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[[न्याय दर्शन]] में दसवाँ प्रमेय है फल। इसके दो प्रकार हैं- मुख्य और गौण। जीव के सुख तथा दु:ख का भोग उसका मुख्य फल है और उस भोग का साधन देह तथा इन्द्रिय आदि गौण फल कहलाते हैं। जीव का फल किसी भी प्रकार का क्यों न हो, वह उसके पूर्वजन्मकृत धर्म और अधर्म से उत्पन्न होता है और वह धर्माधर्म उसके दोष से उत्पन्न होता है। फलत: धर्माधर्म रूप प्रवृत्ति और राग तथा द्वेष आदि से उत्पन्न पदार्थ मात्र ही जीव का फल कहलाता है।<ref>न्यायसूत्र 1/1/20</ref> दोष रूप जल से सिक्त आत्मरूप भूमि में धर्म और अधर्म रूप बीज सुख और दु:ख रूप फल को उत्पन्न करता है।  
*[[न्याय दर्शन]] में दसवाँ [[प्रमेय -न्याय दर्शन|प्रमेय]] है फल। इसके दो प्रकार हैं- मुख्य और गौण। जीव के सुख तथा दु:ख का भोग उसका मुख्य फल है और उस भोग का साधन देह तथा इन्द्रिय आदि गौण फल कहलाते हैं। जीव का फल किसी भी प्रकार का क्यों न हो, वह उसके पूर्वजन्मकृत धर्म और अधर्म से उत्पन्न होता है और वह धर्माधर्म उसके दोष से उत्पन्न होता है।  
* फलत: धर्माधर्म रूप प्रवृत्ति और राग तथा द्वेष आदि से उत्पन्न पदार्थ मात्र ही जीव का फल कहलाता है।<ref>न्यायसूत्र 1/1/20</ref> दोष रूप जल से सिक्त आत्मरूप भूमि में धर्म और अधर्म रूप बीज सुख और दु:ख रूप फल को उत्पन्न करता है।  


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12:44, 22 अगस्त 2011 के समय का अवतरण

  • न्याय दर्शन में दसवाँ प्रमेय है फल। इसके दो प्रकार हैं- मुख्य और गौण। जीव के सुख तथा दु:ख का भोग उसका मुख्य फल है और उस भोग का साधन देह तथा इन्द्रिय आदि गौण फल कहलाते हैं। जीव का फल किसी भी प्रकार का क्यों न हो, वह उसके पूर्वजन्मकृत धर्म और अधर्म से उत्पन्न होता है और वह धर्माधर्म उसके दोष से उत्पन्न होता है।
  • फलत: धर्माधर्म रूप प्रवृत्ति और राग तथा द्वेष आदि से उत्पन्न पदार्थ मात्र ही जीव का फल कहलाता है।[1] दोष रूप जल से सिक्त आत्मरूप भूमि में धर्म और अधर्म रूप बीज सुख और दु:ख रूप फल को उत्पन्न करता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न्यायसूत्र 1/1/20

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