"सदस्य:रविन्द्र प्रसाद/अभ्यास": अवतरणों में अंतर

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{{सूचना बक्सा साहित्यकार
{{शिवाजी विषय सूची}}{{चयनित लेख}}{{सुरक्षा}}
|चित्र=Chetanya-Mahaprabhu.jpg
{{सूचना बक्सा ऐतिहासिक शासक
|चित्र का नाम=चैतन्य महाप्रभु
|चित्र=Chatrapati-Shivaji.jpg
|पूरा नाम=चैतन्य महाप्रभु
|चित्र का नाम=शिवाजी
|अन्य नाम=विश्वम्भर मिश्र, श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्र, निमाई, गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर
|पूरा नाम=शिवाजी राजे भोंसले
|जन्म= [[18 फ़रवरी]] सन् 1486<ref name="Gaudiya"/> ([[फाल्गुन]] [[शुक्लपक्ष|शुक्ल]] [[पूर्णिमा]])
|अन्य नाम=छत्रपति शिवाजी महाराज
|जन्म भूमि=[[नवद्वीप]] ([[नादिया ज़िला|नादिया]]), [[पश्चिम बंगाल]]
|जन्म=[[19 फ़रवरी]], 1630
|मृत्यु=सन् 1534
|जन्म भूमि=[[शिवनेरी]], [[महाराष्ट्र]]
|मृत्यु स्थान=[[पुरी]], [[ओड़िशा|उड़ीसा]]
|मृत्यु तिथि=[[3 अप्रैल]], 1680
|अभिभावक=जगन्नाथ मिश्र और शचि देवी
|मृत्यु स्थान=दुर्ग [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]]
|पालक माता-पिता=
|पिता/माता=[[शाहजी भोंसले]], [[जीजाबाई]]  
|पति/पत्नी=लक्ष्मी देवी और [[विष्णुप्रिया]]
||पति/पत्नी=साइबाईं निम्बालकर
|संतान=
|संतान=[[सम्भाजी]]
|कर्म भूमि=[[वृन्दावन]]
|उपाधि=छत्रपति
|कर्म-क्षेत्र=
|शासन काल=1642 - 1680 ई.
|मुख्य रचनाएँ=
|शासन अवधि=38 वर्ष
|विषय=कृष्ण भक्ति
|धार्मिक मान्यता=[[हिन्दू धर्म]]  
|भाषा=
|राज्याभिषेक=[[6 जून]], 1674 ई.
|विद्यालय=
|युद्ध=[[मुग़ल|मुग़लों]] के विरुद्ध अनेक युद्ध हुए
|शिक्षा=
|प्रसिद्धि=
|पुरस्कार-उपाधि=
|निर्माण=अनेक क़िलों का निर्माण और पुनरुद्धार
|प्रसिद्धि=चैतन्य सगुण भक्ति को महत्त्व देते थे। भगवान का वह सगुण रूप, जो अपरिमेय शक्तियों और गुणों से पूर्ण है, उन्हें मान्य रहा।
|सुधार-परिवर्तन=हिन्दू राज्य की स्थापना
|विशेष योगदान=
|राजधानी=दुर्ग राजगढ़
|नागरिकता=भारतीय
|पूर्वाधिकारी=[[शाहजी भोंसले]]
|संबंधित लेख=[[चैतन्य सम्प्रदाय]], [[वैष्णव सम्प्रदाय]], [[चैतन्य भागवत]], [[चैतन्य चरितामृत]], [[श्री श्री चैतन्य चरितावली|चैतन्य चरितावली]], [[वृन्दावनदास ठाकुर]], [[कृष्णदास कविराज]], [[प्रभुदत्त ब्रह्मचारी]]
|उत्तराधिकारी=[[सम्भाजी]]
|शीर्षक 1=  
|राजघराना=[[मराठा साम्राज्य]]
|वंश=भोंसले
|स्मारक=महाराष्ट्र
|मक़बरा=
|संबंधित लेख=[[ताना जी]], [[महाराष्ट्र]], [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]], [[समर्थ रामदास|समर्थ गुरु रामदास]], [[पूना]]
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|अन्य जानकारी=महाप्रभु चैतन्य के विषय में [[वृन्दावनदास ठाकुर|वृन्दावनदास]] द्वारा रचित '[[चैतन्य भागवत]]' नामक [[ग्रन्थ]] में अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है। उक्त ग्रन्थ का लघु संस्करण [[कृष्णदास कविराज|कृष्णदास]] ने 1590 में '[[चैतन्य चरितामृत]]' शीर्षक से लिखा था। [[प्रभुदत्त ब्रह्मचारी|श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी]] द्वारा लिखित 'श्री श्री चैतन्य-चरितावली' गीता प्रेस गोरखपुर ने छापी है।
|अन्य जानकारी="शिव सूत्र" ([[गुरिल्ला युद्ध]]) का आरम्भ किया।
|बाहरी कड़ियाँ=[http://pustak.org/bs/home.php?bookid=8200 चैतन्य महाप्रभु -अमृतलाल नागर]
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}}
'''चैतन्य महाप्रभु''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Chaitanya Mahaprabhu'', जन्म: 18 फ़रवरी सन् 1486<ref name="Gaudiya"/> - मृत्यु: सन् 1534) [[भक्तिकाल]] के प्रमुख संतों में से एक हैं। इन्होंने [[वैष्णव|वैष्णवों]] के [[चैतन्य सम्प्रदाय|गौड़ीय संप्रदाय]] की आधारशिला रखी। भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनीतिक अस्थिरता के दिनों में [[हिन्दू]]-[[मुस्लिम]] एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊँच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त [[वृन्दावन]] को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। महाप्रभु चैतन्य के विषय में [[वृन्दावनदास ठाकुर|वृन्दावनदास]] द्वारा रचित '[[चैतन्य भागवत]]' नामक [[ग्रन्थ]] में अच्छी सामग्री उपलब्ध होती है। उक्त ग्रन्थ का लघु संस्करण [[कृष्णदास कविराज|कृष्णदास]] ने 1590 में '[[चैतन्य चरितामृत]]' शीर्षक से लिखा था। [[प्रभुदत्त ब्रह्मचारी|श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी]] द्वारा लिखित 'श्री श्री चैतन्य-चरितावली' [[गीता प्रेस गोरखपुर]] ने छापी है।
'''शिवाजी''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Shivaji'', पूरा नाम: 'शिवाजी राजे भोंसले', जन्म: [[19 फ़रवरी]], 1630 - मृत्यु: [[3 अप्रैल]], 1680) [[पश्चिम भारत|पश्चिमी भारत]] के [[मराठा साम्राज्य]] के संस्थापक थे। शिवाजी के [[पिता]] का नाम [[शाहजी भोंसले]] और [[माता]] का नाम [[जीजाबाई]] था। सेनानायक के रूप में शिवाजी की महानता निर्विवाद रही है। शिवाजी ने अनेक क़िलों का निर्माण और पुनरुद्धार करवाया। उनके निर्देशानुसार सन 1679 ई. में अन्नाजी दत्तों ने एक विस्तृत भू-सर्वेक्षण करवाया, जिसके परिणामस्वरूप एक नया राजस्व निर्धारण हुआ।
{{संदर्भ|शिवनेरी| अमात्य| तुलजा भवानी| सिंहगढ़ दुर्ग}}
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन् 18 फ़रवरी सन् 1486<ref name="Gaudiya">{{cite web |url=http://gaudiyahistory.com/caitanya-mahaprabhu/ |title=Chaitanya Mahaprabhu |accessmonthday=15 मई |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=Gaudiya History |language=अंग्रेज़ी }} </ref>की [[फाल्गुन]] [[शुक्लपक्ष|शुक्ल]] [[पूर्णिमा]] को [[पश्चिम बंगाल]] के [[नवद्वीप]] ([[नादिया]]) नामक उस गांव में हुआ, जिसे अब 'मायापुर' कहा जाता है। बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें 'निमाई' कहकर पुकारते थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें 'गौरांग', 'गौर हरि', 'गौर सुंदर' आदि भी कहते थे। चैतन्य महाप्रभु के द्वारा [[गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय|गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय]] की आधारशिला रखी गई। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामन्त्र 'नाम संकीर्तन' का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। कवि कर्णपुर कृत 'चैतन्य चंद्रोदय' के अनुसार इन्होंने केशव भारती नामक सन्न्यासी से [[दीक्षा]] ली थी। कुछ लोग माधवेन्द्र पुरी को इनका दीक्षा गुरु मानते हैं। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शचि देवी था।
इनके पिताजी शाहजी भोंसले ने शिवाजी के जन्म के उपरान्त ही अपनी पत्नी जीजाबाई को प्रायः त्याग दिया था। उनका बचपन बहुत उपेक्षित रहा और वे सौतेली माँ के कारण बहुत दिनों तक पिता के संरक्षण से वंचित रहे। उनके पिता शूरवीर थे और अपनी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते पर आकर्षित थे। जीजाबाई उच्च कुल में उत्पन्न प्रतिभाशाली होते हुए भी तिरस्कृत जीवन जी रही थीं। जीजाबाई यादव वंश से थीं। उनके पिता एक शक्तिशाली और प्रभावशाली सामन्त थे। बालक शिवाजी का लालन-पालन उनके स्थानीय संरक्षक दादाजी कोणदेव,जीजाबाई तथा [[समर्थ रामदास|समर्थ गुरु रामदास]] की देखरेख में हुआ। माता जीजाबाई तथा गुरु रामदास ने कोरे पुस्तकीय ज्ञान के प्रशिक्षण पर अधिक बल देकर शिवाजी के मष्तिष्क में यह भावना भर दी थी कि देश, समाज, गौ तथा ब्राह्मणों को मुसलमानों के उत्पीड़न से मुक्त कराना उनका परम कर्तव्य है। शिवाजी स्थानीय लोगों के बीच रहकर शीघ्र ही उनमें अत्यधिक सर्वप्रिय हो गये। उनके साथ आस-पास के क्षेत्रों में भ्रमण करने से उनको स्थानीय दुर्गों और दर्रों की भली प्रकार व्यक्तिगत जानकारी प्राप्त हो गयी। कुछ स्वामिभक्त लोगों का एक दल बनाकर उन्होंने उन्नीस वर्ष की आयु में [[पूना |पूना]] के निकट [[तोरण दुर्ग|तोरण के दुर्ग]] पर अधिकार करके अपना जीवन-क्रम आरम्भ किया। उनके हृदय में स्वाधीनता की लौ जलती थी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों को संगठित किया। धीरे धीरे उनका विदेशी शासन की बेड़ियाँ तोड़ने का संकल्प प्रबल होता गया। शिवाजी का विवाह '''साइबाईं निम्बालकर''' के साथ सन 1641 में [[बंगलौर]] में हुआ था। उनके गुरु और संरक्षक कोणदेव की 1647 में मृत्यु हो गई। इसके बाद शिवाजी ने स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया।
====जन्म काल====
चैतन्य के जन्मकाल के कुछ पहले सुबुद्धि राय [[गौड़]] के शासक थे। उनके यहाँ [[अलाउद्दीन हुसैनशाह|हुसैनख़ाँ]] नामक एक पठान नौकर था। राजा सुबुद्धिराय ने किसी राजकाज को सम्पादित करने के लिए उसे रुपया दिया। हुसैनख़ाँ ने वह रकम खा पीकर बराबर कर दी। राजा सुबुद्धिराय को जब यह पता चला तो उन्होंने दंड स्वरूप हुसैनख़ाँ की पीठ पर कोड़े लगवाये। हुसैनख़ाँ चिढ़ गया। उसने षड्यन्त्र रच कर राजा सुबुद्धिराय को हटा दिया। अब हुसैन ख़ाँ पठान गौड़ का राजा था और सुबुद्धिराय उसका कैदी। हुसैनख़ाँ की पत्नी ने अपने पति से कहा कि पुराने अपमान का बदला लेने के लिए राजा को मार डालो। परन्तु हुसैनख़ाँ ने ऐसा किया। वह बहुत ही धूर्त था, उसने राजा को जबरदस्ती [[मुसलमान]] के हाथ से पकाया और लाया हुआ भोजन करने पर बाध्य किया। वह जानता था कि इसके बाद कोई [[हिन्दू]] सुबुद्धिराय को अपने समाज में शामिल नहीं करेगा। इस प्रकार सुबुद्धिराय को जीवन्मृत ढंग से अपमान भरे दिन बिताने के लिए ‘एकदम मुक्त’ छोड़कर हुसैनख़ाँ हुसैनशाह बन गया। <br />[[चित्र:Chetanya-Mahaprabhu-1.jpg|thumb|left|चैतन्य महाप्रभु मन्दिर, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
इसके बाद तो फिर किसी हिन्दू राज-रजवाड़े में चूँ तक करने का साहस नहीं रह गया था। वे साधारण-से-साधारण मुसलमान से भी घबराने लगे। फिर भी हारे हुए लोगों के मन में दिन-रात साँप लोटते ही रहा करते थे। निरन्तर यत्र-तत्र विस्फोट हुआ ही करते थे। इसीलिए राजा और प्रजा में प्रबल रूप से एक सन्देहों भरा नाता पनप गया। सन् 1480 के लगभग [[नदिया]] ([[नवद्वीप]]) के दुर्भाग्य से [[अलाउद्दीन हुसैनशाह|हुसैनशाह]] के कानों में बार-बार यह भनक पड़ी कि नदिया के [[ब्राह्मण]] अपने जन्तर-मन्तर से हुसैनशाह का तख्ता पलटने के लिए कोई बड़ा भारी अनुष्ठान कर रहे हैं। सुनते-सुनते एक दिन हुसैनशाह चिढ़ उठा। उसने एक प्रबल मुसलमान सेना नदिया का धर्मतेज नष्ट करने के लिए भेज दी। नदिया और उसके आस-पास ब्राह्मण के गाँव-के-गाँव घेर लिये गये। उन्होंने उन पर अवर्णनीय अत्याचार किये। उसके मन्दिर, पुस्तकालय और सारे धार्मिक एवं ज्ञान-मूलक संस्कारों के चिह्न मिटाने आरम्भ किये। स्त्रियों का सतीत्व भंग किया। परमपूज्य एवं प्रतिष्ठित ब्राह्मणों की शिखाएँ पकड़-पकड़ कर उन पर लातें जमाईं, थूका; तरह-तरह से अपमानित किया। हुसैनशाह की सेना ने झुण्ड के झुण्ड ब्राह्मण [[परिवार|परिवारों]] को एक साथ कलमा पढ़ने पर मजबूर किया। बच्चे से लेकर बूढ़े तक नर-नारी को होठों से निषिद्ध मांस का स्पर्श कराकर उन्हें अपने पुराने धर्म में पुनः प्रवेश करने लायक़ न रखा। नदिया के अनेक महापंडित, बड़े-बड़े विद्वान समय रहते हुए सौभाग्यवश इधर-उधर भाग गये। परिवार बँट गये, कोई कहीं, कोई कहीं। धीरे-धीरे शांति होने पर कुछ लोग फिर लौट आये और जस-तस जीवन निर्वाह करने लगे। धर्म अब उनके लिए सार्वजनिक नहीं गोपनीय-सा हो गया था। तीज-त्योहारों में वह पहले का-सा रस नहीं रहा पता नहीं कौन कहाँ कैसे अपमान कर दे। नकटा जीये बुरे हवाल। पाठशालाएँ चलती थीं, नदिया के नाम में अब भी कुछ असर बाक़ी था, मगर सब कुछ फीका पड़ चुका था। लोग सहमी खिसियाई हुई ज़िन्दगी बसर कर रहे थे। अनास्था की इस भयावनी मरुभूमि में भी हरियाली एक जगह छोटे से टापू का रूप लेकर संजीवनी सिद्ध हो रही थी। नदिया में कुछ इतने इने-गिने लोग ऐसे भी थे जो ईश्वर और उसकी बनाई हुई दुनिया के प्रति अपना अडिग, उत्कट और अपार प्रेम अर्पित करते ही जाते थे। खिसियाने पण्डितों की नगरी में ये कुछ इने-गिने [[वैष्णव]] लोग चिढ़ा-चिढ़ा कर विनोद के पात्र बना दिये गये थे। चारों ओर मनुष्य के लिए हर कहीं अंधेरा-ही-अंधेरा छाया हुआ था। लोक-लांछित वैष्णव जन तब भी हरि-भक्ति थे। यह संयोग की बात है कि श्री गौरांग (चैतन्य महाप्रभु) का जन्म पूर्ण [[चन्द्रग्रहण]] के समय हुआ था। उस समय नदी में स्नान, करते दबे-दबे हरे राम, हरे कृष्ण जपते, आकाशचारी राहुग्रस्त चन्द्र की खैर मनाते सर्वहारा नर-नारी जन यह नहीं जानते थे कि उन्हीं के नगर की एक गली में वह चन्द्र उदय हो चुका है जिसकी प्रेम चाँदनी में वर्षों से छिपा खोया हुआ विजित समाज का अनन्त श्रद्धा से पूजित, मनुष्य के जीने का एकमात्र सहारा–ईश्वर उन्हें फिर से उजागर रूप में मिल जायगा। अभी तो वह घुट-घुट कर रह रहा है, वह अपने धर्म को धर्म और ईश्नर को ईश्वर नहीं कह पाता है, यानी अपने अस्तित्व को खुलकर स्वीकार नहीं कर पाता है। श्री चैतन्य ने एक ओर तो ईश्वर को अपने यहाँ के कर्मकाण्ड की जटिलताओं से मुक्त करके जन-जन के लिए सुलभ बना दिया था, और दूसरी ओर शासक वर्ग की धमकियों से लोक-आस्था को मुक्त किया।<ref name="भारतीय साहित्य संग्रह">{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=8200 |title=जीवनी/आत्मकथा >> चैतन्य महाप्रभु |accessmonthday= 16 मई|accessyear=2015 |last=नागर |first=अमृतलाल |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=हिन्दी }} </ref>


====बचपन====
==आरंभिक जीवन और उल्लेखनीय सफलताएँ==
निमाई (चैतन्य महाप्रभु) बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। बहुत कम उम्र में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया। निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद् चिंतन में लीन रहकर [[राम]] [[कृष्ण]] का स्तुति गान करने लगे थे। 15-16 वर्ष की अवस्था में इनका [[विवाह]] लक्ष्मी देवी के साथ हुआ। सन् 1505 में सर्पदंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री [[विष्णुप्रिया]] के साथ हुआ। जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके [[पिता]] का निधन हो गया। चैतन्य के बड़े भाई विश्वरूप ने बाल्यावस्था में ही सन्न्यास ले लिया था, अत: न चाहते हुए भी चैतन्य को अपनी माता की सुरक्षा के लिए चौबीस वर्ष की अवस्था तक गृहस्थ आश्रम का पालन करना पड़ा। कहा जाता है कि इनका विवाह [[वल्लभाचार्य]] की सुपुत्री से हुआ था। [[चित्र:Chaitanya-Mahaprabhu-with-Roop-and-Sanatan-Goswami.jpg|thumb|चैतन्य महाप्रभु को दण्डवत प्रणाम करते हुए [[रूप गोस्वामी]] और [[सनातन गोस्वामी]]]]
शिवाजी प्रभावशाली कुलीनों के वंशज थे। उस समय [[भारत]] पर मुस्लिम शासन था। [[उत्तर भारत|उत्तरी भारत]] में मुग़लों तथा दक्षिण में [[बीजापुर]] और [[गोलकुंडा]] में मुस्लिम सुल्तानों का, ये तीनों ही अपनी शक्ति के ज़ोर पर शासन करते थे और प्रजा के प्रति कर्तव्य की भावना नहीं रखते थे। शिवाजी की पैतृक जायदाद बीजापुर के सुल्तान द्वारा शासित दक्कन में थी। उन्होंने मुसलमानों द्वारा किए जा रहे दमन और धार्मिक उत्पीड़न को इतना असहनीय पाया कि 16 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें विश्वास हो गया कि हिन्दुओं की मुक्ति के लिए ईश्वर ने उन्हें नियुक्त किया है। उनका यही विश्वास जीवन भर उनका मार्गदर्शन करता रहा। उनकी विधवा माता, जो स्वतंत्र विचारों वाली हिन्दू कुलीन महिला थी, ने जन्म से ही उन्हें दबे-कुचले हिंदुओं के अधिकारों के लिए लड़ने और मुस्लिम शासकों को उखाड़ फैंकने की शिक्षा दी थी। अपने अनुयायियों का दल संगठित कर उन्होंने लगभग 1655 में बीजापुर की कमज़ोर सीमा चौकियों पर कब्ज़ा करना शुरू किया। इसी दौर में उन्होंने सुल्तानों से मिले हुए स्वधर्मियों को भी समाप्त कर दिया। इस तरह उनके साहस व सैन्य निपुणता तथा हिन्दुओं को सताने वालों के प्रति कड़े रूख ने उन्हें आम लोगों के बीच लोकप्रिय बना दिया। उनकी विध्वंसकारी गतिविधियाँ बढ़ती गई और उन्हें सबक सिखाने के लिए अनेक छोटे सैनिक अभियान असफल ही सिद्ध हुए। जब 1659 में बीजापुर के सुल्तान ने उनके ख़िलाफ़ [[अफ़ज़ल ख़ाँ]] के नेतृत्व में 10,000 लोगों की सेना भेजी तब शिवाजी ने डरकर भागने का नाटक कर सेना को कठिन पहाड़ी क्षेत्र में फुसला कर बुला लिया और आत्मसमर्पण करने के बहाने एक मुलाकात में अफ़ज़ल ख़ाँ की हत्या कर दी। उधर पहले से घात लगाए उनके सैनिकों ने बीजापुर की बेख़बर सेना पर अचानक हमला करके उसे खत्म कर डाला, रातों रात शिवाजी एक अजेय योद्धा बन गए। जिनके पास बीजापुर की सेना की बंदूकें, घोड़े और गोला-बारूद का भंडार था।  
अपने समय में सम्भवत: इनके समान ऐसा कोई दूसरा आचार्य नहीं था, जिसने लोकमत को चैतन्य के समान प्रभावित किया हो। [[पश्चिम बंगाल]] में अद्वैताचार्य और [[नित्यानन्द]] को तथा [[मथुरा]] में [[रूप गोस्वामी]] और [[सनातन गोस्वामी]] को अपने प्रचार का भार संभलवाकर चैतन्य नीलाचल ([[कटक]]) में चले गए और वहाँ 12 [[वर्ष]] तक लगातार जगन्नाथ की भक्ति और पूजा में लगे रहे। महाप्रभु के अन्तकाल का आधिकारिक विवरण निश्चयात्मक रूप से उपलब्ध नहीं होता है। 48 वर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया। [[मृदंग]] की ताल पर [[कीर्तन]] करने वाले चैतन्य के अनुयायियों की संख्या आज भी पूरे [[भारत]] में पर्याप्त है।
[[चित्र:Chatrapati Shivaji-2.jpg|200px|left]]
====शक्ति में वृद्धि====
शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित हो कर मुग़ल बादशाह [[औरंगज़ेब]] ने दक्षिण में नियुक्त अपने सूबेदार को उन पर चढ़ाई करने का आदेश दिया। उससे पहले ही शिवाजी ने आधी रात को सूबेदार के शिविर पर हमला कर दिया। जिसमें सूबेदार के एक हाथ की उंगलियाँ कट गई और उसका बेटा मारा गया। इससे सूबेदार को पीछे हटना पड़ा। शिवाजी ने मानों मुग़लों को और चिढ़ाने के लिए संपन्न तटीय नगर सूरत पर हमला कर दिया और भारी संपत्ति लूट ली। इस चुनौती की अनदेखी न करते हुए औरंगज़ेब ने अपने सबसे प्रभावशाली सेनापति [[जयसिंह|मिर्जा राजा जयसिंह]] के नेतृत्व में लगभग 1,00,000 सैनिकों की फ़ौज भेजी। इतनी बड़ी सेना और जयसिंह की हिम्मत और दृढ़ता ने शिवाजी को शांति समझौते पर मजबूर कर दिया।
==शिवाजी और जयसिंह==
शिवाजी को कुचलने के लिए [[राजा जयसिंह]] ने [[बीजापुर]] के सुल्तान से संधि कर पुरन्दर के क़िले को अधिकार में करने की अपने योजना के प्रथम चरण में [[24 अप्रैल]], 1665 ई. को 'व्रजगढ़' के क़िले पर अधिकार कर लिया। पुरन्दर के क़िले की रक्षा करते हुए शिवाजी का अत्यन्त वीर सेनानायक 'मुरार जी बाजी' मारा गया। पुरन्दर के क़िले को बचा पाने में अपने को असमर्थ जानकर शिवाजी ने महाराजा जयसिंह से संधि की पेशकश की। दोनों नेता संधि की शर्तों पर सहमत हो गये और [[22 जून]], 1665 ई. को '[[पुरन्दर की सन्धि]]' सम्पन्न हुई।
;सन्धि की शर्तें
इतिहास प्रसिद्ध इस सन्धि की प्रमुख शर्तें निम्नलिखित थीं-
#शिवाजी को मुग़लों को अपने 23 क़िले, जिनकी आमदनी 4 लाख हूण प्रति वर्ष थी, देने थे।
#सामान्य आय वाले, लगभग एक लाख हूण वार्षिक की आमदनी वाले, 12 क़िले शिवाजी को अपने पास रखने थे।
#शिवाजी ने [[मुग़ल]] सम्राट [[औरंगज़ेब]] की सेवा में अपने पुत्र [[शम्भाजी]] को भेजने की बात मान ली एवं मुग़ल दरबार ने शम्भाजी को 5000 का [[मनसब]] एवं उचित जागीर देना स्वीकार किया।


==कृष्ण भक्ति==
#मुग़ल सेना के द्वारा बीजापुर पर सैन्य अभियान के दौरान बालाघाट की जागीरें प्राप्त होती, जिसके लिए शिवाजी को मुग़ल दरबार को 40 लाख हूण देना था।
चैतन्य को इनके अनुयायी [[कृष्ण]] का [[अवतार]] भी मानते रहे हैं। सन् 1509 में जब ये अपने पिता का [[श्राद्ध]] करने [[बिहार]] के [[गया]] नगर में गए, तब वहां इनकी मुलाक़ात ईश्वरपुरी नामक संत से हुई। उन्होंने निमाई से 'कृष्ण-कृष्ण' रटने को कहा। तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर समय [[श्रीकृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] की [[भक्ति]] में लीन रहने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से [[ढोल|ढोलक]], [[मृदंग]], [[झांझ|झाँझ]], [[मंजीरा|मंजीरे]] आदि [[वाद्य यंत्र]] बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर 'हरि नाम संकीर्तन' करना प्रारंभ किया। '''हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे''' नामक अठारह शब्दीय [[कीर्तन]] महामन्त्र निमाई की ही देन है। इनका पूरा नाम 'विश्वम्भर मिश्र' और कहीं 'श्रीकृष्ण चैतन्यचन्द्र' मिलता है। चौबीसवें वर्ष की समाप्ति पर इन्होंने वैराग्य ले लिया। वे कर्मकांड के विरोधी और श्रीकृष्ण के प्रति आस्था के समर्थक थे। चैतन्य मत का एक नाम 'गौडीय वैष्णव मत' भी है।  चैतन्य ने अपने जीवन का शेष भाग प्रेम और भक्ति का प्रचार करने में लगाया। उनके पंथ का द्वार सभी के लिए खुला था। [[हिन्दू]] और [[मुसलमान]] सभी ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।  इनके अनुयायी चैतन्य को [[विष्णु के अवतार|विष्णु का अवतार]] मानते हैं। अपने जीवन के अठारह वर्ष उन्होंने [[ओडिशा|उड़ीसा]] में बिताये। छह वर्ष तक वे [[दक्षिण भारत]], [[वृन्दावन]] आदि स्थानों में विचरण करते रहे। छ: वर्ष [[मथुरा]] से [[जगन्नाथ पुरी|जगन्नाथ]] तक के सुविस्तृत प्रदेश में अपने सिद्धांतों का प्रचार किया तथा कृष्ण भक्ति की ओर लोगों को प्रवृत्त किया।
==आगरा यात्रा==
==व्यावहारिक प्रभाव==
अपनी सुरक्षा का पूर्ण आश्वासन प्राप्त कर शिवाजी [[आगरा]] के दरबार में औरंगज़ेब से मिलने के लिए तैयार हो गये। वह [[9 मई]], 1666 ई को अपने पुत्र शम्भाजी एवं 4000 [[मराठा]] सैनिकों के साथ [[मुग़ल]] दरबार में उपस्थित हुए, परन्तु औरंगज़ेब द्वारा उचित सम्मान न प्राप्त करने पर शिवाजी ने भरे हुए दरबार में औरंगज़ेब को 'विश्वासघाती' कहा, जिसके परिणमस्वरूप औरंगज़ेब ने शिवाजी एवं उनके पुत्र को 'जयपुर भवन' में क़ैद कर दिया। वहाँ से शिवाजी [[13 अगस्त]], 1666 ई को फलों की टोकरी में छिपकर फ़रार हो गये और [[22 सितम्बर]], 1666 ई. को [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]] पहुँचे। कुछ दिन बाद शिवाजी ने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब को पत्र लिखकर कहा कि "यदि सम्राट उसे (शिवाजी) को क्षमा कर दें तो वह अपने पुत्र शम्भाजी को पुनः मुग़ल सेवा में भेज सकते हैं।" औरंगज़ेब ने शिवाजी की इन शर्तों को स्वीकार कर उसे 'राजा' की उपाधि प्रदान की। जसवंत सिंह की मध्यस्थता से [[9 मार्च]], 1668 ई. को पुनः शिवाजी और मुग़लों के बीच सन्धि हुई। इस संधि के बाद औरंगज़ेब ने शिवाजी को [[बरार]] की जागीर दी तथा उनके पुत्र शम्भाजी को पुनः उसका मनसब 5000 प्रदान कर दिया।
[[चित्र:Chetanya-Mahaprabhu-2.jpg|thumb|300px|चैतन्य महाप्रभु मन्दिर, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
====सन्धि का उल्लंघन====
चैतन्य महाप्रभु ने 'अचिन्त्य भेदाभेदवाद' का प्रवर्तन किया, किन्तु प्रामाणिक रूप से इनका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। इनके कुछ शिष्यों के मतानुसार 'दशमूल श्लोक' इनके रचे हुए हैं। अन्य सम्प्रदायों के प्रवर्तकों ने अपने मत की पुष्टि के लिए भाष्य और अन्य ग्रन्थ लिखे हैं, जबकि चैतन्य ने [[ब्रह्मसूत्र]], [[गीता]] आदि पर भी भाष्य नहीं लिखे। अत: यह आश्चर्यजनक बात ही है कि भाष्य आदि की रचना न करने पर भी महाप्रभु चैतन्य को एक बड़े भारी सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना गया। यह सम्भवत: इस कारण सम्भव हुआ कि इनका मत अत्यधिक भावात्मक रहा, अत: उसको आम लोगों का समर्थन प्राप्त हो गया। इस प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि चैतन्य महाप्रभु का आचार्यात्व शास्त्र विश्लेषण पर उतना आधारित नहीं, जितना कि उनके व्यावहारिक प्रभाव पर आधारित रहा। इनके उत्तरवर्ती शिष्यों ने उस शास्त्रीय आधार के अभाव की भी पूर्ति कर दी, जो भाष्य की रचना न करने के कारण इस सम्प्रदाय में चल रहा था। भक्ति को आधार बनाकर चैतन्य ने यथापि कोई नई परम्परा नहीं चलाई, फिर भी भावविह्लता का जितना पुट चैतन्य ने भक्ति में मिलाया, उतना किसी अन्य ने नहीं। [[वल्लभाचार्य]] आदि ने [[धर्म]] के और [[भक्ति]] के विधानात्मक पक्ष को महत्त्व दिया था, जबकि चैतन्य ने भावात्मक पक्ष को प्रश्रय दिया। चैतन्य की विचारधारा पर पांचरात्र साहित्य, [[भागवत]], [[पुराण]] तथा गीत गोविन्द का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा। विभिन्न रूपों में प्रचलित और लिपिबद्ध कृष्ण कथा ने उनके व्यक्तित्व को भीतरी भाग तक अवश्य ही छुआ होगा। यों तो सारा [[भारत]] ही चैतन्य से प्रभावित हुआ, किन्तु [[पश्चिम बंगाल]] का जनजीवन तो उनकी विचारधारा के साथ आमूलचूल एकाकार हो गया। फलस्वरूप न केवल [[हिन्दू]] अपितु तत्कालीन [[मुसलमान]] भी उनके मत से प्रभावित हुए बिना न रह सके। भक्ति भावना के अपेक्षाकृत ह्रास के बावजूद अब भी चैतन्य का प्रभाव समाज में लगातार अक्षुण्ण बना हुआ है। महाप्रभु की प्रभुता बढ़ाने और बनाए रखने में उनकी सुन्दरता, मृदुता, साहसिकता, सूझबूझ, विद्वत्ता और शालीनता का बड़ा हाथ रहा है।
1667-1669 ई. के बीच के तीन वर्षों का उपयोग शिवाजी ने विजित प्रदेशों को सुदृढ़ करने और प्रशासन के कार्यों में बिताया। 1670 ई. में शिवाजी ने 'पुरन्दर की संधि' का उल्लंघन करते हुए मुग़लों को दिये गये 23 क़िलों में से अधिकांश को पुनः जीत लिया। तानाजी मालसुरे द्वारा जीता गया 'कोंडाना', जिसका फ़रवरी, 1670 ई. में शिवाजी ने नाम बदलकर '[[सिंहगढ़ दुर्ग|सिंहगढ़]]' रखा दिया था, सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण क़िला था।
==चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख सिद्धांत==
चैतन्य महाप्रभु अपने मत की शास्त्रीय व्याख्याओं में अधिक नहीं उलझे, फिर भी उनके प्रवचनों के आधार पर उनके अनुयायियों ने इस सम्प्रदाय की मान्यताओं का जो विश्लेषण किया, उसके अनुसार अचिन्य भेदाभेदवाद में निर्दिष्ट प्रमुख तत्वों का स्वरूप निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है। [[चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-4.jpg|thumb|left|[[गुरु पूर्णिमा]] पर चैतन्य वैष्णव संघ के श्रद्धालु, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
====ब्रह्म====
चैतन्य के अनुसार ब्रह्म का स्वरूप विशुद्ध आनन्दात्मक है। ब्रह्म विशेष है और उसकी अन्य शक्तियाँ विशेषण हैं। शक्तियों से विशिष्ट ब्रह्म को ही भगवान कहा जाता है।<ref>आनन्दमात्रं विशेष्यं समस्ता: शक्तय: विशेषणानि विशिष्टो भगवान्। षष्टसन्दर्भ, पृष्ठ 50</ref> ब्रह्म, ईश्वर, भगवान और परमात्मा ये संज्ञाएं एक ही तत्व की हैं। अचिन्त्य भेदाभेदवादी आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जिस तत्व को ईश्वर कहा है, वह ब्रह्म ही है। ईश्वर एक और बहुभाव से अभिन्न होने पर भी गुण और गुणों तथा देह और देही भाव से भिन्न भी है। गुण और गुणी का परस्पर अभेद भी माना जाता है, इसलिए ब्रह्म गुणात्मा भी कहलाता है। भेद जल और उसकी तरंगों की भिन्नता के समान है। जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय का आधार भी ब्रह्म ही है। वही जगत का उपादान तथा निमित्त कारण है। ब्रह्म की तीन शक्तियाँ मानी गई हैं। परा, अपरा और अविद्या। परा शक्ति के कारण ब्रह्म जगत का निमित्त कारण है तथा अपरा और अविद्या (माया) शक्ति के कारण ब्रह्म जगत का उपादान कारण माना जाता है। अभिव्यक्ति की दृष्टि से ब्रह्म की शक्ति के तीन रूप हैं- सेवित्, संघिनी और ह्लादिनी। चैतन्य के अनुसार ब्रह्म ऐश्वर्य और माधुर्य दोनों से ही युक्त है। यही कारण है कि 'षट्सन्दर्भ' के लेखक ने कृष्ण के विग्रह को भी ब्रह्म से अभिन्न मानने का प्रयास किया और कृष्ण को ही परमशक्ति बताया। जीव गोस्वामी के कथनानुसार ब्रह्म जगत के स्रष्टा के रूप में भगवान कहलाता है। बलदेव विद्याभूषण सत्ता, महत्ता और स्नेह की अवस्थिति के कारण ब्रह्म को ही 'हरि', 'नारायण' या 'कृष्ण' कहते हैं।
====जगत====
चैतन्य के अनुसार जगत की सृष्टि ब्रह्म की अविद्या अथवा माया शक्ति के द्वारा होती है। जगत ईश्वर से भिन्न होते हुए भी उसके अधीन होने के कारण अभिन्न है। जगत 'भ्रम' नहीं अपितु 'सत्य' है। प्रकृति और माया को चैतन्य सम्प्रदाय में अभिन्न माना गया है। अत: प्रकृति को ब्रह्म की शक्ति कहा गया है। प्रलय काल में भी प्रकृति की स्थिति सूक्ष्म रूप में बनी रहती है। अत: प्रपंच ब्रह्म से न तो पूर्णतया भिन्न है और न ही अभिन्न। वस्तुत: इनकी भिन्नाभिन्नतात्मकता अचिन्त्य हैं-
:स्वरूपाधभिन्नत्वेन चिन्तयितुमशक्यत्वाद भेद:, भिन्नत्वेन चिन्तयितुमशक्यत्वादभेदश्च प्रतीयते इति शक्तिमतोभेदाभेददांवंर्गीकृतो तौ च अचिन्त्यौ।<ref>स्वमते अचिन्त्यभेदावेव अचिन्त्यशक्तित्वात्, भागवत्सन्दर्भस्य सर्वसंवादिनी, पृष्ठ 23</ref>
चैतन्य जगत को न तो शाश्वत मानते हैं और न ही मिथ्या। यदि जगत नित्य माना जाये तो कार्यकारण सम्बन्धों की अवस्थिति नहीं मानी जा सकती। यदि जगत को मिथ्या माना जाये तो मिथ्या से मिथ्या की उत्पत्ति मानना असंगत ही है। अत: चैतन्य का यह विचार है कि जगत अपने मूल (निमित्त कारण) में अव्यक्त रूप से रहता है, उस अवस्था में वह नित्य है किन्तु व्यक्तावस्था में वह अनित्य है।
====जीव====
[[चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-5.jpg|thumb|300px|[[गुरु पूर्णिमा]] पर श्रद्धालुओं का [[भजन-कीर्तन]], [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
चैतन्य के अनुसार जीव ब्रह्म से पृथक है। यह अणु परिणाम है। जीव में सत्व, रजस् तथा तमस् ये तीनों गुण विद्यमान रहते हैं। ब्रह्म प्रलय के अनन्तर 'एकोऽहं बहुस्याम्' की इच्छा से जीव की पुष्टि करता है। जीव अपने स्वरूप को माया के कारण भूल जाता है। जिस प्रकार सूर्य की किरणें सूर्य से पृथक नहीं हैं, उसी प्रकार जीव भी वास्तव में ब्रह्म से पृथक नहीं है, किन्तु अभिव्यक्ति के समय जीव की पृथक सत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता। चैतन्य के अनुसार जीव ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, आभास नहीं। भक्ति के द्वारा जीव अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। जीव भी अणु चैतन्य है, वह नित्य है। बलदेव विद्याभूषण के अनुसार ईश्वर, जीव, प्रकृति और काल ये चार पदार्थ नित्य हैं और इन चारों में से अन्तिम तीन प्रथम के अधीन हैं। इसी कारण जीव को ईश्वर की 'शक्ति' और ब्रह्म को 'शक्तिमान' भी कहा जा सकता है। चैतन्य ने जीवतत्व को शक्ति और कृष्ण तत्व को शक्तिमान कहा है। जीव दो प्रकार के होते हैं, नित्यमुक्त और नित्य संसारी।
====माया====
चैतन्य मतानुयायियों ने माया को ब्रह्म की परिणाम शक्ति कहा और उसके दो भेद बताए-
<blockquote><poem>तत्र सा मायाख्या परिणाम शक्तिश्च द्विविधा वर्ण्यते,
निमित्ताशो माया उपादानांश: प्रधानम् इति। तत्र केवला
शक्तिर्निमित्तम्, तद व्यूहमयी तूपादानमिति विवेक:।<ref>भागवत संख्या 11, 24, 19 [[जीव गोस्वामी]]</ref></poem></blockquote>
ब्रह्म की परिणाम शक्ति के निमित्तांश को निमित्त माया और उपादानांश को उपादार्नामाया भी कहा गया है। निमित्त माया के काल, दैव, कर्म और स्वभाव के चार भेद बताये गए हैं और उपादान भाषा में द्रव्य, क्षेत्र, प्राण, आत्मन् और विकार का समावेश माना गया है। [[चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-3.jpg|thumb|left|[[गुरु पूर्णिमा]] पर [[भजन-कीर्तन]] करते श्रद्धालु, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
====मोक्ष====
चैतन्य के मतानुसार भक्ति ही मुक्ति का साधन है।  जीव दो प्रकार के होते हैं, नित्य मुक्त और नित्य संसारी। नित्य मुक्त जीवों पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता और ब्रह्म की स्वरूप शक्ति के अधीन वे सदा मुक्त रहते हैं। नित्य संसारी जीव माया के अधीन रहते हैं। ऐसे जीवों के दो भेद होते हैं, बहिर्मुख और विद्वेषी। बहिर्मुख जीवों के दो भेद हैं- अरुचिग्रस्त और वैकृत्यग्रस्त। माया ग्रस्त जीवों का मोक्ष अनेक योनियों में भ्रमण करने के अनन्तर सत्संग से संभव होता है। ज्योंहि माया ग्रस्त जीव माया के बन्धन से छूटने का उपक्रम करता है, त्यौंहि भगवान भी उस पर अपनी कृपा न्यौछावर कर देते हैं। चैतन्य मतानुयायियों के अनुसार मुक्ति पांच प्रकार होती है-
#सालोक्य
#सार्ष्टि
#सारूप्य
#सामीप्य
#सायुज्य।
इन सब मुक्तियों में से सायुज्य को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है। अद्वैतवादियों के अनुसार तो यह (सायुज्य मुक्ति) मोक्ष ही है, यानी जीव की पृथक सत्ता का इस अवस्था में अवसान हो जाता है। किन्तु चैतन्य मतानुयायियों के अनुसार जीव का कभी ब्रह्म में विलय नहीं होता, सायुज्य मुक्ति में भी ब्रह्म और जीव का नित्य सहअस्तित्व बना रहता है। यद्यपि गौड़ीय वैष्णव मतानुसार जीव के ब्रह्म में शाश्वत विलय का सर्वथा निषेध नहीं किया गया है, किन्तु वे इस प्रकार के विलय से भी अधिक महत्त्व उस स्थिति को देते हैं, जिसमें जीव ब्रह्म के साथ सहअस्तित्व का आनन्द उठाता रहे। किन्तु उस अवस्था में जीव ब्रह्म से भिन्न रहता है या अभिन्न। यह प्रश्न या इसका उत्तर चैतन्य मतानुयायियों के अनुसार 'अचिन्त्य' है।
====अचिन्त्यशक्ति का अर्थ====
[[चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-26.jpg|thumb|300px|[[गुरु पूर्णिमा]] पर श्रद्धालुओं का [[भजन-कीर्तन]], [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
चैतन्य के मत को अचिन्त्य भेदाभेदवाद के नाम से पुकारा जाता है। अत: यह जानना भी आवश्यक है कि अचिन्त्य का अर्थ क्या है।
*श्रीधर स्वामी के अनुसार अचिन्त्य वह ज्ञान है, जो तर्कगम्य नहीं होता। 'अचिन्त्यम् तर्कासहं यज्ञज्ञानम्।'
*जबकि जीव गोस्वामी के अनुसार अचिन्त्य का अर्थ है- :'अर्थापत्तिगम्य'- 'भिन्नाभिन्नत्वादिविकल्पेश्चिन्तयितुमशक्य: केवलमर्थापत्ति ज्ञानगोचर:।'
<blockquote>[[जीव गोस्वामी]] ने भागवत संदर्भ में यह भी कहा है कि वह शक्ति जो असम्भव को भी सम्भव बना दे अथवा अभेद में भी भेद का दर्शन करवा दे, अचिन्त्य कहलाती है।</blockquote>
*"दुर्घटघटकत्वम् अचिन्त्यत्वम्।" [[रूप गोस्वामी]] का यह कथन है कि पुरुषोत्तम में एकत्व और पृथकत्व अंशत्व और अंशित्व युगपद रूप में रह सकते हैं। जिस प्रकार [[अग्नि]] में ज्वलन शक्ति तथा जैसे भगवान [[श्रीकृष्ण]] में सोलह हज़ार रानियों के समक्ष एक साथ ही रहने की शक्ति है, किन्तु उसकी कोई तार्किक व्याख्या नहीं की जा सकती, उसी प्रकार अभेद में भेद की सत्ता है, किन्तु उसका तार्किक विश्लेषण नहीं किया जा सकता, वह अचिन्त्य है।
*बलदेव विद्याभूषण ने अचिन्त्य की व्याख्या में विशेष शब्द का भी सन्निवेश कर दिया और इस प्रकार उन्होंने अभेद में भेद का आधार विशेष को ही बतलाया और एक प्रकार से विशेष को अचिन्त्य का [[पर्यायवाची शब्द|पर्यायवाची]] मानने का उपक्रम किया।
:विशेषबलात् तद् भेद व्यवहारो भवतिविशेषश्च भेदप्रतिनिधि: भेदाभावेऽपि तत् कार्य प्रत्याय्यम्।<ref>सिद्धांत रत्न 83.4</ref>
चैतन्य मतानुयायियों के अनुसार न केवल [[भेदाभेद]] के विश्लेषण के लिए, अपितु श्रुतियों की व्याख्या के लिए भी अचिन्त्य शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करना आवश्यक है। उदाहरण के लिए [[बृहदारण्यकोपनिषद|बृहदारण्यक उपनिषद]]<ref>[[बृहदारण्यकोपनिषद|बृहदारण्यक उपनिषद]] 3.9.2.8</ref> में कहा गया है- 'विज्ञानम् आनन्दं ब्रह्म।' इस श्रुति वाक्य में यदि आनन्द और विज्ञान को समानार्थक माना जाये तो दोनों शब्दों में से एक का प्रयोग व्यर्थ हो उठेगा। इसके विपरीत यदि दोनों शब्दों को समानार्थक न माना जाये तो ब्रह्म में स्वत: ही भेद मानना पड़ेगा। इस समस्या का समाधान अचिन्त्य शक्ति के आधार पर ही सम्भव है। अत: चैतन्य का मत, यदि 'अचिन्त्य भेदाभेद' नाम से प्रसिद्ध हुआ तो यह श्रुति व्याख्यान की दृष्टि से भी उपयुक्त ही है।
==अचिन्त्य भेदाभेदवाद का तुलनात्मक विश्लेषण==
शंकर के अनुसार निर्विकल्पक ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है और सम्यक ज्ञान ही उसकी प्राप्ति का एक मात्र साधन है। जबकि चैतन्य ब्रह्म को सविकल्पक मानते हैं और भक्ति को ही उसकी प्राप्ति का साधन बतलाते हैं। शंकर के अनुसार ब्रह्म "सत्-चित्-आनन्दमय" है। [[चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-7.jpg|thumb|left|[[गुरु पूर्णिमा]] पर श्रद्धालुओं का [[भजन-कीर्तन]], [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]] निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से सत् का ज्ञान होता है। सत् ही चिन्मय है। [[रामानुज]], [[वल्लभाचार्य|वल्लभ]] और [[मध्वाचार्य|मध्व]] निर्विकल्पक ज्ञान की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। चैतन्य मतानुयायी [[जीव गोस्वामी]] भी वैसे तो निर्विकल्पक ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, किन्तु उनका यह भी कथन है कि यदि निर्विकल्पक ब्रह्म को मानना ही हो तो अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि वह सविकल्पक ब्रह्म का अपूर्ण दर्शन है। चैतन्य मतानुयायियों के अनुसार ब्रह्म केवल भक्तिगम्य है। [[वल्लभाचार्य]] का भक्ति मार्ग और चैतन्य का भक्ति मार्ग प्राय: एक जैसा ही है। [[निम्बार्क]] का '[[द्वैताद्वैतवाद]]' और चैतन्य का 'अचिन्त्य भेदाभेदवाद' भी एक दूसरे से बहुत भिन्न नहीं है। मध्व के मत से तो चैतन्य मत का अत्यधिक साम्य स्पष्ट होता है। श्री मध्व और चैतन्य दोनों के मतानुसार ब्रह्म सगुण और सर्विशेष है। जीव अणु और सेवक है। जीव की मुक्ति भक्ति से होती है। जगत सत्य है और ब्रह्म भी जगत का निमित्त और उपादान कारण है। जीव और ब्रह्म मुक्तावस्था में भी भिन्न रहते हैं। किन्तु मध्व के मत से इतना साम्य होने पर भी चैतन्य का मत इस दृष्टि से कुछ पृथक है कि चैतन्य के मत में गुण और गुणी भाव से जीव और ब्रह्म को अभिन्न और भिन्न माना जाता है। उपासना की दृष्टि से भी दोनों में यह अन्तर है कि जहाँ मध्व ब्रह्म और जीव में सेव्य-सेवक भाव को ही स्फूर्ति मानते हैं, वहाँ गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय में ब्रह्म और जीव के बीच दास्य के अतिरिक्त शान्त, सख्य, वात्सल्य और मधुर भाव को भी स्थान दिया गया है। [[जीव गोस्वामी]] ब्रह्म को [[अद्वय]] ज्ञानतत्व बतलाते हैं। अद्वैतवादियों ने भी यद्यपि इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया है किन्तु वहाँ पर शंकर का यह विचार कि ब्रह्म 'अद्वय' है, क्योंकि उसके अतिरिक्त कोई दूसरा तत्व है ही नहीं, वहाँ रूप गोस्वामी के अनुसार ब्रह्म अद्वय है, क्योंकि वैसा ही कोई दूसरा तत्व [[ब्रह्माण्ड]] में विद्यमान नहीं है।<ref>आशय यह है कि ब्रह्म के समान तो नहीं, किन्तु उससे अवर तत्व जीव जगत तो विद्यमान हैं</ref> जीव गोस्वामी भगवान को परम तत्व और ब्रह्म को निर्विशेष मानते हैं। ब्रह्म में शक्तियाँ अव्यक्त रूप से रहती हैं। भगवान में वे क्रियाशीलता के साथ रहती हैं। इन दोनों स्थितियों के बीच की एक अन्य स्थिति है, जिसमें ब्रह्म को परमात्मा कहा जाता है। माया शक्ति का सम्बन्ध परमात्मा से ही है।
==महाप्रभु चैतन्य का भक्तिपरक मत==
[[चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-27.jpg|thumb|300px|[[गुरु पूर्णिमा]] पर शंख बजाती श्रद्धालु युवती, [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
चैतन्य सगुण भक्ति को महत्त्व देते थे। भगवान का वह सगुण रूप, जो अपरिमेय शक्तियों और गुणों से पूर्ण है, उन्हें मान्य रहा। जीव उनकी दृष्टि में परमात्मा का शाश्वत अंश होते हुए भी परमात्मा का सेवक है। परमात्मा के अनेक नामों में अनेक शक्तियों का परिगणन किया गया है। अत: उन नामों का संकीर्तन ही जीव की बन्धनमुक्ति का एकमात्र साधन है। चैतन्य ने [[कृष्ण]] को भगवान का अवतार नहीं, अपितु स्वयं भगवान माना है। यह भी एक उल्लेखनीय बात है कि चैतन्य के अनुयायियों ने [[कृष्णदास कविराज]], [[वृन्दावन]] और लोचनदास ने चैतन्य को कृष्ण का अवतार माना है, इसी भावना के आधार पर चैतन्य को 'श्री कृष्ण चैतन्य' भी कहा जाता है। चैतन्य ने भक्ति को ही मोक्ष का साधन माना है। वस्तुत: भगवान प्रीति के अनुभव को ही वे मोक्ष मानते हैं, और प्रीति के लिए भक्ति के समान कोई दूसरा साधन नहीं है। भक्ति के द्वारा जीव ईश्वर के समान स्थिति प्राप्त कर लेता है। ईश्वर से अभिन्न तो वह नहीं हो सकता, किन्तु भक्ति के द्वारा जीव को इतना अधिक आन्तरिक सामीप्य प्राप्त हो जाता है कि जीव फिर कभी ब्रह्म के समीप से अलग नहीं होता। भक्ति के लिए गुरु की कृपा भी आवश्यक है। चैतन्य के भक्ति मार्ग में तर्क का कोई स्थान नहीं है। चैतन्य के मतानुसार भक्ति वस्तुत: आध्यात्मिक स्नेह है। ब्रह्म की संवित् एवं द्वादिनीशक्ति का सम्मिश्रण ही भक्ति है। यद्यपि ज्ञान और वैराग्य भी मुक्ति के साधन हैं, किन्तु भक्ति प्रमुख साधन है, जबकि ज्ञान और वैराग्य सहकारी साधन है। ह्लादिनी शक्ति का सार होने के कारण भक्ति आनन्दरूपिणी होती है और संवित् शक्ति का सार होने के कारण भक्ति ज्ञानरूपिणी भी है। अत: ऐसा प्रतीत होता है कि चैतन्य के मत में भक्ति एक साधना मार्ग ही नहीं, अपितु ज्ञान और विज्ञान का सार भी है। बलदेव विद्याभूषण के अनुसार भक्ति मार्ग की तीन अवस्थाएं हैं- साधन, भाव और प्रेम। इन्द्रियों के माध्यम से की जाने वाली भक्ति जीव के हृदय में भगवत प्रेम को जागृत करती है। इसीलिए इसको साधन भक्ति कहा जाता है। भाव प्रेम की प्रथम अवस्था का नाम है, अत: भक्ति मार्ग की प्रक्रिया में भाव भक्ति का दूसरा स्थान है। जब भाव घनीभूत हो जाता है, तब वह प्रेम कहलाने लगता है। यही भक्ति की चरम अवस्था है और इस सोपान पर पहुँचने के बाद ही जीव मुक्ति<ref>यानी ब्रह्म के सततसान्निध्य</ref> का पात्र बनता है। साधन भक्ति के दो भेद हैं- वैधी और रागानुगा। शास्त्रीय विधियों द्वारा प्रवर्तित भक्ति वैधी और भक्त के हृदय में स्वाभाविक रूप से जागृत भक्ति रागानुगा कहलाती है।
====चैतन्य के मतानुसार====
चैतन्य के मतानुसार भक्ति की पात्रता उन लोगों में ही होती है, जो सांसारिक मामलों से न तो एकदम विरक्त होते हैं, और न ही एकदम अनुरक्त और भगवान की जो पूजा और नाम संकीर्तन में विश्वास रखते हैं। ऐसे लोग तीन कोटियों में रखे जा सकते हैं- उत्तम, मध्यम और निकृष्ट। उत्तम कोटि में वे आते हैं, जो वेदशास्त्र ज्ञाता होने के साथ साथ पूर्ण [[आत्मा]] और दृढ़ संकल्प से भगवान की [[भक्ति]] में रत होते हैं। मध्यम कोटि के [[भक्त]] वे हैं, जो वेदशास्त्रवेत्ता न होते हुए भी भगवतभक्ति में दृढ़ आस्था रखते हैं। निकृष्ट कोटि के भक्तों में उन लोगों की गिनती होती है, जिनकी आस्था और संकल्प दृढ़ नहीं रहते। आनन्द प्राप्ति और मोक्ष प्राप्ति की इच्छा जिस व्यक्ति के मन से दूर नहीं हुई, वह भक्ति मार्ग पर नहीं चल सकता। उत्तमा भक्ति का लक्षण [[रूप गोस्वामी]] ने इस प्रकार बताया है-[[चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-8.jpg|thumb|left|[[गुरु पूर्णिमा]] पर श्रद्धालुओं का [[भजन-कीर्तन]], [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
<blockquote><poem>अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञानकमद्यिनावृतम्।
आनुकूल्येन कृष्णनुशीलनं भक्तिरूत्तमा।।<ref>भक्तिरसामृतसिन्धु, पृष्ठ 10</ref></poem></blockquote>
चैतन्य की भक्ति पद्धति वस्तुत: व्यवहार का विषय अधिक है। यही कारण है कि चैतन्य मतानुयायियों ने भक्ति के भेदोपभेद या अन्य सैद्धांतिक पक्षों पर अधिक बल नहीं दिया। रूप गोस्वामी के भक्ति 'रसामृतसिन्धु' और 'उज्ज्वल नीलमणि' नामक ग्रन्थों तथा [[जीव गोस्वामी]] के 'भक्ति संदर्भ' नामक [[ग्रन्थ]] में भी इस तथ्य पर अधिक बल दिया गया है कि भक्ति केवल एक मार्ग ही नहीं, अपितु अपने आप में पंचम पुरुषार्थ है। रूप गोस्वामी का तो यहाँ तक कहना है कि मनुष्य के [[हृदय]] में रति के रूप में भक्ति का अंकुर उद्भूत होने के अनन्तर पुरुषार्थ चतुष्टय की कोई वांछा शेष नहीं रहती।
====गौड़ीय वैष्णव मत====
गौड़ीय वैष्णव मत में भक्तों या साधकों का उल्लेख नित्य सिद्ध, साधना सिद्ध और कृपासिद्ध के रूप में भी किया जाता है। नित्यसिद्धि भक्त वे हैं, जो [[कृष्ण]] के साथ नित्यवास करने की पात्रता अर्जित कर लेते हैं- जैसे गोपाल। साधन सिद्ध वे हैं, जो प्रयत्नपूर्वक कृष्ण का सान्निध्य प्राप्त करते हैं और कृपासिद्ध वे हैं, जो कृपा से ही सान्निध्य प्राप्त करते हैं। यद्यपि चैतन्य मतानुयायियों ने ज्ञानयोग और कर्मयोग की अपेक्षा भक्तियोग को अधिक ग्राह्य माना है, किन्तु उनके कथन यत्र-यत्र इस रूप में भी उपलब्ध हो जाते हैं कि यदि ज्ञानयोग और कर्मयोग का पालन समुचित रूप में किया जाए तो वे भक्ति की प्राप्ति भी करवा सकते हैं। अत: कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि चैतन्य की भक्तिपरक विचारधारा में ज्ञान और कर्म के सम्बन्ध में भी संकीर्णता नहीं है। इसके साथ ही यह भी एक ध्यान देने योग्य बात है कि चैतन्य ने वेदान्त के सभी सम्प्रदायों के प्रति भी एक बहुत ही स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाया है। चैतन्य द्वारा निर्दिष्ट भक्ति मार्ग में गुरु का अत्यधिक महत्त्व है। गुरु द्वारा दीक्षित होने के अन्तर नामोच्चारण करना अपेक्षित है। तदनन्तर भक्त को सांसारिक विषयों का त्याग वृन्दावन, [[द्वारका]], आदि [[तीर्थ|तीर्थों]] या गंगातट पर निवास, आयाचित खाद्य सामग्री से जीवन निर्वाह, [[एकादशी व्रत|एकादशी का व्रत]] रखना, [[पीपल]] के पेड़ पर पानी चढ़ाना, आदि कार्य करने चाहिए। नास्तिकों के संग का त्याग, अधिक लोगों को शिष्य न बनाना, भद्दे वार्तालाप में न उबलना आदि भी भक्ति मार्ग के अनुयायियों के लिए अनिवार्य है। भक्तों के लिए [[तुलसी]] का भक्षण, [[भागवत पुराण|भागवत]] का श्रवण तथा कृष्ण संकीर्तन, सत्संग आदि भी अनिवार्य हैं। चैतन्य की भक्ति पद्धति में जप का अपना विशिष्ट स्थान है। विज्ञप्तिमय प्रार्थना, श्रवण और स्मरण, [[ध्यान]] और दास्यभाव भी आवश्यक है। चैतन्य मतानुयायियों का यह भी कथन है कि कृष्ण [[द्वारका|द्वारकाधाम]] में पूर्ण रूप से, [[मथुरा]] में पूर्णतर रूप से और [[वृन्दावन]] में पूर्णतम रूप से बिराजते हैं। इस पूर्णतम भक्ति के लिए वृन्दावन ही सर्वोत्तम स्थान है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि 'चैतन्य' वस्तुत: एक दार्शनिक ही नहीं, एक महान भक्त ही नहीं और एक महापुरुष ही नहीं, अपितु भारतीय मानस में बड़ी गहराई से बसी हुई ऐसी भावना है, जो चिरकाल तक भारतीय समाज को अनुप्रमाणित करती रहेगी।
==विधवाओं को प्रभु भक्ति की प्रेरणा==  
[[चित्र:Guru-Purnima-Govardhan-Mathura-10.jpg|thumb|300px|[[गुरु पूर्णिमा]] पर श्रद्धालुओं का [[भजन-कीर्तन]], [[गोवर्धन]], [[मथुरा]]]]
चैतन्य महाप्रभु ने विधवाओं को [[वृंदावन]] आकर प्रभु भक्ति के रास्ते पर आने को प्रेरित किया था। वृंदावन क़रीब 500 वर्ष से विधवाओं के आश्रय स्थल के तौर पर जाना जाता है। कान्हा के चरणों में जीवन की अंतिम सांसें गुजारने की इच्छा लेकर देशभर से यहां जो विधवाएं आती हैं, उनमें अधिकांशत: 90 फीसदी बंगाली हैं। अधिकतर अनपढ़ और बांग्लाभाषी। वृंदावन की ओर बंगाली विधवाओं के रुख के पीछे मान्यता यह है कि [[भक्तिकाल]] के प्रमुख कवि चैतन्य महाप्रभु का जन्म 1486 में [[पश्चिम बंगाल]] में हुआ था। वे 1515 में वृंदावन आए और उन्होंने अपना शेष जीवन वृंदावन में व्यतीत किया। निराश्रित महिलाओं के अनुसार, इसलिए उनका यहां से लगाव है। कहा जाता है चैतन्य महाप्रभु ने बंगाल की विधवाओं की दयनीय दशा और सामाजिक तिरस्कार को देखते हुए उनके शेष जीवन को प्रभु भक्ति की ओर मोड़ा और इसके बाद ही उनके वृंदावन आने की परंपरा शुरू हो गई।<ref>{{cite web |url=http://www.jagran.com/spiritual/religion-chaitanya-mahaprabhu-to-vrindavan-widows-were-diverted-11638744.html |title=चैतन्य महाप्रभु ने वृंदावन को मोड़ी थीं विधवाएं |accessmonthday=15 मई |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=जागरण डॉट कॉम |language=हिन्दी }}</ref>
==चैतन्य महाप्रभु का नृत्य एवं हरिनाम संकीर्तन==
[[ओडिशा]] में [[पुरी]] में जब चैतन्य महाप्रभु निवास कर रहे थे, तो प्रवास के दौरान रथयात्रा के दिन चैतन्य महाप्रभु कुल 7 टोलियां बनाकर हरिनाम संकीर्तन करते थे। उन टोलियों में दो-दो [[मृदंग]], [[ढोल]]-[[नगाड़ा|नगाड़े]] बजाने वाले कीर्तनकार होते थे। सभी भक्त जगन्नाथ जी के रथयात्रा उत्सव को देखकर नाचते थे और उसी धुन में मस्त होते। [[चित्र:Chaitanya sankirtan.jpg|thumb|left|300px|चैतन्य महाप्रभु का हरिनाम संकीर्तन]] चैतन्य महाप्रभु की लीला के कारण सभी टोलियों में सम्मिलित भक्तों को ऐसा आभास होता था कि चैतन्य महाप्रभु उनकी टोली का नेतृत्व कर रहे हैं। सभी भक्तों को चैतन्य महाप्रभु के साथ नृत्य एवं हरिनाम संकीर्तन करने में आत्मिक आनंद एवं प्रभु मिलन का सुख प्राप्त होता। [[रथयात्रा पुरी|रथयात्रा]] के दौरान चैतन्य महाप्रभु रथ पर विराजमान जगन्नाथ जी के दिव्य स्वरूप को देखकर आनंद के आंसू बहा रहे थे और उनकी आंखों से अश्रुधारा निकल रही थी। उन अश्रुधाराओं में आसपास खड़े सभी भक्त भीग गए। भक्त उन अश्रुधाराओं को अमृत मान पीकर स्वयं को कृष्ण भक्ति से ओतप्रोत करने लगे। चैतन्य महाप्रभु की ऐसी दिव्य लीलाओं को देखकर जगन्नाथ भगवान का रथ रुक जाता था। चैतन्य महाप्रभु हरि बोल, हरि बोल के उद्घोष करते रथयात्रा में अपनी योग शक्ति का परिचय देते थे। जो भक्त चैतन्य महाप्रभु को संकीर्तन के इस महास्वरूप में देखता, वह भक्त हरि बोल, हरि बोल कह उठता। संकीर्तन में चैतन्य महाप्रभु इतने मस्त हो जाते थे कि यदि जमीन पर गिर पड़ते तो वहां भी लोट-लोट कर प्रभु संकीर्तन और ऐसा दिव्य दृश्य प्रस्तुत करते कि मानो कोई स्वर्ण पर्वत भूमि पर लोट रहा है। इतना ही नहीं, इस अवस्था में उनके शरीर पर यदि कोई पांव रख कर भी गुजर जाता तो भक्ति भाव में अत्यंत मस्त होने के कारण उन्हें पीड़ा न होती। ऐसा प्रतीत होता जैसे भगवान ने अपनी शक्ति की किरण अपने भक्त में डाल दी हो। चैतन्य महाप्रभु के इस नृत्य को देखकर भगवान जगन्नाथ अति प्रसन्न होते। ऐसे अथाह भक्ति के प्रतीक श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रेरणा लेकर इस्कॉन के संस्थापक आचार्य ए.सी. भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपाद ने जगन्नाथ रथयात्राओं के माध्यम से संकीर्तन की छेड़ी तरंग को जारी रखा। आज भी जगन्नाथ रथयात्राओं एवं प्रभातफेरियों में चैतन्य महाप्रभु का नाम लेकर ‘निताई गौर हरि बोल’ का उद्घोष करके संकीर्तन शुरू किया जाता है।<ref>{{cite web |url=http://www.punjabkesari.in/news/article-291928 |title=आईए करें यात्रा चैतन्य महाप्रभु जी के नृत्य एवं हरिनाम संकीर्तन की|accessmonthday=15 मई |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=पंजाब केसरी |language=हिन्दी }}</ref> नाचो-गाओ, हरिनाम कीर्तन में मस्त रहो, ईश्वर मूर्तियों में मिले तो वाह-वाह वरना वह तुम्हारे मन में, वचन और कर्मों में सदा तुम्हारे साथ है। उसके नाम पर निर्भर जियो। चैतन्य ने नाच-गाकर [[कृष्ण]] नाम लेने वाले दीवानों के जुलूस निकलवा दिये। अहिंसात्मक विद्रोह करने का यह सामूहिक उपाय तब तक इतिहास में शायद पहली बार ही प्रयोग में लाया गया था। आतंक से जड़ीभूत जन-जीवन को श्री चैतन्य ने फिर से नवचैतन्य प्रदान किया। श्री चैतन्य अपने देशकाल का प्रतीक बनकर अवतरित हुए थे।<ref name="भारतीय साहित्य संग्रह"/>
==एकादशी व्रत का महत्व==
चैतन्य महाप्रभु ऐसे संत हुए हैं जिन्होंने भक्ति मार्ग का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया। भगवान्‌ श्री चैतन्य देव का आविर्भाव पूर्वबंग के अपूर्व धाम नवद्वीप में हुआ था।  [[चित्र:Chaitanya-Mahaprabhu-4.jpg|thumb|चैतन्य महाप्रभु का नृत्य]]  24 वर्ष की अवस्था में लोककल्याण की भावना से संन्यास धारण किया, जब [[भारत]] में चारों ओर विदेशी शासकों के भय से जनता स्वधर्म का परित्याग कर रही थी। तब चैतन्य महाप्रभु ने यात्राओं में हरिनाम के माध्यम से हरिनाम संकीर्तन का प्रचार कर प्रेमस्वरूपा भक्ति में बहुत बड़ी क्रांति फैला दी। सन्न्यास ग्रहण के पश्चात श्री चैतन्य ने [[दक्षिण भारत]] की ओर प्रस्थान किया। उस समय दक्षिण में मायावादियों के प्रचार-प्रसार के कारण वैष्णव धर्म प्रायः संकीर्तन का प्रचार न करते तो यह भारत वर्ष [[वैष्णव धर्म]] विहीन हो जाता।  हरिनाम का स्थान-स्थान पर प्रचार कर चैतन्यदेव [[श्रीरंगम]] पहुंचे और वहां गोदानारायण की अद्भुत्‌ रूपमाधुरी देख भावावेश में नृत्य करने लगे। श्री चैतन्य का भाव-विभावित स्वरूप देख मंदिर के प्रधान अर्चक श्रीवेंकट भट्ट चमत्कृत हो उठे और भगवान की प्रसादी माला उनके गले में डाल दी तथा उन्हें बताया कि वर्षाकालीन यह चातुर्मास कष्ट युक्त, जल प्लावन एवं हिंसक जीव-जन्तुओं के बाहुल्य के कारण यात्रा में निषिद्ध है, अतः उनके चार मास तक अपने घर में ही निवास की प्रार्थना की। श्रीवेंकट भट्ट के अनुरोध पर श्रीचैतन्य देव के चार मास उनके आवास पर व्यतीत हुए। उन्होंने पुत्र श्रीगोपाल भट्ट को दीक्षित कर वैष्णव धर्म की शिक्षा के साथ शास्त्रीय प्रमाणोंसहित एक स्मृति ग्रंथ की रचना का आदेश दिया। कुछ समय पश्चात श्रीगोपाल भट्ट वृंदावन आए एवं वहां निवास कर उन्होंने [[पंचरात्र]], [[पुराण]] और आगम निगमों के प्रमाणसहित 251 ग्रंथों का उदाहरण देते हुए हरिभक्ति विलास स्मृति की रचना की। इस ग्रंथ में उन्होंने [[एकादशी]] तत्व विषय पर विशेष विवेचना की। इस प्रसंग में आचार्य गौर कृष्ण दर्शन तीर्थ कहते हैं चातुः साम्प्रदायिक वैष्णवों के लिए आवश्यक रूप में एकादशी व्रत का महत्वपूर्ण स्थान है। एकादशी व्रत करने से जीवन के संपूर्ण पाप विनष्ट हो जाते हैं। इस व्रत को सहस्रों [[यज्ञ|यज्ञों]] के समान माना गया है। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्न्यासी तथा विधवा स्त्रियां भी एकादशी व्रत के अधिकारी हैं। एकादशी व्रत त्याग कर जो अन्न सेवन करता है, उसकी निष्कृति नहीं होती। जो व्रती को भोजन के लिए कहता है, वह भी पाप का भागी होता है।<ref>{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/indian-religion-sant-mahatma/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%9A%E0%A5%88%E0%A4%A4%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A5%81-112011900180_1.htm |title=श्री चैतन्य महाप्रभु|accessmonthday=15 मई |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=वेबदुनिया हिन्दी |language=हिन्दी }}</ref>
==चैतन्य महाप्रभु के नृत्य का रहस्य==
[[राधा|श्रीराधा]] तथा [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] के मिलन में ही [[जगन्नाथ मन्दिर पुरी|श्रीजगन्नाथ पुरी]] में श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के अभिनय का रहस्य छुपा हुआ है। श्रीमहाप्रभु के कुछ ही पार्षद इसे समझते हैं। इस्कान के संस्थापक ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी महाराज जी बताते हैं कि [[रथयात्रा पुरी|रथयात्रा]] उत्सव का सारा भाव श्रीकृष्ण को [[कुरुक्षेत्र]] से [[वृन्दावन]] वापस लाने का है।  [[चित्र:Chaitanya-Mahaprabhu-ji.jpg|thumb|left|300px|चैतन्य महाप्रभु]] [[पुरी]] स्थित श्रीजगन्नाथ जी का भव्य मन्दिर [[द्वारका]] राज्य को प्रदर्शित करता है, जहाँ श्रीकृष्ण परम-ऐश्वर्य का भोग करते हैं तथा गुण्डिचा मन्दिर वृन्दावन का रूप है जहाँ भगवान को लाया जाता है, जो कि उनकी मधुरतम लीलाओं की जगह है। राधारानी की भूमिका अदा करते हुए श्रीचैतन्य महाप्रभु जी उनके भाव में रथयात्रा के समय रथ के पीछे रहकर भगवान जगन्नाथ जी की परीक्षा की लीला करते हैं ,'क्या श्रीकृष्ण हमारा स्मरण करते हैं? मैं यह देखना चाहता हूँ कि क्या सचमुच उन्हें हमारी परवाह है? यदि परवाह है तो वे अवश्य ही प्रतीक्षा करेंगे और यह पता लगाने की प्रयत्न करेंगे कि हम कहाँ हैं?' आश्चर्य की बात तो यह है कि श्रीमहाप्रभु जी जब-जब रथ के पीछे चले जाते तब-तब रथ रुक जाता। भगवान श्रीजगन्नाथ प्रतीक्षा करते और देखने का प्रयास करते कि राधा कहाँ है? व्रजवासी कहाँ हैं? भगवान श्रीजगन्नाथ, जो कि साक्षात् श्रीकृष्ण हैं, श्रीचैतन्य महाप्रभु को यह दिव्य भाव बतलाना चाहते हैं कि यद्यपि मैं वृन्दावन से दूर था, किन्तु मैं अपने भक्तों को, विशेषतया राधारानी को भूला नहीं हूँ।<ref>लोकनाथ स्वामी (हिन्दी मासिक पत्रिका भगवद्दर्शन जनवरी 1994 से संग्रहीत)</ref><ref>{{cite web |url=https://www.facebook.com/bbgovind1/posts/605782812831124 |title= Shree Chaitanya Mahaprabhu Charitable Trust (फेसबुक वाल) |accessmonthday= |accessyear= |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी }}</ref>
==विश्वास से पाया महाप्रभु का आशीर्वाद==
भगवान चैतन्य महाप्रभु के लिए भगवद-भजन ही सर्वस्व था। वे नृत्य करते हुए कीर्तन करते और मग्न रहते थे। उन्हें भौतिक दुनिया के लोगों से सरोकार नहीं रहता था और इसी कारण उनके जान-पहचान का दायरा सीमित था। बात उन दिनों की है जब चैतन्य महाप्रभु श्रीवास पंडित के आवास में रहते थे। श्रीवास पंडित के आंगन में उनका नृत्य-कीर्तन चलता रहता। श्रीवास पंडित के घर के सारे सदस्य और नौकर-चाकर चैतन्य महाप्रभु को जानते थे और उनके प्रति श्रद्धा-भाव रखते थे, किंतु महाप्रभु कभी आगे रहकर किसी से बातचीत नहीं करते थे। वहीं पर एक सेविका काम करती थीं, जो चैतन्य महाप्रभु के लिए प्रतिदिन जल लेकर आती थी। महाप्रभु ने तो कभी उस पर ध्यान नहीं दिया, किंतु वह उनके प्रति अत्यंत श्रद्धा-भाव से भरी हुई थी और सोचती थी कभी तो भगवान उसे आशीष देंगे। उसकी सेवा तो साधारण थी, किंतु धैर्य अटल था और इस कारण विश्वास भी प्रबल था। अंतत: एक दिन महाप्रभु को बहुत गर्मी लगने लगी और उन्होंने स्नान करने की इच्छा प्रकट की। तब उपस्थित भक्तों ने उसी सेविका को जल लाने के लिए कहा। वह दौड़-दौड़कर अनेक घड़े भरकर लाई और फिर श्रीवास आंगन में भक्तों ने मिलकर महाप्रभु को स्नान कराया। उस दिन महाप्रभु ने स्वयं के लिए इतना परिश्रम करने वाली सेविका को देखा, उसके श्रद्धा भाव सेवा-कर्म को पहचाना और उसके सिर पर हाथ रखकर हार्दिक आशीर्वाद दिया। सेविका धन्य हो गई, क्योंकि उसका अभिलाषित सुख उसे प्राप्त हो गया। धैर्य धारण करने पर मन में विश्वास की ऐसी अखंड जोत जलती है, जो कृपा में अवश्य ही परिणति होती है। वस्तुत: धैर्य से प्राप्त विश्वास ही निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचाता है।<ref>{{cite web |url=http://www.bhaskar.com/news/MP-OTH-MAT-latest-dhar-news-023004-593799-NOR.html |title=विश्वास से पाया महाप्रभु का आशीर्वाद |accessmonthday=15 मई |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=दैनिक भास्कर |language=हिन्दी }}</ref>


==चैतन्य महाप्रभु की मूर्ति==
[[13 अक्टूबर]], 1670 ई. को शिवाजी ने तीव्रगति से [[सूरत]] पर आक्रमण कर दूसरी बार इस बन्दरगाह नगर को लूटा। शिवाजी ने अपनी इस महत्त्वपूर्ण सफलता के बाद दक्षिण की [[मुग़ल]] रियासतों से हीं नहीं, बल्कि उनके अधीन राज्यों से भी 'चौथ' एवं 'सरदेशमुखी' लेना आरम्भ कर दिया। 15 फ़रवरी, 1671 ई. को 'सलेहर दुर्ग' पर भी शिवाजी ने क़ब्ज़ा कर लिया। शिवाजी के विजय अभियान को रोकने के लिए औरंगज़ेब ने महावत ख़ाँ एवं बहादुर ख़ाँ को भेजा। इन दोनों की असफलता के बाद औरंगज़ेब ने बहादुर ख़ाँ एवं दिलेर ख़ाँ को भेजा। इस तरह 1670-1674 ई. के मध्य हुए सभी मुग़ल आक्रमणों में शिवाजी को ही सफलता मिली और उन्होंने सलेहर, मुलेहर, जवाहर एवं रामनगर आदि क़िलों पर अधिकार कर लिया। 1672 ई. में शिवाजी ने पन्हाला दुर्ग को [[बीजापुर]] से छीन लिया। मराठों ने [[पाली ज़िला|पाली]] और [[सतारा]] के दुर्गों को भी जीत लिया।
[[चित्र:Lord-Caitanya-Dances-with-His-Followers.jpg|thumb|300px|चैतन्य महाप्रभु अपने अनुयायियों के साथ नृत्य करते हुए]]
==राजनीतिक स्थिति==
[[कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] ने [[यदुवंश]] के राजा श्रीसत्राजित की कन्या श्रीमती [[सत्यभामा]] जी से विवाह किया था। वही सत्यभामा जी, भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की लीला में श्रीमती विष्णुप्रिया जी के रूप में आईं व राजा सत्राजित, श्रीमती विष्णुप्रिया जी के पिताजी श्रीसनातन मिश्र के रूप में प्रकट हुए। विष्णुप्रिया बचपन से ही पिता-माता और विष्णु-परायणा थीं। विष्णुप्रिया प्रतिदिन तीन बार गंगा-स्नान करती थीं। गंगा-स्नान को जाने के दिनों में ही शचीमाता के साथ आपका मिलन हुआ था। आप उनको प्रणाम करतीं तो शचीमाता आपको आशीर्वाद देतीं। आपके और भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के विवाह की कथा को जो सुनता है, उसके तमाम सांसारिक बन्धन कट जाते हैं। श्रीमन महाप्रभु जी के द्वारा 24 वर्ष की आयु में सन्न्यास ग्रहण करने पर आप अत्यन्त विरह संतप्त हुईं थीं। इन्होंने अद्भुत भजन का आदर्श प्रस्तुत किया था। [[मिट्टी]] के दो बर्तन लाकर अपने दोनों ओर रख लेतीं थीं। एक ओर खाली पात्र और दूसरी ओर [[चावल]] से भरा हुआ पात्र रख लेतीं थीं। सोलह नाम तथा बत्तीस अक्षर वाला मन्त्र (हरे कृष्ण महामन्त्र) एक बार जप कर एक चावल उठा कर खाली पात्र में रख देतीं थीं।  इस प्रकार दिन के तीसरे प्रहर तक हरे कृष्ण महामन्त्र का जाप करतीं रहतीं और चावल एक बर्तन से दूसरे बर्तन में रखती जातीं। इस प्रकार जितने चावल इकट्ठे होते, उनको पका कर श्रीचैतन्य महाप्रभु की को भाव से अर्पित करतीं। और वहीं प्रसाद पातीं। कहाँ तक आपकी महिमा कोई कहे, आप तो श्रीमन महाप्रभु की प्रेयसी हैं और निरन्तर हरे कृष्ण महामन्त्र करती रहती हैं। आपने ही सर्वप्रथम श्रीगौर-महाप्रभु जी की मूर्ति (विग्रह) का प्रकाश कर उसकी पूजा की थी। कोई-कोई भक्त ऐसा भी कहते हैं। श्रीमती [[सीता]] देवी के वनवास काल में एक पत्नी व्रती भगवान [[राम|श्रीरामचन्द्र]] जी ने सोने की सीता का निर्माण करवाकर यज्ञ किया था, पर दूसरी बार विवाह नहीं किया था। श्रीगौर-नारायण लीला में श्रीमती विष्णुप्रिया देवी ने उस ऋण से उऋण होने के लिए ही श्रीगौरांग महाप्रभु जी की मूर्ति का निर्माण करा कर पूजा की थी। श्रीमती विष्णुप्रिया देवी द्वारा सेवित श्रीगौरांग की मूर्ति की अब भी श्रीनवद्वीप में पूजा की जाती है।<ref>{{cite web |url=http://hindivina.blogspot.in/2014/02/blog-post.html |title= किसने बनवाई 'पहली बार' श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की मूर्ति और क्यों ?|accessmonthday=16 मई |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=वीणा हिन्दी |language=हिन्दी }}</ref>
दक्षिण की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति भी एक सशक्त मराठा आंदोलन के उदय में सहायक हुई। अहमद नगर राज्य के बिखराव और [[अकबर]] की मृत्यु के पश्चात दक्षिण में मुग़ल साम्राज्य के विस्तार की धीमी गति ने महत्त्वाकांक्षी सैन्य अभियानों को प्रोत्साहित किया। यह भी उल्लेखनीय है कि इस समय तक मराठे अनुभवी लड़ाके जाति के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके थे। दक्षिणी सल्तनतों एवं मुग़लों, दोनों ही पक्षों की ओर से वे सफलतापूर्वक युद्ध कर चुके थे। उनके पास आवश्यक सैन्य प्रशिक्षण और अनुभव तो था ही, जब समय आया तो उन्होंने इसका उपयोग राज्य की स्थापना के लिए किया। यह कहना तो कठिन है कि मराठों के उत्थान में उपर्युक्त तथ्य कहाँ तक उत्तरदायी थे और इसमें अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की दृढ़ इच्छा शक्ति का कितना हाथ था। फिर भी, यदि शिवाजी की नीतियों के सामाजिक पहलुओं और उनका साथ देने वाले लोगों की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो स्थिति बहुत सीमा तक स्पष्ट हो सकती है।
==विलक्षण प्रतिभा के धनी==
====किसानों के साथ सीधा संबंध====
[[चित्र:Chaitanya-Mahabrabhu-at-Jagannath.jpg|thumb|चैतन्य महाप्रभु]]
[[चित्र:Shivaji-Maharaj-With-Jijamata.jpg|शिवाजी महाराज की प्रतिमा, [[जीजाबाई|जीजामाता]] के साथ|thumb|220px]]
चैतन्य महाप्रभु विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। न्यायशास्त्र में इनको प्रकांड पाण्डित्य प्राप्त था। कहते हैं कि इन्होंने न्यायशास्त्र पर एक अपूर्व ग्रंथ लिखा था, जिसे देख कर इनके एक मित्र को बड़ी ईर्ष्या हुई क्योंकि उन्हें भय था कि इनके ग्रंथ के प्रकाश में आने पर उनके द्वारा प्रणीत ग्रंथ का आदर कम हो जाएगा। इस पर श्री चैतन्य ने अपने ग्रंथ को [[गंगा|गंगा जी]] में बहा दिया। चौबीस वर्ष की अवस्था में चैतन्य महाप्रभु ने गृहस्थाश्रम का त्याग करके सन्न्यास लिया। इनके गुरु का नाम केशव भारती था। इनके जीवन में अनेक अलौकिक घटनाएं हुईं, जिनसे इनके विशिष्ट शक्ति-सम्पन्न भगवद्विभूति होने का परिचय मिलता है। इन्होंने एक बार अद्वैत प्रभु को अपने विश्वरूप का दर्शन कराया था। नित्यानंद प्रभु ने इनके नारायण रूप और [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] रूप का दर्शन किया था। इनकी माता शची देवी ने नित्यानंद प्रभु और इनको [[बलराम]] और श्रीकृष्ण रूप में देखा था। [[चैतन्य चरितामृत|चैतन्य-चरितामृत]] के अनुसार इन्होंने कई कोढिय़ों और असाध्य रोगों से पीड़ित रोगियों को रोग मुक्त किया था। चैतन्य महाप्रभु के जीवन के अंतिम छ: वर्ष तो राधा-भाव में ही बीते। उन दिनों इनके अंदर महाभाव के सारे लक्षण प्रकट हुए थे। जिस समय यह कृष्ण प्रेम में उन्मत्त होकर नृत्य करने लगते थे, लोग देखते ही रह जाते थे। इनकी विलक्षण प्रतिभा और श्रीकृष्ण भक्ति का लोगों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वासुदेव सार्वभौम और प्रकाशानंद सरस्वती जैसे वेदांती भी इनके क्षण मात्र के सत्संग से श्रीकृष्ण प्रेमी बन गए। इनके प्रभाव से विरोधी भी इनके भक्त बन गए और जगाई, मधाई जैसे दुराचारी भी संत हो गए। इनका प्रधान उद्देश्य भगवन्नाम का प्रचार  करना और संसार में भगवद् भक्ति और शांति की स्थापना करना था। इनके भक्ति-सिद्धांत में द्वैत और अद्वैत का बड़ा ही सुंदर समन्वय हुआ है। इन्होंने कलिमल ग्रसित जीवों के उद्धार के लिए भगवन्नाम-संकीर्तन को ही प्रमुख उपाय माना है। इनके उपदेशों का सार है-
इतिहासकार बड़े उत्साहपूर्वक शिवाजी के क्रांतिकारी भू-कर सुधारों की बात करते हैं, जिन्होंने उदीयमान राज्य को एक विस्तृत सामाजिक आधार प्रदान किया। रानाडे लिखते हैं, <blockquote>'शिवाजी ने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वे किसी भी नागरिक या सैन्य प्रमुख को जागीरें नहीं देंगे। भारत में केंद्र विमुख एवं बिखराव की प्रवृत्तियाँ सदा ही बलवान रही हैं, और जागीरें देने की प्रथा, जागीरदारों को भू-कर से प्राप्त धन द्वारा अलग से अपनी सेना रखने की अनुमति देने से यह प्रवृत्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि सुव्यवस्थित शासन लगभग असंभव हो जाता है––अपने शासन काल में शिवाजी ने केवल मंदिरों को एवं दान धर्म की दिशा में ही भूमि प्रदान की थी।'</blockquote> [[यदुनाथ सरकार|जदुनाथ सरकार]] ने भी उपर्युक्त मत का ही समर्थन किया है और कहा है कि शिवाजी किसानों को अपनी ओर इसीलिए कर सके कि उन्होंने ज़मीदारी और [[जागीरदारी प्रथा]] को बंद किया और राजस्व प्रशासन के माध्यम से किसानों के साथ सीधा संबंध स्थापित किया।
* मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन का अधिक से अधिक समय भगवान के सुमधुर नामों के संकीर्तन में लगाए। यही अंत:करण की शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय है।  
[[चित्र:Sinhagarh-Fort-Pune.jpg|thumb|[[सिंहगढ़ क़िला]], [[पुणे]]|250px|left]]
* कीर्तन करते समय वह प्रेम में इतना मग्र हो जाए कि उसके नेत्रों से प्रेमाश्रुओं की धारा बहने लगे, उसकी वाणी गद्गद् हो जाए और शरीर पुलकित हो जाए।
किंतु सभासद का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि शिवाजी के राजस्व प्रशासन के संबंध में ऐसे बड़े-बड़े दावे करना निराधार है और इसे जल्दबाज़ी में बनाई गई धारणा ही कहा जाएगा। उनका कहना है कि शिवाजी ने देसाईयों के दुर्गों और सुदृढ़ जमाव को नष्ट किया और जहाँ कहीं मज़बूत क़िले थे वहाँ अपनी दुर्ग-सेना रखी। उनका यह भी कहना है कि शिवाजी ने मिरासदारों द्वारा मनमाने ढंग से वसूल किए जाने वाले उपहारों या हज़ारे को बंद करवाया और नक़द एवं अनाज के रूप में गाँवों से जमींदारों का हिस्सा निश्चित किया। साथ ही उन्होंने देशमुखों, देशकुलकर्णियों, पाटिलों और कुलकर्णियों के अधिकार एवं अनुलाभ भी तय किए, इन्हीं कथनों से प्रेरित होकर आधुनिक इतिहासकार कहते हैं कि शिवाजी ने भूमि प्रदान करने की प्रथा को समाप्त कर दिया था। यह सत्य है कि सभासद ऐसी संभावना की बात करता है किंतु कदाचित यह शिवाजी या स्वयं सभासद का अपेक्षित आदर्श रहा हो, क्योंकि वह स्वयं एकाधिक स्थानों पर शिवाजी द्वारा भूमि प्रदान किए जाने की बात कहता है। यही लक्ष्य एक अन्य तत्कालीन रचना आज्ञापत्र में ध्वनित होता है, जिसमें कहा गया है कि वर्तमान वतन वैसे ही चलते रहेंगे और उनके पास जो भी है उसमें थोड़ी भी वृद्धि नहीं की जाएगी और न ही उसे रत्ती भर कम किया जाएगा। इसमें यह चेतावनी भी दी गई है कि 'किसी वृत्ति (वतन) का प्रत्यादान करना पाप है---भले ही वह कितनी ही छोटी क्यों न हो।' उचित संदर्भ में रखे जाने पर सभासद के कथन का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। पाटिल, कुलकर्णी और देशमुख राजस्व एकत्र करते थे और उसमें से राज्य को अपनी इच्छानुसार अंश देते थे जो प्रायः बहुत कम होता था। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी स्थिति अत्यंत सुदृढ़ कर ली, दुर्ग इत्यादि बनवा लिए, और प्यादे एवं बंदूकची लेकर चलने लगे। वे सरकारी राजस्व अधिकारी की परवाह नहीं करते थे और यदि वह अधिक राजस्व की माँग करता था तो लड़ाई-झगड़े पर उतर आते थे। यह वर्ग विद्रोही हो उठा था। इन्हीं की गढ़ियों और दुर्गों पर शिवाजी ने धावा बोला था।
* भगवन नाम के उच्चारण में देश-काल का कोई बंधन नहीं है। भगवान ने अपनी सारी शक्ति और अपना सारा माधुर्य अपने नामों में भर दिया है। यद्यपि भगवान के सभी नाम मधुर और कल्याणकारी हैं किंतु
[[चित्र:Statue-Shivaji-Pratapgarh-Fort-2.jpg|शिवाजी महाराज की प्रतिमा, [[महाराष्ट्र]]|thumb|250px]]
<blockquote>'''हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।'''</blockquote>
यह महामंत्र सबसे अधिक मधुर और भगवत प्रेम को बढ़ाने वाला है।<ref>{{cite web |url=http://www.punjabkesari.in/news/article-238481|title=संसार सागर से बेड़ा पार कराता है यह महामंत्र|accessmonthday=16 मई |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=पंजाब केसरी |language=हिन्दी }}</ref>


====राजस्व वसूली====
स्पष्ट है कि शिवाजी शांतिप्रिय ज़मीदारों के नहीं अपितु केवल उन्हीं के विरुद्ध थे जो उनके राजनीतिक हितों के लिए गंभीर ख़तरा बन गए थे। स्पष्ट है कि वे राजस्व वसूली की संपूर्ण मशीनरी को समाप्त नहीं कर सकते थे। इसलिए ऐसा नहीं है कि इसके स्थान पर नई व्यवस्था लाने के लिए उनके पास प्रशिक्षित व्यक्ति नहीं थे। वे केवल इतना चाहते थे कि राजस्व की गड़बड़ी दूर हो और राज्य को उचित अंश मिले। यह भी स्पष्ट है कि शिवाजी को बड़े देशमुखों के विरोध का सामना करना पड़ा। ये देशमुख स्वतंत्र मराठा राज्य के पक्ष में नहीं थे और बीजापुर के सांमत ही बने रहना चाहते थे जिससे अपने वतनों के प्रशासन में अधिक स्वायत्त रह सकें। यही शिवाजी का धर्मसंकट था। देशमुखों के समर्थन के बिना वे स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना नहीं कर सकते थे। अतः शिवाजी ने इस नाज़ुक राजनीतिक स्थिति का सामना करने के लिए भय और प्रीति की नीति अपनाई। कुछ बड़े देशमुखों को तो उन्होंने सैन्य शक्ति से पराजित किया और कुछ के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। बड़े देशमुखों के साथ शिवाजी की इस अनोखी लड़ाई में छोटे देशमुखों ने शिवाजी का साथ दिया। बड़े देशमुख छोटे देशमुखों को सताते थे और ज़मीन की बंदोबस्ती और कृषि को बढ़ावा देने की शिवाजी की नीति छोटे देशमुखों के लिए हितकर थी। संपूर्ण दक्षिण पर शिवाजी के सरदेशमुखी के दावे को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त मोरे, शिर्के और निंबालकर देशमुखों के परिवारों में विवाह संबंध करके भी शिवाजी ने अपना सामाजिक रुतबा बढ़ाया। इससे मराठा समाज में उनकी सम्मानजनक स्वीकृति सरल हो गई।


{{लेख प्रगति|आधार= |प्रारम्भिक= |माध्यमिक=माध्यमिक1 |पूर्णता= |शोध= }}
==मुग़लों और दक्षिणी राज्यों के साथ संबंध==
यद्यपि मराठे पहले ही अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के प्रति सचेत होने लगे थे फिर भी उन्हें संगठित करने और उनमें एक राजनीतिक लक्ष्य के प्रति चेतना जगाने का कार्य शिवाजी ने ही किया। शिवाजी की प्रगति का लेखा मराठों के उत्थान को प्रतिबिंबित करता है। 1645-47 के बीच 18 वर्ष की अवस्था में उन्होंने [[पूना]] के निकट अनेक पहाड़ी क़िलों पर विजय प्राप्त की। जैसे- [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]], कोडंना और तोरना। फिर 1656 में उन्होंने शक्तिशाली मराठा प्रमुख चंद्रराव मोरे पर विजय प्राप्त की और [[जावली]] पर अधिकार कर लिया, जिसने उन्हें उस क्षेत्र का निर्विवाद स्वामी बना दिया और सतारा एवं कोंकण विजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया। शिवाजी की इन विस्तारवादी गतिविधियों से बीजापुर का सुल्तान शंकित हो उठा किंतु उसके मंत्रियों ने सलाह दी कि वह फिलहाल चुपचाप स्थिति पर निगाह रखे। किंतु जब शिवाजी ने कल्याण पर अधिकार कर लिया और कोंकण पर धावा बोल दिया तो सुल्तान आपा खो बैठा और उसने शाहजी को क़ैद करके उनकी जागीर छीन ली। इससे शिवाजी झुकने के लिए विवश हो गए और उन्होंने वचन दिया कि वे और हमले नहीं करेंगे। किंतु उन्होंने बड़ी चतुराई से मुग़ल [[शाहजादा मुराद]], जो मुग़ल सूबेदार था, से मित्रता स्थापित की और मुग़लों की सेवा में जाने की बात कही। इससे बीजापुर के सुल्तान की चिंता बढ़ गई और उसने शाहजी को मुक्त कर दिया। शाहजी ने वादा किया कि उसका पुत्र अपनी विस्तारवादी गतिविधियाँ छोड़ देगा। अतः अगले छः वर्षों तक शिवाजी धीरे-धीरे अपनी शक्ति सृदृढ़ करते रहे। इसके अतिरिक्त मुग़लों के भय से मुक्त बीजापुर मराठा गतिविधियों का दमन करने में सक्षम था—इस कारण भी शिवाजी को शांति बनाए रखने के लिए विवश होना पड़ा। किंतु जब औरंगज़ेब उत्तर चला गया तो शिवाजी ने अपनी विजयों का सिलसिला फिर आरंभ कर दिया। जिसकी कीमत चुकानी पड़ी बीजापुर को।
[[चित्र:Tiger-Claws.jpg|बघ नखा|left|thumb|250px]]
{{दाँयाबक्सा|पाठ=जब 1659 में बीजापुर के सुल्तान ने उनके ख़िलाफ़ [[अफ़ज़ल ख़ाँ]] के नेतृत्व में 10,000 लोगों की सेना भेजी। अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी को निमंत्रण भेजा और वादा किया कि वह उन्हें सुल्तान से माफ़ी दिलवा देगा। किंतु ब्राह्मणदूत कृष्णजी भाष्कर ने अफ़ज़ल ख़ाँ का वास्तविक उद्देश्य शिवाजी को बता दिया। सारी बात जानते हुए शिवाजी किसी भी धोखे का सामना करने के लिए शिवाजी तैयार होकर गए और अरक्षित होकर जाने का नाटक किया। गले मिलने के बहाने अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी का गला दबाने का प्रयास किया किंतु शिवाजी तो तैयार होकर आए थे—उन्होंने बघनख से उसका काम तमाम कर दिया।|विचारक=}}
====अफ़ज़ल ख़ाँ के साथ युद्ध====
उन्होंने समुद्र और घाटों के बीच तटीय क्षेत्र कोंकण पर धावा बोल दिया और उसके उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया। स्वाभाविक था कि बीजापुर का सुल्तान उनके विरुद्ध सख्त कार्रवाई करता। उसने अफ़ज़ल ख़ाँ के नेतृत्व में 10,000 सैनिकों की टुकड़ी शिवाजी को पकड़ने के लिए भेजी। उन दिनों छल-कपट और विश्वासघात की नीति अपनाना आम बात थी और शिवाजी और अफ़ज़ल ख़ाँ दोनों ने ही अनेक अवसरों पर इसका सहारा लिया। शिवाजी की सेना को खुले मैदान में लड़ने का अभ्यास नहीं था, अतः वह अफ़ज़ल ख़ाँ के साथ युद्ध करने से कतराने लगा। अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी को निमंत्रण भेजा और वादा किया कि वह उन्हें सुल्तान से माफ़ी दिलवा देगा। किंतु ब्राह्मणदूत कृष्णजी भाष्कर ने अफ़ज़ल ख़ाँ का वास्तविक उद्देश्य शिवाजी को बता दिया। सारी बात जानते हुए शिवाजी किसी भी धोखे का सामना करने के लिए शिवाजी तैयार होकर गए और अरक्षित होकर जाने का नाटक किया। गले मिलने के बहाने अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी का गला दबाने का प्रयास किया किंतु शिवाजी तो तैयार होकर आए थे—उन्होंने बघनख से उसका काम तमाम कर दिया। इस घटना को लेकर ग्रांट डफ़ जैसे यूरोपीय इतिहासकार शिवाजी पर विश्वासघात और हत्या का आरोप लगाते हैं जो सरासर ग़लत है क्योंकि शिवाजी ने आत्मरक्षा में ही ऐसा किया था। इस विजय से मित्र और शत्रु दोनों ही पक्षों में शिवाजी का सम्मान बढ़ गया। दूरदराज़ के इलाकों से जवान उनकी सेना में भरती होने के लिए आने लगे। शिवाजी में उनकी अटूट आस्था थी। इस बीच दक्षिण में मराठा शक्ति के इस चमत्कारी उत्थान पर औरंगज़ेब बराबर दृष्टि रखे हुए था। पूना और उसके आसपास के क्षेत्रों, जो [[अहमद नगर]] राज्य के हिस्से थे और 1636 की संधि के अंतर्गत बीजापुर को सौंप दिए गए थे, को अब मुग़ल वापस माँगने लगे। पहले तो बीजापुर ने मुग़लों की इस बात को मान लिया था कि वह शिवाजी से निपट लेगा और इस पर कुछ सीमा तक अमल भी किया गया किंतु बीजापुर का सुल्तान यह भी नहीं चाहता था कि शिवाजी पूरी तरह नष्ट हो जाएँ। क्योंकि तब उसे मुग़लों का सीधा सामना करना पड़ता। [[चित्र:Shivaji-Maharaj-Statue.jpg|thumb|छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा]] औरंगज़ेब ने अपने संबंधी [[शाइस्ता ख़ाँ]] को शिवाजी से निपटने की ज़िम्मेदारी सौंपी। शाइस्ता ख़ाँ दक्षिणी सूबे का सूबेदार था। आत्मविश्वास भरे सूबेदार शाहस्ता ख़ाँ ने पूना पर कब्ज़ा कर लिया, चाकण के क़िलों को अपने अधिकार में ले लिया और दो वर्षों के भीतर ही उसने कल्याण सहित संपूर्ण उत्तरी कोंकण पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। केवल दक्षिण कि कुछ जागीरें ही शिवाजी के पास रह गईं। शाइस्ता ख़ाँ को आशा थी कि वर्षा समाप्त होने पर वह उन्हें भी जीत लेगा। शिवाजी ने इस अवसर का लाभ उठाया। उन्होंने चुने हुए चार सौ सिपाही लेकर बारात का साज सजाया और पूना में प्रविष्ट हो गए। आधी रात के समय उन्होंने सूबेदार के घर धावा बोल दिया। सूबेदार और उसके सिपाही तैयार नहीं थे। नौकरानी की होशियारी से शाइस्ता ख़ाँ तो बच निकला किंतु मुग़ल सेना को मौत के घाट उतार दिया गया।
 
इस घटना ने मुग़ल साम्राज्य की शान को घटाया और शिवाजी के हौसले तथा प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया। औरंगज़ेब के क्रोध की सीमा न रही। [[जसवंत सिंह (राजा)|जसवंत सिंह]] की निष्ठा पर संदेह हुआ और शाइस्ता ख़ाँ को बंगाल भेज दिया। इस बीच शिवाजी ने एक और दुस्साहिक अभियान किया। उन्होंने [[सूरत]] पर धावा बोल दिया। सूरत मुग़लों का एक महत्त्वपूर्ण क़िला था। शिवाजी ने उसे जी भर कर लूटा (1664) और धनदौलत से लद कर घर लौटे। 1665 ई. के आरंभ में औरंगज़ेब ने राजा [[जयसिंह]] के नेतृत्व में एक अन्य सेना शिवाजी का दमन करने के लिए भेजी। जयसिंह जो कि [[कछवाहा वंश|कछवाहा]] राजा था, युद्ध और शांति, दोनों ही की कलाओं में निपुण था। वह बड़ा चतुर कूटनीतिज्ञ था और उसने समझ लिया कि बीजापुर को जीतने के लिए शिवाजी से मैत्री करना आवश्यक है। अतः पुरन्धर के क़िले पर मुग़लों की विजय और रायगढ़ की घेराबंदी के बावजूद उसने शिवाजी से संधि की। पुरन्धर की यह संधि जून 1665 ई. में हुई जिसके अनुसार—
[[चित्र:Shivaji-Statue-2.jpg|thumb|छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा|250px|left]]
*शिवाजी को चार लाख हूण वार्षिक आमदनी वाले तेईस क़िले मुग़लों को सौंपने पड़े और उन्होंने अपने लिए सामान्य आय वाले केवल बारह क़िले रखे।
*मुग़लों ने शिवाजी के पुत्र सम्भाजी को पंज हज़ारी मन्सुबदारी एवं उचित जागीर देना स्वीकर किया।
*मुग़लों ने शिवाजी के विवेकरहित और बेवफ़ा व्यवहार को क्षमा करना स्वीकार कर लिया।
*शिवाजी को कोंकण और [[बालाघाट]] में जागीरें दी जानी थी जिनके बदले उन्हें मुग़लों को तेरह किस्तों में चालीस लाख हूण की रक़म अदा करनी थी। साथ ही उन्हें बीजापुर के ख़िलाफ़ मुग़लों की सहायता भी करनी थी।
 
====शाही नौकरी====
यह संधि राजा जयसिंह की व्यक्तिगत विजय थी। वह न केवल शक्तिशाली शत्रु पर काबू पाने में सफल रहा था अपितु उसने बीजापुर राज्य के विरुद्ध उसका सहयोग भी प्राप्त कर लिया था। किंतु उसका परिणाम अच्छा नहीं हुआ। दरबार में शिवाजी को पाँच हज़ारी मनसुबदारों की श्रेणी में रखा गया। यह ओहदा उनके नाबालिग पुत्र को पहले ही प्रदान कर दिया गया था। इसे शिवाजी ने अपना अपमान समझा। बादशाह का जन्मदिन मनाया जा रहा था और उसके पास शिवाजी से बात करने की फुर्सत भी नहीं थी अपमानित होकर शिवाजी वहाँ से चले आए और उन्होंने शाही नौकरी करना अस्वीकार कर दिया। तुरंत मुग़ल अदब के ख़िलाफ़ कार्य करने के लिए उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। दरबारियों का गुट उन्हें दंड दिए जाने के पक्ष में था किंतु जयसिंह ने बादशाह से प्रार्थना की कि मामले में नरमी बरतें। किंतु कोई भी निर्णय लिए जाने से पूर्व ही शिवाजी क़ैद से भाग निकले।
[[चित्र:Purandarh-Fort-Pune-1.jpg|thumb|250px|पुरंदर क़िला, [[पुणे]]|250px]]
====उच्चकुल क्षत्रिय====
इसमें कोई संदेह नहीं कि शिवाजी की आगरा यात्रा मुग़लों के साथ मराठों के संबंधों की दृष्टि से निर्णायक सिद्ध हुई। औरंगज़ेब शिवाजी को मामूली भूमिस समझता था। बाद की घटनाओं ने सिद्ध किया कि शिवाजी के प्रति औरंगज़ेब का दृष्टिकोण, शिवाजी के महत्त्व को अस्वीकार करना और उनकी मित्रता के मूल्य को न समझना राजनीतिक दृष्टि से उसकी बहुत बड़ी भूल थी। शिवाजी के संघर्ष की तार्किक पूर्णाहूति हुई 1647 ई. में छत्रपति के रूप में उनका औपचारिक राज्याभिषेक हुआ। स्थानीय ब्राह्मण शिवाजी के राज्यारोहण के उत्सव में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे क्योंकि उनकी दृष्टि में शिवाजी उच्च कुल क्षत्रिय नहीं थे। अतः उन्होंने [[वाराणसी]] के एक ब्राह्मण गंगा भट्ट को इस बात के लिए सहमत किया कि वह उन्हें उच्चकुल क्षत्रिय और राजा घोषित करे। इस एक व्यवस्था से होकर शिवाजी दक्षिणी सुल्तानों के समकक्ष हो गए और उनका दर्जा विद्रोही का न रहकर एक प्रमुख़ का हो गया। अन्य मराठा सरदारों के बीच भी शिवाजी का रुतबा बढ़ गया। उन्हें शिवाजी की स्वाधीनता स्वीकार करनी पड़ी और मीरासपट्टी कर भी चुकाना पड़ा। राज्यारोहण के पश्चात शिवाजी की प्रमुख उपलब्धि थी 1677 में [[कर्नाटक]] क्षेत्र पर उनकी विजय जो उन्होंने कुतुबशाह के साथ मिलकर प्राप्त की थी। जिन्जी, वेल्लेर और अन्य दुर्गों की विजय ने शिवाजी की प्रतिष्ठा में वृद्धि की।
 
==दुर्गों पर नियंत्रण==
शिवाजी ने कई दुर्गों पर अधिकार किया जिनमें से एक था [[सिंहगढ़ दुर्ग]], जिसे जीतने के लिए उन्होंने ताना जी को भेजा था। और वे वहाँ से विजयी हुए। ताना जी शिवाजी के बहुत विश्वासपात्र सेनापति थे। जिन्होंने सिंहगढ़ की लड़ाई में वीरगति पाई थी। ताना जी के पास बहुत अच्छी तरह से सधाई हुई गोह थी। जिसका नाम यशवन्ती था। शिवाजी ने [[ताना जी]] की मृत्यु पर कहा था- <blockquote>'''गढ़ आला पण सिंह गेला''' (गढ़ तो हमने जीत लिया पर सिंह हमें छोड़ कर चला गया)।</blockquote> बीजापुर के सुल्तान की राज्य सीमाओं के अंतर्गत [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]] (1646) में [[चाकन]], [[सिंहगढ़ दुर्ग|सिंहगढ़]] और [[पुरन्दर क़िला|पुरन्दर]] सरीखे दुर्ग भी शीघ्र उनके अधिकारों में आ गये। 1655 ई. तक शिवाजी ने कोंकण में कल्याण और जाबली के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया। उन्होंने जाबली के राजा चंद्रदेव का बलपूर्वक वध करवा दिया। शिवाजी की राज्य विस्तार की नीति से क्रुद्ध होकर बीजापुर के सुल्तान ने 1659 ई. में अफ़ज़ल ख़ाँ नामक अपने एक वरिष्ठ सेनानायक को विशाल सैन्य बल सहित शिवाजी का दमन करने के लिए भेजा। दोनों पक्षों को अपनी विजय का पूर्ण विश्वास नहीं था। अतः उन्होंने संधिवार्ता प्रारम्भ कर दी। दोनों की भेंट के अवसर पर अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी को दबोच कर मार डालने का प्रयत्न किया। परन्तु वे इसके प्रति पहले से ही सजग थे। उन्होंने अपने गुप्त शस्त्र बघनखा का प्रयोग करके मुसलमान सेनानी का पेट फाड़ डाला। जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। तदुपरान्त शिवाजी ने एक विकट युद्ध में बीजापुर की सेनाओं को परास्त कर दिया। इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी का सामना करने का साहस नहीं किया।
[[चित्र:Shivaji-Maharaj.jpg|thumb|250px|छत्रपति शिवाजी महाराज का सिक्का]]
अब उन्हें एक और प्रबल शत्रु मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब का सामना करना पड़ा। 1660 ई. में औरंगजेब ने अपने मामा शायस्ता ख़ाँ नामक सेनाध्यक्ष शिवाजी के विरुद्ध भेजा। शायस्ता ख़ाँ ने शिवाजी के कुछ दुर्गों पर अधिकार करके उनके केन्द्र-स्थल पूना पर भी अधिकार कर लिया। किन्तु शीघ्र ही शिवाजी ने अचानक रात्रि में शायस्ता ख़ाँ पर आक्रमण कर दिया। जिससे उसको अपना एक पुत्र अपने हाथ की तीन अँगुलियाँ गँवाकर अपने प्राण बचाने पड़े। शायस्ता ख़ाँ को वापस बुला लिया गया। फिर भी औरंगज़ेब ने शिवाजी के विरुद्ध नये सेनाध्यक्षों की संरक्षा में नवीन सैन्यदल भेजकर युद्ध जारी रखा। शिवाजी ने 1664 ई. में मुग़लों के अधीनस्थ सूरत को लूट लिया, किन्तु मुग़ल सेनाध्यक्ष मिर्जा राजा जयसिंह ने उनके अधिकांश दुर्गों पर अधिकार कर लिया, जिससे शिवाजी को 1665 ई. में पुरन्दर की संधि करनी पड़ी। उसके अनुसार उन्होंने केवल 12 दुर्ग अपने अधिकार में रखकर 23 दुर्ग मुग़लों को दे दिये और राजा जयसिंह द्वारा अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होकर आगरा में मुग़ल दरबार में उपस्थित होने के लिए प्रस्थान किया।
 
==आगरा से बच निकलना==
शिवाजी नहीं हारे और अपनी बीमारी का बहाना बनाया। उन्होंने मिठाई के बड़े-बड़े टोकरे ग़रीबों में बाँटने के लिए भिजवाने शुरू किए। 17 अगस्त 1666 को वह अपने पुत्र के साथ टोकरे में बैठकर पहरेदारों के सामने से छिप कर निकल गए। उनका बच निकलना, जो शायद उनके नाटकीय जीवन का सबसे रोमांचक कारनामा था, भारतीय इतिहास की दिशा बदलने में निर्णायक साबित हुआ। उनके अनुगामियों ने उनका अपने नेता के रूप में स्वागत किया और दो वर्ष के समय में उन्होंने न सिर्फ़ अपना पुराना क्षेत्र हासिल कर लिया, बल्कि उसका विस्तार भी किया। वह मुग़ल ज़िलों से धन वसूलते थे और उनकी समृद्ध मंडियों को भी लूटते थे। उन्होंने अपनी सेना का पुनर्गठन किया और प्रजा की भलाई के लिए अपेक्षित सुधार किए। अब तक भारत में पाँव जमा चुके [[पुर्तग़ाली]] और अंग्रेज़ व्यापारियों से सीख ले कर उन्होंने नौसेना का गठन शुरू किया। इस प्रकार आधुनिक भारत में वह पहले शासक थे, जिन्होंने व्यापार और सुरक्षा के लिए नौसेना की आवश्यकता के महत्त्व को स्वीकार किया। शिवाजी के उत्कर्ष से क्षुब्ध होकर औरंगज़ेब ने हिन्दुओं पर अत्याचार करना शुरू कर दिया, उन पर कर लगाना, ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन कराए और मंदिरों को गिरा कर उनकी जगह पर मस्जिदें बनवाई।
==राज्याभिषेक==
[[मई]] 1666 ई. में शाही दरबार में उपस्थित होने पर उनके साथ तृतीय श्रेणी के मनसुबदारों से सदृश व्यवहार किया गया और उन्हें नज़रबंद कर दिया गया। किन्तु शिवाजी चालाकी से अपने अल्पवयस्क पुत्र [[शम्भुजी]] और अपने विश्वस्त अनुचरों सहित नज़रबंदी से भाग निकले। सन्न्यासी के वेश में द्रुतगामी अश्वों की सहायता से वे दिसम्बर 1666 ई. में अपने प्रदेश में पहुँच गये। अगले वर्ष औरंगज़ेब ने निरुपाय होकर शिवाजी को राजा की उपाधि प्रदान की, और इसके बाद दो वर्षों तक शिवाजी और मुग़लों के बीच शान्ति रही। [[चित्र:Shivaji-Throne.jpg|thumb|250px|शिवाजी महाराज का सिंहासन, [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]]|left]] शिवाजी ने इन वर्षों में अपनी शासन-व्यवस्था संगठित की। 1671 ई. में उन्होंने मुग़लों से पुनः संघर्ष प्रारंभ किया और खानदेश के कुछ भू-भागों के स्थानीय मुग़ल पदाधिकारियों को सुरक्षा का वचन देकर उनसे चौथ वसूल करने का लिखित इकारारनामा ले लिया और दूसरी बार [[सूरत]] को लूटा। 6 जून 1674 ई. में रायगढ़ के दुर्ग में [[महाराष्ट्र]] के स्वाधीन शासक के रूप में उनका राज्याभिषेक हुआ।
 
==कर्नाटक अभियान==
राज्याभिषेक के बाद शिवाजी का अन्तिम महत्त्वपूर्ण अभियान 'कर्नाटक का अभियान' (1676 ई.) था। [[गोलकुण्डा]] के 'मदन्ना' एवं 'अकन्ना' के सहयोग से शिवाजी ने [[बीजापुर]] और [[कर्नाटक]] पर आक्रमण करना चाहा, परन्तु आक्रमण के पूर्व ही शिवाजी एवं कुतुबशाह के बीच संधि सम्पन्न हुई, जिसकी शर्तें इस प्रकार थीं-
#शिवाजी को कुतुबशाह ने प्रति वर्ष एक लाख हूण देना स्वीकार किया।
#दोनों ने कर्नाटक की सम्पत्ति को आपस में बांटने पर सहमति जताई।
 
शिवाजी ने [[जिंजी]] एवं [[वेल्लोर]] जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर लिया। जिंजी को उन्होंने अपने राज्य की राजधानी बनाया। शिवाजी का संघर्ष जंजीरा टापू के अधिपति अबीसीनियाई सिद्दकियों से भी हुआ। सिद्दकियों पर अधिकार करने के लिए उन्होंने नौसेना का भी निर्माण किया था, परन्तु वह [[पुर्तग़ाली|पुर्तग़ालियों]] से [[गोवा]] तथा सिद्दकियों से [[चैल हिमाचल प्रदेश|चैल]] और [[जंजीरा क़िला|जंजीरा]] नहीं छीन सके। सिद्दकी पहले [[अहमदनगर]] के अधिपत्य को मानते थे, परन्तु 1638 ई. के बाद वे बीजापुर की अधीनता में आ गए। शिवाजी के लिए जंजीरा को जीतना अपने [[कोंकण]] प्रदेश की रक्षा के लिए आवश्यक था। 1669 ई. में उन्होंने दरिया सारंग के नेतृत्व में अपने जल बेड़े को जंजीरा पर आक्रमण करने के लिए भेजा।
==शिवाजी का प्रशासन==
सेनानायक के रूप में शिवाजी की महानता निर्विवाद रही है। किंतु नागरिक प्रशासक के रूप में उनकी क्षमता आज भी स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं की जाती। यूरोपीय इतिहासकारों में दृष्टि में मराठा प्रभुत्व, जो लूट पर आधारित था, को किसी भी प्रकार का कर लेने का अधिकार नहीं था। कुछ अन्य इतिहासकारों की मान्यता है कि शिवाजी के प्रशासन के पीछे कोई आधारभूत सिद्धांत नहीं था और इसी कारण प्रशासन के क्षेत्र में उनका कोई स्थायी योगदान नहीं रहा। शिवाजी की प्रशासनिक व्यवस्था काफ़ी सीमा तक दक्षिणी राज्यों और मुग़लों की प्रशासनिक व्यवस्था से प्रभावित थी। शिवाजी की मृत्यु के समय उनका पुर्तग़ालियों के अधिकार क्षेत्र के अतिरिक्त लगभग समस्त (मराठा) देश में फैला हुआ था। पुर्तग़ालियों का आधिपत्य उत्तर में रामनगर से बंबई ज़िले में गंगावती नदी के तट पर करवार तक था। शिवाजी की पूर्वी सीमा उत्तर में बागलना को छूती थी और फिर दक्षिण की ओर [[नासिक]] एवं पूना ज़िलों के बीच से होती हुई एक अनिश्चित सीमा रेखा के साथ समस्त सतारा और कोल्हापुर के ज़िले के अधिकांश भाग को अपने में समेट लेती थी। इस सीमा के भीतर आने वाले क्षेत्र को ही मरी अभिलेखों में शिवाजी का "स्वराज" कहा गया है। पश्चिमी [[कर्नाटक]] के क्षेत्र कुछ देर बाद सम्मिलित हुए। स्वराज का यह क्षेत्र तीन मुख्य भागों में विभाजित था और प्रत्येक भाग की देखभाल के लिए एक व्यक्ति को नियुक्त किया गया था-
*पूना से लेकर सल्हर तक का क्षेत्र कोंकण का क्षेत्र, जिसमें उत्तरी कोंकण भी सम्मिलित था, [[पेशवा]] मोरोपंत पिंगले के नियंत्रण में था।
*उत्तरी कनारा तक दक्षिणी कोंकण का क्षेत्र अन्नाजी दत्तों के अधीन था।
*दक्षिणी देश के ज़िले, जिनमें सतारा से लेकर धारवाड़ और कोफाल का क्षेत्र था, दक्षिणी पूर्वी क्षेत्र के अंतर्गत आते थे और दत्ताजी पंत के नियंत्रण में थे। इन तीन सूबों को पुनः परगनों और तालुकों में विभाजित किया गया था। परगनों के अंतर्गत तरफ़ और मौजे आते थे। हाल ही में जीते गए आषनी, जिन्जी, बैलोर, अन्सी एवं अन्य ज़िले, जिन्हें समयाभाव के कारण प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत नहीं लाया जा सका था, अधिग्रहण सेना की देखरेख में थे।
[[चित्र:Chhatrapati-Shivaji-Terminus.jpg|thumb|250px|[[छत्रपति शिवाजी टर्मिनस]], [[मुंबई]]]]
केंद्र में आठ मंत्रियों की परिषद् होती थी जिसे अष्ट प्रधान कहते थे जिसे किसी भी अर्थ में मंत्रिमडल नहीं कहा जा सकता था। शिवाजी अपने प्रधानमंत्री स्वयं थे और प्रशासन की बागडोर अपने ही हाथों में रखते थे। अष्ट प्रधान केवल उनके सचिवों के रूप में कार्य करते थे; वे न तो आगे बढ़कर कोई कार्य कर सकते थे और न ही नीति निर्धारण कर सकते थे। उनका कार्य शुद्ध रूप से सलाहकार का था। जब कभी उनकी इच्छा होती तो वे उनकी सलाह पर ध्यान देते भी थे अन्यथा सामान्यतः उनका कार्य शिवाजी के निर्दशों का पालन करना और उनके अपने विभागों की निगरानी करना मात्र होता था। संभव है कि शिवाजी पौरोहित्य एवं लेखा विभागों के काम-काज में दख़ल न देते हों किंतु इसका कारण उनकी प्रशासनिक अनुभवहीनता ही रही होगी। [[पेशवा]] का कार्य लोक हित का ध्यान रखना था। पंत आमात्य, आय-व्यय की लेखा परीक्षा करता था। मंत्री या वकनीस या विवरणकार राजा का रोज़नामचा रखता था। सुमंत या विदेश सचिव विदेशी मामलों की देखभाल करता था। पंत सचिव पर राजा के पत्राचार का दायित्व था। पंडितराव, विद्वानों और धार्मिक कार्यों के लिए दिए जाने वाले अनुदानों का दायित्व निभाता था। सेनापति एवं न्यायधीश अपना-अपना कार्य करते थे। वे क्रमशः सेना एवं न्याय विभाग के कार्यों की देखते थे।
 
==सेना ==
शिवाजी ने अपनी एक स्थायी सेना बनाई थी और वर्षाकाल के दौरान सैनिकों को वहाँ रहने का स्थान भी उपलब्ध कराया जाता रहा था। शिवाजी की मृत्यु के समय उनकी सेना में 30-40 हज़ार नियमित और स्थायी रूप से नियुक्त घुड़सवार, एक लाख पदाति और 1260 हाथी थे। उनके तोपखानों के संबंध में ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं है। किंतु इतना ज्ञात है कि उन्होंने सूरत और अन्य स्थानों पर आक्रमण करते समय तोपखाने का उपयोग किया था। नागरिक प्रशासन की भाँति ही सैन्य-प्रशासन में भी समुचित संस्तर बने हुए थे। घुड़सवार सेना दो श्रेणियों में विभाजित थी-
*बारगीर व घुड़सवार सैनिक थे जिन्हें राज्य की ओर से घोड़े और शस्त्र दिए जाते थे
*सिल्हदार जिन्हें व्यवस्था आप करनी पड़ती थी।
[[चित्र:Pratapgarh-Fort.jpg|प्रतापगढ़ क़िला, [[महाराष्ट्र]]|250px|thumb|left]]
'''घुड़सवार सेना की सबसे छोटी इकाई में 25 जवान होते थे, जिनके ऊपर एक हवलदार होता था। पाँच हवलदारों का एक जुमला होता था। जिसके ऊपर एक जुमलादार होता था; दस जुमलादारों की एक हज़ारी होती थी और पाँच हज़ारियो के ऊपर एक पंजहज़ारी होता था। वह सरनोबत के अंतर्गत आता था। प्रत्येक 25 टुकड़ियों के लिए राज्य की ओर से एक नाविक और भिश्ती दिया जाता था। मराठा सैन्य व्यवस्था के विशिष्ट लक्षण थे क़िले।''' विवरणकारों के अनुसार शिवाजी के पास 250 क़िले थे। जिनकी मरम्मत पर वे बड़ी रक़म खर्च करते थे। प्रत्येक क़िले को तिहरे नियंत्रण में रखा जाता था जिसमें एक ब्राह्मण, एक मरा, एक कुनढ़ी होता था। ब्राह्मण नागरिक और राजस्व प्रशासन देखता था, शेष दो सैन्य संचालन और रसद के पहलुओं को देखते थे। यह आम धारणा है कि शिवाजी के सैनिकों को वेतन नगद दिया जाता था। किंतु उस समय की परिस्थितियों और क्षेत्र की सामान्य स्थिति को देखते हुए यह व्यवस्था भी एक आदर्श थी जिसे शिवाजी साकार करना चाहते थे। सिपाहियों, हवलदारों इत्यादि का वेतन या तो ख़जाने से दिया जाता था या ग्रामीण क्षेत्रों की बारत (आज्ञा) द्वारा जिनका भुगतान कारकून करते थे। किंतु निश्चित रक़म के लिए भूमि या गाँव देने की पहले से चली आ रही प्रथा को भी पूर्णतः समाप्त नहीं किया गया था।
 
==स्वतंत्र प्रभुसत्ता==
1674 की [[ग्रीष्म ऋतु]] में शिवाजी ने धूमधाम से सिंहासन पर बैठकर स्वतंत्र प्रभुसत्ता की नींव रखी। दबी-कुचली हिन्दू जनता ने सहर्ष उन्हें नेता स्वीकार कर लिया। अपने आठ मंत्रियों की परिषद के ज़रिये उन्होंने छह वर्ष तक शासन किया। वह एक धर्मनिष्ठ हिन्दू थे। जो अपनी धर्मरक्षक भूमिका पर गर्व करते थे। लेकिन उन्होंने ज़बरदस्ती [[मुसलमान]] बनाए गए अपने दो रिश्तेदारों को [[हिन्दू धर्म]] में वापस लेने का आदेश देकर परंपरा तोड़ी। हालांकि [[ईसाई]] और मुसलमान बल प्रयोग के ज़रिये बहुसंख्य जनता पर अपना मत थोपते थे। शिवाजी ने इन दोनों संप्रदायों के आराधना स्थलों की रक्षा की। उनकी सेवा में कई मुसलमान भी शामिल थे। उनके सिंहासन पर बैठने के बाद सबसे उल्लेखनीय अभियान [[दक्षिण भारत]] का रहा, जिसमें मुसलमानों के साथ कूटनीतिक समझौता कर उन्होंने मुग़लों को समूचे उपमहाद्वीप में सत्ता स्थापित करने से रोक दिया।
 
==राजस्व प्रशासन==
शिवाजी ने भू-राजस्व एवं प्रशासन के क्षेत्र में अनेक क़दम उठाए। इस क्षेत्र की व्यवस्था पहले बहुत अच्छी नहीं थीं क्योंकि यह पहले कभी किसी राज्य का अभिन्न अंग नहीं रहा था। [[बीजापुर]] के [[सुल्तान]], मुग़ल और यहाँ तक कि स्वयं मराठा सरदार भी अतिरिक्त उत्पादन को एक साथ ही लेते थे जो इजारेदारी या राजस्व कृषि की कुख्यात प्रथा जैसी ही व्यवस्था थी। [[मलिक अम्बर]] की राजस्व व्यवस्था में शिवाजी को आदर्श व्यवस्था दिखाई दी किंतु उन्होंने उसका अंधानुकरण नहीं किया। मलिक अम्बर तो माप की इकाइयों का मानकीकरण करने में असफल रहा था किंतु शिवाजी ने एक सही मानक इकाई स्थिर कर दी थी। उन्होंने रस्सी के माप के स्थान पर काठी और मानक छड़ी का प्रयोग आरंभ करवाया। बीस छड़ियों का एक बीघा होता है और 120 बीघे का एक चावर चवार होता था।
[[चित्र:Fort-Raigarh-Maharashtra.jpg|thumb|250px|रायगढ़ क़िला, [[महाराष्ट्र]]|left]]
शिवाजी के निदेशानुसार सन् 1679 ई. में अन्नाजी दत्तों ने एक विस्तृत भू-सर्वेक्षण करवाया जिसके परिणामस्वरूप एक नया राजस्व निर्धारण हुआ। अगले ही वर्ष शिवाजी की मृत्यु हो गई, इससे यह तर्क निरर्थक जान पड़ता है कि उन्होंने भूरास्व विभाग से बिचौलियों का अस्तित्व समाप्त कर दिया था और राजस्व उनके अधिकारी ही एकत्र करते थे। कुल उपज का 33% राजस्व के रूप में लिया जाता था जिसे बाद में बढ़ाकर 40% कर दिया गया था। राजस्व नगद या वस्तु के रूप में चुकाया जा सकता था। कृषकों को नियमित रूप से बीज और पशु ख़रीदने के लिए ऋण दिया जाता था जिसे दो या चार वार्षिक किश्तों में वसूल किया जाता था। अकाल या फ़सल ख़राब होने की आपात स्थिति में उदारतापूर्वक अनुदान एवं सहायता प्रदान की जाती थी। नए इलाक़े बसाने को प्रोत्साहन देने के लिए किसानों को लगानमुक्त भूमि प्रदान की जाती थी।
 
यद्यपि निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि शिवाजी ने ज़मीदारी प्रथा को समाप्त कर दिया था। फिर भी उनके द्वारा भूमि एवं उपज के सर्वेक्षण और भूस्वामी बिचौलियों की स्वतंत्र गतिविधियों पर नियंत्रण लगाए जाने से ऐसी संभावना के संकेत मिलते हैं। उन्होंने बार-बार किए जाने वाले भू-हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास भी किया यद्यपि इसे पूरी तरह समाप्त करना उनके लिए संभव नहीं था। इस सबको देखते हुए कहा जा सकता है कि इस नई व्यवस्था से किसान प्रसन्न हुए होंगे और उन्होंने इसका स्वागत किया होगा क्योंकि बीजापुरी सुल्तानों के अत्याचारी मराठा देशमुखों की व्यवस्था की तुलना में यह बहुत अच्छी थी। शिवाजी के शासन काल में राज्य की आय के दो और स्रोत थे-सरदेशमुखी और चौथ। उनका कहना था कि देश के वंशानुगत (और सबसे बड़े भी) होने के नाते और लोगों के हितों की रक्षा करने के बदले उन्हें सरदेशमुखी लेने का अधिकार है। चौथ के संबंध में इतिहासकार एक मत नहीं हैं।
[[चित्र:Shivaji-Statue.jpg|thumb|छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा, [[रायगढ़ महाराष्ट्र|रायगढ़]]|250px]]
रानाडे के अनुसार यह 'सेना के लिए दिया जाने वाला अंशमात्र नहीं था जिसमें कोई नैतिक और क़ानूनी बाध्यता न होती, अपितु बाह्य शक्ति के आक्रमण से सुरक्षा प्रदान करने के बदले लिया जाने वाला कर था।' सरदेसाई इसे 'शत्रुता रखने वाले अथवा विजित क्षेत्रों से वसूल किया जाने वाला कर मानते हैं।' जदुनाथ सरकार के अनुसार 'यह मराठा आक्रमण से बचने की एवज़ में वसूले जाने वाले शुल्क से अधिक कुछ नहीं था। अतः इसे एक प्रकार का भयदोहन (दबावपूर्वक ऐंठना) ही कहा जाना चाहिए।' यह कहना भी अनुचित न होगा कि दक्षिण के सुल्तानों और मुग़लों ने मराठों को अपने इलाक़ों से ये दोनों कर वसूल करने का अधिकार दिया था जिसने इस उदीयमान राज्य को बड़ी सीमा तक वैधता प्रदान की थी।
मराठा राज्य के संबंध में सतीशचंद्र के इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है कि 'मराठा राज्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मराठा आंदोलन, जो मुग़ल साम्राज्य के केंद्रीकरण के विरुद्ध क्षेत्रीय प्रतिक्रिया के रूप में आरंभ हुआ था, की परिणति शिवाजी द्वारा दक्षिण-मुग़ल प्रशासनिक व्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों को अपनाए जाने में हुई।"
 
==अन्तिम समय==
शिवाजी की कई पत्नियां और दो बेटे थे, उनके जीवन के अंतिम वर्ष उनके ज्येष्ठ पुत्र की धर्मविमुखता के कारण परेशानियों में बीते। उनका यह पुत्र एक बार मुग़लों से भी जा मिला था और उसे बड़ी मुश्किल से वापस लाया गया था। घरेलु झगड़ों और अपने मंत्रियों के आपसी वैमनस्य के बीच साम्राज्य की शत्रुओं से रक्षा की चिंता ने शीघ्र ही शिवाजी को मृत्यु के कगार पर पहुँचा दिया। [[चित्र:Chatrapati-Shivaj-1.jpg|thumb|250px|left|छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा, [[महाराष्ट्र]]]] [[लॉर्ड मैकाले]] द्वारा 'शिवाजी महान' कहे जाने वाले शिवाजी की 1680 में कुछ समय बीमार रहने के बाद अपनी राजधानी पहाड़ी दुर्ग राजगढ़ में 3 अप्रैल को मृत्यु हो गई।
 
==उपसंहार==
इस प्रकार मुग़लों, बीजापुर के सुल्तान, [[गोवा]] के पुर्तग़ालियों और जंजीरा स्थित अबीसिनिया के समुद्री डाकुओं के प्रबल प्रतिरोध के बावजूद उन्होंने दक्षिण में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना की। धार्मिक आक्रामकता के युग में वह लगभग अकेले ही धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक बने रहे। उनका राज्य [[बेलगांव कर्नाटक|बेलगांव]] से लेकर [[तुंगभद्रा नदी]] के तट तक समस्त पश्चिमी [[कर्नाटक]] में विस्तृत था। इस प्रकार शिवाजी एक साधारण जागीरदार के उपेक्षित पुत्र की स्थिति से अपने पुरुषार्थ द्वारा ऎसे स्वाधीन राज्य के शासक बने, जिसका निर्माण स्वयं उन्होंने ही किया था। उन्होंने उसे एक सुगठित शासन-प्रणाली एवं सैन्य-संगठन द्वारा सुदृढ़ करके जन साधारण का भी विश्वास प्राप्त किया। जिस स्वतंत्रता की भावना से वे स्वयं प्रेरित हुए थे, उसे उन्होंने अपने देशवासियों के हृदय में भी इस प्रकार प्रज्वलित कर दिया कि उनके मरणोंपरान्त औरंगज़ेब द्वारा उनके पुत्र का वध कर देने, पौत्र को कारागार में डाल देने तथा समस्त देश को अपनी सैन्य शक्ति द्वारा रौंद डालने पर भी वे अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने में समर्थ हो सके। उसी से भविष्य में विशाल [[मराठा साम्राज्य]] की स्थापना हुई। शिवाजी यथार्थ में एक व्यावहारिक आदर्शवादी थे।<ref>[[यदुनाथ सरकार]] द्वारा लिखित शिवाजी एण्ड हिज टाइम्स तथा एस. एन. सेन कृत छत्रपति शिवाजी</ref>
 
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=|माध्यमिक=माध्यमिक2|पूर्णता=|शोध=}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
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==बाहरी कड़ियाँ==
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://panchjanya.com/arch/2007/9/23/File27.htm चैतन्य महाप्रभु]
*[http://hindi.webdunia.com/miscellaneous/kidsworld/prompterpersonality/0902/18/1090218121_1.htm छत्रपति शिवाजी महाराज]
*[http://www.vichar.bhadas4media.com/sahitya-jagat/1638-2011-10-17-11-00-13.html गौरांग ने आबाद किया कृष्‍ण का वृन्‍दावन ]
*[http://www.chhatrapati-shivaji.com Chhatrapati Shivaji]
*[http://www.gaudiya.com/ Gaudiya Vaishnava]
*[http://www.chhatrapatishivajimaharaj.com Chhatrapati Shivaji Maharaj]
*[http://www.dlshq.org/saints/gauranga.htm Lord Gauranga (Sri Krishna Chaitanya Mahaprabhu)]
*[http://gaudiyahistory.com/caitanya-mahaprabhu/ Gaudiya History]
*[http://www.iskcontruth.com/2015/02/sri-gaura-purnima-special-scriptures.html Sri Gaura Purnima Special: Scriptures that Reveal Lord Chaitanya’s Identity as Lord Krishna]
*[http://www.philtar.ac.uk/encyclopedia/hindu/devot/gauvai.html Gaudiya Vaishnavas]
*[http://www.hindisahityadarpan.in/2013/05/chaitanya-mahaprabhu-life-history-iskon.html चैतन्य महाप्रभु - जीवन परिचय]
*[http://radhakripa.com/radhakripa/radhakripa.php?pageid=book&book=chaitnya_sandesh&article=introduction परिचय- चैतन्य महाप्रभु ]
*[http://pustak.org/bs/home.php?bookid=8200  जीवनी/आत्मकथा >> चैतन्य महाप्रभु (लेखक- अमृतलाल नागर)]
*[http://hindi.speakingtree.in/spiritual-blogs/seekers/god-and-i/32526 श्री संत चैतन्य महाप्रभु]
*[http://sk1960.blogspot.in/2013/03/blog-post.html चैतन्य महाप्रभु यदि वृन्दावन न आये होते तो शायद ही कोई पहचान पाता कान्हा की लीला स्थली को]
*[https://www.youtube.com/watch?v=9p99dnKpTVA Shri Chaitanya Mahaprabhu -Hindi movie (youtube)]
==संबंधित लेख==
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11:46, 8 सितम्बर 2016 का अवतरण

शिवाजी विषय सूची
रविन्द्र प्रसाद/अभ्यास
शिवाजी
शिवाजी
पूरा नाम शिवाजी राजे भोंसले
अन्य नाम छत्रपति शिवाजी महाराज
जन्म 19 फ़रवरी, 1630
जन्म भूमि शिवनेरी, महाराष्ट्र
मृत्यु तिथि 3 अप्रैल, 1680
मृत्यु स्थान दुर्ग रायगढ़
पिता/माता शाहजी भोंसले, जीजाबाई
पति/पत्नी साइबाईं निम्बालकर
संतान सम्भाजी
उपाधि छत्रपति
शासन काल 1642 - 1680 ई.
शा. अवधि 38 वर्ष
राज्याभिषेक 6 जून, 1674 ई.
धार्मिक मान्यता हिन्दू धर्म
युद्ध मुग़लों के विरुद्ध अनेक युद्ध हुए
निर्माण अनेक क़िलों का निर्माण और पुनरुद्धार
सुधार-परिवर्तन हिन्दू राज्य की स्थापना
राजधानी दुर्ग राजगढ़
पूर्वाधिकारी शाहजी भोंसले
उत्तराधिकारी सम्भाजी
राजघराना मराठा साम्राज्य
वंश भोंसले
स्मारक महाराष्ट्र
संबंधित लेख ताना जी, महाराष्ट्र, रायगढ़, समर्थ गुरु रामदास, पूना
अन्य जानकारी "शिव सूत्र" (गुरिल्ला युद्ध) का आरम्भ किया।

शिवाजी (अंग्रेज़ी:Shivaji, पूरा नाम: 'शिवाजी राजे भोंसले', जन्म: 19 फ़रवरी, 1630 - मृत्यु: 3 अप्रैल, 1680) पश्चिमी भारत के मराठा साम्राज्य के संस्थापक थे। शिवाजी के पिता का नाम शाहजी भोंसले और माता का नाम जीजाबाई था। सेनानायक के रूप में शिवाजी की महानता निर्विवाद रही है। शिवाजी ने अनेक क़िलों का निर्माण और पुनरुद्धार करवाया। उनके निर्देशानुसार सन 1679 ई. में अन्नाजी दत्तों ने एक विस्तृत भू-सर्वेक्षण करवाया, जिसके परिणामस्वरूप एक नया राजस्व निर्धारण हुआ।

रविन्द्र प्रसाद/अभ्यास का उल्लेख इन लेखों में भी है: शिवनेरी, अमात्य, तुलजा भवानी एवं सिंहगढ़ दुर्ग

जीवन परिचय

इनके पिताजी शाहजी भोंसले ने शिवाजी के जन्म के उपरान्त ही अपनी पत्नी जीजाबाई को प्रायः त्याग दिया था। उनका बचपन बहुत उपेक्षित रहा और वे सौतेली माँ के कारण बहुत दिनों तक पिता के संरक्षण से वंचित रहे। उनके पिता शूरवीर थे और अपनी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते पर आकर्षित थे। जीजाबाई उच्च कुल में उत्पन्न प्रतिभाशाली होते हुए भी तिरस्कृत जीवन जी रही थीं। जीजाबाई यादव वंश से थीं। उनके पिता एक शक्तिशाली और प्रभावशाली सामन्त थे। बालक शिवाजी का लालन-पालन उनके स्थानीय संरक्षक दादाजी कोणदेव,जीजाबाई तथा समर्थ गुरु रामदास की देखरेख में हुआ। माता जीजाबाई तथा गुरु रामदास ने कोरे पुस्तकीय ज्ञान के प्रशिक्षण पर अधिक बल न देकर शिवाजी के मष्तिष्क में यह भावना भर दी थी कि देश, समाज, गौ तथा ब्राह्मणों को मुसलमानों के उत्पीड़न से मुक्त कराना उनका परम कर्तव्य है। शिवाजी स्थानीय लोगों के बीच रहकर शीघ्र ही उनमें अत्यधिक सर्वप्रिय हो गये। उनके साथ आस-पास के क्षेत्रों में भ्रमण करने से उनको स्थानीय दुर्गों और दर्रों की भली प्रकार व्यक्तिगत जानकारी प्राप्त हो गयी। कुछ स्वामिभक्त लोगों का एक दल बनाकर उन्होंने उन्नीस वर्ष की आयु में पूना के निकट तोरण के दुर्ग पर अधिकार करके अपना जीवन-क्रम आरम्भ किया। उनके हृदय में स्वाधीनता की लौ जलती थी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों को संगठित किया। धीरे धीरे उनका विदेशी शासन की बेड़ियाँ तोड़ने का संकल्प प्रबल होता गया। शिवाजी का विवाह साइबाईं निम्बालकर के साथ सन 1641 में बंगलौर में हुआ था। उनके गुरु और संरक्षक कोणदेव की 1647 में मृत्यु हो गई। इसके बाद शिवाजी ने स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया।

आरंभिक जीवन और उल्लेखनीय सफलताएँ

शिवाजी प्रभावशाली कुलीनों के वंशज थे। उस समय भारत पर मुस्लिम शासन था। उत्तरी भारत में मुग़लों तथा दक्षिण में बीजापुर और गोलकुंडा में मुस्लिम सुल्तानों का, ये तीनों ही अपनी शक्ति के ज़ोर पर शासन करते थे और प्रजा के प्रति कर्तव्य की भावना नहीं रखते थे। शिवाजी की पैतृक जायदाद बीजापुर के सुल्तान द्वारा शासित दक्कन में थी। उन्होंने मुसलमानों द्वारा किए जा रहे दमन और धार्मिक उत्पीड़न को इतना असहनीय पाया कि 16 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें विश्वास हो गया कि हिन्दुओं की मुक्ति के लिए ईश्वर ने उन्हें नियुक्त किया है। उनका यही विश्वास जीवन भर उनका मार्गदर्शन करता रहा। उनकी विधवा माता, जो स्वतंत्र विचारों वाली हिन्दू कुलीन महिला थी, ने जन्म से ही उन्हें दबे-कुचले हिंदुओं के अधिकारों के लिए लड़ने और मुस्लिम शासकों को उखाड़ फैंकने की शिक्षा दी थी। अपने अनुयायियों का दल संगठित कर उन्होंने लगभग 1655 में बीजापुर की कमज़ोर सीमा चौकियों पर कब्ज़ा करना शुरू किया। इसी दौर में उन्होंने सुल्तानों से मिले हुए स्वधर्मियों को भी समाप्त कर दिया। इस तरह उनके साहस व सैन्य निपुणता तथा हिन्दुओं को सताने वालों के प्रति कड़े रूख ने उन्हें आम लोगों के बीच लोकप्रिय बना दिया। उनकी विध्वंसकारी गतिविधियाँ बढ़ती गई और उन्हें सबक सिखाने के लिए अनेक छोटे सैनिक अभियान असफल ही सिद्ध हुए। जब 1659 में बीजापुर के सुल्तान ने उनके ख़िलाफ़ अफ़ज़ल ख़ाँ के नेतृत्व में 10,000 लोगों की सेना भेजी तब शिवाजी ने डरकर भागने का नाटक कर सेना को कठिन पहाड़ी क्षेत्र में फुसला कर बुला लिया और आत्मसमर्पण करने के बहाने एक मुलाकात में अफ़ज़ल ख़ाँ की हत्या कर दी। उधर पहले से घात लगाए उनके सैनिकों ने बीजापुर की बेख़बर सेना पर अचानक हमला करके उसे खत्म कर डाला, रातों रात शिवाजी एक अजेय योद्धा बन गए। जिनके पास बीजापुर की सेना की बंदूकें, घोड़े और गोला-बारूद का भंडार था।

शक्ति में वृद्धि

शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित हो कर मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने दक्षिण में नियुक्त अपने सूबेदार को उन पर चढ़ाई करने का आदेश दिया। उससे पहले ही शिवाजी ने आधी रात को सूबेदार के शिविर पर हमला कर दिया। जिसमें सूबेदार के एक हाथ की उंगलियाँ कट गई और उसका बेटा मारा गया। इससे सूबेदार को पीछे हटना पड़ा। शिवाजी ने मानों मुग़लों को और चिढ़ाने के लिए संपन्न तटीय नगर सूरत पर हमला कर दिया और भारी संपत्ति लूट ली। इस चुनौती की अनदेखी न करते हुए औरंगज़ेब ने अपने सबसे प्रभावशाली सेनापति मिर्जा राजा जयसिंह के नेतृत्व में लगभग 1,00,000 सैनिकों की फ़ौज भेजी। इतनी बड़ी सेना और जयसिंह की हिम्मत और दृढ़ता ने शिवाजी को शांति समझौते पर मजबूर कर दिया।

शिवाजी और जयसिंह

शिवाजी को कुचलने के लिए राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान से संधि कर पुरन्दर के क़िले को अधिकार में करने की अपने योजना के प्रथम चरण में 24 अप्रैल, 1665 ई. को 'व्रजगढ़' के क़िले पर अधिकार कर लिया। पुरन्दर के क़िले की रक्षा करते हुए शिवाजी का अत्यन्त वीर सेनानायक 'मुरार जी बाजी' मारा गया। पुरन्दर के क़िले को बचा पाने में अपने को असमर्थ जानकर शिवाजी ने महाराजा जयसिंह से संधि की पेशकश की। दोनों नेता संधि की शर्तों पर सहमत हो गये और 22 जून, 1665 ई. को 'पुरन्दर की सन्धि' सम्पन्न हुई।

सन्धि की शर्तें

इतिहास प्रसिद्ध इस सन्धि की प्रमुख शर्तें निम्नलिखित थीं-

  1. शिवाजी को मुग़लों को अपने 23 क़िले, जिनकी आमदनी 4 लाख हूण प्रति वर्ष थी, देने थे।
  2. सामान्य आय वाले, लगभग एक लाख हूण वार्षिक की आमदनी वाले, 12 क़िले शिवाजी को अपने पास रखने थे।
  3. शिवाजी ने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब की सेवा में अपने पुत्र शम्भाजी को भेजने की बात मान ली एवं मुग़ल दरबार ने शम्भाजी को 5000 का मनसब एवं उचित जागीर देना स्वीकार किया।
  1. मुग़ल सेना के द्वारा बीजापुर पर सैन्य अभियान के दौरान बालाघाट की जागीरें प्राप्त होती, जिसके लिए शिवाजी को मुग़ल दरबार को 40 लाख हूण देना था।

आगरा यात्रा

अपनी सुरक्षा का पूर्ण आश्वासन प्राप्त कर शिवाजी आगरा के दरबार में औरंगज़ेब से मिलने के लिए तैयार हो गये। वह 9 मई, 1666 ई को अपने पुत्र शम्भाजी एवं 4000 मराठा सैनिकों के साथ मुग़ल दरबार में उपस्थित हुए, परन्तु औरंगज़ेब द्वारा उचित सम्मान न प्राप्त करने पर शिवाजी ने भरे हुए दरबार में औरंगज़ेब को 'विश्वासघाती' कहा, जिसके परिणमस्वरूप औरंगज़ेब ने शिवाजी एवं उनके पुत्र को 'जयपुर भवन' में क़ैद कर दिया। वहाँ से शिवाजी 13 अगस्त, 1666 ई को फलों की टोकरी में छिपकर फ़रार हो गये और 22 सितम्बर, 1666 ई. को रायगढ़ पहुँचे। कुछ दिन बाद शिवाजी ने मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब को पत्र लिखकर कहा कि "यदि सम्राट उसे (शिवाजी) को क्षमा कर दें तो वह अपने पुत्र शम्भाजी को पुनः मुग़ल सेवा में भेज सकते हैं।" औरंगज़ेब ने शिवाजी की इन शर्तों को स्वीकार कर उसे 'राजा' की उपाधि प्रदान की। जसवंत सिंह की मध्यस्थता से 9 मार्च, 1668 ई. को पुनः शिवाजी और मुग़लों के बीच सन्धि हुई। इस संधि के बाद औरंगज़ेब ने शिवाजी को बरार की जागीर दी तथा उनके पुत्र शम्भाजी को पुनः उसका मनसब 5000 प्रदान कर दिया।

सन्धि का उल्लंघन

1667-1669 ई. के बीच के तीन वर्षों का उपयोग शिवाजी ने विजित प्रदेशों को सुदृढ़ करने और प्रशासन के कार्यों में बिताया। 1670 ई. में शिवाजी ने 'पुरन्दर की संधि' का उल्लंघन करते हुए मुग़लों को दिये गये 23 क़िलों में से अधिकांश को पुनः जीत लिया। तानाजी मालसुरे द्वारा जीता गया 'कोंडाना', जिसका फ़रवरी, 1670 ई. में शिवाजी ने नाम बदलकर 'सिंहगढ़' रखा दिया था, सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण क़िला था।

13 अक्टूबर, 1670 ई. को शिवाजी ने तीव्रगति से सूरत पर आक्रमण कर दूसरी बार इस बन्दरगाह नगर को लूटा। शिवाजी ने अपनी इस महत्त्वपूर्ण सफलता के बाद दक्षिण की मुग़ल रियासतों से हीं नहीं, बल्कि उनके अधीन राज्यों से भी 'चौथ' एवं 'सरदेशमुखी' लेना आरम्भ कर दिया। 15 फ़रवरी, 1671 ई. को 'सलेहर दुर्ग' पर भी शिवाजी ने क़ब्ज़ा कर लिया। शिवाजी के विजय अभियान को रोकने के लिए औरंगज़ेब ने महावत ख़ाँ एवं बहादुर ख़ाँ को भेजा। इन दोनों की असफलता के बाद औरंगज़ेब ने बहादुर ख़ाँ एवं दिलेर ख़ाँ को भेजा। इस तरह 1670-1674 ई. के मध्य हुए सभी मुग़ल आक्रमणों में शिवाजी को ही सफलता मिली और उन्होंने सलेहर, मुलेहर, जवाहर एवं रामनगर आदि क़िलों पर अधिकार कर लिया। 1672 ई. में शिवाजी ने पन्हाला दुर्ग को बीजापुर से छीन लिया। मराठों ने पाली और सतारा के दुर्गों को भी जीत लिया।

राजनीतिक स्थिति

दक्षिण की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति भी एक सशक्त मराठा आंदोलन के उदय में सहायक हुई। अहमद नगर राज्य के बिखराव और अकबर की मृत्यु के पश्चात दक्षिण में मुग़ल साम्राज्य के विस्तार की धीमी गति ने महत्त्वाकांक्षी सैन्य अभियानों को प्रोत्साहित किया। यह भी उल्लेखनीय है कि इस समय तक मराठे अनुभवी लड़ाके जाति के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके थे। दक्षिणी सल्तनतों एवं मुग़लों, दोनों ही पक्षों की ओर से वे सफलतापूर्वक युद्ध कर चुके थे। उनके पास आवश्यक सैन्य प्रशिक्षण और अनुभव तो था ही, जब समय आया तो उन्होंने इसका उपयोग राज्य की स्थापना के लिए किया। यह कहना तो कठिन है कि मराठों के उत्थान में उपर्युक्त तथ्य कहाँ तक उत्तरदायी थे और इसमें अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की दृढ़ इच्छा शक्ति का कितना हाथ था। फिर भी, यदि शिवाजी की नीतियों के सामाजिक पहलुओं और उनका साथ देने वाले लोगों की सामाजिक स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो स्थिति बहुत सीमा तक स्पष्ट हो सकती है।

किसानों के साथ सीधा संबंध

शिवाजी महाराज की प्रतिमा, जीजामाता के साथ

इतिहासकार बड़े उत्साहपूर्वक शिवाजी के क्रांतिकारी भू-कर सुधारों की बात करते हैं, जिन्होंने उदीयमान राज्य को एक विस्तृत सामाजिक आधार प्रदान किया। रानाडे लिखते हैं,

'शिवाजी ने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि वे किसी भी नागरिक या सैन्य प्रमुख को जागीरें नहीं देंगे। भारत में केंद्र विमुख एवं बिखराव की प्रवृत्तियाँ सदा ही बलवान रही हैं, और जागीरें देने की प्रथा, जागीरदारों को भू-कर से प्राप्त धन द्वारा अलग से अपनी सेना रखने की अनुमति देने से यह प्रवृत्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि सुव्यवस्थित शासन लगभग असंभव हो जाता है––अपने शासन काल में शिवाजी ने केवल मंदिरों को एवं दान धर्म की दिशा में ही भूमि प्रदान की थी।'

जदुनाथ सरकार ने भी उपर्युक्त मत का ही समर्थन किया है और कहा है कि शिवाजी किसानों को अपनी ओर इसीलिए कर सके कि उन्होंने ज़मीदारी और जागीरदारी प्रथा को बंद किया और राजस्व प्रशासन के माध्यम से किसानों के साथ सीधा संबंध स्थापित किया।

सिंहगढ़ क़िला, पुणे

किंतु सभासद का ध्यानपूर्वक अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि शिवाजी के राजस्व प्रशासन के संबंध में ऐसे बड़े-बड़े दावे करना निराधार है और इसे जल्दबाज़ी में बनाई गई धारणा ही कहा जाएगा। उनका कहना है कि शिवाजी ने देसाईयों के दुर्गों और सुदृढ़ जमाव को नष्ट किया और जहाँ कहीं मज़बूत क़िले थे वहाँ अपनी दुर्ग-सेना रखी। उनका यह भी कहना है कि शिवाजी ने मिरासदारों द्वारा मनमाने ढंग से वसूल किए जाने वाले उपहारों या हज़ारे को बंद करवाया और नक़द एवं अनाज के रूप में गाँवों से जमींदारों का हिस्सा निश्चित किया। साथ ही उन्होंने देशमुखों, देशकुलकर्णियों, पाटिलों और कुलकर्णियों के अधिकार एवं अनुलाभ भी तय किए, इन्हीं कथनों से प्रेरित होकर आधुनिक इतिहासकार कहते हैं कि शिवाजी ने भूमि प्रदान करने की प्रथा को समाप्त कर दिया था। यह सत्य है कि सभासद ऐसी संभावना की बात करता है किंतु कदाचित यह शिवाजी या स्वयं सभासद का अपेक्षित आदर्श रहा हो, क्योंकि वह स्वयं एकाधिक स्थानों पर शिवाजी द्वारा भूमि प्रदान किए जाने की बात कहता है। यही लक्ष्य एक अन्य तत्कालीन रचना आज्ञापत्र में ध्वनित होता है, जिसमें कहा गया है कि वर्तमान वतन वैसे ही चलते रहेंगे और उनके पास जो भी है उसमें थोड़ी भी वृद्धि नहीं की जाएगी और न ही उसे रत्ती भर कम किया जाएगा। इसमें यह चेतावनी भी दी गई है कि 'किसी वृत्ति (वतन) का प्रत्यादान करना पाप है---भले ही वह कितनी ही छोटी क्यों न हो।' उचित संदर्भ में रखे जाने पर सभासद के कथन का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। पाटिल, कुलकर्णी और देशमुख राजस्व एकत्र करते थे और उसमें से राज्य को अपनी इच्छानुसार अंश देते थे जो प्रायः बहुत कम होता था। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी स्थिति अत्यंत सुदृढ़ कर ली, दुर्ग इत्यादि बनवा लिए, और प्यादे एवं बंदूकची लेकर चलने लगे। वे सरकारी राजस्व अधिकारी की परवाह नहीं करते थे और यदि वह अधिक राजस्व की माँग करता था तो लड़ाई-झगड़े पर उतर आते थे। यह वर्ग विद्रोही हो उठा था। इन्हीं की गढ़ियों और दुर्गों पर शिवाजी ने धावा बोला था।

शिवाजी महाराज की प्रतिमा, महाराष्ट्र

राजस्व वसूली

स्पष्ट है कि शिवाजी शांतिप्रिय ज़मीदारों के नहीं अपितु केवल उन्हीं के विरुद्ध थे जो उनके राजनीतिक हितों के लिए गंभीर ख़तरा बन गए थे। स्पष्ट है कि वे राजस्व वसूली की संपूर्ण मशीनरी को समाप्त नहीं कर सकते थे। इसलिए ऐसा नहीं है कि इसके स्थान पर नई व्यवस्था लाने के लिए उनके पास प्रशिक्षित व्यक्ति नहीं थे। वे केवल इतना चाहते थे कि राजस्व की गड़बड़ी दूर हो और राज्य को उचित अंश मिले। यह भी स्पष्ट है कि शिवाजी को बड़े देशमुखों के विरोध का सामना करना पड़ा। ये देशमुख स्वतंत्र मराठा राज्य के पक्ष में नहीं थे और बीजापुर के सांमत ही बने रहना चाहते थे जिससे अपने वतनों के प्रशासन में अधिक स्वायत्त रह सकें। यही शिवाजी का धर्मसंकट था। देशमुखों के समर्थन के बिना वे स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना नहीं कर सकते थे। अतः शिवाजी ने इस नाज़ुक राजनीतिक स्थिति का सामना करने के लिए भय और प्रीति की नीति अपनाई। कुछ बड़े देशमुखों को तो उन्होंने सैन्य शक्ति से पराजित किया और कुछ के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। बड़े देशमुखों के साथ शिवाजी की इस अनोखी लड़ाई में छोटे देशमुखों ने शिवाजी का साथ दिया। बड़े देशमुख छोटे देशमुखों को सताते थे और ज़मीन की बंदोबस्ती और कृषि को बढ़ावा देने की शिवाजी की नीति छोटे देशमुखों के लिए हितकर थी। संपूर्ण दक्षिण पर शिवाजी के सरदेशमुखी के दावे को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त मोरे, शिर्के और निंबालकर देशमुखों के परिवारों में विवाह संबंध करके भी शिवाजी ने अपना सामाजिक रुतबा बढ़ाया। इससे मराठा समाज में उनकी सम्मानजनक स्वीकृति सरल हो गई।

मुग़लों और दक्षिणी राज्यों के साथ संबंध

यद्यपि मराठे पहले ही अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के प्रति सचेत होने लगे थे फिर भी उन्हें संगठित करने और उनमें एक राजनीतिक लक्ष्य के प्रति चेतना जगाने का कार्य शिवाजी ने ही किया। शिवाजी की प्रगति का लेखा मराठों के उत्थान को प्रतिबिंबित करता है। 1645-47 के बीच 18 वर्ष की अवस्था में उन्होंने पूना के निकट अनेक पहाड़ी क़िलों पर विजय प्राप्त की। जैसे- रायगढ़, कोडंना और तोरना। फिर 1656 में उन्होंने शक्तिशाली मराठा प्रमुख चंद्रराव मोरे पर विजय प्राप्त की और जावली पर अधिकार कर लिया, जिसने उन्हें उस क्षेत्र का निर्विवाद स्वामी बना दिया और सतारा एवं कोंकण विजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया। शिवाजी की इन विस्तारवादी गतिविधियों से बीजापुर का सुल्तान शंकित हो उठा किंतु उसके मंत्रियों ने सलाह दी कि वह फिलहाल चुपचाप स्थिति पर निगाह रखे। किंतु जब शिवाजी ने कल्याण पर अधिकार कर लिया और कोंकण पर धावा बोल दिया तो सुल्तान आपा खो बैठा और उसने शाहजी को क़ैद करके उनकी जागीर छीन ली। इससे शिवाजी झुकने के लिए विवश हो गए और उन्होंने वचन दिया कि वे और हमले नहीं करेंगे। किंतु उन्होंने बड़ी चतुराई से मुग़ल शाहजादा मुराद, जो मुग़ल सूबेदार था, से मित्रता स्थापित की और मुग़लों की सेवा में जाने की बात कही। इससे बीजापुर के सुल्तान की चिंता बढ़ गई और उसने शाहजी को मुक्त कर दिया। शाहजी ने वादा किया कि उसका पुत्र अपनी विस्तारवादी गतिविधियाँ छोड़ देगा। अतः अगले छः वर्षों तक शिवाजी धीरे-धीरे अपनी शक्ति सृदृढ़ करते रहे। इसके अतिरिक्त मुग़लों के भय से मुक्त बीजापुर मराठा गतिविधियों का दमन करने में सक्षम था—इस कारण भी शिवाजी को शांति बनाए रखने के लिए विवश होना पड़ा। किंतु जब औरंगज़ेब उत्तर चला गया तो शिवाजी ने अपनी विजयों का सिलसिला फिर आरंभ कर दिया। जिसकी कीमत चुकानी पड़ी बीजापुर को।

बघ नखा

जब 1659 में बीजापुर के सुल्तान ने उनके ख़िलाफ़ अफ़ज़ल ख़ाँ के नेतृत्व में 10,000 लोगों की सेना भेजी। अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी को निमंत्रण भेजा और वादा किया कि वह उन्हें सुल्तान से माफ़ी दिलवा देगा। किंतु ब्राह्मणदूत कृष्णजी भाष्कर ने अफ़ज़ल ख़ाँ का वास्तविक उद्देश्य शिवाजी को बता दिया। सारी बात जानते हुए शिवाजी किसी भी धोखे का सामना करने के लिए शिवाजी तैयार होकर गए और अरक्षित होकर जाने का नाटक किया। गले मिलने के बहाने अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी का गला दबाने का प्रयास किया किंतु शिवाजी तो तैयार होकर आए थे—उन्होंने बघनख से उसका काम तमाम कर दिया।

अफ़ज़ल ख़ाँ के साथ युद्ध

उन्होंने समुद्र और घाटों के बीच तटीय क्षेत्र कोंकण पर धावा बोल दिया और उसके उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया। स्वाभाविक था कि बीजापुर का सुल्तान उनके विरुद्ध सख्त कार्रवाई करता। उसने अफ़ज़ल ख़ाँ के नेतृत्व में 10,000 सैनिकों की टुकड़ी शिवाजी को पकड़ने के लिए भेजी। उन दिनों छल-कपट और विश्वासघात की नीति अपनाना आम बात थी और शिवाजी और अफ़ज़ल ख़ाँ दोनों ने ही अनेक अवसरों पर इसका सहारा लिया। शिवाजी की सेना को खुले मैदान में लड़ने का अभ्यास नहीं था, अतः वह अफ़ज़ल ख़ाँ के साथ युद्ध करने से कतराने लगा। अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी को निमंत्रण भेजा और वादा किया कि वह उन्हें सुल्तान से माफ़ी दिलवा देगा। किंतु ब्राह्मणदूत कृष्णजी भाष्कर ने अफ़ज़ल ख़ाँ का वास्तविक उद्देश्य शिवाजी को बता दिया। सारी बात जानते हुए शिवाजी किसी भी धोखे का सामना करने के लिए शिवाजी तैयार होकर गए और अरक्षित होकर जाने का नाटक किया। गले मिलने के बहाने अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी का गला दबाने का प्रयास किया किंतु शिवाजी तो तैयार होकर आए थे—उन्होंने बघनख से उसका काम तमाम कर दिया। इस घटना को लेकर ग्रांट डफ़ जैसे यूरोपीय इतिहासकार शिवाजी पर विश्वासघात और हत्या का आरोप लगाते हैं जो सरासर ग़लत है क्योंकि शिवाजी ने आत्मरक्षा में ही ऐसा किया था। इस विजय से मित्र और शत्रु दोनों ही पक्षों में शिवाजी का सम्मान बढ़ गया। दूरदराज़ के इलाकों से जवान उनकी सेना में भरती होने के लिए आने लगे। शिवाजी में उनकी अटूट आस्था थी। इस बीच दक्षिण में मराठा शक्ति के इस चमत्कारी उत्थान पर औरंगज़ेब बराबर दृष्टि रखे हुए था। पूना और उसके आसपास के क्षेत्रों, जो अहमद नगर राज्य के हिस्से थे और 1636 की संधि के अंतर्गत बीजापुर को सौंप दिए गए थे, को अब मुग़ल वापस माँगने लगे। पहले तो बीजापुर ने मुग़लों की इस बात को मान लिया था कि वह शिवाजी से निपट लेगा और इस पर कुछ सीमा तक अमल भी किया गया किंतु बीजापुर का सुल्तान यह भी नहीं चाहता था कि शिवाजी पूरी तरह नष्ट हो जाएँ। क्योंकि तब उसे मुग़लों का सीधा सामना करना पड़ता।

छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा

औरंगज़ेब ने अपने संबंधी शाइस्ता ख़ाँ को शिवाजी से निपटने की ज़िम्मेदारी सौंपी। शाइस्ता ख़ाँ दक्षिणी सूबे का सूबेदार था। आत्मविश्वास भरे सूबेदार शाहस्ता ख़ाँ ने पूना पर कब्ज़ा कर लिया, चाकण के क़िलों को अपने अधिकार में ले लिया और दो वर्षों के भीतर ही उसने कल्याण सहित संपूर्ण उत्तरी कोंकण पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। केवल दक्षिण कि कुछ जागीरें ही शिवाजी के पास रह गईं। शाइस्ता ख़ाँ को आशा थी कि वर्षा समाप्त होने पर वह उन्हें भी जीत लेगा। शिवाजी ने इस अवसर का लाभ उठाया। उन्होंने चुने हुए चार सौ सिपाही लेकर बारात का साज सजाया और पूना में प्रविष्ट हो गए। आधी रात के समय उन्होंने सूबेदार के घर धावा बोल दिया। सूबेदार और उसके सिपाही तैयार नहीं थे। नौकरानी की होशियारी से शाइस्ता ख़ाँ तो बच निकला किंतु मुग़ल सेना को मौत के घाट उतार दिया गया।

इस घटना ने मुग़ल साम्राज्य की शान को घटाया और शिवाजी के हौसले तथा प्रतिष्ठा को बढ़ा दिया। औरंगज़ेब के क्रोध की सीमा न रही। जसवंत सिंह की निष्ठा पर संदेह हुआ और शाइस्ता ख़ाँ को बंगाल भेज दिया। इस बीच शिवाजी ने एक और दुस्साहिक अभियान किया। उन्होंने सूरत पर धावा बोल दिया। सूरत मुग़लों का एक महत्त्वपूर्ण क़िला था। शिवाजी ने उसे जी भर कर लूटा (1664) और धनदौलत से लद कर घर लौटे। 1665 ई. के आरंभ में औरंगज़ेब ने राजा जयसिंह के नेतृत्व में एक अन्य सेना शिवाजी का दमन करने के लिए भेजी। जयसिंह जो कि कछवाहा राजा था, युद्ध और शांति, दोनों ही की कलाओं में निपुण था। वह बड़ा चतुर कूटनीतिज्ञ था और उसने समझ लिया कि बीजापुर को जीतने के लिए शिवाजी से मैत्री करना आवश्यक है। अतः पुरन्धर के क़िले पर मुग़लों की विजय और रायगढ़ की घेराबंदी के बावजूद उसने शिवाजी से संधि की। पुरन्धर की यह संधि जून 1665 ई. में हुई जिसके अनुसार—

छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा
  • शिवाजी को चार लाख हूण वार्षिक आमदनी वाले तेईस क़िले मुग़लों को सौंपने पड़े और उन्होंने अपने लिए सामान्य आय वाले केवल बारह क़िले रखे।
  • मुग़लों ने शिवाजी के पुत्र सम्भाजी को पंज हज़ारी मन्सुबदारी एवं उचित जागीर देना स्वीकर किया।
  • मुग़लों ने शिवाजी के विवेकरहित और बेवफ़ा व्यवहार को क्षमा करना स्वीकार कर लिया।
  • शिवाजी को कोंकण और बालाघाट में जागीरें दी जानी थी जिनके बदले उन्हें मुग़लों को तेरह किस्तों में चालीस लाख हूण की रक़म अदा करनी थी। साथ ही उन्हें बीजापुर के ख़िलाफ़ मुग़लों की सहायता भी करनी थी।

शाही नौकरी

यह संधि राजा जयसिंह की व्यक्तिगत विजय थी। वह न केवल शक्तिशाली शत्रु पर काबू पाने में सफल रहा था अपितु उसने बीजापुर राज्य के विरुद्ध उसका सहयोग भी प्राप्त कर लिया था। किंतु उसका परिणाम अच्छा नहीं हुआ। दरबार में शिवाजी को पाँच हज़ारी मनसुबदारों की श्रेणी में रखा गया। यह ओहदा उनके नाबालिग पुत्र को पहले ही प्रदान कर दिया गया था। इसे शिवाजी ने अपना अपमान समझा। बादशाह का जन्मदिन मनाया जा रहा था और उसके पास शिवाजी से बात करने की फुर्सत भी नहीं थी अपमानित होकर शिवाजी वहाँ से चले आए और उन्होंने शाही नौकरी करना अस्वीकार कर दिया। तुरंत मुग़ल अदब के ख़िलाफ़ कार्य करने के लिए उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। दरबारियों का गुट उन्हें दंड दिए जाने के पक्ष में था किंतु जयसिंह ने बादशाह से प्रार्थना की कि मामले में नरमी बरतें। किंतु कोई भी निर्णय लिए जाने से पूर्व ही शिवाजी क़ैद से भाग निकले।

पुरंदर क़िला, पुणे

उच्चकुल क्षत्रिय

इसमें कोई संदेह नहीं कि शिवाजी की आगरा यात्रा मुग़लों के साथ मराठों के संबंधों की दृष्टि से निर्णायक सिद्ध हुई। औरंगज़ेब शिवाजी को मामूली भूमिस समझता था। बाद की घटनाओं ने सिद्ध किया कि शिवाजी के प्रति औरंगज़ेब का दृष्टिकोण, शिवाजी के महत्त्व को अस्वीकार करना और उनकी मित्रता के मूल्य को न समझना राजनीतिक दृष्टि से उसकी बहुत बड़ी भूल थी। शिवाजी के संघर्ष की तार्किक पूर्णाहूति हुई 1647 ई. में छत्रपति के रूप में उनका औपचारिक राज्याभिषेक हुआ। स्थानीय ब्राह्मण शिवाजी के राज्यारोहण के उत्सव में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे क्योंकि उनकी दृष्टि में शिवाजी उच्च कुल क्षत्रिय नहीं थे। अतः उन्होंने वाराणसी के एक ब्राह्मण गंगा भट्ट को इस बात के लिए सहमत किया कि वह उन्हें उच्चकुल क्षत्रिय और राजा घोषित करे। इस एक व्यवस्था से होकर शिवाजी दक्षिणी सुल्तानों के समकक्ष हो गए और उनका दर्जा विद्रोही का न रहकर एक प्रमुख़ का हो गया। अन्य मराठा सरदारों के बीच भी शिवाजी का रुतबा बढ़ गया। उन्हें शिवाजी की स्वाधीनता स्वीकार करनी पड़ी और मीरासपट्टी कर भी चुकाना पड़ा। राज्यारोहण के पश्चात शिवाजी की प्रमुख उपलब्धि थी 1677 में कर्नाटक क्षेत्र पर उनकी विजय जो उन्होंने कुतुबशाह के साथ मिलकर प्राप्त की थी। जिन्जी, वेल्लेर और अन्य दुर्गों की विजय ने शिवाजी की प्रतिष्ठा में वृद्धि की।

दुर्गों पर नियंत्रण

शिवाजी ने कई दुर्गों पर अधिकार किया जिनमें से एक था सिंहगढ़ दुर्ग, जिसे जीतने के लिए उन्होंने ताना जी को भेजा था। और वे वहाँ से विजयी हुए। ताना जी शिवाजी के बहुत विश्वासपात्र सेनापति थे। जिन्होंने सिंहगढ़ की लड़ाई में वीरगति पाई थी। ताना जी के पास बहुत अच्छी तरह से सधाई हुई गोह थी। जिसका नाम यशवन्ती था। शिवाजी ने ताना जी की मृत्यु पर कहा था-

गढ़ आला पण सिंह गेला (गढ़ तो हमने जीत लिया पर सिंह हमें छोड़ कर चला गया)।

बीजापुर के सुल्तान की राज्य सीमाओं के अंतर्गत रायगढ़ (1646) में चाकन, सिंहगढ़ और पुरन्दर सरीखे दुर्ग भी शीघ्र उनके अधिकारों में आ गये। 1655 ई. तक शिवाजी ने कोंकण में कल्याण और जाबली के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया। उन्होंने जाबली के राजा चंद्रदेव का बलपूर्वक वध करवा दिया। शिवाजी की राज्य विस्तार की नीति से क्रुद्ध होकर बीजापुर के सुल्तान ने 1659 ई. में अफ़ज़ल ख़ाँ नामक अपने एक वरिष्ठ सेनानायक को विशाल सैन्य बल सहित शिवाजी का दमन करने के लिए भेजा। दोनों पक्षों को अपनी विजय का पूर्ण विश्वास नहीं था। अतः उन्होंने संधिवार्ता प्रारम्भ कर दी। दोनों की भेंट के अवसर पर अफ़ज़ल ख़ाँ ने शिवाजी को दबोच कर मार डालने का प्रयत्न किया। परन्तु वे इसके प्रति पहले से ही सजग थे। उन्होंने अपने गुप्त शस्त्र बघनखा का प्रयोग करके मुसलमान सेनानी का पेट फाड़ डाला। जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। तदुपरान्त शिवाजी ने एक विकट युद्ध में बीजापुर की सेनाओं को परास्त कर दिया। इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी का सामना करने का साहस नहीं किया।

छत्रपति शिवाजी महाराज का सिक्का

अब उन्हें एक और प्रबल शत्रु मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब का सामना करना पड़ा। 1660 ई. में औरंगजेब ने अपने मामा शायस्ता ख़ाँ नामक सेनाध्यक्ष शिवाजी के विरुद्ध भेजा। शायस्ता ख़ाँ ने शिवाजी के कुछ दुर्गों पर अधिकार करके उनके केन्द्र-स्थल पूना पर भी अधिकार कर लिया। किन्तु शीघ्र ही शिवाजी ने अचानक रात्रि में शायस्ता ख़ाँ पर आक्रमण कर दिया। जिससे उसको अपना एक पुत्र अपने हाथ की तीन अँगुलियाँ गँवाकर अपने प्राण बचाने पड़े। शायस्ता ख़ाँ को वापस बुला लिया गया। फिर भी औरंगज़ेब ने शिवाजी के विरुद्ध नये सेनाध्यक्षों की संरक्षा में नवीन सैन्यदल भेजकर युद्ध जारी रखा। शिवाजी ने 1664 ई. में मुग़लों के अधीनस्थ सूरत को लूट लिया, किन्तु मुग़ल सेनाध्यक्ष मिर्जा राजा जयसिंह ने उनके अधिकांश दुर्गों पर अधिकार कर लिया, जिससे शिवाजी को 1665 ई. में पुरन्दर की संधि करनी पड़ी। उसके अनुसार उन्होंने केवल 12 दुर्ग अपने अधिकार में रखकर 23 दुर्ग मुग़लों को दे दिये और राजा जयसिंह द्वारा अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होकर आगरा में मुग़ल दरबार में उपस्थित होने के लिए प्रस्थान किया।

आगरा से बच निकलना

शिवाजी नहीं हारे और अपनी बीमारी का बहाना बनाया। उन्होंने मिठाई के बड़े-बड़े टोकरे ग़रीबों में बाँटने के लिए भिजवाने शुरू किए। 17 अगस्त 1666 को वह अपने पुत्र के साथ टोकरे में बैठकर पहरेदारों के सामने से छिप कर निकल गए। उनका बच निकलना, जो शायद उनके नाटकीय जीवन का सबसे रोमांचक कारनामा था, भारतीय इतिहास की दिशा बदलने में निर्णायक साबित हुआ। उनके अनुगामियों ने उनका अपने नेता के रूप में स्वागत किया और दो वर्ष के समय में उन्होंने न सिर्फ़ अपना पुराना क्षेत्र हासिल कर लिया, बल्कि उसका विस्तार भी किया। वह मुग़ल ज़िलों से धन वसूलते थे और उनकी समृद्ध मंडियों को भी लूटते थे। उन्होंने अपनी सेना का पुनर्गठन किया और प्रजा की भलाई के लिए अपेक्षित सुधार किए। अब तक भारत में पाँव जमा चुके पुर्तग़ाली और अंग्रेज़ व्यापारियों से सीख ले कर उन्होंने नौसेना का गठन शुरू किया। इस प्रकार आधुनिक भारत में वह पहले शासक थे, जिन्होंने व्यापार और सुरक्षा के लिए नौसेना की आवश्यकता के महत्त्व को स्वीकार किया। शिवाजी के उत्कर्ष से क्षुब्ध होकर औरंगज़ेब ने हिन्दुओं पर अत्याचार करना शुरू कर दिया, उन पर कर लगाना, ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन कराए और मंदिरों को गिरा कर उनकी जगह पर मस्जिदें बनवाई।

राज्याभिषेक

मई 1666 ई. में शाही दरबार में उपस्थित होने पर उनके साथ तृतीय श्रेणी के मनसुबदारों से सदृश व्यवहार किया गया और उन्हें नज़रबंद कर दिया गया। किन्तु शिवाजी चालाकी से अपने अल्पवयस्क पुत्र शम्भुजी और अपने विश्वस्त अनुचरों सहित नज़रबंदी से भाग निकले। सन्न्यासी के वेश में द्रुतगामी अश्वों की सहायता से वे दिसम्बर 1666 ई. में अपने प्रदेश में पहुँच गये। अगले वर्ष औरंगज़ेब ने निरुपाय होकर शिवाजी को राजा की उपाधि प्रदान की, और इसके बाद दो वर्षों तक शिवाजी और मुग़लों के बीच शान्ति रही।

शिवाजी महाराज का सिंहासन, रायगढ़

शिवाजी ने इन वर्षों में अपनी शासन-व्यवस्था संगठित की। 1671 ई. में उन्होंने मुग़लों से पुनः संघर्ष प्रारंभ किया और खानदेश के कुछ भू-भागों के स्थानीय मुग़ल पदाधिकारियों को सुरक्षा का वचन देकर उनसे चौथ वसूल करने का लिखित इकारारनामा ले लिया और दूसरी बार सूरत को लूटा। 6 जून 1674 ई. में रायगढ़ के दुर्ग में महाराष्ट्र के स्वाधीन शासक के रूप में उनका राज्याभिषेक हुआ।

कर्नाटक अभियान

राज्याभिषेक के बाद शिवाजी का अन्तिम महत्त्वपूर्ण अभियान 'कर्नाटक का अभियान' (1676 ई.) था। गोलकुण्डा के 'मदन्ना' एवं 'अकन्ना' के सहयोग से शिवाजी ने बीजापुर और कर्नाटक पर आक्रमण करना चाहा, परन्तु आक्रमण के पूर्व ही शिवाजी एवं कुतुबशाह के बीच संधि सम्पन्न हुई, जिसकी शर्तें इस प्रकार थीं-

  1. शिवाजी को कुतुबशाह ने प्रति वर्ष एक लाख हूण देना स्वीकार किया।
  2. दोनों ने कर्नाटक की सम्पत्ति को आपस में बांटने पर सहमति जताई।

शिवाजी ने जिंजी एवं वेल्लोर जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर लिया। जिंजी को उन्होंने अपने राज्य की राजधानी बनाया। शिवाजी का संघर्ष जंजीरा टापू के अधिपति अबीसीनियाई सिद्दकियों से भी हुआ। सिद्दकियों पर अधिकार करने के लिए उन्होंने नौसेना का भी निर्माण किया था, परन्तु वह पुर्तग़ालियों से गोवा तथा सिद्दकियों से चैल और जंजीरा नहीं छीन सके। सिद्दकी पहले अहमदनगर के अधिपत्य को मानते थे, परन्तु 1638 ई. के बाद वे बीजापुर की अधीनता में आ गए। शिवाजी के लिए जंजीरा को जीतना अपने कोंकण प्रदेश की रक्षा के लिए आवश्यक था। 1669 ई. में उन्होंने दरिया सारंग के नेतृत्व में अपने जल बेड़े को जंजीरा पर आक्रमण करने के लिए भेजा।

शिवाजी का प्रशासन

सेनानायक के रूप में शिवाजी की महानता निर्विवाद रही है। किंतु नागरिक प्रशासक के रूप में उनकी क्षमता आज भी स्पष्ट रूप से स्वीकार नहीं की जाती। यूरोपीय इतिहासकारों में दृष्टि में मराठा प्रभुत्व, जो लूट पर आधारित था, को किसी भी प्रकार का कर लेने का अधिकार नहीं था। कुछ अन्य इतिहासकारों की मान्यता है कि शिवाजी के प्रशासन के पीछे कोई आधारभूत सिद्धांत नहीं था और इसी कारण प्रशासन के क्षेत्र में उनका कोई स्थायी योगदान नहीं रहा। शिवाजी की प्रशासनिक व्यवस्था काफ़ी सीमा तक दक्षिणी राज्यों और मुग़लों की प्रशासनिक व्यवस्था से प्रभावित थी। शिवाजी की मृत्यु के समय उनका पुर्तग़ालियों के अधिकार क्षेत्र के अतिरिक्त लगभग समस्त (मराठा) देश में फैला हुआ था। पुर्तग़ालियों का आधिपत्य उत्तर में रामनगर से बंबई ज़िले में गंगावती नदी के तट पर करवार तक था। शिवाजी की पूर्वी सीमा उत्तर में बागलना को छूती थी और फिर दक्षिण की ओर नासिक एवं पूना ज़िलों के बीच से होती हुई एक अनिश्चित सीमा रेखा के साथ समस्त सतारा और कोल्हापुर के ज़िले के अधिकांश भाग को अपने में समेट लेती थी। इस सीमा के भीतर आने वाले क्षेत्र को ही मरी अभिलेखों में शिवाजी का "स्वराज" कहा गया है। पश्चिमी कर्नाटक के क्षेत्र कुछ देर बाद सम्मिलित हुए। स्वराज का यह क्षेत्र तीन मुख्य भागों में विभाजित था और प्रत्येक भाग की देखभाल के लिए एक व्यक्ति को नियुक्त किया गया था-

  • पूना से लेकर सल्हर तक का क्षेत्र कोंकण का क्षेत्र, जिसमें उत्तरी कोंकण भी सम्मिलित था, पेशवा मोरोपंत पिंगले के नियंत्रण में था।
  • उत्तरी कनारा तक दक्षिणी कोंकण का क्षेत्र अन्नाजी दत्तों के अधीन था।
  • दक्षिणी देश के ज़िले, जिनमें सतारा से लेकर धारवाड़ और कोफाल का क्षेत्र था, दक्षिणी पूर्वी क्षेत्र के अंतर्गत आते थे और दत्ताजी पंत के नियंत्रण में थे। इन तीन सूबों को पुनः परगनों और तालुकों में विभाजित किया गया था। परगनों के अंतर्गत तरफ़ और मौजे आते थे। हाल ही में जीते गए आषनी, जिन्जी, बैलोर, अन्सी एवं अन्य ज़िले, जिन्हें समयाभाव के कारण प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत नहीं लाया जा सका था, अधिग्रहण सेना की देखरेख में थे।
छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, मुंबई

केंद्र में आठ मंत्रियों की परिषद् होती थी जिसे अष्ट प्रधान कहते थे जिसे किसी भी अर्थ में मंत्रिमडल नहीं कहा जा सकता था। शिवाजी अपने प्रधानमंत्री स्वयं थे और प्रशासन की बागडोर अपने ही हाथों में रखते थे। अष्ट प्रधान केवल उनके सचिवों के रूप में कार्य करते थे; वे न तो आगे बढ़कर कोई कार्य कर सकते थे और न ही नीति निर्धारण कर सकते थे। उनका कार्य शुद्ध रूप से सलाहकार का था। जब कभी उनकी इच्छा होती तो वे उनकी सलाह पर ध्यान देते भी थे अन्यथा सामान्यतः उनका कार्य शिवाजी के निर्दशों का पालन करना और उनके अपने विभागों की निगरानी करना मात्र होता था। संभव है कि शिवाजी पौरोहित्य एवं लेखा विभागों के काम-काज में दख़ल न देते हों किंतु इसका कारण उनकी प्रशासनिक अनुभवहीनता ही रही होगी। पेशवा का कार्य लोक हित का ध्यान रखना था। पंत आमात्य, आय-व्यय की लेखा परीक्षा करता था। मंत्री या वकनीस या विवरणकार राजा का रोज़नामचा रखता था। सुमंत या विदेश सचिव विदेशी मामलों की देखभाल करता था। पंत सचिव पर राजा के पत्राचार का दायित्व था। पंडितराव, विद्वानों और धार्मिक कार्यों के लिए दिए जाने वाले अनुदानों का दायित्व निभाता था। सेनापति एवं न्यायधीश अपना-अपना कार्य करते थे। वे क्रमशः सेना एवं न्याय विभाग के कार्यों की देखते थे।

सेना

शिवाजी ने अपनी एक स्थायी सेना बनाई थी और वर्षाकाल के दौरान सैनिकों को वहाँ रहने का स्थान भी उपलब्ध कराया जाता रहा था। शिवाजी की मृत्यु के समय उनकी सेना में 30-40 हज़ार नियमित और स्थायी रूप से नियुक्त घुड़सवार, एक लाख पदाति और 1260 हाथी थे। उनके तोपखानों के संबंध में ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं है। किंतु इतना ज्ञात है कि उन्होंने सूरत और अन्य स्थानों पर आक्रमण करते समय तोपखाने का उपयोग किया था। नागरिक प्रशासन की भाँति ही सैन्य-प्रशासन में भी समुचित संस्तर बने हुए थे। घुड़सवार सेना दो श्रेणियों में विभाजित थी-

  • बारगीर व घुड़सवार सैनिक थे जिन्हें राज्य की ओर से घोड़े और शस्त्र दिए जाते थे
  • सिल्हदार जिन्हें व्यवस्था आप करनी पड़ती थी।
प्रतापगढ़ क़िला, महाराष्ट्र

घुड़सवार सेना की सबसे छोटी इकाई में 25 जवान होते थे, जिनके ऊपर एक हवलदार होता था। पाँच हवलदारों का एक जुमला होता था। जिसके ऊपर एक जुमलादार होता था; दस जुमलादारों की एक हज़ारी होती थी और पाँच हज़ारियो के ऊपर एक पंजहज़ारी होता था। वह सरनोबत के अंतर्गत आता था। प्रत्येक 25 टुकड़ियों के लिए राज्य की ओर से एक नाविक और भिश्ती दिया जाता था। मराठा सैन्य व्यवस्था के विशिष्ट लक्षण थे क़िले। विवरणकारों के अनुसार शिवाजी के पास 250 क़िले थे। जिनकी मरम्मत पर वे बड़ी रक़म खर्च करते थे। प्रत्येक क़िले को तिहरे नियंत्रण में रखा जाता था जिसमें एक ब्राह्मण, एक मरा, एक कुनढ़ी होता था। ब्राह्मण नागरिक और राजस्व प्रशासन देखता था, शेष दो सैन्य संचालन और रसद के पहलुओं को देखते थे। यह आम धारणा है कि शिवाजी के सैनिकों को वेतन नगद दिया जाता था। किंतु उस समय की परिस्थितियों और क्षेत्र की सामान्य स्थिति को देखते हुए यह व्यवस्था भी एक आदर्श थी जिसे शिवाजी साकार करना चाहते थे। सिपाहियों, हवलदारों इत्यादि का वेतन या तो ख़जाने से दिया जाता था या ग्रामीण क्षेत्रों की बारत (आज्ञा) द्वारा जिनका भुगतान कारकून करते थे। किंतु निश्चित रक़म के लिए भूमि या गाँव देने की पहले से चली आ रही प्रथा को भी पूर्णतः समाप्त नहीं किया गया था।

स्वतंत्र प्रभुसत्ता

1674 की ग्रीष्म ऋतु में शिवाजी ने धूमधाम से सिंहासन पर बैठकर स्वतंत्र प्रभुसत्ता की नींव रखी। दबी-कुचली हिन्दू जनता ने सहर्ष उन्हें नेता स्वीकार कर लिया। अपने आठ मंत्रियों की परिषद के ज़रिये उन्होंने छह वर्ष तक शासन किया। वह एक धर्मनिष्ठ हिन्दू थे। जो अपनी धर्मरक्षक भूमिका पर गर्व करते थे। लेकिन उन्होंने ज़बरदस्ती मुसलमान बनाए गए अपने दो रिश्तेदारों को हिन्दू धर्म में वापस लेने का आदेश देकर परंपरा तोड़ी। हालांकि ईसाई और मुसलमान बल प्रयोग के ज़रिये बहुसंख्य जनता पर अपना मत थोपते थे। शिवाजी ने इन दोनों संप्रदायों के आराधना स्थलों की रक्षा की। उनकी सेवा में कई मुसलमान भी शामिल थे। उनके सिंहासन पर बैठने के बाद सबसे उल्लेखनीय अभियान दक्षिण भारत का रहा, जिसमें मुसलमानों के साथ कूटनीतिक समझौता कर उन्होंने मुग़लों को समूचे उपमहाद्वीप में सत्ता स्थापित करने से रोक दिया।

राजस्व प्रशासन

शिवाजी ने भू-राजस्व एवं प्रशासन के क्षेत्र में अनेक क़दम उठाए। इस क्षेत्र की व्यवस्था पहले बहुत अच्छी नहीं थीं क्योंकि यह पहले कभी किसी राज्य का अभिन्न अंग नहीं रहा था। बीजापुर के सुल्तान, मुग़ल और यहाँ तक कि स्वयं मराठा सरदार भी अतिरिक्त उत्पादन को एक साथ ही लेते थे जो इजारेदारी या राजस्व कृषि की कुख्यात प्रथा जैसी ही व्यवस्था थी। मलिक अम्बर की राजस्व व्यवस्था में शिवाजी को आदर्श व्यवस्था दिखाई दी किंतु उन्होंने उसका अंधानुकरण नहीं किया। मलिक अम्बर तो माप की इकाइयों का मानकीकरण करने में असफल रहा था किंतु शिवाजी ने एक सही मानक इकाई स्थिर कर दी थी। उन्होंने रस्सी के माप के स्थान पर काठी और मानक छड़ी का प्रयोग आरंभ करवाया। बीस छड़ियों का एक बीघा होता है और 120 बीघे का एक चावर चवार होता था।

रायगढ़ क़िला, महाराष्ट्र

शिवाजी के निदेशानुसार सन् 1679 ई. में अन्नाजी दत्तों ने एक विस्तृत भू-सर्वेक्षण करवाया जिसके परिणामस्वरूप एक नया राजस्व निर्धारण हुआ। अगले ही वर्ष शिवाजी की मृत्यु हो गई, इससे यह तर्क निरर्थक जान पड़ता है कि उन्होंने भूरास्व विभाग से बिचौलियों का अस्तित्व समाप्त कर दिया था और राजस्व उनके अधिकारी ही एकत्र करते थे। कुल उपज का 33% राजस्व के रूप में लिया जाता था जिसे बाद में बढ़ाकर 40% कर दिया गया था। राजस्व नगद या वस्तु के रूप में चुकाया जा सकता था। कृषकों को नियमित रूप से बीज और पशु ख़रीदने के लिए ऋण दिया जाता था जिसे दो या चार वार्षिक किश्तों में वसूल किया जाता था। अकाल या फ़सल ख़राब होने की आपात स्थिति में उदारतापूर्वक अनुदान एवं सहायता प्रदान की जाती थी। नए इलाक़े बसाने को प्रोत्साहन देने के लिए किसानों को लगानमुक्त भूमि प्रदान की जाती थी।

यद्यपि निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि शिवाजी ने ज़मीदारी प्रथा को समाप्त कर दिया था। फिर भी उनके द्वारा भूमि एवं उपज के सर्वेक्षण और भूस्वामी बिचौलियों की स्वतंत्र गतिविधियों पर नियंत्रण लगाए जाने से ऐसी संभावना के संकेत मिलते हैं। उन्होंने बार-बार किए जाने वाले भू-हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास भी किया यद्यपि इसे पूरी तरह समाप्त करना उनके लिए संभव नहीं था। इस सबको देखते हुए कहा जा सकता है कि इस नई व्यवस्था से किसान प्रसन्न हुए होंगे और उन्होंने इसका स्वागत किया होगा क्योंकि बीजापुरी सुल्तानों के अत्याचारी मराठा देशमुखों की व्यवस्था की तुलना में यह बहुत अच्छी थी। शिवाजी के शासन काल में राज्य की आय के दो और स्रोत थे-सरदेशमुखी और चौथ। उनका कहना था कि देश के वंशानुगत (और सबसे बड़े भी) होने के नाते और लोगों के हितों की रक्षा करने के बदले उन्हें सरदेशमुखी लेने का अधिकार है। चौथ के संबंध में इतिहासकार एक मत नहीं हैं।

छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा, रायगढ़

रानाडे के अनुसार यह 'सेना के लिए दिया जाने वाला अंशमात्र नहीं था जिसमें कोई नैतिक और क़ानूनी बाध्यता न होती, अपितु बाह्य शक्ति के आक्रमण से सुरक्षा प्रदान करने के बदले लिया जाने वाला कर था।' सरदेसाई इसे 'शत्रुता रखने वाले अथवा विजित क्षेत्रों से वसूल किया जाने वाला कर मानते हैं।' जदुनाथ सरकार के अनुसार 'यह मराठा आक्रमण से बचने की एवज़ में वसूले जाने वाले शुल्क से अधिक कुछ नहीं था। अतः इसे एक प्रकार का भयदोहन (दबावपूर्वक ऐंठना) ही कहा जाना चाहिए।' यह कहना भी अनुचित न होगा कि दक्षिण के सुल्तानों और मुग़लों ने मराठों को अपने इलाक़ों से ये दोनों कर वसूल करने का अधिकार दिया था जिसने इस उदीयमान राज्य को बड़ी सीमा तक वैधता प्रदान की थी। मराठा राज्य के संबंध में सतीशचंद्र के इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है कि 'मराठा राज्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मराठा आंदोलन, जो मुग़ल साम्राज्य के केंद्रीकरण के विरुद्ध क्षेत्रीय प्रतिक्रिया के रूप में आरंभ हुआ था, की परिणति शिवाजी द्वारा दक्षिण-मुग़ल प्रशासनिक व्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों को अपनाए जाने में हुई।"

अन्तिम समय

शिवाजी की कई पत्नियां और दो बेटे थे, उनके जीवन के अंतिम वर्ष उनके ज्येष्ठ पुत्र की धर्मविमुखता के कारण परेशानियों में बीते। उनका यह पुत्र एक बार मुग़लों से भी जा मिला था और उसे बड़ी मुश्किल से वापस लाया गया था। घरेलु झगड़ों और अपने मंत्रियों के आपसी वैमनस्य के बीच साम्राज्य की शत्रुओं से रक्षा की चिंता ने शीघ्र ही शिवाजी को मृत्यु के कगार पर पहुँचा दिया।

छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा, महाराष्ट्र

लॉर्ड मैकाले द्वारा 'शिवाजी महान' कहे जाने वाले शिवाजी की 1680 में कुछ समय बीमार रहने के बाद अपनी राजधानी पहाड़ी दुर्ग राजगढ़ में 3 अप्रैल को मृत्यु हो गई।

उपसंहार

इस प्रकार मुग़लों, बीजापुर के सुल्तान, गोवा के पुर्तग़ालियों और जंजीरा स्थित अबीसिनिया के समुद्री डाकुओं के प्रबल प्रतिरोध के बावजूद उन्होंने दक्षिण में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना की। धार्मिक आक्रामकता के युग में वह लगभग अकेले ही धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक बने रहे। उनका राज्य बेलगांव से लेकर तुंगभद्रा नदी के तट तक समस्त पश्चिमी कर्नाटक में विस्तृत था। इस प्रकार शिवाजी एक साधारण जागीरदार के उपेक्षित पुत्र की स्थिति से अपने पुरुषार्थ द्वारा ऎसे स्वाधीन राज्य के शासक बने, जिसका निर्माण स्वयं उन्होंने ही किया था। उन्होंने उसे एक सुगठित शासन-प्रणाली एवं सैन्य-संगठन द्वारा सुदृढ़ करके जन साधारण का भी विश्वास प्राप्त किया। जिस स्वतंत्रता की भावना से वे स्वयं प्रेरित हुए थे, उसे उन्होंने अपने देशवासियों के हृदय में भी इस प्रकार प्रज्वलित कर दिया कि उनके मरणोंपरान्त औरंगज़ेब द्वारा उनके पुत्र का वध कर देने, पौत्र को कारागार में डाल देने तथा समस्त देश को अपनी सैन्य शक्ति द्वारा रौंद डालने पर भी वे अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने में समर्थ हो सके। उसी से भविष्य में विशाल मराठा साम्राज्य की स्थापना हुई। शिवाजी यथार्थ में एक व्यावहारिक आदर्शवादी थे।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यदुनाथ सरकार द्वारा लिखित शिवाजी एण्ड हिज टाइम्स तथा एस. एन. सेन कृत छत्रपति शिवाजी

बाहरी कड़ियाँ

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