 'छत्रसाल ग्रंथावली' 14. 'मन्दिर प्रवेश'
15. 'प्रबुद्ध यामुन' अथवा 'यामुनाचार्य-चरित' (1929 ई.) 16. 'अनुरागवाटिका'
17. 'मेवाड़ केशरी' 18. 'चरखा स्तोत्र'
19. 'मेरा जीवन प्रवाह' 20. 'तरंगिणी'
21. 'चरखे की गूँज' 22. 'गाँधी जी का आदर्श'
23. 'प्रेमशतक' 24. 'प्रेमपथिक'
25. 'प्रेमांजलि' 26. 'प्रेमपरिषद्'
27. 'वीर बिरुदावली' 28. 'गुरु पुष्पांजलि'
29. 'संतवाणी' 30. 'संत-सुधासार'
31. 'युद्ध वाणी' 32. 'यों भी तो देखिये'
33. 'श्रद्धाकण' 34. 'पावभर आटा'
35. 'जपुजी' 36. 'संक्षिप्त सूरसागर'
37. 'संत सुधासार' 38. 'दादू'
39. 'शुकदेव खण्डकाव्य' 40. -

अध्यात्म-चिंतन

वियोगी हरि का अध्यात्म-चिंतन सर्वेश्वरवादी है। उनकी प्रेमलक्षणाभक्ति, ज्ञान एवं कर्म की अविरोधिनी है। उस पर सूरदास, तुलसीदास, कबीर तथा सूफ़ी कवियों की विचारधारा का प्रभाव पड़ा है। उनका धर्म समंवयवादी विश्वधर्म है, जिसका आदर्श बहुत कुछ गाँधीवाद और आधार ईश्वरवाद है। सामाजिक विचार सुधारवादी और कबीर आदि संतों की भाँति खण्डनात्मक है। उनकी रचनाओं में मुख्यत: वीर और शांत भावना की व्यंजना हुई है। उनके गद्य गीत चिंतन प्रधान एवं व्यंग्यात्मक हैं। गद्य भाषा अलंकृत, काव्यात्मक, लाक्षणिक तथा काव्य-भाषा सरल और मिश्रित है।

सम्मान

वियोगी हरि ने 1925 में पुरुषोत्तमदास टण्डन के साथ मिलकर प्रयाग (वर्तमान इलाहाबाद) में 'हिन्दी विद्यापीठ' की स्थापना की थी। सन 1928 में उनकी प्रसिद्ध कृति 'वीर-सतसई' पर उन्हें 'मंगलाप्रसाद पारितोषक' प्रदान किया गया था।

कुछ पंक्तियाँ

वियोगी हरि की लिखी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

महाराणा प्रताप

अणु-अणु पै मेवाड़ के, छपी तिहारी छाप।
तेरे प्रखर प्रताप तें, राणा प्रबल प्रताप॥
जगत जाहिं खोजत फिरै, सो स्वतंत्रता आप।
बिकल तोहिं हेरत अजौं, राणा निठुर प्रताप॥
हे प्रताप! मेवाड मे, तुहीं समर्थ सनाथ।
धनि-धनि तेरे हाथ ये, धनि-धनि तेरो माथ॥
रजपूतन की नाक तूँ, राणा प्रबल प्रताप।
है तेरी ही मूँछ की राजस्थान में छाप॥
काँटे-लौं कसक्यौ सदा, को अकबर-उर माहिं।
छाँडि प्रताप-प्रताप जग, दूजो लखियतु नाहिं॥
ओ प्रताप मेवाड़ के! यह कैसो तुव काम?
खात लखनु तुव खडग पै, होत काल कौ नाम॥
उँमडि समुद्र लौं, ठिलें आप तें आप।
करुण-वीर-रस लौं मिले, सक्ता और प्रताप॥

देशद्रोह

भूलेहुँ कबहुँ न जाइए, देस-बिमुखजन पास।
देश-विरोधी-संग तें, भलो नरक कौ बास॥
सुख सों करि लीजै सहन, कोटिन कठिन कलेस।
विधना, वै न मिलाइयो, जे नासत निज देस॥
सिव-बिरंचि-हरिलोकँ, बिपत सुनावै रोय।
पै स्वदेस-बिद्रोहि कों, सरन न दैहै कोय॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 570 |

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