"अयोध्या काण्ड वा. रा.": अवतरणों में अंतर

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इस प्रकार मन्थरा के प्रोत्साहन देने पर कैकेयी अनर्थ में ही अर्थ की सिद्धि देखने लगी और बोली-
इस प्रकार मन्थरा के प्रोत्साहन देने पर कैकेयी अनर्थ में ही अर्थ की सिद्धि देखने लगी और बोली-
[[चित्र:Sita-Haran-Ramlila-Mathura-5.jpg|[[सीता हरण]], [[रामलीला]], [[मथुरा]]<br /> Kidnapping of Sita, Ramlila, Mathura|thumb|250px]]
[[चित्र:Sita-Haran-Ramlila-Mathura-5.jpg|[[सीता हरण]], [[रामलीला]], [[मथुरा]]<br /> Kidnapping of Sita, Ramlila, Mathura|thumb|250px]]
"कुब्जे! तूने बड़ा अच्छा उपाय बताया है। राजा मेरा मनोरथ अवश्य पूर्ण करेंगे।"
"कुब्जे! तूने बड़ा अच्छा उपाय बताया है। राजा मेरा मनोरथ अवश्य पूर्ण करेंगे।" ऐसा कहकर वह कोपभवन में चली गयी और [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] पर अचेत-सी होकर पड़ी रही।
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====राम का वनगमन====
ऐसा कहकर वह कोपभवन में चली गयी और [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] पर अचेत-सी होकर पड़ी रही। उधर महाराज [[दशरथ]] [[ब्राह्मण]] आदि का पूजन करके जब कैकेयी के भवन में आये तो उसे रोष में भरी हुई देखकर तब राजा ने पूछा-
उधर महाराज [[दशरथ]] [[ब्राह्मण]] आदि का पूजन करके जब कैकेयी के भवन में आये तो उसे रोष में भरी हुई देखकर तब राजा ने पूछा- "सुन्दरी! तुम्हारी ऐसी दशा क्यों हो रही है? तुम्हें कोई रोग तो नहीं सता रहा है? अथवा किसी भय से व्याकुल तो नहीं हो? बताओ, क्या चाहती हो? मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूर्ण करता हूँ। जिन [[राम|श्रीराम]] के बिना मैं क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकता, उन्हीं की शपथ खाकर कहता हूँ, तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूर्ण करूँगा। सच-सच बताओ, क्या चाहती हो?"


"सुन्दरी! तुम्हारी ऐसी दशा क्यों हो रही है? तुम्हें कोई रोग तो नहीं सता रहा है? अथवा किसी भय से व्याकुल तो नहीं हो? बताओ, क्या चाहती हो? मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूर्ण करता हूँ। जिन श्रीराम के बिना मैं क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकता, उन्हीं की शपथ खाकर कहता हूँ, तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूर्ण करूँगा। सच-सच बताओ, क्या चाहती हो?"
'''कैकेयी बोली'''- "राजन! यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हो, तो अपने सत्य की रक्षा के लिये पहले के दिये हुए दो वरदान देने की कृपा करें। मैं चाहती हूँ, राम चौदह वर्षों तक संयमपूर्वक वन में निवास करें और इन सामग्रियों के द्वारा आज ही [[भरत]] का युवराज पद पर [[अभिषेक]] हो जाए। महाराज! यदि ये दोनों वरदान आप मुझे नहीं देंगे तो मैं विष पीकर मर जाऊँगी।" यह सुनकर राजा दशरथ [[वज्र अस्त्र|वज्र]] से आहत हुए की भाँति मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। फिर थोड़ी देर में चेत होने पर उन्होंने कैकेयी से कहा- "पाप पूर्ण विचार रखने वाली कैकेयी! तू समस्त संसार का अप्रिय करने वाली है। अरी! मैंने या राम ने तेरा क्या बिगाड़ा है, जो तू मुझसे ऐसी बात कहती है? केवल तुझे प्रिय लगने वाला यह कार्य करके मैं संसार में भली-भाँति निन्दित हो जाऊँगा। तू मेरी स्त्री नहीं, कालरात्रि है। मेरा पुत्र [[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]] ऐसा नहीं है। पापिनी! मेरे पुत्र के चले जाने पर जब मैं मर जाऊँगा तो तू विधवा होकर राज्य करना।"
 
'''कैकेयी बोली'''- "राजन्! यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हों, तो अपने सत्य की रक्षा के लिये पहले के दिये हुए दो वरदान देने की कृपा करें। मैं चाहती हूँ, राम चौदह वर्षों तक संयमपूर्वक वन में निवास करें और इन सामग्रियों के द्वारा आज ही भरत का युवराज पद पर [[अभिषेक]] हो जाए। महाराज! यदि ये दोनों वरदान आप मुझे नहीं देंगे तो मैं विष पीकर मर जाऊँगी।"
 
यह सुनकर राजा दशरथ वज्र से आहत हुए की भाँति मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। फिर थोड़ी देर में चेत होने पर उन्होंने कैकेयी से कहा।
[[चित्र:Hanuman-Ram-Laxman.jpg|[[हनुमान]] राम और [[लक्ष्मण]] को ले जाते हुए|thumb|200px|left]]
[[चित्र:Hanuman-Ram-Laxman.jpg|[[हनुमान]] राम और [[लक्ष्मण]] को ले जाते हुए|thumb|200px|left]]
'''दशरथ बोले'''- "पाप पूर्ण विचार रखने वाली कैकेयी! तू समस्त संसार का अप्रिय करने वाली है। अरी! मैंने या राम ने तेरा क्या बिगाड़ा है, जो तू मुझसे ऐसी बात कहती है? केवल तुझे प्रिय लगने वाला यह कार्य करके मैं संसार में भली-भाँति निन्दित हो जाऊँगा। तू मेरी स्त्री नहीं , कालरात्रि है। मेरा पुत्र [[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]] ऐसा नहीं है। पापिनी! मेरे पुत्र के चले जाने पर जब मैं मर जाऊँगा तो तू विधवा होकर राज्य करना।"


राजा दशरथ सत्य के बन्धन में बँधे थे। उन्होंने श्रीरामचन्द्रजी को बुलाकर कहा-
राजा दशरथ सत्य के बन्धन में बँधे थे। उन्होंने श्रीरामचन्द्र को बुलाकर कहा- "बेटा! [[कैकेयी]] ने मुझे ठग लिया। तुम मुझे कैद करके राज्य को अपने अधिकार में कर लो। अन्यथा तुम्हें वन में निवास करना होगा और कैकेयी का पुत्र भरत राजा बनेगा।" श्रीरामचन्द्र ने पिता और कैकेयी को प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिणा की और [[कौशल्या]] के चरणों में मस्तक झुकाकर उन्हें सान्त्वना दी। फिर [[लक्ष्मण]] और पत्नी [[सीता]] को साथ ले, ब्राह्मणों, दीनों और अनाथों को दान देकर, सुमन्त्र सहित रथ पर बैठकर वे नगर से बाहर निकले। उस समय माता-पिता आदि शोक से आतुर हो रहे थे। उस रात में श्रीरामचन्द्र ने [[तमसा नदी]] के तट पर निवास किया। उनके साथ बहुत-से पुरवासी भी गये थे। उन सबको सोते छोड़कर वे आगे बढ़ गये। प्रात: काल होने पर जब श्रीरामचन्द्र नहीं दिखायी दिये तो नगर निवासी निराश होकर पुन: [[अयोध्या]] लौट आये।
====राम का चित्रकूट निवास====
श्रीरामचन्द्र के चले जाने से [[दशरथ|राजा दशरथ]] बहुत दु:खी हुए। वे रोते-रोते कैकेयी का महल छोड़कर [[कौशल्या]] के भवन में चले आये। उस समय नगर के समस्त स्त्री-पुरुष और रनिवास की स्त्रियाँ फूट-फूटकर रो रही थीं। श्रीरामचन्द्र ने चीर स्त्र धारण कर रखा था। वे रथ पर बैठे-बैठे [[श्रृंगवेरपुर]] जा पहुँचे। वहाँ निषादराज गुह ने उनका पूजन, स्वागत-सत्कार किया। श्रीरघुनाथ ने [[इंगुदी]]-वृक्ष की जड़ के निकट विश्राम किया। लक्ष्मण और गुह दोनों रात भर जागकर पहरा देते रहे।


"बेटा! कैकेयी ने मुझे ठग लिया। तुम मुझे कैद करके राज्य को अपने अधिकार में कर लो। अन्यथा तुम्हें वन में निवास करना होगा और कैकेयी का पुत्र भरत राजा बनेगा।"
प्रात:काल श्रीराम ने रथ सहित सुमन्त्र को विदा कर दिया तथा स्वयं लक्ष्मण और सीता के साथ नाव से [[गंगा नदी|गंगा]]-पार हो वे [[प्रयाग]] में गये। वहाँ उन्होंने महर्षि [[भारद्वाज]] को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले वहाँ से चित्रकूट पर्वत को प्रस्थान किया। [[चित्रकूट]] पहुँच कर उन्होंने वास्तुपूजा करने के अनन्तर (पर्णकुटी बनाकर) [[मन्दाकिनी नदी|मन्दाकिनी]] के [[तट]] पर निवास किया। रघुनाथ जी ने सीता को चित्रकूट पर्वत का रमणीय दृश्य दिखलाया। इसी समय एक कौए ने सीता जी के कोमल श्री अंग में नखों से प्रहार किया। यह देख श्रीराम ने उसके ऊपर सींक के अस्त्र का प्रयोग किया। जब वह [[कौआ]] देवताओं का आश्रय छोड़ कर श्रीरामचन्द्र की शरण में आया, तब उन्होंने उसकी केवल एक आँख नष्ट करके उसे जीवित छोड़ दिया।
====राजा दशरथ की मृत्यु====
श्रीरामचन्द्र के वन गमन के पश्चात छठे दिन की रात में [[दशरथ|राजा दशरथ]] ने [[कौशल्या]] से पहले की एक घटना सुनायी, जिसमें उनके द्वारा कुमारावस्था में [[सरयू नदी|सरयू]] के तट पर अनजान में यज्ञदत्त-पुत्र [[श्रवण कुमार]] के मारे जाने का वृत्तान्त था।


श्रीराम चन्द्र जी ने पिता और कैकेयी को प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिणा की और [[कौशल्या]] के चरणों में मस्तक झुकाकर उन्हें सान्त्वना दी। फिर लक्ष्मण और पत्नी [[सीता]] को साथ ले, ब्राह्मणों, दीनों और अनाथों को दान देकर, सुमन्त्र सहित रथ पर बैठकर वे नगर से बाहर निकले। उस समय माता-पिता आदि शोक से आतुर हो रहे थे। उस रात में श्री रामचन्द्र जी ने [[तमसा नदी]] के तट पर निवास किया। उनके साथ बहुत-से पुरवासी भी गये थे। उन सबको सोते छोड़कर वे आगे बढ़ गये। प्रात: काल होने पर जब श्री रामचन्द्र जी नहीं दिखायी दिये तो नगर निवासी निराश होकर पुन: अयोध्या लौट आये।
"श्रवण कुमार पानी लेने के लिये सरयू नदी के तट पर आया था। उस समय उसके घड़े के भरने से जो शब्द हो रहा था, उसकी आहट पाकर मैंने उसे कोई जंगली-जन्तु समझा और शब्दवेधी [[बाण अस्त्र|बाण]] से उसका वध कर डाला। यह समाचार पाकर उसके पिता और माता को बड़ा शोक हुआ। वे बार-बार विलाप करने लगे। उस समय [[श्रवण कुमार]] के पिता ने मुझे शाप देते हुए कहा- "राजन! हम दोनों पति-पत्नी पुत्र के बिना शोकातुर होकर प्राण त्याग कर रहे हैं; तुम भी हमारी ही तरह पुत्र वियोग के शोक से मरोगे; (तुम्हारे पुत्र मरेंगे तो नहीं, किंतु) उस समय तुम्हारे पास कोई पुत्र मौजूद न होगा।"  
 
श्री रामचन्द्र जी के चले जाने से राजा दशरथ बहुत दु:खी हुए। वे रोते-रोते कैकेयी का महल छोड़कर कौशल्या के भवन में चले आये। उस समय नगर के समस्त स्त्री-पुरुष और रनिवास की स्त्रियाँ फूट-फूटकर रो रही थीं। श्री रामचन्द्र जी ने चीर स्त्र धारण कर रखा था। वे रथ पर बैठे-बैठे [[श्रृंगवेरपुर]] जा पहुँचे। वहाँ निषादराज गुह ने उनका पूजन, स्वागत-सत्कार किया। श्री रघुनाथ जी ने [[इंगुदी]]-वृक्ष की जड़ के निकट विश्राम किया। लक्ष्मण और गुह दोनों रात भर जागकर पहरा देते रहे।
 
प्रात:काल श्री राम ने रथ सहित सुमन्त्र को विदा कर दिया तथा स्वयं लक्ष्मण और सीता के साथ नाव से [[गंगा नदी|गंगा]]-पार हो। वे [[प्रयाग]] में गये। वहाँ उन्होंने महर्षि [[भारद्वाज]] को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले वहाँ से चित्रकूट पर्वत को प्रस्थान किया। [[चित्रकूट]] पहुँच कर उन्होंने वास्तुपूजा करने के अनन्तर (पर्णकुटी बनाकर) [[मन्दाकिनी नदी|मन्दाकिनी]] के [[तट]] पर निवास किया। रघुनाथ जी ने सीता को चित्रकूट पर्वत का रमणीय दृश्य दिखलाया। इसी समय एक कौए ने सीता जी के कोमल श्री अंग में नखों से प्रहार किया। यह देख श्री राम ने उसके ऊपर सींक के अस्त्र का प्रयोग किया। जब वह [[कौआ]] देवताओं का आश्रय छोड़ कर श्री रामचन्द्र जी की शरण में आया, तब उन्होंने उसकी केवल एक आँख नष्ट करके उसे जीवित छोड़ दिया। श्री रामचन्द्र जी के वन गमन के पश्चात छठे दिन की रात में राजा दशरथ ने कौशल्या से पहले की एक घटना सुनायी, जिसमें उनके द्वारा कुमारावस्था में सरयू के तट पर अनजान में यज्ञदत्त-पुत्र [[श्रवण कुमार]] के मारे जाने का वृत्तान्त था।
 
"श्रवण कुमार पानी लेने के लिये आया था। उस समय उसके घड़े के भरने से जो शब्द हो रहा था, उसकी आहट पाकर मैंने उसे कोई जंगली-जन्तु समझा और शब्दवेधी बाण से उसका वध कर डाला। यह समाचार पाकर उसके पिता और माता को बड़ा शोक हुआ। वे बार-बार विलाप करने लगे। उस समय श्रवण कुमार के पिता ने मुझे शाप देते हुए कहा- "राजन्! हम दोनों पति-पत्नी पुत्र के बिना शोकातुर होकर प्राण त्याग कर रहे हैं; तुम भी हमारी ही तरह पुत्र वियोग के शोक से मरोगे; (तुम्हारे पुत्र मरेंगे तो नहीं, किंतु) उस समय तुम्हारे पास कोई पुत्र मौजूद न होगा।"  
[[चित्र:Hanuman.jpg|thumb|220px|[[हनुमान]]<br /> Hanuman]]
[[चित्र:Hanuman.jpg|thumb|220px|[[हनुमान]]<br /> Hanuman]]
"कौशल्ये! आज उस शाप का मुझे स्मरण हो रहा है। जान पड़ता है, अब इसी शोक से मेरी मृत्यु होगी।"
"कौशल्ये! आज उस शाप का मुझे स्मरण हो रहा है। जान पड़ता है, अब इसी शोक से मेरी मृत्यु होगी।" इतनी कथा कहने के पश्चात राजा दशरथ ने 'हा राम' कह कर स्वर्ग लोक को प्रयाण किया। कौशल्या ने समझा, महाराज शोक से आतुर हैं; इस समय नींद आ गयी होगी। ऐसा विचार करके वे सो गयीं। प्रात:काल जगाने वाले सूत, मागध और बन्दी जन सोते हुए महाराज को जगाने लगे; किंतु वे न जगे। तब उन्हें मरा हुआ जान रानी कौशल्या 'हाय! मैं मारी गयी' कहकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। फिर तो समस्त नर-नारी फूट-फूटकर रोने लगे।
 
====चित्रकूट में भरत की राम से भेंट====
इतनी कथा कहने के पश्चात राजा ने 'हा राम!' कह कर स्वर्ग लोक को प्रयाण किया। कौसल्या ने समझा, महाराज शोक से आतुर हैं; इस समय नींद आ गयी होगी। ऐसा विचार करके वे सो गयीं। प्रात:काल जगाने वाले सूत, मागध और बन्दी जन सोते हुए महाराज को जगाने लगे; किंतु वे न जगे।
[[वसिष्ठ|महर्षि वसिष्ठ]] ने राजा दशरथ के शव को तेल भरी नौका में रखवा कर [[भरत]] को उनके ननिहाल से तत्काल बुलवाया। भरत और [[शत्रुघ्न]] अपने मामा के राजमहल से निकलकर [[सुमन्त्र]] आदि के साथ शीघ्र ही [[अयोध्या|अयोध्या पुरी]] में आये। यहाँ का समाचार जानकर भरत को बड़ा दु:ख हुआ। [[कैकेयी]] को शोक करती देख उसकी कठोर शब्दों में निन्दा करते हुए बोले-
 
तब उन्हें मरा हुआ जान रानी कौसल्या 'हाय! मैं मारी गयी' कहकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। फिर तो समस्त नर-नारी फूट-फूटकर रोने लगे। तत्पश्चात महर्षि वसिष्ठ ने राजा के शव को तेल भरी नौका में रखवा कर भरत को उनके ननिहाल से तत्काल बुलवाया। भरत और शत्रुघ्न अपने मामा के राजमहल से निकलकर सुमन्त्र आदि के साथ शीघ्र ही अयोध्या पुरी में आये। यहाँ का समाचार जानकर भरत को बड़ा दु:ख हुआ। कैकेयी को शोक करती देख उसकी कठोर शब्दों में निन्दा करते हुए बोले-
 
"अरी! तूने मेरे माथे कलंक का टीका लगा दिया- मेरे सिर पर अपयश का भारी बोझ लाद दिया।" फिर उन्होंने कौशल्या की प्रशंसा करके तैलपूर्ण नौका में रखे हुए पिता के शव का सरयू तट पर अन्त्येष्टि-संस्कार किया। तदनन्तर वसिष्ठ आदि गुरुजनों ने कहा- "भरत! अब राज्य ग्रहण करो।"
 
'''भरत बोले'''- "मैं तो श्री रामचन्द्र जी को ही राजा मानता हूँ। अब उन्हें यहाँ लाने के लिये वन में जाता हूँ।"


ऐसा कहकर वे वहाँ से दल-बल सहित चल दिये और [[श्रृंगवेरपुर]] होते हुए प्रयाग पहुँचे। वहाँ महर्षि [[भारद्वाज]] को नमस्कार करके वे प्रयाग से चले और चित्रकूट में श्री राम एवं लक्ष्मण के समीप आ पहुँचे। वहाँ भरत ने श्री राम से कहा- "रघुनाथ जी! हमारे पिता महाराज दशरथ स्वर्गवासी हो गये। अब आप अयोध्या में चलकर राज्य ग्रहण करें। मैं आपकी आज्ञा का पालन करते हुए वन में जाऊँगा।"
"अरी! तूने मेरे माथे कलंक का टीका लगा दिया। मेरे सिर पर अपयश का भारी बोझ लाद दिया।" फिर उन्होंने [[कौशल्या]] की प्रशंसा करके तैलपूर्ण नौका में रखे हुए पिता के शव का सरयू तट पर [[अंत्येष्टि संस्कार]] किया। तदनन्तर वसिष्ठ आदि गुरुजनों ने कहा- "भरत! अब राज्य ग्रहण करो।" भरत बोले- "मैं तो श्री रामचन्द्र को ही राजा मानता हूँ। अब उन्हें यहाँ लाने के लिये वन में जाता हूँ।" ऐसा कहकर वे वहाँ से दल-बल सहित चल दिये और [[श्रृंगवेरपुर]] होते हुए [[प्रयाग]] पहुँचे। वहाँ [[भारद्वाज|महर्षि भारद्वाज]] को नमस्कार करके वे प्रयाग से चले और [[चित्रकूट]] में [[राम|श्रीराम]] एवं [[लक्ष्मण]] के समीप आ पहुँचे। वहाँ भरत ने श्रीराम से कहा- "रघुनाथ जी! हमारे पिता महाराज दशरथ स्वर्गवासी हो गये। अब आप अयोध्या में चलकर राज्य ग्रहण करें। मैं आपकी आज्ञा का पालन करते हुए वन में जाऊँगा।"


यह सुनकर श्री राम ने पिता का तर्पण किया और भरत से कहा- "तुम मेरी चरण पादुका लेकर अयोध्या लौट जाओ। मैं राज्य करने के लिये नहीं चलूँगा। पिता के सत्य की रक्षा के लिये चीर एवं जटा धारण करके वन में ही रहूँगा।" श्री राम के ऐसा कहने पर सदल-बल भरत लौट गये और अयोध्या छोड़कर नन्दिग्राम में रहने लगे। वहाँ भगवान की चरण-पादुकाओं की पूजा करते हुए वे राज्य का भली-भाँति पालन करने लगे।
यह सुनकर श्रीराम ने पिता का तर्पण किया और भरत से कहा- "तुम मेरी चरण पादुका लेकर [[अयोध्या]] लौट जाओ। मैं राज्य करने के लिये नहीं चलूँगा। पिता के सत्य की रक्षा के लिये चीर एवं जटा धारण करके वन में ही रहूँगा।" श्रीराम के ऐसा कहने पर सदल-बल भरत लौट गये और अयोध्या छोड़कर नन्दिग्राम में रहने लगे। वहाँ भगवान की चरण-पादुकाओं की [[पूजा]] करते हुए वे राज्य का भली-भाँति पालन करने लगे।





12:58, 10 फ़रवरी 2017 का अवतरण

अयोध्याकाण्ड वाल्मीकि द्वारा रचित प्रसिद्ध हिन्दू ग्रंथ 'रामायण' और गोस्वामी तुलसीदास कृत 'श्रीरामचरितमानस' का एक भाग (काण्ड या सोपान) है।

सर्ग तथा श्लोक

अयोध्याकाण्ड में राजा दशरथ द्वारा राम को युवराज बनाने का विचार, राम के राज्याभिषेक की तैयारियाँ, राम को राजनीति का उपदेश, श्रीराम का अभिषेक सुनकर मन्थरा का कैकेयी को उकसाना, कैकेयी का कोपभवन में प्रवेश, राजा दशरथ से कैकेयी का वरदान माँगना, राजा दशरथ की चिन्ता, भरत को राज्यभिषेक तथा राम को चौदह वर्ष का वनवास, श्रीराम का कौशल्या, दशरथ तथा माताओं से अनुज्ञा लेकर लक्ष्मण तथा सीता के साथ वनगमन, कौसल्या तथा सुमित्रा के निकट विलाप करते हुए दशरथ का प्राणत्याग, भरत का आगमन तथा राम को लेने चित्रकूट गमन, राम-भरत-संवाद, जाबालि-राम-संवाद, राम-वसिष्ठ-संवाद, भरत का लौटना, राम का अत्रि के आश्रम गमन तथा अनुसूया का सीता को पातिव्रत धर्म का उपदेश आदि कथानक वर्णित है। अयोध्याकाण्ड में 119 सर्ग हैं तथा इन सर्गों में सम्मिलित रूपेण श्लोकों की संख्या 4,286 है। इस काण्ड का पाठ पुत्रजन्म, विवाह तथा गुरुदर्शन हेतु किया जाना चाहिए-

पुत्रजन्म विवाहादौ गुरुदर्शन एव च।
पठेच्च श्रृणुयाच्चेव द्वितीयं काण्डमुत्तमम्॥[1]

संक्षिप्त कथा

राम के राज्याभिषेक की तैयारी

नारद जी कहते हैं- भरत के ननिहाल चले जाने पर, लक्ष्मण सहित श्री रामचन्द्र ही पिता-माता आदि के सेवा-सत्कार में रहने लगे। एक दिन राजा दशरथ ने श्री रामचन्द्र से कहा- "रघुनन्दन! मेरी बात सुनो। तुम्हारे गुणों पर अनुरक्त हो प्रजाजनों ने मन-ही-मन तुम्हें राज-सिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया है। प्रजा की यह हार्दिक इच्छा है कि तुम युवराज बनो; अत: कल प्रात: काल मैं तुम्हें युवराज पद प्रदान कर दूँगा। आज रात में तुम सीता सहित उत्तम व्रत का पालन करते हुए संयमपूर्वक रहो।"

राजा के आठ मन्त्रियों तथा वसिष्ठ ने भी उनकी इस बात का अनुमोदन किया। उन आठ मन्त्रियों के नाम इस प्रकार हैं- दृष्टि, जयन्त, विजय, सिद्धार्थ, राज्यवर्धन, अशोक, धर्मपाल तथा सुमन्त्र[2] इनके अतिरिक्त वसिष्ठ भी मन्त्रणा देते थे। पिता और मन्त्रियों की बातें सुनकर श्रीरघुनाथ जी ने 'तथास्तु' कहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और माता कौशल्या को यह शुभ समाचार बताकर देवताओं की पूजा करके वे संयम में स्थित हो गये। उधर महाराज दशरथ वसिष्ठ आदि मन्त्रियों को यह कहकर कि "आप लोग श्री रामचन्द्र के राज्याभिषेक की सामग्री जुटायें", कैकेयी के भवन में चले गये।

कैकेयी का कोपभवन में जाना

कैकेयी के मन्थरा नामक एक दासी थी, जो बड़ी दुष्टा थी। उसने अयोध्या की सजावट होती देख, श्री रामचन्द्र के राज्याभिषेक की बात जानकर, रानी कैकेयी से सारा हाल कह सुनाया। एक बार किसी अपराध के कारण श्री रामचन्द्र ने मन्थरा को उसके पैर पकड़ कर घसीटा था। उसी वैर के कारण वह सदा यही चाहती थी कि राम का वनवास हो जाये। मन्थरा रानी कैकेयी से बोली- "कैकेयी! तुम उठो, राम का राज्याभिषेक होने जा रहा है। यह तुम्हारे पुत्र के लिये, मेरे लिये और तुम्हारे लिये भी मृत्यु के समान भयंकर वृत्तान्त है। इसमें कोई संदेह नहीं है।" मन्थरा कुबड़ी थी। उसकी बात सुनकर रानी कैकेयी को प्रसन्नता हुई। उन्होंने कुब्जा को एक आभूषण उतार कर दिया और कहा-

राम जन्म,रामलीला, मथुरा
Rambirth, Ramlila, Mathura

"मेरे लिये तो जैसे राम हैं, वैसे ही मेरे पुत्र भरत भी हैं। मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता, जिससे भरत को राज्य मिल सके।"

मन्थरा ने उस हार को फेंक दिया और कुपित होकर कैकेयी से कहा- "ओ नादान! तू भरत को, अपने को और मुझे भी राम से बचा। कल राम राजा होंगे। फिर राम के पुत्रों को राज्य मिलेगा। कैकेयी! अब राजवंश भरत से दूर हो जायेगा। मैं भरत को राज्य दिलाने का एक उपाय बताती हूँ। पहले की बात है। देवासुर-संग्राम में शम्बरासुर ने देवताओं को मार भगाया था। तेरे स्वामी भी उस युद्ध में गये थे। उस समय तूने अपनी विद्या से रात में स्वामी की रक्षा की थी। इसके लिये महाराज ने तुझे दो वर देने की प्रतिज्ञा की थी, इस समय उन्हीं दोनों वरों को उनसे माँग। एक वर के द्वारा राम का चौदह वर्षों के लिये वनवास और दूसरे के द्वारा भरत का युवराज-पद पर अभिषेक माँग ले। राजा इस समय वे दोनों वर दे देंगे।"

इस प्रकार मन्थरा के प्रोत्साहन देने पर कैकेयी अनर्थ में ही अर्थ की सिद्धि देखने लगी और बोली-

सीता हरण, रामलीला, मथुरा
Kidnapping of Sita, Ramlila, Mathura

"कुब्जे! तूने बड़ा अच्छा उपाय बताया है। राजा मेरा मनोरथ अवश्य पूर्ण करेंगे।" ऐसा कहकर वह कोपभवन में चली गयी और पृथ्वी पर अचेत-सी होकर पड़ी रही।

राम का वनगमन

उधर महाराज दशरथ ब्राह्मण आदि का पूजन करके जब कैकेयी के भवन में आये तो उसे रोष में भरी हुई देखकर तब राजा ने पूछा- "सुन्दरी! तुम्हारी ऐसी दशा क्यों हो रही है? तुम्हें कोई रोग तो नहीं सता रहा है? अथवा किसी भय से व्याकुल तो नहीं हो? बताओ, क्या चाहती हो? मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूर्ण करता हूँ। जिन श्रीराम के बिना मैं क्षण भर भी जीवित नहीं रह सकता, उन्हीं की शपथ खाकर कहता हूँ, तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूर्ण करूँगा। सच-सच बताओ, क्या चाहती हो?"

कैकेयी बोली- "राजन! यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हो, तो अपने सत्य की रक्षा के लिये पहले के दिये हुए दो वरदान देने की कृपा करें। मैं चाहती हूँ, राम चौदह वर्षों तक संयमपूर्वक वन में निवास करें और इन सामग्रियों के द्वारा आज ही भरत का युवराज पद पर अभिषेक हो जाए। महाराज! यदि ये दोनों वरदान आप मुझे नहीं देंगे तो मैं विष पीकर मर जाऊँगी।" यह सुनकर राजा दशरथ वज्र से आहत हुए की भाँति मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। फिर थोड़ी देर में चेत होने पर उन्होंने कैकेयी से कहा- "पाप पूर्ण विचार रखने वाली कैकेयी! तू समस्त संसार का अप्रिय करने वाली है। अरी! मैंने या राम ने तेरा क्या बिगाड़ा है, जो तू मुझसे ऐसी बात कहती है? केवल तुझे प्रिय लगने वाला यह कार्य करके मैं संसार में भली-भाँति निन्दित हो जाऊँगा। तू मेरी स्त्री नहीं, कालरात्रि है। मेरा पुत्र भरत ऐसा नहीं है। पापिनी! मेरे पुत्र के चले जाने पर जब मैं मर जाऊँगा तो तू विधवा होकर राज्य करना।"

हनुमान राम और लक्ष्मण को ले जाते हुए

राजा दशरथ सत्य के बन्धन में बँधे थे। उन्होंने श्रीरामचन्द्र को बुलाकर कहा- "बेटा! कैकेयी ने मुझे ठग लिया। तुम मुझे कैद करके राज्य को अपने अधिकार में कर लो। अन्यथा तुम्हें वन में निवास करना होगा और कैकेयी का पुत्र भरत राजा बनेगा।" श्रीरामचन्द्र ने पिता और कैकेयी को प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिणा की और कौशल्या के चरणों में मस्तक झुकाकर उन्हें सान्त्वना दी। फिर लक्ष्मण और पत्नी सीता को साथ ले, ब्राह्मणों, दीनों और अनाथों को दान देकर, सुमन्त्र सहित रथ पर बैठकर वे नगर से बाहर निकले। उस समय माता-पिता आदि शोक से आतुर हो रहे थे। उस रात में श्रीरामचन्द्र ने तमसा नदी के तट पर निवास किया। उनके साथ बहुत-से पुरवासी भी गये थे। उन सबको सोते छोड़कर वे आगे बढ़ गये। प्रात: काल होने पर जब श्रीरामचन्द्र नहीं दिखायी दिये तो नगर निवासी निराश होकर पुन: अयोध्या लौट आये।

राम का चित्रकूट निवास

श्रीरामचन्द्र के चले जाने से राजा दशरथ बहुत दु:खी हुए। वे रोते-रोते कैकेयी का महल छोड़कर कौशल्या के भवन में चले आये। उस समय नगर के समस्त स्त्री-पुरुष और रनिवास की स्त्रियाँ फूट-फूटकर रो रही थीं। श्रीरामचन्द्र ने चीर स्त्र धारण कर रखा था। वे रथ पर बैठे-बैठे श्रृंगवेरपुर जा पहुँचे। वहाँ निषादराज गुह ने उनका पूजन, स्वागत-सत्कार किया। श्रीरघुनाथ ने इंगुदी-वृक्ष की जड़ के निकट विश्राम किया। लक्ष्मण और गुह दोनों रात भर जागकर पहरा देते रहे।

प्रात:काल श्रीराम ने रथ सहित सुमन्त्र को विदा कर दिया तथा स्वयं लक्ष्मण और सीता के साथ नाव से गंगा-पार हो वे प्रयाग में गये। वहाँ उन्होंने महर्षि भारद्वाज को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले वहाँ से चित्रकूट पर्वत को प्रस्थान किया। चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने वास्तुपूजा करने के अनन्तर (पर्णकुटी बनाकर) मन्दाकिनी के तट पर निवास किया। रघुनाथ जी ने सीता को चित्रकूट पर्वत का रमणीय दृश्य दिखलाया। इसी समय एक कौए ने सीता जी के कोमल श्री अंग में नखों से प्रहार किया। यह देख श्रीराम ने उसके ऊपर सींक के अस्त्र का प्रयोग किया। जब वह कौआ देवताओं का आश्रय छोड़ कर श्रीरामचन्द्र की शरण में आया, तब उन्होंने उसकी केवल एक आँख नष्ट करके उसे जीवित छोड़ दिया।

राजा दशरथ की मृत्यु

श्रीरामचन्द्र के वन गमन के पश्चात छठे दिन की रात में राजा दशरथ ने कौशल्या से पहले की एक घटना सुनायी, जिसमें उनके द्वारा कुमारावस्था में सरयू के तट पर अनजान में यज्ञदत्त-पुत्र श्रवण कुमार के मारे जाने का वृत्तान्त था।

"श्रवण कुमार पानी लेने के लिये सरयू नदी के तट पर आया था। उस समय उसके घड़े के भरने से जो शब्द हो रहा था, उसकी आहट पाकर मैंने उसे कोई जंगली-जन्तु समझा और शब्दवेधी बाण से उसका वध कर डाला। यह समाचार पाकर उसके पिता और माता को बड़ा शोक हुआ। वे बार-बार विलाप करने लगे। उस समय श्रवण कुमार के पिता ने मुझे शाप देते हुए कहा- "राजन! हम दोनों पति-पत्नी पुत्र के बिना शोकातुर होकर प्राण त्याग कर रहे हैं; तुम भी हमारी ही तरह पुत्र वियोग के शोक से मरोगे; (तुम्हारे पुत्र मरेंगे तो नहीं, किंतु) उस समय तुम्हारे पास कोई पुत्र मौजूद न होगा।"

हनुमान
Hanuman

"कौशल्ये! आज उस शाप का मुझे स्मरण हो रहा है। जान पड़ता है, अब इसी शोक से मेरी मृत्यु होगी।" इतनी कथा कहने के पश्चात राजा दशरथ ने 'हा राम' कह कर स्वर्ग लोक को प्रयाण किया। कौशल्या ने समझा, महाराज शोक से आतुर हैं; इस समय नींद आ गयी होगी। ऐसा विचार करके वे सो गयीं। प्रात:काल जगाने वाले सूत, मागध और बन्दी जन सोते हुए महाराज को जगाने लगे; किंतु वे न जगे। तब उन्हें मरा हुआ जान रानी कौशल्या 'हाय! मैं मारी गयी' कहकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। फिर तो समस्त नर-नारी फूट-फूटकर रोने लगे।

चित्रकूट में भरत की राम से भेंट

महर्षि वसिष्ठ ने राजा दशरथ के शव को तेल भरी नौका में रखवा कर भरत को उनके ननिहाल से तत्काल बुलवाया। भरत और शत्रुघ्न अपने मामा के राजमहल से निकलकर सुमन्त्र आदि के साथ शीघ्र ही अयोध्या पुरी में आये। यहाँ का समाचार जानकर भरत को बड़ा दु:ख हुआ। कैकेयी को शोक करती देख उसकी कठोर शब्दों में निन्दा करते हुए बोले-

"अरी! तूने मेरे माथे कलंक का टीका लगा दिया। मेरे सिर पर अपयश का भारी बोझ लाद दिया।" फिर उन्होंने कौशल्या की प्रशंसा करके तैलपूर्ण नौका में रखे हुए पिता के शव का सरयू तट पर अंत्येष्टि संस्कार किया। तदनन्तर वसिष्ठ आदि गुरुजनों ने कहा- "भरत! अब राज्य ग्रहण करो।" भरत बोले- "मैं तो श्री रामचन्द्र को ही राजा मानता हूँ। अब उन्हें यहाँ लाने के लिये वन में जाता हूँ।" ऐसा कहकर वे वहाँ से दल-बल सहित चल दिये और श्रृंगवेरपुर होते हुए प्रयाग पहुँचे। वहाँ महर्षि भारद्वाज को नमस्कार करके वे प्रयाग से चले और चित्रकूट में श्रीराम एवं लक्ष्मण के समीप आ पहुँचे। वहाँ भरत ने श्रीराम से कहा- "रघुनाथ जी! हमारे पिता महाराज दशरथ स्वर्गवासी हो गये। अब आप अयोध्या में चलकर राज्य ग्रहण करें। मैं आपकी आज्ञा का पालन करते हुए वन में जाऊँगा।"

यह सुनकर श्रीराम ने पिता का तर्पण किया और भरत से कहा- "तुम मेरी चरण पादुका लेकर अयोध्या लौट जाओ। मैं राज्य करने के लिये नहीं चलूँगा। पिता के सत्य की रक्षा के लिये चीर एवं जटा धारण करके वन में ही रहूँगा।" श्रीराम के ऐसा कहने पर सदल-बल भरत लौट गये और अयोध्या छोड़कर नन्दिग्राम में रहने लगे। वहाँ भगवान की चरण-पादुकाओं की पूजा करते हुए वे राज्य का भली-भाँति पालन करने लगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बृहद्धर्मपुराण-पूर्वखण्ड 26.10
  2. वाल्मीकीय रामायण, बालकाण्ड 7/3 में इन मन्त्रियों के नाम इस प्रकार आये हैं- धृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल तथा सुमन्त्र।

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