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मीर क़ासिम 1760 ई. से 1764 ई. तक [[बंगाल]] का नवाब रहा था। उसे ब्रिटिश [[ईस्ट इंडिया कम्पनी]] की सहायता से नवाब बनाया गया था। [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] ने 1760 ई. में उसके ससुर [[मीर जाफ़र]] को गद्दी से उतार कर इसे बंगाल का सूबेदार बना दिया था। मीर क़ासिम ने नवाबी पाने के लिए कम्पनी को बर्दवान, मिदनापुर तथा चटगाँव के तीन ज़िले सौंप दिये, कलकत्ता कौंसिल को 20 लाख रुपया नक़द दिया और मीर जाफ़र का सारा क़र्जा बेबाक़ कर देने का वायदा किया।
मीर क़ासिम 1760 ई. से 1764 ई. तक [[बंगाल]] का नवाब रहा था। उसे ब्रिटिश [[ईस्ट इंडिया कम्पनी]] की सहायता से नवाब बनाया गया था। [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] ने 1760 ई. में उसके ससुर [[मीर ज़ाफ़र]] को गद्दी से उतार दिया और उसे बंगाल का सूबेदार बना दिया। मीर क़ासिम ने नवाबी पाने के लिए कम्पनी को बर्दवान, मिदनापुर तथा चटगाँव के तीन ज़िले सौंप दिये, कलकत्ता कौंसिल को 20 लाख रुपया नक़द दिया और मीर ज़ाफ़र का सारा क़र्जा बेबाक़ (ऋणमुक्त) कर देने का वायदा किया।
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==योग्य व्यक्ति==
==योग्य व्यक्ति==
मीर क़ासिम, मीर जाफ़र से अधिक योग्य तथा अधिक दृढ़ व्यक्ति था। उसने [[मालगुज़ारी]] की वसूली के नियम अधिक कठोर बना दिए और राज्य की आय लगभग दूनी कर दी। उसने फ़ौज का भी संगठन किया और [[कलकत्ता]] (वर्तमान कोलकाता) के अनुचित हस्तक्षेप से अपने को दूर रखने के लिए राजधानी [[मुर्शिदाबाद]] से उठाकर [[मुंगेर]] ले गया।
मीर क़ासिम, मीर ज़ाफ़र से अधिक योग्य तथा अधिक दृढ़ व्यक्ति था। उसने [[मालगुज़ारी]] की वसूली के नियम अधिक कठोर बना दिए और राज्य की आय लगभग दूनी कर दी। उसने फ़ौज का भी संगठन किया और [[कलकत्ता]] (वर्तमान कोलकाता) के अनुचित हस्तक्षेप से अपने को दूर रखने के लिए राजधानी [[मुर्शिदाबाद]] से उठाकर [[मुंगेर]] ले गया।
==व्यापारिक निर्णय==
==व्यापारिक निर्णय==
कम्पनी के अधिकारी मीर जाफ़र (1757-60 ई.) के समय से बिना चुँगी दिये अवैध व्यापार के द्वारा बहुत ही अवैध फ़ायदा उठा रहे थे। मीर जाफ़र ने इस अवैध व्यापार को बन्द करने का निश्चिय किया। उसने कलकत्ता कौंसिल के तत्कालीन अध्यक्ष वैन्सीटार्ट से समझौता किया कि फिरंगी व्यापारियों के निजी माल पर नवाब को दूसरों से ली जाने वाली 40 प्रतिशत चुंगी के स्थान पर 9 प्रतिशत चुंगी लेने का अधिकार होगा। परन्तु कलकत्ता कौंसिल ने इस समझौते को रद्द कर दिया और सिर्फ़ नमक पर 2 प्रतिशत चुंगी के लिए राज़ी हुई। कलकत्ता कौंसिल के इस अनौचित्यपूर्ण निर्णय पर नवाब मीर क़ासिम इतना क्रुद्ध हुआ कि उसने भारतीय और फिरंगी सभी व्यापारियों को बिना चुंगी दिये व्यापार करने की अनुमति दे दी।
कम्पनी के अधिकारी मीर ज़ाफ़र (1757-60 ई.) के समय से बिना चुँगी दिये अवैध व्यापार के द्वारा बहुत ही अवैध फ़ायदा उठा रहे थे। मीर ज़ाफ़र ने इस अवैध व्यापार को बन्द करने का निश्चिय किया। उसने कलकत्ता कौंसिल के तत्कालीन अध्यक्ष वैन्सीटार्ट से समझौता किया कि फिरंगी व्यापारियों के निजी माल पर नवाब को दूसरों से ली जाने वाली 40 प्रतिशत चुंगी के स्थान पर 9 प्रतिशत चुंगी लेने का अधिकार होगा। परन्तु कलकत्ता कौंसिल ने इस समझौते को रद्द कर दिया और सिर्फ़ नमक पर 2 प्रतिशत चुंगी के लिए राज़ी हुई। कलकत्ता कौंसिल के इस अनौचित्यपूर्ण निर्णय पर नवाब मीर क़ासिम इतना क्रुद्ध हुआ कि उसने भारतीय और फिरंगी सभी व्यापारियों को बिना चुंगी दिये व्यापार करने की अनुमति दे दी।
==अंग्रेज़ों से पराजय==
==अंग्रेज़ों से पराजय==
इस तरह से यह स्पष्ट हो गया कि कम्पनी के कर्मचारियों के द्वारा अपने अवैध व्यापार को जारी रखने के आग्रह और नवाब मीर क़ासिम द्वारा अपने को ख़ुदमुख्तार (स्वेच्छाचारी, निरंकुश, मनमानी करने वाला शासक, स्वतंत्र, स्वाधीन, आज़ाद) बनाने के दृढ़ निश्चय के बीच कोई समझौता नहीं हो सकता था, फलत: नवाब तथा कम्पनी के बीच युद्ध अनिवार्य हो गया। युद्ध की दिशा में पहला क़दम [[पटना]] में कम्पनी के मुख्याधिकारी मि. एलिस ने उठाया। उसने पटना पर दख़ल कर लेने की कोशिश की, जो विफल कर दी गई और युद्ध छिड़ गया। किन्तु मीर क़ासिम में कोई भी सैनिक प्रतिभा नहीं थी। उसके पास कोई भी योग्य सिपहसालार नहीं था। ऐसी परिस्थितियों में वह कटवा, धेरिया तथा उधुवानाला की लड़ाईयों में कम्पनी की फ़ौजों से हार गया।
इस तरह से यह स्पष्ट हो गया कि कम्पनी के कर्मचारियों के द्वारा अपने अवैध व्यापार को जारी रखने के आग्रह और नवाब मीर क़ासिम द्वारा अपने को ख़ुदमुख्तार (स्वेच्छाचारी, निरंकुश, मनमानी करने वाला शासक, स्वतंत्र, स्वाधीन, आज़ाद) बनाने के दृढ़ निश्चय के बीच कोई समझौता नहीं हो सकता था, फलत: नवाब तथा कम्पनी के बीच युद्ध अनिवार्य हो गया। युद्ध की दिशा में पहला क़दम [[पटना]] में कम्पनी के मुख्याधिकारी मि. एलिस ने उठाया। उसने पटना पर दख़ल कर लेने की कोशिश की, जो विफल कर दी गई और युद्ध छिड़ गया। किन्तु मीर क़ासिम में कोई भी सैनिक प्रतिभा नहीं थी। उसके पास कोई भी योग्य सिपहसालार नहीं था। ऐसी परिस्थितियों में वह कटवा, धेरिया तथा उधुवानाला की लड़ाईयों में कम्पनी की फ़ौजों से हार गया।
==मृत्यु==
==मृत्यु==
अंग्रेज़ी फ़ौज जब उसकी राजधानी [[मुंगेर]] के निकट पहुँची तो वह पटना भाग गया। वहाँ उसने समस्त [[अंग्रेज़]] बन्दियों को मार डाला तथा [[जगत सेठ]] जैसे उसके जो भी पूर्व विरोधी हाथ पड़े, उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद वह [[अवध]] भाग गया और वहाँ उसने नवाब शुजाउद्दौला तथा भगोड़े बादशाह [[शाहआलम द्वितीय]] से कम्पनी के विरुद्ध गठबन्धन कर लिया। परन्तु अंग्रेज़ों ने 22 अक्टूबर, 1734 को [[बक्सर का युद्ध|बक्सर की लड़ाई]] में तीनों को हरा दिया। [[शुजाउद्दौला]] जान बचाकर [[रुहेलखण्ड]] भाग गया। बादशाह शाहआलम द्वितीय अंग्रेज़ों की शरण में आ गया और मीर क़ासिम दर-दर की ख़ाक़ छानता हुआ कई साल बाद भारी मुफ़लिसी (दरिद्रता, निर्धनता, कंगाली, ग़रीबी) में [[दिल्ली]] में मर गया।  
अंग्रेज़ी फ़ौज जब उसकी राजधानी [[मुंगेर]] के निकट पहुँची तो वह पटना भाग गया। वहाँ उसने समस्त [[अंग्रेज़]] बन्दियों को मार डाला तथा [[जगत सेठ]] जैसे उसके जो भी पूर्व विरोधी हाथ पड़े, उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद वह [[अवध]] भाग गया और वहाँ उसने नवाब शुजाउद्दौला तथा भगोड़े बादशाह [[शाहआलम द्वितीय]] से कम्पनी के विरुद्ध गठबन्धन कर लिया। परन्तु अंग्रेज़ों ने 22 अक्टूबर, 1734 को [[बक्सर का युद्ध|बक्सर की लड़ाई]] में तीनों को हरा दिया। [[शुजाउद्दौला]] जान बचाकर [[रूहेलखण्ड]] भाग गया। बादशाह शाहआलम द्वितीय अंग्रेज़ों की शरण में आ गया और मीर क़ासिम दर-दर की ख़ाक़ छानता हुआ कई साल बाद भारी मुफ़लिसी (दरिद्रता, निर्धनता, कंगाली, ग़रीबी) में [[दिल्ली]] में मर गया।  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

13:41, 16 अगस्त 2011 का अवतरण

मीर क़ासिम 1760 ई. से 1764 ई. तक बंगाल का नवाब रहा था। उसे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की सहायता से नवाब बनाया गया था। अंग्रेज़ों ने 1760 ई. में उसके ससुर मीर ज़ाफ़र को गद्दी से उतार दिया और उसे बंगाल का सूबेदार बना दिया। मीर क़ासिम ने नवाबी पाने के लिए कम्पनी को बर्दवान, मिदनापुर तथा चटगाँव के तीन ज़िले सौंप दिये, कलकत्ता कौंसिल को 20 लाख रुपया नक़द दिया और मीर ज़ाफ़र का सारा क़र्जा बेबाक़ (ऋणमुक्त) कर देने का वायदा किया।

योग्य व्यक्ति

मीर क़ासिम, मीर ज़ाफ़र से अधिक योग्य तथा अधिक दृढ़ व्यक्ति था। उसने मालगुज़ारी की वसूली के नियम अधिक कठोर बना दिए और राज्य की आय लगभग दूनी कर दी। उसने फ़ौज का भी संगठन किया और कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के अनुचित हस्तक्षेप से अपने को दूर रखने के लिए राजधानी मुर्शिदाबाद से उठाकर मुंगेर ले गया।

व्यापारिक निर्णय

कम्पनी के अधिकारी मीर ज़ाफ़र (1757-60 ई.) के समय से बिना चुँगी दिये अवैध व्यापार के द्वारा बहुत ही अवैध फ़ायदा उठा रहे थे। मीर ज़ाफ़र ने इस अवैध व्यापार को बन्द करने का निश्चिय किया। उसने कलकत्ता कौंसिल के तत्कालीन अध्यक्ष वैन्सीटार्ट से समझौता किया कि फिरंगी व्यापारियों के निजी माल पर नवाब को दूसरों से ली जाने वाली 40 प्रतिशत चुंगी के स्थान पर 9 प्रतिशत चुंगी लेने का अधिकार होगा। परन्तु कलकत्ता कौंसिल ने इस समझौते को रद्द कर दिया और सिर्फ़ नमक पर 2 प्रतिशत चुंगी के लिए राज़ी हुई। कलकत्ता कौंसिल के इस अनौचित्यपूर्ण निर्णय पर नवाब मीर क़ासिम इतना क्रुद्ध हुआ कि उसने भारतीय और फिरंगी सभी व्यापारियों को बिना चुंगी दिये व्यापार करने की अनुमति दे दी।

अंग्रेज़ों से पराजय

इस तरह से यह स्पष्ट हो गया कि कम्पनी के कर्मचारियों के द्वारा अपने अवैध व्यापार को जारी रखने के आग्रह और नवाब मीर क़ासिम द्वारा अपने को ख़ुदमुख्तार (स्वेच्छाचारी, निरंकुश, मनमानी करने वाला शासक, स्वतंत्र, स्वाधीन, आज़ाद) बनाने के दृढ़ निश्चय के बीच कोई समझौता नहीं हो सकता था, फलत: नवाब तथा कम्पनी के बीच युद्ध अनिवार्य हो गया। युद्ध की दिशा में पहला क़दम पटना में कम्पनी के मुख्याधिकारी मि. एलिस ने उठाया। उसने पटना पर दख़ल कर लेने की कोशिश की, जो विफल कर दी गई और युद्ध छिड़ गया। किन्तु मीर क़ासिम में कोई भी सैनिक प्रतिभा नहीं थी। उसके पास कोई भी योग्य सिपहसालार नहीं था। ऐसी परिस्थितियों में वह कटवा, धेरिया तथा उधुवानाला की लड़ाईयों में कम्पनी की फ़ौजों से हार गया।

मृत्यु

अंग्रेज़ी फ़ौज जब उसकी राजधानी मुंगेर के निकट पहुँची तो वह पटना भाग गया। वहाँ उसने समस्त अंग्रेज़ बन्दियों को मार डाला तथा जगत सेठ जैसे उसके जो भी पूर्व विरोधी हाथ पड़े, उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद वह अवध भाग गया और वहाँ उसने नवाब शुजाउद्दौला तथा भगोड़े बादशाह शाहआलम द्वितीय से कम्पनी के विरुद्ध गठबन्धन कर लिया। परन्तु अंग्रेज़ों ने 22 अक्टूबर, 1734 को बक्सर की लड़ाई में तीनों को हरा दिया। शुजाउद्दौला जान बचाकर रूहेलखण्ड भाग गया। बादशाह शाहआलम द्वितीय अंग्रेज़ों की शरण में आ गया और मीर क़ासिम दर-दर की ख़ाक़ छानता हुआ कई साल बाद भारी मुफ़लिसी (दरिद्रता, निर्धनता, कंगाली, ग़रीबी) में दिल्ली में मर गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 365।

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