"उत्तर कुरु": अवतरणों में अंतर
No edit summary |
No edit summary |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
[[रामायण|वाल्मीकि रामायण]] | [[रामायण|वाल्मीकि रामायण]]<ref> [[रामायण|वाल्मीकि रामायण]] किष्किंधा कांड, सर्ग 43</ref> में इस प्रदेश का सुन्दर वर्णन है। कुछ विद्वानों के मत में उत्तरी [[ध्रुव]] के निकटवर्ती प्रदेश को ही प्राचीन [[साहित्य]] में विशेषत: रामायण और [[महाभारत]] में उत्तर कुरु कहा गया है और यही [[आर्य|आर्यों]] की आदि भूमि थी। यह मत [[लोकमान्य तिलक]] ने अपने '''ओरियन''' नामक अंग्रेज़ी ग्रन्थ में प्रतिपादित किया था। [[वाल्मीकि]] ने जो वर्णन [[रामायण]]<ref> [[रामायण|वाल्मीकि रामायण]] किष्किंधा कांड, सर्ग</ref> में उत्तर कुरु प्रदेश का किया है उसके अनुसार उत्तर कुरु में शैलोदा नदी बहती थी और वहाँ मूल्यवान् [[रत्न]] और मणि उत्पन्न होते थे- | ||
<poem>'तमविक्रम्य शैलेन्द्रमुत्तर: पयसां निधि:, | <poem>'तमविक्रम्य शैलेन्द्रमुत्तर: पयसां निधि:, | ||
तत्र सोमगिरिर्नाम मध्ये हेममयो महान्। | तत्र सोमगिरिर्नाम मध्ये हेममयो महान्। | ||
सतुदेशो विसूर्योपि तस्य भासा प्रकाशते, | सतुदेशो विसूर्योपि तस्य भासा प्रकाशते, | ||
सूर्यलक्ष्याभिविज्ञेयस्तपतेव विवस्वता'।<ref>[[रामायण|वाल्मीकि रामायण]], किष्किंधा कांड, सर्ग 43, 53-54</ref></poem> | सूर्यलक्ष्याभिविज्ञेयस्तपतेव विवस्वता'।<ref>[[रामायण|वाल्मीकि रामायण]], किष्किंधा कांड, सर्ग 43, 53-54</ref></poem> | ||
अर्थात [[सुग्रीव]] वानरों की सेना को उत्तरदिशा में भेजते हुए कहता है कि 'वहाँ से आगे जाने पर उत्तम समुद्र मिलेगा जिसके बीच में सुवर्णमय सोमगिरि नामक पर्वत है। वह देश सूर्यहीन है किंतु [[सूर्य ग्रह|सूर्य]] के न रहने पर भी उस पर्वत के [[प्रकाश]] से सूर्य के प्रकाश के समान ही वहाँ उजाला रहता है।' सोमगिरि की प्रभा से प्रकाशित इस सूर्यहीन उत्तरदिशा में स्थित प्रदेश के वर्णन में उत्तरी नार्वे तथा अन्य उत्तरध्रुवीय देशों में दृश्यमान मेरुप्रभा या अरोरा बोरियालिस नामक अद्भुत दृश्य का काव्यमय उल्लेख हो सकता है जो वर्ष में छ: मास के लगभग सूर्य के [[क्षितिज]] के नीचे रहने के समय दिखाई देता है। इसी सर्ग के 56वें [[श्लोक]] में सुग्रीव ने वानरों से यह भी कहा कि उत्तर कुरु के आगे तुम लोग किसी प्रकार नहीं जा सकते और न अन्य प्राणियों की ही वहाँ गति है- | |||
<poem>'न कथचन गन्तव्यं कुरुणामुत्तरेण व:, | <poem>'न कथचन गन्तव्यं कुरुणामुत्तरेण व:, | ||
अन्येषामपि भूतानां नानुक्रामति वै गति:।'</poem> | अन्येषामपि भूतानां नानुक्रामति वै गति:।'</poem> | ||
[[सभा पर्व महाभारत|महाभारत सभा पर्व]] 31 में भी उत्तर कुरु को अगम्य देश माना है। [[अर्जुन]] उत्तर दिशा की विजय-यात्रा में उत्तर कुरु पहुँच कर उसे भी जीतने का प्रयास करने लगे- | [[सभा पर्व महाभारत|महाभारत सभा पर्व]]<ref> [[सभा पर्व महाभारत|महाभारत सभा पर्व]] 31</ref> में भी उत्तर कुरु को अगम्य देश माना है। [[अर्जुन]] उत्तर दिशा की विजय-यात्रा में उत्तर कुरु पहुँच कर उसे भी जीतने का प्रयास करने लगे- | ||
'उत्तरंकुरुवर्षं तु स समासाद्य पांडव:, | <poem>'उत्तरंकुरुवर्षं तु स समासाद्य पांडव:, | ||
इयेष जेतुं तं देशं पाकशासननन्दन:।'<ref>[[सभा पर्व महाभारत]] 31, 7</ref> | इयेष जेतुं तं देशं पाकशासननन्दन:।'<ref>[[सभा पर्व महाभारत]] 31, 7</ref></poem> | ||
इस पर अर्जुन के पास आकर बहुत से विशालकाय द्वारपालों ने कहा कि 'पार्थ; तुम इस स्थान को नहीं जीत सकते। यहाँ कोई जीतने योग्य वस्तु दिखाई नहीं पड़ती। यह उत्तर कुरु देश है। यहाँ युद्ध नहीं होता। कुंतीकुमार, इसके भीतर प्रवेश करके भी तुम यहाँ कुछ नहीं देख सकते क्योंकि [[मानव शरीर]] से यहाँ की कोई वस्तु नहीं देखी जा सकती'- | इस पर अर्जुन के पास आकर बहुत से विशालकाय द्वारपालों ने कहा कि 'पार्थ; तुम इस स्थान को नहीं जीत सकते। यहाँ कोई जीतने योग्य वस्तु दिखाई नहीं पड़ती। यह उत्तर कुरु देश है। यहाँ युद्ध नहीं होता। कुंतीकुमार, इसके भीतर प्रवेश करके भी तुम यहाँ कुछ नहीं देख सकते क्योंकि [[मानव शरीर]] से यहाँ की कोई वस्तु नहीं देखी जा सकती'- | ||
'न चात्र किंचिज्जेतव्यमर्जुनात्र प्रदृश्यते, | <poem>'न चात्र किंचिज्जेतव्यमर्जुनात्र प्रदृश्यते, | ||
उत्तरा: कुरुवो ह्येते नात्र युद्धं प्रवर्तते। | उत्तरा: कुरुवो ह्येते नात्र युद्धं प्रवर्तते। | ||
प्रविष्टोपि हि कौन्तेय नेह द्रक्ष्यसि कंचन, | प्रविष्टोपि हि कौन्तेय नेह द्रक्ष्यसि कंचन, | ||
न हि मानुषदेहेन शक्यमत्राभिवीक्षितुम्।'<ref>[[सभा पर्व महाभारत]] 31,11-12 ।</ref> | न हि मानुषदेहेन शक्यमत्राभिवीक्षितुम्।'<ref>[[सभा पर्व महाभारत]] 31,11-12 ।</ref></poem> | ||
यह बात भी उल्लेखनीय है कि [[ऐतरेय ब्राह्मण]] में उत्तर कुरु को [[हिमालय]] के पार माना गया है और उसे | यह बात भी उल्लेखनीय है कि [[ऐतरेय ब्राह्मण]] में उत्तर कुरु को [[हिमालय]] के पार माना गया है और उसे राज्यहीन देश बताया गया है- | ||
:'उत्तरकुरव: उत्तरमद्राइति वैराज्या यैव ते।'<ref>[[ऐतरेय ब्राह्मण]] 8, 14</ref> | :'उत्तरकुरव: उत्तरमद्राइति वैराज्या यैव ते।'<ref>[[ऐतरेय ब्राह्मण]] 8, 14</ref> | ||
[[हर्षचरित]] | [[हर्षचरित]]<ref> [[हर्षचरित]] तृतीय उच्छ्वास</ref>, में [[बाण]] ने उत्तर कुरु की कलकलनिनादिनी विशाल नदियों का वर्णन किया है। [[रामायण]] तथा [[महाभारत]] आदि ग्रन्थों के वर्णन से वह अवश्य ज्ञात होता है कि अतीतकाल में कुछ लोग अवश्य ही उत्तर कुरु- अर्थात उत्तरध्रुवीय प्रदेश में पहुँचे होंगे और इन वर्णनों में उन्हीं की कही कुछ सत्य और कुछ कल्पनारंजित रोचक कथाओं की छाया विद्यमान है। यदि तिलक का प्रतिपादित मत हमें ग्राह्य हो तो यह भी कहा जा सकता है कि इन वर्णनों में भारतीय आर्यों की उनके अपने आदि निवासस्थान की सुप्त जातीय स्मृतियाँ मुखरित हो उठी हैं।<ref>देखें उत्तरभद्र</ref> | ||
{{प्रचार}} | {{प्रचार}} |
13:13, 22 अगस्त 2011 का अवतरण
वाल्मीकि रामायण[1] में इस प्रदेश का सुन्दर वर्णन है। कुछ विद्वानों के मत में उत्तरी ध्रुव के निकटवर्ती प्रदेश को ही प्राचीन साहित्य में विशेषत: रामायण और महाभारत में उत्तर कुरु कहा गया है और यही आर्यों की आदि भूमि थी। यह मत लोकमान्य तिलक ने अपने ओरियन नामक अंग्रेज़ी ग्रन्थ में प्रतिपादित किया था। वाल्मीकि ने जो वर्णन रामायण[2] में उत्तर कुरु प्रदेश का किया है उसके अनुसार उत्तर कुरु में शैलोदा नदी बहती थी और वहाँ मूल्यवान् रत्न और मणि उत्पन्न होते थे-
'तमविक्रम्य शैलेन्द्रमुत्तर: पयसां निधि:,
तत्र सोमगिरिर्नाम मध्ये हेममयो महान्।
सतुदेशो विसूर्योपि तस्य भासा प्रकाशते,
सूर्यलक्ष्याभिविज्ञेयस्तपतेव विवस्वता'।[3]
अर्थात सुग्रीव वानरों की सेना को उत्तरदिशा में भेजते हुए कहता है कि 'वहाँ से आगे जाने पर उत्तम समुद्र मिलेगा जिसके बीच में सुवर्णमय सोमगिरि नामक पर्वत है। वह देश सूर्यहीन है किंतु सूर्य के न रहने पर भी उस पर्वत के प्रकाश से सूर्य के प्रकाश के समान ही वहाँ उजाला रहता है।' सोमगिरि की प्रभा से प्रकाशित इस सूर्यहीन उत्तरदिशा में स्थित प्रदेश के वर्णन में उत्तरी नार्वे तथा अन्य उत्तरध्रुवीय देशों में दृश्यमान मेरुप्रभा या अरोरा बोरियालिस नामक अद्भुत दृश्य का काव्यमय उल्लेख हो सकता है जो वर्ष में छ: मास के लगभग सूर्य के क्षितिज के नीचे रहने के समय दिखाई देता है। इसी सर्ग के 56वें श्लोक में सुग्रीव ने वानरों से यह भी कहा कि उत्तर कुरु के आगे तुम लोग किसी प्रकार नहीं जा सकते और न अन्य प्राणियों की ही वहाँ गति है-
'न कथचन गन्तव्यं कुरुणामुत्तरेण व:,
अन्येषामपि भूतानां नानुक्रामति वै गति:।'
महाभारत सभा पर्व[4] में भी उत्तर कुरु को अगम्य देश माना है। अर्जुन उत्तर दिशा की विजय-यात्रा में उत्तर कुरु पहुँच कर उसे भी जीतने का प्रयास करने लगे-
'उत्तरंकुरुवर्षं तु स समासाद्य पांडव:,
इयेष जेतुं तं देशं पाकशासननन्दन:।'[5]
इस पर अर्जुन के पास आकर बहुत से विशालकाय द्वारपालों ने कहा कि 'पार्थ; तुम इस स्थान को नहीं जीत सकते। यहाँ कोई जीतने योग्य वस्तु दिखाई नहीं पड़ती। यह उत्तर कुरु देश है। यहाँ युद्ध नहीं होता। कुंतीकुमार, इसके भीतर प्रवेश करके भी तुम यहाँ कुछ नहीं देख सकते क्योंकि मानव शरीर से यहाँ की कोई वस्तु नहीं देखी जा सकती'-
'न चात्र किंचिज्जेतव्यमर्जुनात्र प्रदृश्यते,
उत्तरा: कुरुवो ह्येते नात्र युद्धं प्रवर्तते।
प्रविष्टोपि हि कौन्तेय नेह द्रक्ष्यसि कंचन,
न हि मानुषदेहेन शक्यमत्राभिवीक्षितुम्।'[6]
यह बात भी उल्लेखनीय है कि ऐतरेय ब्राह्मण में उत्तर कुरु को हिमालय के पार माना गया है और उसे राज्यहीन देश बताया गया है-
- 'उत्तरकुरव: उत्तरमद्राइति वैराज्या यैव ते।'[7]
हर्षचरित[8], में बाण ने उत्तर कुरु की कलकलनिनादिनी विशाल नदियों का वर्णन किया है। रामायण तथा महाभारत आदि ग्रन्थों के वर्णन से वह अवश्य ज्ञात होता है कि अतीतकाल में कुछ लोग अवश्य ही उत्तर कुरु- अर्थात उत्तरध्रुवीय प्रदेश में पहुँचे होंगे और इन वर्णनों में उन्हीं की कही कुछ सत्य और कुछ कल्पनारंजित रोचक कथाओं की छाया विद्यमान है। यदि तिलक का प्रतिपादित मत हमें ग्राह्य हो तो यह भी कहा जा सकता है कि इन वर्णनों में भारतीय आर्यों की उनके अपने आदि निवासस्थान की सुप्त जातीय स्मृतियाँ मुखरित हो उठी हैं।[9]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वाल्मीकि रामायण किष्किंधा कांड, सर्ग 43
- ↑ वाल्मीकि रामायण किष्किंधा कांड, सर्ग
- ↑ वाल्मीकि रामायण, किष्किंधा कांड, सर्ग 43, 53-54
- ↑ महाभारत सभा पर्व 31
- ↑ सभा पर्व महाभारत 31, 7
- ↑ सभा पर्व महाभारत 31,11-12 ।
- ↑ ऐतरेय ब्राह्मण 8, 14
- ↑ हर्षचरित तृतीय उच्छ्वास
- ↑ देखें उत्तरभद्र
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख