"मुग़ल काल 4": अवतरणों में अंतर
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[[हुमायूँ]] जब [[बीकानेर]] से लौट रहा था तो [[अमरकोट]] के [[राणा सांगा|राणा]] ने साहस करके उसे सहारा और सहायता दी। अमरकोट में ही 1542 में मुग़लों में महानतम शासक [[अकबर]] का जन्म हुआ। जब हुमायूँ ईरान की ओर भागा तो उसके बच्चे अकबर को उसके चाचा कामरान ने पकड़ लिया। उसने बच्चे का भली-भाँति पालन-पोषण किया। कन्धार पर फिर से हुमायूँ का अधिकार हो जाने पर अकबर फिर अपने माता-पिता से मिला। हुमायूँ की मृत्यु के समय अकबर [[पंजाब]] में [[कलानौर]] में था, और अफ़ग़ान विद्रोहियों से निपटने में व्यस्त था। 1556 में कलानौर में ही अकबर की ताजपोशी हुई। उस समय वह तेरह वर्ष और चार महीने का था। | [[हुमायूँ]] जब [[बीकानेर]] से लौट रहा था तो [[अमरकोट]] के [[राणा सांगा|राणा]] ने साहस करके उसे सहारा और सहायता दी। अमरकोट में ही 1542 में मुग़लों में महानतम शासक [[अकबर]] का जन्म हुआ। जब हुमायूँ ईरान की ओर भागा तो उसके बच्चे अकबर को उसके चाचा कामरान ने पकड़ लिया। उसने बच्चे का भली-भाँति पालन-पोषण किया। कन्धार पर फिर से हुमायूँ का अधिकार हो जाने पर अकबर फिर अपने माता-पिता से मिला। हुमायूँ की मृत्यु के समय अकबर [[पंजाब]] में [[कलानौर]] में था, और अफ़ग़ान विद्रोहियों से निपटने में व्यस्त था। 1556 में कलानौर में ही अकबर की ताजपोशी हुई। उस समय वह तेरह वर्ष और चार महीने का था। | ||
==हेमू== | |||
अकबर को कठिन परिस्थितियाँ विरासत में मिली। [[आगरा]] के पार [[अफ़ग़ान]] अभी भी सबल थे और [[हेमू]] के नेतृत्व में अन्तिम लड़ाई की तैयारी कर रहे थे। [[क़ाबुल]] पर आक्रमण करके घेरा डाला जा चुका था। पराजित अफ़ग़ान सरदार सिकन्दर सूर [[शिवालिक]] की पहाड़ियों में घूम रहा था। लेकिन अकबर के उस्ताद और हुमायूँ के स्वामिभक्त और योग्य अधिकारी [[बैरमख़ाँ]] ने परिस्थिति का कुशलता से सामना किया। वह [[ख़ान-ए-ख़ाना]] की उपाधि धारण करके राज्य का वकील बन गया और उसने मुग़ल सेनाओं का पुनर्गठन किया। हेमू की ओर से ख़तरे को सबसे गंभीर समझा गया। उस समय [[चुनार]] से लेकर [[बंगाल]] की सीमा तक प्रदेश [[शेरशाह]] के एक भतीजे आदिलशाह के शासन में था। हेमू ने अपना जीवन इस्लामशाह के राज्यकाल में बाज़ारों के अधीक्षक के रूप में शुरू किया था और आदिलशाह के काल में उसने यकायक उन्नति की थी। उसने बाईस लड़ाईयों में से एक भी नहीं हारी थी। आदिलशाह ने उसे विक्रमजीत की उपाधि प्रदान करके वज़ीर नियुक्त कर लिया था। उसने उसे मुग़लों को खदेड़ने का उत्तरदायित्व सौंप दिया। हेमू ने आगरा पर अधिकार कर लिया और 50,000 घुड़सवार, 500 हाथी और विशाल तोपख़ाना लेकर [[दिल्ली]] की ओर बढ़ दौड़ा। | अकबर को कठिन परिस्थितियाँ विरासत में मिली। [[आगरा]] के पार [[अफ़ग़ान]] अभी भी सबल थे और [[हेमू]] के नेतृत्व में अन्तिम लड़ाई की तैयारी कर रहे थे। [[क़ाबुल]] पर आक्रमण करके घेरा डाला जा चुका था। पराजित अफ़ग़ान सरदार सिकन्दर सूर [[शिवालिक]] की पहाड़ियों में घूम रहा था। लेकिन अकबर के उस्ताद और हुमायूँ के स्वामिभक्त और योग्य अधिकारी [[बैरमख़ाँ]] ने परिस्थिति का कुशलता से सामना किया। वह [[ख़ान-ए-ख़ाना]] की उपाधि धारण करके राज्य का वकील बन गया और उसने मुग़ल सेनाओं का पुनर्गठन किया। हेमू की ओर से ख़तरे को सबसे गंभीर समझा गया। उस समय [[चुनार]] से लेकर [[बंगाल]] की सीमा तक प्रदेश [[शेरशाह]] के एक भतीजे आदिलशाह के शासन में था। हेमू ने अपना जीवन इस्लामशाह के राज्यकाल में बाज़ारों के अधीक्षक के रूप में शुरू किया था और आदिलशाह के काल में उसने यकायक उन्नति की थी। उसने बाईस लड़ाईयों में से एक भी नहीं हारी थी। आदिलशाह ने उसे विक्रमजीत की उपाधि प्रदान करके वज़ीर नियुक्त कर लिया था। उसने उसे मुग़लों को खदेड़ने का उत्तरदायित्व सौंप दिया। हेमू ने आगरा पर अधिकार कर लिया और 50,000 घुड़सवार, 500 हाथी और विशाल तोपख़ाना लेकर [[दिल्ली]] की ओर बढ़ दौड़ा। | ||
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==सरदारों से संघर्ष == | ==सरदारों से संघर्ष == | ||
(1556-67) | (1556-67) | ||
===बैरमख़ाँ=== | |||
बैरमख़ाँ लगभग चार वर्षों तक साम्राज्य का सरगना रहा। इस दौरान उसने सरदारों को क़ाबू में रखा। क़ाबुल पर ख़तरा टल गया था और साम्राज्य की सीमा का विस्तार क़ाबुल से पूर्व में स्थित [[जौनपुर]] तक और पश्चिम में [[अजमेर]] तक हो गया था। ग्वालियर पर भी अधिकार कर लिया गया था और [[रणथम्भोर]] और [[मालवा]] को जीतने का भी भरसक प्रयास किया गया। | बैरमख़ाँ लगभग चार वर्षों तक साम्राज्य का सरगना रहा। इस दौरान उसने सरदारों को क़ाबू में रखा। क़ाबुल पर ख़तरा टल गया था और साम्राज्य की सीमा का विस्तार क़ाबुल से पूर्व में स्थित [[जौनपुर]] तक और पश्चिम में [[अजमेर]] तक हो गया था। ग्वालियर पर भी अधिकार कर लिया गया था और [[रणथम्भोर]] और [[मालवा]] को जीतने का भी भरसक प्रयास किया गया। | ||
इधर अकबर भी परिपक्व हो रहा था। बैरमख़ाँ ने बहुत से प्रभावशाली व्यक्तियों को नाराज़ कर लिया था। उन्होंने शिकायत की कि बैरमख़ाँ शिया है और वह अपने समर्थकों और शियाओं को उच्च पदों पर नियुक्त कर रहा है। ये दोषारोपण अपने आप में बहुत गंभीर नहीं थे लेकिन बैरमख़ाँ बहुत उद्धत हो गया था और इस बात को भूल रहा था अकबर बड़ा हो रहा है। छोटी-छोटी बातों पर दोनों में मतभेद हो गया और अकबर को यह अनुभव हुआ कि लम्बे समय तक राज्य कार्य किसी दूसरे के हाथ में नहीं सौंपा जा सकता। | इधर अकबर भी परिपक्व हो रहा था। बैरमख़ाँ ने बहुत से प्रभावशाली व्यक्तियों को नाराज़ कर लिया था। उन्होंने शिकायत की कि बैरमख़ाँ शिया है और वह अपने समर्थकों और शियाओं को उच्च पदों पर नियुक्त कर रहा है। ये दोषारोपण अपने आप में बहुत गंभीर नहीं थे लेकिन बैरमख़ाँ बहुत उद्धत हो गया था और इस बात को भूल रहा था अकबर बड़ा हो रहा है। छोटी-छोटी बातों पर दोनों में मतभेद हो गया और अकबर को यह अनुभव हुआ कि लम्बे समय तक राज्य कार्य किसी दूसरे के हाथ में नहीं सौंपा जा सकता। | ||
अकबर ने बहुत ही होशियारी से काम लिया। वह शिकार के बहाने आगरा से निकला और दिल्ली पहुँच गया। दिल्ली से उसने बैरमख़ाँ को अपदस्थ करते हुए एक फ़रमान जारी किया और सब सरदारों को व्यक्तिगत रूप से अपने सामने हाज़िर होने का आदेश दिया। बैरमख़ाँ ने जब यह महसूस किया कि अकबर सारे अधिकार अपने हाथ में लेना चाहता है, वह इसके लिए तैयार था। लेकिन उसके विराधी उसे नष्ट करने पर तुले हुए थे। उन्होंने उसे इतना जलील किया कि वह विद्रोह पर उतारू हो गया। इस विद्रोह के कारण साम्राज्य में छः महीने तक अव्यवस्था रही। अन्ततः बैरमख़ाँ समर्पण करने पर विवश हो गया। अकबर ने विनम्रता से उसका स्वागत किया और उसके सामने दो विकल्प रखे कि या तो वह उसके दरबार में कार्य करता रहे या [[मक्का]] चला जाये। बैरमख़ाँ ने मक्का चला जाना बेहतर समझा लेकिन रास्ते में [[अहमदाबाद]] के निकट पाटन में अफ़ग़ानों ने व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण उसकी हत्या कर दी। बैरमख़ाँ की पत्नी और उसके छोटे बच्चे को अकबर के पास लाया गया। अकबर ने बैरम की विधवा के साथ जो उसकी रिश्ते में बहन लगती थी, विवाह कर लिया और बच्चे को बेटे की तरह पाला। यह बच्चा बाद में अब्दुर रहीम ख़ान-ए-ख़ाना के नाम से प्रसिद्ध हुआ और साम्राज्य के महत्वपूर्ण पद और सैनिक पद भी उसके पास रहे। बैरमख़ाँ के साथ अकबर के चरित्र की कुछ विलक्षणताएं स्पष्ट होती हैं। एक बार रास्ता निर्धारित कर लेने पर वह झुकता नहीं था लेकिन किसी प्रतिद्वन्दी के समर्पण कर देने पर वह उसके प्रति बहुत दयालु भी हो उठता था। | अकबर ने बहुत ही होशियारी से काम लिया। वह शिकार के बहाने आगरा से निकला और दिल्ली पहुँच गया। दिल्ली से उसने बैरमख़ाँ को अपदस्थ करते हुए एक फ़रमान जारी किया और सब सरदारों को व्यक्तिगत रूप से अपने सामने हाज़िर होने का आदेश दिया। बैरमख़ाँ ने जब यह महसूस किया कि अकबर सारे अधिकार अपने हाथ में लेना चाहता है, वह इसके लिए तैयार था। लेकिन उसके विराधी उसे नष्ट करने पर तुले हुए थे। उन्होंने उसे इतना जलील किया कि वह विद्रोह पर उतारू हो गया। इस विद्रोह के कारण साम्राज्य में छः महीने तक अव्यवस्था रही। अन्ततः बैरमख़ाँ समर्पण करने पर विवश हो गया। अकबर ने विनम्रता से उसका स्वागत किया और उसके सामने दो विकल्प रखे कि या तो वह उसके दरबार में कार्य करता रहे या [[मक्का]] चला जाये। बैरमख़ाँ ने मक्का चला जाना बेहतर समझा लेकिन रास्ते में [[अहमदाबाद]] के निकट पाटन में अफ़ग़ानों ने व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण उसकी हत्या कर दी। बैरमख़ाँ की पत्नी और उसके छोटे बच्चे को अकबर के पास लाया गया। अकबर ने बैरम की विधवा के साथ जो उसकी रिश्ते में बहन लगती थी, विवाह कर लिया और बच्चे को बेटे की तरह पाला। यह बच्चा बाद में अब्दुर रहीम ख़ान-ए-ख़ाना के नाम से प्रसिद्ध हुआ और साम्राज्य के महत्वपूर्ण पद और सैनिक पद भी उसके पास रहे। बैरमख़ाँ के साथ अकबर के चरित्र की कुछ विलक्षणताएं स्पष्ट होती हैं। एक बार रास्ता निर्धारित कर लेने पर वह झुकता नहीं था लेकिन किसी प्रतिद्वन्दी के समर्पण कर देने पर वह उसके प्रति बहुत दयालु भी हो उठता था। | ||
===उज़बेक=== | |||
बैरमख़ाँ के विद्रोह के दौरान सरदारों में बहुत से व्यक्ति और दल राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गये थे। इनमें अकबर की धाय माँ महम अनगा और उसके संबंधी भी थे। यद्यपि महम अनगा ने शीघ्र ही सन्यास ले लिया परन्तु उसका पुत्र आदमख़ाँ एक महत्वाकांक्षी नौजवान था। उसे मालवा के विरुद्ध एक अभियान का सेनापति बनाकर भेजा गया। लेकिन जब उसे अपदस्थ कर दिया गया तो उसने वज़ीर के पद की मांग की और जब उसकी मांग स्वीकार नहीं की गई तो उसने कार्यवाहक वज़ीर को छुरा घोंप दिया। इससे अकबर बहुत क्रोधित हुआ और आदमख़ाँ को क़िले की दीवार से फिंकवा देने का आदेश दिया। इस प्रकार आदमख़ाँ 1561 में मर गया। परन्तु अकबर को सम्पूर्ण अधिकार स्थापित करने में बहुत वर्ष लगे। [[उज़बेक|उज़बेकों]] ने सरदारों में एक अपना शक्तिशाली दल बना लिया था। उनके पास पूर्वी उत्तर-प्रदेश, बिहार और मालवा में महत्वपूर्ण पद थे। यद्यपि उन्होंने उन क्षेत्रों में शक्तिशाली अफ़ग़ान दलों को दबाये रखकर साम्राज्य की बहुत सेवा की परन्तु वे बहुत उद्धत हो गये थे और तरुण शासक की हुक़्मउदूली करने लगे थे। 1561 और 1567 के बीच उन्होंने कई बार विद्रोह किय जिससे विवश होकर अकबर को उनके विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करनी पड़ी। प्रत्येक बार अकबर ने उन्हें क्षमा कर दिया लेकिन जब 1565 में उन्होंने फिर विद्रोह किया तो अकबर इतना उत्तेजित हुआ कि उसने निर्णय किया कि जब तक वह उन्हें मिटा नहीं देगा तब तक जौनपुर को राजधानी बनाये रखेगा। इसी बीच मिर्ज़ाओं के विद्रोह ने अकबर को उलझा लिया। मिर्ज़ा अकबर के संबंधी थे और [[तैमूर]] वंशी थे। इन्होंने आधुनिक [[उत्तर प्रदेश]] के पश्चिम में पड़ने वाले क्षेत्रों में गड़बड़ मचाई। अकबर के सौतेले भाई मिर्जा हक़ीम ने क़ाबुल पर अधिकार करके [[अखंडित पंजाब|पंजाब]] की ओर कूच किया और [[लाहौर]] पर घेरा डाल दिया। लेकिन उज़बेक विद्रोहियों ने अकबर को औपचारिक रूप से अपना शासक स्वीकार कर लिया। | बैरमख़ाँ के विद्रोह के दौरान सरदारों में बहुत से व्यक्ति और दल राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गये थे। इनमें अकबर की धाय माँ महम अनगा और उसके संबंधी भी थे। यद्यपि महम अनगा ने शीघ्र ही सन्यास ले लिया परन्तु उसका पुत्र आदमख़ाँ एक महत्वाकांक्षी नौजवान था। उसे मालवा के विरुद्ध एक अभियान का सेनापति बनाकर भेजा गया। लेकिन जब उसे अपदस्थ कर दिया गया तो उसने वज़ीर के पद की मांग की और जब उसकी मांग स्वीकार नहीं की गई तो उसने कार्यवाहक वज़ीर को छुरा घोंप दिया। इससे अकबर बहुत क्रोधित हुआ और आदमख़ाँ को क़िले की दीवार से फिंकवा देने का आदेश दिया। इस प्रकार आदमख़ाँ 1561 में मर गया। परन्तु अकबर को सम्पूर्ण अधिकार स्थापित करने में बहुत वर्ष लगे। [[उज़बेक|उज़बेकों]] ने सरदारों में एक अपना शक्तिशाली दल बना लिया था। उनके पास पूर्वी उत्तर-प्रदेश, बिहार और मालवा में महत्वपूर्ण पद थे। यद्यपि उन्होंने उन क्षेत्रों में शक्तिशाली अफ़ग़ान दलों को दबाये रखकर साम्राज्य की बहुत सेवा की परन्तु वे बहुत उद्धत हो गये थे और तरुण शासक की हुक़्मउदूली करने लगे थे। 1561 और 1567 के बीच उन्होंने कई बार विद्रोह किय जिससे विवश होकर अकबर को उनके विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करनी पड़ी। प्रत्येक बार अकबर ने उन्हें क्षमा कर दिया लेकिन जब 1565 में उन्होंने फिर विद्रोह किया तो अकबर इतना उत्तेजित हुआ कि उसने निर्णय किया कि जब तक वह उन्हें मिटा नहीं देगा तब तक जौनपुर को राजधानी बनाये रखेगा। इसी बीच मिर्ज़ाओं के विद्रोह ने अकबर को उलझा लिया। मिर्ज़ा अकबर के संबंधी थे और [[तैमूर]] वंशी थे। इन्होंने आधुनिक [[उत्तर प्रदेश]] के पश्चिम में पड़ने वाले क्षेत्रों में गड़बड़ मचाई। अकबर के सौतेले भाई मिर्जा हक़ीम ने क़ाबुल पर अधिकार करके [[अखंडित पंजाब|पंजाब]] की ओर कूच किया और [[लाहौर]] पर घेरा डाल दिया। लेकिन उज़बेक विद्रोहियों ने अकबर को औपचारिक रूप से अपना शासक स्वीकार कर लिया। | ||
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==साम्राज्य का प्रारम्भिक विस्तार == | ==साम्राज्य का प्रारम्भिक विस्तार == | ||
(1567-76) | (1567-76) | ||
===बाज़बहादुर=== | |||
बैरमख़ाँ के संरक्षण में साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार हुआ था। अजमेर के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण विजय थीः मालवा और [[गढ़-कटंगा]]। उस समय मालवा पर एक युवा राजकुमार [[बाज़बहादुर]] का शासन था। वह संगीत और काव्य में प्रवीण था। बाज़बहादुर और सुंदरी [[रूपमती]] की प्रेम गाथाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। सुंदर होने के साथ-साथ रूपमती संगीत और काव्य में भी सिद्धहस्त थी। बाज़बहादुर के समय में [[माँडू]] संगीत का केन्द्र था। लेकिन बाज़बहादुर ने सेना की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। मालवा के विरुद्ध अभियान का सेनापति अकबर की धाय माँ [[महम अनगा]] का पुत्र [[आदमख़ाँ]] था। बाज़बहादुर बुरी तरह पराजित हुआ (1561) और मुग़लों के हाथ रूपमती सहित बहुत कीमती सामान हाथ लगा। लेकिन रूपमती ने आदमख़ाँ के हरम में जाने की बजाय आत्महत्या करना उचित समझा। आदमख़ाँ और उसके उत्तराधिकारियों के अविवेकपूर्ण ज़ुल्मों के कारण मुग़लों के विरुद्ध वहाँ प्रतिक्रिया हुई। जिससे बाजबहादुर को पुनः राज्य प्राप्त करने का अवसर मिला। | बैरमख़ाँ के संरक्षण में साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार हुआ था। अजमेर के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण विजय थीः मालवा और [[गढ़-कटंगा]]। उस समय मालवा पर एक युवा राजकुमार [[बाज़बहादुर]] का शासन था। वह संगीत और काव्य में प्रवीण था। बाज़बहादुर और सुंदरी [[रूपमती]] की प्रेम गाथाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। सुंदर होने के साथ-साथ रूपमती संगीत और काव्य में भी सिद्धहस्त थी। बाज़बहादुर के समय में [[माँडू]] संगीत का केन्द्र था। लेकिन बाज़बहादुर ने सेना की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। मालवा के विरुद्ध अभियान का सेनापति अकबर की धाय माँ [[महम अनगा]] का पुत्र [[आदमख़ाँ]] था। बाज़बहादुर बुरी तरह पराजित हुआ (1561) और मुग़लों के हाथ रूपमती सहित बहुत कीमती सामान हाथ लगा। लेकिन रूपमती ने आदमख़ाँ के हरम में जाने की बजाय आत्महत्या करना उचित समझा। आदमख़ाँ और उसके उत्तराधिकारियों के अविवेकपूर्ण ज़ुल्मों के कारण मुग़लों के विरुद्ध वहाँ प्रतिक्रिया हुई। जिससे बाजबहादुर को पुनः राज्य प्राप्त करने का अवसर मिला। | ||
बैरमख़ाँ के विद्रोह से निपटने के पश्चात अकबर ने मालवा के विरुद्ध एक और अभियान छेड़ा। बाज़बहादुर को वहाँ से भागना पड़ा। उसने कुछ समय के लिए मेवाड़ के राणा के पास शरण ली। एक के बाद एक दूसरे इलाके में भटकने के बाद बाज़बहादुर अकबर के दरबार में पहुँचा और उस मनसबदार बना दिया गया। कालांतर में वह दो हज़ारी के मनसब (पद) तक बढ़ा। परम्परा के अनुसार रूपमती की समाधि के निकट उज्जैन में उसकी भी समाधि बनाई गई थी। इस प्रकार मालवा का विस्तृत क्षेत्र मुग़लों के शासन में आ गया। इसी समय के लगभग मुग़ल सेनाओं ने गढ़-कटंगा पर विजय प्राप्त की। गढ़-कटंगा के राज्य में [[नर्मदा नदी|नर्मदा]] घाटी और आधुनिक [[मध्य प्रदेश]] के उत्तरी इलाक़े सम्मिलित थे। इस राज्य की स्थापना पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में [[अमन दास]] ने की थी। अमनदास ने [[रायसेन]] को जीतने में [[गुजरात]] के बहादुरशाह की सहायता की थी और उसे इससे "संग्रामशाह" की उपाधि प्राप्त हुई। | बैरमख़ाँ के विद्रोह से निपटने के पश्चात अकबर ने मालवा के विरुद्ध एक और अभियान छेड़ा। बाज़बहादुर को वहाँ से भागना पड़ा। उसने कुछ समय के लिए मेवाड़ के राणा के पास शरण ली। एक के बाद एक दूसरे इलाके में भटकने के बाद बाज़बहादुर अकबर के दरबार में पहुँचा और उस मनसबदार बना दिया गया। कालांतर में वह दो हज़ारी के मनसब (पद) तक बढ़ा। परम्परा के अनुसार रूपमती की समाधि के निकट उज्जैन में उसकी भी समाधि बनाई गई थी। इस प्रकार मालवा का विस्तृत क्षेत्र मुग़लों के शासन में आ गया। इसी समय के लगभग मुग़ल सेनाओं ने गढ़-कटंगा पर विजय प्राप्त की। गढ़-कटंगा के राज्य में [[नर्मदा नदी|नर्मदा]] घाटी और आधुनिक [[मध्य प्रदेश]] के उत्तरी इलाक़े सम्मिलित थे। इस राज्य की स्थापना पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में [[अमन दास]] ने की थी। अमनदास ने [[रायसेन]] को जीतने में [[गुजरात]] के बहादुरशाह की सहायता की थी और उसे इससे "संग्रामशाह" की उपाधि प्राप्त हुई। | ||
===रानी दुर्गावती=== | |||
गढ़-कटंगा में कुछ गोंडे और [[राजपूत रियासतें]] भी थीं। यह गौंडों द्वारा स्थापित एक शक्तिशाली राज्य था। कहा जाता है कि राजा के सेनापतित्व में 20,000 पैदल सिपाही, एक बड़ी संख्या घुड़सवारों की और 1,000 हाथी थे। लेकिन इन संख्याओं की विश्वसनीयता का कोई प्रमाण नहीं है। संग्रामशाह ने अपने एक पुत्र की शादी [[महोबा]] के चंदेल शासक की राजकुमारी से करके अपनी स्थिति और मजबूत कर ली थी। यह राजकुमारी, शीघ्र ही विधवा हो गई, लेकिन उसने अपने वयस्क पुत्र को गद्दी पर बिठलाया और बड़े साहस और कुशलता के साथ राज्य किया। वह एक कुशल बंदूक़ची और तीर-अन्दाज थी। वह शिकार की शौक़ीन थी। एक तत्कालीन लेखक के अनुसार उसे जब भी आस-पास किसी [[बाघ]] के दिखाई देने की सूचना मिलती थी, वह उसका शिकार किए बिना जल भी ग्रहण नहीं करती थी। उसने आसपास के राज्यों से कई लड़ाईयाँ सफलतापूर्वक लड़ीं। बाज़बहादुर से भी उसका युद्ध हुआ। सीमा प्रान्तों के ये संघर्ष मालवा पर मुग़लों का अधिकार हो जाने के बाद भी होते रहे। इसी बीच [[दुर्गावती रानी|दुर्गावती]] के सौन्दर्य तथा अतुल धनराशि होने की कथाएँ इलाहाबाद के मुग़ल गवर्नर [[आसफ़ख़ाँ]] तक पहुँचीं। | गढ़-कटंगा में कुछ गोंडे और [[राजपूत रियासतें]] भी थीं। यह गौंडों द्वारा स्थापित एक शक्तिशाली राज्य था। कहा जाता है कि राजा के सेनापतित्व में 20,000 पैदल सिपाही, एक बड़ी संख्या घुड़सवारों की और 1,000 हाथी थे। लेकिन इन संख्याओं की विश्वसनीयता का कोई प्रमाण नहीं है। संग्रामशाह ने अपने एक पुत्र की शादी [[महोबा]] के चंदेल शासक की राजकुमारी से करके अपनी स्थिति और मजबूत कर ली थी। यह राजकुमारी, शीघ्र ही विधवा हो गई, लेकिन उसने अपने वयस्क पुत्र को गद्दी पर बिठलाया और बड़े साहस और कुशलता के साथ राज्य किया। वह एक कुशल बंदूक़ची और तीर-अन्दाज थी। वह शिकार की शौक़ीन थी। एक तत्कालीन लेखक के अनुसार उसे जब भी आस-पास किसी [[बाघ]] के दिखाई देने की सूचना मिलती थी, वह उसका शिकार किए बिना जल भी ग्रहण नहीं करती थी। उसने आसपास के राज्यों से कई लड़ाईयाँ सफलतापूर्वक लड़ीं। बाज़बहादुर से भी उसका युद्ध हुआ। सीमा प्रान्तों के ये संघर्ष मालवा पर मुग़लों का अधिकार हो जाने के बाद भी होते रहे। इसी बीच [[दुर्गावती रानी|दुर्गावती]] के सौन्दर्य तथा अतुल धनराशि होने की कथाएँ इलाहाबाद के मुग़ल गवर्नर [[आसफ़ख़ाँ]] तक पहुँचीं। | ||
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जब अकबर ने उज़बेक सरदारों के विद्रोह का सामना किया तो उसने आसफ़ख़ाँ को अनधिकृत रूप से अपने पास रखे लूट के माल को लौटाने को विवश किया। अकबर ने गढ़-कटंगा विक्रमशाह के छोटे पुत्र चन्द्रगाह को लौटा दिया, लेकिन [[मालवा]] में पड़ने वाले दस क़िलों को अपने पास रख लिया। | जब अकबर ने उज़बेक सरदारों के विद्रोह का सामना किया तो उसने आसफ़ख़ाँ को अनधिकृत रूप से अपने पास रखे लूट के माल को लौटाने को विवश किया। अकबर ने गढ़-कटंगा विक्रमशाह के छोटे पुत्र चन्द्रगाह को लौटा दिया, लेकिन [[मालवा]] में पड़ने वाले दस क़िलों को अपने पास रख लिया। | ||
===चित्तौड़=== | |||
अगले दस वर्षों में अकबर ने राजस्थान का अधिकांश भाग अपने साम्राज्य में शामिल किया तथा गुजरात और बंगाल को भी जीत लिया। [[राजपूत]] रियासतों के विरुद्ध अभियान में एक महत्वपूर्ण कदम [[चित्त्तौड़]] का घेरा था। यह दृढ़ क़िला, जिसके इतिहास में अनेक घेरे उस पर पड़ चुके थे, मध्य [[राजस्थान]] का प्रवेश द्वार समझा जाता था। यह [[आगरा]] से गुजरात जाने का सबसे छोटा मार्ग था। इससे भी अधिक उसे राजपूती संघर्ष का प्रतीक माना जाता था। अकबर ने यह अनुभव किया कि बिना चित्तौड़ जीते, अन्य राजपूत रियासतें उसका प्रभुत्व स्वीकार नहीं करेंगी। छः महीने के घेरे के बाद चित्तौड़ की पराजय हुई। सामन्तों की सलाह से प्रसिद्ध योद्धाओं [[जयमल]] और [[पट्टा]] को क़िले का भार सौंपा गया था। राजा उदयसिंह जंगलों में छिप गया। आस-पास के इलाक़ों के बहुत से किसानों ने क़िले में शरण ले ली थी। उन्होंने भी क़िले की सुरक्षा में काफ़ी योगदान दिया। जब मुग़लों ने क़िले में प्रवेश किया, तो इन किसानों और योद्धाओं का क़त्ल कर दिया गया। यह पहला और अंतिम अवसर था जब कि अकबर ने ऐसा क़त्लेआम करवाया। राजपूत योद्धाओं ने मरने से पूर्व यथा-सम्भव मुक़ाबला किया। जयमल और पट्टा की वीरता को देखते हुए अकबर ने आगरा के क़िले के मुख्य द्वार के बाहर हाथी पर सवार इन वीरों की प्रतिमाएं स्थापित करवाने का आदेश दिया। | अगले दस वर्षों में अकबर ने राजस्थान का अधिकांश भाग अपने साम्राज्य में शामिल किया तथा गुजरात और बंगाल को भी जीत लिया। [[राजपूत]] रियासतों के विरुद्ध अभियान में एक महत्वपूर्ण कदम [[चित्त्तौड़]] का घेरा था। यह दृढ़ क़िला, जिसके इतिहास में अनेक घेरे उस पर पड़ चुके थे, मध्य [[राजस्थान]] का प्रवेश द्वार समझा जाता था। यह [[आगरा]] से गुजरात जाने का सबसे छोटा मार्ग था। इससे भी अधिक उसे राजपूती संघर्ष का प्रतीक माना जाता था। अकबर ने यह अनुभव किया कि बिना चित्तौड़ जीते, अन्य राजपूत रियासतें उसका प्रभुत्व स्वीकार नहीं करेंगी। छः महीने के घेरे के बाद चित्तौड़ की पराजय हुई। सामन्तों की सलाह से प्रसिद्ध योद्धाओं [[जयमल]] और [[पट्टा]] को क़िले का भार सौंपा गया था। राजा उदयसिंह जंगलों में छिप गया। आस-पास के इलाक़ों के बहुत से किसानों ने क़िले में शरण ले ली थी। उन्होंने भी क़िले की सुरक्षा में काफ़ी योगदान दिया। जब मुग़लों ने क़िले में प्रवेश किया, तो इन किसानों और योद्धाओं का क़त्ल कर दिया गया। यह पहला और अंतिम अवसर था जब कि अकबर ने ऐसा क़त्लेआम करवाया। राजपूत योद्धाओं ने मरने से पूर्व यथा-सम्भव मुक़ाबला किया। जयमल और पट्टा की वीरता को देखते हुए अकबर ने आगरा के क़िले के मुख्य द्वार के बाहर हाथी पर सवार इन वीरों की प्रतिमाएं स्थापित करवाने का आदेश दिया। | ||
चित्तौड़ के बाद राजस्थान के सबसे शक्तिशाली किले [[रणथम्भौर]] का पतन हुआ। [[जोधपुर]] पहले ही जीता जा चुका था। इन विषयों के परिणामस्वरूप [[बीकानेर]] और [[जैसलमेर]] सहित अनेक राजपूत रियासतों ने अकबर के आगे समर्पण कर दिया। केवल [[मेवाड़]] ही संघर्ष करता रहा। | चित्तौड़ के बाद राजस्थान के सबसे शक्तिशाली किले [[रणथम्भौर]] का पतन हुआ। [[जोधपुर]] पहले ही जीता जा चुका था। इन विषयों के परिणामस्वरूप [[बीकानेर]] और [[जैसलमेर]] सहित अनेक राजपूत रियासतों ने अकबर के आगे समर्पण कर दिया। केवल [[मेवाड़]] ही संघर्ष करता रहा। | ||
===गुजरात=== | |||
बहादुरशाह की मृत्यु के पश्चात से गुजरात की स्थिति बहुत ख़राब थी। अपनी उपजाऊ भूमि, उन्नत शिल्प और बाहरी दुनिया के साथ आयात-निर्यात व्यापार का केन्द्र होने के कारण गुजरात महत्वपूर्ण बन चुका था। अकबर ने यह कहकर उस पर अपना अधिकार जताया कि [[हुमायूँ]] उस पर कुछ समय तक राज्य कर चुका था। एक और कारण [[दिल्ली]] के निकट मिर्ज़ाओं का विद्रोह में असफल होकर गुजरात में शरण लेना था। अकबर इस बात के लिए तैयार नहीं था कि गुजरात जैसा समृद्ध प्रदेश मुक़ाबले की शक्ति बन जाये। 1572 में अकबर [[अजमेर]] के रास्ते से [[अहमदाबाद]] की ओर बढ़ा। अहमदाबाद ने बिना लड़े समर्पण कर दिया। अकबर ने फिर मिर्ज़ाओं की ओर ध्यान दिया। जिन्होंने [[भड़ौंच]], [[बड़ौदा]] और [[सूरत]] पर अधिकार किया हुआ था। [[खम्बात]] में अकबर ने पहली बार समुद्र के दर्शन किए और नाव में सैर की। पुर्तग़ालियों के एक दल ने पहली बार अकबर से आकर भेंट की। इस समय पुर्तग़ालियों का भारतीय समुद्रों पर पूर्ण अधिकार था और उनकी आकांक्षा भारत में साम्राज्य स्थापित करने की थी। अकबर की गुजरात विजय से उनकी आशाओं पर तुषारापात हो गया। | बहादुरशाह की मृत्यु के पश्चात से गुजरात की स्थिति बहुत ख़राब थी। अपनी उपजाऊ भूमि, उन्नत शिल्प और बाहरी दुनिया के साथ आयात-निर्यात व्यापार का केन्द्र होने के कारण गुजरात महत्वपूर्ण बन चुका था। अकबर ने यह कहकर उस पर अपना अधिकार जताया कि [[हुमायूँ]] उस पर कुछ समय तक राज्य कर चुका था। एक और कारण [[दिल्ली]] के निकट मिर्ज़ाओं का विद्रोह में असफल होकर गुजरात में शरण लेना था। अकबर इस बात के लिए तैयार नहीं था कि गुजरात जैसा समृद्ध प्रदेश मुक़ाबले की शक्ति बन जाये। 1572 में अकबर [[अजमेर]] के रास्ते से [[अहमदाबाद]] की ओर बढ़ा। अहमदाबाद ने बिना लड़े समर्पण कर दिया। अकबर ने फिर मिर्ज़ाओं की ओर ध्यान दिया। जिन्होंने [[भड़ौंच]], [[बड़ौदा]] और [[सूरत]] पर अधिकार किया हुआ था। [[खम्बात]] में अकबर ने पहली बार समुद्र के दर्शन किए और नाव में सैर की। पुर्तग़ालियों के एक दल ने पहली बार अकबर से आकर भेंट की। इस समय पुर्तग़ालियों का भारतीय समुद्रों पर पूर्ण अधिकार था और उनकी आकांक्षा भारत में साम्राज्य स्थापित करने की थी। अकबर की गुजरात विजय से उनकी आशाओं पर तुषारापात हो गया। | ||
जब अकबर की सेनाओं ने सूरत पर घेरा डाला हुआ था, तभी अकबर ने [[राजा मानसिंह]] और आमेर के [[भगवानदास]] सहित 200 सैनिकों की छोटी सी टुकड़ी लेकर [[माही नदी]] को पार किया और मिर्ज़ाओं पर आक्रमण कर दिया। कुछ समय के लिए अकबर का जीवन ख़तरे में पड़ गया। लेकिन उसके आक्रमण की प्रचण्डता से मिर्ज़ाओं के पैर उखड़ गये। परन्तु, जैसे ही अकबर गुजरात से लौटा, यहाँ विद्रोह फूट पड़ा। यह सुनकर अकबर लौट पड़ा। उसने ऊँटों, घेड़ों और गाड़ियों में यात्रा करते हुए नौ दिन में सारा [[राजस्थान]] पार किया और ग्याहरवें दिन अहमदाबाद पहुँच गया। यह यात्रा सामान्यतः छः सप्ताहों में पूर्ण हो सकती थी। केवल, 3,000 सिपाही ही अकबर के साथ पहुँच पाये। इसी छोटी सी सेना की सहायता से उसने 30,000 सैनिकों की सेना को परास्त किया। | जब अकबर की सेनाओं ने सूरत पर घेरा डाला हुआ था, तभी अकबर ने [[राजा मानसिंह]] और आमेर के [[भगवानदास]] सहित 200 सैनिकों की छोटी सी टुकड़ी लेकर [[माही नदी]] को पार किया और मिर्ज़ाओं पर आक्रमण कर दिया। कुछ समय के लिए अकबर का जीवन ख़तरे में पड़ गया। लेकिन उसके आक्रमण की प्रचण्डता से मिर्ज़ाओं के पैर उखड़ गये। परन्तु, जैसे ही अकबर गुजरात से लौटा, यहाँ विद्रोह फूट पड़ा। यह सुनकर अकबर लौट पड़ा। उसने ऊँटों, घेड़ों और गाड़ियों में यात्रा करते हुए नौ दिन में सारा [[राजस्थान]] पार किया और ग्याहरवें दिन अहमदाबाद पहुँच गया। यह यात्रा सामान्यतः छः सप्ताहों में पूर्ण हो सकती थी। केवल, 3,000 सिपाही ही अकबर के साथ पहुँच पाये। इसी छोटी सी सेना की सहायता से उसने 30,000 सैनिकों की सेना को परास्त किया। | ||
===बंगाल=== | |||
इसके पश्चात अकबर ने अपना ध्यान [[बंगाल]] की ओर लगाया। बंगाल के अफ़ग़ानों ने [[उड़ीसा]] को रौंद डाला था और उसके शासक को भी मार डाला था। लेकिन मुग़लों को नाराज होने का मौका न देने के लिए [[अफ़ग़ान]] शासक ने औपचारिक रूप से स्वयं को सुल्तान घोषित नहीं किया था, और अकबर के नाम का ख़ुत्वा पढ़ता रहा था। अफ़ग़ानों की आंतरिक लड़ाई और नये शासक दाऊदख़ाँ द्वारा स्वतंत्रता की घोषणा से अकबर को वह अवसर मिल गया, जिसकी उसे तलाश थी। अकबर अपने साथ एक मजबूत नौका बेड़ा लेकर आगे बढ़ा। ऐसा विश्वास किया जाता था अफ़ग़ान सुल्तान के पास बहुत बड़ी सेना है, जिसमें 40,000 सुसज्जित घुड़सवार, 1,50,000 पैदल सैनिक, कई हज़ार बन्दूक़ें और हाथी तथा युद्धक नावों का विशाल बेड़ा था। यदि अकबर सावधानी से काम न लेता और अफ़ग़ानों के पास बेहतर नेता होता, तो हो सकता है कि हुमायूँ और [[शेरशाह]] की ही पुनरावृत्ति होती। अकबर ने पहले पटना पर अधिकार किया और इस प्रकार बिहार में मुग़लों के लिए संचार के साधनों को सुरक्षित कर लिया। उसके बाद उसने एक अनुभवी अधिकारी ख़ान-ए-ख़ाना मुनीसख़ाँ को अभियान का नेता बनाया और स्वयं आगरा लौट गया। मुग़ल सेनाओं ने बंगाल पर आक्रमण किया और काफी संघर्ष के बाद दाऊदख़ाँ को शान्ति की संधि के लिए विवश कर दिया। उसने शीघ्र ही दुबारा विद्रोह किया। यद्यपि [[बिहार]] और बंगाल में में मुग़लों की स्थिति अभी कमज़ोर थी, यद्यपि उनकी सेनाएँ अधिक संगठित और बेहतर नेतृत्व वाली थीं। 1576 में बिहार में एक तगड़ी लड़ाई में दाऊदख़ाँ पराजित हुआ और उसे उसी समय मार डाला गया। | इसके पश्चात अकबर ने अपना ध्यान [[बंगाल]] की ओर लगाया। बंगाल के अफ़ग़ानों ने [[उड़ीसा]] को रौंद डाला था और उसके शासक को भी मार डाला था। लेकिन मुग़लों को नाराज होने का मौका न देने के लिए [[अफ़ग़ान]] शासक ने औपचारिक रूप से स्वयं को सुल्तान घोषित नहीं किया था, और अकबर के नाम का ख़ुत्वा पढ़ता रहा था। अफ़ग़ानों की आंतरिक लड़ाई और नये शासक दाऊदख़ाँ द्वारा स्वतंत्रता की घोषणा से अकबर को वह अवसर मिल गया, जिसकी उसे तलाश थी। अकबर अपने साथ एक मजबूत नौका बेड़ा लेकर आगे बढ़ा। ऐसा विश्वास किया जाता था अफ़ग़ान सुल्तान के पास बहुत बड़ी सेना है, जिसमें 40,000 सुसज्जित घुड़सवार, 1,50,000 पैदल सैनिक, कई हज़ार बन्दूक़ें और हाथी तथा युद्धक नावों का विशाल बेड़ा था। यदि अकबर सावधानी से काम न लेता और अफ़ग़ानों के पास बेहतर नेता होता, तो हो सकता है कि हुमायूँ और [[शेरशाह]] की ही पुनरावृत्ति होती। अकबर ने पहले पटना पर अधिकार किया और इस प्रकार बिहार में मुग़लों के लिए संचार के साधनों को सुरक्षित कर लिया। उसके बाद उसने एक अनुभवी अधिकारी ख़ान-ए-ख़ाना मुनीसख़ाँ को अभियान का नेता बनाया और स्वयं आगरा लौट गया। मुग़ल सेनाओं ने बंगाल पर आक्रमण किया और काफी संघर्ष के बाद दाऊदख़ाँ को शान्ति की संधि के लिए विवश कर दिया। उसने शीघ्र ही दुबारा विद्रोह किया। यद्यपि [[बिहार]] और बंगाल में में मुग़लों की स्थिति अभी कमज़ोर थी, यद्यपि उनकी सेनाएँ अधिक संगठित और बेहतर नेतृत्व वाली थीं। 1576 में बिहार में एक तगड़ी लड़ाई में दाऊदख़ाँ पराजित हुआ और उसे उसी समय मार डाला गया। | ||
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अकबर का युग
हुमायूँ जब बीकानेर से लौट रहा था तो अमरकोट के राणा ने साहस करके उसे सहारा और सहायता दी। अमरकोट में ही 1542 में मुग़लों में महानतम शासक अकबर का जन्म हुआ। जब हुमायूँ ईरान की ओर भागा तो उसके बच्चे अकबर को उसके चाचा कामरान ने पकड़ लिया। उसने बच्चे का भली-भाँति पालन-पोषण किया। कन्धार पर फिर से हुमायूँ का अधिकार हो जाने पर अकबर फिर अपने माता-पिता से मिला। हुमायूँ की मृत्यु के समय अकबर पंजाब में कलानौर में था, और अफ़ग़ान विद्रोहियों से निपटने में व्यस्त था। 1556 में कलानौर में ही अकबर की ताजपोशी हुई। उस समय वह तेरह वर्ष और चार महीने का था।
हेमू
अकबर को कठिन परिस्थितियाँ विरासत में मिली। आगरा के पार अफ़ग़ान अभी भी सबल थे और हेमू के नेतृत्व में अन्तिम लड़ाई की तैयारी कर रहे थे। क़ाबुल पर आक्रमण करके घेरा डाला जा चुका था। पराजित अफ़ग़ान सरदार सिकन्दर सूर शिवालिक की पहाड़ियों में घूम रहा था। लेकिन अकबर के उस्ताद और हुमायूँ के स्वामिभक्त और योग्य अधिकारी बैरमख़ाँ ने परिस्थिति का कुशलता से सामना किया। वह ख़ान-ए-ख़ाना की उपाधि धारण करके राज्य का वकील बन गया और उसने मुग़ल सेनाओं का पुनर्गठन किया। हेमू की ओर से ख़तरे को सबसे गंभीर समझा गया। उस समय चुनार से लेकर बंगाल की सीमा तक प्रदेश शेरशाह के एक भतीजे आदिलशाह के शासन में था। हेमू ने अपना जीवन इस्लामशाह के राज्यकाल में बाज़ारों के अधीक्षक के रूप में शुरू किया था और आदिलशाह के काल में उसने यकायक उन्नति की थी। उसने बाईस लड़ाईयों में से एक भी नहीं हारी थी। आदिलशाह ने उसे विक्रमजीत की उपाधि प्रदान करके वज़ीर नियुक्त कर लिया था। उसने उसे मुग़लों को खदेड़ने का उत्तरदायित्व सौंप दिया। हेमू ने आगरा पर अधिकार कर लिया और 50,000 घुड़सवार, 500 हाथी और विशाल तोपख़ाना लेकर दिल्ली की ओर बढ़ दौड़ा।
एक संघर्षपूर्ण लड़ाई में हेमू ने मुग़लों को पराजित कर दिया और दिल्ली पर अधिकार कर लिया। लेकिन परिस्थिति का सामना करने के लिए बैरमख़ाँ ने साहस पूर्ण कदम उठाये। उसके इस साहसिक क़दम से मुग़ल सेना में एक नयी शक्ति का संचार हुआ और उसने हेमू की अपनी स्थिति मज़बूत करने का अवसर दिए बिना दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। हेमू के नेतृत्व में अफ़ग़ान फौज और मुग़लों के बीच पानीपत के मैदान में एक बार फिर लड़ाई हुई (5 नवम्बर 1556)। मुग़लों की एक टुकड़ी ने हेमू के तोपख़ाने पर पहले अधिकार कर लिया लेकिन पलड़ा हेमू का ही भारी था। लेकिन तभी एक तीर हेमू की आंख में लगा और वह बेहोश हो गया। नेतृत्वहीन अफ़ग़ान सेना पराजित हो गई। हेमू को पकड़कर मार डाला गया। इस प्रकार अकबर को साम्राज्य पुनः लड़कर लेना पड़ा।
सरदारों से संघर्ष
(1556-67)
बैरमख़ाँ
बैरमख़ाँ लगभग चार वर्षों तक साम्राज्य का सरगना रहा। इस दौरान उसने सरदारों को क़ाबू में रखा। क़ाबुल पर ख़तरा टल गया था और साम्राज्य की सीमा का विस्तार क़ाबुल से पूर्व में स्थित जौनपुर तक और पश्चिम में अजमेर तक हो गया था। ग्वालियर पर भी अधिकार कर लिया गया था और रणथम्भोर और मालवा को जीतने का भी भरसक प्रयास किया गया। इधर अकबर भी परिपक्व हो रहा था। बैरमख़ाँ ने बहुत से प्रभावशाली व्यक्तियों को नाराज़ कर लिया था। उन्होंने शिकायत की कि बैरमख़ाँ शिया है और वह अपने समर्थकों और शियाओं को उच्च पदों पर नियुक्त कर रहा है। ये दोषारोपण अपने आप में बहुत गंभीर नहीं थे लेकिन बैरमख़ाँ बहुत उद्धत हो गया था और इस बात को भूल रहा था अकबर बड़ा हो रहा है। छोटी-छोटी बातों पर दोनों में मतभेद हो गया और अकबर को यह अनुभव हुआ कि लम्बे समय तक राज्य कार्य किसी दूसरे के हाथ में नहीं सौंपा जा सकता।
अकबर ने बहुत ही होशियारी से काम लिया। वह शिकार के बहाने आगरा से निकला और दिल्ली पहुँच गया। दिल्ली से उसने बैरमख़ाँ को अपदस्थ करते हुए एक फ़रमान जारी किया और सब सरदारों को व्यक्तिगत रूप से अपने सामने हाज़िर होने का आदेश दिया। बैरमख़ाँ ने जब यह महसूस किया कि अकबर सारे अधिकार अपने हाथ में लेना चाहता है, वह इसके लिए तैयार था। लेकिन उसके विराधी उसे नष्ट करने पर तुले हुए थे। उन्होंने उसे इतना जलील किया कि वह विद्रोह पर उतारू हो गया। इस विद्रोह के कारण साम्राज्य में छः महीने तक अव्यवस्था रही। अन्ततः बैरमख़ाँ समर्पण करने पर विवश हो गया। अकबर ने विनम्रता से उसका स्वागत किया और उसके सामने दो विकल्प रखे कि या तो वह उसके दरबार में कार्य करता रहे या मक्का चला जाये। बैरमख़ाँ ने मक्का चला जाना बेहतर समझा लेकिन रास्ते में अहमदाबाद के निकट पाटन में अफ़ग़ानों ने व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण उसकी हत्या कर दी। बैरमख़ाँ की पत्नी और उसके छोटे बच्चे को अकबर के पास लाया गया। अकबर ने बैरम की विधवा के साथ जो उसकी रिश्ते में बहन लगती थी, विवाह कर लिया और बच्चे को बेटे की तरह पाला। यह बच्चा बाद में अब्दुर रहीम ख़ान-ए-ख़ाना के नाम से प्रसिद्ध हुआ और साम्राज्य के महत्वपूर्ण पद और सैनिक पद भी उसके पास रहे। बैरमख़ाँ के साथ अकबर के चरित्र की कुछ विलक्षणताएं स्पष्ट होती हैं। एक बार रास्ता निर्धारित कर लेने पर वह झुकता नहीं था लेकिन किसी प्रतिद्वन्दी के समर्पण कर देने पर वह उसके प्रति बहुत दयालु भी हो उठता था।
उज़बेक
बैरमख़ाँ के विद्रोह के दौरान सरदारों में बहुत से व्यक्ति और दल राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गये थे। इनमें अकबर की धाय माँ महम अनगा और उसके संबंधी भी थे। यद्यपि महम अनगा ने शीघ्र ही सन्यास ले लिया परन्तु उसका पुत्र आदमख़ाँ एक महत्वाकांक्षी नौजवान था। उसे मालवा के विरुद्ध एक अभियान का सेनापति बनाकर भेजा गया। लेकिन जब उसे अपदस्थ कर दिया गया तो उसने वज़ीर के पद की मांग की और जब उसकी मांग स्वीकार नहीं की गई तो उसने कार्यवाहक वज़ीर को छुरा घोंप दिया। इससे अकबर बहुत क्रोधित हुआ और आदमख़ाँ को क़िले की दीवार से फिंकवा देने का आदेश दिया। इस प्रकार आदमख़ाँ 1561 में मर गया। परन्तु अकबर को सम्पूर्ण अधिकार स्थापित करने में बहुत वर्ष लगे। उज़बेकों ने सरदारों में एक अपना शक्तिशाली दल बना लिया था। उनके पास पूर्वी उत्तर-प्रदेश, बिहार और मालवा में महत्वपूर्ण पद थे। यद्यपि उन्होंने उन क्षेत्रों में शक्तिशाली अफ़ग़ान दलों को दबाये रखकर साम्राज्य की बहुत सेवा की परन्तु वे बहुत उद्धत हो गये थे और तरुण शासक की हुक़्मउदूली करने लगे थे। 1561 और 1567 के बीच उन्होंने कई बार विद्रोह किय जिससे विवश होकर अकबर को उनके विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करनी पड़ी। प्रत्येक बार अकबर ने उन्हें क्षमा कर दिया लेकिन जब 1565 में उन्होंने फिर विद्रोह किया तो अकबर इतना उत्तेजित हुआ कि उसने निर्णय किया कि जब तक वह उन्हें मिटा नहीं देगा तब तक जौनपुर को राजधानी बनाये रखेगा। इसी बीच मिर्ज़ाओं के विद्रोह ने अकबर को उलझा लिया। मिर्ज़ा अकबर के संबंधी थे और तैमूर वंशी थे। इन्होंने आधुनिक उत्तर प्रदेश के पश्चिम में पड़ने वाले क्षेत्रों में गड़बड़ मचाई। अकबर के सौतेले भाई मिर्जा हक़ीम ने क़ाबुल पर अधिकार करके पंजाब की ओर कूच किया और लाहौर पर घेरा डाल दिया। लेकिन उज़बेक विद्रोहियों ने अकबर को औपचारिक रूप से अपना शासक स्वीकार कर लिया।
हेमू के दिल्ली पर अधिकार करने के बाद अकबर के सामने यह गंभीर संकट था। परन्तु अकबर की कुशलता और भाग्य ने उसे विजय दिलाई। वह जौनपुर से लाहौर की ओर बढ़ा जिससे मिर्ज़ा हक़ीम पीछे हटने को मजबूर हो गया। इस बीच मिर्ज़ाओं के विद्रोह को कुचल दिया गया और वे मालवा और गुजरात की ओर भाग गये। अकबर लाहौर से जौनपुर लौटा। वर्षा ऋतु में इलाहाबाद के निकट यमुना पार करके उज़बेक सरदारों के नेतृत्व ने विद्रोह करने वालों को आश्चर्यचकित कर दिया और उन्हें पूरी तरह से पराजित किया। उज़बेक नेता लड़ाई में मारे गये और इस प्रकार यह लम्बा विद्रोह समाप्त हो गया। उन सरदारों सहित जो स्वतंत्रता का सपना देख रहे थे, सभी विद्रोही सरदार पस्त पड़ गये। अब अकबर अपने साम्राज्य के विस्तार की ओर ध्यान देने के लिये मुक्त था।
साम्राज्य का प्रारम्भिक विस्तार
(1567-76)
बाज़बहादुर
बैरमख़ाँ के संरक्षण में साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार हुआ था। अजमेर के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण विजय थीः मालवा और गढ़-कटंगा। उस समय मालवा पर एक युवा राजकुमार बाज़बहादुर का शासन था। वह संगीत और काव्य में प्रवीण था। बाज़बहादुर और सुंदरी रूपमती की प्रेम गाथाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। सुंदर होने के साथ-साथ रूपमती संगीत और काव्य में भी सिद्धहस्त थी। बाज़बहादुर के समय में माँडू संगीत का केन्द्र था। लेकिन बाज़बहादुर ने सेना की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। मालवा के विरुद्ध अभियान का सेनापति अकबर की धाय माँ महम अनगा का पुत्र आदमख़ाँ था। बाज़बहादुर बुरी तरह पराजित हुआ (1561) और मुग़लों के हाथ रूपमती सहित बहुत कीमती सामान हाथ लगा। लेकिन रूपमती ने आदमख़ाँ के हरम में जाने की बजाय आत्महत्या करना उचित समझा। आदमख़ाँ और उसके उत्तराधिकारियों के अविवेकपूर्ण ज़ुल्मों के कारण मुग़लों के विरुद्ध वहाँ प्रतिक्रिया हुई। जिससे बाजबहादुर को पुनः राज्य प्राप्त करने का अवसर मिला।
बैरमख़ाँ के विद्रोह से निपटने के पश्चात अकबर ने मालवा के विरुद्ध एक और अभियान छेड़ा। बाज़बहादुर को वहाँ से भागना पड़ा। उसने कुछ समय के लिए मेवाड़ के राणा के पास शरण ली। एक के बाद एक दूसरे इलाके में भटकने के बाद बाज़बहादुर अकबर के दरबार में पहुँचा और उस मनसबदार बना दिया गया। कालांतर में वह दो हज़ारी के मनसब (पद) तक बढ़ा। परम्परा के अनुसार रूपमती की समाधि के निकट उज्जैन में उसकी भी समाधि बनाई गई थी। इस प्रकार मालवा का विस्तृत क्षेत्र मुग़लों के शासन में आ गया। इसी समय के लगभग मुग़ल सेनाओं ने गढ़-कटंगा पर विजय प्राप्त की। गढ़-कटंगा के राज्य में नर्मदा घाटी और आधुनिक मध्य प्रदेश के उत्तरी इलाक़े सम्मिलित थे। इस राज्य की स्थापना पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अमन दास ने की थी। अमनदास ने रायसेन को जीतने में गुजरात के बहादुरशाह की सहायता की थी और उसे इससे "संग्रामशाह" की उपाधि प्राप्त हुई।
रानी दुर्गावती
गढ़-कटंगा में कुछ गोंडे और राजपूत रियासतें भी थीं। यह गौंडों द्वारा स्थापित एक शक्तिशाली राज्य था। कहा जाता है कि राजा के सेनापतित्व में 20,000 पैदल सिपाही, एक बड़ी संख्या घुड़सवारों की और 1,000 हाथी थे। लेकिन इन संख्याओं की विश्वसनीयता का कोई प्रमाण नहीं है। संग्रामशाह ने अपने एक पुत्र की शादी महोबा के चंदेल शासक की राजकुमारी से करके अपनी स्थिति और मजबूत कर ली थी। यह राजकुमारी, शीघ्र ही विधवा हो गई, लेकिन उसने अपने वयस्क पुत्र को गद्दी पर बिठलाया और बड़े साहस और कुशलता के साथ राज्य किया। वह एक कुशल बंदूक़ची और तीर-अन्दाज थी। वह शिकार की शौक़ीन थी। एक तत्कालीन लेखक के अनुसार उसे जब भी आस-पास किसी बाघ के दिखाई देने की सूचना मिलती थी, वह उसका शिकार किए बिना जल भी ग्रहण नहीं करती थी। उसने आसपास के राज्यों से कई लड़ाईयाँ सफलतापूर्वक लड़ीं। बाज़बहादुर से भी उसका युद्ध हुआ। सीमा प्रान्तों के ये संघर्ष मालवा पर मुग़लों का अधिकार हो जाने के बाद भी होते रहे। इसी बीच दुर्गावती के सौन्दर्य तथा अतुल धनराशि होने की कथाएँ इलाहाबाद के मुग़ल गवर्नर आसफ़ख़ाँ तक पहुँचीं।
आसफ़ख़ाँ 10,000 सिपाहियों को लेकर बुन्देलखण्ड की ओर से बढ़ा। गढ़ के कुछ अर्द्ध-स्वतंत्र शासकों ने गोंड का जुआ कंधों से उतार फेंकने का अच्छा अवसर देखा। अतः रानी के पास बहुत कम फौज रह गई। ज़ख़्मी होने पर भी वह, वीरतापूर्वक लड़ती रही। फिर यह देखकर की पराजय अवश्यंभावी है और उसे बंदी बनाया जा सकता है, उसने छुरा मारकर आत्महत्या कर ली। आसफ़ख़ाँ ने तब आधुनिक जबलपुर के पास स्थित उसकी राजधानी चौरागढ़ पर हल्ला बोल दिया। अबुलफ़ज़ल कहता है कि "इतने हीरे, जवाहरात, सोना, चाँदी और अन्य वस्तुएं हाथ लगीं की उनक अंश का भी हिसाब लगा पाना मुश्किल है। उस भारी लूट में आसफ़ख़ाँ ने केवल 200 हाथी दरबार में भेज दिए और शेष अपने पास रख लिया।" रानी की एक छोटी बहन कमलदेवी भी दरबार में भेज दी गई।
जब अकबर ने उज़बेक सरदारों के विद्रोह का सामना किया तो उसने आसफ़ख़ाँ को अनधिकृत रूप से अपने पास रखे लूट के माल को लौटाने को विवश किया। अकबर ने गढ़-कटंगा विक्रमशाह के छोटे पुत्र चन्द्रगाह को लौटा दिया, लेकिन मालवा में पड़ने वाले दस क़िलों को अपने पास रख लिया।
चित्तौड़
अगले दस वर्षों में अकबर ने राजस्थान का अधिकांश भाग अपने साम्राज्य में शामिल किया तथा गुजरात और बंगाल को भी जीत लिया। राजपूत रियासतों के विरुद्ध अभियान में एक महत्वपूर्ण कदम चित्त्तौड़ का घेरा था। यह दृढ़ क़िला, जिसके इतिहास में अनेक घेरे उस पर पड़ चुके थे, मध्य राजस्थान का प्रवेश द्वार समझा जाता था। यह आगरा से गुजरात जाने का सबसे छोटा मार्ग था। इससे भी अधिक उसे राजपूती संघर्ष का प्रतीक माना जाता था। अकबर ने यह अनुभव किया कि बिना चित्तौड़ जीते, अन्य राजपूत रियासतें उसका प्रभुत्व स्वीकार नहीं करेंगी। छः महीने के घेरे के बाद चित्तौड़ की पराजय हुई। सामन्तों की सलाह से प्रसिद्ध योद्धाओं जयमल और पट्टा को क़िले का भार सौंपा गया था। राजा उदयसिंह जंगलों में छिप गया। आस-पास के इलाक़ों के बहुत से किसानों ने क़िले में शरण ले ली थी। उन्होंने भी क़िले की सुरक्षा में काफ़ी योगदान दिया। जब मुग़लों ने क़िले में प्रवेश किया, तो इन किसानों और योद्धाओं का क़त्ल कर दिया गया। यह पहला और अंतिम अवसर था जब कि अकबर ने ऐसा क़त्लेआम करवाया। राजपूत योद्धाओं ने मरने से पूर्व यथा-सम्भव मुक़ाबला किया। जयमल और पट्टा की वीरता को देखते हुए अकबर ने आगरा के क़िले के मुख्य द्वार के बाहर हाथी पर सवार इन वीरों की प्रतिमाएं स्थापित करवाने का आदेश दिया।
चित्तौड़ के बाद राजस्थान के सबसे शक्तिशाली किले रणथम्भौर का पतन हुआ। जोधपुर पहले ही जीता जा चुका था। इन विषयों के परिणामस्वरूप बीकानेर और जैसलमेर सहित अनेक राजपूत रियासतों ने अकबर के आगे समर्पण कर दिया। केवल मेवाड़ ही संघर्ष करता रहा।
गुजरात
बहादुरशाह की मृत्यु के पश्चात से गुजरात की स्थिति बहुत ख़राब थी। अपनी उपजाऊ भूमि, उन्नत शिल्प और बाहरी दुनिया के साथ आयात-निर्यात व्यापार का केन्द्र होने के कारण गुजरात महत्वपूर्ण बन चुका था। अकबर ने यह कहकर उस पर अपना अधिकार जताया कि हुमायूँ उस पर कुछ समय तक राज्य कर चुका था। एक और कारण दिल्ली के निकट मिर्ज़ाओं का विद्रोह में असफल होकर गुजरात में शरण लेना था। अकबर इस बात के लिए तैयार नहीं था कि गुजरात जैसा समृद्ध प्रदेश मुक़ाबले की शक्ति बन जाये। 1572 में अकबर अजमेर के रास्ते से अहमदाबाद की ओर बढ़ा। अहमदाबाद ने बिना लड़े समर्पण कर दिया। अकबर ने फिर मिर्ज़ाओं की ओर ध्यान दिया। जिन्होंने भड़ौंच, बड़ौदा और सूरत पर अधिकार किया हुआ था। खम्बात में अकबर ने पहली बार समुद्र के दर्शन किए और नाव में सैर की। पुर्तग़ालियों के एक दल ने पहली बार अकबर से आकर भेंट की। इस समय पुर्तग़ालियों का भारतीय समुद्रों पर पूर्ण अधिकार था और उनकी आकांक्षा भारत में साम्राज्य स्थापित करने की थी। अकबर की गुजरात विजय से उनकी आशाओं पर तुषारापात हो गया।
जब अकबर की सेनाओं ने सूरत पर घेरा डाला हुआ था, तभी अकबर ने राजा मानसिंह और आमेर के भगवानदास सहित 200 सैनिकों की छोटी सी टुकड़ी लेकर माही नदी को पार किया और मिर्ज़ाओं पर आक्रमण कर दिया। कुछ समय के लिए अकबर का जीवन ख़तरे में पड़ गया। लेकिन उसके आक्रमण की प्रचण्डता से मिर्ज़ाओं के पैर उखड़ गये। परन्तु, जैसे ही अकबर गुजरात से लौटा, यहाँ विद्रोह फूट पड़ा। यह सुनकर अकबर लौट पड़ा। उसने ऊँटों, घेड़ों और गाड़ियों में यात्रा करते हुए नौ दिन में सारा राजस्थान पार किया और ग्याहरवें दिन अहमदाबाद पहुँच गया। यह यात्रा सामान्यतः छः सप्ताहों में पूर्ण हो सकती थी। केवल, 3,000 सिपाही ही अकबर के साथ पहुँच पाये। इसी छोटी सी सेना की सहायता से उसने 30,000 सैनिकों की सेना को परास्त किया।
बंगाल
इसके पश्चात अकबर ने अपना ध्यान बंगाल की ओर लगाया। बंगाल के अफ़ग़ानों ने उड़ीसा को रौंद डाला था और उसके शासक को भी मार डाला था। लेकिन मुग़लों को नाराज होने का मौका न देने के लिए अफ़ग़ान शासक ने औपचारिक रूप से स्वयं को सुल्तान घोषित नहीं किया था, और अकबर के नाम का ख़ुत्वा पढ़ता रहा था। अफ़ग़ानों की आंतरिक लड़ाई और नये शासक दाऊदख़ाँ द्वारा स्वतंत्रता की घोषणा से अकबर को वह अवसर मिल गया, जिसकी उसे तलाश थी। अकबर अपने साथ एक मजबूत नौका बेड़ा लेकर आगे बढ़ा। ऐसा विश्वास किया जाता था अफ़ग़ान सुल्तान के पास बहुत बड़ी सेना है, जिसमें 40,000 सुसज्जित घुड़सवार, 1,50,000 पैदल सैनिक, कई हज़ार बन्दूक़ें और हाथी तथा युद्धक नावों का विशाल बेड़ा था। यदि अकबर सावधानी से काम न लेता और अफ़ग़ानों के पास बेहतर नेता होता, तो हो सकता है कि हुमायूँ और शेरशाह की ही पुनरावृत्ति होती। अकबर ने पहले पटना पर अधिकार किया और इस प्रकार बिहार में मुग़लों के लिए संचार के साधनों को सुरक्षित कर लिया। उसके बाद उसने एक अनुभवी अधिकारी ख़ान-ए-ख़ाना मुनीसख़ाँ को अभियान का नेता बनाया और स्वयं आगरा लौट गया। मुग़ल सेनाओं ने बंगाल पर आक्रमण किया और काफी संघर्ष के बाद दाऊदख़ाँ को शान्ति की संधि के लिए विवश कर दिया। उसने शीघ्र ही दुबारा विद्रोह किया। यद्यपि बिहार और बंगाल में में मुग़लों की स्थिति अभी कमज़ोर थी, यद्यपि उनकी सेनाएँ अधिक संगठित और बेहतर नेतृत्व वाली थीं। 1576 में बिहार में एक तगड़ी लड़ाई में दाऊदख़ाँ पराजित हुआ और उसे उसी समय मार डाला गया।
इस प्रकार उत्तर भारत से अफ़ग़ान शासन का पतन हुआ। इसी बीच अकबर के साम्राज्य विस्तार का पहला दौर भी समाप्त हुआ।