"सब आँखों के आँसू उजले -महादेवी वर्मा": अवतरणों में अंतर

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<poem>सब आँखों के आँसू उजले सबके सपनों में सत्‍य पला!
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सब आँखों के आँसू उजले  
सबके सपनों में सत्‍य पला!


जिसने उसको ज्‍वाला सौंपी
जिसने उसको ज्‍वाला सौंपी
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देता झर यह सौरभ बिखरा!
देता झर यह सौरभ बिखरा!


दोनों संगी, पथ एक किंतु कब दीप खीला कब फूल जला?
दोनों संगी, पथ एक, किंतु  
कब दीप खिला कब फूल जला?


वह अचल धरा को भेंट रहा
वह अचल धरा को भेंट रहा
शत-शत निर्झर में हो चंचल,
शत-शत निर्झर में हो चंचल,
चिर परिधि बना भू को घेरे
चिर परिधि बन भू को घेरे
इसका उर्मिल नित करूणा-जल
इसका उर्मिल नित करूणा-जल


कब सागर उर पाषाण हुआ, कब गिरि ने निर्मम तन बदला?
कब सागर उर पाषाण हुआ,  
कब गिरि ने निर्मम तन बदला?


नभ तारक-सा खंडित पुलकित
नभ तारक-सा खंडित पुलकित
यह क्षुर-धारा को चूम रहा,
यह क्षुद्र-धारा को चूम रहा,
वह अंगारों का मधु-रस पी
वह अंगारों का मधु-रस पी
केशर-किरणों-सा झुम रहा,
केशर-किरणों-सा झूम रहा,


अनमोल बना रहने को कब टूटा कंचन हीरक पिघला?
अनमोल बना रहने को  
कब टूटा कंचन हीरक पिघला?


नीलम मरकत के संपुट दो
नीलम मरकत के संपुट दो
जिमें बनता जीवन-मोती,
जिसमें बनता जीवन-मोती,
इसमें ढलते सब रंग-रुप
इसमें ढलते सब रंग-रुप
उसकी आभा स्‍पदन होती!
उसकी आभा स्‍पंदन होती!


जो नभ में विद्युत-मेघ बना वह रज में अंकुर हो निकला!
जो नभ में विद्युत-मेघ बना  
वह रज में अंकुर हो निकला!


संसृति के प्रति पग में मेरी
संसृति के प्रति पग में मेरी
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अपने साधों के क्षण गिन लो!
अपने साधों के क्षण गिन लो!


जलते खिलते जग में घुलमिल एकाकी प्राण चला!
जलते खिलते जग में  
घुलमिल एकाकी प्राण चला!


सपने सपने में सत्‍य ढला! </poem>
सपने सपने में सत्‍य ढला!  
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10:37, 20 अगस्त 2011 का अवतरण

सब आँखों के आँसू उजले -महादेवी वर्मा
महादेवी वर्मा
महादेवी वर्मा
कवि महादेवी वर्मा
जन्म 26 मार्च, 1907
जन्म स्थान फ़र्रुख़ाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 22 सितम्बर, 1987
मृत्यु स्थान प्रयाग, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'मेरा परिवार', 'स्मृति की रेखाएँ', 'पथ के साथी', 'शृंखला की कड़ियाँ', 'अतीत के चलचित्र', नीरजा, नीहार
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
महादेवी वर्मा की रचनाएँ

सब आँखों के आँसू उजले
सबके सपनों में सत्‍य पला!

जिसने उसको ज्‍वाला सौंपी
उसने इसमें मकरंद भरा,
आलोक लुटाता वह घुल-घुल
देता झर यह सौरभ बिखरा!

दोनों संगी, पथ एक, किंतु
कब दीप खिला कब फूल जला?

वह अचल धरा को भेंट रहा
शत-शत निर्झर में हो चंचल,
चिर परिधि बन भू को घेरे
इसका उर्मिल नित करूणा-जल

कब सागर उर पाषाण हुआ,
कब गिरि ने निर्मम तन बदला?

नभ तारक-सा खंडित पुलकित
यह क्षुद्र-धारा को चूम रहा,
वह अंगारों का मधु-रस पी
केशर-किरणों-सा झूम रहा,

अनमोल बना रहने को
कब टूटा कंचन हीरक पिघला?

नीलम मरकत के संपुट दो
जिसमें बनता जीवन-मोती,
इसमें ढलते सब रंग-रुप
उसकी आभा स्‍पंदन होती!

जो नभ में विद्युत-मेघ बना
वह रज में अंकुर हो निकला!

संसृति के प्रति पग में मेरी
साँसों का नव अंकन चुन लो,
मेरे बनने-मिटने में नित
अपने साधों के क्षण गिन लो!

जलते खिलते जग में
घुलमिल एकाकी प्राण चला!

सपने सपने में सत्‍य ढला!

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