"सांख्य दर्शन और पुराण": अवतरणों में अंतर
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परमात्मा प्रधान या प्रकृति और पुरुष में प्रवेश करके उन्हें प्रेरित करता है। तब सर्ग क्रिया आरंभ होती है। यद्यपि मूलत: प्रकृति, पुरुष, काल, [[विष्णु]] के ही अन्य रूप हैं, तथापि सर्ग-चर्चा में प्रेरिता तथा प्रधान पुरुष को भिन्न किन्तु अपृथक् ही ग्रहण किया जाता है। तन्मात्र अविशेष हैं जिनकी उत्पत्ति तामस अहंकार से होती है। सुख-दु:ख मोहात्मक अनुभूति तन्मात्रों की नहीं होती। ये जब विशेष इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होते हैं। आशय यह है कि ये अविशेष विशेष के बिना नहीं जाने जाते | परमात्मा प्रधान या प्रकृति और पुरुष में प्रवेश करके उन्हें प्रेरित करता है। तब सर्ग क्रिया आरंभ होती है। यद्यपि मूलत: प्रकृति, पुरुष, काल, [[विष्णु]] के ही अन्य रूप हैं, तथापि सर्ग-चर्चा में प्रेरिता तथा प्रधान पुरुष को भिन्न किन्तु अपृथक् ही ग्रहण किया जाता है। तन्मात्र अविशेष हैं जिनकी उत्पत्ति तामस अहंकार से होती है। सुख-दु:ख मोहात्मक अनुभूति तन्मात्रों की नहीं होती। ये जब विशेष इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होते हैं। आशय यह है कि ये अविशेष विशेष के बिना नहीं जाने जाते हैं। राजस अहंकार से पञ्चकर्मेन्द्रियाँ तथा पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं तथा वैकारिक अथवा सात्त्विक अहंकार से मन की उत्पत्ति का समर्थन विज्ञान भिक्षु भी करते हैं। तथापि कारिका मत में सात्त्विक अहंकार से एकादशेन्द्रिय की उत्पत्ति मानी गई है। | ||
==भागवत में सांख्य दर्शन== | ==भागवत में सांख्य दर्शन== |
08:42, 20 फ़रवरी 2011 का अवतरण
भागवत पुराण विद्वानों के लिए ऐतिहासिक ग्रन्थ मात्र नहीं वरन जनसामान्य श्रद्धालुओं में भी अत्यन्त ख्यातिलब्ध है। अत: उक्त ग्रन्थ का पृथक् उल्लेख किया गया। सृष्टि प्रलयादि विषयों पर सभी पुराणों में मतैक्य है। अत: यहाँ प्रमुखत: विष्णु पुराण के ही अंश, जिनसे सांख्य दर्शन का स्वरूप परिचय हो सके-प्रस्तुत किए जा रहे हैं-
तद्ब्रह्म परमं नित्यमजमक्षय्यमव्ययम्।
एकस्वरूपं तु सदा हेयाभावाच्च निर्मलम्॥
तदेव सर्वमेवैतद् व्यक्ताव्यक्तस्वरूपवत्।
तथा पुरुषरूपेण कालरूपेण च स्थितम्॥[1]
यह ब्रह्म नित्य अजन्मा अक्षय अव्यय एकरूप और निर्मल है। वही इन सब व्यक्त-अव्यक्त रूप (जगत्) से तथा पुरुष और काल रूप से स्थित है।
अव्यक्तं कारणं यत्तत्प्रधानमृषिसत्तमै:।
प्रोच्यते प्रकृति: सूक्ष्मा नित्यं सदसदात्मकम्।[2]
प्रकृतिर्या मया ख्याता व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी।
पुरुषश्चाप्युभावेतौ लीयेते परमात्मनि॥
परमात्मा च सर्वेषामाधार: परमेश्वर:॥[3]
व्यक्त जगत का अव्यक्त कारण सदसदात्मक प्रकृति कही जाती है। प्रकृति और पुरुष दोनों ही (प्रलय काले) परमात्मा में लीन हो जाते हैं। प्रकृति का स्वरूप बताया गया है:-
सत्वं रजस्तमश्चेति गुणत्रयमुदाहतम्।
साम्यावस्थितिमेतेषामव्यक्तां प्रकृतिं विदु:॥[4]
प्रधानपुरुषौ चापि प्रविश्यात्मेच्छया हरि:।
क्षोभयामास सम्प्राप्ते सर्गकाले व्ययाव्ययौ ॥29॥
यथा सन्निधिमात्रेण गन्ध: क्षोभाय जायते।
मनसो नोपकर्तृत्वात्तथाऽसौ परमेश्वर:॥30॥
प्रधानतत्त्वमुद्भूतं महान्तं तत्समावृणोत्।
सात्त्वि को राजसश्चैव तामसश्च त्रिधा महान्॥34॥
वैकारिकस्तैजसश्च भूतादिश्चैव तामस:॥35॥
त्रिविधोऽयमहंकारो महत्तत्त्वादजायत॥36॥
तन्मात्राण्यविशाणि अविशेषास्ततो हि ते ।45।
न शान्ता नापि धोरास्ते न मूढाश्चविशेषिण:।
भूततन्मात्रसर्गोऽयमंहकारात्तु तामसात्॥46॥
तैजसानीन्द्रियाण्याहुर्देवा वैकारिका दश।
एकादशं मनश्चात्र देवा वैकारिका: स्मृता:॥46
पुरुषाधिष्ठितत्वाच्च प्रधानानुग्रहेण च।
महदाद्या विशेषान्ता ह्यण्डमुत्पादयन्ति ते॥54॥
तस्मिन्नण्डेऽभवद्विप्र सदेवासुरमानुष:॥58॥
-वि.पु. प्रथम अंश द्वितीय अध्याय
आध्यात्मिकादि मैत्रेय ज्ञात्वा तापत्रयं बुध:।
उत्पन्नज्ञानवैराग्य: प्राप्नोत्यात्यन्तिकं लयम्॥[5]
परमात्मा प्रधान या प्रकृति और पुरुष में प्रवेश करके उन्हें प्रेरित करता है। तब सर्ग क्रिया आरंभ होती है। यद्यपि मूलत: प्रकृति, पुरुष, काल, विष्णु के ही अन्य रूप हैं, तथापि सर्ग-चर्चा में प्रेरिता तथा प्रधान पुरुष को भिन्न किन्तु अपृथक् ही ग्रहण किया जाता है। तन्मात्र अविशेष हैं जिनकी उत्पत्ति तामस अहंकार से होती है। सुख-दु:ख मोहात्मक अनुभूति तन्मात्रों की नहीं होती। ये जब विशेष इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होते हैं। आशय यह है कि ये अविशेष विशेष के बिना नहीं जाने जाते हैं। राजस अहंकार से पञ्चकर्मेन्द्रियाँ तथा पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं तथा वैकारिक अथवा सात्त्विक अहंकार से मन की उत्पत्ति का समर्थन विज्ञान भिक्षु भी करते हैं। तथापि कारिका मत में सात्त्विक अहंकार से एकादशेन्द्रिय की उत्पत्ति मानी गई है।
भागवत में सांख्य दर्शन
अनादिरात्मा पुरुषो निर्गुण: प्रकृते: पर:।
प्रत्याग्धामास्वयंज्योतिर्विश्वं येन समन्वितम्॥
कार्यकारणकर्तृत्वे कारणं प्रकृतिं विदु:।
भोक्तृत्वे सुखद:खानां पुरुषं प्रकृते: परम्।
यत्तत्त्रिगुणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम्।
प्रधानं प्रकृतिं प्राहुरविशेषं विशेषवत्।
पञ्चभि: पञ्चभिर्ब्रह्य चतुर्भिदशभिस्तथा॥
एतच्चतुर्विंशतिकं गणं: प्राधानिकं विदु:॥
प्रकृतेगुर्णसाम्यस्य निर्विशेषस्य मानवि।
चेष्टा यत: स भगवान् काल इत्युपलक्षित:॥
- इसके अनन्तर महदादि तत्त्वों की उत्पत्ति कही गई। सांख्यकारिकोक्त मत से भिन्न अहंकार से उत्पन्न होने वाले तत्त्वों का यहाँ उल्लेख है। यहाँ वैकारिक अहंकार से मन की उत्पत्ति कही गई है।
- कारिका में भी मन को सात्विक अहंकार से उत्पन्न माना गया है। फिर तेजस अहंकार से बुद्धि तत्त्व की उत्पत्ति कही गई। इससे पूर्व परमात्मा की तेजोमयी माया से महत्तत्त्व की उत्पत्ति कही गई। ऐसा प्रतीत होता है कि भागवतकार महत तथा बुद्धि को भिन्न मानते हैं, जबकि सांख्य शास्त्र में महत और बुद्धि को पर्यायार्थक माना गया। तेजस अहंकार से इन्द्रियों की उत्पत्ति बताई गई है जबकि कारिकाकार ने मन सहित समस्त इन्द्रियों को सात्त्विक अहंकार से माना है। तामस अहंकार से तन्मात्रोत्पत्ति भागवत तथा सांख्यशास्त्रीय मत में समान है। भिन्नता यह है कि भागवत में तामसाहंकार से शब्द तन्मात्र से आकाश तथा आकाश से श्रोत्रेन्द्रिय की उत्पत्ति कही गई। इसी तरह क्रमश: तन्मात्रोत्पत्ति को समझाया गया है।[7]
सांख्य दर्शन में पुरुष को अकर्ता, निर्गुण, अविकारी माना गया है। और तदनुरूप उसे प्रकृति के विकारों से निर्लिप्त माना गया है। तथापि अज्ञानतावश वह गुण कर्तृत्व को स्वयं के कर्तृत्व के रूप में देखने लगता है। और देह संसर्ग से किए हुए पुण्य पापादि कर्मों के दोष से विभिन्न योनियों में जन्म लेता हुआ संसार में रहता हैं यही बात श्रीमदभागवत में कही गई है[8]।
प्रकृतिस्थोऽपि पुरुषो नाज्यते प्राकृतैर्गुणै:।
अविकारादकर्तृत्वान्निगुर्णत्वाज्जलार्कवत्॥
स एष यर्हि प्रकृतेर्गुष्णभिविषज्जते।
अहंक्रियाविमूढात्मा कर्ताऽस्मीत्यभिमन्यते॥
- भागवत के एकादश स्कन्ध में प्राचीन सांख्य में तत्वों की अलग-अलग संख्या में गणना का सुन्दर समन्वय करते हुए यह बतलाया गया है कि मूलत: ये सभी भेद एक ही दर्शन के हैं। यह समन्वय उचित और सरल हो या न हो, इतना तो स्पष्ट है कि सांख्य के विभिन्न रूप प्रचलित हो चले थे और भागवतकार इन्हें विषमता न मानकर कपिल के दर्शन के ही रूप मानते थे।