प्रजा के हित के लिए शिल्पियों और व्यापारियों पर सरकार का नियंत्रण था। व्यापारियों को आदेश था कि पुराना माल संस्थाध्यक्ष की आज्ञा के बिना न तो बेचा जा सकता था और न ही बंधक रखा जा सकता था। माप और तोल का प्रति चौथे महीने राज्य कर्मचारियों के द्वारा निरीक्षण होता था। कम तौलने वाले को दंड दिया जाता था। लाभ की दर निश्चित थी। देशज वस्तुओं पर 4 प्रतिशत और आयात वस्तुओं पर 10 प्रतिशत बिक्री कर लिया जाता था। मेगस्थनीज़ के अनुसार बिक्री कर न देने वाले के लिए मृत्युदंड था।
प्रजा के हित के लिए शिल्पियों और व्यापारियों पर सरकार का नियंत्रण था। व्यापारियों को आदेश था कि पुराना माल संस्थाध्यक्ष की आज्ञा के बिना न तो बेचा जा सकता था और न ही बंधक रखा जा सकता था। माप और तोल का प्रति चौथे महीने राज्य कर्मचारियों के द्वारा निरीक्षण होता था। कम तौलने वाले को दंड दिया जाता था। लाभ की दर निश्चित थी। देशज वस्तुओं पर 4 प्रतिशत और आयात वस्तुओं पर 10 प्रतिशत बिक्री कर लिया जाता था। मेगस्थनीज़ के अनुसार बिक्री कर न देने वाले के लिए मृत्युदंड था।
==मौर्ययुगीन पुरातात्विक संस्कृति==
मौर्ययुगीन पुरातात्विक संस्कृति में उत्तरी काली पॉलिश के मृदभांडों की जिस संस्कृति का प्रादुर्भाव महात्मा [[बुद्ध]] के काल में हुआ था, वह मौर्य युग में अपनी चरम सीमा पर दृष्टिगोचर होती है। इस संस्कृति का विवरण उत्तर, उत्तर पश्चिम, पूर्व एवं दक्कन के विहंगम क्षेत्र में इसका प्रसार हो चुका था। उत्तर पश्चिम में [[कंधार]], [[तक्षशिला]], [[उदेग्राम]] आदि स्थलों से लेकर पूर्व में चंद्रकेतुगढ़ तक, उत्तर में [[रोपड़]], [[हस्तिनापुर]], तिलौराकोट एवं [[श्रावस्ती]] से लेकर दक्षिण में ब्रह्मपुरी, छब्रोली आदि तक इस संस्कृति के अवशेष मिलते हैं। [[पालि भाषा|पालि]] एवं [[संस्कृत]] ग्रंथों में [[कौशांबी]], श्रावस्ती, [[अयोध्या]], [[कपिलवस्तु]], [[वाराणसी]], [[वैशाली]], [[राजगीर]], [[पाटलिपुत्र]] आदि जिन नगरों का उल्लेख मिलता है, वे सभी मौर्य युग में पर्याप्त पल्लवित अवस्था में थे। अनेक शहर तो प्रशासन के केन्द्र थे। किन्तु इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि ऐसे अनेक नगर थे, जो प्रसिद्ध व्यापार मार्गों पर स्थित थे। भारतीय इतिहास में शहरीकरण का जो दूसरा चरण बुद्ध युग से आरम्भ हुआ, उसके पल्लवीकरण में मौर्ययुगीन व्यापारियों एवं शिल्पियों ने विशेष योगदान दिया। यद्यपि उत्तरी काली पॉलिश के मृदभांडों की संस्कृति से सम्बन्धित बहुत से ग्रामीण स्थलों का उत्खनन नहीं हो पाया है, किन्तु मध्य गंगा घाटी में विभिन्न शिल्प विधाओं, व्यापार एवं शहरीकरण एक सुदृढ़ ग्रामीण आधार के बिना अकल्पनीय है।
पुरातात्विक संस्कृति का एक अन्य अभिन्न अंग लोहे का निरन्तर बढ़ता हुआ प्रयोग है। इस संस्कृति के सभी महत्वपूर्ण स्थलों से इसके प्रमाण मिले हैं। इसी काल की सतहों से छेददार कुल्हाड़ियाँ, दरातियाँ और सम्भवतः हल की फ़ालें भारी संख्या में प्राप्त हुई हैं। यद्यपि अस्त्र शस्त्र के क्षेत्र में मौर्य राज्य का एकाधिकार था किन्तु लोहे के अन्य औज़ारों का प्रयोग किसी वर्ग विशेष तक सीमित नहीं था। कौटिल्य ने मुद्रा प्रणाली के विस्तृत प्रचलन का जो विहंगम दृश्य प्रस्तुत किया है। उसकी पुष्टि आहत मुद्राओं के अखिल भारतीय वितरण से होती है। ऐतिहासिक काल में पक्की ईटों और मंडल कूपों (Ring Wells) का प्रयोग भी सबसे पहले इसी सांस्कृतिक चरण में दृष्टिगोचर होता है। इन दो विशेषताओं के कारण मकान आदि का निर्माण ने केवल अधिक स्थायी रूप से सम्भव हुआ, अपितु नदी तट पर ही बस्तियों की स्थापना की प्राचीन में भी परिवर्तन सम्भव हो सका। मंडल कूपों के फलस्वरूप जलप्रदाय की समस्या को सुलझाने में काफ़ी सहायता मिली। तंग बस्तियों में वे सोख्तों या शोषगर्तों (Soakage pits) का काम करते थे।
मध्य गंगा घाटी की भौतिक संस्कृति के उपर्युक्त तत्व उत्तरी बंगाल, [[कलिंग]], [[आंध्र प्रदेश|आंध्र]] एवं [[कर्नाटक]] तक पहुँच गए। बाँगला देश के बोगरा ज़िले के महास्थान स्थल से मौर्ययुगीन [[ब्राह्मी लिपि]] का एक अभिलेख मिला था और इसी प्रदेश में 'दीनाजपुर ज़िले' में 'बानगढ़' से उत्तरी काली पॉलिश के मृदभांड भी प्राप्त हुए हैं। [[उड़ीसा]] में शिशुपालगढ़ के उत्खनन भी इसी दृष्टिकोण से उल्लेखनीय हैं। यह स्थल भारत के पूर्वी तट के सहारे सहारे प्राचीन राजमार्ग पर स्थित 'धौलि' एवं 'जौगड़' नामक अशोक अभिलेख स्थलों के पास ही है। इन क्षेत्रों में उपर्युक्त भौतिक संस्कृति के तत्वों का प्रस्फुटीककरण मौर्ययुगीन [[मगध]] के सम्पर्क के कारण ही हुआ होगा। यद्यपि आंध्र एवं कर्नाटक क्षेत्रों में मौर्ययुग में हम लोहे के हथियार एवं उपकरण पाते हैं किन्तु वहाँ पर लोहे के आगमन का श्रेय महापाषाण संस्कृति के निर्माताओं को है। फिर भी इन क्षेत्रों में कुछ स्थलों से न केवल अशोक के अभिलेख मिले हैं, अपितु ई0 पू0 तृतीय शताब्दी में उत्तरी क्षेत्र में काली पॉलिश वाले मृदभांड भी प्राप्त हुए हैं। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्वी तट के बाद उपर्युक्त सांस्कृतिक तत्व मौर्य सम्पर्क के कारण दक्कनी पठार तक पहुँच गए।
*मेंगस्थनीज़ ने लिखा है कि सभी भारतवासी समान हैं और उनमें कोई दास नहीं है।
*डायोडोरस ने लिखा है, "क़ानून के अनुसार उनमें से कोई भी किसी भी परिस्थिति में दास नहीं हो सकता।"
*मेगस्थनीज़ को ही उद्धृत करते हुए स्ट्राबों का कहना है, "भारतीयों में किसी ने अपनी सेवा में दास नहीं रखे।"
*एक अन्य स्थल पर स्ट्राबो ने कहा, "चूँकि उनके पास दास नहीं हैं, अतः उन्हें बच्चों की अधिक आवश्यकता होती है।
विदेशी शक्तियों के वक्तव्यों का शब्दशः स्वीकार नहीं किया जा सकता। क्योकि कम से कम [[बुद्ध]] के काल से ही दासों को उत्पादन के काम में लगाया जाता था और पालि [[त्रिपिटक]] में इसके असंख्य उल्लेख हैं। अतः उपर्युक्त विवरणों की व्याख्या विभिन्न प्रकार से की जा सकती है। हो सकता है कि मेगस्थनीज़ को भारत में दासों के प्रति स्वामियों के द्वारा व्यवहार निर्मल और सदभावनापूर्ण लगा हो अथवा यह भी सम्भव है कि उसने किसी विशेष क्षेत्र का ही उल्लेख किया हो। एक स्थान पर तो [[कौटिल्य]] ने लिखा है कि '''न त्वेवार्यस्य दासावः''', अर्थात '''किसी भी परिस्थिति में आर्य के लिए दासता नहीं होगी।''' इस संदर्भ में मेगस्थनीज़ के कथन का यह अर्थ हो सकता है कि स्वतंत्र लोगों को आजीवन दासता में परिणत करने की सीमाएँ थीं।
==दास प्रथा==
मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था में दासों का महत्वपूर्ण योगदान था। त्रिपिटक की तुलना में कौटिल्य ने कहीं अधिक विस्तार से दासों का वर्गीकरण किया है। जहाँ त्रिपिटक में दासों के चार प्रकार बताए गए हैं, कौटिल्य ने नौ का उल्लेख किया है।<ref>उदर—दास, दण्ड—प्रणीत, गृहे—जात, ध्वजाहत, दायागत, लब्ध, क्रीत, आत्म—विक्रिय एवं आहितक।</ref> और फिर 'दास कल्प' नामक खण्ड में दिए गए नियम उस तीसरे अध्याय के अंग हैं, जिसमें क़ानूनी मामलों की चर्चा है। इसका अर्थ हुआ कि कौटिल्य ने दास प्रथा की क़ानूनी वैधता को स्वीकार किया था। बौद्ध ग्रंथों एवं कौटिल्य अर्थशास्त्र में उत्पत्ति एवं कार्यों के आधार पर किए गए दासों के वर्गीकरण से स्पष्ट है कि वे सम्पत्ति का एक रूप थे। यह एक रोचक तथ्य है कि इन कृतियों में पाई जाने वाली दास सम्बन्धी परिभाषाएँ एवं व्याख्याएँ उस अंतर की ओर इंगित नहीं करती जो वैदिक काल में दास एवं [[आर्य]] में था। सांस्कृतिक एवं नृजातीय विभिन्नताओं को आधार नहीं माना गया है। अब दास प्रथा केवल आर्थिक कारणों से सम्बन्धित थी।
केन्द्रीय राजतांत्रिक व्यवस्था पर आधारित मौर्य साम्राज्य की स्थापना से दास प्रथा में अन्य रूपांतरण भी हुए। अभियान करके ज़बरदस्ती लोगों का अपहरण करने की नीति पर कौटिल्य द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों का निर्वचन इसी प्रकार किया जा सकता है। देश की राजनीतिक एकता के पश्चात इस प्रकार के अभियानों का अर्थ गौण हो गया। किन्तु दूसरी ओर इस राजनीतिक एकीकरण ने एक ऐसी प्रक्रिया को जन्म दिया, जो देश के आर्थिक एकीकरण तथा साम्राज्य के कोने कोने में व्यापार के विकास को न केवल बना रही थी अपितु प्रोत्साहित भी कर रही थी। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप नगरों का उदय हुआ और व्यापारियों का प्रभाव बढ़ा। सेट्ठियों के स्वार्थ हित न केवल नगरों में थे अपितु ग्रामीण क्षेत्रों से भी जुड़े थे। वे भू स्वामी थे और कभी कभी तो सम्पूर्ण गाँव उनके अधीन होते थे। इन भूमियों पर उनके दास काम करते थे अथवा उन्हें किराए पर उठा लिया जाता था। यह काफ़ी तर्कसंगत लगता है कि दास श्रम के द्वारा भूमि कर्षण का यह तरीक़ा पर्याप्त सामान्य बात हो गयी थी। मौर्यों ने इसको समाप्त करने का प्रयास नहीं किया। अशोक के काल में कलिंग के युद्ध के पश्चात सहस्रों बंदियों की प्राप्ति हुई और यह असम्भव नहीं लगता कि उनमें से कुछ तो मगध के बाज़ारों तक पहुँचे हों और कुछ को उन उत्पादक गतिविधियों में लगाया गया हो, जिनके माध्यम से मध्य गंगा घाटी की संस्कृति के तत्वों का प्रसार दूरस्थ कबायली क्षेत्रों में किया गया। कौटिल्य के विवरणों से यह भी स्पष्ट है कि राज्य की भूमि पर कृषि कार्य में, ख़ादानों में, कारखानों में, सुरक्षा प्रबंधों में भी दासों एवं दासियों का प्रयोग किया जाता था।
मौर्य साम्राज्य में जिस विस्तृत नौकरशाही के प्रमाण उपलब्ध हैं, उसको बनाए रखने के लिए राज्य को पर्याप्त धन की आवश्यकता होती होगी। चूँकि यह भी स्पष्ट है कि अधिकारियों को वेतन नक़द दिया जाता था, अतः यह अत्यन्त आवश्यक था कि राज्य प्रत्येक सम्भव स्रोत से धनार्जन करें। एक ओर जहाँ विकासशील कृषि एवं व्यापार के क्षेत्र से राज्य की आय बढ़ाना स्वाभाविक था, वहाँ दूसरी ओर हम यह भी देखते हैं कि जुआघरों, मद्यपान की दुकानों, वेश्याघरों, आदि को भी आय का स्रोत बनाने में हिचक महसूस नहीं की गयी। वेश्याघरों के पनपने में तो राज्यों ने पूँजी निवेश भी किया। गणिकाओं के प्रशिक्षण ओर उन्हें ललित कलाओं में निपुण बनाने में राज्य का जो व्यय होता था, उसके कारण वे गणिकाएँ पूर्ण रूप से राज्य के नियंत्रण में थी। उनकी आमदनी एवं सम्पत्ति पर राज्य का अधिकार था। उनकी मुक्ति तभी सम्भव थी, जब कि उन पर किए खर्च का 24 गुना धन दिया जाए। इस प्रावधान की पूर्ति लगभग असम्भव ही थी। अतः वे गणिकाएँ दासी तुल्य ही थीं। हालाँकि उनको सभी प्रकार के कामों में नहीं लगाया जा सकता था। उच्च सामाजिक वर्ग की सेवा करने वाली गणिका के अतिरिक्त, राज्य के पास वेश्याओं का ऐसा समूह भी था जो बंधकी—पोषकों के अधीन था और जिनके माध्यम से राज्य को काफ़ी आय होती थी। घरों में भी दास अनेक कार्य करते थे।
दास प्रथा से सम्बन्धित कौटिल्य के विवरण का एक महत्वपूर्ण अंग आहितकों का वर्णन है। कौटिल्य ने आजीवन दासों एवं किसी काल विशेष के लिए समझौते द्वारा उत्पन्न दासों में अंतर रखा है। दास प्रथा पर आधारित अन्य पुरातन समाजों की भाँति भारत में भी दासों के व्यक्तित्व एवं उसके श्रम का निपटारा करने में स्वामी को असीमित अधिकार प्राप्त थे। एक दास के रूप में जो व्यक्ति किसी अन्य की सम्पत्ति था, वह सभ्य समाज का सदस्य नहीं हो सकता था। उपर्युक्त अभिधारणा तो पूर्ण दासों के लिए ही सही उतरती है, किन्तु दूसरी ओर ऐसे लोग थे, जो अस्थायी रूप से बंधक एवं आश्रित थे। इनको कौटिल्य ने 'आहितक' कहा है। ये लोग एक निश्चित काल के लिए ही सेवा करने के उत्तरदायी होते थे और यह अवधि बीत जाने के बाद एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के अधिकारी थे। कर्मकांडीय अशौच कृत्यों को करने के लिए उन पर कोई दबाव डालने पर प्रतिबंध था। उसे बेचा नहीं जा सकता था और न उसे धारक बनाया जा सकता था। स्वामी की इच्छा के बिना समय पर आने पर वह स्वतंत्र हो जाता था। अर्थशास्त्र के अनुसार सही अर्थों में तो केवल बर्बर, म्लेच्छा ही, जो वर्ण से बाहर थे, तथा अनार्य (यहाँ पर आर्यों में शूद्र सम्मिलत हैं) समाज के सदस्य स्थायी रूप से दास बनाए जा सकते थे। यह निर्धारित करना कठिन है कि इस नियम का पालन वास्तविकता में कितना होता था, किन्तु बंधक रखने की सीमाओं को सीमित करने के प्रयास तथा समुदाय में स्वतंत्र सदस्यों को दास रूप में परिणत करने की सम्भावनाओं को कम करना प्राचीन युग के अनेक समाजों की विशेषता है। कुल मिलाकर अर्थशास्त्र के विवेचन से स्पष्ट होता है कि राज्य किसी प्रकार से दासों के स्तर को नियंत्रित और दास प्रथा की समस्याओं का स्पष्टीकरण करने के लिए इच्छुक था।
==शासन प्रबंध==
मौर्यों के शासनकाल में भारत ने पहली बार राजनीतिक एकता प्राप्त की। 'चक्रवर्ती सम्राट' का आदर्श चरितार्थ हुआ। कौटिल्य ने चक्रवर्ती क्षेत्र को साकार रूप दिया। उसके अनुसार चक्रवर्ती क्षेत्र के अंतर्गत हिमालय से हिन्द महासागर तक सारा भारतवर्ष है। मौर्य युग में राजतंत्र के सिद्धांत की विजय है। इस युग में गण राज्यों का ह्रास होने लगा और शासन सत्ता अत्यधिक केन्द्रित हो गई। साम्राज्य की सीमा पर तथा साम्राज्य के अंदर कुछ अर्ध—स्वतंत्र राज्य थे, जैसे काम्बोज, भोज, पैत्तनिक तथा आटविक राज्य।
मौर्य काल में प्रजा की शक्ति में अत्यधिक वृद्धि हुई। परम्परागत राजशास्त्र सिद्धांत के अनुसार राजा धर्म का रक्षक है, धर्म का प्रतिपादक नहीं। राजशासन की वैधता इस बात पर निर्भर थी कि वह धर्म के अनुकूल हो। किन्तु कौटिल्य ने इस दिशा में एक नया प्रतिमान प्रस्तुत किया। कौटिल्य के अनुसार राजशासन धर्म, व्यवहार और चरित्र (लोकाचार) से ऊपर था। इस प्रकार राजाज्ञा को प्रमुखता दी गई। इस बढ़ती हुई प्रभुसत्ता के कारण ही अशोक के समय राजतंत्र ने पैतृक निरंकुशता का रूप धारण किया। अशोक सारी प्रजा को समान मानता है। उनके ऐहिक और पारलौकिक सुख के लिए स्वंय को उत्तरदायी समझता है और प्रजा को उचित कार्य करने का उपदेश देता है।
चूँकि शासन का केन्द्र बिन्दु राजा था, अतः इतने बड़े साम्राज्य के शासन संचालन के लिए यह आवश्यक था कि राजा उत्साही, स्फूर्तिवान और प्रजा हित के कार्यों के लिए सदा तत्पर हो। चंद्रगुप्त एवं अशोक दोनों मौर्य सम्राटों में ये गुण प्रचुर मात्रा में विद्यमान थे। चंद्रगुप्त की कार्य तत्परता के सम्बन्ध में मेगस्थनीज़ ने लिखा है कि राजा दरबार में बिना व्यवधान के कार्यरत रहता था। कौटिल्य ने कहा है कि जब राजा दरबार में ही बैठा हो तो उसे प्रजा से बाहर प्रतीक्षा नहीं करवानी चाहिए क्योंकि जब राजा प्रजा के लिए दुर्लभ हो जाता है और काम अपने मातहत अधिकारियों के भरोसे छोड़ देता है, तो वह प्रजा में विद्रोह की भावना पैदा करता है और राजा के शत्रुओं के षड़यंत्र का शिकार हो जाने की आशंका पैदा हो जाती है। हम ऊपर वर्णन कर चुके हैं कि अपने छठे शिलालेख में अशोक ने यह विज्ञप्ति जारी की थी कि वह प्रजा के कार्य के लिए प्रतिक्षण और प्रत्येक स्थान पर मिल सकता है और प्रजा की भलाई के लिए कार्य करने में उसे बड़ा संतोष मिलता है।
राजा ही राज्य की नीति निर्धारित करता था और अपने अधिकारियों को राजाज्ञाओं द्वारा समय—समय पर निर्देश दिया करता था। अशोक के शिला तथा स्तंभ लेखों से यह स्पष्ट है कि प्रजा के नाम उसकी राजाज्ञाएँ जारी होती थी। चंद्रगुप्त के समय में गुप्तचरों के माध्यम से दूरस्थ प्रदेशों में शासन कर रहे अधिकारियों पर सम्राट का पूरा नियंत्रण रहता था। अशोक के समय पर्यटक महामात्रों, राजुकों, प्रादेशिकों, पुरुषों तथा अन्य अधिकारियों की सहायता लेते थे। संचार—व्यवस्था के संचालन के लिए सड़कें थीं, सामरिक महत्व की जगहों पर सेना की टुकड़ियाँ तैनात रहा करती थीं। अधिकारियों की नियुक्ति देश की आंतरिक रक्षा और शान्ति, युद्ध संचालन, सेना की नियंत्रण आदि सभी राजा के अधीन था।
कौटिल्य का दृढ़ मत था कि राजस्व (प्रभुता) बिना सहायता से सम्भव नहीं है, अतः राजा को सचिवों की नियुक्ति करनी चाहिए तथा उनसे मंत्रणा लेनी चाहिए। राज्य के सर्वोच्च अधिकारी मंत्री कहलाते थे। इनकी संख्या तीन या चार होती थी। इनका चयन अमात्य वर्ग से होता था (अमात्य शासनतंत्र के उच्च अधिकारियों का वर्ग था)। राजा द्वारा मुख्यमंत्री तथा पुरोहित का चुनाव उनके चरित्र की भलीभाँति जाँच के बाद किया जाता था। इस क्रिया को उपधा परीक्षण कहा गया है (उपधा शुद्धम्)। ये मंत्री एक प्रकार से अंतरंग मंत्रिमंडल के सदस्य थे। राज्य के सभी कार्यों पर इस अंतरंग मंत्रिमंडल में विचार—विमर्श होता था और उनके निर्णय के पश्चात ही कार्यारम्भ होता था।
मंत्रिमंडल के अतिरिक्त एक और मंत्रिपरिषद् भी होती थी। अशोक के शिलालेखों में परिषा का उल्लेख है। राजा बहुमत के निर्णय के अनुसार कार्य करता था। जहाँ तक मंत्रियों तथा मंत्रिपरिषद् के अधिकार का सवाल है, उनका मुख्य कार्य राजा को परामर्श देना था। वे राजा की निरंकुशता पर नियंत्रण रखते थे किन्तु मंत्रियों का प्रभाव बहुत—कुछ उनकी योग्यता तथा कर्सठता पर निर्भर करता था। अशोक के छठे शिलालेख से अनुमान लगता है कि परिषद् राज्य की नीतियों अथवा राजाज्ञाओं पर विचार—विमर्श करती थी और यदि आवश्यक समझती थी तो उनमें संशोधन का सुझाव देती थी। यह राजा के हित में था कि वह मंत्री या परिषद के सदस्यों के परामर्श से लाभ उठाए किन्तु किसी नीति या कार्य के विषय में अन्तिम निर्णय राजा के ही हाथ में था।
शासन कार्य का भार मुख्यतः एक विशाल वर्ग पर था जो साम्राज्य के विभिन्न भागों से शासन का संचालन करते थे। अर्थशास्त्र में सबसे ऊँचे स्तर के कर्मचारियों को 'तीर्थ' कहा गया है। ऐसे अठारह तीर्थों का उल्लेख है, इनमें से कुछ महत्वपूर्ण पदाधिकारी थे—मंत्री, पुरोहित, सेनापति, युवराज, समाहर्ता, सन्निधाता तथा मंत्रिपरिषदाध्यक्ष। तीर्थ शब्द एक—दो स्थानों पर प्रयुक्त हुआ है। अधिकतर स्थलों पर इन्हें महामात्र की संज्ञा दी गई है। सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ या महामात्र मंत्री और पुरोहित थे। राजा इन्हीं के परामर्श से अन्य मंत्रियों तथा अमात्यों की नियुक्ति करता था। राज्य के सभी अधिकरणों पर मंत्री और पुरोहित का नियंत्रण रहता था। सेनापति सेना का प्रधान होता था। ज्येष्ठ पुत्र युवराज पद पर विधिवत अभिषिक्त होता था। शासन कार्य में शिक्षा देने के लिए उसे किसी ज़िम्मेदार पद पर नियुक्त किया जाता था। बिन्दुसार के काल में अशोक मालवा प्रदेश का प्रशासक था और उसे विद्रोहों को दबाने या विजयाभियान के लिए भेजा जाता था।
====<u>राजस्व</u>====
राजस्व एकत्र करना, आय व्यय का ब्यौरा रखना तथा वार्षिक बजट तैयार करना, समाहर्ता के कार्य थे। देहाती क्षेत्र की शासन व्यवस्था भी उसी के अधीन थी। शासन की दृष्टि से देश को छोटी छोटी इकाइयों में विभक्त किया जाता था और अधिकारियों की सहायता से शासन कार्य चलाया जाता था। इन्हीं अधिकारियों की सहायता से वह जनगणना, गाँवों की कृषि योग्य भूमि, लोगों के व्यवसाय, आय व्यय, तथा प्रत्येक परिवार से मिलने वाले कर की मात्रा की जानकारी रखता था। यह जानकारी वार्षिक आय व्यय का बजट तैयार करने के लिए आवश्यक थी। गुप्तचरों के द्वारा वह देशी व विदेशी लोगों की गतिविधियों की पूरी जानकारी रखता था। जो कि सुरक्षा के लिए काफ़ी महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी थी। प्रदेष्ट्रि अथवा प्रादेशिकों, स्थानिकों और गोप की सहायता से वह चोरी, डक़ैती करने वाले अपराधियों को दंडित करता था। इस प्रकार समाहर्ता एक प्रकार से आधुनिक वित्त मंत्री और गृहमंत्री के कर्तव्यों को पूरा करता था।
सन्निधातृ एक प्रकार से कोषाध्यक्ष था। उसका काम था साम्राज्य के विभिन्न प्रदेशों में कोषगृह और कोष्ठागार बनवाना और नक़द तथा अन्न के रूप में प्राप्त होने वाले राजस्व की रक्षा करना।
अर्थशास्त्र के 'अध्यक्ष प्रचार' अध्याय में 26 अध्यक्षों का उल्लेख है। ये विभिन्न विभागों के अध्यक्ष होते थे और मंत्रियों के निरीक्षण में काम करते थे। कतिपय अध्यक्ष इस प्रकार थे—कोषाध्यक्ष, सीताध्यक्ष, पण्याध्यक्ष, मुद्राध्यक्ष, पौतवाध्यक्ष, बन्धनागाराध्यक्ष आदि। इन अध्यक्षों के कार्य—विस्तार के अध्ययन से ज्ञात होता है कि राज्य देश के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन और कार्य—विधि पर पूरा नियंतत्र रखता था। शासन के कई विभागों के अध्यक्ष, मंडल की सहायता से कार्य करते थे। जिनकी ओर मेगस्थनीज़ का ध्यान आकृष्ट हुआ। केन्द्रीय महामात्य (महामात्र) तथा अध्यक्षों के अधीन अनेक निम्न स्तर के कर्मचारी होते थे जिन्हें 'युक्त' और 'उपयुक्त' की संज्ञा दी गई है। अशोक के शिलालेखों में युक्त का उल्लेख है। इन कर्मचारियों के माध्यम से केन्द्र और स्थानीय शासन के बीच सम्पर्क बना रहता था।
केन्द्रीय शासन का एक महत्वपूर्ण विभाग सेना विभाग था। यूनानी लेखकों के अनुसार चंद्रगुप्त के सेना विभाग में 60,000 पैदल, 50,000 अश्व, 9,000 हाथी व 400 रथ की एक स्थायी सेना थी। इसकी देखदेख के लिए पृथक सैन्य विभाग था। इस विभाग का संगठन 6 समितियों के हाथ में था। प्रत्येक समिति में पाँच सदस्य होते थे। समितियाँ सेना के पाँच विभागों की देखदेख करती थी—पैदल, अश्व, हाथी, रथ तथा नौसेना। सेना के यातायात तथा युद्ध सामग्री की व्यवस्था एक समिति करती थी। सेनापति सेना का सर्वोच्च अधिकारी होता था। सीमांतों की रक्षा के लिए मज़बूत दुर्ग थे जहाँ पर सेना अंतपाल की देखरेख में सीमाओं की रक्षा में तत्पर रहती थी।
सम्राट न्याय प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था। मौर्य साम्राज्य में न्याय के लिए अनेक न्यायालय थे। सबसे नीचे ग्राम स्तर पर न्यायालय थे। जहाँ ग्रामणी तथा ग्रामवृद्ध कतिपय मामलों में अपना निर्णय देते थे तथा अपराधियों से ज़ुर्माना वसूल करते थे। ग्राम न्यायालय से ऊपर संग्रहण, द्रोणमुख, स्थानीय और जनपद स्तर के न्यायालय होते थे। इन सबसे ऊपर पाटलिपुत्र का केन्द्रीय न्यायालय था। यूनानी लेखकों ने ऐसे न्यायधीशों की चर्चा की है जो भारत में रहने वाले विदेशियों के मामलों पर विचार करते थे। ग्रामसंघ और राजा के न्यायलय के अतिरिक्त अन्य सभी न्यायलय दो प्रकार के थे—धर्मस्थीय और कंटकशोधन। धर्मस्थीय न्यायालयों का न्याय—निर्णय, धर्मशास्त्र में निपुण तीन धर्मस्थ या व्यावहारिक तथा तीन अमात्य करते थे। इन्हें एक प्रकार से दीवानी अदालतें कह सकते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार धर्मस्थ न्यायालय वे न्यायालय थे, जो व्यक्तियों के पारस्परिक विवाद के सम्बन्ध में निर्णय देते थे। कंटकशोधन न्यायालय के न्यायधीश तीन प्रदेष्ट्रि तथा तीन अमात्य होते थे और राज्य तथा व्यक्ति के बीच विवाद इनके न्याय के विषय थे। इन्हें हम एक तरह से फ़ौज़दारी अदालत कह सकते हैं। किन्तु इन दोनों के बीच भेद इतना स्पष्ट नहीं था। अवश्य ही धर्मस्थीय अदालतों में अधिकांश वाद—विषय विवाह, स्त्रीधन, तलाक़, दाय, घर, खेत, सेतुबंध, जलाशय—सम्बन्धी, ऋण—सम्बन्धी विवाद भृत्य, कर्मकर और स्वामी के बीच विवाद, क्रय—विक्रय सम्बन्धी झगड़े से सम्बन्धित थे। किन्तु चौरी, डाके और लूट के मामले भी धर्मस्थीय अदालत के सामने पेश किए जाते थे। जिसे 'साहस' कहा गया है। इसी प्रकार कुवचन बोलना, मानहानि और मारपीट के मामले भी धर्मस्थीय अदालत के सामने प्रस्तुत किए जाते थे। इन्हें 'वाक् पारुष्य' तथा 'दंड पारुष्य' कहा गया है। किन्तु समाज विरोधी तत्वों को समुचित दंड देने का कार्य मुख्यतः कंटकशोधन न्यायालयों का था। नीलकंठ शास्त्री के अनुसार कंटकशोधन न्यायालय एक नए प्रकार की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बनाए गए थे ताकि एक अत्यन्त संगठित शासन तंत्र के विविध विषयों से सम्बद्ध निर्णयों को कार्यान्वित किया जा सके। वे एक प्रकार के विशेष न्यायालय थे जहाँ अभियोगों पर तुरन्त विचार किया जाता था।
मौर्य शासन प्रबन्ध में गूढ़ पुरुषों (गुप्तचरों) का महत्वपूर्ण स्थान था। इतने विशाल साम्राज्य के सुशासन के लिए यह आवश्यक था कि उनके अमात्यों, मंत्रियों, राजकर्मचारियों और पौरजनपदों पर दृष्टि रखा जाए, उनकी गतिविध और मनोभावनाओं का ज्ञान प्राप्त किया जाए और पड़ोसी राज्यों के विषय में भी सारी जानकारी प्राप्त होती रहे। दो प्रकार के गुप्तचरों का उल्लेख है—संस्था और संचार। संस्था वे गुप्तचर थे जो एक ही स्थान पर संस्थाओं संगठित होकर कापटिकक्षात्र, उदास्थित, गृहपतिक, वैदेहक (व्यापारी) तापस (सिर मुंडाय या जटाधारी साधु) के वेश में काम करते थे। इन संस्थाओं में संगठित होकर ये राजकर्मचारियों के शौक या भ्रष्टाचार का पता लगाते थे। संचार ऐसे गुप्तचर थे जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते थे। ये अनेक वेशों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर सूचना एकत्रित कर राजाओं तक पहुँचाते थे।
राज्य को कई प्रशासनिक इकाइयों में बाँटा गया था। सबसे बड़ी प्रशासनिक इकाई प्रान्त थी। चंद्रगुप्त के समय इन प्रान्तों की सख्या क्या थी, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। किन्तु अशोक के समय पाँच प्रान्तों का उल्लेख मिलता है-- (1) उत्तरापथ—इसकी राजधानी तक्षशिला थी, (2) अवन्तिराष्ट्र—जिसकी राजधानी उज्जयिनी थी, (3) कलिंगप्रान्त—जिसकी राजधानी तोसली थी, (4) दक्षिणपथ—जिसकी राजधानी सुवर्णगिरि थी, और (5) प्राशी (प्राची, अर्थात् पूर्वी प्रदेश)—इसकी राजधानी पाटलीपुत्र थी। प्राशी अथवा मगध तथा समस्त उत्तरी भारत का शासन पाटलिपुत्र से सम्राट स्वंय करता था। सौराष्ट्र भी चंद्रगुप्त के साम्राज्य का एक प्रान्त था। इतिहासकारों के अनुसार सौराष्ट्र की स्थिति अर्ध—स्वतंत्र प्राप्त की थी और चंद्रगुप्त के समय पुष्यगुप्त तथा अशोक के समय तुषास्फ की स्थिति अर्ध—स्वशासन प्राप्त सामंत की थी। तथापि उसके कार्यकलाप सम्राट के ही अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आते थे।
प्रान्तों का शासन वाइसराय रूपी अधिकारी द्वारा होता था। ये अधिकारी राजवंश के होते थे। अशोक के अभिलेखों में उन्हें "कुमार या आर्यपुत्र" कहा गया है। केन्द्रीय शासन की ही भाँति प्रान्तीय शासन में मंत्रिपरिषद् होती थी। रोमिला थापर का सुझाव है कि प्रान्तीय मंत्रिपरिषद् केन्द्रीय मंत्रिपरिषद् की अपेक्षा अधिक स्तंत्रत थी। दिव्यावदान में कुछ उद्धरणों से उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि प्रान्तीय मंत्रिपरिषद् का सम्राट से सीधा सम्पर्क था। अशोक के शिलालेखों से भी यह स्पष्ट है कि समय—समय पर केन्द्र से सम्राट प्रान्तों की राजधानियों में महामात्रों को निरीक्षण करने के लिए भेजता था। साम्राज्य के अंतर्गत कुछ—कुछ अर्धस्वशासित प्रदेश थे। यहाँ स्थानीय राजाओं को मान्यता दी जाती थी किन्तु अन्तपालों द्वारा उनकी गतिविधि पर पूरा नियंत्रण रहता था। अशोक के अन्य महामात्र इन अर्धस्वशासित राज्यों में धम्म महामात्रों द्वारा धर्म प्रचार करवाते थे। इसका मुख्य उद्देश्य उनके उद्दंड क्रिया—कलापों को नियंत्रित करना था।
प्रान्त ज़िलों में विभक्त थे, जिन्हें 'आहार' या 'विषय' कहते थे और जो सम्भवतः विषयपति के अधीन था। ज़िले का शासक स्थानिक होता था और स्थानिक के अधीन गोप होते थे जो पूरे 10 गाँवो के ऊपर शासन करते थे। स्थानिक समाहर्ता के अधीन भी थे। समाहर्ता के अधीन एक और अधिकारी शासन कार्य चलाता था जिसे 'प्रदेष्ट्र' कहा गया है। वह स्थानिक गोप और ग्राम अधिकारियों के कार्यो की जाँच करता था। इन प्रदेष्ट्रियों को अशोक के प्रादेशिकों के समरूप माना गया है।
मेगस्थनीज़ ने नगर शासन का विस्तृत वर्णन दिया है। नगर का शासन प्रबन्ध 30 सदस्यों का एक मंण्डल करता था। मण्डल समितियों मे विभक्त था। प्रत्येक समिति के पाँच सदस्य होते थे। पहली समिति उद्योग शिल्पों का निरीक्षण करती थी। दूसरी समिति विदेशियों की देखरेख करती थी। इसका कर्तव्य था, विदेशियों के आवास का उचित प्रबन्ध करना तथा बीमार पड़ने पर उनकी चिकित्सा का उचित प्रबन्ध करना। उसकी सुरक्षा का भार भी इसी समिति पर था। विदेशियों की मृत्यु होने पर उनकी अंत्येष्टि क्रियाओं तथा उनकी सम्पत्ति उचित उत्तराधिकारियों के सुपुर्द करने का कार्य भी यही समिति करती थी। यह देखरेख के माध्यम से विदेशियों की गतिविधियों पर नज़र भी रखती थी। तीसरी समिति जन्म—मरण का हिसाब रखती थी। जन्म—मरण का ब्यौरा केवल करों का अनुमान लगाने के लिए ही नहीं बल्कि इसलिए भी रखा जाता था कि सरकार को पता रहे कि मृत्यु क्यों और किस प्रकार हुई। राज्य की दृष्टि से यह जानकारी आवश्यक थी। चौथी समिति व्यापार और वाणिज्य की देखरेख करती थी। माप—तौल की जाँच, वस्तु विक्रय की व्यवस्था करना और यह देखना कि प्रत्येक व्यापारी एक से अधिक वस्तु का विक्रय न करे। एक से अधिक वस्तु का विक्रय करने वाले को अतिरिक्त शुल्क देना पड़ता था। पाँचवीं समिति निर्मित वस्तुओं के विक्रय का निरीक्षण करती थी और इस बात का ध्यान रखती थी कि नई और पुरानी वस्तु को मिलाकर तो नहीं बेचा जा रहा। इस नियम का उल्लघंन करने वालों को सज़ा दी जाती थी। नई—पुरानी वस्तुओं को मिलाकर बेचना क़ानून के विरुद्ध था। छठी उपसमिति का कार्य बिक्रीकर वसूल करना था। विक्रय मूल्य का दसवाँ भाग कर के रूप में वसूल किया जाता था। इस कर से बचने वाले को मृत्युदंड दिया जाता था।
मौर्य साम्राज्य जैसे विस्तृत साम्राज्य के संचालन के लिए धन की आवश्यकता रही होगी—इसमें तो सन्देह हो ही नहीं सकता। वास्तव में इस युग में पहली बार राजस्व प्रणाली की रूपरेखा तैयार की गई और उसके पर्याप्त विवरण कौटिल्य ने भी दिए हैं। राज्य की आय का प्रमुख स्रोतों के कुछ विवरण ऊपर भी दिए जा चुके हैं। उनके अतिरिक्त अनेक व्यवसाय ऐसे थे, जिन पर राज्य का पूर्ण आधिपत्य था और जिसका संचालन राज्य के द्वारा किया जाता था। इनमें ख़ान, जंगल, नमक और अस्त्र—शस्त्र के व्यवसाय प्रमुख थे। राजा का यह दायित्व था कि वह कुशल कर्मकारों का प्रबन्ध कर ख़ानों का पता लगए, ख़ानों से खनिज पदार्थ निकालकर उन्हें कर्मान्तों या कारख़ानों में भिजवाए और जब वस्तुएँ तैयार हो जाएँ तो उनकी बिक्री का प्रबन्ध करे। कौटिल्य ने दो प्रकार की ख़ानों का उल्लेख किया है—स्थल ख़ानें और जल ख़ानें। स्थल ख़ानों से सोना, चाँदी, लोहा, ताँबा, नमक आदि प्राप्त किए जाते थे और जल ख़ानों से मुक्ता, शुक्ति, शंख आदि। इन ख़ानों से राज्य को पर्याप्त आय होती थी। जंगल राज्य की सम्पत्ति होते थे। जंगल के पदार्थों को कारख़ानों में भेजकर उनसे विविध प्रकार की पण्य वस्तुएँ तैयार कराई जाती थीं। राज्य को कोष्ठागारों में संचित अन्न से, ख़ानों और जंगलों से प्राप्त द्रव्य से और कर्मान्तों में बनी हुई पण्य वस्तुओं के विक्रय से भी काफ़ी आय होती थी। मुद्रा—पद्धति से भी आय होती थी। मुद्रा संचालन का अधिकार राज्य को था। लक्षणाध्यक्ष सिक्के जारी करता था और जब लोग सिक्के बनवाते तो उन्हें राज्य का लगभग 13.50 प्रतिशत ब्याज रुपिका और परीक्षण के रूप में देना पड़ता था। विविध प्रकार के दंडों से तथा सम्पत्ति की ज़ब्ती से भी राज्य की आमदनी होती थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अनेक ऐसी परिस्थितियों का निरूपण किया गया है, जिनसे राज्य सम्पत्ति ज़ब्त कर लेता था। संकट के काल में राज्य अनेक अनुचित उपायों से भी धन संचय करता था, जैसे अदर्भुत प्रदर्शन और मेलों को संगठित करना। पंतजलि के अनुसार मौर्य काल में धन के लिए देवताओं की प्रतिमाएँ बनाकर बेची जाती थीं। इस प्रकार मौर्य शासन काल में राज्य की आय के सभी साधनों को जुटाया गया।
राजकीय व्यय को विभिन्न वर्गों में रखा जा सकता है—जैसे 1. राजा और राज्य परिवार का भरण—पोषण, 2. राज्य कर्मचारियों के वेतन। राज्य की आय का बड़ा भाग वेतन देने पर खर्च होता था। सबसे अधिक वेतन 48,000 पण मंत्रियों का था और सबसे कम वेतन 60 पण था। आचार्य, पुरोहित और क्षत्रियों को वह देह भूमि दान में दी जाती थी जो कर मुक्त होती थी। ख़ान, जंगल, राजकीय भूमि पर कृषि आदि के विकास के लिए राज्य की ओर से धन व्यय किया जाता था। सेना पर काफ़ी धन व्यय किया जाता था। अर्थशास्त्र के अनुसार प्रशिक्षित पदाति का वेतन 500 पण, रथिक का 200 पण और आरोहिक (हाथी और घोड़े पर चढ़कर युद्ध करने वाले) का वेतन 500 से 1000 पण वार्षिक रखा गया था। इससे अनुमान लग सकता है कि सेना पर कितना खर्च होता था। उच्च सेनाधिकारियों का वेतन 48,000 पण से लेकर 12,000 पण वार्षिक तक था।
यद्यपि मौर्य साम्राज्य में सैनिकों पर अत्यधिक खर्च किया जाता था, तथापि यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि इस शासन—व्यवस्था में कल्याणकारी राज्य की कई विशेषताएँ पाई जाती हैं, जैसे राजमार्गों के निर्माण, सिंचाई का प्रबन्ध, पेय जल की व्यवस्था, सड़कों के किनारे छायादार वृक्षों का लगाना, मनुष्य और पशुओं के लिए चिकित्सालय, मृत सैनिकों तथा राज कर्मचारियों के परिवारों के भरण—पोषण, कृपण—दीन—अनाथों का भरण—पौषण आदि। इन सब कार्यों पर भी राज्य का व्यय होता था। अशोक के समय इन परोपकारी कार्यों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई।
==धर्म==
वैदिक धर्म और गृह कृत्य प्रधान थे। मेगस्थनीज़ के अनुसार ब्राह्मणों का समाज में प्रधान स्थान था। दार्शनिक यद्यपि संख्या में कम थे किन्तु वे सबसे श्रेष्ठ समझे जाते थे और यज्ञ—कार्य में लगाए जाते थे। कौटिल्य के अनुसार त्रयी (अर्थात् तीन वेदों) के अनुसार आचरण करते हुए संसार सुखी रहेगा और अवसाद को प्राप्त नहीं होगा। तदनुसार राजकुमार के लिए चोलकर्म, उपनयन, गोदान, इत्यादि वैदिक संस्कार निर्दिष्ट किए गए हैं। ऋत्विक, आचार्य और पुरोहित को राज्य से नियत वार्षिक वेतन मिलता था। वैदिक ग्रंथों और कर्मकाण्ड का उल्लेख प्रायः तत्कालीन बौद्ध ग्रंथों में मिलता है। कुछ ब्राह्मणों को जो वेदों में निष्णात थे, वेदों की शिक्षा देते थे तथा बड़े—बड़े यज्ञ करते थे, पालि—ग्रंथों में 'ब्राह्मणनिस्साल' कहा गया है। वे अश्वमेघ, वाजपेय इत्यादि यज्ञ करते थे। ऐसे ब्राह्मणों को राज्य से कर—मुक्त भूमि दान में मिलती थी। अर्थशास्त्र में ऐसी भूमि को 'ब्रह्मदेय' कहा गया है और इन यज्ञों की इसलिए निंदा की गई है कि इनमें गौ और बैल का वध होता था, जो कृषि की दृष्टि से उपयोगी थे।
किन्तु कर्मकाण्ड प्रधान वैदिक धर्म अभिजात ब्राह्मण तथा क्षत्रियों तक ही सीमित था। उपनिषदों का अध्यात्म—जीवन, चिन्तन तथा मनन का आदर् ख़त्म नहीं हुआ था। सुत्त निपात में ऐसे ऋषियों का उल्लेख है जो पंचेन्द्रिय सुख को त्यागकर इद्रियसंयम रखते थे। विद्या और पवित्रता ही इसका धन था। वे भिक्षा में मिलने वाले व्रीहि से यज्ञ करते थे। यूनानी लेखकों ने भी इन वानप्रस्थियों का उल्लेख किया है। इन लेखकों के अनुसार ये वानप्रस्थाश्रम में रहने वाले ब्राह्मण कुटियों में निवास करते थे। वहाँ संयम का जीवन—व्यतीत करते हुए विद्याध्ययन और मनन करते थे। वे अपना समय गहन प्रवचनों को सुनने और विद्या दान में बिताते थे। मेगस्थनीज़ ने मंडनि कौर सिकन्दर के बीच वार्तालाप का जो वृतान्त दिया है, उससे मौर्यकालीन ब्राह्मण ऋषियों की जीवनचर्या पर प्रकाश पड़ता है।
वैदिक धर्म के अतिरिक्त एक अन्य प्रकार के धार्मिक जीवन का चित्र भी मिलता है जिसकी मुख्य विशेषता विभिन्न देवताओं की पूजा थी। ब्रह्मा, इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर, शिव, कार्तिकेय, संकर्षण, जयंत, अपराजित, इत्यादि देवताओं का उल्लेख है। इनमें से बहुत से देवताओं के मन्दिर थे। स्थानीय तथा कुल देवताओं के मन्दिर भी होते थे। इन देवताओं की पूजा पुष्प तथा सुगन्धित पदार्थों से होती थी। नमस्कार, प्रणतिपात या उपहार से देवताओं को संतुष्ट किया जाता था। इन मन्दिरों में मेले और उत्सव होते थे। यह जन—साधारण का धर्म था। देवताओं की पूजा के साथ भूत—प्रेत तथा राक्षसों के अस्तित्व में उनका विश्वास था। इन्हें अभिचार विद्या में कुशल व्यक्तियों की सहायता से संतुष्ट किया जाता था। इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार के जादू—टोनों का भी प्रयोग किया जाता था। अक्षय धन, राजकृपा, लम्बी आयु, शत्रु का नाश आदि उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए अनेक अभिचार क्रियाएँ की जाती थीं। चैत्यवृक्षों तथा नागपूजा का प्रचलन जन—साधारण में था। अशोक ने भी अपने नवें शिलालेख में लोगों द्वारा किए जाने वाले मांगलिक कार्यों का उल्लेख किया है। ये मांगलिक कार्य बीमारी के समय, विवाह, पुत्रोत्पत्ति तथा यात्रा के अवसर पर किए जाते थे।
अशोक ने अपने शिलालेखों में ब्राह्मणों, निर्ग्रन्थों के साथ—साथ आजीवकों का भी उल्लेख किया है। राज्याभिषेक के 12वें वर्ष में अशोक ने बाराबर की पहाड़ियों में उन्हें दो गुफ़ाएँ प्रदान कीं। सम्पूर्ण मौर्य काल में आजीवकों का प्रभाव बना रहा। अशोक के पौत्र दशरथ ने भी नागार्जुनी की पहाड़ियों में कुछ गुफ़ाएँ आजीवकों को भेंट कीं।
मौर्य साम्राज्य की सामाजिक आर्थिक, शासन प्रबंन्ध तथा धर्म और कला सम्बन्धी जानकारी के लिए कौटिल्य का अर्थशास्त्र, मैगस्थनीज़ कृत इंडिका तथा अशोक के अभिलेखों का ठीक से अर्थ लगाया जाए तो पता चलेगा कि वे एक दूसरे के पूरक हैं। रुद्रदामन के जूनागढ़ शिलालेख से भी प्रान्तीय शासन के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। मौर्य काल की जानकारी के लिए अर्थशास्त्र की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। परम्परागत धारणा के आधार पर इसे चंद्रगुप्त मौर्य के मंत्री चाणक्य (विष्णुगुप्त) द्वारा रचित मानकर ई0 पू0 चौथी शताब्दी का बताया जाता है। किन्तु वैज्ञानिक ढंग से किए गए आधुनिक शोध ने इस मत के प्रति आशंका व्यक्त की है। इस संदर्भ में ट्रांटमैन के शोधकार्य का उल्लेख अनुचित न होगा। अर्थशास्त्र की शैली के सांख्यकीय विश्लेषण द्वारा उन्होंने स्पष्ट किया है कि इसकी रचना एक युग विशेष में नहीं अपितु विभिन्न शताब्दियों में हुई और इसीलिए यह किसी व्यक्ति विशेष की रचना न होकर विभिन्न हाथों की कृति है। जहाँ कुछ अध्याय मौर्य काल के हैं वहाँ अधिकांश अध्याय ऐसे भी हैं जो तीसरी, चौथी शताब्दी ईस्वी में रचे गए।
मौर्यकालीन समाज
पूर्ववर्ती धर्मशास्त्रों की भाँति कौटिल्य ने भी वर्णाश्रम व्यवस्था को सामाजिक संगठन का आधार माना है। उसके अनुसार वर्णाश्रम व्यवस्था की रक्षा करना राजा का कर्तव्य है। धर्मशास्त्रों के अनुसार कौटिल्य ने भी चारों वर्णों के व्यवसाय निर्धारित किए। किन्तु शूद्र को शिल्पकला और सेवावृत्ति के अतिरिक्त कृषि, पशुपालन और वाणिज्य से आजीविका चलाने की अनुमति दी है। इन्हें सम्मिलित रूप में "वार्ता" कहा गया है। निश्चित है कि इस व्यवस्था से शूद्र के आर्थिक सुधार का प्रभाव उसकी सामाजिक स्थिति पर भी पड़ा होगा। कौटिल्य द्वारा निर्धारित शूद्रों के व्यवसाय वास्तविकता के अधिक निकट है। वैश्यों के सहायक के रूप में अथवा स्वतंत्र रूप से शूद्र भी कृषि, पशुपालन तथा व्यापार किया करते थे। अर्थशास्त्र में एक और परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है और वह यह कि शूद्र को आर्य कहा गया है तथा उसे म्लेच्छ से भिन्न माना गया है। कहा गया है कि आर्य शूद्र को दास नहीं बनाया जा सकता, यद्यपि म्लेच्छों में संतान को दास रूप में बेचना या ख़रीदना दोष नहीं है।
समाज में ब्राह्मणों का विशिष्ट स्थान था, किन्तु मनु तथा पूर्वगामी धर्मसूत्रों की भाँति इस तथ्य को बार बार दुहराने का प्रयास अर्थशास्त्र में नहीं किया गया है। यह बात अस्वीकार नहीं की जा सकती कि ब्राह्मण, समाज का बौद्धिक और धार्मिक नेतृत्व करते थे, वे ही शिक्षक तथा पुरोहित होते थे। ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ करवाए जाने का उल्लेख मेगस्थनीज़ ने भी किया है। राजा के पुरोहित और क़ानून मंत्री अधिकांश इसी वर्ग से नियुक्त किए जाते थे। उन्हें आर्थिक और क़ानून सम्बन्धी विशेष अधिकार प्राप्त थे। राजा के शिक्षकों, यज्ञ कराने वाले पुरोहित (आचार्य) तथा वेदपाठी ब्राह्मणों को भूमि दान में दी जाती थी। यह भूमि 'ब्रह्मदेय' कहलाती थी और यह पूर्णतः कर मुक्त थी। ब्राह्मणों की समाज में प्रधानता बहुत पहले से चली आ रही थी और इस व्यवस्था में भी इसका प्रचलन विरोध नहीं किया गया।
ब्राह्मणादि चार वर्णों के अतिरिक्त कौटिल्य ने अनेक वर्णसंकर जातियों का भी उल्लेख किया है। इनकी उत्पत्ति धर्मशास्त्रों की भाँति विभिन्न वर्णों के अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों में बताई गई है। जिन वर्णसंकर जातियों का उल्लेख है वे हैं - अम्बष्ठ निषाद, पारशव, रथकार, क्षत्ता, वेदेहक, मागध, सूत, पुल्लकस, वेण, चंडाल, श्वपाक इत्यादि। इनमें से कुछ आदिवासी जातियाँ थीं। जो निश्चित व्यवसाय से आजीविका चलाती थीं। कौटिल्य ने चांडालों के अतिरिक्त अन्य सभी वर्णसंकर जातियों को शूद्र माना है। इनके अतिरिक्त तंतुवाय (जुलाहे), रजक (धोबी), दर्जी, सुनार, लुहार, बढ़ई आदि व्यवसाय पर आधारित वर्ग, जाति का रूप धारण कर चुके थे। अर्थशास्त्र में इन सबका समावेश शूद्र वर्ण के अंतर्गत किया गया है। अशोक के शिलालेखों में दास और कर्मकर का उल्लेख है। जो शूद्र वर्ग के अंदर ही समाविष्ट किए जाते हैं।
जातिप्रथा की कुछ विशेषताओं की पुष्टि मेगस्थनीज़ की इंडिका से होती है। मेगस्थनीज़ ने लिखा है कि कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकता, न वह अपने व्यवसाय को दूसरी जाति के व्यवसाय में बदल ही सकता है। केवल ब्राह्मणों को ही अपनी विशेष स्थिति के कारण यह अधिकार प्राप्त था। धर्मशास्त्रों में भी ब्राह्मणों को आपातकाल में क्षत्रीय तथा वैश्य का व्यवसाय अपनाने की अनुमति दी गई है।
मेगस्थनीज़ द्वारा भारतीय समाज का वर्गीकरण, भारतीय ग्रंथों में वर्णित वर्गीकरण से भिन्न है। मेगस्थनीज़ ने भारतीय समाज को सात जातियों में विभक्त किया है -
दार्शनिक
किसान
अहीर
कारीगर या शिल्पी
सैनिक
निरीक्षक
सभासद तथा अन्य शासक वर्ग।
मेगस्थनीज़ का यह वर्णन भारतीय वर्णव्यवस्था या जाति व्यवस्था से मेल नहीं खाता। दार्शनिकों की जाति को मेगस्थनीज़ दो श्रेणियों में विभक्त करता है -
ब्राह्मण
श्रमण।
ब्राह्मण 37 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे। ब्राह्मणों की वृत्ति के सम्बन्ध में मेगस्थनीज़ लिखता है कि यज्ञ, अत्येष्टि क्रिया तथा अन्य धार्मिक कृत्य करवाने के बदले में उन्हें बहुमूल्य दक्षिणा मिलती है। श्रमणों को भी दो श्रेणियों में बाँटा गया है। जो वनों में रहते थे और कंद-मूल-फलों पर आजीविका चलाते थे इन्हें वैखानस या वानप्रस्थ आश्रम से सम्बद्ध माना जा सकता है। दूसरी श्रेणी के श्रमण वे थे जो आयुर्वेद में कुशल होते थे और समाज में सम्मानित थे। मेगस्थनीज़ के श्रमण तथा ब्राह्मण, वानप्रस्थाश्रम अथवा संन्यासियों से अधिक मेल खाते हैं, जैन और बौद्ध धर्मों से नहीं। मौर्यकालीन भारतीय समाज का जो सप्तवर्गीय चित्रण मेगस्थनीज ने प्रस्तुत किया है, उसमें जाति, वर्ण और व्यवसाय के अंतर को भुला दिया गया है। सम्भवतः एक विदेशी होने के कारण मेगस्थनीज भारतीय समाज की जटिलताओं को समझने में असमर्थ था।
परिवार में स्त्रियों की स्थिति स्मृतिकाल की अपेक्षा अब अधिक सुरक्षित थी। उन्हें पुनर्विवाह तथा नियोग की अनुमति थी। किन्तु फिर भी मौर्य काल में स्त्रियों की स्थिति को अधिक उन्नत नहीं कहा जा सकता। उन्हें बाहर जाने की स्वतंत्रता नहीं थी और पति की इच्छा के विरुद्ध वे कोई कार्य नहीं कर सकती थीं। संभ्रांत घर कि स्त्रियाँ प्रायः घर के अंदर ही रहती थी। कौटिल्य ने ऐसी स्त्रियों को 'अनिष्कासिनी' कहा है। राजघराने के अंतःपुर का उल्लेख अर्थशास्त्र तथा अशोक के अभिलेखों में है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से सती प्रथा के प्रचलित होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। इस समय के धर्मशास्त्र इस प्रथा के विरुद्ध थे। बौद्ध तथा जैन अनुश्रुतियों में भी इसका उल्लेख नहीं है। किन्तु यूनानी लेखकों ने उत्तर पश्चिम में सैनिकों की स्त्रियों के सती होने का उल्लेख किया है। योद्धा वर्ग की स्त्रियों में सती की यह प्रथा प्रचलित रही होगी।
मौर्य युग में भी बहुत सी स्त्रियाँ ऐसी थीं जो विवाह द्वारा पारिवारिक जीवन न बिताकर 'गणिका' या 'वेश्या' के रूप में जीवन यापन करती थीं। वे अनेक प्रकार से राजा का मनोरंजन करती थीं। स्वतंत्र रूप से वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियाँ 'रूपाजीवा' कहलाती थीं। इनसे राज्य को आय होती थी। इनके कार्यों का निरीक्षण गणिकाध्यक्ष तथा एक राजपुरुष करता था। बहुत सी गणिकाएँ गुप्तचर विभाग में भी काम करती थीं।
नगरों का जीवन चहल पहल का था। नट, नर्तक, गायक, वादक, तमाशा दिखाने वाले, रस्सी पर नाचने वाले तथा मदारी गाँवों और नगरों में अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। इन कलाकारों के गाँवों में प्रवेश पर निषेध था किन्तु नगरों में ऐसा प्रतिबंध नहीं था। नगरों में प्रेक्षाएँ लोकप्रिय थीं। स्त्री और पुरुष कलाकार दोनों प्रेक्षाओं में भाग लेते थे। इन्हें रंगोपजीवी तथा रंगोपजीविनी कहते थे।
विहार, यात्रा, समाज, प्रवहण अन्य माध्यम से जिनके द्वारा जनता सामूहिक रूप से अपना मनोरंजन करती थी। एक प्रकार से समाज के वे जिनमें लोग सुरापान, माँस भक्षण तथा मल्लयुज़ को देखकर मनोरंजन करते थे। अशोक को ये समाज पसंद नहीं थे। अतः उसने नए समाजों का प्रारम्भ किया जिनमें हस्ति, अग्निस्तंभ तथा विमानों की झाकियाँ दिखाई जाती थीं, ताकि लोगों में धर्माचरण को प्रोत्साहन मिले। कुछ ऐसे समाज भी थे जो सरस्वती के भवन में आयोजित होते थे और इनमें साहित्यिक नाटकों का अभिनय तथा गोष्ठियों का आयोजन होता था। विहार यात्राओं में मृगया और सुरापान की प्रधानता रहती थी। अशोक ने इन यात्राओं को बंद करवा दिया और धम्म यात्राओं का प्रारम्भ किया। प्रवहण भी एक प्रकार के सामूहिक समारोह थे जिनमें भोज्य और पेय पदार्थों का प्रचुरता से उपयोग किया जाता था।
मौर्यकालीन आर्थिक व्यवस्था
राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन और वाणिज्य व्यापार पर आधारित थी। इनको सम्मिलित रूप से 'वार्ता' कहा गया है अर्थात वृत्ति का साधन। इन व्यवसायों में कृषि मुख्य था। एक अच्छे जनपद की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कौटिल्य ने कहा है कि भूमि कृषि योग्य होनी चाहिए। वह 'अदेव मातृक' हो अर्थात ऐसी भूमि हो कि उसमें बिना वर्षा के अच्छी खेती हो सके। मेगस्थनीज़ के अनुसार दूसरी जाति में किसान लोग हैं जो दूसरों से संख्या में अधिक हैं। अन्य राजकीय सेवाओं से मुक्त होने के कारण वे सारा समय खेती में लगाते हैं। मेगस्थनीज़ ने आगे लिखा है कि भूमि पशुओं के निर्वाह योग्य है तथा अन्य खाद्य पदार्थ प्रदान करती हैं। चूँकि यहाँ वर्षा साल में दो बार होती है, अतः भारत में दो फ़सलें काटते हैं। देश के प्रायः समस्त मैदानों में ऐसी सीलन रहती है जो भूमि को समान रूप से उपजाऊ रखती है। मेगस्थनीज़ ने इस बात को अनेक बार दोहराया है कि शत्रु, अपनी भूमि पर काम करते हुए किसी को हानि नहीं पहुँचाता, क्योंकि इस वर्ग (किसान) के लोग सर्वसाधारण द्वारा हितकारी माने जाते हैं। इसलिए हानि से बचाए जाते हैं।
कृषि
राजकीय भूमि पर दासों, कर्मकरों और क़ैदियों द्वारा जुताई और बुआई होती थी। दास, कर्मकरों को भोजन आदि दिया जाता था और कार्य के दौरान नक़द मासिक वेतन भी दिया जाता था। परन्तु ऐसी भी राजकीय भूमि होती थी जिस पर सीताध्यक्ष द्वारा खेती नहीं कराई जाती थी। ऐसी भूमि पर करद कृषक खेती करते थे। कृषि योग्य तैयार खेतों को खेती के लिए किसानों को दे दिया जाता। जो भूमि कृषि योग्य न हो उसे यदि कोई खेती के योग्य बना ले तो यह भूमि उससे वापस नहीं ली जाती थी।
मेगस्थनीज़, स्ट्राबो, ऐरियन इत्यादि यूनानी लेखकों के अनुसार सारी भूमि राजा की होती थी। वे राजा के लिए खेती करते थे और ¼ भाग राजा को लगान देते थे। यूनानी लेखकों का अभिप्राय राजकीय भूमि से है जो किसानों को बटाई पर दी जाती थी। कौटिल्य के अनुसार यदि वे अपने बीज, बैल और हथियार लाएँ तो वे उपज के ½ भाग के अधिकारी थे। यदि कृषि उपकरण राज्य द्वारा दिए जाएँ तो वे ¼ या 1/3 अंश के भागी थे। इस राजकीय भूमि के अतिरिक्त ऐसी भूमि भी थी, जो गृहपतियों तथा अन्य कृषकों की निजी भूमि होती थी, जिस पर वे खेती करते थे और उपज का एक भाग कर के रूप में राजा को देते थे। यह अंश आमतौर पर उपज का छठा भाग होता था। किन्तु कभी कभी ¼ भाग भी हो सकता था। इन कृषकों के ऊपर नियामक अधिकारी, समाहर्ता, स्थानिक तथा गोप होते थे, जो गाँवों में भूमि तथा अन्य प्रकार की सम्पत्ति के आँकड़े तथा लेखा रखते थे। राज्य की भूमि की व्यवस्था सीताध्यक्ष द्वारा होती थी और उससे होने वाली आय को 'कौटिल्य सीता' कहा है। अनेक प्रमाणों से भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार सिद्ध होता है। अर्थशास्त्र में क्षेत्रक (भूस्वामी) तथा उपवास (काश्तकार) के बीच स्पष्ट भेद दिखाया गया है। भूमि के सम्बन्ध में 'स्वाम्य' का उल्लेख है। कहा गया है कि जिस भूमि का स्वामी नहीं है वह राजा की हो जाती है। 'स्वाम्य' से व्यक्ति का भूमि पर अधिकार सिद्ध हो जाता है। व्यक्ति को भूमि के क्रय तथा विक्रय का अधिकार था।
राज्य की ओर से सिंचाई का उचित प्रबन्ध था। इसे 'सेतुबंध' कहा गया है। इसके अंतर्गत तालाब, कुएँ तथा झीलों पर बाँध बनाकर एक स्थान पर पानी एकत्रित करना इत्यादि निर्माण कार्य आते हैं। मौर्यों के समय सौराष्ट्र में सुदर्शन झील के बाँध का निर्माण इस सेतुबंध का एक उदाहरण है। सिंचाई के लिए अलग कर देना पड़ता था। जिसकी दर उपज का 1/5 से 1/3 भाग तक थी। भूमिकर और सिंचाई कर को मिलाकर किसान को उपज का क़रीब ½ भाग देना पड़ता था। राज्य के अलावा लोग स्वयं कुएँ खुदवाकर तालाब या बावड़ी बनाकर सिंचाई की व्यवस्था करते थे। उन्हें प्रारम्भ में छूट देकर प्रोत्साहित किया जाता था। किन्तु कुछ समय बाद उन्हें भी सिंचाई कर देना पड़ता था।
पशुपालन
मेगस्थनीज़ ने लिखा है कि भारत में दुर्भिक्ष (अकाल) नहीं पड़ते। किन्तु कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अध्ययन से स्पष्ट है कि दुर्भिक्ष पड़ते थे और दुर्भिक्ष के समय राज्य द्वारा जनता की भलाई के उपाय किए जाते थे। जैन अनुश्रुति के अनुसार मगध में 12 साल का एक दुर्भिक्ष पड़ा था। सोहगोरा और महास्थान अभिलेख में दुर्भिक्ष के अवसर पर राज्य द्वारा, राज्य कोष्ठागार से अनाज वितरण का विवरण है। इसके अतिरिक्त वन प्रदेश एवं चारागाह थे। वन दो प्रकार के होते थे -
'हस्तिवन' जहाँ पर हाथी रहते थे। ये हाथी राज्य की सम्पत्ति थे और लड़ाई के समय प्रयोग किए जाते थे।
'द्रव्यवन' जहाँ से अनेक प्रकार की लकड़ी तथा लौहा, ताँबा इत्यादि धातुएँ प्राप्त होती थी।
जंगलों पर राज्य का अधिकार था। इन वनों की उपज राज्य के कोष्ठागारों में पहुँचाई जाती थी और वहाँ से कारखानों में, जहाँ लकड़ी, मिट्टी तथा धातु की अनेक उपयोगी वस्तुएँ तथा युद्ध के लिए अस्त्र शस्त्र बनाए जाते थे। कारखानों में बनी वस्तुएँ पण्याध्यक्ष के नियंत्रण में बाज़ारों में बेची जाती थीं।
व्यापार
मौर्यों के शासनकाल में राजनीतिक एकता तथा शक्तिशाली केन्द्रीय शासन के नियंत्रण से शिल्पों को प्रोत्साहन मिला। प्रशासनिक सुधार के साथ व्यापार की सुविधाएँ और व्यापार का पोषण करने वाले शिल्पों ने छोटे छोटे उद्योगों का रूप धारण कर लिया। मेगस्थनीज़ ने शिल्पियों को चौथी जाति माना है। उसके अनुसार, उनमे से कुछ राज्य को कर देते थे और नियत सेवाएँ भी करते थे। पुराना नियम यह था कि शिल्पी कर के बदले महीने में एक दिन राजा के यहाँ काम करते थे। यह नियम ग़ैर सरकारी शिल्पियों के लिए था, किन्तु जो राजा के शिल्पी होते थे, वे अनेक प्रकार की धातुओं, लकड़ियों तथा पत्थरों से राज्य के लिए विविध वस्तुओं का निर्माण करते थे। मेगस्थनीज़ ने जहाज़ बनाने वालों, कवच तथा आयुधों का निर्माण करने वालों और खेती के लिए अनेक प्रकार के औज़ार बनाने वालों का उल्लेख किया है। खानों और जंगलों से प्राप्त धातु तथा लकड़ी से राज्य अनेक प्रकार के उद्योगों का संचालन करता था। वस्त्र उद्योग भी राज्य के द्वारा संचालित था। अतः इन विविध उद्योगों में अनेक शिल्पी विभिन्न अध्यक्षों के निरीक्षण में कार्य करते थे और राज्य से वेतन पाते थे। किन्तु अनेक स्वतंत्र शिल्पी भी थे। ये श्रेणियों में संगठित थे। श्रेणियों में संगठित होने से उनके वेतन तथा अन्य अधिकार अधिक सुरक्षित थे। शिल्पी के जीवन तथा सम्पत्ति सुरक्षा की राज्य की ओर से पूरी व्यवस्था थी।
मौर्य युग का प्रधान उद्योग सूत कातने और बुनने का था। ऊन, रेशे, कपास, शण क्षोम और रेशम सूत कातने के लिए प्रयुक्त होते थे। अर्थशास्त्र से पता चलता है कि काशी, वंग, पुण्ड्र, कलिंग, मालवा सूती वस्त्र के लिए प्रसिद्ध थे। काशी और पुण्ड्र में रेशमी कपड़े भी बनते थे। प्राचीन काल से वंग का मलमल विश्वविख्यात था। चीन पट्ट का उल्लेख कौटिल्य में है जिससे पता चलता है कि रेशम चीन से आता था। मेगस्थनीज़ ने भारतीय वस्त्रों की बड़ी प्रशंसा की है। सरकारी कारख़ानों के अतिरिक्त जुलाहे स्वतंत्र रूप से भी कार्य करते थे।
खानों से कच्ची धातु निकालने, उसे गलाने, शुद्ध करने और लचीला बनाने की क्रिया की अच्छी जानकारी प्राप्त हो चुकी थी। मेगस्थनीज़ ने भारत में अनेक प्रकार की धातुओं की खदान का ज़िक्र किया है, जैसे सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा आदि। इनका उपयोग आभूषण, बर्तन, युद्ध के हथियार, सिक्के आदि बनाने के लिए किया जाता था। लोहाध्यक्ष के निरीक्षण में युद्ध के हथियार तथा कृषि के उपकरण बनाने के लिए लोहे का उपयोग किया जाता था। सोने और चाँदी के अनेक प्रकार के आभूषण तथा सिक्के सुवर्णाध्यक्ष व लक्षणाध्यक्ष के निरीक्षण में बनते थे।
मणि मुक्ताओं का उपयोग समृद्ध परिवारों में होता था। मोतियों को अनेक लड़ियों में पिरोकर हार बनाए जाते थे, जो गले में पहने जाते थे। मुक्ता लड़ियाँ कमर और हाथों को सजाने के लिए उपयोग में लाई जाती थी। इस प्रकार मणिकार और सुवर्णकार राजघराने तथा समृद्ध परिवारों की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे।
इन उद्योगों के अतिरिक्त कई अन्य उद्योग भी मौर्य काल में अच्छी अवस्था में थे, जैसे - हाथी दाँत का काम करने वाले, मिट्टी के बर्तन बनाने वाले तथा चर्मकार। पशुओं की खाल जूते बनाने, वर्म या ढाल बनाने के लिए उपयोग में लाई जाती थी।
नियार्कस ने लिखा है कि भारतीय श्वेत रंग के जूते पहनते हैं, जो कि अति सुन्दर होते हैं। इनकी एड़ियाँ कुछ ऊँची बनाई जाती हैं। हाथीदाँत के काम में भारतीय बहुत पहले से ही कुशल थे।
एरियन ने समृद्ध परिवारों के द्वारा हाथीदाँत के कर्णाभूषण का इस्तेमाल किए जाने का उल्लेख किया है। यद्यपि कौटिल्य ने कुम्भकार की श्रेणियों का उल्लेख नहीं किया है। फिर भी हमें मालूम है कि मिट्टी के बर्तन साधारण लोगों के द्वारा बड़ी मात्रा में उपयोग में लाए जाते थे। मौर्यकाल के काली ओपदार मिट्टी के बर्तन मिले हैं, जो पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार ऊँचे वर्ग के लोगों के द्वारा प्रयोग में लाए जाते थे। पत्थर तराशने का व्यवसाय भी विकसित अवस्था में रहा होगा। अशोक के समय में एक ही पत्थर के बने हुए स्तंभ इसका ज्वलंत प्रमाण हैं। पत्थर पर पालिश का काम अपने चरमोत्कर्ष पर था। सारनाथ सिंह स्तंभ तथा बाराबर गुफ़ाओं की चमक अद्वितीय है।
मौर्यकालीन व्यापार
भारतवर्ष के विभिन्न राज्यों के एक शासन सूत्र में बँधने से व्यापार को प्रोत्साहन मिला। प्रशासनिक एवं सैनिक आवश्यकता के कारण यातायात मार्ग में वृद्धि हुई तथा मार्गों की सुरक्षा भी बढ़ी। कृषि तथा उद्योगों के लिए वस्तुएँ देश के विभिन्न भागों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर आसानी से पहुँचती थी। उत्तर पश्चिमी भाग यूनानियों के अधिकार से मौर्यों के अधिकार में आ गया। दक्षिण की विजय से दक्षिण और पश्चिम व्यापार मार्ग पर मौर्यों का नियंत्रण हो गया। कलिंग की विजय से पूर्व और पूर्व—दक्षिण व्यापार मार्ग निष्कंटक हो गया। मेगस्थनीज़ के विवरण के स्पष्ट है कि मार्ग निर्माण का एक विशेष अधिकारी था जो 'एग्रोनोमोई' कहलाता था। ये सड़कों की देखरेख करते थे और 10 स्टेडिया की दूरी पर एक स्तंभ खड़ा कर देते थे। साम्राज्य के राजमार्गों में उत्तर पश्चिम को पाटलिपुत्र से मिलाने वाला राजमार्ग था। मेगस्थनीज़ के अनुसार इसकी लम्बाई 1,300 मील थी। पाटलिपुत्र के आगे यह मार्ग ताम्रलिप्ति (तामलूक) तक जाता था। हिमालय की ओर जाने वाले मार्ग की तुलना दक्षिण को जाने वाले मार्ग से करते हुए कौटिल्य ने दक्षिण मार्ग अधिक लाभदायक बताया है, क्योंकि दक्षिण से बहुमूल्य व्यापार की वस्तुए जैसे मुक्ता, मणि, हीरे, सोना, शंख इत्यादि आते थे।
जलमार्गीय व्यापार
दक्षिण के लिए एक पुराना मार्ग श्रावस्ती से गोदावरी के तटवर्ती नगर प्रतिष्ठान तक जाता था। इसी मार्ग को सम्भवतः उत्तरी मैसूर तक आगे बढ़ाया गया। कृष्णा, गोदावरी और तुंगभद्रा के किनारे होते हुए कई मार्ग व्यापार सैनिक अभियान तथा शासन की आवश्यकता के अनुसार बनाए गए होंगे। उत्तर की ओर एक पुराना मार्ग चंपा से बनारस तक और वहाँ से जमुना के किनारे किनारे कौशांबी तक जाता था। इसके बाद स्थल मार्ग से कौशाबी से सिंधु सौबीर तक व्यापार मार्ग जाता था। एक तीसरा मार्ग श्रावस्ती से राजगृह तक था।
पश्चिमी तट पर भी समुद्री मार्ग भड़ोच और काठियावाड़ होकर लंका तक जाता था। पश्चिमी तट पर सोपारा भी महत्वपूर्ण बंदरगाह था। पूर्व में जहाज़ बंगाल में ताम्रलिप्ति के बंदरगाह से पूर्वी तट के अनेक बंदरगाह से होते हुए श्रीलंका जाते थे। रोमिला थापर के अनुसार अशोक द्वारा कलिंग की विजय का एक कारण व्यापार की दृष्टि से कलिंग का महत्व था। महानदी और गोदावरी के बीच स्थित होने के कारण बंगाल और दक्षिण का व्यापार सुरक्षित नहीं था।
स्थलमार्गीय व्यापार
कौटिल्य ने स्थलमार्गीय व्यापार की अपेक्षा नदी मार्गों से व्यापार को अधिक सुरक्षित माना है क्योंकि यह चोर डाकुओं के भय से अपेक्षाकृत मुक्त था। किन्तु नदियों से व्यापार स्थायी नहीं था। स्थल मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ थीं, चोरों और जंगली जानवरों से विशेष भय था। मरुस्थल की यात्रा अत्यन्त कठिन थी। ख़तरों और कठिनाइयों के कारण व्यापारी काफ़िलों में संगठित होकर चलते थे। व्यापारियों को यातायात और सुरक्षा सम्बन्धी सुविधाएँ प्राप्त थीं। यदि मार्ग में व्यापारियों का नुकसान हो जाए तो राज्य क्षतिपूर्ति करता था। इसके बदले व्यापारियों से अनेक शुल्क लिए जाते थे।
अंतर्देशीय व्यापार की भाँति ही स्थल और जलमार्ग से विदेशों के साथ व्यापार को मौर्यों के सुसंगठित शासन से लाभ प्राप्त हुआ। यूनानी शासकों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध की वजह से पश्चिमी एशिया और मिस्र के साथ भारत के व्यापार के लिए अनुकूल वातावरण बना। एक मुख्य स्थल मार्ग तक्षशिला से क़ाबुल, बैक्ट्रिया, और वहाँ से पश्चिमी देशों की तरफ़ जाता था।
समुद्री मार्ग
समुद्री मार्ग भारत के पश्चिमी समुद्र तट से फ़ारस की खाड़ी होते हुए अदन तक जाता था। भारत से और मिस्र से आने वाली व्यापार वस्तुओं का विनिमय अरब सागर के तटवर्ती बंदरगाहों पर होता था। भारत से मिस्र को हाथी दाँत, कछुए, सीपियाँ, मोती, रंग, नील और बहुमूल्य लकड़ी निर्यात होती थी।
प्रजा के हित के लिए शिल्पियों और व्यापारियों पर सरकार का नियंत्रण था। व्यापारियों को आदेश था कि पुराना माल संस्थाध्यक्ष की आज्ञा के बिना न तो बेचा जा सकता था और न ही बंधक रखा जा सकता था। माप और तोल का प्रति चौथे महीने राज्य कर्मचारियों के द्वारा निरीक्षण होता था। कम तौलने वाले को दंड दिया जाता था। लाभ की दर निश्चित थी। देशज वस्तुओं पर 4 प्रतिशत और आयात वस्तुओं पर 10 प्रतिशत बिक्री कर लिया जाता था। मेगस्थनीज़ के अनुसार बिक्री कर न देने वाले के लिए मृत्युदंड था।