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[[न्याय दर्शन]] में पाँचवाँ प्रमेय बुद्धि है। ‘बुद्धयते येनेति बुद्धि:’ जिसके द्वारा ज्ञान होता है- इस अर्थ में निष्पन्न ‘बुद्धि’ शब्द यद्यपि जीव के अन्त:करण अथवा मनस का वाचक हे। महर्षि गौतम ने बाद में इसी अर्थ में बुद्धिपद का प्रयोग किया है। तथापि प्रमेय के रूप में बुद्धि की चर्चा हे, वह आत्मा का प्रत्यक्ष आदि ज्ञानरूप है।<ref>न्यायसूत्र 1/1/15</ref> ज्ञानार्थक ‘बुध्’ धातु से भाव में क्तिन् प्रत्यय करने पर निष्पन्न बुद्धि पद ज्ञानरूप अर्थ का वाचक होता है। इसी को उपलब्धि भी कहते हैं। न्यायमत में बुद्धि, उपलब्धि और ज्ञान भिन्न पदार्थ नहीं हैं।
*[[न्याय दर्शन]] में पाँचवाँ [[प्रमेय -न्याय दर्शन|प्रमेय]] बुद्धि है। ‘बुद्धयते येनेति बुद्धि:’ जिसके द्वारा ज्ञान होता है- इस अर्थ में निष्पन्न ‘बुद्धि’ शब्द यद्यपि जीव के अन्त:करण अथवा मनस का वाचक हे।  
*[[महर्षि गौतम]] ने बाद में इसी अर्थ में बुद्धिपद का प्रयोग किया है। तथापि प्रमेय के रूप में बुद्धि की चर्चा हे, वह आत्मा का [[प्रत्यक्ष]] आदि ज्ञानरूप है।<ref>न्यायसूत्र 1/1/15</ref> ज्ञानार्थक ‘बुध्’ धातु से भाव में क्तिन् प्रत्यय करने पर निष्पन्न बुद्धि पद ज्ञानरूप अर्थ का वाचक होता है। इसी को उपलब्धि भी कहते हैं। न्यायमत में बुद्धि, उपलब्धि और ज्ञान भिन्न पदार्थ नहीं हैं।


   
   

12:41, 22 अगस्त 2011 के समय का अवतरण

  • न्याय दर्शन में पाँचवाँ प्रमेय बुद्धि है। ‘बुद्धयते येनेति बुद्धि:’ जिसके द्वारा ज्ञान होता है- इस अर्थ में निष्पन्न ‘बुद्धि’ शब्द यद्यपि जीव के अन्त:करण अथवा मनस का वाचक हे।
  • महर्षि गौतम ने बाद में इसी अर्थ में बुद्धिपद का प्रयोग किया है। तथापि प्रमेय के रूप में बुद्धि की चर्चा हे, वह आत्मा का प्रत्यक्ष आदि ज्ञानरूप है।[1] ज्ञानार्थक ‘बुध्’ धातु से भाव में क्तिन् प्रत्यय करने पर निष्पन्न बुद्धि पद ज्ञानरूप अर्थ का वाचक होता है। इसी को उपलब्धि भी कहते हैं। न्यायमत में बुद्धि, उपलब्धि और ज्ञान भिन्न पदार्थ नहीं हैं।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न्यायसूत्र 1/1/15

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