"बर्मी युद्ध": अवतरणों में अंतर
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07:15, 3 मार्च 2011 का अवतरण
बर्मा में तीन क्रमिक बर्मी युद्ध हुए और 1886 ई. में पूरा देश ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य के अंतर्गत आ गया। किन्तु 1935 ई. के भारतीय शासन विधान के अंतर्गत बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया। 1947 ई. से भारत और बर्मा दो स्वाधीन पड़ोसी मित्र हैं।
प्रथम बर्मी युद्ध
पहला आंग्ल-बर्मी युद्ध दो वर्ष (1824-26 ई.) तक चला। इसका कारण बर्मी राज्य की सीमाओं का आसपास तक फैल जाना तथा दक्षिण बंगाल के चटगाँव क्षेत्र पर भी बर्मी अधिकार का ख़तरा उत्पन्न हो जाना था। लार्ड एम्हर्स्ट की सरकार ने, जिसने युद्ध घोषित किया था, आरम्भ में युद्ध के संचालन में पूर्ण अयोग्यता का प्रदर्शन किया, उधर बर्मी सेनापति बंधुल ने युद्ध के संचालन में बड़ी योग्यता का परिचय दिया। ब्रिटिश भारतीय सेना ने बर्मी सेना को आसाम से मारकर भगाया, रंगून पर चढ़ाई करके उस पर क़ब्ज़ा कर लिया। दोनाबू की लड़ाई में बंधुल परास्त हुआ और युद्धभूमि में अचानक गोली लग जाने से मारा गया। तब अंग्रेज़ों ने दक्षिणी बर्मा की राजधानी प्रोम पर क़ब्ज़ा कर बर्मी सरकार को युद्ध की संधि (1826) के लिए मज़बूर कर दिया।
संधि के अंतर्गत बर्मियों ने अंग्रेज़ों को एक करोड़ रुपया हर्जाना के रूप में देना स्वीकार किया, अराकान और तेनासरीम के सूबे अंग्रेज़ों को सौंप दिये, मणिपुर को स्वाधीन राज्य के रूप में मान्यता प्रदान कर दी, आसाम, कचार और जयन्तिया में हस्तक्षेप न करने का वायदा किया तथा आवा में ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना स्वीकार कर लिया। इसके अलावा बर्मियों को एक व्यावसायिक संधि भी करनी पड़ी। जिसके अंतर्गत अंग्रेज़ों को बर्मा में वाणिज्य और व्यावसाय के अनिर्दिष्ट अधिकार प्राप्त हो गये।
द्वितीय बर्मी युद्ध
यन्दबू संधि के आधार पर राजनीतिक एवं व्यावसायिक माँगों के फलस्वरूप 1852 ई. में द्वितीय बर्मा युद्ध छिड़ गया। लार्ड डलहौज़ी ने जो उस समय गवर्नर-जनरल था, बर्मा के शासक पर संधि की सभी शर्तें पूरी करने के लिए ज़ोर डाला। बर्मी शासक का कथन था कि अंग्रेज़ संधि की शर्तों से कहीं अधिक माँग कर रहे हैं। अपनी माँगों को एक निर्धारित तारीख़ तक पूरा कराने के लिए लार्ड डलहौज़ी ने कमोडोर लैम्बर्ट के नेतृत्व में एक जहाज़ी बेड़ा रंगून भेज दिया। ब्रिटिश नौसेना के अधिकारी की तुनुक-मिजाजी के कारण ब्रिटिश फ़्रिगेट और एक बर्मी जहाज़ के बीच गोलाबारी हो गई। लार्ड आस्टेन के नेतृत्व में ब्रिटिश नौसेना ने दक्षिणी बर्मा पर आक्रमण कर दिया। रंगून, मर्तबान, बेसीन, प्रोम और पेगू पर शीघ्र ही क़ब्ज़ा कर लिया गया। लार्ड डलहौज़ी, सितम्बर, 1852 ई. में बर्मा पहुँचा। बर्मी राजा उसकी शर्तों को पूरा करने के लिए राज़ी नहीं था। गवर्नर-जनरल की हैसियत से डलहौज़ी ने तत्काल उत्तरी बर्मा तक बढ़ना विवेकपूर्ण नहीं समझा। उसने दक्षिणी बर्मा को भारत में मिला लिये जाने की घोषणा कर स्वयं अपनी पहल पर युद्ध बंद कर दिया। पेगू अथवा दक्षिणी बर्मा पर क़ब्ज़ा हो जाने से बंगाल की खाड़ी के समूचे तट पर अंग्रेज़ों का नियंत्रण हो गया।
तृतीय बर्मी युद्ध
तृतीय बर्मी युद्ध 38 वर्ष के बाद 1885 ई. में हुआ। उस समय थिबा ऊपरी बर्मा का शासक राजा था और मांडले उसकी राजधानी थी। लार्ड डफ़रिन भारत का गवर्नर-जनरल था। बर्मी शासक ज़बर्दस्ती दक्षिणी बर्मा छीन लिये जाने से कुपित था और मांडले स्थित ब्रिटिश रेजीडेण्ट तथा अधिकारियों को उन मध्ययुगीन शिष्टाचारों को पूरा करने में झुँझलाहट होती थी जो उन्हें थिबासे मुलाक़ात के समय करनी पड़ती थीं। 1852 ई. की पराजय से पूरी तरह चिढ़े हुए थिबा ने फ़्राँसीसियों का समर्थन और सहयोग प्राप्त करने का प्रयास शुरू कर दिया। उस समय तक फ़्राँसीसियों ने कोचीन, चीन तथा उत्तरी बर्मा के पूर्व में स्थित टेन्किन में, अपना विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया। फ़्राँसीसियों के साथ बर्मियों के मेलजोल तथा थिबा की सरकार द्वारा एक अंग्रेज़ फ़र्म पर, जो उत्तरी बर्मा में लट्ठे का रोज़गार करती थी, भारी जुर्माना कर देने के कारण भारत सरकार ने 1885 ई. में तृतीय बर्मी युद्ध की घोषणा कर दी। युद्ध के लिए अंग्रेज़ों ने तैयारियाँ पूरी तरह से कर रखी थीं, जबकि थिबा की फ़्राँसीसियों से सहायता प्राप्त करने की आशा मृग मरीचिका ही सिद्ध हुई। युद्ध की घोषणा 9 नवम्बर, 1885 ई. को की गई और बीस दिनों में ही मांडले पर अधिकार कर लिया गया। राजा थिबा बंदी बना लिया गया, उसे अपदस्थ करके उत्तरी बर्मा को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में मिला लिया गया और दक्षिणी बर्मा को मिलाकर एक नया सूबा बना दिया गया, रंगून को उसकी राजधानी बनाया गया। इस प्रकार ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य पूर्वोत्तर में अपनी चरम सीमा तक प्रसारित हो गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ