"दान की महिमा": अवतरणों में अंतर
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
No edit summary |
No edit summary |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{पुनरीक्षण}} | {{पुनरीक्षण}} | ||
*दान की महिमा एक शिक्षाप्रद कहानी है। | *दान की महिमा एक शिक्षाप्रद कहानी है। | ||
*[[गुजरात]] की प्रसिद्ब राजमाता मीणल देवी बड़ी उदार थी। वह सवा करोड़ [[सोना|सोने]] की मोहरें लेकर [[सोमनाथ]] जी | *[[गुजरात]] की प्रसिद्ब राजमाता मीणल देवी बड़ी उदार थी। वह सवा करोड़ [[सोना|सोने]] की मोहरें लेकर [[सोमनाथ]] जी के दर्शन करने के लिये गयी। वहाँ जाकर उसने स्वर्ण-तुलादान आदि दिये। | ||
*[[माता]] की [[यात्रा]] के पुण्य-प्रसंग में पुत्र राजा सिद्वाराज प्रजा को लाखों रुपये का दान दिया। इससे मीणल के मन में [[अभिमान]] आ गया कि मेरे समान दान करने वाली जगत में दूसरी कौन | *[[माता]] की [[यात्रा]] के पुण्य-प्रसंग में पुत्र राजा सिद्वाराज ने प्रजा को लाखों रुपये का दान दिया। इससे मीणल के मन में [[अभिमान]] आ गया कि मेरे समान दान करने वाली जगत में दूसरी कौन होगी। | ||
*उसी रात्री को भगवान सोमनाथ | *उसी रात्री को भगवान सोमनाथ ने मीणल देवी से सपने में कहा मेरे मन्दिर में एक बहुत गरीब स्त्री यात्रा करने आयी है, तू उससे उसका पुण्य माँग। | ||
*राजमाता ने गरीब स्त्री की खोज में आदमी भेजे। राजमाता के आदमी | *मीणल देवी ने सोचा, इसमें कौन-सी बड़ी बात है। मैं उस स्त्रीं को रुपये देकर उससे पुण्य ले लूगीं। | ||
*राजमाता ने उस ब्राह्मणी से कहा | *राजमाता ने गरीब स्त्री की खोज में आदमी भेजे। राजमाता के आदमी यात्रा में आयी हुई एक गरीब ब्राह्मणी को ले आये। | ||
*राजमाता ने उस ब्राह्मणी से कहा अपना पुण्य मुझे दे दे और बदले में जितनी तेरी इच्छा हो उतना धन ले ले। ब्रह्मणी ने इस प्रस्ताव को किसी तरह भी स्वीकार नहीं किया। तब राजमाता ने कहा-;तुने ऐसा क्या पुण्य किया है मुझे बता तो सही ब्राह्मणी ने राजमाता से कहा मैं घर से निकलकर सैकड़ों गाँवों में भीख माँगती हुई यहाँ तक पहुँची हूँ। कल तीर्थ का उपवास था। आज किसी पुण्यात्मा ने मुझे जैसा-तैसा थोड़ा-सा बिना [[नमक]] का सत्तू दिया। उसके आधे हिस्से से मैंने भगवान सोमेश्र्वर की पूजा की। आधे में से आधा एक अतिथि को दिया और शेष बचे हुए को मैंने ग्रहण किया। | |||
*ब्रह्माणी ने राजमाता से कहा मेरा पुण्य ही क्या है। आप बड़ी पुण्यवती है रानी है। यात्रा की खुशी में आपने प्रजा को लाख़ों रुपये का दान दिया। सवा करोड़ मोहरों से [[शंकर]] की पूजा कि। इतना बड़ा पुण्य करने वाली आप मेरा [[अल्प]] सा दीखने वाला पुण्य क्यों माँग रही हैं? मुझ पर कोप न करें तो मैं एक निवेदन करुँ, राजमाता ने ब्राह्मणी को क्रोध न करने का विश्वास दिलाया। तब ब्राह्मणी ने कहा सच पूछें तो मेरा पुण्य आपके पुण्य से बहुत बढ़ा हुआ है। इसी से मैंने रुपयों के बदले में इसे आपको नहीं दिया। ब्राह्मणी की इन बातों से राजमाता मीणल देवी का अभिमान नष्ट हो गया। | |||
*ब्रह्माणी ने राजमाता से कहा मेरा पुण्य ही क्या है। आप बड़ी पुण्यवती है | |||
{{प्रचार}} | {{प्रचार}} | ||
{{लेख प्रगति|आधार=आधार1|प्रारम्भिक= |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | {{लेख प्रगति|आधार=आधार1|प्रारम्भिक= |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} |
06:12, 24 जून 2011 का अवतरण
इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव" |
- दान की महिमा एक शिक्षाप्रद कहानी है।
- गुजरात की प्रसिद्ब राजमाता मीणल देवी बड़ी उदार थी। वह सवा करोड़ सोने की मोहरें लेकर सोमनाथ जी के दर्शन करने के लिये गयी। वहाँ जाकर उसने स्वर्ण-तुलादान आदि दिये।
- माता की यात्रा के पुण्य-प्रसंग में पुत्र राजा सिद्वाराज ने प्रजा को लाखों रुपये का दान दिया। इससे मीणल के मन में अभिमान आ गया कि मेरे समान दान करने वाली जगत में दूसरी कौन होगी।
- उसी रात्री को भगवान सोमनाथ ने मीणल देवी से सपने में कहा मेरे मन्दिर में एक बहुत गरीब स्त्री यात्रा करने आयी है, तू उससे उसका पुण्य माँग।
- मीणल देवी ने सोचा, इसमें कौन-सी बड़ी बात है। मैं उस स्त्रीं को रुपये देकर उससे पुण्य ले लूगीं।
- राजमाता ने गरीब स्त्री की खोज में आदमी भेजे। राजमाता के आदमी यात्रा में आयी हुई एक गरीब ब्राह्मणी को ले आये।
- राजमाता ने उस ब्राह्मणी से कहा अपना पुण्य मुझे दे दे और बदले में जितनी तेरी इच्छा हो उतना धन ले ले। ब्रह्मणी ने इस प्रस्ताव को किसी तरह भी स्वीकार नहीं किया। तब राजमाता ने कहा-;तुने ऐसा क्या पुण्य किया है मुझे बता तो सही ब्राह्मणी ने राजमाता से कहा मैं घर से निकलकर सैकड़ों गाँवों में भीख माँगती हुई यहाँ तक पहुँची हूँ। कल तीर्थ का उपवास था। आज किसी पुण्यात्मा ने मुझे जैसा-तैसा थोड़ा-सा बिना नमक का सत्तू दिया। उसके आधे हिस्से से मैंने भगवान सोमेश्र्वर की पूजा की। आधे में से आधा एक अतिथि को दिया और शेष बचे हुए को मैंने ग्रहण किया।
- ब्रह्माणी ने राजमाता से कहा मेरा पुण्य ही क्या है। आप बड़ी पुण्यवती है रानी है। यात्रा की खुशी में आपने प्रजा को लाख़ों रुपये का दान दिया। सवा करोड़ मोहरों से शंकर की पूजा कि। इतना बड़ा पुण्य करने वाली आप मेरा अल्प सा दीखने वाला पुण्य क्यों माँग रही हैं? मुझ पर कोप न करें तो मैं एक निवेदन करुँ, राजमाता ने ब्राह्मणी को क्रोध न करने का विश्वास दिलाया। तब ब्राह्मणी ने कहा सच पूछें तो मेरा पुण्य आपके पुण्य से बहुत बढ़ा हुआ है। इसी से मैंने रुपयों के बदले में इसे आपको नहीं दिया। ब्राह्मणी की इन बातों से राजमाता मीणल देवी का अभिमान नष्ट हो गया।
|
|
|
|
|